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अमरप्रीत सिंह

(मछली पालन)
अमरप्रीत सिंह जी चमकौर साहिब के एक सफल किसान हैं। जिन्होंने अपने 28 एकड़ खेत में एकीकृत खेती अपनाकर किसानों के बीच क्रांति लाने का बीड़ा उठाया है, उन्होंने अपने बड़ों से प्रेरणा लेकर और अपनी बुद्धिमत्ता से, भूमि की क्षमता को बढ़ाने और उसके भविष्य को सुरक्षित करने के लिए नई तकनीकों का उपयोग किया है।

परिवर्तन को अपनाना: अमरप्रीत सिंह जी की कृषि में यात्रा 2010 में शुरू हुई, जब उन्होंने एचडीएफसी बैंक में सहायक प्रबंधक की अपनी नौकरी छोड़ दी। उनके पिता जी ने मछली पालन का काम शुरू किया, लेकिन अमरप्रीत का ध्यान एकीकृत खेती पर था। उन्होंने एम.बी.ए डिग्री से आधुनिक व्यावसायिक कौशल को बड़ों के ज्ञान के साथ जोड़ा, ताकि एक समृद्ध और टिकाऊ योजना तैयार की जा सके।

अमरप्रीत जी ने 21 एकड़ के फार्म में मछली पालन शुरू किया। उन्होंने आसपास के विक्रेताओं के साथ सहयोग किया, ताकि उन्हें मार्केटिंग के बारे में चिंता ना करनी पड़े। मांस विक्रेताओं के साथ साझेदारी करके, उन्होंने अपनी मछली के लिए एक स्थिर बाज़ार सुनिश्चित किया। मछली पालन विभाग, रोपड़ से प्राप्त तकनीकी विशेषज्ञता ने उन्हें मछली पालन में बहुत मदद की। पंजाब सरकार द्वारा सिफारिश की हुई पांच अलग-अलग नसले गोल्डन या कॉमन कार्प मछली, रोहू मछली, ग्रास कार्प मछली, कैटला मछली और मृगल एफआईएस का पालन किया गया, जिससे मछली का निरंतर और उच्च गुणवत्ता वाला उत्पादन हुआ। मछली पालन का प्रबंधन करना आसान नहीं है। अमरप्रीत सिंह जी बाजार की मांग के अनुसार मछली पालते हैं। पंजाब सरकार द्वारा प्रदान की जाने वाली सब्सिडी के साथ, मछली पालन एक व्यवहार्य उद्यम बन जाता है। अमरप्रीत सिंह जी ने मछली पालन में भूमिगत पाइपलाइनों और उन्नत जाल प्रणाली का उपयोग किया है, जो पर्यावरण में योगदान देता है।

सुअर पालन: अमरप्रीत सिंह जी सुअर पालन का भी काम करते हैं, जिसमें वह मुख्य रूप से सुअरों की नस्ल सुधार पर काम करते हैं। औसतन एक मादा सुअर 10 बच्चों को जन्म देती है। अब उनके फार्म पर 63 सूअर हैं। जिनका औसत वजन 60 से 65 किलोग्राम के बीच होता है। उनके पास तीन मुख्य प्रकार की फ़ीड विधियाँ हैं – व्यावसायिक फ़ीड, घर पर बनाई फ़ीड या बचे खुचे उत्पादों से तैयार फ़ीड। अमरजीत सिंह जी व्यावसायिक फ़ीड का उपयोग करते हैं, क्योंकि इसमें सभी आवश्यक तत्व होते हैं और इसके उपयोग से उनका आकार बढ़ जाता है। उनके मुताबिक, अगर वे हर बार औसतन 10 बच्चे पैदा करें तो उनका वजन दोगुना हो जाता है। यहां सूअर भी बेचे जाते हैं. ग्राहक खरीदने से पहले इनका वजन करते हैं, जो औसतन 80 – 85 किलोग्राम होता है। बेचने की प्रक्रिया में किसान को नकद राशि प्राप्त होती है। कभी-कभी कुछ कारणों से बिक्री प्रभावित होती है, जैसे अफ्रीकन स्वाइन फ्लू लेकिन कुछ समय बाद यह सामान्य हो जाता है।

बकरी पालन: अमरप्रीत सिंह की कृषि यात्रा लगातार विकसित हो रही है क्योंकि वह बीटल नस्ल की बकरियां पालते हैं, जिसकी सिफारिश पंजाब सरकार ने की है। उन्होंने बकरी पालन में काफी विकास देखा। यह वृद्धि मुख्य रूप से गर्भवती बकरियों की देखभाल के कारण हुई, जिससे लगभग 20 बकरियों की सूची में वृद्धि हुई। विभिन्न कृषि व्यवसायों में सफलता प्राप्त करने के बाद, अमरप्रीत सिंह ने बत्तख पालन शुरू किया। अपने मछली पालन व्यवसाय में लाभ को देखते हुए, उन्होंने बत्तखों का व्यवसाय शुरू किया ताकि वह एकीकृत खेती को बढ़ा सके।

बढ़ती विविधता: अमरप्रीत सिंह जी ने मछली और सुअर पालन के साथ-साथ बकरी पालन भी शुरू किया। वे अपने खेतों में अनाज के साथ-साथ दालें, मक्का और हल्दी जैसी फसलें भी उगाते थे। उन्होंने अपनी भूमि का उपयोग इस प्रकार किया है कि वे विभिन्न गतिविधियों के माध्यम से लाभ कमा सकें।

भविष्य की योजनाएं: अमरप्रीत सिंह जी बत्तख पालन को और अधिक विकसित करना चाहते हैं ताकि एक और बड़ा उद्यम उन्हें अपने वर्तमान कार्यों को पूरा करने में मदद कर सके। उनकी रुचि और परिश्रम को मुख्यमंत्री ने सम्मानित किया है।

परिवार, शिक्षा और सलाह: अमरप्रीत सिंह जी का परिवार उनका पूरा समर्थन करता है, यही कारण है कि उनका काम इतनी आसानी से चल रहा है। वे लोगों को प्रोत्साहित करते हैं, ताकि लोग कृषि के साथ-साथ विभिन्न व्यवसायों से परिचित हो सकें और उनसे लाभ उठा सकें।

निष्कर्ष: अमरप्रीत सिंह जी की यह कहानी एक अच्छा उदाहरण है, कि प्राचीन कृषि नई पीढ़ी को इसके बारे में जागरूक करवाती है, कि हम इसके साथ विभिन्न व्यवसाय कर सकते हैं। और हम अपनी जगह का अधिकतम उपयोग कैसे कर सकते है। साथ ही वह नई पीढ़ी को उदाहरण भी दे रहे हैं कि इसका बेहतर इस्तेमाल कैसे किया जाए, साथ ही वह धरती पर इसकी पैदावार के लिए नई कोशिश भी कर रहे है।
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मोहम्मद गफूर

(सब्जियों की खेती)

1 बीघा ज़मीन से शुरू करके 65 एकड़ ज़मीन तक का खेती सफरमोहम्मद गफूर

पंजाब के नामी शहर पटियाला के एक बहुत ही प्रतिभाशाली किसान मोहम्मद गफूर, जो अपनी कड़ी मेहनत से खुद का खेती व्यवसाय स्थापित करने में सफल हुए। केवल 1 बीघा ज़मीन से शुरुआत करके, उन्होंने अब अपने खेती व्यवसाय को 65 एकड़ तक बढ़ा लिया है। आज, गफूर जी खेती की बारीकियों में विशेषज्ञ हैं, और अपने दृढ़ संकल्प और अटूट भावना के माध्यम से उल्लेखनीय सफलता प्राप्त कर रहे हैं।

मलेरकोटला शहर के रहने वाले मोहम्मद गफूर के पिता की 1983 में अचानक ही मृत्यु हो गई और परिवार की पूरी जिम्मेदारी का बोझ गफूर के युवा कंधो पर गया। जिस वजह से उन्हें अपनी पढ़ाई बीच में ही छोड़नी पड़ी और अपने परिवार का पालनपोषण करने का रास्ता खोजना पड़ा। सब्जियों की एक छोटी नर्सरी से गफूर के कृषि सफर की शुरूआत हुई। जल्दी ही उन्हें यह एहसास हुआ कि शायद यही वो रास्ता है जिस पर चलकर वे अपनी सभी जिम्मेदारियां पूरी कर सकते हैं।

खेती में गफूर जी की उन्नति असाधारण थी। 1992 में उन्हें खालसा कॉलेज की 6 से 7 एकड़ ज़मीन ठेके पर लेने का मौका मिला, जो उनके कृषि सफर के लिए बहुत लाभदायक सिद्ध हुआ। वर्ष 2000 में, गफूर ने अपनी खेती के काम को 20 एकड़ तक बढ़ाया और 2004 तक, उन्होंने अपनी ज़मीन बढ़ाकर 31 एकड़ कर ली। अपनी अपार मेहनत और प्रयासों से उन्हें बहुत अच्छे परिणाम मिले और 2017 में उनकी ज़मीन 41 एकड़ से बढ़कर 65 एकड़ हो गई और आज वे गर्व से गर्व सेठेके पर ली गई 65 एकड़ ज़मीन पर खेती करते हैं।

खेती की समस्याओं को अनुभव के माध्यम से समझने की योग्यता गफूर को दूसरों से अलग करती है। उन्हें किसी भी कृषि संस्थान से कोई औपचारिक ट्रेनिंग या मार्गदर्शन नहीं मिला। समय के साथ, उन्होंने खेती की कला में महारत हासिल कर ली और विभिन्न कृषि तकनीकों में निपुण हो गए। गफूर की सफलता, खेती में उनके अनुभव और अथक मेहनत का परिणाम है।

पूरे वर्षों में, गफूर ने उत्पादन बढ़ाने विभिन्न फसलों और सिंचाई तकनीकों का प्रयोग किया। शुरूआती दिनों में वे संगरूर नेहरू मार्केट और मोगा में काम करते थे जहां पर वे पनीरी बेचते थे। 1991 में वे राजपुरा गए और अंतत: पटियाला में बस गए। इसी समय के दौरान गफूर ने मल्चिंग सिंचाई ढंग का उपयोग करना शुरू किया, जिसका उपयोग वह पिछले 5 वर्षों से कर रहे हैं। इसके अलावा, वह अपनी 15 एकड़ ज़मीन पर ड्रिप प्रणाली का उपयोग करते हैं और इस पहल के लिए उन्हें पटियाला के अधिकारियों और केंद्र सरकार दोनों की तरफ से सब्सिडी भी मिलती है।

गफूर की विशेषज्ञता केवल खेती तक बल्कि फसल योजना तक भी फैली हुई है। गफूर जी ने सब्जियों के लिए 15 एकड़, गेहूं के लिए 5 एकड़ और धान के लिए 25 एकड़ जमीन आरक्षित रखी है। खेती में अधिक ज्ञान होने के कारण उन्हें साथी किसानों से सम्मान मिला, जो अक्सर उनकी सलाह और सहायता चाहते हैं। गफूर जी दूसरे किसानों की सब्जी की खेती करने में मदद करते हैं और दवाओं और स्प्रे के नामों के बारे में मार्गदर्शन करते रहते हैं।

मोहम्मद गफूर के परिवार ने उनके कृषि के सफर में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है। उनके तीन भाई सक्रिय रूप से खेती में लगे हुए हैं, और बाकी भाईबहनों ने बीज की दुकानें स्थापित की हैं। 2000 में, गफूर एक आर्मी के सब्जी ठेकेदार बन गए और उन्हें अपनी 10 एकड़ की उपज बेचनी शुरू कर दी। यह समझौता जारी है और इससे दोनों पक्षों को लाभ होता है। भविष्य में गफूर जब तक संभव हो खुद खेती करना चाहते हैं। वर्तमान में, उनके बच्चे अपने खुद के सफल व्यवसायों में शामिल हैं और सीधे तौर पर खेती से जुड़े हुए नहीं हैं।

गफूर की खेती के प्रयास लाभदायक रहे। अनुबंधित ज़मीन पर गेहूं और धान की खेती से प्रति एकड़ लगभग 10,000 से 15,000 रुपये की कमाई होती है। सब्जियों की खेती से और भी अधिक 50,000 से 100,000 रुपये प्रति एकड़ मुनाफा कमाने की क्षमता है। हालांकि, गफूर सिर्फ इन आंकड़ों पर निर्भर रहने के महत्व पर जोर देते हैं, क्योंकि बाजार दरों में उतारचढ़ाव होता रहता है। वह किसानों को सलाह देते हैं कि वे अपने निवेश पर सावधानीपूर्वक विचार करें और छोटे पैमाने से शुरुआत करें, धीरेधीरे अपना काम बढ़ाएं।

खेती में मदद के लिए, गफूर सीज़न के दौरान 40 से 50 श्रमिकों को रोज़गार देते हैं। जैसेजैसे सीज़न ख़त्म होता है, संख्या घटकर लगभग 20 हो जाती है। गफूर अपने फार्म के प्रति समर्पित है और भविष्य में रिटायर होने की उनकी कोई योजना नहीं है। वह विनम्र और ज़मीन से जुड़े रहना चाहते हैं और इसके लिए किसी भी पुरस्कार को स्वीकार नहीं करना चाहते। गफूर का खेती से प्रेम, त्याग और कड़ी मेहनत पूरे क्षेत्र के किसानों को प्रेरित करती है। गफूर की विरासत निस्संदेह किसानों की नई पीढ़ी को चुनौतियों का सामना करने और कृषि के क्षेत्र में मौजूद संभावनाओं को अपनाने के लिए प्रेरित करेगी।

किसानों को संदेश

साथी किसानों के लिए गफूर जी का संदेश स्पष्ट है: केवल दूसरों पर निर्भर रहें, छोटी शुरुआत करें, अनुभव हासिल करें और लगातार बढ़ते रहें।

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करमजीत सिंह

(गुड़ उत्पादन)

बब्बनपुर में गुड़ उत्पादन को पुनर्जीवित करके किसानों के लिए बना एक मिसाल: करमजीत सिंह

करमजीत सिंह उत्तर भारत के मध्य में स्थित गांव बब्बनपुर के निवासी हैं जो अपने समर्पण, नवीनता (इनोवेशन) और गुणवत्ता के माध्यम से गुड़ उत्पादन और बिक्री में क्रांति लेकर आए। गन्ने की खेती के पारिवारिक विरासत को करमजीत जी एक नई ऊंचाइयों तक ले गए और उन्होंने गुड़ के नए-नए उत्पाद तैयार किये और जिसके बाद सीमाओं के पार भी अपने उत्पाद पहुंचाए। आज करमजीत न केवल निर्यात में उत्तम होने की इच्छा रखते हैं, बल्कि पंजाबी व्यंजनों को बढ़ावा देने का भी सपना देखते हैं। उनकी सफलता की कहानी साथी किसानों के लिए प्रेरणा और मार्गदर्शक का काम करती है।

करमजीत सिंह का गुड़ उत्पादन एक लाभदायक व्यवसाय साबित हुआ है क्योंकि मंडियों में पारंपरिक फसल की बिक्री के मुकाबले उनके द्वारा तैयार किये गए उत्पाद में अधिक मुनाफा प्राप्त हुआ। एक स्टैंडर्ड सेट-अप स्थापित करने के लिए लगभग 18 लाख रुपये की आवश्यकता होती है। करमजीत ने दृढ़ संकल्प और सावधानीपूर्वक योजना के तहत 25 से 30 एकड़ में गन्ने की खेती करनी शुरू की और अपनी पूरी फसल को गुड़ उत्पादन करने में समर्पित किया। फसल को मिल में भेजने के बजाय, वह सभी कच्चे माल को अपने प्रोसेसिंग यूनिट में भेजते हैं, जिससे उत्पादों और गुणवत्ता पर पूर्ण नियंत्रण होता है।

करमजीत सिंह ने पारंपरिक फसल की बिक्री की तुलना में गुड़ उत्पादन से अधिक मुनाफा प्राप्त किया। उनके गुड़ और उससे बने उत्पादों की मांग की वृद्धि ने उनकी कुल कमाई में 40% का इज़ाफ़ा किया। इस उघमी बदलाव ने न केवल उनकी आर्थिक स्थिति को ऊपर उठाया है बल्कि क्षेत्र के अन्य किसानों के लिए भी एक उदाहरण स्थापित की। कृषि के क्षेत्र में करमजीत जी की सफलता की कहानी विविधता और मूल्यवर्धन की क्षमता को दर्शाती है।

करमजीत जी के द्वारा गुड़ उत्पादन को प्राथमिकता देने और आवश्यक बुनियादी चीज़ों में निवेश करने का निर्णय उनके लिए फलदायी साबित हुआ। मंडियों में कच्चा गन्ना बेचने से मिलने वाले अनिश्चित आमदन पर भरोसा करने की बजाए, उन्होंने लाभदायक गुड़ उत्पादन और उसके विभिन्न स्वादों के लिए लाभदायक बाजार में कदम रखा । उनके इस कदम ने न केवल बेहतर वित्तीय स्थिरता सुनिश्चित की, बल्कि करमजीत को उद्योग में अपनी पहचान स्थापित करने में भी सक्षम बनाया।

गुड़ उत्पादन के कार्य में करमजीत जी का सफर उनके दादा के साथ शुरू हुआ, जिन्होंने गन्ने की खेती शुरू की और पंजाब खेतीबाड़ी यूनिवर्सिटी, लुधियाना से कई प्रशंसाएं हासिल कीं। दादा जी की उपलब्धियों से प्रेरित होकर, करमजीत के पिता जी ने 11 साल पहले गन्ने के लिए प्रोसेसिंग यूनिट की स्थापना की, जिसने करमजीत के भविष्य में करने वाले उद्यम की नींव रखी गई।

करमजीत जी ने अपने ज्ञान और कौशल को बढ़ाने के लिए कृषि विज्ञान केंद्र से ट्रेनिंग ली और पी.ए.यू. से मार्गदर्शन प्राप्त किया। अपनी नई विशेषज्ञता का उपयोग करते हुए, उन्होंने अपने गुड़ उत्पादन में पंद्रह तरह के फ्लेवर पेश किए। शुरुआत में, करमजीत जी को अपने गांव के लोगों के विरोध का सामना करना पड़ा, लेकिन अपनी लगन और उत्पादों की उच्च गुणवत्ता, अपग्रेड मशीनरी के साथ करमजीत जी ने धीरे-धीरे गाँव वालों का दिल जीत लिया। आज गांव के लोग न केवल उनके उत्पादों की सराहना करते हैं बल्कि उनकी उपलब्धियों पर भी गर्व करते हैं।

मार्केटिंग पर ध्यान केंद्रित करने के साथ-साथ करमजीत ने सोशल मीडिया प्लेटफार्मों को अपनाया और किसान मेलों में हिस्सा लिया, जो व्यवसाय में उनका नाम स्थापित करने में सहायक साबित हुआ। इन इवेंट के माध्यम से उन्होंने अपने द्वारा पेश किए गए विभिन्न प्रकार के फ्लेवर को प्रदर्शित किया, जिससे दूर-दूर से आये ग्राहक आकर्षित हुए। उनके गुड़ उत्पादों को अंतर्राष्ट्रीय मार्किट में भी जगह मिली, जो उनकी उद्यमशीलता यात्रा में एक महत्वपूर्ण मील का पत्थर साबित हुआ।

करमजीत सिंह ने गुड़ उत्पादन में बेमिसाल सफलताएं हासिल की। खेतबाड़ी के क्षेत्र में अपने ज्ञान और समर्पण की वजह से अनेकों पुरस्कार प्राप्त किए, जिससे उन्हें पंजाब डेयरी फार्मर्स एसोसिएशन (पीडीएफए) में शामिल होने का अवसर मिला। 2019 में, करमजीत जी के शानदार प्रयासों से उन्हें पंजाब खेतीबाड़ी यूनीवर्सिटी से पहला पुरस्कार प्राप्त हुआ। इसके अलावा, खेती के तरीकों में उनके अनुभवों ने उन्हें मुख्यमंत्री द्वारा सम्मानित शीर्ष पांच किसानों में शामिल किया। उनकी प्रतिभा को नैशनल डेयरी रिसर्च इंस्टीट्यूट (एनडीआरआई) करनाल से पुरस्कार से भी मान्यता मिली।

करमजीत के आगे बढ़ने का काम डेयरी फार्मिंग पर ही नहीं रुका। कृषि के लिए उनके जुनून ने उन्हें अपने प्रयासों में विविधता लाने के लिए प्रेरित किया। गन्ने की खेती के अलावा, वह अपनी 25 एकड़ ज़मीन पर मक्का और कपास की खेती करते हैं। करमजीत ने अपने गन्ना उत्पादन के उप-उत्पादों को एक मूल्यवान स्रोत के रूप में उपयोग किया। इसके अपशिष्ट का भी दोहरे उद्देश्य से प्रयोग किया जाता है, इसका उपयोग नवीकरणीय ईंधन स्रोत और पोषक तत्वों से भरपूर जैविक उर्वरक दोनों के रूप में किया जाता है। करमजीत सिंह जी ने डेयरी फार्मिंग में प्रशंसा पत्र भी हासिल किए हैं। वर्तमान में, उनके पशु पालन में उनके पास पाँच गाय और पाँच भैंस हैं, जो उनके बढ़ते कृषि उद्योग में योगदान देती हैं।

करमजीत को कार्य करते समय अनेकों चुनौतियों का सामना करना पड़ा। उत्पादों की गुणवत्ता बनाए रखने के लिए निरंतरता और उत्कृष्टता सुनिश्चित करने के लिए श्रम की कड़ी निगरानी की आवश्यकता होती है। इसके अतिरिक्त, सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म पर अपने उत्पादों की प्रभावी ढंग से मार्केटिंग करने के लिए रचनात्मक योजना और निरंतर जुड़ाव की आवश्यकता होती है। हालाँकि, दृढ़ता और दृढ़ संकल्प के साथ, करमजीत ने इन बाधाओं को पार किया और बाजार में मजबूत पकड़ बनाई।

करमजीत की सफलता उनके संयुक्त परिवार के अटूट सहयोग के बिना संभव नहीं थी। उनकी दृष्टि, समर्पण और परिवार के विश्वास ने उनके सफर को बढ़ावा दिया है। इसके अलावा, करमजीत के बच्चों ने भी उनके काम में काफी रुचि दिखाई है, जिससे उनके उज्ज्वल भविष्य का मार्ग साफ़ हुआ है।

करमजीत जी का लक्ष्य अपने निर्यात व्यवसाय का बढ़ाने और प्रामाणिक पंजाबी व्यंजनों को बढ़ावा देने पर ध्यान केंद्रित करना है, जिसमें मक्की की रोटी, सरसों का साग और मक्खन आदि शामिल हैं। वह अपने क्षेत्र के समृद्ध स्वादों को उजागर करते हुए उन्हें दुनिया के हर कोने में ले जाने की कल्पना करते हैं। इसके अलावा, करमजीत अपनी अधिक ज़मीन पर मक्की और कपास की खेती करते हुए विविध खेती अभ्यासों में शामिल होते रहना चाहते हैं।

किसानों के लिए संदेश

करमजीत जी गुड़ उत्पादन में उद्यम करने की इच्छा रखने वाले लोगों का मार्गदर्शन करने की इच्छा रखते हैं। वह किसानों से शुरूआती उत्पादन स्थापित करने से लेकर अंतिम उत्पादों के मंडीकरण तक, अपने कार्यों को बारीकी से जानने के लिए प्रेरित करते हैं। करमजीत का मानना है कि कृषि समुदाय की वृद्धि और समृद्धि के लिए ज्ञान और अनुभव सांझा करना महत्वपूर्ण है।

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गुरविंदर सिंह

(RAS मछली पालन)

मछली पालन के व्यवसाय में नवीनता की मिसाल- गुरविंदर सिंह

गुरविंदर सिंह जी दसुआ, जिला होशियारपुर के निवासी हैं जो कृषि के क्षेत्र में एक इन्नोवेटर के तौरपर उभर कर आये। उन्होंने मधुमक्खी पालन में अपना सफर तीन साल पहले 30 बक्सों के साथ शुरू किया था और आज वह 300 बक्सों के साथ मधुमक्खी पालन कर रहे हैं। अपने दोस्तों से प्रेरित होकर और उनके द्वारा दी गई ट्रेनिंग के साथ गुरविंदर जी अब स्थानीय दुकानों और बाजारों में शहद बेचते हैं।

विविधीकरण की क्षमता को पहचानते हुए, गुरविंदर जी ने मछली पालन का व्यवसाय शुरू किया, जिसमें उन्होनें RAS तकनीक का प्रयोग किया। उनके फार्म पर 15 टैंक हैं, जिनमें से प्रत्येक का व्यास 4 फीट और गहराई 4.5 फीट हैइसके एक टैंक में 7000 मछलियां रख सकते हैं। अच्छी फीड देने और बढ़िया रख-रखाव से मछलियां 5-6 महीने में बिक्री के लिए तैयार हो जाती हैं, जिससे प्रति टैंक से 70,000 रूपये तक का लाभ मिलता है।

गुरविंदर जी की सफलता का श्रेय उनके दृष्टिकोण और निरंतर सीखते रहने की इच्छा रखने को दिया जा सकता है। उन्होंने हरियाणा के एक सरकारी केंद्र से 5-दिनों की ट्रेनिंग ली और इस विषय में अन्य जानकारी प्राप्त करने के लिए ऑनलाइन रिसर्च की। विशेष रूप से, उन्होंने Vietnamese और सिंघी नस्ल की मछली से काम शुरू किया, जो रोगों के प्रति कम संवेदनशीलता होती है।

गुरविंदर जी के खेती का कार्य कम मजदूरों से संपूर्ण हो जाता है। एक व्यक्ति मधुमक्खी पालन का प्रबंधन कर सकता है, और मछलियों का व्यापार सीधे खरीदारों के साथ या लुधियाना में मंडी के माध्यम से किया जा सकता है। अनुकूल स्थितियों को बनाए रखने के लिए, फार्म में छत को इस तरह से डिज़ाइन किया गया है जो पूरे साल तापमान को नियंत्रित करने में मदद करता है। सर्दियों में, टैंकों को पूरी तरह से ढक दिया जाता है, जबकि गर्मियों में, हरे रंग के नेट का उपयोग किया जाता है, जो RAS सिस्टम फिल्टर द्वारा पूरक होता है। सही नियंत्रण सुनिश्चित करने के लिए तापमान की जाँच करने वाले मीटर भी लगाए गए हैं।

गुरविंदर सिंह की सफलता की कहानी स्थाई और लाभदायक खेती अभ्यासों की समर्था को प्रदर्शित करती है। अपनी उत्सुकता और परिवार के समर्थन से, उन्होंने अपने छोटे व्यवसाय को एक बड़े व्यापार उद्यमों में बदल दिया है। इच्छुक किसान उनके अनुभवों से सीख सकते हैं और नवीन दृष्टिकोणों को अपनाकर और घर के पास उपलब्ध अवसरों का लाभ उठाकर कृषि में बदलाव लाने का प्रयास कर सकते हैं।

किसानों को संदेश

गुरविंदर सिंह की उपलब्धियां उनके साथी किसानों के लिए एक प्रेरणा हैं। वह साथी किसानों को अपने आस-पास मौजूदा अवसरों को पहचानने के लिए प्रोत्साहित करते हैं। वह उनके द्वारा किये जाने वाले कार्यों में रुचि रखने वाले किसानों को फ्री में ट्रेनिंग देकर अपना समर्थन देते हैं। 

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चमकौर सिंह

(टमाटर फार्मिंग)

खेती में सफलता: खेती और कॉन्ट्रैक्ट फार्मिंग में चमकौर सिंह का सफर

पंजाब के एक छोटे से गाँव ‘इना बाजा’ में रहने वाले चमकौर सिंह जिनका कृषि के क्षेत्र में बहुत नाम है। खेती में समर्पित होने वाले चमकौर सिंह जी ने एक छोटे स्तर से शुरुआत की और आज उनका बहुत नाम हैं। वह विभिन्न प्रकार की फसलें उगाते हैं और पचास व्यक्तियों को रोजगार प्रदान कर रहे हैं।

चमकौर जी का सफर 1991 में शुरू हुआ, जब उन्होंने खेती की दुनिया में अपना पहला कदम रखा। अपने मित्र के भरपूर खेतों से प्रेरित होकर, उन्होंने खेती में आने वाली समसयाओं को हल करने के बारे में सीखा। जिसके चलते उन्होंने किसी यूनिवर्सिटी से जानकारी प्राप्त की, जिसने उन्हें कृषि उद्यम को शुरू करने के लिए आवश्यक चीजों के बारे में बताया।

चमकौर सिंह जी ने 2 कनाल जमीन में आलू की खेती से शुरुआत की। इस प्रयास में मिली सफलता ने उन्हें आगे बढ़ने के लिए प्रेरित किया, जिससे उन्होंने अपने व्यवसाय को दो एकड़ जमीन तक बढ़ाया। समय के साथ, उन्होंने टमाटर, कपास, धान, गेहूं, शिमला मिर्च और फूलगोभी जैसी अलग-अलग फसलें उगाई। उनका व्यवसाय तेज़ी से ऊपर उठता गया जो आज पचास एकड़ जमीन में फैला हुआ है।

चमकौर सिंह जी 25 एकड़ जमीन पर टमाटर की ही खेती करते हैं। अपनी फसल की बढ़िया उपज को देखते हुए क्रेमिका (Cremica) कंपनी के साथ सांझेदारी की। हर दिन, ताज़े टमाटरों से लदे दो ट्रक उनके खेत से निकलते हैं ताकि क्रेमिका (Cremica) के ग्राहकों की मांगों को पूरा किया जा सके । टमाटर की खेती में अपनी माहिरता बढ़ाने के लिए, चमकौर सिंह जी ने हिसार में बलविंदर सिंह भालिमंसा जी से टमाटर बीज के चयन और प्रबंधन के बारे में ट्रेनिंग ली।

चमकौर जी की कड़ी मेहनत और लगन किसी से भी छुपी नहीं रही। 2008 में, उन्हें कृषि में उनके उत्कृष्ट योगदान के लिए पंजाब के मुख्यमंत्री द्वारा पुरस्कार से सम्मानित किया गया था। फसल में रोगों और उसके प्रबंधन में उनकी माहिरता ने उन्हें निजी कंपनियों के लिए एक भरोसेयोग्य स्रोत बना दिया है, जो अक्सर अपने नए कृषि उत्पादों के प्रदर्शन के लिए उनके खेतों को चुनते हैं। अपनी उपलब्धियों के बावजूद, चमकौर जी मंच पर कम ही बोलते हैं, पर वहां उनका काम बोलता है।

अपनी उपलब्धियों के अलावा, चमकौर बागवानी विभाग से विभिन्न सब्सिडी का लाभ ले रहे हैं। इन सब्सिडी ने क्रेट, स्प्रे पंप, पावर मीटर और यहां तक कि एक छोटा एयर कंडीशनर जैसे आवश्यक उपकरण की प्राप्ति के लिए सुविधा प्रदान की है। चमकौर जी मानते है कि समस्याएं जीवन का एक हिस्सा हैं, और उनके आगे झुकने की बजाय, हमें चुनौतियों को सामना करना चाहिए और मेहनत करके आगे बढ़ने का प्रयास करते रहना चाहिए।

चमकौर सिंह जी द्वारा किये गए कामों में से एक महत्वपूर्ण काम कॉन्ट्रैक्ट फार्मिंग भी है। 1994 में उन्होंने टमाटर की खेती करनी शुरू की और अपनी उपज को बेचने का फैसला किया। उनकी उपज का आधा हिस्सा एक स्थानीय कारखाने (फैक्ट्री) को बेच दिया गया, जिससे एक स्थिर आमदन सुनिश्चित हुई, जबकि बाकि उपज बाजार में बिकने लगी। समय के साथ, उन्होंने पंजाब एग्रो और क्रेमिका के साथ सांझेदारी की, जो बेहद फायदेमंद साबित हुई।

अपने अनुभव से चमकौर सिंह जी ने कॉन्ट्रैक्ट फार्मिंग की खूबियों के बारे में जाना। इस तरह की व्यवस्थाओं में प्रस्तावित निश्चित दरें, अनिश्चित बाजार कीमतों से जुड़े जोखिमों को कम करती हैं, जिससे किसानों को स्थिरता और सुरक्षा मिलती है। इसके अलावा, कंपनियों के साथ सहयोग करना तकनीकी ज्ञान प्रदान करता है जो किसानों की समझ को बढ़ाता है और उनके विकास में सहयोग करता है। चमकौर सिंह जी का कहना है कि प्रत्येक किसान को कॉन्ट्रैक्ट फार्मिंग करनी चाहिए और साथी किसानों की मदद के लिए स्वयं को एक उदहारण के रूप में पेश करना चाहिए। वह ट्रेनिंग और नर्सरी सुविधाएं प्रदान करने के लिए तैयार हैं, लेकिन इस बात पर महत्त्व देते हैं कि सफलता के लिए कड़ी मेहनत ज़रूरी है।

चमकौर सिंह की उपलब्धियां खेती तक ही सीमित नहीं हैं, उन्होंने G2 और G3 लेवल के आलू के उत्पादन और बिक्री पर भी (व्यापार) काम कर रहे हैं।

किसानों के लिए संदेश

यदि आप उद्यमी, मेहनती किसान हैं और मदद चाहते हैं तो चमकौर सिंह जी से संपर्क करें, वे न केवल इसके बारे में बताते हैं बल्कि ट्रेनिंग और नर्सरी सेवाएं भी प्रदान करवाते हैं। अपने कौशल को बढ़ाने, स्रोत तक पहुंच करने और एक समृद्ध भविष्य की खेती करने के लिए मौके का लाभ उठाएं।

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सरबजीत सिंह गरेवाल

(आड़ू की खेती)

मुश्किलों का सामना करके प्रगतिशील किसान बनने तक का सफर-सरबजीत सिंह गरेवाल

पटियाला शहर, जहां पर जितनी दूर तक आपकी निगाह जाती है आपको हरे और फैले हुए खेत दिखाई देते हैं, ऐसे शहर के निवासी है प्रगतिशील किसान सरबजीत सिंह गरेवाल। 6.5 एकड़ उपजाऊ जमीन का होना उनके बागवानी सफर की शुरुआत बनी और उन्होंने खेती की जानकारी प्राप्त की और साल 1985 में विभिन्न प्रकार के फलों की खेती करनी शुरू की।

खेती के प्रति उनके जुनून के अलावा सरबजीत का पारिवारिक इतिहास भी उनके खेती जीवन में एक प्रेरणा बना। उनके पिता, सरदार जगदयाल सिंह जी 1980 में पंजाब खेतीबाड़ी यूनिवर्सिटी के बागवानी विभाग से सेवामुक्त हुए थे और बठिंडा में फल अनुसंधान केंद्र (फ्रूट रिसर्च सेंटर) की स्थापना में भी शामिल थे। सरबजीत सिंह अपने पिता जी की विशेषज्ञता से प्रेरित होकर उनके मार्गदर्शन पर चले और 1983 में उन्होंने खेतीबाड़ी करने का फैसला किया।

असफलताओं से निराश न होकर, सरबजीत ने खेती के तरीकों के बारे में ओर जानना शुरू किया, पंजाबी यूनिवर्सिटी से जीव-विज्ञान में मास्टर और पी.एच.डी. के साथ, सरबजीत की एक मजबूत शैक्षणिक पृष्ठभूमि थी जिसने उनकी ज्ञान के प्रति प्यास को उत्साहित किया। उन्होंने बागवानी की किताबें पढ़ीं और इंटरनेट से जानकारी इकट्ठी की और अपने द्वारा की गयी रिसर्च के माध्यम से ज्ञान प्राप्त किया जिस ने भविष्य में खेती के फैसले लेने में सहायता की।

2018 में, अमरूद, भारतीय करौदा (Indian gooseberry) और अनार जैसी विभिन्न फसलों के साथ लगभग 15 वर्षों के प्रयोग के बाद, सरबजीत ने बेर, अमरूद और आड़ू की खेती पर ध्यान केंद्रित करने का निर्णय लिया। अपने पिछले अनुभवों से सीखकर उन्होंने आड़ू के पेड़ों की अनूठी आवश्यकताओं का अध्ययन किया, यह सुनिश्चित करते हुए कि मिट्टी, पानी और जलवायु की स्थिति उनके विकास के लिए आदर्श थी। उन्होंने पंजाब खेतीबाड़ी यूनिवर्सिटी (पी.ए.यू.) द्वारा सिफारिश पैकेज ऑफ़ प्रक्टिक्स को भी अपनाया और बागवानी अफसरों से सहायता ली।

सरबजीत जी के आड़ू का बाग फलने-फूलने लगा और उन्हें चुनौतियों का सामना भी करना पड़ा। बाग़ में आई चुनौतियों को समझकर सीख गए थे कि प्रत्येक पौधे को देखभाल और निगरानी की आवश्यकता होती है जिसमें उचित छंटाई, कीट नियंत्रण और रोग की रोकथाम आदि शामिल हैं। कड़ी मेहनत के साथ, उन्होंने अपने बाग़ की देखरेख में घंटों बिताए जिसके परिणामस्वरूप भरपूर फसल हुई।

अपनी उपज के लिए एक मार्किट स्थापित करने के लिए, सरबजीत एक बिचौलिये की सेवाओं पर निर्भर थे। उन्होंने खरीदारों से जुड़ने के लिए एक मजबूत नेटवर्क बनाने और फलों का उचित मूल्य सुनिश्चित करने के महत्व को पहचाना। इससे वह खेती की प्रक्रिया पर ध्यान केंद्रित करने लगे, उन्हें विश्वास था कि उनके फल उपभोक्ताओं तक पहुंचेंगे।

जैसे ही सरबजीत के आड़ू के बगीचे में सूरज ढलता है, उसके परिश्रम का फल उसके अटूट समर्पण के प्रमाण के रूप में सामने आता है। आड़ू की शान-ए-पंजाब प्रजाति के साथ-साथ सेब, आलूबुखारा और यहां तक कि ड्रैगन फ्रूट जैसे विदेशी फलों की खेती के लिए उनकी पसंद, फलों की खेती में नए तरीकों के बारे में तलाशने की उनकी अनुकूलन क्षमता और इच्छा को दर्शाती है। सरबजीत की सफलता की कहानी कृषि उत्कृष्टता प्राप्त करने में ज्ञान, मुश्किलों का सामना और भूमि के प्रति प्यार के महत्व के बारे में स्पष्ट करती है।

किसानों के लिए संदेश

सरबजीत सिंह जी अपने साथी किसानों को बागवानी में आने वाले निश्चित उतराव-चढ़ाव का डटकर सामना करने के लिए प्रोत्साहित करते हैं क्योंकि बागवानी को समर्पित जीवन अंत में आपको असीमित खुशी और संतुष्टि देता है। उनका मानना है कि बागवानी में आमदनी सिमित है लेकिन इससे मिलने वाली खुशी पैसों से बढ़कर है।

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गुर रजनीश

(वर्मी कंपोस्टिंग)

कॉर्पोरेट से कंपोस्टर बनने तक का सफरगुर रजनीश

किसान के बारे: गुर रजनीश जी ने पंजाब कृषि विश्वविद्यालय, लुधियाना से स्कूल ऑफ बिजनेस स्टडीज की डिग्री हासिल की। इन्हे बैंकिंग और फाइनांस में 16 सालों का कॉर्पोरेट का अनुभव है और उन्होंने सिटी ग्रुप, एच.डी.एफ.सी. बैंक और एक्सिस बैंक में काम किया है। 2019 वह वर्ष था जब उन्होंने विचार बनाया और बाद में काफी रिसर्च के बाद उन्होंने वर्मीकम्पोस्ट और वर्मीकल्चर के उत्पादन के लिए एक कमर्शियल वर्मीकम्पोस्टिंग यूनिट “नेचर्स आशीर्वाद” नाम से अपना व्यापार बनाया।

क्या है वर्मीकम्पोस्टिंग: वर्मीकम्पोस्टिंग का अर्थ है “केंचुए की खेती” जहां केंचुए जैविक अपशिष्ट पदार्थों को खाते हैं और “वर्मीकास्ट” के रूप में मल त्याग करते हैं जो कि फास्फोरस, मैग्नीशियम, कैल्शियम और पोटाशियम जैसे नाइट्रेट और खनिजों से भरपूर होते हैं। इनका उपयोग उर्वरकों के रूप में किया जाता है और मिट्टी की गुणवत्ता में वृद्धि होती है।

आगे का सफर: गुर रजनीश का सफर तब शुरू हुआ जब वे निर्माण और विचार करने की अवस्था में थे, उनके उपयोगकर्ता को लाभ पहुंचाने के लिए सही उत्पाद और प्रक्रिया बनाने के लिए बहुत सी रिसर्च और जाँच चल रही थी। यह समय कोविड 19 द्वारा देखा गया, जिसने उनके कुछ पहलुओं में देरी की, लेकिन वेबसाइट, लोगो डिजाइनिंग, ट्रेडमार्क रजिस्ट्रेशन, पैकिंग डिजाइन, पैकिंग सामग्री और अन्य उपकरणों के लिए विक्रेताओं की खोज जैसे कई बढ़िया काम किए। बाद में, जून 2020 के दौरान, उनके द्वारा कुछ जमीन ठेके पर ली गई और केवल 15 बैड्स के साथ एक वर्मीकम्पोस्टिंग यूनिट की स्थापना की और वहाँ से उन्होंने पीछे मुड़कर नहीं देखा। अंत उन्होंने अक्तूबर के महीने में नौकरी से अपना इस्तीफ़ा  दे दिया और इस समय तक उनकी उत्पादन, पैकिंग सामग्री वेबसाइट तैयार हो चुकी थी और ऑनलाइन डिजिटल मार्केटिंग अभियान चल रहे थे।

क्योंकि पहले कुछ Lots में उत्पादन बहुत कम था, इसलिए पहले कृषि क्षेत्र को लक्षित करना उचित नहीं था। संभव विकल्प शहरी बागवानी स्थान को टारगेट करना था, इसलिए वर्मीकम्पोस्ट का “मुफ्त नमूना” प्राप्त करने के लिए एक अभियान चलाया। लोगों ने फ्री सैंपल सप्लाई करने के लिए अपना पता दिया और वह खुद घर-घर जाकर बागवानी के लिए फ्री सैंपल दे रहे थे, जिसे ट्राइसिटी के लोगों ने खूब पसंद किया। आखिरकार उन्हें व्यापर के लिए अच्छे ऑर्डर और रेफरेंस मिलने लगे। इसके बाद वह अलग अलग बाजारों जैसे (एमाज़ोन /फ्लिपकार्ट/मीशो/जियोमार्ट आदि) पर अपना उत्पाद लॉन्च करने के लिए आगे बढ़े। ब्रांडिंग और पैकिंग बहुत ही आकर्षक होने के कारण समान रूप से प्रतिक्रिया मिली।

खेती के अलावा: मिट्टी को उपजाऊ बनाने पर ध्यान देने के साथ, हम सभी को यह जानने और समझने की आवश्यकता है कि खेती के लिए आर्गेनिक खेती सबसे अच्छी शिक्षक है, इसलिए हमें व्यापक रूप से सोचने की आवश्यकता है और यह सोचने का सही समय है कि हमारी मिट्टी को शुद्ध जैविक फ़ीड प्रदान की जाए और वर्मीकम्पोस्ट का उपयोग करने से बेहतर क्या हो सकता है। यह प्रदूषण मुक्त वातावरण और पारिस्थितिक तरीके से बनाए रखने के लिए एक विधि है। गुर रजनीश जी ने ऐसे उत्पाद बनाए जो स्थाई जैविक खेती/बागवानी के लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए एक आदर्श विकल्प हैं। उन्होंने किसानों को अपने प्लांट में लाना शुरू किया और जैसे-जैसे अधिक से अधिक किसान खेत में आने लगे, नई पहल होने लगी और बाद में उन्होंने इसे “पंजाब वर्मीकम्पोस्टिंग ट्रेनिंग सेंटर” का नाम दिया।

उनकी संस्था का उद्देश्य पंजाब में जैविक खेती को लोकप्रिय बनाना, शहर के लोगों और किसानों के बीच जागरूकता पैदा करना और देश में जैविक खाद्य पदार्थों के लिए बाजार विकसित करने में मदद करना है। पंजाब वर्मीकम्पोस्टिंग ट्रेनिंग सेंटर किसानों को अपने स्थान पर एक यूनिट शुरू करने के लिए उचित ट्रेनिंग प्रदान करता है, उन्होंने उन्हें अच्छी गुणवत्ता के केंचुए उपलब्ध कराने में मदद की और शुरुआत से उत्पादन तक वर्मीबेड, गड्ढे स्थापित करने के लिए उचित ट्रेनिंग प्रदान करने के साथ शुरुआत करने में भी मदद की।

उनके मोहाली फार्म में हर शनिवार सुबह 11 बजे से ट्रेनिंग दी जाती हैं। इसके अलावा यदि कोई किसान या अन्य लोग जो वर्मीकम्पोस्टिंग के बारे में सीखना चाहते हैं उनके लिए एक मुफ्त ट्रेनिंग दी जाती है। इसके अलावा वे अलग अलग वर्मीकम्पोस्टिंग यूनिट्स और जैविक उत्पादकों को सलाह भी प्रदान करते हैं।

यह सांझा करते हुए बहुत खुशी हो रही है कि उन्होंने 500 से अधिक किसानों और युवा कृषि उद्यमियों को निशुल्क आधार पर ट्रेनिंग दी है।

वर्तमान में वह घरों, रिज़ॉर्टस, आवासीय प्रोजेक्ट्स, निवास सोसाइटी, किसान, नर्सरी और होटलों सप्लाई करेंगे।

दृष्टिकोण

भारत में जैविक खेती के लिए प्रामाणिक जैविक इनपुट उत्पाद, समाधान प्रदान करने और शहरी बागवानी के क्षेत्र में घरेलू नाम बनने के लिए एक भरोसेमंद और प्रगतिशील लीडर बनना।

लक्ष्य

व्यापक जैविक इनपुट्स के साथ भारतीय किसानों के भविष्य को रूप देना है जो पारिस्थितिक संतुलन बनाए रखने में मदद करता है।

महत्व

  • शुद्धता
  • गुणवत्ता के प्रति पूर्ण प्रतिबद्धता
  • प्रकृति के प्रति सम्मान और समर्पण
  • हम जो हैं उससे कोई समझौता नहीं

वचनबद्धता

  • हमारे उपभोक्ताओं को वास्तविक जैविक इनपुट उत्पाद प्रदान करना।
  • एक अलग और सफल व्यवसाय मॉडल पेश करना जो सेवा और एकता के लिए प्रतिबद्ध है, और सभी को लाभ प्रदान करना।
  • प्राकृतिक, स्थायी, जैविक, कृषि अभ्यास का समर्थन करना जो प्रकृति की सेवा और रक्षा करते हैं।
  • ग्रामीण भारत में किसानों की आजीविका और कल्याण का समर्थन करने के लिए।
  • युवाओं में उद्यमशीलता को प्रोत्साहित करना।
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राम विलास

(टैरेस गार्डनिंग)

ऐसा बगीचा जो आपने पहले कभी नहीं देखा होगा

क्या आपने कभी ऐसी छत की कल्पना की है जो खिलते हुए फूलों की घाटी की तरह दिखती है, जो हिबिस्कस, चमेली, गुलाब, सूरजमुखी, डाहलिया, गुलदाउदी, डायन्थस और बहुत सी किस्मों से सजी है, सपने की तरह लगता है ?

हरियाणा के राम विलास जी ने उनकी चार मंजिला छत पर हज़ारों सब्जियां, फल, फूल और सजावटी पौधे उगाना संभव बनाया। प्लास्टिक की पुरानी बाल्टियों, कंटेनरों, मिट्टी और सीमेंट के गमलों और ड्रमों सहित 4,000 से अधिक गमलों को हरी छत वाली फर्श पर व्यवस्थित किये गए जो तेज गर्मी में भी ठंडा रहता है।

राम विलास व्यापरक तौरपर कंस्ट्रक्शन इंडस्ट्री में बिजनेसमैन हैं, लेकिन लगन और दिल से बागबान हैं। उनका दावा है कि लगभग 25 साल पहले उन्होंने महज आठ छोटे गमलों से शुरुआत की थी।

यह सब कैसे शुरू हुआ?

कई सालों तक, श्री विलास ने अपनी छत पर एक “टैरेस गार्डन” बनाया और अपने सैलानियों को दिखाने के लिए इसकी सुंदरता को रिकॉर्ड किया। एक दिन इन वीडियो को यूट्यूब पर अपलोड करने के बारे में फैसला किया और वे बहुत लोकप्रिय हो गए। बहुत से लोग उनके छोटे छत वाले बगीचे से प्रेरित थे, और उन्हें बागवानी के क्षेत्र में अन्य वीडियो बनाने के लिए कई लोगो ने अनुरोध किया।

उनके बगीचे के फूल पूरी दुनिया में दूसरे लोगों के बगीचों में उगने और खिलने लगे। समय के साथ, उन्हें उन लोगों के संदेश मिलने लगे जो अपने बगीचों में ऐसे रिजल्ट प्राप्त करने के लिए संघर्ष कर रहे थे, इसलिए उन्होंने जैविक खाद देना शुरू कर दिया। इससे एक ब्रांड का निर्माण हुआ, जिसे अब “ग्रेस ऑफ गॉड ऑर्गेनिक” कहा जाता है। उन्होंने इस ब्रांड की स्थापना साल 2020 में की।

आज रामविलास प्रकृति की हरियाली को वापस लाने में विश्व स्तर पर 20-30 लाख से अधिक लोगों की मदद कर रहे है।

जब घरेलु बागबानी की बात आती है, तो लोग ऑनलाइन मदद मांगते समय रिजल्ट प्राप्त करने, व्यावहारिक समाधान प्राप्त करने और तुरंत जवाब प्राप्त करने को प्राथमिकता देते हैं। यहीं पर वह उत्तम होने का प्रयास करते हैं।

वह अपने यूट्यूब चैनल पर बागवानी के हर पहलू के बारे में व्यावहारिक जानकारी प्रदान करते हैं और जैविक समाधानों का उपयोग करके प्राप्त किए जाने वाले परिणामों को प्रदर्शित करते हैं।

4000 से अधिक गमलों वाली छत पर उनका बगीचा कई घरेलू बागवानों के लिए एक आदर्श बन गया है। बागवानी तकनीकों की सफलता को प्रदर्शित करके, उनका उद्देश्य लोगों को बेहतर परिणाम प्राप्त करने के लिए प्रेरित और उनकी मदद करना है।

वह अपनी छत पर लगभग सभी प्रकार के फल और सब्जियां उगाते हैं, वह फल या सब्जियां नहीं बेचते हैं, लेकिन पौधों के बीज और छोटे पौधे जरूर बेचते हैं, जिससे उनके ग्राहकों को बढ़ने और वही फल प्राप्त करने में मदद मिलती है जो वह अपने से ले रहे हैं। छत का बगीचा।

वह अपनी छत पर लगभग सभी प्रकार के फल और सब्जियां उगाते हैं, वह फल और सब्जियां नहीं बेचते हैं, लेकिन पौधों के बीज और छोटे पौधे ज़रूर बेचते हैं, जिससे उनके ग्राहकों को बढ़ने और वही फल प्राप्त करने में मदद मिलती है जो वह अपने छत के बगीच से ले रहे हैं।

राम विलास के बगीचे में खिलने वाली वनस्पतियों की सूची:

  • गर्मियों-सर्दियों के सभी प्रकार के फूलों के बीज और पौधे
  • गर्मियों-सर्दियों के सभी प्रकार के सब्जियों के बीज और पौधे
  • गर्मियों-सर्दियों के सभी प्रकार के फूल वाले बलबस (Bulbous) पौधे
  • सभी प्रकार के फल और सब्जियों के पौधे(छोटे पौधे)

इन सभी पौधों को राम विलास जी ने खुद जैविक खाद का इस्तेमाल कर उगाया है। वे रासायनिक खाद के प्रयोग की निंदा करते हैं।

भूमि क्षेत्र: 13500 वर्ग फ़ीट

बागवानी के अलावा, राम विलास का एक यूट्यूब चैनल भी है जिसके तीन लाख से अधिक सब्सक्राइबर हैं जहां वह बागवानी के टिप्स सांझा करते हैं। वह पिछले दो वर्षों से ऑनलाइन बागवानी के बारे में भी पढ़ा रहे हैं, जिसमें 100 से अधिक छात्र पहले ही नामांकित हैं।

किस चीज ने उन्हें बागवानी करने के लिए प्रेरित किया, क्योंकि उनका जुनून और प्यार पौधों के लिए था।

उन्होंने यह शौंक ऑनलाइन पढ़ने, वीडियो देखने, या दूसरों को ऐसा करते देखकर नहीं लिया। यह एक कौशल है जो अभ्यास, धैर्य और अनुभव के साथ आता है। आभासी दर्शक होने के अलावा, महाराष्ट्र, उत्तर प्रदेश और उत्तराखंड जैसे पड़ोसी राज्यों के लोग नियमित रूप से उनके छत के बगीचे को देखने जाते थे, और इंग्लैंड और फ्रांस जैसे देशों के लोग उनके बगीचे को देखने में जाते थे।

यह स्वाभाविक रूप से उनमें पाया गया था; उन्हें बचपन से ही गार्डनिंग का शौंक रहा है। विभिन्न रंगों के फूल उन्हें हमेशा आकर्षित करते थे। जब भी वह रंग-बिरंगे फूलों को देखते तो उनका मन करता कि एक पौधा लेकर उसे उगा लें। यह उनके टैरेस गार्डन के पीछे का विचार था। धीरे-धीरे पेड़-पौधों की संख्या बढ़ती चली गई। पिछले कुछ सालों में उन्होंने बगीचे में कई मौसमी, आम फल और सब्जियों के पेड़ भी लगाए हैं।

यह फूल न केवल बगीचे को सुंदर बनाते हैं बल्कि वायु गुणवत्ता सूचकांक को भी नियंत्रण में रखते हैं। करनाल एक प्रदूषित शहर है, यह टैरेस गार्डन पूरी तरह ताज़ा और प्रदूषण मुक्त रहता है।

राम विलास जी छत पर सब्जियां जैसे सफेद बैंगन, नींबू, मशरूम, मूली, मिर्च, लौकी, पेठा, टमाटर, फूलगोभी, तोरी, बीन्स, गोभी, चुकंदर, धनिया पत्ती, पुदीने की पत्तियां, पालक, तुलसी, अश्वगंधा (विंटर चेरी) और फल में से केला, आलूबुखारा, चीकू, अमरूद, ड्रैगन फ्रूट, पपीता, आड़ू, आम और स्ट्रॉबेरी उगाते हैं।

उनका का कहना है कि वह रोजाना कम से कम पांच किस्मों की कटाई करता है।

राम विलास कहते हैं, “ये सभी पौधे घर में बनी खाद के इस्तेमाल से जैविक रूप से उगाए गए हैं। रासायनिक खाद के इस्तेमाल के बाद पौधों की अचानक वृद्धि केवल अस्थायी है। यह मिट्टी को ख़राब करता है और ऐसी उपज का सेवन करना ज़हर खाने जैसा है। जैविक फसलों के नियमित सेवन से नुकसान होगा। “आप एक स्वस्थ जीवन जीते हैं,” वह कहते हैं, जीवन में उनका लक्ष्य लोगों को “जैविक उगाना और जैविक खाना” की ओर बढ़ाना है।

हालांकि उनकी खेती विशाल है, लेकिन राम विलास जी बागवानी को आमदनी का ज़रिया नहीं मानते हैं। वह अपने पड़ोसियों, दोस्तों और परिवार के साथ फसल सांझा करने से ज्यादा खुश हैं, लेकिन वित्ति बिक्री उनके लिए सख्त नहीं है। वह कहते हैं, “कभी-कभी लोग आते हैं और पौधों के कुछ पौधे मांगते हैं जो मुफ्त में भी दिए जाते हैं, जब तक कि वह दुर्लभ पौधे न हों।”

वह कहते हैं कि “सभी पौधे हरियाणा के अनुभवी बागवानों या बगीचे की नर्सरियों से इकट्ठे किए जाते हैं। मुझे दुनिया के किसी भी हिस्से में जाने के बाद पौधे लाने की आदत है।”

राम विलास जी का मानना है कि उनके लिए बागवानी का आदर्श वाक्य आत्म-संतुष्टि और खुशी है। आपके द्वारा लगाए गए पौधे में एक नया फूल देखने के आनंद के बराबर क्या है? यही एकमात्र कारण है कि वह अपने व्यस्त कार्यक्रम के बावजूद एक बगीचे का प्रबंधन करते हैं।

वह आने वाले वर्षों में अपने संग्रह में अन्य किस्में शामिल करने और लोगों को पौधे उगाने के लिए प्रेरित की योजना बना रहे हैं जो शहर में वायु प्रदूषण को कम करने में भी मदद करेंगे। उन्होंने निष्कर्ष निकाला, “खराब हवा की गुणवत्ता के बावजूद, मेरा परिवार घर पर बेहतर हवा में सांस लेने का प्रबंध करता है। मुझे उम्मीद है कि लोग अपने चारों ओर हरियाली के महत्व को समझेंगे और एक छोटा बगीचा बनाएंगे।”

सपना

राम विलास जी अपने सपनों के बागों को बनाने में अरबों लोगों की मदद करना जारी रखना चाहते हैं। अंतत: प्रकृति की हरियाली और स्वच्छता को वापस वहीं पर लाना जहां वह पहले थी।

उनके दर्शक उनके सबसे बड़े समर्थक रहे हैं और उन्हें टैरेस फार्मिंग के बारे में लोगों को शिक्षित करने के लिए अधिक सामग्री तैयार करने और बनाने के लिए प्रेरित करते हैं। राम विलास कभी भी किसी को अपना उत्पाद खरीदने के लिए मज़बूर नहीं करते; उनका उद्देश्य लोगों को उनके बगीचों के लिए जैविक समाधान प्रदान करना है।

संदेश

राम विलास जी के अनुसार, लोगों को रसायनों के बजाय जैविक तरीकों का उपयोग करना शुरू करना चाहिए, यह थोड़ा महंगा और समय लेने वाली प्रक्रिया है लेकिन जैविक खेती मनुष्यों को होने वाली लगभग 80% बीमारियों को रोकने में मदद करेगी।
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जगमोहन सिंह नागी

(मक्की)

पंजाब का मक्की की फसल का राजा

जगमोहन सिंह नागी, जो पंजाब के बटाला से हैं, उनकी हमेशा से ही कृषि और खाद्य उद्योग में बहुत रुचि रही है। उनके पिता आटा चक्कियों की मुरम्मत करते थे और चाहते थे कि उनका बेटा खाद्य उद्योग में काम करे।

जगमोहन (63), जो 300 एकड़ ज़मीन पर एक कॉन्ट्रैक्ट फार्मर के रूप में काम करते हैं, जिसमें मक्की, सरसों, गेहूं जैसी फसलें और गाजर, फूलगोभी, टमाटर और चुकंदर जैसी सब्जियां उगाते हैं।

वह पंजाब और हिमाचल प्रदेश में 300 किसानों के साथ मिलकर काम करते हैं और पेप्सिको, केलॉग्स (Kellogg’s) और डोमिनोज़ पिज़्ज़ा को उत्पाद की आपूर्ति करते हैं। वह उपज को इंग्लैंड, न्यूजीलैंड, दुबई और हांगकांग को भी भेजते हैं।

बँटवारा से पहले उनका परिवार कराची में रहता था। जगमोहन जी के पिता नागी, पंजाब में रहने से पहले मुंबई आ गए। अधिक मांग के बावजूद, उस समय आटा चक्की की मुरम्मत का काम करने वाले बहुत कम लोग थे। इसलिए, उनके पिता ने इस मौके का लाभ उठाया।

जगमोहन जी के पिता की इच्छा थी कि वह फूड इंडस्ट्री में काम करें। हालाँकि, उस समय पंजाब में कोई कोर्स उपलब्ध न होने के कारण, उन्होंने यूनाइटेड किंगडम, बर्मिंघम विश्वविद्यालय में फ़ूड और अनाज मिलिंग और इंजीनियरिंग की पढ़ाई की।

भारत लौटने के बाद, उन्होंने एक कृषि व्यवसाय, कुलवंत न्यूट्रीशन की स्थापना की। उनकी शुरुआत खराब रही क्योंकि उन्हें मक्के की अच्छी फसल लेने के लिए मदद की ज़रूरत थी। कुलवंत न्यूट्रीशन, जिसकी शुरुआत 1989 में एक पौधे और मक्के की फसल से हुई थी, अब यह कंपनी साल का 7 करोड़ रुपये से अधिक कमाने वाली कंपनी बन गई है।

जगमोहन ने एक प्लांट शुरू किया, लेकिन पंजाब में तब मक्का की फसल अच्छी नहीं थी। इसलिए, उन्होंने हिमाचल प्रदेश से मक्का मंगवाना शुरू किया, लेकिन लाने के लिए आवाजाई लागत बहुत अधिक थी। बाद में, उन्होंने अच्छी फसल सुनिश्चित करने के लिए विश्वविद्यालय-उद्योग लिंक के माध्यम से पंजाब कृषि विश्वविद्यालय, लुधियाना के साथ सहयोग किया। श्री नागी ने कहा “विश्वविद्यालय किसानों को उच्च गुणवत्ता वाले बीज देगा, और मैं उनके उत्पाद खरीदूंगा”।

जैसा कि वे कहते हैं, मेहनत कभी बेकार नहीं जाती। उनका पहला क्लाइंट केलॉग्स था।

जगमोहन ने 1991 में ठेके पर खेती करनी शुरू की, वह खुद फसल उगाना चाहते थे, और धीरे-धीरे खुद से ही उत्पादन करना शुरू कर दिया।

1992 में, उन्होंने पेप्सिको के लिए काम करना शुरू किया, उनके स्नैक, कुरकुरे के लिए मक्की की सप्प्लाई की। उनका दावा है कि हर महीने करीब 1000 मीट्रिक टन मक्की की मांग होती है। 1994 में, उन्होंने डोमिनोज पिज़्ज़ा की भी आपूर्ति शुरू की। 2013 में, उन्होंने डिब्बाबंद खाद्य व्यवसाय में प्रवेश किया और अन्य सब्जियां भी उगाना शुरू किया।

जब उनका व्यवसाय बहुत फलता-फूलता नज़र आ रहा था, तब महामारी इस कृषि उद्यमी के लिए कई चुनौतियां लेकर आई।

दुनिया भर में महामारी की चपेट में आने के बाद, COVID का इस पर महत्वपूर्ण प्रभाव पड़ा। जबकि कई कारखाने और व्यवसाय बंद हो गए, किराना स्टोर खुले रहे क्योंकि उन चीजों की सभी को ज़रुरत होती है। परिणामस्वरूप, जगमोहन सिंह ने जैविक गेहूं और मक्की के आटे जैसी किराना वस्तुओं पर ध्यान केंद्रित करना शुरू कर दिया। जगमोहन कहते हैं, ”मेरी योजना सरसों के तेल की प्रोसेसिंग शुरू करने और इसे बढ़ाने के लिए चावल और चिया के बीज उगाने की है।

अपनी कंपनी के माध्यम से, वह 70 लोगों को रोजगार देते हैं और कृषि छात्रों और किसानों को मुफ्त में ट्रेनिंग प्रदान करते हैं। वह किसानों को उन्नत कृषि तकनीक सिखाते हैं और उन्हें अपनी उपज को लाभकारी तरीके से बेचने के तरीके भी बताते हैं। फलस्वरूप दूध को घी या दही में परिवर्तित करना अधिक लाभदायक होगा।

जगनमोहन कहते हैं, ”युवाओं को खेती के लिए प्रेरित करने के लिए सरकार को स्थानीय स्तर पर प्रोत्साहन देना चाहिए और कृषि आधारित व्यवसायों को बढ़ावा देना चाहिए। “उन्हें खाद्य सुरक्षा और कृषि तकनीक को भी बढ़ावा देना चाहिए।”

वह किसानों को अच्छे परिणाम प्राप्त करने और नुकसान से बचने के लिए दिशा-निर्देश का सख्ती से पालन करने के लिए भी प्रोत्साहित करते हैं।

वे कहते हैं “किसानों को उन फसलों का चयन करना चाहिए जो उनके क्षेत्र में अच्छी तरह से विकसित होती हैं”, “इससे उन्हें पैसा बनाने में मदद मिलेगी”।

संदेश

श्री नेगी किसानों को खेती के अलग-अलग पहलुओं के बारे में प्रयोग करने और खुद को शिक्षित करने के लिए प्रोत्साहित करते हैं। किसानों को नकदी फसलों पर ध्यान देना चाहिए। उदाहरण के लिए बाजरा, सब्जियां और फलदार पौधों को अपने खेतों के चारों ओर रखना चाहिए। वह किसानों को कच्चा दूध बेचने के बजाए दूध वाले उत्पाद बनाने की सलाह देते हैं; बल्कि उन्हें दूध से बनी बर्फी और अन्य भारतीय मिठाइयों को बेचना चाहिए।

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देवेंद्र परमार

(बायोगैस प्लांट)

वह शख्स जिसने अपना खुद का ईंधन बनाया- देवेंद्र परमार

कृषि को लाभदायक धंधा बनाने का मंत्र मध्य प्रदेश (एमपी) के शाजापुर के किसान देवेंद्र परमार से सीखा जा सकता है। आठवीं पास देवेंद्र के हुनर की वजह से उन्हें अब “गैस गुरु” के नाम से पुकारा जाने लगा है। देवेंद्र परमार अपने बायोगैस प्लांट से बिजली और बायो-सी.एन.जी. बनाते हैं। इसी बायो सी.एन.जी. से वह अपनी कार और ट्रैक्टर चलाते हैं।

देवेंद्र परमार की कहानी बड़ी दिलचस्प है। उनका खेती के साथ-साथ डेयरी का व्यवसाय भी है। वह आस-पास के गांवों से दूध खरीदते है और इसे कारों और ट्रैक्टरों के माध्यम से एक जगह से दूसरी जगह तक पहुंचाते हैं।

उन्हें रोज़ाना 3 हजार रुपए का डीजल और पेट्रोल गाड़ियों में डालना पड़ता था। इसके अलावा उन्हें डीजल और पेट्रोल के लिए 3 हजार रुपये गाय के गोबर के उपलों में डालने पड़े। इस खर्च से परेशान होकर उन्होंने अपने ही गोबर गैस प्लांट को बायोगैस प्लांट में तब्दील कर दिया।

बिहार के एक इंजीनियर ने प्लांट लगाने में मदद की, जिसकी लागत उन्हें 25 लाख रुपये लगी। अब खेत में ही प्लांट से प्रतिदिन 70 किलो गैस गुब्बारों में बन रही है। इसे सी.एन.जी. के रूप में इस्तेमाल कर बोलेरो पिकअप वाहन, अल्टो कार, ट्रैक्टर व बाइक बिना किसी खर्च के चलाई जा रही है।

इस प्रकार बायोगैस प्लांट से बिजली, खाद और ईंधन बनाया जाता है

शाजापुर जिला के हेडक्वार्टर से 55 किमी दूर पतलावाड़ा गांव के देवेंद्र परमार ने सिर्फ 8वीं पास की है। देवेंद्र 100 दुधारू पशुओं की देखभाल करते हैं। वह खेत में लगे बायोगैस प्लांट से न सिर्फ अपने वाहन चला रहे हैं बल्कि वर्मीकम्पोस्ट के साथ बिजली भी पैदा कर रहे हैं।

प्लांट से रोजाना 70 किलो गैस के अलावा 100 यूनिट बिजली पैदा हो रही है। वह केंचुआ खाद बेचकर तीन हजार रुपये और दूध बेचकर चार हजार रुपये रोज़ाना कमा रहे हैं। इस तरह उन्हें एक महीने में करीब 2 लाख 10 हजार रुपये और सालाना करीब 25 लाख रुपये की आमदनी हो रही है।

बायोगैस को बिजली में बदलने का तरीका

देवेंद्र का कहना है कि उनके पास सात बीघा जमीन है। उन्होंने पिछले चार साल से रासायनिक खाद का इस्तेमाल नहीं किया। साथ ही 100 दुधारू पशु भी हैं। इससे रोजाना 25 क्विंटल गोबर जमा हो जाता है। एक ऑटोमैटिक मशीन के माध्यम से गाय के गोबर को 100 घन मीटर के बायोगैस प्लांट में डाला जाता है। जिससे 100 यूनिट या 12 किलोवाट बिजली पैदा होती है। गाय के गोबर के कचरे का उपयोग केंचुआ खाद बनाने में किया जाता है। 300 किलो जैविक खाद 10 रुपए किलो बिक रही है। खाद केवल आसपास के गांवों के किसान ही लेते हैं।

ऐसे बनता है वाहनों का ईंधन

देवेंद्र ने बताया कि बायोगैस प्लांट में 2500 किलो गोबर से बनने वाली गैस में 60 फीसदी मीथेन और 40 फीसदी कार्बन डाइऑक्साइड होता है। कार्बन डाइऑक्साइड को पानी और तेल से शुद्ध करके अलग किया जाता है, जिसके परिणामस्वरूप कार्बन डाइऑक्साइड और पानी एक साथ एक पाइप से बाहर निकलते हैं। दूसरे पाइप से मीथेन गैस गुब्बारे में आती है। कंप्रेसर इस गैस को कंप्रेस्ड नेचुरल गैस (CNG) के रूप में वाहनों तक पहुंचाता है। माइलेज के मामले में यह प्रति किलोग्राम 15 किलोवाट-घंटे के हिसाब से डीजल से बेहतर काम करती है।

परमार की कहानी इस बात की सच्ची प्रेरणा की कहानी है कि जहां चाह है वहां राह है। उनकी कड़ी मेहनत और दृढ़ता ने उन्हें “भारत के गैस गुरु” का खिताब हासिल करने में मदद की है।

किसानों के लिए संदेश

श्री परमार का मानना है कि किसानों को अपने वित्त का प्रबंधन करने के लिए खुद का कौशल बढ़ाते रहना चाहिए। किसानों को हमेशा खेती के पुराने तरीकों को छोड़ कर कमाई के नए अवसरों और तरीकों की तलाश करनी चाहिए।

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अदनान अली खान

(सफल उद्यमी)

TUFA नाम ब्रांड के तहत बनाये विभिन्न तरह के उत्पाद

यह एक ऐसे व्यक्ति की कहानी है जो बचपन से ही खेती से जुड़ा हुआ है। शोपियां, जम्मू और कश्मीर से यह चौथी पीढ़ी के किसान और एक उद्यमी जिन्हें राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय प्रोजेक्ट प्रबंधन, कृषि व्यवसाय, उत्पाद विकास, इनोवेशन, उत्पादन और नियोजन प्रबंधन में दस साल का अनुभव है। अदनान अली खान जी ने पुणे में भारती विद्यापीठ यूनिवर्सिटी से इंडस्ट्रियल प्रोडक्शन इंजीनियरिंग में बी.ई. पूरी की और जम्मू-कश्मीर के अवंतीपोरा में इस्लामिक यूनिवर्सिटी ऑफ साइंस एंड टेक्नोलॉजी से मार्केटिंग और एच.आर. में एम.बी.ए. की।

उन्होंने ए.एल. करीम Souq Pvt. Ltd ब्रांड नाम “TUFA” के साथ 2019 में अपना स्टार्टअप शुरू किया जिसका उदेश्य जम्मू और कश्मीर के किसानों को समर्थ बनाना है। अरबी में “TUFA” का अर्थ सेब होता है।

उनके स्टार्टअप, “TUFA” का मुख्य काम कृषि और बागवानी से बिचौलियों हटाना और ब्रांडिंग, मार्केटिंग,उत्पादों को ऑनलाइन और ऑफलाइन माध्यम से सीधे ग्राहकों को या बिज़नेस-से-बिज़नेस तक सीधा बेचना था, जिससे  30% से 40% तक किसानों को लाभ हुआ। साथ ही, कई अन्य एग्रीटेक स्टार्टअप इस दिशा में पहल करने के लिए आगे आएंगे। इनका मुख्य लक्ष्य कश्मीरी उत्पादों जैसे सेब, अखरोट, बादाम, केसर और अन्य उत्पादों की कीमत को बढ़ाना है और ग्राहकों के खरीदने योग्य बनाना है।

सेब को सफलतापूर्वक बेचने के बाद, उन्होंने जम्मू-कश्मीर में सेबों को नए तरीके से पैकेज करने का फैसला किया, जिससे उन्हें कश्मीर के अन्य प्रीमियम उत्पादों जैसे केसर, अखरोट, बादाम, शिलाजीत, लैवेंडर का तेल, कहवा और अन्य उत्पादों को पूरे भारतीय मार्किट में लाने के लिए प्रोत्साहित किया गया।

अदनान अली जी को देश और विदेश के ग्राहकों से बहुत प्यार मिला। वह न केवल उत्पाद बनाते हैं बल्कि बिना किसी बिचौलियों के अपने उत्पादों का ब्रांड, मार्किट और बेचते भी हैं। इससे किसानों की आमदन में वृद्धि हुई है और वह व्यापारिक बातचीत करने के समर्थ भी हुए। इनका मुख्य उद्देश्य जम्मू-कश्मीर में एक स्टार्टअप इकोसिस्टम बनाना था ताकि कृषि और बागवानी उद्योग नई ऊंचाई तक पहुंच सके।

2010 में रिसर्च करते समय उन्होंने यह समझा कि बिचौलियों द्वारा किसानों को बहुत नुक्सान हो रहा है, किसानों को मूल्य का केवल 20% प्राप्त होता है। अदनान अली खान जी का प्रबंधन पृष्ठभूमि है, तो उन्होंने रिसर्च करना शुरू किया और यह जाना कि थोक मूल्य और रिटेल रेट में बहुत बड़ा अंतर है।

अदनान ने देखा कि कश्मीरी उत्पादों की भारी मांग है, जो कि प्रीमियम उत्पाद हैं। TUFA ने सेब के छोटे पैक के साथ शुरुआत की और उन्हें कश्मीर के सुपरमार्केट में सप्लाई किया, और यह ग्राहकों को काफी पसंद आया। फिर उन्होंने अन्य उत्पादों जैसे केसर, अखरोट, बादाम, लैवेंडर का तेल आदि के साथ शुरुआत की।

अदनान अली खान इक्विटी, समावेश और स्थिरता के सिद्धांतों का उपयोग करके सीमांत किसानों की मदद करके कृषि-उत्पाद विकास में उत्कृष्टता प्राप्त करने का प्रयास करते हैं।

उनका मिशन मार्किट की खोज में कृषि-किसानों को मार्किट सहायता, सीधी और सहज प्रदान करके कनेक्टिविटी की प्राप्ति और तकनीकी दखल अंदाजी द्वारा मुख्यधारा की मार्किट एकीकरण में सहायता प्रदान करके राष्ट्रीय स्तर पर एक सफल कृषि-किसान बनना है।

“TUFA” एक तरह से प्रकृति की देन है, क्योंकि सभी उत्पाद प्राकृतिक और सीधे फार्म वाले होते हैं, जिनमें कोई मिलावट या केमिकल नहीं होता। ज़्यादातर उत्पादों में मिनरल्स, पौष्टिक तत्व और औषधीय मूल्य होते हैं, जैसे कि अखरोट, बादाम, केसर, लैवेंडर का तेल आदि। अच्छी बात यह है कि जैविक उत्पाद बाजार में अन्य ब्रांडों की तुलना में 30% कम महंगे होते हैं और इनमें गुण बेमिसाल होते हैं।

उत्पादों की सूची

  • सेब, अखरोट, बादाम, केसर, शिलाजीत, लैवेंडर तेल, गुलकंद।
  • अंजीर, क्रैनबेरी, ब्लूबेरी, राजमा दाल।
  • कहवा चाय, शहद, मसाला टिक्की, लाल मिर्च पाउडर।
  • लैवेंडर की चाय, खुबानी, अखरोट का तेल, बादाम का तेल, सेब का आचार और सेब की चटनी आदि।

खान जी अपने इस कार्य को शुरू करने में भाग्यशाली रहे, क्योंकि उन्हें इस काम में सभी का समर्थन मिला। उनका परिवार और सलाहकार हमेशा समर्थन के स्रोत रहे हैं। इसके अलावा, उन्हें इस काम के लिए एन.आई.ए.एम. जयपुर, वाइस चांसलर SKUAST कश्मीर, वाइस चांसलर IUST कश्मीर, डायरेक्टर CIED IUST, और डायरेक्टर जनरल हॉर्टिकल्चर कश्मीर जैसे कई उच्च अधिकारीयों द्वारा समर्थन और प्रशंसा मिली। वहां शामिल लोगों में जम्मू-कश्मीर के माननीय उपराज्यपाल, यूटी अध्यक्ष श्री मनोज सिन्हा और जम्मू-कश्मीर के किसान शामिल थे।

भविष्य की योजना

उनकी योजना प्रीमियम कश्मीरी उत्पाद बेचने के लिए एक फ्रैंचाइजी मॉडल तैयार करने की है। अदनान जी की पूरे भारत में पहचान होगी और हम कश्मीर से अन्य अधिक तरह के उत्पादों को लेकर आने का प्रयास करेंगे। वह फ्लिपकार्ट और ऐमाज़ॉन पर भी उत्पाद बेचना चाहते हैं ताकि वह सभी ग्राहकों तक पहुँच कर सके। वह फ्रैंचाइज़ी मॉडल के माध्यम से पूरे भारत में स्टोर खोलने का भी प्रयास कर रहे हैं। वह अपने कार्य को पूरे भारतीय स्तर पर बढ़ाना चाहते है।

चुनौतियां

अदनान जी को शुरुआत में पूंजी निवेश, ज्ञान की कमी और माहिरता के मामले में बहुत सी चुनौतियों का सामना करना पड़ा। COVID-19 के दौरान, सभी कार्य रोक दिए गए थे। अब चीजें आसान हो गई हैं और हम सही दिशा में आगे बढ़ रहे हैं।

अदनान अली जी ने अगले 10 वर्षों में ‘TUFA’ को जम्मू-कश्मीर का पहला यूनिकॉर्न बनाने की इच्छा व्यक्त करते हैं। वह किसानों को बिचौलियों के बिना सीधे ग्राहकों तक अपनी उपज बेचने के लिए एक प्लेटफार्म प्रदान करना चाहते हैं। उनका मानना है कि हर दिन वह प्रीमियम कश्मीरी उत्पादों के लिए एक ब्रांड बनाने के अपने उद्देश्य की दिशा में काम कर रहे हैं जो उचित कीमत पर गुणवत्ता वाले उत्पाद पेश करेगा।

किसानों के लिए संदेश

किसानों को आत्मविश्वासी होना चाहिए, अपना खुद का व्यवसाय शुरू करना चाहिए, अपने उत्पादों को बेचना और बिचौलियों को कृषि व्यवसाय से निकाल देना चाहिए। हमें हर किसान की आय को दोगुना करने के लिए भारत के माननीय प्रधान मंत्री के लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए कड़ी मेहनत करनी चाहिए।
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धर्मबीर कंबोज

(सफल इनोवेटर)

रिक्शा चालक से सफल इनोवेटर बनने तक का सफर

धर्मबीर कंबोज, एक रिक्शा चालक से सफल इनोवेटर का जन्म 1963 में हरियाणा के दामला गांव में हुआ। वह पांच भाई-बहन में से सबसे छोटे हैं। अपनी छोटी उम्र के दौरान, धर्मबीर जी को अपने परिवार को वित्तीय सहायता प्रदान करने के लिए पढ़ाई छोड़नी पड़ी। धर्मबीर कंबोज, जो किसी समय गुज़ारा करने के लिए संघर्ष करते थे, अब वे अपनी पेटेंट वाली मशीनें 15 देशों में बेचते हैं और उससे सालाना लाखों रुपये कमा रहे हैं।
80 दशक की शुरुआत में, धर्मबीर कांबोज उन हज़ारों लोगों में से एक थे, जो अपने गांवों को छोड़कर अच्छे जीवन की तलाश में दिल्ली चले गए थे। उनके प्रयास व्यर्थ थे क्योंकि उनके पास कोई डिग्री नहीं थी, इसलिए उन्होंने गुज़ारा करने के लिए छोटे-छोटे काम किए।
धर्मबीर सिंह कंबोज की कहानी सब दृढ़ता के बारे में है जिसके कारण वह एक किसान-उद्यमी बन गए हैं जो अब लाखों में कमा रहे हैं। 59 वर्षीय धर्मबीर कंबोज के जीवन में मेहनत और खुशियां दोनों रंग लाई।
धर्मबीर कंबोज जिन्होनें सफलता के मार्ग में आई कई बाधाओं को पार किया, इनके अनुसार जिंदगी कमज़ोरियों पर जीत प्राप्त करने और कड़ी मेहनत को जारी रखने के बारे में है। कंबोज अपनी बहुउद्देशीय प्रोसेसिंग मशीन के लिए काफी जाने जाते हैं, जो किसानों को छोटे पैमाने पर कई प्रकार के कृषि उत्पादों को प्रोसेस करने की अनुमति देता है।
दिल्ली में एक साल तक रिक्शा चालक के रूप में काम करने के बाद, धर्मबीर को पुरानी दिल्ली रेलवे स्टेशन के पास एक पब्लिक लाइब्रेरी मिली। वह इस लाइब्रेरी में अपने खाली समय में, वह खेती के विषयों जैसे ब्रोकोली, शतावरी, सलाद, और शिमला मिर्च उगाने के बारे में पढ़ते थे। वे कहते हैं, ”दिल्ली में उन्होंने ने बहुत कुछ सीखा और बहुत अच्छा अनुभव था। हालाँकि, दिल्ली में एक दुर्घटना के बाद, वह हरियाणा में अपने गाँव चले गए।
दुर्घटना में घायल होने के बाद वह स्वस्थ होकर अपने गांव आ गए। 6 महीने के लिए, उन्होंने कृषि में सुधार करने के बारे में अधिक जानने के लिए ग्राम विकास समाज द्वारा चलाए जा रहे एक ट्रेनिंग कार्यक्रम में भाग लिया।
2004 में हरियाणा बागवानी विभाग ने उन्हें राजस्थान जाने का मौका दिया। इस दौरान, धर्मबीर ने औषधीय महत्व वाले उत्पाद एलोवेरा और इसके अर्क के बारे में जानने के लिए किसानों के साथ बातचीत की।
धर्मबीर राजस्थान से वापिस आये और एलोवेरा के साथ अन्य प्रोसेस्ड उत्पादों को फायदेमंद व्यापार के रूप में बाजार में लाने के तरीकों की तलाश में लगे। 2002 में, उनकी मुलाकात एक बैंक मैनेजर से हुई, जिसने उन्हें फ़ूड प्रोसेसिंग के लिए मशीनरी के बारे में बताया, लेकिन मशीन के लिए उन्हें 5 लाख रुपये तक का खर्चा बताया।
धर्मबीर जी ने एक इंटरव्यू में कहा कि, “मशीन की कीमत बहुत अधिक थी।” बहु-उद्देशीय प्रोसेसिंग मशीन का मेरा पहला प्रोटोटाइप 25,000 रुपये के निवेश और आठ महीने के प्रयास के बाद पूरा हुआ।
कंबोज की बहु-उद्देश्यीय मशीन सिंगल-फेज़ मोटर वाली एक पोर्टेबल मशीन है जो कई प्रकार के फलों, जड़ी-बूटियों और बीजों को प्रोसेस कर सकती है।
यह तापमान नियंत्रण और ऑटो-कटऑफ सुविधा के साथ एक बड़े प्रेशर कुकर के रूप में भी काम करती है।
मशीन की क्षमता 400 लीटर है। एक घंटे में यह 200 लीटर एलोवेरा को प्रोसेस कर सकती है। मशीन हल्की और पोर्टेबल है और उसे कहीं पर भी लेकर जा सकते हैं। यह एक मोटर द्वारा काम करती है। यह एक तरह की अलग मशीन है जो चूर्ण बनाने, मिक्स करने, भाप देने, प्रेशर कुकिंग और जूस, तेल या जेल्ल निकालने का काम करती है।
धर्मबीर की बहु-उद्देश्यीय प्रोसेसिंग मशीन बहुत प्रचलित हुई है। नेशनल इनोवेशन फाउंडेशन ने उन्हें इस मशीन के लिए पेटेंट भी दिया। यह मशीन धर्मबीर कंबोज द्वारा अमेरिका, इटली, नेपाल, ऑस्ट्रेलिया, केन्या, नाइजीरिया, जिम्बाब्वे और युगांडा सहित 15 देशों में बेची जाती है।
2009 में, नेशनल इनोवेशन फाउंडेशन-इंडिया (NIF) ने उन्हें पांचवें राष्ट्रीय दो-वर्षीय पुरस्कार समारोह में बहु-उद्देशीय प्रोसेसिंग मशीन के आविष्कार के लिए हरियाणा राज्य पुरस्कार से सम्मानित किया।
धर्मबीर ने बताया, “जब मैंने पहली बार अपने प्रयोग शुरू किए तो लोगों ने सहयोग देने की बजाए मेरा मज़ाक बनाया।” उन्हें मेरे काम में कभी दिलचस्पी नहीं थी। “जब मैं कड़ी मेहनत और अलग-अलग प्रयोग कर रहा था, तो मेरे पिता जी को लगा कि मैं अपना समय बर्बाद कर रहा हूं।”
‘किसान धर्मबीर’ के नाम से मशहूर धर्मबीर कंबोज को 2013 में भारत के राष्ट्रपति द्वारा राष्ट्रीय पुरस्कार भी मिला। कांबोज, जो राष्ट्रपति के अतिथि के रूप में चुने गए पांच इनोवेटर्स में से एक थे, जिन्होनें फ़ूड प्रोसेसिंग मशीन बनाई, जो प्रति घंटे 200 किलो टमाटर से गुद्दा निकाल सकती है।
वह राष्ट्रपति भवन में राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी के अतिथि के रूप में रुके थे, यह सम्मान उन्हें एक बहु-उद्देश्यीय फ़ूड प्रोसेसिंग मशीन बनाने के लिए दिया गया था जो जड़ी बूटियों से रस निकाल सकती है।
धर्मवीर कंबोज की कहानी बॉलीवुड फिल्म की तरह लगती है, जिसमें अंत में हीरो की जीत होती है।
धर्मबीर की फूड प्रोसेसिंग मशीन 2020 में भारत की ग्रामीण अर्थव्यवस्था की मदद करने के लिए पॉवरिंग लाइवलीहुड्स प्रोग्राम के लिए विलग्रो इनोवेशन फाउंडेशन एंड काउंसिल ऑन एनर्जी, एनवायरनमेंट एंड वाटर (CEEW) द्वारा चुनी गई छह कंपनियों में से एक थी। प्रोग्राम की शुरुआत मोके पर CEEW के एक बयान के अनुसार 22 करोड़ रुपये का कार्य, जिसमें स्वच्छ ऊर्जा आधारित आजीविका समाधानों पर काम कर रहे भारतीय उद्यमों को पूंजी और तकनीकी सहायता प्रदान करता है। इन 6 कंपनियों को COVID संकट से निपटने में मदद करने के लिए कुल 1 करोड़ रुपये की फंडिंग भी प्रदान की।
“इस प्रोग्राम से पहले, धर्मवीर का उत्पादन बहुत कम था।” अब इनका कार्य एक महीने में चार मशीनों से बढ़कर 15-20 मशीनों तक चला गया है। आमदनी भी तेजी से बढ़ने लगी। इस कार्य ने कंबोज और उनके बेटे प्रिंस को मार्गदर्शन दिया कि सौर ऊर्जा से चलने वाली मशीनों जैसे तरीकों का उपयोग करके उत्पादन को बढ़ाने और मार्गदर्शन करने में सहायता की। विलग्रो ने कोविड के दौरान धर्मवीर प्रोसेसिंग कंपनी को लगभग 55 लाख रुपये भी दिए। धर्मबीर और उनके बेटे प्रिंस कई लोगों को मशीन चलाने के बारे में जानकारी देते और सोशल मीडिया के माध्यम से रोजगार पैदा करते है।

भविष्य की योजनाएं

यह कंपनी आने वाले पांच सालों में अपनी फ़ूड प्रोसेसिंग मशीनों को लगभग 100 देशों में निर्यात करने की योजना बना रही है जिसका लक्ष्य इस वित्तीय वर्ष में 2 करोड़ रुपये और वित्तीय वर्ष 27 तक लगभग 10 करोड़ तक ले जाना है। अब तक कंबोज जी ने लगभग 900 मशीनें बेच दी हैं जिससे लगभग 8000 हज़ार लोगों को रोज़गार मिला है।

संदेश

धर्मबीर सिंह का मानना है कि किसानों को अपने उत्पाद को प्रोसेस करने के योग्य होना चाहिए जिससे वह अधिक आमदनी कमा सके। सरकारी योजनाओं और ट्रेनिंग को लागू किया जाना चाहिए, ताकि किसान समय-समय पर सीखकर खुद को ओर बेहतर बना सकें और उन अवसरों का लाभ उठा सकें जो उनके भविष्य को सुरक्षित करने में मदद करेंगे।
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दीपक सिंगला और डॉ. रोज़ी सिंगला

(रोज़ी फूड्स)

प्रकृति के प्रति उत्साह की कहानी

यह एक ऐसे जोड़े की कहानी है जो पंजाब का दिल कहे जाने वाले शहर पटियाला में रहते थे और एक-दूसरे के सपनों को हवा देते थे। इंजीनियर दीपक सिंगला पेशे से एक सिविल इंजीनियर हैं और शोध-उन्मुख है इसके साथ ही अच्छी बात यह है कि उनकी पत्नी, डॉ. रोज़ी सिंगला एक खाद्य वैज्ञानिक हैं। दोनों ने फलों और सब्जियों के कचरे पर काफी रिसर्च किया और ऑर्गेनिक तरल खाद का आविष्कार किया, जो हमारे समाज के लिए वरदान है।
एक पर्यावरणविद् और एक सिविल इंजीनियर होने के नाते, उन्होंने हमेशा एक ऐसा उत्पाद बनाने के बारे में सोचा जो हमारे समाज की कई समस्याओं को हल कर सके और स्वच्छ भारत अभियान ने इसे हरी झंडी दे दी। यह उत्पाद फल और सब्जी के कचरे से तैयार किया जाता है, जो कचरे को कम करने में मदद करता है और मिट्टी की गुणवत्ता में सुधार करने में मदद करता है, जो पंजाब और भारत में दिन-ब-दिन बिगड़ती जा रही है।
 दीपक और उनकी पत्नी रोज़ी ने 2016 में अच्छी किस्म के हर्बल, जैविक और पौष्टिक-औषधीय उत्पादों को the brand Ogron: Organic Plant Growth Nutrient Solution के तहत जारी किया ।
उनका मानना है कि जैविक पदार्थों के इस्तेमाल से रासायनिक आयात कम होगा और हमारी अर्थव्यवस्था को बढ़ावा देने में मदद मिलेगी। इसके अलावा, यह रसायनों और कीटनाशकों के बड़े पैमाने पर उपयोग के कारण होने वाली स्वास्थ्य समस्याओं को हल करेगा। जैविक उत्पादों का प्रयोग होने पर वायु, जल और मिटटी प्रदूषण की रोकथाम भी की जा सकेगी।
प्रोफेसर दीपक ने किसानों को एक प्राकृतिक उत्पाद देकर उनकी समस्याओं को हल करने की कोशिश की, जो उनकी भूमि के उर्वरता स्तर को बढ़ा सकता है। कीटनाशकों के अवशेषों को कम कर सकता है, और इसके निरंतर उपयोग से तीन से चार वर्षों में इसे जैविक भूमि में परिवर्तित कर सकता है। यह सभी प्रकार के पौधों और फसलों के विकास को बढ़ावा देता है। यह एक प्राकृतिक जैविक खाद है और जैव उपचार में भी मदद करता है।
यह उत्पाद तरल रूप में है, इसलिए पौधे द्वारा ग्रहण करना आसान है। उन दोनों ने एक समान दृष्टि और कुछ मूल्यों को आधार बना रखा था जो एक-दूसरे के व्यावसायिक जुनून को बढ़ावा देने में उनका सबसे शक्तिशाली उपकरण बन गया। उनका उद्देश्य यह था की वो ऐसे ब्रांड को जारी करे जिसका प्राथमिक कार्य मानकीकृत जड़ी-बूटियों और जैविक कचरे का प्रयोग करके उनको सबसे अच्छे उर्वरकों की श्रेणी में शामिल किया जा सके।
उनकी प्रेरक शक्ति कैंसर, लैक्टोज असहिष्णुता और गेहूं की एलर्जी जैसी स्वास्थ्य समस्याओं को कम करना था जिनका लोगों द्वारा आमतौर पर सामना किया जा रहा है, जो रासायनिक उर्वरकों और कीटनाशकों के अधिक से अधिक उपयोग के कारण दिन-ब-दिन बढ़ती जा रही हैं। साथ ही, उन्होंने जैविक उत्पादों का विकास किया जो पर्यावरण के अनुकूल और प्रकृति के अनुरूप हैं, इस प्रकार आने वाली पीढ़ियों के लिए भूमि, पानी और हवा का संरक्षण किया जा सकता हैं।
इससे उन्हें कचरे का उपयोग करने के साथ-साथ पौधों के विकास और किचन गार्डन के लिए रसायनों का उपयोग करने के जगह एक स्वस्थ विकल्प के साथ समाज की सेवा करने में मदद मिली।
अब तक, इस जोड़ी ने 30 टन कचरे को सफलतापूर्वक कम किया है। आस-पास के क्षेत्रों और नर्सरी के जैविक किसानों से लगभग उन्हें 15000/- प्रति माह से अधिक की बिक्री दे रहे हैं और जागरूकता के साथ बिक्री में और भी वृद्धि हो रही हैं ।
साल 2021 में डॉ. रोज़ी सिंगला ने सोचा, क्यों ना अच्छे खाने की आदत  से समाज की सेवा की जाए? एक स्वस्थ आहार समग्र दवा का एक रूप है जो आपके शरीर और दिमाग के बीच संतुलन को बढ़ावा देने पर केंद्रित होता है। फिर वह 15 साल के मूल्यवान अनुभव और ढेर सारे शोध और कड़ी मेहनत के साथ रोज़ी फूड्स की परिकल्पना की।
एक फूड टेक्नोलॉजिस्ट होने के नाते और खाद्य पदार्थों के रसायन के बारे में अत्यधिक ज्ञान होने के कारण, वह हमेशा लोगों को सही आहार सन्तुलन के साथ उनके स्वास्थ्य संबंधी मुद्दों का इलाज करने में मदद करने के लिए उत्सुक रहती थीं। उसने खाद्य प्रौद्योगिकी पर काफी शोध किया है, और उनके पति एक पर्यावरणविद् होने के नाते हमेशा उनका समर्थन करते थे। हालाँकि नौकरी के साथ प्रबंधन करना थोड़ा मुश्किल था, लेकिन उनके पति ने उनका समर्थन किया और उन्हें मिल्लेट्स आधारित खाद्य उत्पाद शुरू करने के लिए प्रेरित किया। उसने दो फर्मों के लिए परामर्श किया और गर्भवती और स्तनपान कराने वाली माताओं और बच्चों के लिए भी आहार की योजना बनाई।
उत्पादों की सूचि:
  • चनाओट्स
  • रागी पिन्नी:
  • चिया प्रोटीन लड्डू
  • न्यूट्रा बेरी डिलाइट (आंवला चटनी)
  • मैंगो बूस्ट (आम पन्ना)
  • नाशपाती चटका
  • सोया क्रंच
  • हनी चॉको नट बॉल्स
  • रागी चकली
  • बाजरे के लड्डू
  • प्राकृतिक पौधा प्रोटीन पाउडर
  • मिल्लेट्स दिलकश
सरकार द्वारा जारी विभिन्न योजनाओं जैसे आत्मानिर्भर भारत, मेक इन इंडिया, स्टार्टअप इंडिया और कई अन्य ने रोजी फूड्स को बढ़ावा देने के लिए मुख्य रूप में काम किया है।
इस विचार का मुख्य काम पंजाब के लोगों और भारतीयों की स्वास्थ्य समस्याओं का समाधान करना है। हलाकि  डॉ. रोज़ी का दृढ़ विश्वास है कि एक आहार में कई बीमारियों को ठीक करने की शक्ति होती है। इसलिए वो हमेशा ऐसा कहती है की “Thy Medicine, Thy Food.”
डॉ रोज़ी इन मुद्दों को अधिक विस्तार से संबोधित करना चाहती थीं, इसलिए उन्होंने ऐसे खाद्य पदार्थों को निर्माण किया जो उनके उदेश्य को पूरा करें
  • बच्चों के साथ-साथ गर्भवती महिलाओं में भी कुपोषण,
  • समाज की सेवा के लिए एक स्वस्थ विकल्प के रूप में परित्यक्त अनाज (मिल्लेट्स) का उपयोग करना।
  • लोगों के विशिष्ट समूहों, जैसे मधुमेह रोगियों और हृदय रोगियों के लिए चिकित्सीय प्रभाव वाले खाद्य पदार्थ तैयार करना।
  • बाजरे के उपयोग से पर्यावरण संबंधी मुद्दों को हल करने के लिए, जैसे मिट्टी में पानी का स्तर और कीटनाशक की आवश्यकता।
डॉ रोज़ी ने सफलतापूर्वक एक पंजीकृत कार्यालय सह स्टोर ग्रीन कॉम्प्लेक्स मार्केट, भादसों रोड, पटियाला में में खोला है। ग्राहकों की सहूलियत और  के लिए वे अपने उत्पादों की ऑनलाइन बिक्री शुरू करेंगे।

इंजीनियर दीपक सिंगला की तरफ से किसानों के लिए सन्देश

लम्बे समय तक चलने वाली बीमारियाँ अधिक प्रचलित हो रही हैं। मुख्य कारणों में से एक रासायनिक खेती है, जिसने फसल की पैदावार में कई गुना वृद्धि की है, लेकिन इस प्रक्रिया में हमारे सभी खाद्य उत्पादों को जहरीला बना दिया है। हालाँकि, वर्तमान में रासायनिक खेती के लिए कोई तत्काल प्रतिस्थापन नहीं है जो किसानों को जबरदस्त फसल की पैदावार प्राप्त करने और दुनिया की खाद्य जरूरतों को पूरा करने की अनुमति देगा। भारत की आबादी 1.27 अरब है। लेकिन एक और मुद्दा जो हम सभी को प्रभावित करता है वह है चिकित्स्य रगों में तेजी से वृद्धि। हमें इस मामले को बेहद गंभीरता से लेना चाहिए। सबसे अच्छा विकल्प जैविक खेती हो सकती है। यह सबसे सस्ती तकनीक है क्योंकि जैविक खाद के उत्पादन के लिए सबसे कम संसाधनों और श्रम की आवश्यकता होती है।

डॉक्टर रोज़ी सिंगला द्वारा किसानों के लिए सन्देश

2023 को संयुक्त राष्ट्र द्वारा अंतर्राष्ट्रीय मिल्लेट्स ईयर होने के आलोक में मिल्लेट्स और मिल्लेट्स आधारित उत्पादों के लिए मूल्य श्रृंखला, विशेष रूप से खाने के लिए झटपट तैयार होने वाली श्रेणी को बढ़ावा देने और मजबूत करने की आवश्यकता है। मिल्लेट्स महत्वपूर्ण पोषण और स्वास्थ्य लाभों के साथ जलवायु-स्मार्ट फसलों के रूप में प्रसिद्ध हो रहे हैं। पारिस्थितिक संतुलन और आबादी के स्वास्थ्य में सुधार के लिए, मिल्लेट्स की खेती को अधिक व्यापक रूप से अभ्यास करने के लिए गंभीर प्रयास करने की आवश्यकता है। हमारा राज्य वर्तमान में चावल के उत्पादन द्वारा लाए गए जल स्तर में तेज गिरावट के कारण गंभीर जल संकट का सामना कर रहा है। चावल की तुलना में मिल्लेट्स द्वारा टनों के हिसाब से अनाज पैदा करने के लिए बहुत कम पानी का उपयोग करता है।
मिल्लेट्स हमारे लिए , ग्रह के लिए और  किसान के लिए भी अच्छा है।
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नीरज कुमार

(द साइकिल मैन ऑफ इंडिया)

जैविक खेती के प्रति जागरूक करने वाली एक आजीवन साइकिल यात्रा

जिंदगी के सफर में कुछ ऐसे मोड़ आते हैं जो इंसान को बदल देते हैं। एक ऐसा वाक्यात नीरज कुमार प्रजापति के साथ हुआ जो की आहुलाना गांव, गोहाना, हरियाणा के रहने वाले हैं। इससे उनके विचार तो बदले ही लेकिन इसके साथ उनकी जिंदगी को एक नया मोड़ मिल गया।
उन्होंने एक दृश्य देखा जिसमे एक ट्रैन कैंसर मरीजों को ले जा रही थी, जिसके बाद उन्होंने बी-टेक का पांचवा समेस्टर छोड़ दिया। उन्होंने साइकिल यात्रा के जरिये जहर मुक्त खेती, यानि जैविक खेती की जागरूकता के लिए अपने करियर की चिंता छोड़ दी। नीरज के निस्वार्थ भाव से उठाए गए इस कदम को देखते हुए उन्हें “द साइकिल मैन ऑफ इंडिया” का नाम दिया गया है।
प्रजापति, नीरज कुमार ने कहा, “जब मैंने पंजाब में बठिंडा से बीकानेर जा रही ट्रेन में कैंसर मरीजों को इलाज के लिए जाते हुए देखा तो मेरा मन उदास हो गया । उस ट्रैन में जो मरीज सफर कर रहे थे उनमें से ज्यादातर पंजाब और हरियाणा के रहने वाले थे।
उनका मानना था कि खेतीबाड़ी में कीटनाशकों का अंधाधुंध प्रयोग भी कैंसर के प्रमुख कारणों में से एक है। इसे देखते हुए उन्होंने फैसला किया कि वह किसानों को जैविक खेती अपनाने के लिए प्रेरित करने का प्रयास करेंगे।
नीरज ने उन्हें ना केवल जैविक खेती की तकनीक सिखाई, बल्कि उन्होंने मार्केटिंग के लिए चैनल भी तैयार किए। आज अपनी उपज के विक्रय केन्द्रों के साथ-साथ ये सभी किसान ना केवल अधिक पैसा कमा रहे हैं बल्कि कम संसाधनों के साथ अधिक उत्पादन भी कर रहे हैं।
नीरज अब लगभग 70,000 किसानों को प्रशिक्षित कर चुके हैं और प्रति माह 1,000 किलोग्राम भोजन के उत्पादन में उनकी सहायता कर रहे हैं। उन्होंने 2018 में फसल बेचने के लिए अंतरराष्ट्रीय कृषि संस्थानों और हाउसिंग सोसाइटियों के साथ सफलतापूर्वक भागीदारी की। उनके प्रयास यहीं समाप्त नहीं हुए। अपने दृष्टिकोण और संचार कौशल के माध्यम से, उन्होंने किसानों को अपनी साइकिल पर देश भर में यात्रा करने और सब्जियों और अनाज के लिए बाजार स्थापित करने में सक्षम बनाया।
खेती के साथ साइकिल यात्रा के रोमांच के बाद, उन्होंने “किसानों का जीवन” नामक पुस्तक में अपने अनुभवों के बारे में लिखने का फैसला किया। जैविक खेती के बारे में सीखने और इसके तरीकों को लागू करने के लिए, उन्होंने अब किसानों को समझाने से लेकर प्रशिक्षण और उनकी उपज बेचने में उनकी सहायता करने तक सब कुछ किया है।
नीरज प्रजापति यह सुनिश्चित करते हैं कि किसी विशेष क्षेत्र की यात्रा के दौरान, वह जैविक खेती पर शोधकर्ताओं, वैज्ञानिकों और विशेषज्ञों से मिले और फिर इन नई तकनीकों को विभिन्न गांवों के किसानों तक पहुंचाएं।
वह किसानों के काम में मदद करते है। वह किसानों की चिंताओं को सुनते हैं और फिर समाधान खोजने के लिए विशेषज्ञों से सलाह लेते हैं।
COVID प्रतिबंधों और लॉकडाउन के कारण, नीरज का मिशन रुका हुआ था
“यह हमारे लिए युवा और होनहार किसानों पर ध्यान केंद्रित करने का समय है, खासकर उन लोगों पर जिन्होंने हाल ही में खेतों में काम करना शुरू किया है।” 25 वर्षीय नीरज कहते हैं, “युवा किसानों को उचित तकनीकों से अवगत कराया जाना चाहिए ताकि वे कृषि में काम करना जारी रखने के लिए प्रेरित महसूस करें।”
जैविक खेती और फसलों में कीटनाशकों के प्रयोग से जुड़ी समस्याओं के बारे में जागरूकता बढ़ाने के लिए प्रजापति देश भर में 111,111 किलोमीटर तक साइकिल चलाने के मिशन पर हैं। वह कहते है, यह सबसे अधिक उत्साहपूर्ण भावनाओं में से एक था जिसे मैंने कभी अनुभव किया था। नीरज प्रजापति कहते हैं, “मुझे बी-टेक से बाहर हुए तीन साल हो गए, लेकिन मुझे लगा कि बदलाव रंग ला रहा है।”
शुरुआत से बात करते है: कैसे नीरज प्रजापति नाम का एक बी-टेक ड्रॉपआउट विद्यार्थी किसान बन गया और भारत के किसान समुदाय में साइकिल यात्रा के माध्यम से जैविक खेती और जीएपी को अपनाने के लिए जागरूक किया और उनकी मदद की।
उन्होंने अपनी बचत का इस्तेमाल कुछ साल बाद साइकिल खरीदने के लिए किया। विस्तृत खोज करने के बाद, उन्होंने विभिन्न शोध संस्थानों, कॉलेजों और गांवों में जाना और जानकारी प्राप्त करना शुरू किया।
तीन साल तक जैविक खेती का ज्ञान प्राप्त करने के बाद उनको विश्वास हो गया वो पंजाब और हरियाणा के आस पास वाले जिलों में किसानो को इसके लिए ट्रेनिंग प्रदान कर सकते हैं।
इस इंजीनियरिंग ड्रॉपआउट ने कई उत्तरी राज्यों में किसानों को जैविक खेती के लाभों के बारे में शिक्षित करने के लिए 44,817 किलोमीटर से अधिक की दूरी तय की।
उन्होंने राजस्थान, पंजाब और हरियाणा में किसानों को उनकी फसलों पर कीटनाशकों के उपयोग के खतरों के बारे में शिक्षित करने के लिए साइकिल चलाई है। वह इस बारे में जागरूकता बढ़ा रहे है कि इन रसायनों का उत्पादन कैसे किया जाता है। जिस कारण देश में फेफड़ों की बीमारी और कैंसर के मामले बढ़ रहे हैं।
नीरज अब तक हरियाणा, दिल्ली, पंजाब, राजस्थान, मध्य प्रदेश और उत्तर प्रदेश में 44817 किलोमीटर का सफर तय कर लोगों को जागरूक कर चुके हैं। नीरज ने जैविक जागरूकता के लिए 1 लाख 11 हजार 111 किलोमीटर साइकिल यात्रा का लक्ष्य रखा है।
नीरज ने कहा, “मैं 45,000 किमी का आंकड़ा पार करने वाला हूं।” वह आने वाले वर्षों में विभिन्न क्षेत्रों में अपने आगामी साइकिलिंग कार्यक्रमों के माध्यम से और अधिक किसानों की भर्ती करने की योजना बना रहे है और वह जैविक उत्पादों और जीएपी के उपभोग के लाभों के बारे में जागरूकता बढ़ाना चाहतें है।
उन्होंने बिना अपने करियर की चिंता करे किसानों को जहर मुक्त खेती के बारे में जागरूक करने के लिए कश्मीर से कन्याकुमारी तक यात्रा करने का निर्णय किया और अपना सफर शुरू कर दिया था। वह जहां भी जाते हैं खेतों में जाते हैं और लोगों को कीटनाशकों के अत्यधिक उपयोग से होने वाले नुकसान के बारे में बताते हैं।

किसानों के लिए संदेश

नीरज ने एग्रोकेमिकल्स के उपयोग को कम से कम करने पर अपनी राय व्यक्त की है। जैविक खेती की ओर रुख करना और मिट्टी के स्वास्थ्य की रक्षा करना और मूल्यवान फसल के लिए मिट्टी में सूक्ष्म जीवों की मात्रा बढ़ाना महत्वपूर्ण है।
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नरेंद्र और लोकेश

(यदुवंशी बकरी फार्म)

दो दोस्तों की कहानी

अगर भारत की बात करें तो यहां काफी लोग पशुपालन करते हैं। जानवरों के प्रति लोगों का लगाव, उनकी देखरेख यहां देखने को मिलती है।
आपको बता दें कि दुनिया में भैंसों की संख्या के मामले में भारत का पहला स्थान है, गाय और बकरी पालन के मामले में दूसरा और भेड़ों के मामले में तीसरा स्थान है। पशुपालन से यहां हर साल करोड़ों रुपये की कमाई होती है। आज आप भारत के हरियाणा के निवासी नरेंद्र और लोकेश के बारे में जानेंगे, जिन्होंने “यदुवंशी बकरी फार्म” शुरू किया और बकरी पालन करके करोड़ों रुपये कमा रहे हैं। दोनों आर्मी स्कूल में पढ़े। नरेंद्र और उसका दोस्त लोकेश हरियाणा राज्य के महेंद्रगढ़ जिले के नारनौल के रहने वाले हैं। दोनों बचपन से दोस्त थे और दोनों ने अपनी प्रारंभिक शिक्षा आर्मी स्कूल में पूरी की। फिर नरेंद्र ने बी.टेक. किया, जबकि उनके दोस्त लोकेश ने एम.सी.ए. की पढ़ाई पूरी की। दोनों में ऐसी दोस्ती हुई कि दोनों ने साथ में पढ़ाई पूरी की।
नरेंद्र ने बताया कि जब वह और उसका दोस्त लोकेश साथ पढ़ते थे तो दोनों बिजनेस नहीं करना चाहते थे। बाद में नौकरी करते हुए उन्होंने अपने व्यवसाय को बढ़ाने की योजना बनाई। दोनों को अपनी नौकरी पसंद थी और लाखों रुपये कमा रहे थे, लेकिन दोनों ने अपना व्यवसाय करने की योजना बनाई। इसी सोच के साथ दोनों ने बकरी पालन शुरू किया और 2016 में “यदुवंशी बकरी” फार्म की स्थापना हुई थी।
बकरियों के फार्म के बारे में बात करते हुए नरेंद्र कहते हैं कि अगर कोई बकरी पालन करने के बारे में सोच रहा है तो सबसे पहले उसके लिए एक बड़ा फार्म होना जरूरी है। नरेंद्र और लोकेश ने बकरी पालन के लिए करीब 3.5 एकड़ का कैंपस भी तैयार किया। उनके पास डेढ़ एकड़ बकरियों के लिए और 2 एकड़ बकरियों के हरे चारे के लिए है। वे विशेष रूप से बकरी की किस्म तोतापारी का व्यवसाय करते हैं।
नरेंद्र और लोकेश हरियाणा में सबसे बड़े स्टाल-फीडिंग फार्म के साथ बकरियों की नस्ल पर काम करते हैं। . नरेंद्र के खेत पर उन्होंने यहां बकरियों की उम्र के हिसाब से रहने की व्यवस्था की है। जो बकरियां युवा है उन्हें एक जगह रखा जाता है और साथ ही उनके पास एक साल की उम्र के बकरों के लिए अलग से व्यवस्था है। बकरियों को उनकी उम्र और सेहत के आधार पर रखा जाता है।
एक साल से बड़ी बकरियों के लिए भी अलग से व्यवस्था है। वे कहते हैं कि बकरियों वाले कमरों में खिड़कियां ज़मीन के थोड़ा करीब हों तो बेहतर है, क्योंकि इससे जमीन ठंडी रहती है। वह लोगों को सलाह भी देते हैं कि खिड़कियां अधिक ऊंचाई पर न रखें। यदुवंशी बकरी फार्म खोलने से पहले नरेंद्र और लोकेश ने बकरियों की विशेष देखभाल का पूरा ध्यान रखा। यदुवंशी बकरी फार्म पर बकरियों के रहने की पूरी व्यवस्था की गई है। बकरियों को लगातार छाया मिले इसके लिए फार्म के अंदर पेड़ लगाए गए हैं। फार्म के अंदर बकरियों के घूमने के साथ ही खाने और पानी का पूरा इंतजाम है। घुमाने वाला आयरन फीडिंग स्ट्रक्चर लगाया गया है और पानी पीने के लिए प्लास्टिक के छोटे-छोटे ड्रम भी लगाए गए हैं ताकि उन्हें किसी तरह की परेशानी न हो।
शुरू से ही दोनों की दोस्ती बहुत गहरी रही है, उनके परिवारों को भी उनकी दोस्ती पर गर्व है और उनके उतार-चढ़ाव में उनका साथ देते हैं।
नरेंद्र और लोकेश के यदुवंशी बकरी फार्म में बकरियों के स्वास्थ्य का भी ध्यान रखा जाता है। नरेंद्र कहते हैं कि मैं इन बकरियों की अपने बच्चों की तरह देखभाल करता हूं। जब से वे पैदा होते हैं तब से लेकर युवा होने तक, वह उनके स्वास्थ्य के लिए जिम्मेदार होता है। जन्म के बाद उनके लिए टीके, दवाइयां और भोजन भी उपलब्ध कराया जाता है।
समय-समय पर सेहत की जांच भी कराई जाती है। बकरियों को पशु चिकित्सक की देखरेख में वेक्सीनेशन करवाई जाती है, और बकरियों को संतुलित आहार भी दिया जाता है जिसमें सभी जरुरी तत्व होते हैं और उनमें रपीट की समस्या या ओर बीमारियां कम होती है।
नरेंद्र कहते हैं कि बकरियों में ब्रुसेला नाम का वायरस जल्दी होता है। यह वायरस बहुत खतरनाक है और इंसानों में फैल सकता है जिसके कारण बकरियों के खून की जाँच नियमित रूप पर की जाती है। यदुवंशी बकरी फार्म में बकरियों का चारा उनकी ग्रोथ के हिसाब दिया जाता है। इन बकरियों के पालन पोषण और रख-रखाव का विशेष ध्यान रखा जाता है।
अब उनके फार्म पर एक हजार से अधिक बकरियां हैं। यदुवंशी बकरी फार्म में बकरियों की देखरेख बहुत अच्छे से की जाती है, पहले इनकी संख्या 500-600 थी, लेकिन अब बकरियों की संख्या तेजी से बढ़ रही है। वैसे नरेंद्र और लोकेश के बनाए फार्म पर 3000 बकरियां तक रखी जा सकती हैं।
यदुवंशी बकरी फार्म के मुनाफे की बात करें तो आज नरेंद्र और लोकेश मांस और बकरी के दूध के लिए बकरियां बेचकर करोड़ों की कमाई कर रहे हैं। वह बकरियों की मेंगन से बनी खाद भी बेचते हैं, जिसकी एक ट्रॉली की कीमत गाय के गोबर की कीमत 2,000 रुपये तक होती है। इससे भी अच्छी आमदनी होती है। जिसका उपयोग खाद के रूप में किया जाता है और जो खेतों के लिए बहुत फायदेमंद होती है।
नरेंद्र और लोकेश बकरी पालन के साथ-साथ बकरी पालन की ट्रेनिंग भी देते हैं अगर किसी के पास पैसे की कमी है तो ऐसे लोगों को फ्री ट्रेनिंग दी जाती है। ट्रेनिंग के दौरान उन्हें बकरी पालन के बारे में सब कुछ सिखाया जाता है और बकरी पालन में आ रही दिक्कतों के बारे में भी बताया जाता है। आज कई लोग उनसे ट्रेनिंग प्राप्त कर अपना व्यवसाय खोल रहे हैं। उनके इलाके में ऐसा माना जाता है कि इन दोनों दोस्तों ने बकरी फार्म खोलकर एक मिसाल कायम की है। इन दोनों दोस्तों ने सबसे पहले अपने क्षेत्र के लोगों को बकरी पालन के बारे में जागरूक किया।
दोनों मित्र अपनी नीतियों को साझा करते हैं: बकरे का मांस तो सभी खाना चाहते हैं, लेकिन रखना कोई नहीं चाहता। अगर मांस खाना है तो बकरियों को भी ठीक से पालना होगा। बकरी पालन के लिए उनका कहना है कि यह व्यवसाय तब तक सफल नहीं हो सकता जब तक बकरियों के जन्म से लेकर उनके बड़े होने तक उनकी देखभाल सही तरह से नहीं की जाती। अगर इस काम में थोड़ी सी भी कमी या लापरवाही हुई तो यह आपके बिजनेस को नुकसान पहुंचा सकता है और अगर सब कुछ सही तरीके से किया गया तो यह बिजनेस आपको करोड़ों रुपए भी दिलाएगा। बकरी पालन और इस काम में रुचि रखने वालों के लिए, वे यदुवंशी बकरी फार्म के नाम से एक YouTube चैनल चलाते हैं ताकि लोगों को बकरियों के पालन-पोषण के संबंध में जानकारी दी जा सके।

भविष्य का लक्ष्य

नरेंद्र और लोकेश अधिक लाभ कमाने के लिए अपनी बकरियों को विदेशों में निर्यात करना चाहते हैं, जहां कीमतें बहुत अधिक हैं। वे नए फार्म खोलने की भी योजना बना रहे हैं ताकि विदेशों में होने वाली बकरियों की मांग को पूरी किया जा सके।

चुनौतियों

इसमें मुख्य चुनौती मजदूर प्रबंधन है। कच्चे माल में हर साल वृद्धि के साथ लागत भी बढ़ जाती है। पहले इन्हें बकरी पालन की मार्किट के बारे में ज्यादा ज्ञान नहीं था जो नरेंद्र और लोकेश ने अपने व्यवसाय को फलने-फूलने के लिए स्थापित किया था।

किसानों के लिए संदेश

 कोई भी पशुधन व्यवसाय शुरू करने से पहले धैर्य रखें और उचित ट्रेनिंग प्राप्त करें। साथ ही लाभ पाने के लिए बकरी पालन में कम से कम 2 साल का इंतजार करें। कृपया अपने क्षेत्र और वहां मार्किट में मांग के अनुसार एक नस्ल चुनें, सुनिश्चित करें कि आपके पास अच्छी तरह काम करने वाले मज़दूर हैं जो बकरियों पर नज़र रखें और खुद भी इस काम में पूरा ध्यान रखें।
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श्याम रॉड

(जैविक खेती)

पेशे से एक कलाकार, बेहतर ज़िंदगी के लिए किसान बनने तक का सफर- श्याम रॉड

यह एक ऐसे व्यक्ति की कहानी है जिन्होंने कड़ी मेहनत और दृढ़ संकल्प का मूल्य सीखा। एक पूर्व कला शिक्षक से किसान बने, श्याम रॉड जी 50 से अधिक विभिन्न प्रकार के फलों और सब्जियों के साथ एक अनोखा खाद्य वन तैयार किया। इसके साथ ही वह भूमि नेचुरल फार्म्स के संस्थापक भी है क्योंकि उन्हें हमेशा से ही बागवानी का शौक रहा है। आप सभी को यह जानकर आश्चर्य होगा कि उन्होंने बिना किसी रसायन या कीटनाशक पदार्थ का इस्तेमाल किये 1 एकड़ ज़मीन पर 1,500 पौधे लगाए। खाद्य वन की खेती करने का निर्णय लेने से पहले उन्होंने वर्ष 2017 में लखनऊ में एक जैविक वृक्षारोपण पर ट्रेनिंग प्राप्त की।
भूमि प्राकृतिक फार्म भारत के केंद्र में एक परिवार के द्वारा चलाया जाने वाला एक छोटा सा फार्म है। फार्म पर धान, गेहूं और सब्जियों सहित कई तरह की फसलें उगाई जाती हैं। श्याम बागवानी और खेती के प्रति अपने जुनून और इसके इलावा भोजन को खुद उगाने से प्राप्त होने वाली ख़ुशी के बारे में बताते हैं। खाद वन में विभिन्न फलों और सब्जियों के पेड़ शामिल हैं जहां प्रत्येक प्रकार का पेड़ दूसरे प्रकार के पौधे को पालने में मदद करता है।
श्याम रॉड एक कलाकार थे जिन्होंने इस खाद्य वन की स्थापना की थी, उनका एक बेटा है जिसका नाम अभय रॉड है जिसने दिल्ली विश्वविद्यालय से ग्रेजुएशन पूरी की और अभी वो एलएलबी की डिग्री करने के साथ ही वह खाद्य वन का काम भी संभाल रहे हैं। इसमें शामिल होने और इसे शुरू करने का कारण दिल्ली का प्रदूषण है क्योंकि वो स्वच्छ हवा में रहना चाहते हैं। श्याम रॉड को उनकी पत्नी, बेटे और उनके पूरे परिवार का समर्थन प्राप्त है। उनका परिवार हमेशा ही नई कृषि पद्धतियों को शुरू करने में उनकी सहायता करता है। अभय रॉड एक खिलाडी है जिसने ताइक्वांडो में ब्लैक बेल्ट जीती हुई है और जिसने अपने कौशल और प्रतिभा के साथ राष्ट्रीय स्तर पर कई मैडल जीते हैं। उनका ध्यान अभी जैविक खेती और पूरे भारत में कई खाद्य वनों की खेती पर है।
उनके बारे में फेसबुक के माध्यम से लोग अधिक जान सकते हैं कि श्याम रॉड किस तरह फसल उगाने में प्रकृति पर निर्भर हैं। वह बताते हैं कि कैसे वह कीटों को नियंत्रण में रखने के लिए प्राकृतिक शिकारियों का उपयोग करते है और कैसे वह मिट्टी की गुणवत्ता में सुधार करने के लिए अपने खेतों में सुरक्षित फसलों को उगाते है। उनका यह भी मानना है कि रासायनिक उर्वरकों पर प्रतिबंध लगा देना चाहिए क्योंकि वे हमारे शरीर के लिए हानिकारक हैं और कई तरह की बीमारियां पैदा करते हैं।
मिट्टी को पोषक तत्वों और जीवाणुओं से भरपूर बनाने के लिए खेत में गोबर और गोमूत्र का उपयोग आवश्यक है। इस प्रक्रिया को “मल्चिंग” कहा जाता है। सदियों से किसानों द्वारा इस तरह की प्रक्रिया का इस्तेमाल किया जा रहा है और आज भी कई किसान इस विधि का प्रयोग करते हैं। खेत में इन दोनों उत्पादों का उपयोग करने का मुख्य कारण मिट्टी को स्वस्थ रखना और पौधों की वृद्धि करना है। वह एक प्रक्रिया का इस्तेमाल करते है जिसमें पौधों की जड़ों को गर्मी या ठंड से बचाने के लिए एक पदार्थ (जैसे पुआल या छाल) को जमीन पर रखा जाता है जो कि मिट्टी को गीला रखता है और खरपतवार को उगने से रोकता है।
श्याम जी के फार्म पर खाद्य जंगल मौजूद है वो एक सुंदर और भरपूर जगह है। पेड़ एक साथ लगाए जाते हैं और प्रचुर मात्रा में फल और सब्जियां प्रदान करते हैं। फलों और सब्जियों की प्राप्त होने वाली किस्में भरपूर गुणवत्ता वाली है। जो लोग फार्म को देखने आते हैं वह हमेशा पेड़ों के आकार और स्वास्थ्य के साथ-साथ पेड़ों की मात्रा और उपज की विविधता से प्रभावित होते हैं। खाद्य वन इस बात की एक उदाहरण है कि कैसे एक उत्पादक और टिकाऊ कृषि प्रणाली बनाने के लिए पर्माकल्चर का उपयोग किया जा सकता है। एक प्राकृतिक वन की संरचना की नकल करके खाद्य वन जानवरों और पौधों की कई अलग-अलग प्रजातियों के लिए एक आवास प्रदान करता है। यह एक विभिन्न और लचीला इकोसिस्टम बनाता है जो कीटों के प्रकोप और अन्य चुनौतियों का सामना कर सकता है।
वह अपनी “भूमि” की तुलना एक कैनवास के साथ करते हैं जिसे वह विभिन्न फलों और सब्जियों के साथ रंगना पसंद करते हैं। वह भूमि एक सामान्य जगह से भरपूर भरे हुए खाद्य वन में तब्दील हो गई है। खाद्य वन में नींबू, कटहल, नाशपाती, बेर, केला, पपीता, आड़ू, लीची, हल्दी, अदरक, मौसमी सब्ज़ियां, गेहूं और अलग-अलग किस्मों के बासमती धान उगाए जाते हैं। वह विभिन्न प्रकार के पौधे उगाने के लिए उत्सुक है। वह अपने लक्ष्य के प्रति बहुत समर्पित व्यक्ति हैं जो प्राकृतिक कृषि अभ्यास को अपनाने से पीछे नहीं हटते।
उनको जैविक खेती से प्रेरणा मिलती है, उनका मानना है कि खेती पहले की तरह जैविक तरीके से की जानी चाहिए। यह अतिरिक्त संसाधनों की सहायता और खतरनाक पदार्थों के उपयोग के बिना ही की जानी चाहिए। मनुष्य शरीर पर उर्वरकों के बुरे प्रभाव भी पड़ते हैं। महामारी के दौरान, लोगों ने महसूस किया कि उनका स्वास्थ्य कितना महत्वपूर्ण है और उन्हें जैविक भोजन को अपनाने के लिए प्रेरित किया गया।
वह अक्सर कहते है कि “मेरे परिवार ने हमेशा मेरा समर्थन किया और मुझे सही दिशा में आगे बढ़ने के लिए प्रेरित किया है”।
जब वह पहली बार जैविक खेती की ओर बढ़े तो उन्होंने कृषि उत्पादन में मामूली कमी देखी लेकिन जैसे-जैसे समय बीतता गया, उन्होंने उत्पादों को बाजार से अधिक कीमत पर बेचकर लाभ कमाना शुरू कर दिया।
उनकी संस्था न केवल ज़हरीले रासायनिक उर्वरकों का प्रयोग किये बिना मिट्टी की संभाल कर रही है, बल्कि एक एकड़ ज़मीन पर टैंक बनाकर बारिश के पानी को भी जमा कर रही है। इसके अलावा उन्होंने अपने खेतों में ट्यूबवेल के माध्यम से पानी निकालने और बिजली बनाने के लिए अपने खेतों में सौर पैनलों का उपयोग करने के लिए आगे आये। वह पर्यावरण के अनुकूल तरीकों का उपयोग कर रहे हैं क्योंकि उनका मानना है कि “हम दुनिया से जो लेते हैं, हमें वह वापस देना चाहिए।” उन्होंने अपने शहर में टिकाऊ खेती करने का विचार पेश किया। उनके गाँव के अन्य किसान भी उनके जैविक खेती के प्रयासों से प्रेरित हैं और उनसे नए तरीके सीखने आते हैं।

चुनौतियां

वह दूसरों के साथ मिलकर काम करने के महत्व को संबोधित करते हैं कि हर किसी के पास खाने के लिए पर्याप्त मात्रा में भोजन उपलब्द हो। वह भारत में भोजन की परंपराओं और रीति-रिवाजों के बारे में बात करते हैं और बताते हैं कि कैसे एक क्षेत्र का भोजन दूसरे क्षेत्र में बदलते हैं।

संदेश

उनका मानना है कि रासायनिक उर्वरकों पर प्रतिबंध लगाना चाहिए क्योंकि वे हमारे शरीर के लिए हानिकारक हैं और कई तरह की बीमारियां पैदा करते हैं। जैविक उत्पाद अधिक लोकप्रिय हो रहे हैं और किसान इससे अधिक लाभ कमा सकते हैं। श्याम सिंह रॉड एक प्रकृति और पर्यावरण से प्यार करने वाले इंसान हैं जो कृषि क्षेत्र को आगे बढ़ाने और उसका विस्तार करने के लिए जैविक खेती के मूल्य के बारे में दूसरों को शिक्षित करने के लिए सभी प्राकृतिक प्रक्रियाओं का पालन करने के लिए काम करते हैं।
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नवनूर कौर

(प्रोसेसिंग)

गुड़ से भरा चम्मच- नवनूर कौर

नवनूर की जिज्ञासा ने उन्हें गुड़ बनने वाले स्थानों का दौरा करने के लिए प्रेरित किया, जहां उन्हें साथ ही गन्ने के रस की सफाई की प्रक्रिया में रसायनों के उपयोग के साथ-साथ बाज़ार में मिलावटी और बिना ब्रांडेड गुड़ के होने के बारे में पता चला।
पर जब से स्वस्थ जीवन की दिशा में अचानक बदलाव आया है, तब से उन्होंने जीवन को स्वास्थ्य बनाये रखने के लिए चीनी की जगह गुड़ शुरुआत की। हालांकि, दूसरों को यह समझाना एक चुनौती थी कि यह स्वास्थ्य है।
साल 2019 में, नवनूर ने अपने ब्रांड “जैगरकेन” का विचार बनाया और उन्होंने 2021 में अपने ब्रांड के नमूनों का परीक्षण शुरू किया। अच्छी प्रतिक्रिया मिलने के बाद, उन्होंने अपने ब्रांड की प्रोसेसिंग और बिक्री करनी शुरू की। उनकी योजना लोगों को गुड़ का प्रयोग करने के लिए प्रोत्साहित करना था, जो एक अधिक पौष्टिक और खाने में स्वादिष्ट है, जिसका थोड़ी मात्रा में सेवन करने पर व्यक्ति को तीस प्रतिशत तक आयरन प्रदान करता है।
नवनूर और उनके सह-संस्थापक, कौशल सिंह, जिन्होंने पंजाब कृषि विश्वविद्यालय, लुधियाना से कृषि व्यवसाय से एम.बी.ए. की है, और इनका सपना था कि स्टोर में पड़े गुड़ को “सैड पैक गुड” से एक ट्रेंडी गुड में बदलना था। जो लोगों की नज़रों में आए और लोगों के दिलों में अपनी जगह बना ले। नवनूर ने कौशल सिंह जी के फार्म का दौरा किया और देखा कि यह तो बहुत ही हाइजेनिक है।
नवनूर और कौशल जी का कहना है कि गुड़ को आधार के रूप में उपयोग करते हुए, हम नट्स और बीजों जैसे पौष्टिक मूल्य परिवर्धन को जोड़कर उत्पाद के लाभों को बढ़ाते हैं।
वह गुणवत्ता को महत्त्व देते हैं और सुनिश्चित करते है कि उनका उत्पाद उनके सामान्य काम करने वालों की तुलना में उत्तम है, क्योंकि उनकी प्रकिर्या में सफाई के तरीके और गन्ने की सफाई के लिए भिंडी की जड़ों का उपयोग किया जाता है।
उनके पोल के परिणाम ने उन्हें इस निष्कर्ष पर पहुंचाया है कि अधिकतर व्यक्ति गुड़ का स्वाद पसंद नहीं करते। जैगरकेन ऐसे उत्पाद बनाता है जिनका मूल्य अधिक है पर स्वादिष्ट, स्टाइलिश और नए युग के सभी उम्र के लोगों के लिए उपयुक्त हैं। इन वस्तुओं का सेवन नियमित रूप से स्नेक्स के रूप में भी किया जा सकता है।
नवनूर और कौशल जी की इच्छा चीनी को गुड़ से बदलने की है।
दोनों ने ध्यान दिया कि वह दो रास्तों के माध्यम से आमदनी कमा सकते हैं: व्यापार-से-व्यापार और सीधा उपभोक्ता के साथ।
अन्य व्यवसायों को बेचने से हमें उसी समय भुगतान प्राप्त करने में मदद मिलती है, जैसे कि व्हाइट लेबलिंग। हम उस पैसे का उपयोग अपने ब्रांड को बनाने के लिए सीधे उपभोक्ता तक मार्केट में करते हैं, जो अपने दम पर करना मेहंगा है।
इसके अलावा उन्होंने कहा कि “भले ही हम चाय और कॉफी में बेहतर मीठे विकल्पों का उपयोग करेंगे, फिर भी स्टाटर्स में चीनी शामिल होगी।
इसके अलावा, जैगरकेन कई प्रकार के स्वादिष्ट उत्पाद प्रदान करता है जो आयरन और प्रोटीन से भरपूर होते हैं और आपके स्वास्थ्य के लिए अच्छा होने के साथ-साथ कुछ मीठा खाने की आपकी लालसा को पूरा कर सकते हैं।

खास उत्पाद

  • ऑर्गैनिक गुड़ के टुकड़े
  • ऑर्गैनिक गुड़ पाउडर
  • बादाम इलाइची गुड़ के टुकड़े
  • कद्दू बीज गुड़ के टुकड़े
  • कुरकुरे गुड़ ग्रेनोला
  • नारियल गुड़ के टुकड़े
कंपनी एक सामाजिक प्रभाव-संचालित व्यवसाय मॉडल के आधार पर काम करती है, और इसके नेतृत्व में उद्देश्य-संचालित महिलाएं शामिल हैं। इसके आलावा ज़्यादातर कंपनी के उत्पाद के उत्पादन और पैकेजिंग की ज़िम्मेदारी के लिए महिलाएं शामिल हैं।
दूसरी तरफ पंजाब के मुख्यमंत्री, भगवंत मान द्वारा जैगरकेन को पंजाब राज्य में उभरते स्टार्टअप्स के रूप में मान्यता दी गई। अब पंजाब में बढ़ रहे व्यवसायों में से एक जैगरकेन भी है।

चुनौतियां

नवनूर जी किसी व्यावसायिक पृष्ठभूमि से नहीं थे, जब उन्होंने इसकी शुरुआत की तो उन्हें समस्यायों का सामना करना पड़ा, क्योंकि मार्केटिंग और प्रोसेसिंग के साथ जुडी वित्ति खर्चे महत्वपूर्ण थे।

संदेश

आज कृषि कार्य के सभी पहलुओं में सुधार की काफी गुंजाइश है। इन दिनों लोगों का अपने मूल स्थान पर वापस जाने का विचार है। लगातार बढ़ती मांग को पूरा करने के लिए किसानों को अपना पूरा विश्वास एम.एस.पी. पर नहीं लगाना चाहिए, बल्कि इसके बजाए कुछ नए समाधान विकसित करने पर ध्यान देना चाहिए।
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महावीर धारीवाल

(प्रोसेसिंग)

मैंने सपने भी देखे और उनको पूरा भी किया -महावीर धारीवाल

महावीर धारीवाल एक मुख्य जीवन बीमा अधिकारी हैं, जिन्होंने अजमेर, राजस्थान में एल.आई.सी के साथ 25 वर्षों से अधिक समय तक काम किया है। उन्होंने सफलता के लिए अपना रास्ता खुद बनाया और अपने बगीचे में गुलकंद पैदा करने के लिए गुलाब उगाना शुरू कर दिया। आज वह राजस्थान के सबसे प्रसिद्ध गुलकंद “पी.एफ.आई गोल्ड गुलकंद” के गौरवशाली मालिक हैं।

जैसा कि उनके नाम का अर्थ स्वयं मनुष्य के लिए है, ‘महावीर’, जिसका अर्थ है साहसी, क्योंकि उनका परिवार वर्षों से खेती के साथ जुड़ा हुआ था। उनके मन की इच्छा थी वह खुद का काम शुरू करें, जिसने भवता, सरधना जिले, अजमेर में “पुष्कर खाद्य उद्योग” को जन्म दिया। गुलकंद बनाने के लिए 12 एकड़ के खेत में डैमस्क और चाइनीज जैसे गुलाबों की विभिन्न किस्मों को उगाना शुरू किया।

शुरू से उनका मानना था कि लोगों की भलाई अच्छा खाना खाने में है तो क्यों न वह इसे खुद से ही शुरू करें। उन्होंने वर्षों में गुलकंद का उत्पादन करने के लिए गुलाब उगाए, लेकिन छोटे स्तर पर अपने इस्तेमाल के लिए। एक किसान के रूप में, वह जानते थे कि गुलकंद एंटीऑक्सिडेंट से भरपूर है और एक ऊर्जा बूस्टर है। नियमित रूप से गुलकंद का सेवन करने से लोगों को गंभीर अल्सर, कब्ज और गैस से राहत मिल सकती है। उन्हें पता था कि राजस्थान भारत के सबसे गर्म राज्यों में से एक है। गर्मियों में गुलकंद का सेवन सनस्ट्रोक, (लू) नाक से खून बहने और चक्कर आने से रोकने में मदद करता है। एक कदम आगे बढ़ाते हुए वह बिना पीछे देखे आगे बढ़ने लगा। पिछले 15 वर्षों से नर्सरी होने के बाद से उनका परिवार हमेशा उनका सहयोगी रहा है।

 एक मुख्य जीवन बीमा अधिकारी के रूप में काम करते हुए, उन्होंने अपने खेत में गुलाब उगाकर अपनी मुश्किलों को अपने पक्ष में कर लिया। बाद में, महामारी के दौरान, उन्होंने उच्च गुणवत्ता वाले जैविक आंवला उत्पाद बनाये। आज उनके पास गुलकंद से बनें 3-4 और आंवला से बनें 6-7 तरह के उत्पाद है।

जैसे-जैसे हम समय के साथ बढ़ते गए , वैसे ही पुष्कर खाद्य उद्योग भी बढ़ा। विकास के एक नए रास्ते पर चलते हुए, महावीर जी सुधार कर रहे हैं और नए उत्पादों के साथ आने के लिए हर दिन कड़ी मेहनत कर रहे हैं। महावीर जी के ब्रांड में 14-15 खाद्य उत्पाद शामिल हैं जिन्हें वह अपनी देखरेख में पैक और लेबलिंग करते है। उनकी कंपनी द्वारा निर्मित सभी उत्पाद FSSAI द्वारा स्वीकृत (भारतीय खाद्य सुरक्षा और मानक प्राधिकरण) हैं।

उत्पादों की सूची

  • आंवला उत्पाद जैसे- मुरब्बा, आंवला पाउडर और आंवला ऑर्गेनिक लड्डू।
  • आंवला कैंडीज की एक किस्म
  • पान, आइसक्रीम और गुलकंद और शहद से बने शेक
  • हल्दी, कस्तूरी मेथी और पुदीना जैसे मसाले भी उगाए जाते हैं।
वह हाल ही में पैशनफ्रूट और ड्रैगन फ्रूट की किस्में लेकर आये हैं, जो केवल पूरे राजस्थान राज्य में सिर्फ उनके पास उपलब्ध हैं।
उनके आंवला के लड्डू बहुत स्वादिष्ट हैं, जिसे उनके इलाके के ज्यादातर लोग बड़े चाव से खाते और आनंद लेते हैं। स्वास्थ्य के प्रति जागरूक लोग ही एक अलग उत्पाद बनाने का उद्देश्य था।
उनसे बात करते हुए, उन्होंने कहा कि लोग काजू बर्फी पर 600-700 रुपये खर्च करने को तैयार हैं, जबकि हमारे लड्डू 300 रुपये के हैं और उन लोगों के लिए खाने का बढ़िया उत्पाद हैं।

और इसके साथ, उन्होंने कहा कि यह एक खुद का बनाया हुआ रास्ता है जहां वह सफल हो रहे हैं और हर दिन सीख रहें है। वह अपने उत्पादों को सीधे उपभोक्ता को बेचते हैं क्योंकि उनका मानना है कि वह गुणवत्ता से समझौता नहीं कर सकते।

इससे पहले, पुष्कर खाद्य उद्योग को कवर किया गया था और उनके गुणवत्ता वाले उत्पादों और श्री महावीर के दृढ़ संकल्प के लिए दूरदर्शन टीवी पर इसका प्रसारण किया गया था।
महावीर जी की कहानी हमें विश्वास दिलाती है कि यदि आप में साहस और विश्वास है तो आप बहुत आगे बढ़ सकते हैं। जैसा कि कहा जाता है, “विश्वास चीजों को आसान नहीं बनाता है, लेकिन यह उन्हें संभव बनाता है।”

चुनौतियां

उनका मानना है कि किसानों के लिए सबसे चुनौतीपूर्ण भाग यह है कि वे उन सरकारी नीतियों से अनजान हैं जो उनके लिए बनाई गई हैं और उनकी जरूरतों को पूरा करती हैं और इससे संबंधित जानकारी देने वाले भी उपलब्ध नहीं है।

भविष्य की योजनाएं

महावीर जी का लक्ष्य अपने कारोबार को पूरे भारत में फैलाना और कई वॉक-इन स्टोर खोलना है। सबसे पहले उनका पहला स्टोर जयपुर में खुल रहा है और अगला स्टोर दिल्ली होगा।
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संगीता तोमर

(प्रोसेसिंग)

जैविक गुड़ बेच कर बहन-भाई को जोड़ी ने चखा सफलता का स्वाद

बेशक आपने भाई-बहनों को लड़ते हुए देखा है लेकिन क्या आपने उन्हें एक साथ बिजनेस चलाने के लिए एक साथ काम करते देखा है?
मुजफ्फरनगर, उत्तर प्रदेश की संगीता तोमर जी और भूपिंदर सिंह जी भाई-बहन बिजनेस पार्टनर्स का एक आदर्श उदाहरण हैं, जिन्होंने एक साथ बिजनेस शुरू किया और अपने दृढ़ संकल्प और जुनून के साथ सफलता की नई ऊंचाइयों पर पहुंचे। संगीता जी और भूपिंदर जी का जन्म और पालन पोषण मुजफ्फरनगर में हुआ, संगीता जिनका विवाह नजदीकी गांव में हुआ था वहअपने नए परिवार के साथ अच्छी तरह से सेटल हैं। उत्तर प्रदेश राज्य की आगे वाली बेल्ट सर्वोत्तम गुणवत्ता वाले गन्ने के लिए जाने जाती है, हालांकि यह फसल अन्य राज्यों में भी उगाई जाती है लेकिन गन्ना गुणवत्ता और स्वाद में अलग होता है। दोनों ने अपनी 9.5 एकड़ जमीन पर गन्ना उगाने के बारे में सोचा और 2019 में उन्होंने ‘किसान एग्रो-प्रोडक्ट्स’ नाम से गन्ना उत्पादों की प्रोसेसिंग शुरू किया।

उत्पादों की सूची

  • गुड़
  • शक़्कर
  • देसी चीनी
  • जामुन का सिरका
जैविक फलों से बने गुड़ से विभिन्न स्वादों वाले कुल 12 उत्पाद तैयार किए जाते हैं। वे फ्लेवर्ड चॉकलेट, आम, सौंफ, इलायची, अदरक, मिक्स, अजवाइन, सूखे मेवे और मूंगफली का गुड़ में शामिल करने से परहेज करते हैं।
भूपिंदर सिंह जी ने इस क्षेत्र में कभी कोई ट्रेनिंग नहीं ली था लेकिन उनके पूर्वज पंजाब में गन्ने की खेती करते थे। वह इस अभ्यास के साथ-साथ आज के उपभोक्ताओं की आवश्यकता को भी समझते थे जो अपने भोजन के बाद मीठे में चीनी खाना पसंद करते हैं। उन्होंने गुड़ को छोटे-छोटे टुकड़ों में बनाने के बारे में सोचा। उन्होंने गुड़ को बर्फी के रूप में बनाने के बारे में सोचा जहां 1 टुकड़े का वजन लगभग 22gm है, जोकि भोजन या दूध के साथ एक बार में खाना आसान था, जैविक था और चीनी से कहीं बढ़िया था।
“अच्छी गुणवत्ता और स्वादिष्ट गुड़ पैदा करने की तकनीक हमारे परिवार में पीढ़ी दर पीढ़ी चली आ रही है” भूपिंदर सिंह
संगीता जी मार्केटिंग का काम देखते हैं और प्लांट में शरीरक रूप से मौजूद न होने पर भी नियमित निरीक्षण करते हैं। स्टील-इनफ्यूज्ड मशीनरी का उपयोग प्रोसेसिंग के लिए किया जाता है जिसे किसी भी प्रदूषण से बचाने के लिए अच्छी तरह से कवर किया जाता है। क्योंकि सभी उत्पाद मशीन द्वारा बनाए जाते हैं, इसलिए स्वाद में कोई बदलाव नहीं होता है। भूपिंदर जी, संगीता जी और उनकी टीम दिल्ली के 106 सरकारी स्टोर और 37 निजी स्टोर में अपने उत्पाद पहुंचाती है।
प्रतिदिन उपयोग किए जाने वाले गन्ने की मात्रा 125 क्विंटल है और इस आवश्यकता को पूरा करने के लिए उन्हें अपने गाँव के अन्य किसानों से इस फसल को खरीदने की आवश्यकता है। गुड़ का उत्पादन आमतौर पर सितंबर से मई तक होता है लेकिन जब उपज मौसमी कारकों से प्रभावित होती है तो यह सितंबर से अप्रैल तक ही होती है।

प्रारंभिक जीवन

भूपिंदर सिंह जी 2009 में भारतीय सेना से राष्ट्रीय सुरक्षा गार्ड के रूप में सेवानिवृत्त हुए और फिर खाद्य उद्योग में अनुभव हासिल करने के लिए एक फाइव स्टार होटल में काम किया। 2019 में, उन्होंने अपने गाँव में सीखी गई पारंपरिक प्रथाओं से कुछ बड़ा करने का फैसला किया। उन्होंने अपने उत्पादन पलांट और अपने खेतों में काम करने वाले मजदूरों के लिए रोजगार भी पैदा किया और अन्य किसानों से गन्ना खरीदकर किसानों को आय का एक स्रोत भी प्रदान किया।
संगीता तोमर, जिन्होंने अंग्रेजी मेजर में मास्टर डिग्री पूरी की है, एक स्वतंत्र महिला हैं। उनके सभी बच्चे विदेश में बसे हुए हैं लेकिन वह अपने गांव में रह कर खेती करना चाहते हैं।

चुनौतियां

एक अच्छी गुणवत्ता वाले उत्पाद की पहचान एक ऐसे उपभोक्ता द्वारा की जा सकती है जो जैविक उत्पाद और डुप्लिकेट उत्पाद के बीच का अंतर जानता हो। उनके गांव में ऐसे किसान हैं जो जुलाई में भी चीनी और केमिकल से गुड़ बना रहे हैं. यह किसान अपना उत्पाद कम कीमत पर बेचते हैं जो खरीदार को रासायनिक रूप से बने गुड़ की ओर आकर्षित करता है।

प्राप्तियां

  • लखनऊ में गुड़ महोत्सव में उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री द्वारा सम्मानित किया गया।
  • मुजफ्फरनगर के गुड़ महोत्सव में सम्मानित किया गया।

किसानों के लिए संदेश

वह चाहते हैं कि लोग खेती की ओर वापिस आएं। आज के दौर में नौकरी के लिए आवेदनकर्ता अधिक हैं लेकिन नौकरी कम। इसलिए बेरोजगार होने के बजाय अपना खुद का व्यवसाय शुरू करने का समय आ गया है। इसके अलावा, कृषि में विभिन्न क्षेत्र हैं जिन्हें कोई भी अपनी रुचि के अनुसार चुन सकता है।

योजनाएं

भूपिंदर सिंह जी बिचौलियों के बिना अपने उत्पादों को सीधे उपभोक्ताओं को बेचना चाहते हैं, जिससे उनका मुनाफा बढ़ेगा और उपभोक्ता भी कम कीमत पर जैविक उत्पाद खरीद सकेंगे।
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खुशी राम

(खेती विभिन्नता)

सीखने के ईशुक व्यक्ति के लिए कोई सीमा नहीं

खुशी राम जी उत्तराखंड के टिहरी के रहने वाले हैं और यह है उनका आम किसान से प्रगतिशील किसान बनने एक अनोखा सफ़र।

शुरुआत

उनके माता-पिता पारंपरिक खेती करते थे और फिर खुशी राम जी ने अपने बड़ों के अनुभव को वैज्ञानिक तकनीकों के साथ जोड़ा जिसका प्रशिक्षण उन्होंने के.वी.के., रानीचौरी से प्राप्त किया। उन्होंने 2002 तक खेती को एक पेशे के रूप में शुरू करने की योजना नहीं बनाई थी, लेकिन खुशी राम जी को अपने माता-पिता के बिगड़ते स्वास्थ्य और पांच भाई-बहनों में सबसे बड़े होने के कारण यह जिम्मेदारी उठानी पड़ी। बाद में उन्हें खेती पसंद आने लगी और कुछ ही समय में वे प्रकृति के दीवाने हो गए और अपने खेत में अलग-अलग फसलें उगाने के प्रयोग करने लगे।

फसल उत्पादन और टेक्नोलॉजी

उनके पास कुल 4 एकड़ जमीन है, जिसमें वह तरह-तरह की सब्जियां और फल उगाते हैं, जिनमें टमाटर, शिमला मिर्च, खीरा, बैगन, मशरूम, गेहूं, राजमा, स्ट्रॉबेरी और कीवी कुछ प्रमुख फसलें हैं। उन्होंने 5 पॉलीहाउस बनाए हैं, जिनमें से वे दो पॉलीहाउस में टमाटर उगाते हैं, एक पॉलीहाउस में उनकी नर्सरी है और अन्य दो में वह खीरे और शिमला मिर्च उगाते हैं।
वे ब्रोकोली और केल,पार्सले और मिजुना की जापानी किस्में भी उगाते हैं। इसके अलावा उन्होंने अपनी जमीन पर 350 आड़ू के पेड़ भी लगाए हैं। वह छोटे पैमाने पर एक्वाकल्चर और पोल्ट्री फार्मिंग भी करते हैं। वह आम तौर पर जैविक खेती का अभ्यास करते हैं जहां वह अपने खेत में मवेशियों के मलमूत्र, ट्राइकोडर्मा और स्यूडोमोनास जैसे जैविक उर्वरकों का उपयोग करते हैं, लेकिन कभी-कभी उन्हें कीट प्रबंधन के लिए आवश्यक कीटनाशकों का भी उपयोग करना पड़ता है।
खुशी राम जी ऐसे इलाके में रहते हैं जहां पानी की कमी है। इस समस्या से निपटने के लिए, उन्होंने वर्षा जल संचयन, ड्रिप सिंचाई, फव्वारा सिंचाई, प्लास्टिक मल्चिंग और सूक्ष्म सिंचाई सहित कई उन्नत तकनीकों को अपनाया है।
उन्होंने कभी भी सीखना बंद नहीं किया और कृषि के विशाल क्षेत्र में सीखे गए नए ज्ञान के साथ प्रयोग करना जारी रखा। उनका मुख्य उद्देश्य उनकी आय में वृद्धि करना था और इस प्रकार उन्होंने मुर्गी पालन शुरू किया जो सफल नहीं रहा और बाद में उन्होंने मशरूम की खेती करने का फैसला किया जिससे उन्होंने काफ़ी लाभ कमाया।

एक उदाहरण स्थापित की

उनकी सफलता दूसरों के लिए एक उदाहरण बन गई जिसने अन्य किसानों को कड़ी मेहनत करने और सफल होने के लिए प्रेरित किया। कटाई के सीज़न में जब काम का बोझ बढ़ जाता है तो वे अपने गांव की महिलाओं की मदद लेते हैं। खुशी राम जी महिलाओं के लिए रोज़गार पैदा करते हैं और उन्हें काम करने और खुद कमाने के लिए स्वतंत्र बनाते हैं। पिछले सीज़न में काम करने वाली महिलाएं अपने व्यस्त शेड्यूल के कारण अगले सीज़न में काम नहीं कर पाती हैं, तो एक नया ग्रुप ता है और ख़ुशी राम जी उन्हें ट्रेनिंग देते हैं और उनका मार्गदर्शन करते हैं।

सहायक स्तंभ

वह सरकार की किसानों के जीवन स्तर को ऊपर उठाने में मदद करने वाली सभी योजनाओं के आभारी हैं। उनके सभी पॉलीहाउस और कृषि मशीनरी 80% सब्सिडी के आधीन हैं और उन्हें केवल 24000 रुपये प्रति पॉलीहाउस का भुगतान करना पड़ा है। कृषि विज्ञान केंद्र, रानीचौरी ने शुरू से ही उन्हें कृषि योजनाओं को समझने और कृषि में नई तकनीकों को पेश करने में मदद की है। उन्होंने बागवानी विभाग की मदद से अपने खेत में 500 सेब के पेड़ लगाए हैं। कुछ वर्षों से उनके इलाके में बर्फ कम पद रही है इस लिए उन्होने अपने क्षेत्र में सेब की एम-9 और एम-26 किस्मों की खेती कर रहे हैं, वे अपने क्षेत्र में इन किस्मों को उगाने वाले पहले किसान हैं और वह उपज को देखते हुए भविष्य में इसकी खेती को लेकर काफ़ी सकारात्मक हैं।

चुनौतियां

सबसे पहले उनके क्षेत्र में उत्पादन जंगली जानवरों के कारण होने वाले विनाश से प्रभावित होता है।  दिन में बंदरों से और रात में सूअरों से खेत का निरीक्षण करने के लिए एक व्यक्ति ऐसा चाहिए होता है जो के हर पल खेती की देखभाल कर सके। उनके सामने एक और चुनौती ‘मार्किट लिंकेज’ है क्योंकि उनका क्षेत्र छोटा है और उनकी व्यापार सिर्फ चंबा, ऋषिकेश और देहरादून तक सीमित है। वार्षिक लाभ 7 लाख रूपये प्रति वर्ष तक जाता है लेकिन प्राकृतिक आपदाओं जैसे बाढ़, बादल फटने आदि के कारण नुकसान ज्यादातर कमाई से अधिक होता है।

उपलब्धियां

  • 2022 में ICAR – भारतीय कृषि अनुसंधान संस्थान, नई दिल्ली द्वारा अभिनव किसान पुरस्कार से रूप में सम्मानित किया गया
  • मशरूम की खेती के क्षेत्र में निरंतर प्रयासों के लिए उत्तराखंड के राज्यपाल लेफ्टिनेंट जनरल गुरमीत सिंह द्वारा 2022 में सराहना की गई।
  • 2019 में ISHRD देव भूमि बगवानी पुरस्कार (2014-2018) से सम्मानित किया गया।

किसानों के लिए संदेश

उन्होंने किसानों को रासायनिक खाद का प्रयोग कम करने की सलाह दी। उनका कहना है कि इन विषाक्त पदार्थों के उपयोग को कम करके या जैविक खेती की ओर मुड़कर व्यक्ति स्वस्थ जीवन जी सकता है।

भविष्य की योजनाएं

उनका मुख्य उद्देश्य अपनी उपज को नज़दीकी और दूर के बाजारों में ले जाना और एकीकृत कृषि प्रणाली को अपनाकर अपनी आय में वृद्धि करना है।
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नरेश कुमार

(प्रोसेसिंग)

32 प्रकार के जैविक उत्पाद बनाता है हरियाणा का यह प्रगतीशील किसान

हम अपने घरों में जो चीनी खाते हैं, वह हमारे शरीर को भीतर से नष्ट कर रही है। हमारी जीवन  की अधिकांश बीमारियां जैसे हार्मोनल असंतुलन, उच्च रक्तचाप, शुगर, मोटापा किसी न किसी रूप में शुगर से संबंधित हैं। जबकि इस समस्या को एक स्वस्थ पदार्थ से हल किया जा सकता है और वह है ‘गुड़’।
नरेश कुमार एक प्रगतिशील किसान हैं जो खड़क रामजी, जिला जींद, हरियाणा में रहते हैं और जैविक गुड़, शक़्कर, चीनी और इन तीनों से बने 32 विभिन्न उत्पादों का व्यापार करते हैं।
उन्होंने आयुर्वेदिक चिकित्सा का अध्ययन करके अपने करियर की शुरुआत की, बाद में आयुर्वेदिक जड़ी-बूटियों के अपने ज्ञान के साथ उन्होंने 2006 में नशामुक्ति के लिए एक दवा विकसित की। उन्होंने उस दवा का नाम ‘वाप्सी’ रखा जिसका मतलब होता है नशे से वापिस आना। उन्होंने ‘आपनी खेती’ टीम के साथ साझा किया कि नशे से छुटकारा पाने के लिए कई एलोपैथिक दवाएं की बजाए एक आयुर्वेदिक दवा अधिक उपयोगी है। क्योंकि आयुर्वेद सबसे पुरानी विधि है और इसमें उन बीमारियों को ठीक करने की क्षमता है जो प्राचीन काल से असंभव थी।
2018 में, उन्होंने अपना ध्यान दवाइयों से फ़ूड प्रोसेसिंग की और किया और 32 विभिन्न प्रकार के जैविक उत्पादों को पेश किया। उन्होंने उपभोक्ता की मांग के अनुसार गुड़ की कई किस्में बनाईं जैसे – चाय के लिए गुड़, पाचन के लिए गुड़, अजवाइन, इलायची, सौंफ, चॉकलेट गुड़। अन्य उत्पादों में गाजर और चुकंदर की चटनी, सेब, अनानास, आंवले का जैम शामिल हैं।
“हम अपने दैनिक जीवन में जो चीनी खाते हैं, वह मानव स्वास्थ्य के लिए बहुत हानिकारक है। जितनी जल्दी हम इसे समझेंगे और गुड़ का उपयोग करेंगे, यह हमारे शरीर के लिए उतना ही अच्छा होगा।” – नरेश कुमार
उन्होंने 4 एकड़ जमीन पर प्रोसेसिंग यूनिट लगा रखी है। ये सभी उत्पाद पारंपरिक तरीकों का उपयोग करके बनाए गए हैं जो उन्हें 100% जैविक बनाते हैं। जब गुड़ बनाया जाता है, तो उसमें प्रोसेसिंग किये फल और सब्जियां डाली जाती हैं और फिर मिट्टी के बर्तन में जमा कर दी जाती हैं। इन उत्पादों के निर्माण में पानी या चीनी का उपयोग नहीं किया जाता है।
एक अन्य उत्पाद जो वे पशुओं के लिए बनाते हैं वह है ‘दूध का अर्क’ जो पशुओं की दूध उत्पादन क्षमता को बढ़ाता है। यह बार बार रपीट होने पशुओं के लिए एक बहुत बढ़िया उत्पाद है। उन्होंने इस उत्पाद की फार्मूलेशन पहले ही कर दी थी  इसलिए उन्होंने पहले इसे लागू करने के बारे में सोचा। उन्होंने इसे किसी ओर द्वारा बनाने के बारे में भी सोचा था पर उन्हें डर था कि रासायनिक सूत्र में कुछ उतार-चढ़ाव तो न आ जाए। इस मामले में किसी पर भरोसा करना आसान नहीं था। इस शिरा की खासियत यह है कि इसे देसी खंड के राव से बनाया गया है।
जींद, में स्थित कृषि विज्ञान केंद्र  पांडु , पिंडारा और हरियाणा कृषि विश्वविद्यालय ने इस व्यवसाय के शुरुआती दिनों में उनकी बहुत मदद की। इन संस्थानों से उन्होंने वह तकनीकी ज्ञान प्रदान किया जिसकी उन्हें इस व्यवसाय को स्थापित करने के लिए सख्त जरूरत थी। उनका मार्गदर्शन डॉ. विक्रम ने किया, जो हरियाणा कृषि विश्वविद्यालय के एग्री बिजनेस इन्क्यूबेशन  केंद्र (ABIC) में मार्केटिंग के मैनेजर हैं।   नरेश जी ने इसी केंद्र से प्रशिक्षण प्राप्त किया जिसके बाद वह RAFTAR स्कीम  के तहत अपने उत्पाद “मिल्क शीरा” को प्रमोट करने के लिए 20 लाख रुपये प्राप्त करने में कामयाब हुए।
‘वापसी ‘ दवा 2015 से बाजार में है। वे 2015 से सीधे ग्राहकों को दवा बेच रहे हैं। आज उनके मुख्य रूप से हरियाणा और पंजाब के कुछ हिस्सों से 20 वितरक हैं। शुरुआत में उन्हें काफी दिक्कतों का सामना करना पड़ा क्योंकि बाजार में हर दूसरा उत्पाद नकली था जबकि उनके दाम ज्यादा थे क्योंकि उनके उत्पाद जैविक थे और जब उन्होंने शुरुआत की तो उन्हें काफी चुनौतियों का सामना करना पड़ा।  लेकिन बाद में ग्राहकों को ऑर्गेनिक और नकली उत्पादों के बीच अंतर के बारे में पता चला और अब उनके उत्पादों को ग्राहकों द्वारा सराहा जाता है। उन्होंने कहा कि लोगों को यह समझाना आसान नहीं था कि अन्य सभी उत्पाद मिलावटी हैं और शरीर के लिए अच्छे नहीं हैं। सीजन के दौरान उन्हें हर महीने 3 लाख रुपये का मुनाफा होता है।
जब सीजन में अधिक काम होता है, तो वे 15 मजदूरों को काम पर रखते हैं, जो आमतौर पर ऑफ सीजन में 5 होते हैं। यद्यपि वे उच्च मांग के कारण गन्ने की खेती करते हैं, फिर भी उन्हें जैविक किसानों से कुछ गन्ना खरीदना पड़ता है। वह पीलुखेड़ा किसान उत्पादक संगठन (एफपीओ) के सदस्य भी हैं जहां वे निदेशक के रूप में कार्य करते हैं।

उपलब्धियां

• चौधरी चरण सिंह हरियाणा कृषि विश्वविद्यालय द्वारा 2019 में प्रगतिशील किसान की उपाधि से सम्मानित किया गया।

भविष्य की योजनाएं

नरेश कुमार अपने व्यवसाय को नई ऊंचाइयों पर ले जाना चाहते हैं और बड़े पैमाने पर गुड़ और उसके उत्पादों का उत्पादन बढ़ाना चाहते हैं।

किसानों के लिए संदेश

वह अन्य किसानों को अपनी पैदा की फसल की प्रोसेसिंग शुरू करने के लिए प्रोत्साहित करना चाहते हैं क्योंकि कच्चे माल को बेचने की तुलना में पूरे उत्पाद को बनाने में अधिक मार्जिन है। गेहूं बोने वाले किसान को गेहूं के आटे की प्रोसेसिंग यूनिट शुरू करनी चाहिए, सूरजमुखी की बुवाई करने वाले किसान को बीज से तेल निकालना चाहिए और अन्य सभी फसलों के लिए भी प्रोसेसिंग संभव है।
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रजत सल्गोत्रा

(प्रोसेसिंग)

एक MBA ग्रेजुएट ने की गाय के गोबर से लाखों की कमाई

हाजी अपने ठीक पढ़ा, जम्मू से रजत सल्गोत्रा गणेश चतुर्थी के लिए गाय के गोबर से दीप, प्रयोग किये फूल से अगरबत्ती, फ्लोवेर्पोट और बायोडीग्रेडेबल गणेश जी जैसे वातावरण अनुकूल उत्पाद बनाता है।
हालाँकि भारत में गायों की पूजा की जाती है, फिर भी उन्हें बहुत उत्पीड़न का सामना करना पड़ता है। जब तक गाय स्तनपान करा रही है, तब तक वह कीमती है लेकिन जैसे ही यह दूध देना बंद कर देती है, उन्हें सड़क पर छोड़ दिया जाता है, जहां वे सड़क दुर्घटना में मर जाती हैं या प्लास्टिक खाने से उनका दम घुट जाता है। दूसरी ओर गौशाला गाय के गोबर को नालों में फेंक देती है, जहां वह जमा हो जाता है और भयानक बीमारियों का कारण बनता है। उन्होंने महसूस किया कि इस मुद्दे को हल करने का समय आ गया है और इसलिए उन्होंने इन बेजुबान प्राणियों के कल्याण के लिए काम करना शुरू कर दिया। उन्होंने जम्मू विश्वविद्यालय से एम.बी.ए. किया है। अपनी पढ़ाई के दौरान उन्होंने पर्यावरण के अनुकूल उत्पाद बनाने की योजना बनाई और 2019 में अपनी पढ़ाई पूरी करने के बाद योजना को लागू किया। 2021 में कंपनी समस्त इको, प्राइवेट लिमिटेड की स्थापना हुई। शुरुआती निवेश करीब 2 लाख रुपये था। सभी शोध कार्य 2021 तक किए गए जिसमें कच्चे माल यानी गाय के गोबर की आसान उपलब्धता और प्रबंधन और गाय के गोबर का उपयोग करके कितने उत्पाद बनाए जा सकते हैं। इसके बारे में रिसर्च की गई,  कई असफल प्रयासों के बाद, उन्होंने पाया कि सभी दीपक देसी गाय के गोबर से बने थे।
उन्होंने तुरंत इस काम को शुरू नहीं किया लेकिन प्लास्टिक अपशिष्ट प्रबंधन परियोजना में यू.एन.डी.पी., जम्मू से पहले ज्ञान और अनुभव प्राप्त किया। जहां उन्होंने सतत विकास और हमारी पीढ़ी के लिए संसाधनों का उपयोग करने के साथ-साथ भविष्य की पीढ़ियों के लिए उनका उपयोग कैसे किया जा सकता है, के बारे में सीखा।
फिर दिशा फाउंडेशन (एन.जी.ओ.) की मदद से उन्होंने गाय के गोबर से दीपक बनाना शुरू किया। गोबर के प्रयोग से दो समस्याओं का समाधान हुआ; किसानों ने सोचा कि गायें दूध पिलाने के बाद भी आमदन पैदा कर सकती हैं और अपशिष्ट प्रबंधन तकनीकों के कारण उनके शहर के नालों को अब साफ कर दिया गया है।
शुरुआती दिनों में, परिवार ने उनसे इन फैसलों के बारे में सवाल किया क्योंकि उनके परिवार में से पहले किसी ने खेती नहीं की थी, और एक एम.बी.ए ग्रेजुएट अच्छी नौकरियां ठुकरा देगा और गोबर के साथ काम करेगा। लेकिन उन्होंने कभी खुद पर शक नहीं किया। उन्हें इस समय विभिन्न चुनौतियों का सामना करना पड़ा; अगरबत्ती में प्राकृतिक तत्व की सुगंध उपभोक्ताओं को पसंद नहीं आई और मुख्य मुद्दा किसानों से गोबर को उत्पादन यूनिट तक तक ले जाना था। शुरुआती दिनों से लेकर आज तक, दिशा फाउंडेशन ने हर कदम पर उनका साथ देने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है।
किसी भी अन्य शहर की तरह जम्मू में भी कई मंदिर हैं और मंदिरों में इस्तेमाल होने वाले फूलों की कभी कमी नहीं होती है। उन्होंने जम्मू शहर में 2-3 मंदिरों का चयन किया है जो उन्हें इस्तेमाल किए हुए फूल प्रदान करते हैं जहां से वे अगरबत्ती बनाने के लिए फूलों को सुखाते हैं और फिर प्रोसेसिंग करते हैं। गाय के गोबर को पहले ग्राइंडर से पीसा जाता है और फिर दीपक के लिए एक पेस्ट बनाया जाता है, जिसे बाद में आकार के लिए एक सांचे में डाला जाता है जबकि अगरबत्ती को हाथ से बनाई जाती है। फिर उत्पादों को सूखने के लिए धूप में रखा जाता है। वे प्रतिदिन किसानों से कुल 500 किलो गोबर एकत्र करते हैं।
टीम में रजत और वही एन.जी.ओ. के 3 ओर लोग शामिल है,  जिसमें सेल्फ हेल्प समूहों की 40 महिलाएं शामिल है । महिलाओं को दीये बनाने के लिए सांचों का उपयोग करने और अगरबत्ती और दीये के डिजाइन को आकर्षक बनाने के लिए सिखलाई दी गई। रजत की पहल ने उनके लिए रोजगार पैदा किया है। अब, ये महिलाएं स्वतंत्र हैं और अपने लिए कमा रही है।
इन महिलाओं को सभी कच्चे उत्पाद उपलब्ध कराए जाते हैं और उन्हें बस सुंदर पर्यावरण के अनुकूल उत्पाद बनाने होते हैं। रजत सेल्स और मार्केटिंग का काम खुद करते हैं, जहां उनकी शिक्षा ने मदद की है।
जम्मू सरकार कई बार उनकी तारीफ कर चुकी है. उन्होंने बताया कि जम्मू के डी.सी. ने  इस कार्य के लिए अपना पूरा सहयोग दिया है और इस समर्थन के लिए हमेशा उनकी सराहना करते हैं। उन्हें जम्मू-कश्मीर वन विभाग, नगर निगमों, प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड और इंडियन ऑयल का भी समर्थन प्राप्त था।
वे किसानों को अपनी आजीविका शुरू करने के लिए गाय का गोबर भी उपलब्ध कराते हैं, और वे विभिन्न शहरों में फ्रेंचाइजी आउटलेट खोलने में भी रुचि रखते हैं।

उपलब्धियां

  • शेर-ए-कश्मीर यूनिवर्सिटी ऑफ एग्रीकल्चरल साइंसेज एंड टेक्नोलॉजी द्वारा 2022 में यूनिक आइडिया में पहला पुरस्कार
  • 2021 में जम्मू नगर निगम द्वारा वेस्ट-टू-आर्ट प्रदर्शनी में प्रथम पुरस्कार
  • 2021 में शेर-ए-कश्मीर कृषि विज्ञान और प्रौद्योगिकी विश्वविद्यालय द्वारा अद्वितीय विचारों में तीसरा पुरस्कार
  •  2021 में जम्मू के प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड द्वारा प्रशंसा पुरस्कार

भविष्य की योजनाएं

वे जल्द ही अपने पर्यावरण के अनुकूल उत्पादों को अमेज़न जैसी ई-कॉमर्स वेबसाइटों पर बेचने की योजना बना रहे हैं और अपने उत्पादों को पूरे भारत के बाजारों में बेचने पर विचार कर रहे हैं।

किसानों के लिए संदेश

जीवन में लक्ष्य का होना बहुत जरूरी है। अगर आप खुद पर विश्वास करेंगे तो दूसरे आप पर विश्वास करेंगे। मैं हमेशा से जानता हूं कि पर्यावरण के अनुकूल उत्पादों को मार्किट में खड़ा करने की क्षमता है और मैंने अपने लक्ष्यों के लिए कड़ी मेहनत की है।
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राजवीर सिंह

(जैविक खेती)

यूरोप में काम कर रहा राजस्थान का एक व्यक्ति किस तरह से बना एक प्रगतिशील किसान

राजस्थान के रामनाथपुरा के निवासी राजवीर की बचपन से ही कृषि में रुचि थी और वह इस क्षेत्र में नवीनतम तकनीकों के बारे में जानने के इच्छुक थे। आपको जानकर हैरानी होगी कि इन्होंने साल 2000 में ड्रिप इरिगेशन का इस्तेमाल करना शुरू कर दिया था। उन्होंने 2003 में जोजोबा की जैविक खेती शुरू की लेकिन फिर 2006 में यूरोप चले गए और वहां कई सालों तक कंस्ट्रक्शन लाइन में काम किया लेकिन उनका दिल हमेशा कृषि से जुड़ा रहा। यूरोप में जब वे वीकेंड पर फ़्रांस के ख़ूबसूरत फ़सल के खेतों से गुज़रे तो उन्हें अपने देश की बहुत याद आती थी। वह यूरोप की जैविक खेती से प्रेरित थे।उन्होंने देखा कि वहां का तापमान ठंडा था लेकिन फिर भी पॉली-हाउस की मदद से किसान मौसम की परवाह किए बिना सभी सब्जियां उगा रहे हैं। जब वे 2011 में यूरोप से लौटे तो उन्होंने फलों और सब्जियों की जैविक खेती का अभ्यास शुरू किया। फिर 2014 में उन्होंने अपने खेत पर एक पॉलीहाउस बनाया जिसके लिए उन्हें राजस्थान सरकार से सब्सिडी भी मिली।

“मनुष्य के शरीर पर खादों के बुरे प्रभाव बहुत हैं लोगों ने कोरोना वायरस के समय में अपनी सेहत की कीमत को समझा है और जैविक भोजन के लिए प्रेरित हुए ” राजवीर सिंह

उन्होंने झुंझुनू जिले के अपने गांव में ‘प्रेरणा ऑर्गेनिक फार्महाउस’ की स्थापना की और राजस्थान स्टेट ऑर्गेनिक सर्टिफिकेशन एजेंसी (आर.एस.ओ.सी.ए) से अपने खेत को रजिस्ट्रेड करवाया। वे लगभग 3 हेक्टेयर में खेती कर रहे हैं, जिसमें से लगभग 1 हेक्टेयर तेल उत्पादन के लिए जोजोबा की खेती के लिए उपयोग किया जाता है, 4000 वर्ग मीटर पॉली-हाउस के अंदर खीरे की खेती की जाती है और शेष क्षेत्र में 152 खजूर के पेड़ होते हैं। 100 लाल सेब के पौधे और 200 अमरूद के पौधे हैं। तरबूज की खेती गर्मी के मौसम में और स्वीट कॉर्न की खेती बरसात के मौसम में की जाती है। खजूर को कच्चे रूप में और सुखाने के बाद ‘पिंड-खजूर’ के रूप में बेचा जाता है।

“मेरे पिता रिटायर्ड फौजी हैं उन्होंने हमेशा मेरा साथ दिया है और हमेशा मुझे सही दिशा की तरफ जाने के लिए प्रेरित किया है”  राजवीर सिंह

वे ग्राहकों को आकर्षित करने के लिए जैविक शहद ₹300/किलो की कम कीमत पर बेचते हैं और साहीवाल और राठी नस्ल के दूध से बने जैविक घी को ₹1800/किलो पर बेचते हैं। वे ‘प्रेरणा ऑर्गेनिक फार्महाउस’ नाम के फेसबुक पेज और व्हाट्सएप ग्रुप के जरिए ग्राहकों से ऑर्डर लेते हैं। बाजार में केवल खीरा ही बिकता है जबकि तरबूज, खजूर, बेर और अमरूद जैसे सभी उत्पाद सीधे ग्राहकों को बेचे जाते हैं। वे जैविक काला गेहूं भी उगाते हैं जिसके कई स्वास्थ्य लाभ होते हैं और ऑर्डर द्वारा सीधे ग्राहकों को भी बेचा जाता है। राजवीर के बीज चयन और गुणवत्ता वाले जैविक उत्पादों की कला के कारण, जो ग्राहक एक बार खरीदता है, वह हमेशा उत्पाद की सराहना करता है और एक स्थायी खरीदार बन जाता है। शुरुआती दिनों में जब उन्होंने जैविक खेती की ओर रुख किया तो उन्होंने भूमि उत्पादकता में थोड़ी गिरावट देखी लेकिन फिर जैसे-जैसे समय बीतता गया उन्होंने बाजार की तुलना में अधिक दर पर उपज बेचकर लाभ कमाना शुरू कर दिया।
हालांकि उनके पास 5-6 गाय हैं और वे अपनी जैविक खाद खुद बनाते हैं लेकिन मात्रा पर्याप्त नहीं है और इसके लिए उन्हें पास के किसानों से 50,000 रुपये की खाद खरीदनी पड़ती है। उन्होंने खेत में मदद के लिए दो मजदूरों को काम पर रखा है। राजवीर के पिता देवकरण सिंह, पत्नी सुमन सिंह और बच्चे प्रेरणा और प्रतीक भी उसकी दैनिक गतिविधियों में मदद करते हैं।
राजवीर ‘चिड़ावा फार्मर प्रोडूसर’ कंपनी लिमिटेड नाम किसान उत्पादक संगठन (FPO) के डायरेक्टर हैं, जोकि साल 2016 में एक रेजिस्ट्रेड हुआ था। हाल ही में, उन्होंने किसानों से सरसों लेकर बेची है।
वे हानिकारक रासायनिक उर्वरकों का उपयोग न करके न केवल मिट्टी को बचा रहे हैं, बल्कि एक हेक्टेयर भूमि में टैंक बनाकर बारिश के पानी को सेव  करने का अभ्यास भी कर रहे हैं। इसके अलावा, वे अपने खेतों में ट्यूबवेल के माध्यम से पानी की ड्रिलिंग के लिए सौर पैनलों का उपयोग भी करते हैं और वे अपने घरों के लिए बिजली का भी उपयोग करते हैं। वह 2001 से अपने गांव में पर्यावरण के अनुकूल तकनीकों को लागू कर रहे हैं और पर्यावरण को बचाकर दूसरों के लिए एक मिसाल कायम की है। उनके गाँव के अन्य किसान भी इस तरह की प्रथाओं से प्रोत्साहित होते हैं और नई तकनीक सीखने के लिए उनके जैविक फार्म में जाते हैं।

उपलब्धियां

उन्हें जिला स्तर पर के.वी.के. अबुसर द्वारा आत्मा योजना के तहत वर्ष 2016-17 में सम्मानित किया गया था।

भविष्य की योजनाएं

अब वह किन्नू की खेती शुरू करने वाले हैं।ग्रेडिंग के बाद फलों की प्रोसेसिंग की जाएगी, जिसकी काफी मांग है। वह कृषि-पर्यटन (एग्रो टूरिज़म) की भी योजना बना रहें है, जहां वह उन पर्यटकों के लिए छोटे कॉटेज बनाने की योजना बना रहा है जो प्रकृति का आनंद लेना चाहते हैं।

                                         किसानों के लिए संदेश

रासायनिक उर्वरकों के प्रयोग को बंद करने की आवश्यकता है क्योंकि यह हमारे शरीर पर हानिकारक प्रभाव डालता है और कई बीमारियों का कारण बनता है। जैविक उत्पाद अब बढ़ रहे हैं और किसान ऐसे उत्पादों से अच्छा मुनाफा कमा सकते हैं।
Mukesh Manjoo

मुकेश मंजू

(जैविक खेती)

ऐसा प्रगतिशील किसान, जिसने बदली लोगों की मानसिकता

हमारा देश कृषि को एक ऐसे पेशे के रूप में देखता है जो अच्छी आमदन पैदा नहीं कर सकती। जब हम किसानों की बात करते हैं तो बंजर भूमि के पास बैठे एक बूढ़े आदमी की छवि हमारे दिमाग में आती है, एक किसान को हमेशा एक असहाय प्राणी के रूप में देखा जाता है। आज की कहानी में आप एक ऐसे प्रगतिशील किसान के बारे में जानेंगे जो समाज की इस मानसिकता को बदलना चाहता था।
राजस्थान के पिलानी के रहने वाले मुकेश मंजू दिल्ली एयरपोर्ट पर राष्ट्रीय सुरक्षा के प्रमुख के रूप में काम करते थे लेकिन 2018 में उनके पिता को कैंसर हो गया और उन्हें वी.आर.एस (वलंटरी रिटायरमेंट स्कीम) के अधीन अचानक रिटायरमेंट लेनी पड़ी। बचपन में जब उन्होंने अपने दादा और पिता को खेती करते देखा तो उनकी भी खेती में रुचि पैदा हो गई।
उनके पास खेती के तहत 20 एकड़ जमीन है और उन्होंने 2014 में खेती शुरू की जब उन्होंने अपने खेत में 4 हेक्टेयर में किन्नू और मौसमी फसलें लगाईं और अपने जैविक फार्म का नाम ‘द मंजू फार्म’ रखा। फिर 2016 में, उन्होंने 4 एकड़ जमीन पर जैतून की खेती शुरू की, उसके बाद 2016 में खजूर, 2019 में थाई सेब बेर और 2020 में सांगरी की खेती शुरू की। 2022 में फिल्म ‘पुष्पा’ देखने के बाद उन्होंने अपनी जमीन में चंदन लगाया।
वे इंटरक्रॉपिंग का अभ्यास भी करते हैं और आयुर्वेदिक औषधीय पौधे अश्वगंधा जैसी फसलों की खेती के इलावा  तरबूज जैसी नकदी फसलों की बिजाई भी करते हैं। उनकी खेती की मुख्य विशेषता प्रामाणिक पारंपरिक खेती है जिसका वे अभ्यास करते हैं, वे अपनी भूमि में गोबर और गोमूत्र, लस्सी आदि से बनी खाद का उपयोग करते हैं। वे दो मुख्य कारणों से अपने खेत में भारी कृषि मशीनरी का उपयोग नहीं करते हैं:
1) वे मजदूरों को रोजगार प्रदान करके जरूरतमंदों के लिए रोजगार पैदा करना चाहते हैं।
2) उनका मानना है कि मशीनरी मिट्टी की भीतरी परत को संकुचित कर देती है, जिससे मिट्टी की जल धारण क्षमता कम हो जाती है और मिट्टी का स्वास्थ्य खराब हो जाता है।

प्रकृति में असंतुलन पैदा किये बिना वातावरण और प्राकृतिक स्रोत का प्रयोग करना चाहिए- मुकेश मंजू

वे एक एकीकृत कृषि प्रणाली का पालन करते हैं, फसल उत्पादन के इलावा, वे मछली पालन, pao(कड़कनाथ नस्ल), मधुमक्खी पालन (50 बक्से) और दूध से संबद्ध उत्पादों के लिए साहीवाल नस्ल की गायों जैसे कई घरेलू पशुओं के मालिक। वे खेती के लिए ऊँट और अपने बच्चों को घोड़सवारी सिखाने के लिए दो घोड़े भी रखें हैं।
राजस्थान के अधिकांश हिस्से सूखे हैं और हमेशा पानी की कमी बनी रहती है। मुकेश जल संरक्षण में विश्वास रखते हैं और उन्होंने अपने खेत में रेन वाटर हार्वेस्टिंग फैसिलिटी बनाई है। वे पानी की बर्बादी को कम करने के लिए विभिन्न सिंचाई अभ्यास का भी उपयोग करते हैं, उदाहरण के लिए, ड्रिप सिंचाई, स्प्रिंकलर सिंचाई और बारिश के पाइप का उपयोग करना जो कि केवल 15 मिनट में खेत की सिंचाई करते हैं और इन तकनीकों से वे पानी बचाते हैं। करने में सफल होते हैं।
उनके भाई प्रमोद मंजू, जिन्होंने 2018 तक हिंदुस्तान एयरोनॉटिक्स लिमिटेड (एच.ए.एल.) में सतर्कता अधिकारी के रूप में काम किया है, उनके खेत में उनकी मदद करते हैं और हमेशा पूरा समर्थन दिखाते हैं। शुरू में उन्हें ऐसे ग्राहकों को खोजने में मुश्किल हुई जो स्वास्थ्य को महत्व देते थे और जैविक भोजन के लाभों से अवगत थे। उनके लिए ऐसे ग्राहक ढूंढना मुश्किल था। हालाँकि, अपने दोस्तों और कड़ी मेहनत की बदौलत सफलता ने उनके पैर चूमे और आज वह कृषि से अच्छा लाभ कमा रहे हैं।    उनका मुख्य ध्यान विभिन्न फसलों की खेती पर था, जिससे वे पूरे वर्ष आय अर्जित कर सके, इसलिए उन्होंने मौसमी फसलों के साथ-साथ फलों की भी खेती की, जिनकी पूरे वर्ष मांग रहती है।

जब भी मेहमान मेरे घर आते हैं, तो मैं उन्हें कभी चाय, कॉफी या जूस नहीं देता, लेकिन मैं अपने खेतों के ताजे जैविक उत्पादों जैसे तरबूज, किन्नू और खजूर से उनका स्वागत करता हूं- मुकेश मंजू

मुकेश बाजार में कोई फसल नहीं बेचते हैं। उनके अनुसार बड़े पैमाने पर किसान बनने के लिए सही मंडी की स्थापना की जानी चाहिए और सही दिशा में रणनीतिक रूप से कड़ी मेहनत करनी चाहिए। वे ग्राहकों की जरूरतों के अनुसार सभी उत्पादों को विकसित करते हैं और उनके ग्राहक पिलानी, राजस्थान से लेकर दिल्ली और गुड़गांव जैसे महानगरों तक फैले हुए हैं।     इसी तरह जैतून का फल 250 रुपये प्रति किलो और जैतून का तेल 1,000 रुपये प्रति लीटर पर बेचते हैं। उनका जैतून का फल और जैतून का तेल दिल्ली के ताज होटल में जाता है। उनकी सफलता काफी हद तक वर्ड-ऑफ-माउथ मार्केटिंग तकनीकों के कारण है। एक बार जब कोई ग्राहक जैविक रूप से उगाए गए फल का स्वाद चख लेता है, तो वह एक स्थायी ग्राहक बन जाता है। उनके जैविक उत्पादों की गुणवत्ता और उनके काम में विश्वास ने उन्हें एक प्रगतिशील किसान बना दिया है।

उपलब्धियां

  •  2021 में राजस्थान के मुख्यमंत्री द्वारा राज्य स्तर पर सम्मानित किया गया
  • 2020 में कृषि मंत्री, राजस्थान द्वारा सम्मानित किया गया
  • आत्मा योजना के तहत 2019 में जिला स्तर पर सम्मानित किया गया
  • गायों की देसी नस्लों को बढ़ावा देने के लिए 2018 में सम्मानित किया गया

भविष्य की योजनाएं

वह अपने फार्म पर झोपड़ियां बनाकर कृषि पर्यटन (एग्रो टूरिज़म) शुरू करने की योजना बना रहे हैं ताकि लोग एक बार फिर प्रकृति की गोद में रहने  का अनुभव ले सकें।

किसानों के लिए संदेश

वे चाहते हैं कि अन्य सभी किसान भी अपने काम पर उतना ही गौरव महसूस करें  जितना कि दफ्तरों में काम करने वाले किसी अन्य व्यक्ति को होता है। पिछले कुछ वर्षों में भारत में कृषि में बहुत बदलाव आया है और आने वाले वर्षों में यह नई ऊंचाइयों को छुएगी।

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अब्दुल रहमान

(खजूर की खेती)

एक मेहनती व्यक्ति को कोई नहीं रोक सकता- अब्दुल रहमान

जहां चाह, वहां राह, वैसे ही अगर ज़िंदगी में कुछ करने का सोच लिया तो उसे पूरा करके ही चैन की सांस लें। कृषि के क्षेत्र में कुछ इंसान ऐसे होते है, जो पारंपरिक खेती को छोड़कर कुछ ऐसा करते हैं जोकि बाकि लोगों के लिए मिसाल बनकर सामने आते हैं।

वर्ष 2009 में, राजस्थान सरकार ने गुजरात में स्थित एक कंपनी के साथ समझौता किया जिसका नाम अतुल लिमिटेड है और राजस्थान के पश्चिमी क्षेत्र में खजूर की खेती पर काम करना शुरू कर दिया, जिसके परिणाम भी सफल रहे। इसके बाद सरकार ने किसानों को खेती की नई तकनीकों को अपनाने और उत्पाद की बाजार में मांग के बारे में प्रोत्साहित करना शुरू किया। फिर सरकार द्वारा खजूर के पौधे जोधपुर के किसानों को 90 प्रतिशत की सब्सिडी पर दिए गए, जिसमें एक पौधे की कीमत ₹2500 से घटाकर ₹225 कर दी गई।

अतुल कंपनी की टीम जोधपुर के हर एक क्षेत्र का निरीक्षण करती थी और किसानों को खजूर की खेती के बारे में बताती थी। जिसमें आने वाले वर्षों में खजूर की खेती करने का क्या फायदा होगा, उसके बारे में किसानों को जागरूक करती थी। एक दिन वह जब निरीक्षण करने गए थे तो उनकी मुलाकात श्री अब्दुल रहमान से हुई जो राजस्थान के जैसलमेर के एक गाँव तवारीवाला के रहने वाले है। जो कि वर्ष 1995 से पारंपरिक खेती करते आ रहे है जिसमें वे अरंडी, सरसों, प्याज और गेहूं उगाते थे लेकिन पूरी तरह से नई तकनीकों को अपनाना इतना आसान काम नहीं होता।

अब्दुल रहमान पहले तो झिझक रहे थे लेकिन अतुल टीम ने उन्हें भरोसा दिया कि वह उनका पूरा साथ देंगे। उसके बाद उन्हें 3 हेक्टेयर भूमि में खेती के लिए 465 पौधे दिए गए, जो खजूर की उगाई जाने वाली खुनैज़ी किस्म के थे। इस किस्म की खजूरें सबसे अच्छी गुणवत्ता के साथ स्वाद में भी लाजवाब होती है। इसकी पहली कटाई 5 साल बाद की जाती है। अब्दुल ने इसकी खेती 100 प्रतिशत जैविक तरीके से की और जब खजूर थोड़ी पकने लगी तो उस स्तिथि में ही खजूरों को बेचा। खजूर के पौधों की शाखाएं से बहुत मुनाफा होता है क्योंकि एक शाखा भी 800-900 रूपये में बिकती है। जबकि एक पौधे में कम से कम 10 शाखाएं होती हैं। अब्दुल रहमान शाखाओं को बेचकर प्रति वर्ष 8-9 लाख रुपए कमा लेते हैं। साल 2016 में सरकार ने खजूर की खेती की नई तकनीकें सीखने के लिए उनको इज़रायल भेज दिया। शुरुआती दिनों में, उन्हें काफी संघर्षों का सामना करना पड़ा क्योंकि खरीदने वाले कम थे और उस समय लोगों को खजूरों के फायदों के बारे में पता भी नहीं था। उन्हें निकट के जिले पोखरण जाना पड़ता था जो कि 125 किलोमीटर दूर था। इसके अलावा, पानी और बिजली जैसे अन्य महत्वपूर्ण और बुनियादी संसाधन भी पर्याप्त नहीं थे।

श्री अब्दुल ने एक फार्म तैयार किया हुआ है, जिसमें पशुपालन के साथ मुर्गी पालन, बकरी पालन और डेयरी का भी काम रहे हैं। उनके पास स्थानीय नस्ल की ही पशु है, जिसमें 4 से 5 गायें हैं जो 15-20 लीटर दूध देती हैं और इसके अलावा 70-80 बकरियां और 100 मुर्गियां भी रखी हुई हैं। उनके द्वारा फसलों के लिए किया गया जैविक कचरे का उपयोग बहुत फायदेमंद साबित हुआ है। आज उनकी प्रति वर्ष आय 10-15 के करीब होती है।

उपलब्धियां

  • आईसीएआर भारतीय कृषि अनुसंधान संस्थान, नई दिल्ली द्वारा राष्ट्रीय स्तर पर इनोवेटिव फार्मर के तौर पर सम्मानित किया गया।
  • राजस्थान सरकार द्वारा 2016 में बेस्ट एग्री एंटरप्रेन्योर पुरस्कार दिया गया।
  • 2013 में गुजरात में 51000 के चैक के साथ राज्य स्तर पर पुरस्कार दिया गया।
  • 2011-12 में जिला स्तर पर पुरस्कार दिया गया।

भविष्य की योजनाएं

श्री अब्दुल खजूर की खेती को बड़े स्तर पर लेकर जाना चाहते है और उसके साथ विभिन्न किस्मों की खेती करके प्रयोग करना चाहते हैं।

संदेश

श्री अब्दुल चाहते हैं कि अन्य किसान खजूर की खेती करें क्योंकि इस खेती में कम श्रम की आवश्यकता होती है। मौसम की बदलती परिस्थितियों से पौधा प्रभावित नहीं होता बस जड़ों को पानी में डुबाने और पौधे पर धूप की आवश्यकता होती है।

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श्रीमती मधुलिका रामटेके

(प्रोसेसिंग)

एक सामाजिक कार्यकर्ता से उद्यमी बनी एक महिला जिन्होंने बाकि महिलाओं को आर्थिक रूप से स्वतंत्र होने के लिए प्रेरित किया।

ऐसा माना जाता है कि केवल पुरुष ही आर्थिक रूप से घर का नेतृत्व कर सकते हैं लेकिन कुछ महिलाएं रूढ़िवादी विचारधारा को तोड़ती हैं और खुद को साबित करती हैं कि वे किसी भी क्षेत्र में पुरुषों से कम नहीं बल्कि समान रूप से सक्षम हैं। यह कहानी छत्तीसगढ़ के राजनांद गांव की एक ऐसी ही सामाजिक कार्यकर्ता की है।

श्रीमती मधुलिका रामटेके एक ऐसे समुदाय से आती हैं, जहाँ जातिगत भेदभाव अभी भी गहराई से निहित है। उन्हें इस जातिगत भेदभाव का एहसास छोटी उम्र में ही हो गया था जब उन्हें बाकि बच्चों के साथ खेलने की अनुमति नहीं मिलती थी। तब उनके पिता ने उन्हें डॉ. बी.आर. अंबेडकर जी का उदाहरण दिया कि कैसे उन्होंने शिक्षा के माध्यम से अपना जीवन बदल दिया और वह सम्मान अर्जित किया जिसके वे हकदार थे। मधुलिका ने तब उनके कदमों और उनकी शिक्षाओं का पालन किया। वह अपनी स्कूली शिक्षा के दौरान एक उज्ज्वल छात्रा रही और अन्य माता-पिता को अपनी बेटियों को स्कूल भेजने के लिए प्रोत्साहित भी करती थी। उन्होंने पहले अपने माता-पिता को पढ़ना-लिखना सिखाया और फिर अपने घर के आस-पास की अन्य अनपढ़ लड़कियों की मदद की।

श्रीमती मधुलिका जी ने फिर एक और कदम उठाया जहाँ उन्होंने अपने गाँव की अन्य महिलाओं के साथ एक सेल्फ हेल्प समूह बनाया और गाँव की सेवा करना शुरू कर दिया, जिसका गाँव में रहने वाले पुरुषों ने बहुत विरोध किया, लेकिन बाद में उन्हें एहसास हुआ कि महिलाएँ गाँव की भलाई के लिए काम कर रही हैं। उन्होंने शिक्षा, पुरुष नसबंदी, स्वच्छता, नशीली दवाओं के उपयोग, जल संरक्षण आदि जैसे गंभीर मुद्दों पर कई शिविरों का आयोजन भी किया।

2001 में, उन्होंने और उनकी महिला साथियों ने एक बैंक शुरू किया जिसमें उन्होंने सारी बचत जमा की और इसका नाम ‘माँ बम्लेश्वरी बैंक’ रखा। यह बैंक पूरी तरह से महिलाओं द्वारा चलाया जाता है। इस बैंक ने महिलाओं को सशक्त महसूस करवाया और जब भी महिलाओं को किसी कार्य के लिए पैसों की जरूरत पड़ती थी तो वह बैंक में जमा राशि में से कुछ राशि का प्रयोग कर सकती है। इस बैंक में आज कुल राशि ₹40 करोड़ है।

एकता बहुत शक्तिशाली है, अकेले रहना मुश्किल है लेकिन समूह में शक्ति है। मैं आज जो कुछ भी हूँ अपने ग्रुप की वजह से हूँ – मधुलिका

वर्ष 2016 में मधुलिका जी और उनके सेल्फ-हेल्प समूह ने 3 सोसाइटीयों का निर्माण किया। पहली सोसाइटी के अंतर्गत दूध उत्पादन का काम  शुरू किया और उसमें 1000 लीटर दूध का उत्पादन हुआ।  उन्होंने इस दूध को स्थानीय स्तर पर और होटल, रेस्टोरेंट्स में बेचना शुरू किया। दूसरी सोसाइटी के अंतर्गत उन्होंने हरा-बहेड़ा की खेती जो एक आयुर्वेदिक जड़ी-बूटी है उसका उत्पादन शुरू किया। यह जड़ी-बूटी  खांसी, सर्दी को ठीक करने में मदद करती है और शरीर की रोगों से लड़ने की क्षमता को बढ़ाती है। इसके साथ ही उन्होंने चावल की खेती भी की लेकिन कम मात्रा में। तीसरी सोसाइटी के अंतर्गत  उन्होंने सीताफल की खेती की शुरुआत की और आइस क्रीम की प्रोसेसिंग करनी भी शुरू की। इन सबके पीछे उनका मुख्य उद्देश्य अन्य महिलाओं को स्वतंत्र बनाना और उनके जीवन स्तर को ऊँचा उठाना था। उन्होंने हमेशा न केवल खुद को बल्कि अपने आसपास की महिलाओं को भी सशक्त बनाने के बारे में सोचा।
नाबार्ड की आजीविका और उद्यम विकास कार्यक्रम (एल.ई.डी.पी) की योजना के तहत, मधुलिका सहित 10 महिलाओं ने 10,000 ₹ प्रत्येक के योगदान के साथ एक कंपनी की स्थापना की और इसका नाम बमलेश्वरी महिला निर्माता कंपनी लिमिटेड रखा। कंपनी के पास अब ₹100-₹10,000 की शेयर रेंज है। यह कंपनी वर्मीकम्पोस्ट और वर्मीवाश बनाती है, ये दोनों जैविक खाद हैं जो मिट्टी की उपजाऊ शक्ति को बढ़ा कर फसल की उपज बढ़ाते हैं और पर्यावरण पर कोई दुष्प्रभाव नहीं डालते हैं। मधुलिका ने एक बार 2 खेतों में एक प्रयोग किया था, जिसमें उन्होंने एक खेत में रासायनिक उर्वरक और दूसरे में वर्मीकम्पोस्ट डाला और उन्होंने देखा कि उत्पाद की गुणवत्ता और स्वाद उस क्षेत्र में बेहतर था जिसमें वर्मीकम्पोस्ट डाला गया था। इसके इलावा इस कंपनी में अन्य उत्पाद भी बनाये जाते हैं पर कम मात्रा में उनमें से कुछ प्रोडक्ट्स है जैसे अगरबत्ती, पलाश के फूलों से बना हर्बल गुलाल। यह सारे प्रोडक्ट 100% हर्बल है।
हम अपने लिए कमा रहे हैं लेकिन रासायनिक छिड़काव वाला भोजन खाने से सभी पोषक तत्व समाप्त हो जाते हैं और हमारी मेहनत की कमाई उन दवाओं पर बर्बाद हो जाती है जो उर्वरकों के अति प्रयोग से होती हैं“-मधुलिका रामटेके
                                                      उपलब्धियां:
  • नारी शक्ति पुरस्कार, 2021 भारत के राष्ट्रपति, श्री रामनाथ कोविंद द्वारा प्रदान किया गया
  • अखिल भारतीय महिला क्रांति परिषद- 2017
  • राज्य महिला सम्मान – 2014
                                                    भविष्य की योजनाएं:
वह ‘गाँववाली’ नाम से एक नया ब्रांड खोलना चाहती हैं जिसमें वह खुद और सेल्फ हेल्प समूह पहले हल्दी, मिर्ची, धनिया का निर्माण करेंगे और फिर बड़े पैमाने पर अन्य मसालों का निर्माण करेंगे।
                                               किसानों के लिए संदेश:
आज की कृषि पद्धतियों को देखते हुए जिसमें कुछ भी शामिल नहीं है, रसायनों के उपयोग से बचना चाहिए, बल्कि अन्य किसानों को जैविक खादों का उपयोग करना चाहिए। वह बच्चों को अपने बूढ़े माता-पिता को वृद्धाश्रम में डालने की बात को भी गलत बताती है। ये वही माता-पिता हैं जिन्होंने बचपन में हमारा पालन-पोषण किया था और अब जब उन्हें बुढ़ापे में मदद की ज़रूरत है, तो उन्हें अकेला नहीं छोड़ा जाना चाहिए, बल्कि उसी तरह दुलारना चाहिए जैसे हम उनके साथ थे।
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उडीकवान सिंह

(सब्जियां)

कम उम्र में मुश्किलों को पार कर सफलता की सीढ़ियां चढ़ने वाला 20 वर्षीय युवा किसान

“छोटी उम्र बड़ी छलांग” मुहावरा तो सभी ने सुना होगा पर किसी ने भी मुहावरे का पालन करने की कोशिश नहीं की, लेकिन बहुत कम ही लोग ऐसे होते हैं जो कि ढूंढ़ने से भी नहीं मिलते।

लेकिन यहां इस मुहावरे की बात एक ऐसे युवक पर बिल्कुल फिट बैठती है जिसने इस मुहावरे को सच साबित कर दिया है और बाकि लोगों के लिए भी एक मिसाल कायम की है। इन्होंने ठेके पर जमीन ली और कम उम्र में सब्जी की खेती की और बुलंदियों को हासिल कर परिवार और गांव का नाम रोशन किया है।

जैसा कि सभी जानते हैं कि हर इंसान का कुछ न कुछ करने का लक्ष्य होता है और उस लक्ष्य को हासिल करने के लिए हर संभव प्रयास करता है। आज हम जिस युवक की हम बात करने वाले हैं, शुरू से ही उनकी दिलचस्पी खेती में थी और पढ़ाई में उनका ज़रा भी मन नहीं लगता था। इनका नाम उडीकवान सिंह है जो ज़िला फरीदकोट के गांव लालेयाणा के रहने वाले है। स्कूल में भी उनके मन में यही बात घूमती रहती थी कि कब वह घर जाकर अपने पिता जी के साथ खेत का दौरा करके आएंगे, मतलब कि उनका सारा ध्यान खेतों में ही रहता था।

उनके पिता मनजीत सिंह जी, जो मॉडर्न क्रॉप केयर केमिकल्स में कृषि सलाहकार के रूप में काम करते हैं, उनको हमेशा इस बात की चिंता रहती थी कि उनका एकलौता बेटा पढ़ाई को छोड़कर खेती के कामों में ज्यादा दिलचस्पी दिखा रहा है लेकिन वह इसे बुरा नहीं कह रहे थे। उनका मानना था कि “बच्चे को खेत से जुड़ा रहना चाहिए पर अपनी शिक्षा पर ध्यान केंद्रित करना चाहिए और पढ़ाई छोड़नी नहीं चाहिए।”

लेकिन उनके पिता को क्या पता था कि एक दिन यह बेटा अपना नाम मशहूर करेगा, उडीकवान जी को बचपन से ही खेतों से लगाव था लेकिन इस प्यार के पीछे उनकी विशाल सोच थी जो हमेशा सवाल पूछती थी और फिर वह यह सवाल दूसरे किसानों से पूछते थे। जब उनके पिता खुद खेती करते थे और फसल बेचने के लिए बाजार जाते थे तो उडीकवान जी दूसरे किसनों से सवाल पूछने लग जाते थे कि अगर हम इस फसल को इस विधि से उगाएं तो इससे कम लागत में ज्यादा मुनाफ़ा कमाया जा सकता है, जिस पर किसान हंसने लगते थे जो कि उडीकवान जी की सफलता का कारण बना।

इसके बाद उडीकवान जी के पिता मनजीत सिंह जी हमेशा काम के सिलसिले में दिन भर बाहर रहने लगे जिससे उनका ध्यान खेतों की तरफ कम होने लगा। तब उडीकवान जी ने खेती के कार्यों की तरफ ज़्यादा ध्यान देना शुरू कर दिया और वह रोज़ाना खेतों में जाकर काम करने लगे। उस समय उडीकवान जी को लगा कि अब कुछ ऐसा करने का समय आ गया है जिसका उनको काफी लंबे समय से इंतज़ार था।

उस समय उनकी उम्र मात्र 17 वर्ष थी। फिर उन्होंने खेती से जुड़े बड़े काम करने भी शुरू कर दिए और अपने पिता के कहने अनुसार पढ़ाई भी नहीं छोड़ी। लंबे समय तक उन्होंने पारम्परिक खेती की और महसूस किया कि कुछ अलग करना होगा।

उन्होंने इस मामले पर अपने पिता से चर्चा की और सब्जियों की खेती शुरू कर दी जिसमें मूल रूप से खाने वाली सब्ज़ियां ही हैं। वह अपने मन में आने वाले सवाल पूछते रहते थे और जब भी उडीकवान जी को खेती के कार्यों में कोई समस्या आती थी तो उनके पिता जी उनकी मदद करते थे और खेती के कई अन्य तरीकों से भी अवगत करवाते थे। वह हमेशा खेतों में अपने तरीकों का इस्तेमाल करते थे लेकिन परिणाम उन्हें थोड़े समय बाद मिला जब सब्जियां पककर तैयार हुईं। जिसमें से उनकी कद्दू की फसल काफी मशहूर हुई जिसमें से एक कद्दू 18 से 20 किलो का हुआ। अभी तक उडीकवान जी के सभी तरीके सब्ज़ियों की खेती में खरे उतरते आ रहे हैं जिनसे उनके पिता जी काफ़ी खुश हैं। इसके बाद उडीकवान जी ने खुद ही सब्ज़ियों को मंडी में बेचा। वह जिन सब्ज़ियों की मूल रूप से खेती करते थे उनके पकने पर वह सुबह उन्हें ले जाते थे और उन्होंने मंडी में उनकी मार्केटिंग करनी शुरू कर दी। उन्हें इस काम में काफ़ी मुश्किलों का सामना करना पड़ा क्योंकि उन्हें पता नहीं था कि मार्केटिंग करनी कैसे है।

लंबे समय तक सब्जियों की मार्केटिंग नहीं होने से उडीकवान जी काफ़ी निराश रहने लगे और उन्होंने बाजार में सब्जियां न बेचने का मन बनाकर मार्केटिंग बंद करने का फैसला किया। इस दौरान उनकी मुलाकात डॉ. अमनदीप केशव जी से हुई जो कि आत्मा में प्रोजेक्ट निर्देशक के रूप में कार्यरत हैं और कृषि के बारे में किसानों को बहुत जागरूक करते हैं और उनकी काफी मदद भी करते हैं। इसलिए उन्होंने उडीकवान जी से पहले सब कुछ पूछा और खुश भी हुए क्योंकि कोई ही होगा जो इतनी छोटी उम्र में खेती के प्रति यह बातें सोच सकता है।

पूरी बात सुनने के बाद डॉ.अमनदीप ने उडीकवान जी को मार्केटिंग के कुछ तरीके बताये और उडीकवान जी के सोशल मीडिया और ग्रुप्स के ज़रिये खुद मदद की। जिससे उडीकवान जी की मार्केटिंग का सिलसिला शुरू हो गया जिससे उडीकवान जी काफ़ी खुश हुए।

इस बीच आत्मा किसान कल्याण विभाग ने आत्मा किसान बाजार खोला और उडीकवान जी को सूचित किया और उन्हें फरीदकोट में हर गुरुवार और रविवार को होने वाली सब्जियों को बाजार में बेचने के लिए कहा। तब उडीकवान जी हर गुरुवार और रविवार को सब्जी लेकर जाने लगे जिससे उन्हें अच्छा मुनाफा होने लगा और हर कोई उन्हें अच्छी तरह से जानने लगा और इस मंडी में उनकी मार्केटिंग भी अच्छे से होने लगी और 2020 तक आते-आते उनका सब्ज़ियों की मार्केटिंग में काफ़ी ज्यादा प्रसार हो गया और अभी वह इससे काफ़ी ज्यादा मुनाफा कमा रहे हैं और उनकी सफलता का राज उनके पिता मनजीत सिंह और आत्मा किसान कल्याण विभाग के प्रोजेक्ट डायरेक्टर डॉ.अमनदीप केशव जी हैं।

उडीकवान सिंह जी जिन्होंने 20 साल की उम्र में साबित कर दिया था कि सफलता के लिए उम्र जरूरी नहीं, इसके लिए केवल समर्पण और कड़ी मेहनत ज़रूरी है, भले ही उम्र छोटी ही क्यों न हो। 20 साल की उम्र में वह सोचते हैं कि आगे क्या करना है।

उडीकवान जी अब घरेलू उपयोग के लिए सब्ज़ियों की खेती कर रहे हैं जिसमें वह मल्चिंग विधि द्वारा भी सब्ज़ियां उगा रहे हैं।

भविष्य की योजनाएं

वह सब्जियों की संख्या बढ़ाकर और अंतरफसल पद्धति अपनाकर और अधिक प्रयोग करना चाहते हैं।

संदेश

यदि कोई व्यक्ति सब्जियों की खेती करना चाहता है, तो उसे सबसे पहले उन सब्जियों की खेती और विपणन करना चाहिए जो बुनियादी स्तर पर खाई जाती हैं, जिससे खेती के साथ-साथ आय भी होगी।

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पिंदरपाल सिंह

(घुड़सवारी)

शौंक को पूरा करने के लिए छोड़ी वकालत और हुए कामयाब

शुरू से ही किसी न किसी का कोई शौंक होता है, जिसमें पंजाब का नाम पहले नंबर पर आता है। पंजाब में यदि कोई व्यक्ति किसी नाम के कारण जाना जाता है तो वह उसके शौंक के कारण जाना जाता है। जिसे घोड़े पालना और उसकी सवारी।

आजकल घोड़े पालने का शौंक कम हो गया है लेकिन यदि 50 साल पहले की बात करे तो हर एक परिवार ने घोड़े रखे होते थे, क्योंकि उस समय आने जाने का एक मात्रा साधन यदि होते थे। पर आजकल इनकी जगह कम हो गई है पर फिर भी कई जगह इस शौंक को लोग पाल रहे हैं।

आज जिनकी बात करने जा रहे है वह पेशे से तो वकील है और ऑस्ट्रेलिया में स्थायी रूप से रहने वाले निवासी है। पर शौंक को पूरा करने के लिए पिंदरपाल सिंह जी बाहर से आ गए और पंजाब में आकर अपने परिवार के साथ घोड़े का काम करना शुरू किया और इसे बड़े स्तर पर ले गए।

साल 1994 में वह वकालत की पढ़ाई कर रहे थे पर पढ़ाई के दौरान उनके मन में कभी भी घोड़े का व्यापार करने के बारे में नहीं आया, पर वह कुछ न कुछ करना चाहते थे, इसलिए वह घर आकर फार्म में चले जाते हैं और पूरा समय वहां ही व्यतीत करते थे। एक दिन जब वह कॉलेज से घर जा रहे थे तो उनके एक मित्र ने कहा कि तुम घोड़े का व्यापार करने के बारे में क्यों नहीं सोचता, घोड़े भी हैं।

उसके बाद उन्होंने घोड़े का व्यापार करना शुरू कर दिया पर उन्हें कुछ नहीं मुनाफा नहीं हो रहा था फिर उन्होंने सोचा कि मेले में जाना चाहिए ताकि घोड़े का व्यापार सही से चल पड़े और इसके साथ वकालत की पढ़ाई भी पूरी करते रहे।

पढ़ाई करते समय उनका अधिक समय पढ़ाई में निकल जाता था, और मुनाफा भी नहीं हो रहा था क्योंकि मेले में जाने के लिए बहुत समय पहले तैयार करनी पड़ती थी पर पढ़ाई के कारण वह तैयार सही से नहीं हो रही थी। 3 साल के बाद पढ़ाई पूरी होने के बाद उन्होंने अपना पूरा समय फार्म में बिताना शुरू किया और हर काम खुद करने लगे और जब भी कोई मेला आता तो उसमें पूरी तैयार के साथ जाते। घोड़े बेचते और उन्हें कभी भी घोड़े बेचने में मुश्किल नहीं आई क्योंकि शुरू से ही घर में घोड़े होने के कारण उन्हें घोड़े के बारे में पूरी जानकारी थी जिससे ग्राहक खुश होकर घोड़े खरीद लेते थे।

इस दौरान पिंदरपाल जी ने ऑस्ट्रेलिया के पक्के निवासी होने के फॉर्म भी भर दिए थे और साल 2000 तक घोड़े कोई खरीदने बेचने की तरफ ओर अधिक ध्यान देने लगे। हर मेले में जाने लगे। थोड़े समय बाद वह ऑस्ट्रेलिया के पक्के निवासी भी बन गए पर वह बाहर नहीं जाना चाहते थे क्योंकि उन्हें फार्म में रहना अच्छा लगता था, और परिवार के अकेले बेटे होने के कारण परिवार को छोड़ कर नहीं जाना चाहते थे। पर 2002 में उन्हें जाना पड़ा और वहां जाकर काम करने लगे , 2 साल निकल गए पर उनका मन पंजाब में ही रहता था, पर 2004 में ऑस्ट्रेलिया छोड़ कर अपने गांव चक्क शेरेवाला, जिला मुक्तसर, पंजाब में आ गए।

पंजाब आकर उन्हें सुकून मिला और खुश हुए और फिर से घोड़े के व्यापार करने के बारे में सोचा और काम शुरू कर दिया, पर इस बार उन्होंने सोचा क्यों न घोड़े की ब्रीडिंग करनी शुरू की जाए और बच्चे बेचना शुरू किया जिससे कम समय में बहुत मुनाफा हुआ।

काम करते करते पता ही नहीं चला 2004 से 2007 कब आ गया और उन्होंने अपने शौंक को पूरा भी किया और कामयाब भी हो गए। उन्हें यह शौंक अपने दादी पड़दादे से रहा था, क्योंकि वह घोड़सवारी किया करते थे जिन्हे देखकर उनके मन भी घोड़े पलने का काम करने के बारे में बिचार आया और बड़े होकर उन्होंने यह काम करना शुरू किया और कामयाब भी हुए।

इसके साथ-साथ वह खेती भी करते है और खुद ही खेती करते हैं।

भविष्य की योजना

पिंदरपाल जी घोड़े की ब्रीडिंग तो कर ही रहे हैं उसके साथ साथ अब घोड़े को खेल मुकाबले के लिए तैयार करके उसमें भाग भी लेना चाहते हैं।

संदेश

शौंक को कभी न मरने दें बल्कि उसे पूरा करने के बारे में सोचे ताकि आप अपने शौंक के साथ ही कामयाब हो।

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रशपाल सिंह

(मशरूम की खेती)

एक ऐसा किसान जिसकी किस्मत मशरुम ने बदली और मंजिलों के रास्ते पर पहुंचाया

खेती वह नहीं जो हम खेत में हल के साथ जुताई करना, बीज, पानी लगाना बाद में फसल पकने पर उसकी कटाई करते हैं, पर हर एक के मन में खेती को लेकर यही विचारधारा बनी हुई है, खेती में ओर बहुत सी खेती आ जाती है जोकि खेत को छोड़ कर बगीचा, छत, कमरे में भी खेती कर सकते हैं पर उसके लिए ज़मीनी खेती से ऊपर उठकर इंसान को सोचना पड़ेगा तभी खेती के अलग-अलग विषय के बारे में पढ़कर महारत हासिल कर सकता है।

ऐसे किसान जो शुरू से खेती के साथ जुड़े हुए हैं पर उन्होंने खेती से ऊपर होकर कुछ ओर करने के बारे में सोचा और कामयाब होकर अपने गांव में नहीं बल्कि अपने शहर में भी नाम बनाया। जिन्होनें जो भी व्यवसाय को करने के बारे में सोचा उसे पूरा किया जो असंभव लगता था पर परमात्मा मेहनत करने वालों का साथ हमेशा देता है।

इस स्टोरी द्वारा जिनकी बात करने जा रहे हैं उनका नाम रशपाल सिंह है जोकि गांव बल्लू के, ज़िला बरनाला के रहने वाले हैं। रशपाल जी अपने गांव के ऐसे इंसान थे जिन्होनें अपनी पढ़ाई पूरी होने के बाद फ्री बैठने की बजाए कुछ करने के बारे में सोचा और इसकी तैयारी करनी शुरू कर दी।

साल 2012 की बात है रशपाल को बहुत-सी जगह पर मशरुम की खेती के बारे में सुनने को मिलता था पर कभी भी इस बात पर गौर नहीं किया पर जब फिर मशरुम के बारे में सुना तो मन में सवाल आया यह कौन सी खेती है, क्या पता था एक दिन यदि खेती किस्मत बदल देगी। उसके बारे रशपाल जी ने मशरुम की खेती के बारे में जानकारी इक्क्ठी करनी शुरू की।क्योंकि उस समय किसी किसी को ही इसके बारे में जानकारी थी, उनके गांव बल्लू के, के लिए यह नई बात थी। बहुत समय बिताने के बाद रशपाल जी ने पूरी जानकारी इक्क्ठी कर ली और बीज लेने के लिए हिमाचल प्रदेश चले गए, पर वहां किस्मत में मशरुम की खेती के साथ साथ स्ट्रॉबेरी की खेती का नाम भी सुनहरी अक्षरों में लिखा हुआ था।

जब मशरुम के बीज लेने लगे तो किसी ने कहा “आपको स्ट्रॉबेरी की खेती भी करनी चाहिए” सुनकर रशपाल बहुत हैरान हुआ और सोचने लगा यह भी काम नया है जिसके बारे में लोगों को कम ही पता था, मशरुम के बीज लेने गए रशपाल जी स्ट्रॉबेरी के पौधे भी ले साथ आए और मशरुम के बीज एक छोटी सी झोंपड़ी बना कर उसमें लगा दिए और इसके साथ खेत में स्ट्रॉबेरी के पौधे भी लगा दिए।

मशरुम लगाने के बाद देखरेख की और जब मशरुम तैयार होने लगा तो खुश हुए पर पर ख़ुशी अधिक समय के लिए नहीं थी, क्योंकि एक साल दिन रात मेहनत करने के बाद यह परिणाम निकला कि मशरुम की खेती बहुत समय मांगती है और देखरेख अधिक करनी पड़ती है । वह बटन मशरुम की खेती करते थे और आखिर उन्होनें साल 2013 में बटन मशरुम की खेती छोड़ने का फैसला किया और बाद में स्ट्रॉबेरी की खेती पर पूरा ध्यान देने लगे।

बटन मशरुम में असफलता का कारण यह भी था कि उन्होनें किसी प्रकार की ट्रेनिंग नहीं ली थी।

2013 के बाद स्ट्रॉबेरी की खेती को लगातार बरकरार रखते हुए “बल्लू स्ट्रॉबेरी” नाम के ब्रांड से बरनाला में बड़े स्तर पर मार्केटिंग करने लग गए जोकि 2017 तक पहुंचते-पहुंचते पूरे पंजाब में फैल गई, पर सफल तो इस काम में भी हुए पर भगवान ने किस्मत में कुछ ओर ही लिखा हुआ था जो 2013 में अधूरा काम छोड़ा था उसे पूरा करने के लिए।

रशपाल ने देरी न करते हुए 2017 में अपने शहर के नजदीक के वी के से मशरुम की ट्रेनिंग के बारे में पता किया जिसमें मशरुम की हर किस्म के बारे में अच्छी तरह से जानकारी और ट्रेनिंग दी जाती है, उस समय वह ऑइस्टर मशरुम की ट्रेनिंग लेने के लिए गए थे जोकि 5 दिनों का ट्रेनिंग प्रोग्राम था, जब वह ट्रेनिंग ले रहे थे तो उसमें मशरुम की बहुत से किस्मों के बारे में जानकारी दी गई पर जब उन्होनें कीड़ा जड़ी मशरुम के बारे में सुना जोकि एक मेडिसनल मशरुम है जिसके साथ कई तरह की बीमारियां जैसे कैंसर, शुगर, दिल का दौरा, चमड़ी आदि के रोगो को ठीक किया जा सकता है। जिसकी कीमत हजारों से शुरू और लाखों में खत्म होती है, जैसे 10 ग्राम एक हज़ार, 100 ग्राम 10 हज़ार, के हिसाब से बिकती है।

जब रशपाल को कीड़ा जड़ी मशरुम के फायदे के बारे में पता लगा तो उसने मन बना लिया कि कीड़ा जड़ी मशरुम की खेती ही करनी है, जिसके लिए रिसर्च करनी शुरू कर दी और बाद में पता लगा कि इसके बीज यहां नहीं थाईलैंड देश में मिलते है, पर यहां आकर रशपाल के लिए मुश्किल खड़ी हो गई क्योंकि कोई भी उसे जानने वाला बाहर देश में नहीं था जो उसकी सहायता कर सकता था। पर रशपाल जी ने फिर भी हिम्मत नहीं हारी और मेहनत करके बाहर देश में किसी के साथ संम्पर्क बनाया और फिर पूरी बात की।

जब रशपाल को बरोसा हुआ तो उन्होनें थाईलैंड से बीज मंगवाए जिसमें उनका खर्चा 2 लाख के नजदीक हुआ था। उन्होनें रिसर्च तो की थी और सब कुछ पहले से त्यार किया हुआ था जो मशरुम लगाने और उसे बढ़ने के लिए जरुरी थी और 2 अलग-अलग कमरे इस तरह से तैयार किये थे जहां पर मशरुम को हर समय आवश्यकता अनुसार तापमान मिलता रहे और मशरुम को डिब्बे में डालकर उसका ध्यान रखते।

रशपाल जी पहले ही बटन मशरुम और स्ट्रॉबेरी की खेती करते थे जिसके बाद उन्होनें कीड़ा जड़ी नामक मशरुम की खेती करनी शुरू कर दी। जब कीड़ा जड़ी मशरुम पकने पर आई तो नजदीकी गांव वालों को पता चला कि नजदीकी गांव में कोई मेडिसनल मशरुम की खेती कर रहा है, क्योंकि उनके नजदीक इस नाम के मशरुम की खेती कोई नहीं करता था, जिसके कारण लोगों में जानने के लिए उत्सुकता पैदा हो गई, जब वह रशपाल से मशरुम और इसके फायदे के बारे में पूछने लगे तो उन्होनें बहुत से अच्छे से उसके अनेकों फायदे के बारे में बताया, वैसे उन्होनें इसकी खेती घर के लिए ही की थी पर उन्हें क्या पता था कि एक दिन यही मशरुम की खेती व्यापार का रास्ता बन जाएगी।

सबसे पहले मशरुम का ट्रायल अपने और परिवार वालों पर किया और ट्रायल में सफल होने पर बाद में इसे बेचने के बारे में सोची और धीरे-धीरे लोग खरीदने लगे जिसका परिणाम थोड़े समय में मिलने लगा बहुत कम समय में मशरुम बिकने लगे।

जिसके साथ मार्केटिंग में इतनी जल्दी प्रसार हुआ, फिर उन्होनें मार्केटिंग करने के तरीके को बदला और मशरुम को एक ब्रांड के द्वारा बेचने के बारे में सोचा जिसे cordyceps barnala के ब्रांड नाम से रजिस्टर्ड करवा कर, खुद प्रोसेसिंग करके और पैकिंग करके मार्केटिंग करनी शुरू कर दी जिससे ओर लोग जुड़ने लगे और मार्केटिंग बरनाला शहर से शुरू हुई पूरे पंजाब में फैल गई, जिससे थोड़े समय में मुनाफा होने लगा। जिसमें वह 10 ग्राम 1000 रुपए के हिसाब से मशरुम बेचने लगे।

उन्होनें जहां से मशरुम उत्पादन की शुरुआत 10×10 से की थी इस तरह करते वह 2017 में प्राप्ति के शिखर पर थे, आज उनकी मशरुम की इतनी मांग है की उन्हें मशरुम खरीदने के लिए फोन आते हैं और बिलकुल भी खाली समय नहीं मिलता। अधिकतर उनकी मशरुम खिलाड़ियों की तरफ से खरीदी जाती है।

उन्हें इस काम के लिए आत्मा, के वी के और ओर बहुत सी संस्था की तरफ से इनाम भी प्रपात हो चुके हैं।

भविष्य जी योजना

वह 2 कमरे से शुरू किए इस काम को ओर बड़े स्तर पर करके अलग अलग कमरे तैयार करके मार्केटिंग करना चाहते हैं।

संदेश

यदि किसी छोटे किसान ने कीड़ा जड़ी मशरुम की खेती करनी है तो पैसे लगाने से पहले उसके ऊपर अच्छे से रिसर्च करें जानकारी लें और ट्रेनिंग ले कर ही इस काम शुरू करना चाहिए।

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प्रदीप नत्त

(जैविक खेती)

छोटी उम्र में ही कन्धों पर पड़ी जिम्मेवारियों को अपनाकर उन ऊपर जीत हांसिल करने वाला नौजवान

जिंदगी का सफर बहुत ही लंबा है जोकि पूरी जिंदगी काम करते हुए भी कभी खत्म नहीं होता, इस जिंदगी के सफर में हर एक इंसान का कोई न कोई मुसाफिर या साथी ऐसा होता है जोकि उसके साथ हमेशा रहता है, जैसे किसी के लिए दफ्तर में सहायता करने वाला कोई कर्मचारी, जैसे किसी पक्षी की थकावट दूर करने वाली पौधे की टहनी, इस तरह हर एक इंसान की जिंदगी में कोई न कोई महत्वपूर्ण भूमिका निभा रहा है।

आज जिनके बारे में बात करने जा रहे हैं उनकी जिंदगी की पूरी कहानी इस कथन के साथ मिलती सी है, क्योंकि यदि एक साथ देने वाला इंसान जो आपके अच्छे या बुरे समय में आपके साथ रहता था, तो यदि वह अचानक से आपका साथ छोड़ दे तो हर एक काम जो पहले आसान लगता था वह बाद में अकेले करना मुश्किल हो जाता है, दूसरा आपको उस काम के बारे में कोई जानकारी नहीं होती।

ऐसे ही एक प्रगतिशील किसान प्रदीप नत्त, जोकि गांव नत्त का रहने वाला है, जिसने छोटी आयु में अकेले ही कामयाबी की मंजिलों पर जीत पाई और अपने ज़िले बठिंडे में ऑर्गनिक तरीके के साथ सब्जियों की खेत और खुद ही मार्केटिंग करके नाम चमकाया।

साल 2018 की बात है जब प्रदीप अपनी पढ़ाई पूरी करने के बाद अपने पिता के साथ खेती करने लगा और उन्होंने शुरू से ही किसी के नीचे काम करने की बजाए खुद का काम करने के बारे में सोच रखा था, इसलिए वह खेती करने लगे और धीरे धीरे अपने पिता जी के बताएं अनुसार खेती करने लगे और लोग उन्हें खेतों का बेटा कहने लगे।

जब प्रदीप को फसल और खाद के बारे में जानकारी होने लगी उस समय 2018 में प्रदीप के पिता का देहांत हो गया जो उनके हर काम में उनके साथ रहते थे। जिससे घर की पूरी जिम्मेदारी प्रदीप जी पर आ गई और दूसरा उनकी आयु भी कम थी। प्रदीप ने हिम्मत नहीं हारी और खेती करने के जैविक तरीकों को अपनाया।

2018 में उन्‍होंने एक एकड़ में जैविक तरीके के साथ खेती करनी शुरू कर दी, बहुत से लोगों ने उसे इस काम को करने से रोका, पर उन्होनें किसी की न सुनी, उन्‍होंने सोचा कि अभी तक रसायनिक ही खा रहे हैं और पता नहीं कितनी बीमारियों को अपने साथ लगा लिया है, तो अभी शुद्ध और जैविक खाए जिससे कई बीमारियों से बचाव किया जा सके।

जैविक तरीके के साथ खेती करना 2018 से शुरू कर दिया था और जब जैविक खेती के बारे में पूरी जानकारी हो गई तो प्रदीप ने सोचा कि क्यों न कुछ अलग किया जाए और उनका ख्याल पारंपरिक खेती से हट कर सब्जियों की खेती करने का विचार आया। सितम्बर महीने की शुरुआत में उनहोंने कुछ मात्रा में भिंडी, शिमला मिर्च, गोभी आदि लगा दी और जैविक तरीके के साथ उनकी देखरेख करने लगे और जब समय पर सब्जियां पक कर तैयार हो जाए तो सबसे पहले प्रदीप ने घर में बना कर देखी और जब खाई तो स्वाद बहुत अलग था क्योंकि जैविक और रसायनिक तरीके के साथ उगाई गई फसल में जमीन आसमान का फर्क होता है।

फिर प्रदीप ने सब्जी बेचने के बारे में सोचा पर ख्याल आया कि लोग रसायनिक देख कर जैविक सब्जी को कैसे खरीदेंगे। फिर प्रदीप ने खुद मार्किट करने के बारे में सोचा और गांव गांव जाकर सब्जियां बेचने लगे और लोगों को जैविक के फायदे के बारे में बताने लगे जिससे लोगों को उस पर विश्वास होने लगा।

फिर रोजाना प्रदीप सब्जी बेचने मोटरसाइकिल पर जाता और शाम को घर वापिस आ जाता।एक बार वह अपने साथ नर्सरी के कार्ड छपवा कर ले गए और सब्जी के साथ देने लगे

फिर प्रदीप ने सोचा कि क्यों न बठिंडा शहर जाकर सब्जी बेचीं जाए और उसने इस तरह ही किया और शहर में लोगो की प्रतिक्रिया अच्छी थी जिसे देखकर वह खुद हुए और साथ साथ मुनाफा भी कमाने लगे।

इस तरह से 1 साल निकल गया और 2020 आते प्रदीप को पूरी तरह से सफलता मिल गई। जो प्रदीप ने 1 एकड़ से काम शुरू किया था उसे धीरे धीरे 5 एकड़ में फैला रहे थे जिसमें उनहोंने सब्जियों की खेती में विकास तो किया उसके साथ ही नरमे की खेती भी जैविक तरीके के साथ करनी शुरू की।

आज प्रदीप को घर बैठे ही सब्जियां खरीदने के लिए फ़ोन आते हैं और प्रदीप अपने ठेले पर सब्जी बेचने चले जाते हैं जिसमें सबसे अधिक फोन बठिंडे शहर से आते हैं जहां पर उनकी मार्केटिंग बहुत होती है और बहुत अधिक मुनाफा कमा रहे हैं।

छोटी आयु में ही प्रदीप ने बड़ा मुकाम पा लिया था, किसी को भी मुश्किलों से भागना नहीं चाहिए, बल्कि उसका मुकाबला करना चाहिए, जिसमें आयु कभी भी मायने नहीं रखती, जिसने मंजिलों को पाना होता है वह छोटी आयु में ही पा लेते हैं।

भविष्य की योजना

वह अपनी पूरी जमीन को जैविक में बदलना चाहते हैं और खेती जो रसायनिक खादों में बर्बाद की है उसे जैविक खादों द्वारा शक्तिशाली बनाना चाहते हैं।

संदेश

किसान चाहे बड़ा हो या छोटा हो हमेशा पहल जैविक खेती को देनी चाहिए, क्योंकि अपनी सेहत से अच्छा कुछ भी नहीं है और मुनाफा न देखकर अपने और दूसरों के बारे में सोच कर शुरू करें, आप भी शुद्ध चीजें खाएं और दूसरों को भी खिलाएं।

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सिकंदर सिंह बराड़

(सब्जियां)

कृषि विभिन्ता को अपनाकर एक सफल किसान बनने वाले व्यक्ति की कहानी

कुछ अलग करने की इच्छा इंसान को धरती से आसमान तक ले जाती है। पर उसके मन में हमेश आगे बढ़ाने के इच्छा होनी चाहिए। आप चाहे किसी भी क्षेत्र में काम कर रहे हो, अपनी इच्छा और सोचा को हमेशा जागृत रखना चाहिए।

इस सोच के साथ चलने वाले सरदार सिकंदर सिंह बराड़, जोकि बलिहार महिमा, बठिंडा में रहते हैं और जिनका जन्म एक किसान परिवार में हुआ। उनके पिता सरदार बूटा सिंह पारंपरिक तरीके के साथ खेतीबाड़ी कर रहे हैं, जैसे गेहूं,धान आदि। क्या इस तरह नहीं हो सकता कि खेतीबाड़ी में कुछ नया या विभिन्ता लेकर आई जाए।

मेरे कहने का मतलब यह है कि हम खेती करते हैं पर हर बार हर साल वही फसलें उगाने की बजाए कुछ नया क्यों नहीं करते- सिकंदर सिंह बराड़

वह हमेशा खेतीबाड़ी में कुछ अलग करने के बारे में सोचा करते थे, जिसकी प्रेरणा उन्हें अपने नानके गांव से मिली। उनके नानके गांव वाले लोग आलू की खेती बहुत अलग तरीके के साथ करते थे, जिससे उनकी फसल की पैदावार बहुत अच्छी होती थी।

जब मैं मामा के गांव की खेती के तरीकों को देखता था तो मैं बहुत ज्यादा प्रभवित होता था – सिकंदर सिंह बराड़

जब सिकंदर सिंह ने 1983 में सिरसा में डी. फार्मेसी की पढ़ाई शुरू की उस समय एस. शमशेर सिंह जो कि उनके बड़े भाई हैं, पशु चिकित्सा निरीक्षक थे और अपने पिता के बाद खेती का काम संभालते थे। उस समय जब दोनों भाइयों ने पहली बार खेतीबाड़ी में एक अलग ढंग को अपनाया और उनके द्वारा अपनाये गए इस तकनिकी हुनर के कारण उनके परिवार को काफी अच्छा मुनाफ़ा हुआ।

जब अलग तरीके अपनाने के साथ मुनाफा हुआ तो मैंने 1984 में D फार्मेसी छोड़ने का फैसला कर लिया और खेतबाड़ी की तरह रुख किया- सिकंदर सिंह बराड़

1984 में D फार्मेसी छोड़ने के बाद उन्होंने खेतीबाड़ी करनी शुरू कर दी। उन्होंने सबसे पहले नरमे की अधिक उपज वाली किस्म की खेती करनी शुरू की।

इस तरह छोटे छोटे कदमों के साथ आगे बढ़ते हुए वह सब्जियों की खेती ही करते रहे, जहां पर उन्होंने 1987 में टमाटर की खेती आधे एकड़ में की और फिर बहुत सी कंपनी के साथ कॉन्ट्रैक्ट किए और अपने इस व्यवसाय को आगे से आगे बढ़ाते रहे।

1990 में विवाह के बाद उन्होंने आलू की खेती बड़े स्तर पर करनी शुरू की और विभिन्ता अपनाने के लिए 1997 में 5000 लेयर मुर्गियों के साथ पोल्ट्री फार्मिंग की शुरुआत की, जिसमें काफी सफलता हासिल हुई। इसके बाद उन्होंने अपने गांव के 5 ओर किसानों को पोल्ट्री फार्म के व्यवसाय को सहायक व्यवसाय के रूप में स्थापित करने के लिए उत्साहित किया, जिसके साथ उन किसानों को स्व निर्भर बनने में सहायता मिली। 2005 में उन्होंने 5 रकबे में किन्नू का बाग लगाया। इसके इलावा उन्होंने नैशनल सीड कारपोरेशन लिमिटेड के लिए 15 एकड़ जमीन में 50 एकड़ रकबे के लिए गेहूं के बीज तैयार किया।

मुझे हमेशा कीटनाशकों और नुकसानदेह रसायन के प्रयोग से नफरत थी, क्योंकि इसका प्रयोग करने के साथ शरीर को बहुत नुक्सान पहुंचता है- सिकंदर सिंह बराड़

सिकंदर सिंह बराड़ अपनी फसलों के लिए अधिकतर जैविक खाद का प्रयोग करते हैं। वह अब 20 एकड़ में आलू, 5 एकड़ में किन्नू और 30 एकड़ में गेहूं के बीजों का उत्पादन करते हैं। इसके साथ ही 2 एकड़ में 35000 पक्षियों वाला पोल्ट्री फार्म चलाते हैं।

बड़ी बड़ी कंपनी जिसमें पेप्सिको,नेशनल सीड कारपोरेशन आदि शामिल है, के साथ साथ काम कर सकते हैं, उन्हें पंजाब एग्रीकल्चर यूनिवर्सिटी, लुधियाना की तरफ से प्रमुख पोल्ट्री फार्मर के तौर पर सम्मानित किया गया। उन्हें बहुत से टेलीविज़न और रेडियो चैनल में आमंत्रित किया गया, ताकि खेती समाज में बदलाव, खोज, मंडीकरण और प्रबंधन संबंधी जानकारी ओर किसानों तक भी पहुँच सके।

वे राज्य, राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय स्तर पर कई खेती मेले और संस्था का दौरा कर चुके हैं।

भविष्य की योजना

सिकंदर सिंह बराड़ भविष्य में भी अपने परिवार के साथ साथ अपने काम को ओर आगे लेकर जाना चाहते हैं, जिसमें नए नए बदलाव आते रहेंगे।

संदेश

जो भी नए किसान खेतीबाड़ी में कुछ नया करना चाहते हैं, उन्हें चाहिए कि कुछ भी शुरू करने से पहले उससे संबंधित माहिर या संस्था से ट्रेनिंग ओर सलाह ली जाए। उसके बाद ही काम शुरू किया जाए। इसके इलावा जितना हो सके कीटनाशकों और रसायन से बचना चाहिए और जैविक खेती को अपनाने की कोशिश करनी चाहिए।

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बलजिंदर सिंह

(मक्खी पालन)

एक मधुमक्खी पालक की कहानी जो अपने शौक के जरिए सलफता हासिल कर चुका है

दिशा कहीं से भी मिल जाए, चाहे समय कोई भी हो, चाहे दिन हो या रात, वह समय सुनहरा होता है।

यह बात हर क्षेत्र में लागू है, क्योंकि आज के समय में यदि किसी ने कोई मुकाम हासिल करना हो, तो ज्ञान और मार्गदर्शन की जरुरत होती है। आज एक ऐसे ही किसान के बारे में बात करेंगे जिन्होंने इस बात को सच साबित किया है।

कहा जाता है कि इंसान और पानी का चलते रहना बहुत जरुरी होता है, क्योंकि इनके एक जगह खड़े रहने से इनकी महत्ता कम हो जाती है। इसी सोच के साथ श्री कतसर साहिब जिला के रहने वाले बलजिंदर सिंह जी को कुछ नया करने की इच्छा रहती थी। इस बात को ध्यान में रखते हुए उन्होंने अलग अलग मेले और प्रदर्शनियों में जाना शुरू किया। इन प्रदर्शनियों में उनकी मुलाकात श्रीमती गुरदेव कौर देयोल जी के साथ हुई जिनकी सफलता ने बलजिंदर सिंह जी को बहुत प्रभावित किया।

श्रीमती गुरदेव कौर देयोल जी जोकि खुद एक प्रगतिशील किसान है, उन्हें देखकर विचार आया, यदि एक महिला होकर इतना कुछ कर सकते हैं तो मैं क्यों नहीं- बलजिंदर सिंह

श्रीमती गुरदेव कौर देयोल जी एक प्रगतिशील किसान है, जिन्होंने अपने बनाए सेल्फ हेल्प ग्रुप के साथ अपनी अलग पहचान बना रखी है, जिससे वह अपने उत्पाद जैसे कि चटनी, अचार आदि का मंडीकरण भी करते हैं। उन्हें बहुत से पुरस्कार भी मिल चुके हैं, जोकि ओर महिलाओं के लिए एक उदाहरण है।

बलजिंदर सिंह जी श्रीमती गुरदेव कौर देयोल जी के काम से उत्साहित हो कर मधु मक्खी पालन का व्यवसाय अपनाने का मन बनाया। उनके साथ मिलकर मधु मक्खी पालन की प्राथमिक ट्रेनिंग ली।

मैं और श्रीमती गुरदेव कौर देयोल ही मिलकर KVK बठिंडा में समय समय पर ट्रेनिंग प्राप्त करवाते रहते हैं और सरदारनी गुरदेव कौर देयोल के साथ अलग अलग फार्म पर जाते रहे- बलजिंदर सिंह

बलजिंदर जी ने एक से डेढ़ साल तक ट्रेनिंग करने के बाद गुरदेव कौर देयोल जी के पास से 15 बक्से खरीद कर साल 2000 में मधु मक्खी पालन का व्यवसाय शुरू किया। मधु मक्खियों की नस्ल से उन्होंने इटालियन नस्ल की मक्खियों के साथ शुरू किया, जोकि PAU की तरफ से सिफारिश की गई थी। इन बक्सों को उन्होंने गंगानगर के इलाके में रखा। बिना किसी सरकारी और गैर सरकारी सहायता से उन्होंने 15 बक्से से अपना काम शुरू किया।

मुझे इस व्यवसाय में कोई अधिक समस्या नहीं आई, पर दुःख इस बात का होता है कि कंपनियां शहद में मिलावट करके बेचती है और अपने मुनाफे के लिए लोगों की सेहत के साथ खेल रही है- बलजिंदर सिंह।

उनका काम बड़े स्तर पर फैल चुका है, कि वह अपना शहद सिर्फ भारत में नहीं बल्कि बाहरी देश जैसे अमेरिका, कनाडा, आदि में भी बेच रहे हैं। उन्होंने कंपनियों के साथ लिंक बनाए हुए हैं और शहद सीधा कंपनी को बेचते हैं।

वर्तमान में उनके पास 2500 के आस पास बक्से हैं। वह अपने बक्से केवल पंजाब में ही नहीं बल्कि पंजाब के बाहर जैसे महाराष्ट्र, मध्य प्रदेश, हिमाचल प्रदेश, जम्मू कश्मीर, श्रीनगर आदि शहरों में लगाते हैं। इस काम में उनके साथ 20 ओर मजदूर जुड़े हैं और उनके साथ उनके सहयोगी कुलविंदर सिंह गांव बुर्ज कलां से हैं, जोकि हर समय उनका साथ देते हैं।

बलजिंदर सिंह जी ने अपना शहद ग्राहक की जरुरत अनुसार जैसे 100 ग्राम, 250 ग्राम, 500 ग्राम, और 1 किलो की पैकिंग को घर-घर में पहुंचाना शुरू किया। उन्हें मधु मक्खी पालन के व्यवसाय में बहुत से पुरस्कार भी मिल चुके हैं।

बलजिंदर सिंह जी की तरफ से अलग अलग तरह का शहद तैयार किया जाता है-

  • सरसों का शहद
  • नीम का शहद
  • टाहली का शहद
  • सफेदे का शहद
  • बेरी का शहद
  • कीकर का शहद आदि।

भविष्य की योजना

वह मधु मक्खी पालन के व्यवसाय को बड़े स्तर पर लेकर जाना चाहते हैं, जिसमें 5000 तक बक्से लगाना चाहते हैं।

संदेश

जो नए किसान मधु मक्खी पालन में आना चाहते हैं, सबसे पहले उन्हें अच्छी तरह से ट्रेनिंग प्राप्त करनी चाहिए। उसके बाद मेहनत करें ये न हो कि उत्साहित होकर पैसे लगा लें पर ज्ञान की कमी होने के कारण बाद में नुक्सान सहना पड़े। सबसे पहले अच्छी तरह से ट्रेनिंग लेने के बाद ही किसी व्यवसाय को करें। क्योंकि इस तरह का व्यवसाय अपनी देखरेख में ही किया जा सकता है।

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मलविंदर सिंह

(जैविक खेती)

खेती के तरीकों को बदलकर क्रांति लेकर आने वाला यह प्रगतिशील युवा किसान

ज्यादातर इस दुनिया में कोई भी किसी का कहना नहीं मानता बेशक वह बात हमारी भलाई के लिए ही क्यों ना की जाए पर उसका अहसास बहुत समय बाद जाकर होता है, पर किसी द्वारा एक छोटी सी हंसी में ही बोली गई बात पर अमल करके अपने खेती के तरीके को बदल लेना, किसी ने सोचा नहीं था और क्या पता था कि एक दिन वह उसकी कामयाबी का ताज बनकर सिर पर सज जाएगा।

इस स्टोरी के द्वारा जिनकी बात करने जा रहे हैं उन्होंने आर्गेनिक तरीके को अपनाकर और फूड प्रोसेसिंग करके मंडीकरण में ऐसी क्रांति लेकर आए कि ग्राहकों द्वारा हमेशा ही उनके उत्पादों की प्रशंसा की गई, जो कि तब मलविंदर सिंह जो पटियाला जिले के रहने वाले हैं, उनकी तरफ से एक छोटे स्तर पर शुरू किया कारोबार था जो आज पूरे पंजाब, चंडीगढ़, हरियाणा और दिल्ली में बड़े स्तर पर फैल गया है।

आज कल की इस भागदौड़ की दुनिया में बीमार होना एक आम बात हो गई है इसी दौरान ही मलविंदर जी जब छोटे होते बीमार हुए जिसका कारण एलर्जी था तो उनके पिता दवाई लेने के लिए डॉक्टर के पास गए तो डॉक्टर ने दवाई देकर आगे से कहा कि भाई, कीटनाशक स्प्रे के उपयोग को घटाएं, यदि बीमारियों से छुटकारा पाना चाहते है। यह बात सुनकर मलविंदर के पिता जी के मन में बात इस तरह बैठ गई कि उन्होंने स्प्रेओं का उपयोग करना ही बंद कर दिया।

उसके बाद वे बिना स्प्रे से खेती करने लगे जिसमें गेहूं, बासमती, सरसों और दालें जो कि एक एकड़ में करते थे, जो 2014 में पूरी तरह जैविक हो गई और इस तरह खेती करते-करते बहुत समय हो गया था और वर्ष 2014 में ही मलविंदर के पिता जी स्वर्ग सिधार गए जिसका मलविंदर और उनके परिवार को बहुत ही ज्यादा दुख हुआ क्योंकि हर समय परछाई बनकर साथ रहने वाला हाथ सिर से सदा के लिए उठ गया था और घर की ज़िम्मेवारी संभालने वाले उनके पिता जी थे, उस समय मलविंदर अपने पढ़ाई कर रहे थे।

जब यह घटना घटी तो मलविंदर जी को कोई ख्याल नहीं था कि घर की पूरी ज़िम्मेवारी उन्हें ही संभालनी पड़नी है, जब थोड़े समय बाद घर में माहौल सही हुआ तो मलविंदर ने महसूस किया और पढ़ाई के साथ-साथ खेती में आ गए और कम समय में ही खेती को अच्छी तरह जानकर काम करने लगे जो कि बहुत हिम्मत वाली बात है, इस दौरान वे खेती संबंधी रिसर्च करते रहते थे क्योंकि एक पढ़ा लिखा नौजवान जब खेती में आता है तो वह कुछ ना कुछ परिवर्तन लेकर ही आएगा। मलविंदर ने वैसे तो पढ़ाई में बी ए, एम ए, एम फिल की हुई है।

मलविंदर जी जब रिसर्च कर रहे थे उस दौरान उन्हें फूड प्रोसेसिंग और मार्केटिंग करने का ख्याल आया, पर उसे वास्तविक रूप में लेकर नहीं आ रहे थे। उनके पास कुल 30 एकड़ ज़मीन हैऔर वे 2 भाई हैं, उस समय जब उन्होंने खेती को संभाला था तब वे एक एकड़ में ही स्प्रे रहित खेती करते थे जिसमें वे सिर्फ अपने घर के लिए ही उगा रहे थे पर कभी भी मार्केटिंग करने के बारे में सोचा नहीं था।

इस तरह खेती करते उन्हें 5 साल हो गए थे और उसके बाद सोचा कि अब की हुई रिसर्च को वास्तविक रूप में लेकर आने का समय आ गया है क्योंकि 2014 में वे पूरी तरह आर्गेनिक खेती करने लग गए थे, बेशक वे पहले भी स्प्रे रहित खेती करते थे पर अब पूरी तरह आर्गेनिक तरीकों से ही खेती कर रहे थे। मलविंदर ने सोचा कि यदि आर्गेनिक दालें, हल्दी, गेहूं और बासमती की प्रोसेसिंग करके बेचा जाए तो इस संबंधित देरी ना करते हुए सभी उत्पाद तैयार कर लिए क्योंकि आज कल बीमारियों ने घर-घर में राज़ कर लिया है जिस कारण हर कोई साफ, शुद्ध और देसी खाना चाहता है ताकि बीमारियों से बचा जा सके। यह ही मलविंदर की सबसे महत्तवपूर्ण धारणा थी पर इसलिए उस तरह के इंसान भी जरूरी थे जिन्हें इन सब उत्पादों की अहमियत के बारे में पता हो।

फिर मलविंदर ने अपने उत्पादों की मार्केटिंग करने के लिए एक ऐसा ही रास्ता सोचा कि जिससे उसके बारे में सभी को पता चल सके जो सोशल मीडिया थी वहां उन्होंने नीलोवालिया नैचुरल फार्म नाम से पेज बनाया और उत्पाद की फोटो खींच कर डालने लग गए और बहुत लोग उनसे जुड़ने लग गए पर किसी ने भी पहल नहीं की। इस संबंधी उन्होंने अपने रिश्तेदारों और दोस्तों से बात की जो शहर में रहते थे उनके साथ और भी बहुत लोग जुड़े हुए थे जो कि हमेशा अच्छे उत्पादों की मांग करते थे जो कि मलविंदर के लिए बहुत बड़ी सफलता थी। इसमें सभी जान पहचान वालों ने पूरा साथ दिया जिस तरह धीरे-धीरे करके उनके एक-एक उत्पाद की मार्केटिंग होने लग गई, जिससे बेशक उनके मार्केटिंग का काम चल पड़ा था और इस दौरान वे पढ़ाई भी साथ-साथ कर रहे थे और जब कॉलेज जाते थे वहां हमेशा ही उनके प्रोफेसर मलविंदर से बातचीत करते और फिर वे अपने आर्गेनिक उत्पादों के बारे में उन्हें बताने लग जाते जिससे उनके उत्पाद प्रोफेसर भी लेने लगे और मार्केटिंग में प्रसार होने लग गया।

इससे मलविंदर ने सोचा कि क्यों ना शहर के लोगों के साथ मीटिंग करके अपने उत्पादों के बारे में अवगत करवाया जाए जिसमें उनके प्रोफेसर, रिश्तेदारों और दोस्तों के द्वारा जो अच्छे तरीके से उन्हें जानते थे मीटिंग बुला ली। जब उन्होंने अपने उत्पादों के बारे में लोगों को अवगत करवाया तो एक-एक उत्पाद करके लेकर जाना शुरू कर दिया।

इस तरह करते हुए साल 2016 के अंत तक मलविंदर ने अपने साथ पक्के ग्राहक जोड़ लिए जो कि तकरीबन 80 के करीब हैं और हमेशा ही उनसे सामान लेते हैं और साथ ही उन्होंने अपने खेती में भी वृद्धि कर दी एक एकड़ से शुरू की खेती को 3 एकड़ में करना शुरू कर दिया जिससे उनका मार्केटिंग में इतनी जल्दी प्रसार हुआ कि जहां वे एक उत्पाद खरीदते थे वहीं उनके और उत्पाद की भी बिक्री होने लग गई।

2016 में मलविंदर जी कामयाब हुए और उस समय उन्होंने 2018 में सब्जियों की काश्त करनी भी शुरू कर दी, जिसकी बहुत ज्यादा मांग है साल 2021 तक आते आते उन्होंने 3 एकड़ की खेती को 8 एकड़ में फैला दिया जिसमें घर में हर एक उपयोग में आने वाली वस्तुएं उगाने लगे और उनकी प्रोसेसिंग करते हैं। इस दौरान एक ट्रॉली भी तैयार की हुई है जो कि पूरी तरह पोस्टर लगाकर सजाई हुई है और इसके साथ एक किसान हट भी खोली हुई है जहां सारा शुद्ध, साफ और आर्गेनिक सामान रखा हुआ है, उन्होंने प्रोसेसिंग करने के लिए मशीनें रखी हुई हैं और उत्पाद की बढ़िया तरीके से पैकिंग करके नीलोवालिया नैचुरल फार्म नाम से बेच रहे हैं।

जिससे जो काम उन्होंने पहले छोटे स्तर पर शुरू किया था उसके चर्चे अब पूरे पंजाब में है और पढ़े लिखे इस नौजवान ने साबित किया कि खेती केवल खेतों में मिट्टी से मिट्टी होना ही नहीं, बल्कि मिट्टी में से निकलकर लोगों के सामने निखर कर सामने लेकर आना और उसे रोजगार बनाना ही खेती है।

भविष्य की योजना

वे खेती में हर एक चीज़ का तज़ुर्बा करना चाहते हैं और मार्केटिंग चैनल बनाना चाहते हैं जिससे वे अपने और साथ के किसानों की सारी उपज स्वयं मंडीकरण करके बेच सकें और किसानों को अपनी मेहनत का मुल्य मिल सके।

संदेश

खेती बेशक करो पर वह करो जिससे किसी की सेहत के साथ खिलवाड़ ना हो और यदि हो सके तो ओरगैनिक खेती को ही पहल दें यदि खुशहाल इस दुनिया को देखना चाहते हैं और कोशिश करते रहें कि अपनी फसल स्वंय मंडीकरण करके बेच सकें।

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हरप्रीत सिंह

(सुअर पालन)

एक सफल शिक्षक से एक सफल सुअर पालक तक का अनोखा सफर

सुअर पालन को लेकर हर इंसान के मन में यह धारणा होती है कि सुअर पालन केवल एक सहायक पेशा हो सकता है, इसके इलावा कुछ लोग यह भी सोचते हैं कि सुअर बहुत गंदा जानवर है जो हमेशा गंदगी में रहता है और सूअर पालन कभी भी मुख्य व्यवसायों में अपनी जगह नहीं बना सकता।

आज हम जिला मुक्तसर के गांव लालबाई के एक युवक हरप्रीत सिंह की सफल कहानी पढ़ेंगे, जिन्होंने इस धारणा को गलत साबित कर दिया। उन्होंने अपनी BA और B.ED की पढ़ाई पूरी करने के बाद 10 साल तक 10वीं कक्षा के शात्रों को पढ़ाया और बाद एक शिक्षक से सफल किसान बने, उनकी सफलता की कहानी सोशल मीडिया से शुरू होती है, एक दिन जब वह खाली बैठे थे, उन्हें सोशल मीडिया पर सुअर पालन से संबंधित एक वीडियो मिला, जिसमें सुअर पालन के बारे में बहुत विस्तार से जानकारी दी गई थी जिसने हरप्रीत जी को सोचने पर मजबूर कर दिया था। सुअर पालन एक अच्छा पेशा है लेकिन लोग इसे गलत क्यों कहते हैं। उन्होंने और जानकारी इकट्ठी करनी शुरू की और अपना सारा ध्यान उसी पर केंद्रित कर दिया। जैसे-जैसे जानकारी धीरे-धीरे इकट्ठी होने लगी, उस पल उन्हें ऐसा लगा जैसे समुद्र में खड़ी नाव को आगे बढ़ाने के लिए उन्हें एक चप्पू मिल गया हो।

हरप्रीत जी ने सोचा, मैंने बहुत सारी जानकारी इकट्ठी कर ली है लेकिन अब मुझे अधिक जानकारी प्राप्त करने के लिए किसी फार्म का दौरा करना है और यह जानना है कि हम सुअर पालन को एक प्रमुख व्यवसाय के रूप में अपनाकर वास्तव में सफल कैसे हो सकते हैं और वह जिस फार्म में भी जाते थे वहां से अपने सवालों की पुष्टि करके ही वापिस आते थे। जानकारी एकत्रित करने में काफी समय लगा लेकिन उन्होंने इस जानकारी को अमल में लाने का मन बना लिया था। जिसे लेकर हरप्रीत ने अपने परिवार से बात की, उन्होंने हरप्रीत की एक भी बात नहीं मानी क्योंकि सबके मन में यही बात थी. कि सुअर बहुत गंदा जानवर है जिसे गंदगी पसंद है, लेकिन जब हरप्रीत जी ने सुअर पालन के बारे में बहुत स्पष्ट जानकारी दी, तो परिवार के सदस्य सहमत हो गए लेकिन उनकी पूरी सहमति हरप्रीत जी के पास नहीं थी,जिससे वह काफी निराश थे।

इसी बीच गृह मंत्रालय में वरिष्ठ पद पर आसीन उनके दादा जी के मुलाकात साल 2018 में पंजाब के पूर्व मुख्यमंत्री सरदार प्रकाश सिंह बादल से हुई और उस समय हरप्रीत जी भी अपने दादा के साथ थे। बैठक के दौरान हरप्रीत जी ने कहा कि उसके बाद पूर्व मुख्यमंत्री द्वारा पूछे जाने पर, वह एक शिक्षक थे और अब वे सुअर पालन का पेशा शुरू करने की सोच रहे थे। इस पर सहानुभूति प्रकट करते हुए सरदार प्रकाश बादल ने कहा, “बेटा, जब आप यह काम शुरू कर रहे हैं तो मेरे पास एक बहुत अच्छा विचार है। फार्म शुरू कब कर रहे हो, जब भी शुरू करना तो मेरे पी. ए. को फोन कर देना हम तुम्हारा फार्म देखने आयेंगे।”

हरप्रीत जी पहले से ही कुछ अलग करना चाहते थे और उसके ऊपर जब पूर्व मुख्यमंत्री ने काम के प्रति सहानुभूति व्यक्त की, तो उन्हें विश्वास हो गया कि हाँ, यह पेशा भी एक प्रमुख पेशा बन सकता है और फिर से परिवार के सदस्यों ने हरप्रीत को शुरू करने के लिए अपनी सहमति दी। इस पर हरप्रीत बहुत खुश थे।

हरप्रीत के पास सुअर पालन से जुड़ी सारी जानकारी थी इसलिए उसने अपना व्यवसाय शुरू करने से पहले उन्होंने पहले फार्म तैयार करवाया और पंजाब के बाहर से 2 नर सूअर और 20 मादा सूअर लाकर जुलाई 2018 में सुअर पालन शुरू किया। उसे लिया और उस पर पूरा ध्यान दिया। उस समय उनके पास एक यॉर्कशायर और दूसरा क्रॉस-ब्रीड थी।

जब सुअर पालन शुरू हुआ और एक महीने बाद उसने सरदार प्रकाश बादल के पी.ए. को बुलाकर अपने खेत में आने का निमंत्रण दिया, जैसे ही खबर सरदार बादल तक पहुंची, वह हरप्रीत के फार्म को देखने गए और बहुत खुश हुए और हरप्रीत जी से कहा, “बेटा, तुम्हे जिस भी चीज़ की ज़रुरत हो बस बता देना।” जब सरदार बादल साहब हरप्रीत के खेत में गए, तो इसकी खबर आसपास के अन्य गांवों में फैल गई और गांव के साथ-साथ अन्य गांवों के लोग भी फार्म को देखने आने लगे। जैसे-जैसे उनके फार्म में देखने वालों की संख्या दिन-प्रति-दिन बढ़ती गई, इसकी बात धीरे-धीरे उन व्यापारियों तक फैल गई जो सूअर खरीदते थे और वे भी खेतों को देखने आते थे और हरप्रीत के साथ सूअरों का व्यापार करते थे। वहीं से मार्केटिंग की शुरुआत हुई।

कुछ ही समय में सूअरों की बिक्री इतनी तेजी से बढ़ी कि पंजाब में उनकी चर्चा होने लगी और बहुत ही कम समय में उन्होंने लाभ कमाना शुरू कर दिया। उस समय बेशक उनके फार्म का खर्च मुनाफे में से निकल रहा था लेकिन उनकी किस्मत तब बदल गई जब गर्भवती सूरी के बच्चे हुए, तो प्रति सूरी लगभग 10 से 15 बच्चे, जिन्हें व्यापारियों ने भारी मात्रा में खरीदा और इससे हरप्रीत जी को काफी हुआ, फिर उन्होंने सोचा कि क्यों न फार्म को बड़ा स्तर पर शुरू कर दिया जाए और और सूअर रख कर उनकी सही तरीके से मार्केटिंग की जाए।

इसके बाद 2018 से 2020 तक उन्होंने बड़े पैमाने पर मार्केटिंग शुरू की जहां वे पंजाब के साथ-साथ विदेशों में भी व्यापारियों के चर्चा का विषय बने। काम शुरू हुआ तो उनके पेशे से उनकी पहचान ऐसी हो गई कि हर को सूअर खरीदने हरप्रीत जी के पास ही आता था और इनकी मार्केटिंग काफी फैली जहां साल 2020 में इन्होंने पूरा मुनाफा कमाना शुरू कर दिया और सफल हो गए। एक तरह से मार्केटिंग में सरदार बादल साहब का बड़ा हाथ है जिन्होंने हरप्रीत को सुअर पालन में काम करने के लिए कहा और हरप्रीत अपनी लगन और मेहनत से सफल हुए और लोगों को दिखाया कि अगर आपको कड़ी मेहनत करनी है तो सुअर पालन एक प्रमुख व्यवसाय हो सकता है।

आजकल वे ज्यादातर खुद मार्केटिंग के लिए जाते हैं क्योंकि साल 2020 में लॉकडाउन के दौरान उन्हें काफी मुश्किलों का सामना करना पड़ा और उस समय उन्होंने डायरेक्ट मार्केटिंग करना सीख लिया था।

भविष्य की योजना

वे अन्य किसान भाइयों को सुअर पालन के बारे में जागरूक करने के लिए इस तरह से काम जारी रखते हुए फार्म को बड़ा करना और सूअरों की संख्या बढ़ाना चाहते हैं।

संदेश

अगर किसी को को भी काम करना है तो उसे विदेश जाने की जरूरत नहीं है, अगर आप यहाँ रहकर ही एक काम को अपने पुरे मन से करते हैं तो वह काम आपकी ज़िंदगी बदल सकता है।

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सुखजिंदर सिंह

(बकरी पालन)

शौंक को पेशे में बदलकर कामयाब होना सीखें इस इंसान से

हर इंसान की जिंदगी में एक ही कोशिश रहती है कि वह ऐसा काम करे जिससे उसकी पहचान उसके नाम की जगह उसके काम से हो, क्योंकि एक नाम जैसे तो बहुत होते हैं। ऐसी उदाहरण हर कोई दुनिया के सामने पेश करना चाहता है।

इस स्टोरी के द्वारा जिनकी बात करने जा रहे हैं वह पहले डेयरी फार्मिंग के कार्य को संभालते थे और उसमें मुनाफा भी हो रहा था लेकिन उनका शौंक एक दिन पेशा बन जाएगा ऐसा उन्होंने नहीं सोचा था और पंजाबी अपने शौंक पूरे करने के लिए ही जाने जाते हैं और उसे पूरा करके ही सांस लेते हैं। ऐसे ही सुखजिंदर सिंह जो मुक्तसर पंजाब के रहने वाले है, जिन्हें शौंक था कि क्यों ना घर में 2-3 बकरियों को रखकर देखभाल की जाए, इसलिए उन्होंने बरबरी जो देखने में बहुत सुंदर नस्ल है उसका एक बकरा और चार बकरियां ले आए ,जिसमें उनके घरवालों ने भी पूरा साथ दिया और वह उनकी देखभाल में लग गए और साथ-साथ अपना डेयरी फार्मिंग का काम भी संभालते रहे।

इस दौरान ही जब वह बकरियों की देखभाल कर रहे तो बकरियों के ब्याने के बाद जब उनके बच्चे थोड़े बड़े हुऐ तो लोग उन्हें देखने के लिए आते थे वह उनसे बच्चे लेकर जाने लगे क्योंकि बरबरी नस्ल की बकरी देखने में बहुत सुंदर और प्यारी होती है जिसे देखकर ही खरीदने का मन हो जाता है, जिससे बकरियों के बच्चे बिकने लगे लेकिन अभी भी सुखजिंदर जी बकरियों को शौंक के लिए ही रख रहे थे और उन्होंने बकरी पालन के काम के बारे में भी नहीं सोचा था।

साल 2017 के फरवरी में शुरू किए काम को धीरे-धीरे बढ़ाना शुरू किया और फार्म में बकरियों की संख्या को बढ़ाया और उनकी देखभाल करते रहे। इस दौरान उन्होंने विचार किया कि डेयरी फार्म के काम में मुनाफा नहीं हो रहा क्योंकि जितनी वह बकरियों की देखभाल कर रहे थे उससे कहीं ज्यादा डेयरी फार्म की तरफ ध्यान देते थे और इतनी मेहनत के बाद भी दूध का सही रेट नहीं मिल रहा था।

फिर उन्होंने थोड़ा समय अपने परिवार के साथ विचार करके डेयरी फार्मिंग के काम को कम करके बकरी पालन के फार्म को बढ़ाने के बारे में सोचा और 2-2, 4-4 करके उन्हें बढ़ाने लगे जिससे उनका बकरी पालन का काम सही तरीके से चलने लगा जिसमें मेहनत करते उन्हें 4 साल हो गए थे। इसके बाद उन्होंने सोचा कि डेयरी फार्म को बंद करके सिर्फ बकरी पालन के फार्म को बढ़ाएं और उसमें ही पूरे ध्यान से काम करें।

बकरी पालन को बढ़ाने से पहले वह साल 2019 में पंजाब खेतीबाड़ी यूनिवर्सिटी से बकरी पालन की ट्रेनिंग लेने चले गए ताकि बकरी पालन में कभी भी समस्या आए तो वह खुद उसका सामना कर सके, उसमें बिमारियों, खुराक और देखभाल की जानकारी दी जाती है।

साल 2019 में ट्रेनिंग लेने के बाद उन्होंने बहुत सारे फार्मों का दौरा किया और इस काम की जानकारी लेकर बरबरी नस्ल को छोड़कर बीटल नस्ल की बकरियां लेकर आए जोकि लगभग 20 के आसपास थी। वह उनकी पूरी देखभाल करने लगे और फिर उन्होंने ब्रीडिंग की तरफ भी ध्यान देना शुरू कर दिया।

जैसे कि लोग पहले से ही उनके पास बकरियां लेने आते थे अब उससे भी ज्यादा लोग बकरियां लेकर जाने लगे जिसमें अच्छा मुनाफा होने लगा और मार्केटिंग भी होने लगी, उन्हें मार्केटिंग में ज्यादा समस्या नहीं आयी क्योंकि वह पहले भी डेयरी फार्मिंग का काम करते थे और लोग उनके पास आते जाते रहते थे फिर जब बकरी पालन का काम किया तब लोगों को जानकारी हो गई और उनसे बकरियां के बच्चे लेकर जाने लगे।

इसके साथ साथ वह मंडी में भी बकरियां लेकर जाते थे और वहां भी मार्केटिंग करते इस तरह वह साल 2019 के आखिर में इस काम में पूरी तरह कामयाब हो गए और अपने शौंक को पेशे में बदलकर लोगों को भी उदाहरण पेश की है क्योंकि यदि आप शौंक ही आपको पेशा बन जाए तो कभी भी असफलता देखने की ज़रूरत नहीं पड़ती।

आज वह अपने फार्म में मार्केटिंग करके अच्छा मुनाफा कमा रहे हैं।

भविष्य की योजना

बकरी फार्म को बढ़ाकर मार्केटिंग का प्रसार बड़े स्तर पर करना चाहते हैं जिससे पंजाब के बकरी पालकों को बकरियां पंजाब के बाहर से लाने ज़रूरत ना पड़े।

संदेश

यदि कोई नौजवान बकरी पालन का काम करना चाहता है तो सबसे पहले बकरी पालन की ट्रेनिंग और इस काम की सारी जानकारी प्राप्त करे ताकि यदि बाद में कोई समस्या आती है तो उसका खुद समाधान किया जा सके।

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करनबीर सिंह

(प्रोसेसिंग और मार्केटिंग)

अन्नदाता फूड्स के नाम से किसान हट चलाने वाला प्रगतिशील किसान

आज के समय में हर कोई दूसरों के बारे में नहीं बल्कि अपने फायदे के बारे में सोचता है पर कुछ इंसान ऐसे होते हैं जिन्हें भगवान ने लोगों की सहायता करने के लिए भेजा होता है, वह दूसरे का भला सोचता भी है और इस तरह के इंसान बहुत ही कम देखने को मिलते हैं।

इस बात को सही साबित करने वाले करनबीर सिंह जो गांव साफूवाला, जिला मोगा के रहने वाले हैं जिन्होंने MSC फ़ूड टेक्नोलॉजी की पढ़ाई की हुई है और प्राइवेट कंपनी में काम करते थे और नौकरी छोड़ कर खेत और फ़ूड प्रोसेसिंग करने के बारे में सोचा और उसमें सफल होकर दिखाया।

साल 2014 की बात है जब करनबीर एक कंपनी में काम करते थे और जिस कंपनी में काम करते थे वहां क्या देखते हैं कि किस तरह किसानों से कम कीमत पर वस्तु लेकर अधिक कीमतों पर बेचा जा रहा है और जिसके बारे में किसानों को जानकारी नहीं थी। बहुत समय वह इस तरह ही चलता रहा पर उन्हें यह बात अच्छी नहीं लगी क्योंकि जो ऊगा रहे थे वह कमा नहीं रहे थे और जो कमा रहे थे वह पहले से ही बड़े लोग थे।

यह सब देखकर करनबीर को बहुत दुःख हुआ और करनबीर ने आखिर में नौकरी छोड़ने का फैसला कर लिया और खुद आकर घर खेती और प्रोसेसिंग करने लगा। करनबीर के परिवार वाले शुरू से ही फसली विभिन्ता को अपनाते हुए खेती करते थे और इसके इलावा करनबीर के लिए फायदेमंद बात यह थी कि करनबीर के पिता सरदार गुरप्रीत सिंह गिल जोकि KVK मोगा और PAU लुधियाना के साथ पिछले कई सालों से जुड़े हुए हैं, जो किसानों को फसलों से संबंधित सलाह देते रहते थे।

फिर करनबीर ने अपने पिता के नक्शे कदम पर चलकर खेती माहिरों द्वारा बताएं गए तरीके के साथ खेती करनी शुरू की और कई तरह की फसलों की खेती करनी शुरू कर दी। फिर करनबीर के दिमाग में ख्याल आया कि जब फसल पककर तैयार होगी तो इसकी मार्केटिंग किस तरह की जाए।

फिर उन्होंने सोचा कि क्यों न पहले छोटे स्तर पर मार्केटिंग की जाए, उसके बाद जब करनबीर गांव से बाहर जाते तो अपने साथ प्रोसेसिंग की अपनी वस्तुएं साथ ले जाते जहां छोटे-छोटे समूह के लोग दिखाई देते उन्हें फिर वह अपने उत्पादों के बारे में बताता और उत्पाद बेचता। उनके दोस्त नवजोत सिंह और शिव प्रीत ने इस काम में उनका पूरा साथ दे रहे हैं ।

फिर उन्होंने इसकी मार्केटिंग बड़े स्तर पर करने के बारे में सोचा और 2016 में “फ्रेंड्स ट्रेडिंग” नाम से एक कंपनी रजिस्टर्ड करवाई और ट्रेडिंग का काम शुरू कर दिया, जहां पर वह अपनी फसल तो मार्किट ले जाते, साथ ही ओर किसानों की फसल भी ले जानी शुरू कर दी, जोकि खेती माहिरों की सलाह से उगाई गई थी। इस तरीके के साथ उगाई गई फसल की पैदावार अधिक और बढ़िया होने के करने इसकी मांग बढ़ी जिससे करनबीर और किसानों को बहुत मुनाफा हुआ। जिसके साथ वह बहुत खुश हुए।

इस दौरान ही उनकी मुलाकात खेती व्यापार विषय के माहिर प्रोफेसर रमनदीप सिंह जी के साथ हुई जोकि हर एक किसान की बहुत सहायता करते हैं और उन्हें मार्केटिंग करने के तरीके के बारे में जागरूक करवाते रहते हैं और इसे दिमाग में रखते हुए फिर मार्केटिंग करने के तरीके को बदलने के बारे में सोचा।

फिर दिमाग में आया कि पैदा की फसल की प्राथमिक स्तर पर प्रोसेसिंग करके अगर मार्केटिंग की जाए तो क्या पता इससे बढ़िया लाभ मिल सकता है। फिर उन्होंने शुरू में जिस फसल की प्रोसेसिंग हो सकती थी प्रोसेसिंग करके उन्हें बेचने का काम शुरू कर दिया, जिसकी शुरुआत उन्होंने किसान मेले से की और उनको लोगों की अच्छी प्रतिकिर्या मिली।

इसे आगे चलाने के लिए करनबीर सिंह जी ने एक किसान हट खोलने के बारे में सोचा जहां पर उनकी फसलों की प्रोसेसिंग और किसानों की फसलों की प्रोसेसिंग का सामान रख कर बेचा जा सके, जिसका मुनाफा सीधा किसान के खाते में ही जाए न कि बिचौलिए के हाथ और जिसके साथ उसकी मार्केटिंग बनी रहेगी और दूसरा लोगों को साफ-सफाई और बढ़िया वस्तुएं मिलती रहेगी।

फिर 2019 में करनबीर ने अन्नदाता फूड्स नाम से ब्रांड रजिस्टर्ड करवा कर मोगा शहर में अपनी किसान हट खोली और प्रोसेसिंग किया हुआ सामान रख दिया। जैसे-जैसे लोगों को पता चलता गया, वैसे ही लोग सामान लेने आते रहे।

जिस में बाकि किसान द्वारा प्रोसेसिंग किया सामान जैसे शहद, दाल, GSC 7 कनोला सरसों का तेल, चने आदि बहुत वस्तुएं रख कर बेचते हैं।

बहुत कम समय में मार्केटिंग में प्रसार हुआ और लोग उन्हें अन्नदाता फूड्स के नाम से जानने लगे। इस तरह 2019 में वह सफल हुए जिसमें उनकी सफलता का मुख्य श्रेय GSC 7 कनोला सरसों का तेल को जाता है क्योंकि तेल की मांग इतनी अधिक है कि मांग को पूरा करना मुश्किल हो जाता है क्योंकि यह तेल बाकि तेल से अलग है क्योंकि इस तेल में बहुत मात्रा में पोषक तत्व पाए जाते है और जिससे उन्हें मुनाफा तो होता पर उनके साथ ओर किसानों को भी हो रहा है।

मेरा मानना है कि यदि हम किसान और ग्राहक में से बिचौलीए को निकाल दें तो हर इंसान बढ़िया और साफ-सफाई की वस्तुएं खा सकता है दूसरा किसान को अपनी फसल का सही मूल्य भी मिल जाएगा- करनबीर सिंह

भविष्य की योजना

वह चाहते हैं कि किसानों का समूह बनाकर वही फसलें उगाएं जिसकी खपत राष्ट्र और अंतरराष्ट्रीय स्तर पर बहुत मांग है।

संदेश

यदि कोई किसान खेती करता है तो उन्हें चाहिए कि खेती माहिरों द्वारा दिए गए दिशा निर्देश पर चल कर ही रेह स्प्रे का प्रयोग करें, जितनी फसल के विकास के लिए जरुरत है।

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चरणजीत सिंह

(गन्ने की प्रोसेसिंग)

एक ऐसा किसान जो मुश्किलों से लड़ा और औरों को लड़ना भी सिखाया

किसान को हमेशा अन्नदाता के रूप में जाना जाता है, क्योंकि किसान का काम अन्न उगाना और देश का पेट भरना होता हैं पर आज के समय में किसान को उगाने के साथ-साथ फसल की प्रोसेसिंग और बेचना आना भी बहुत जरुरी है। पर जब मंडीकरण की बात आती है तो किसान को कई पड़ावों से गुजरना पड़ता है, क्योंकि मन में डर होता है कहीं अपनी किसानी के अस्तित्व को कायम रखने में कमजोर न हो जाए।

किसान का नाम चरणजीत सिंह जिसने अपने आप पर भरोसा किया और आगे बढ़ा और आज कामयाब भी हुआ जो गांव गहिल मजारी, नवांशहर के रहने वाले हैं। वैसे तो चरणजीत सिंह शुरू से ही खेती करते हैं जिसमें उन्होंने अपनी अधिक रूचि गन्ने की खेती की तरफ दिखाई है। जिसमें वह 145 एकड़ में 70 से 80 एकड़ में सिर्फ गन्ने की खेती करते थे और बाकि जमीन में पारंपरिक खेती ही करते थे और कर रहे हैं।

गन्ने की खेती में अच्छा अनुभव हो गया, लेकिन कुछ कारणों के कारण उन्हें 80 से कम करके 45 एकड़ में खेती करनी पड़ी, क्योंकि जब गन्ने की फसल उग जाती थी तो पहले तो यह सीधी मिल में चली जाती थी पर एक दिन ऐसा आया कि उनकी फसल की कटाई के लिए मज़दूर ही नहीं मिल रहे थे, पर जब मज़दूर मिलने लगे तब फसल बिकने के लिए मिल में चली जाती थी और फसल का मूल्य बहुत कम मिलता था। पहले आसमान को छू रहे थे और फिर वे आकर जमीन पर गिर गए जैसे कि उनकी मंजिल के पंख ही काट दिए गए हों।

वह बहुत परेशान रहने लगे और इसके बारे में सोचने लगे और फैसला लिया यदि मुझे सफल होना तो यहीं काम करके होना है और काम करने लगे।

“वह समय और वह फैसला लेना मेरे लिए बहुत बड़ी बात थी क्योंकि 145 एकड़ में आधा में गन्ने की खेती कर रहा था जहां से मुझे आमदन हो रही थी- चरणजीत सिंह

जब उन्होंने फैसला लिया तो 45 एकड़ में ही गन्ने की खेती करनी शुरू कर दी। अनुभव भी उनके पास पहले से ही था पर उस अनुभव को उपयोग करने की जरुरत थी। फिर धीरे-धीरे चरणजीत ने खेत में ही बेलना लगा लिया और उन्होंने पारंपरिक तरीके से गुड़ निकालना जारी रखा।

वह गुड़ बना रहे थे और गुड़ बिक भी रहा था पर चरणजीत को काम करके ख़ुशी नहीं मिल रही थी।

परिणामस्वरूप, गुड़ बनाने में उनकी रुचि कम होने लगी। फिर उन्हें पुराने दिन और बातें याद आती जो उन्होंने उस दिन काम करने के बारे में सोची थी और वह उन्हें होंसला देती थी।

बहुत सोचने के बाद उन्होंने बहुत सी जगह पर जाना शुरू किया और प्रोसेसिंग के बारे में जानकारी इक्क्ट्ठी करनी शुरू कर दी। जैसे-जैसे जानकारी मिलती रही काम करने की इच्छा जागती रही पर फिर भी संतुष्ट न हो पाए, क्योंकि उन्हें किसान तो मिले पर कुछ किसान ही थे जो साधारण गुड़ बनाने के इलावा कुछ ख़ास बनाने की कोशिश कर रहे थे जोकि यह बात उनके मन में बैठ गई। फिर उन्होंने ट्रेनिंग करने के बारे में सोचा।

मैंने PAU लुधियाना से ट्रेनिंग प्राप्त की- चरणजीत सिंह

ट्रेनिंग लेने के बाद उन्होंने फिर प्रोसेसिंग पर काम करना शुरू कर दिया। अधिक समय काम करने के बाद फिर चरणजीत ने 2019 में नए तरीके से शुरुआत की और सिंपल गुड़ और शक्कर के साथ-साथ मसाले वाला गुड़ भी बनाना शुरू कर दिया। मसाले वाले गुड़ में वह कई तरह की वस्तुओं का प्रयोग करते थे।

वह प्रोसेसिंग का पूरा काम अपने ही फार्म पर करते हैं और देखरेख उनके पुत्र सनमदीप सिंह जी करते हैं जो अपने पिता जी के साथ मिलकर काम करते हैं। जिससे उनका काम साफ़ सुथरा और देखरेख से बिना किसी परेशानी से हो जाता है।

उन्होंने 12 कनाल में अपना फार्म जिसमें 2 कनाल में वेलन और बाकि के 10 कनाल में सूखी लकड़ियां बिछाई हैं जो बंगे से मुकंदपुर रोड पर स्तिथ है। गुड़ बनाने के लिए उन्होंने अपनी खुद के मज़दूर रखे हुए हैं जिन्हे अनुभव हो चूका है और फार्म पर वही गुड़ निकालते हैं और बनाने हैं। उनके द्वारा 3 से 4 तरह के उत्पाद तैयार किये जाते हैं। जिसके अलग-अलग रेट हैं जिसमें मसाले वाले गुड़ की मांग बहुत अधिक है।

उनके द्वारा तैयार किए जा रहे उत्पाद

  • गुड़
  • शक्कर
  • मसाले वाला गुड़ आदि।

जिसकी मार्केटिंग करने के लिए उन्हें कहीं भी बाहर नहीं जाना पड़ता, क्योंकि उनके द्वारा बनाये गुड़ की मांग इतनी अधिक है कि उन्हें गुड़ के आर्डर आते हैं। जिनमें अधिकतर शहर के लोगों द्वारा आर्डर किया जाता है।

रोज़ाना उनका 70 से 80 किलो गुड़ बिक जाता है और आज अपने इसी काम से बहुत मुनाफा कमा रहे हैं। वह खुद हैं जो उन्होंने सोचा था वह करके दिखाया। इसके साथ-साथ वह गन्ने के बीज भी तैयार करते हैं और बाकि की जमीन में मौसमी फसलें उगाते हैं और मंडीकरण करते हैं।

भविष्य की योजना

वह अपने इस गन्ने के व्यापार को दोगुना करना चाहते हैं और फार्म को बड़े स्तर पर बनाना चाहते हैं और आधुनिक तरीके के साथ काम करने की सोच रहे हैं।

संदेश

किसी भी नौजवान को बाहर देश जाने की जरुरत नहीं है यदि वह यहीं रह कर मन लगा कर काम करना शुरू कर दें तो उनके लिए यही जन्नत है, बाकि सरकार को नौजवानों को सही दिशा में जाने के लिए और खेती के लिए भी प्रेरित करना चाहिए।

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राजविंदर सिंह खोसा

(सब्जियों की खेती और मार्केटिंग)

अपाहिज होने के बाद भी बिना किसी सरकारी सहायता से कामयाबी हासिल करने वाला यह किसान

नए रास्ते में बाधाएं आती हैं, लेकिन उनका समाधान भी जरूर होता है।

आज आप जिस किसान की कहानी पढ़ेंगे वह शारीरिक रूप से विकलांग है, लेकिन उसका साहस और जज्बा ऐसा है कि वह दुनिया को जीतने का दम रखता है।

जिला फरीदकोट के गांव धूड़कोट का साहसी किसान राजविंदर सिंह खोसा जिसने बारहवीं, कंप्यूटर, B.A और सरकारी आई टी आई फरीदकोट से शार्ट हैंड स्टेनो पंजाबी टाइपिंग का कोर्स करने के बाद नौकरी की तलाश की, पर कहीं पर भी नौकरी न मिली और हार कर वह अपने गांव में गेहूं/धान की खेती करने लगे।

यह बात साल 2009 की है जब राजविंदर सिंह खोसा पारंपरिक खेती ही करते थे और इसके साथ-साथ अपने घर खाने के लिए ही सब्जियों की खेती करते थे जिसमें वह सिर्फ कम मात्रा में ही थोड़ी बहुत सब्जियां ही लगाते और बहुत बार जैसे गांव वाले आकर ले जाते थे पर उन्होंने कभी सब्जियों के पैसे तक नहीं लिए थे।

यह बहुत दिनों तक चलता रहा और वे सब्जियों की खेती करते रहे, लेकिन कम मात्रा में, लेकिन 2019 में कोविड की वजह से लॉकडाउन के कारण दुनिया को सरकार के आदेश के अनुसार अपने घरों तक ही सीमित रहना पड़ा और खाने-पीने की समस्या हो गई। खाना या सब्जी कहाँ से लेकर आए तो इसे देखते हुए जब राजविंदर खोसा जी घर आए तो वह सोच रहे थे कि यदि पूरी दुनिया घर बैठ गई तो खाना-पीना कैसे होगा और इसमें सबसे जरुरी था शरीर की इम्युनिटी बनाना और वह तब ही मजबूत हो सकती थी यदि खाना-पीना सही हो और इसमें सब्जियों की बहुत महत्ता है।

इसे देखते हुए राजविंदर ने सोचा और सब्जी के काम को बढ़ाने के बारे में सोचा। धीरे-धीरे राजविंदर ने 12 मरले में सब्जियों की खेती में जैसे भिंडी, तोरी, कद्दू, चप्पन कद्दू, आदि की सब्जियों की गिनती बढ़ानी शुरू कर दी और जो सब्जियां अगेती लगा और थोड़े समय में पक कर तैयार हो जाती है, सबसे पहले उन्होनें वहां से शुरू किया।

जब समय पर सब्जियां पक कर तैयार हुई तो उन्होनें सोचा कि इसे मंडी में बेच कर आया जाए पर साथ ही मन में ख्याल आया कि क्यों न इसका मंडीकरण खुद ही किया जाए जो पैसा बिचौलिए कमा रहे हैं वह खुद ही कमाया जाए।

फिर राजविंदर जी ने अपनी मारुती कार सब्जियों में लगा दी, सब्जियां कार में रख कर फरीदकोट शहर के नजदीकी लगती नहरों के पास सुबह जाकर सब्जियां बेचने लगे, पर एक दो दिन वहां बहुत कम लोग सब्जी खरीदने आए और घर वापिस निराश हो कर आए, लेकिन उन्होंने साहस नहीं छोड़ा और सोचा कल किसी ओर जगह लगा कर देखा जाए जहां पर लोगों का आना जाना हो। जैसे राजविंदर जी कार में बैठ कर जाने लगे तो पीछे जसपाल सिंह नाम के व्यक्ति ने आवाज लगाई कि सुबह-सुबह लोग डेयरी से दूध और दही लेने के लिए आते हैं क्या पता तेरी सब्जी वाली कार देखकर सब्जी खरीदने लग जाए, सुबह के समय सब्जी बेच कर देखें।

राजविंदर सिंह जी उसकी बात मानते फिर DC रिहाइश के पास डेयरी के सामने सुबह 6 बजे जाकर सब्जी बेचने लगे, जिससे कुछ लोगों ने सब्जी खरीदी। राजविंदर सिंह खोसा को थोड़ी ख़ुशी भी हुई और अंदर एक उम्मीद की रौशनी जगने लगी और अगले दिन सुबह 6 बजे जाकर फिर सब्जी बेचने लगे और कल से आज सब्जी की खरीद अधिक हुई देखकर बहुत खुश हुए।

राजविंदर जी ने सुबह 6 बजे से सुबह 9 बजे तक का समय रख लिया और इस समय भी वह सब्जियों को बेचते थे। ऐसा करते-करते उनकी लोगों के साथ जान-पहचान बन गई जिसके साथ उनकी सब्जियों की मार्केटिंग में दिनों दिन प्रसार होने लगा।

राजविंदर सिंह जी ने देखा कि मार्केटिंग में प्रसार हो रहा है तो अगस्त 2020 खत्म होते उनके 12 मरले से शुरू किए काम को धीरे-धीरे एक एकड़ में फैला लिया और बहुत सी नई सब्जियां लगाई, जिसमें गोभी, बंदगोभी, मटर, मिर्च, मूली, साग, पालक, धनिया, मेथी, अचार, शहद आदि के साथ-साथ राजविंदर सिंह विदेशी सब्जियां भी पैदा करने लगे, जैसे पेठा, सलाद पत्ता, शलगम, और कई सब्जियां लगा दी और उनकी मार्केटिंग करने लगे।

वैसे तो राजविंदर जी सफल तो तभी हो गए थे जब उनके पास एक औरत सब्जी खरीदने के लिए आई और कहने लगी, मेरे बच्चे सेहतमंद चीजें जैसे मूलियां आदि नहीं खाते, तो राजविंदर ने कहा, एक बार आप मेरी जैविक बगीची से उगाई मूली अपने बच्चों को खिला कर देखें, औरत ने ऐसा किया और उसके बच्चे मूली स्वाद से खाने लगे। जब औरत ने राजविंदर को बताया तो उन्हें बहुत ख़ुशी हुई। फिर शहर के लोग उनसे जुड़े और सब्जी का इंतजार करने लगे।

इसके साथ साथ वह पिछले बहुत अधिक समय से धान की सीधी बिजाई भी करते आ रहे हैं ।

आज उनकी मार्केटिंग में इतना अधिक प्रसार हो चूका है कि फरीदकोट के सफल किसानों की सूची में राजविंदर का नाम भी चमकता है ।

राजविंदर खेती का पूरा काम खुद ही देखते हैं, सब्जियों के साथ वह ओर खेती उत्पाद जैसे शहद, अचार का खुद मंडीकरण कर रहे है, जिससे उनके बहुत से लिंक बन गए हैं और मंडीकरण में उन्हें कोई समस्या नहीं आती ।

खास बात यह भी है कि उन्होंने यह सारी सफलता बिना किसी सरकारी सहायता से अपनी मेहनत द्वारा हासिल की है।

सिर्फ मेहनत ही नहीं राजविंदर सिंह खोसा टेक्नोलॉजी के मामले भी अप टू डेट रहते है, क्योंकि सोशल मीडिया का सही प्रयोग करके अपने प्रोडक्ट की मार्केटिंग भी करते हैं।

भविष्य की योजना

वे सब्जियों की खेती तो कर रहे हैं पर वह सब्जियों की मात्रा ओर बढ़ाना चाहते हैं ताकि लोगों को साफ सब्जी जोकि जहर मुक्त पैदा करके शहर के लोगों को प्रदान की जाए, जिससे खुद को स्वास्थ्य बनाया जाए।

कम खर्चे और कड़ी मेहनत करने वाले राजविंदर सिंह जी अच्छे मान-सम्मान के पात्र है।

संदेश

यदि कोई छोटा किसान है तो उसने पारंपरिक खेती के साथ-साथ कोई ओर छोटे स्तर पर सब्जियों की खेती करनी है तो वह जैविक तरीके के साथ ही शुरू करनी चाहिए और सब्जियों को मंडी में बेचें की बजाए खुद ही जाकर बेचे तो इससे बड़ी बात कोई भी नहीं, क्योंकि व्यवसाय कोई भी हो हमें काम करने के समय शर्म नहीं महसूस होनी चाहिए, बल्कि अपने आप पर गर्व होना चाहिए।

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धरमजीत सिंह

(जैविक खेती और प्रोसेसिंग)

एक सफल अध्यापक के साथ साथ एक सफल किसान बनने तक का सफर

कोई भी पेशा आसान नहीं होता, मुश्किलें हर क्षेत्र में आती हैं। चाहे वह क्षेत्र कृषि हो या कोई और व्यवसाय। अपने रोज़ाना के काम को छोड़ना और दूसरे पेशे को अपनाना एक चुनौती ही होती है, जिसने चट्टान की तरह चुनौतियों का सामना किया है, आखिरकार वही जीतता है।

इस कहानी के माध्यम से हम एक प्रगतिशील किसान के बारे में बात करेंगे, जो एक स्कूल शिक्षक के रूप में एक तरफ बच्चों के भविष्य को उज्ज्वल कर रहें है और दूसरी तरफ जैविक खेती के माध्यम से लोगों के जीवन को स्वास्थ्य कर रहे हैं, क्योंकि कोई कोई ही ऐसा होता है जो खुद का नहीं, दूसरों का भला सोचता है।

ऐसे ही किसानों में से एक “धर्मजीत सिंह” हैं, जो गांव माजरी, फतेहगढ़ साहिब के निवासी हैं। जैसा कि कहा जाता है, “जैसे नाम वैसा काम” अर्थ कि जिस तरह का धरमजीत सिंह जी का नाम है वे उस तरह का ही काम करते हैं। दुनिया में इस तरह के बहुत कम देखने को मिलते हैं।

काम की सुंदरता उस व्यक्ति पर निर्भर करती है जिसके लिए उसे सौंपा गया है। ऐसा काम, जिनके बारे में वे जानते भी नहीं थे और न कभी सुना था।

जब सूरज चमकता है, तो हर उस जगह को रोशन कर देता है जहां केवल अंधेरा होता है। उसी तरह से, धर्मजीत सिंह के जीवन पर यह बात लागू होती है क्योंकि बेशक वे उस रास्ते से जा रहे थे, लेकिन उन्हें जानकारी नहीं थी, वह खेती तो कर रहे थे लेकिन जैविक नहीं।

जब समय आता है, वह पूछ कर नहीं आता, वह बस आ जाता है। एक ऐसा समय तब आया जब उन्हें रिश्तेदार उनसे मिलने आये थे। एक दूसरे से बात करते हुए, अचानक, कृषि से संबंधित बात होने लगी। बात करते करते उनके रिश्तेदारों ने जैविक खेती के बारे में बात की, तो धर्मजीत सिंह जी जैविक खेती का नाम सुनकर आश्चर्यचकित थे। जैविक और रासायनिक खेती में क्या अंतर है, खेती तो आखिर खेती है। तब उनके रिश्तेदार ने कहा, “जैविक खेती बिना छिड़काव, दवाई, रसायनिक खादों के बिना की जाती है और प्राकृतिक से मिले तोहफे को प्रयोग कर जैसे केंचए की खाद, जीव अमृत आदि बहुत से तरीके से की जाती है।

पर मैंने तो कभी जैविक खेती की ही नहीं यदि मैंने अब जैविक खेती करनी हो तो कैसे कर सकता हूँ- धरमजीत सिंह

फिर उन्होंने एक अभ्यास के रूप में एक एकड़ में गेहूं की फसल लगाई। उन्होंने फसल की काश्त तो कर दी और रिश्तेदार चले गए, लेकिन वे दोनों चिंतित थे और फसल के परिणाम की प्रतीक्षा कर रहे थे, कि फसल की कितनी पैदावार होगी। वे इस बात से परेशान थे।

जब फसल पक चुकी थी, तो उसका आधा हिस्सा उसके रिश्तेदारों ने ले लिया और बाकी घर ले आए। लेकिन पैदावार उनकी उम्मीद से कम थी।

जब मैंने और मेरे परिवार ने फसल का प्रयोग किया तो चिंता ख़ुशी में बदल गई- धरमजीत सिंह

फिर उन्होंने मन बनाया कि अगर खेती करनी है, तो जैविक खेती करनी है। इसलिए उन्होंने मौसम के अनुसार फिर से खेती शुरू कर दी। जिसमें उन्होंने 11 एकड़ में जैविक खेती शुरू की।

जैविक खेती उनके लिए एक चुनौती जैसी थी जिसका सामना करते समय उन्हें कठिनाइयां भी आई, लेकिन उन्होंने हार नहीं मानी। इस साहस को ध्यान में रखते हुए, वह अपने रस्ते पर चलते रहे और जैविक खेती के बारे में जानकारी लेते रहे और सीखते रहें। जब फसल पक गई और कटाई के लिए तैयार हो गई तो वह बहुत खुश थे।

फसल की पैदावार कम हुई थी, जिससे ग्रामीणों ने मजाक उड़ाया कि यह रासायनिक खेती से लाभ कमा रहा था और अब यह नुकसान कर रहा है।

जब मैं अकेला बैठ कर सोचता था, तो मुझे लगा कि मैं कुछ गलत तो नहीं कर रहा हूं- धर्मजीत सिंह

एक ओर वे परेशान थे और दूसरी ओर वे सोच रहे थे कि कम से कम वह किसी के जीवन के साथ खिलवाड़ तो नहीं कर रहे। जो भोजन मैं स्वयं खाता हूं और दूसरों को खिलाता हूं वह शुद्ध और स्वच्छ होता है।

ऐसा करते हुए, उन्होंने पहले 4 वर्षों बहु-फसल विधि को अपनाने के साथ-साथ जैविक खेती सीखना शुरू कर दी। जिसमें उन्होंने गन्ना, दलहन और अन्य मौसमी फसलों की खेती शुरू की।

अच्छी तरह से सीखने के बाद, उन्होंने पिछले 4 वर्षों में मंडीकरण करना भी शुरू किया। वैसे, वे 8 वर्षों से जैविक खेती कर रहे हैं। जैविक खेती के साथ-साथ उन्होंने जैविक खाद बनाना भी शुरू किया, जिसमें वर्तमान में केवल केंचए की खाद और जीव अमृत का उपयोग करते हैं।

इसके बाद उन्होंने सोचा कि प्रोसेसिंग भी की जाए, धीरे-धीरे प्रोसेसिंग करने के साथ उत्पाद बनाना शुरू कर दिया। जिसमें वे लगभग 7 से 8 प्रकार के उत्पाद बनाते हैं जो बहुत शुद्ध और देसी होते हैं।

उनके द्वारा बनाए गए उत्पाद-

  • गेहूं का आटा
  • सरसों का तेल
  • दलहन
  • बासमती चावल
  • गुड़
  • शक़्कर
  • हल्दी

जिसका मंडीकरण गाँव के बाहर किया जाता है और अब पिछले कई वर्षों से जैविक मंडी चंडीगढ़ में कर रहे है। वे मार्केटिंग के माध्यम से जो कमा रहे हैं उससे संतुष्ट हैं क्योंकि वे कहते हैं कि “थोड़ा खाएं, लेकिन साफ खाएं”। इस काम में केवल उनका परिवार उनका साथ दे रहा है।

अगर अच्छा उगाएंगे, तो हम अच्छा खाएंगे

भविष्य की योजना

वह अन्य किसानों को जैविक खेती के महत्व के बारे में बताना चाहते हैं और उन किसानों का ध्यान आकर्षित करना चाहते हैं जो जैविक खेती न कर रासायनिक खेती कर रहे हैं। वे अपने काम को बड़े पैमाने पर करना चाहते हैं, क्योंकि वे यह बताना चाहते हैं कि जैविक खेती एक सौदा नहीं है, बल्कि शरीर को स्वस्थ रखने का राज है।

संदेश

हर किसान जो खेती करता है, जब वह खेती कर रहा होता है, तो उसे सबसे पहले खुद को और अपने परिवार को देखना चाहिए, जो वे ऊगा रहे हैं वह सही और शुद्ध उगा रहे है, तभी खेती करनी चाहिए।

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यादविंदर सिंह

(घुड़सवारी)

एक ऐसा मेहनती इंसान जिसने बुजुर्गों के शौंक को संभाला और अपने काम में उसे अपनाकर हुआ कामयाब

दादे-परदादे की तरफ से चलती आ रही परंपरा को बना कर रखना और उस परंपरा को फिर से शौंक और पेशे में बदलना कोई आसान काम नहीं है क्योंकि आजकल बहुत कम लोग हैं जो अपने बुजुर्गों की पुरानी परंपरा का पालन कर रहे हैं नहीं तो सभी परंपरा तो क्या अपने बुजुर्गों को ही बुला चुके हैं उनके काम को कैसे याद रखे।

आइए आज हम आपको एक ऐसे किसान यादविंदर सिंह जी के साथ मिलवाते हैं जो जिला श्री मुक्तसर के गांव बरकंदी के निवासी हैं। जिन्होनें अपने बारे में नहीं अपने दादे परदादे की परंपरा को पुनर्जीवित करने के बारे में सोचा और उसे करके भी दिखाया। आज हर कोई उन पर गर्व करता है। इस काम में उनका साथ उनके पिता सरदार हरपाल सिंह जी देते हैं।

आजादी से पहले भी और बाद में भी बहुत से घराने ऐसे थे जिन्हें घोड़े रखने का शौंक था और घोड़े भी अच्छी नस्ल के रखा करते थे। अमीर लोगों में घोड़सवारी करने का शौंक भी था और जरूरत भी थी। पुराने समय में घोड़सवारी का शौंक होने के कारण लगभग 5 से 6 घोड़े हर एक के पास होते थे। पर उस समय के लोग घोड़ों का व्यापार नहीं करते थे।

उन घोड़सवारी के शौंक में यादविंदर सिंह जी के दादा जी का नाम भी आता है, जिन्होनें घोड़सवारी के शौंक को हमेशा बनाई रखा और घोड़े पालते रहे और घोड़सवारी करते रहे। उसके बाद शौंक उनके पिता सरदार हरपाल सिंह जी को पड़ा। हरपाल जी ने भी अपने पिता की तरह घोड़सवारी के शौंक को अपने साथ रखा और अभी तक घोड़सवारी करते हैं। साल 1990 में जब यादविंदर के पिता घोड़सवारी करने जाते थे तो यादविंदर तब छोटे ही होते थे पर वह हमेशा अपने पिता जी को घोड़सवारी करते देखते रहते थे।

जब वह थोड़े बड़े हुए तो उन्होंने धीरे-धीरे सारा दिन फार्म पर रहना शुरू किया और यादविंदर जी को वहां जाकर ऐसा महसूस होता था कि वह कौन-सी ऐसी जगह पर आ गए हैं जहां पर उन्हें सिर्फ शान्ति ही मिलती है फिर यादविंदर जी ने पक्के तौर पर मन बना लिया कि बड़े होकर उन्होंने यही काम करना है जिसकी तस्वीर दिल और दिमाग के ऊपर अच्छी तरह छप चुकी थी।

जब यादविंदर जी को जिंदगी की अच्छी तरह से समझ आने लगी तब उन्होंने 1995 के लगभग घोड़सवारी को शोंक के रूप में अपनाने का फैसला कर लिया और उस समय उनकी आयु 12 साल की ही थी और दिन रात फार्म पर रहकर काम करने लगे क्योंकि प्यार ही इतना हो गया था, ऐसे लगता था कि यादविंदर जी ने इन्हें ही अपना सब कुछ मान लिया था।

जैसे-जैसे दिन निकलते गए यादविंदर जी को मेले में जाने की इच्छा लगी रहती थी कि कब मेले में जाएं और इनाम जीते। उन्होंने नुकरा और मारवाड़ी घोड़े रखे हुए थे, जोकि सबसे बढ़िया नस्ल के माने जाते हैं। दोनों नस्ल के घोड़े बहुत सूंदर हैं क्योंकि इनका कद भी ओर घोड़ों के मुकाबले ऊचा और लंबा होता है।

धीरे-धीरे वह मेले में जाने लगे और घोड़सवारी करने लगे पर उन्हें मुश्किल तब आती थी जब उन्हें घोड़ों के बारे में पूछा जाता था, बेशक बुजुर्ग यह काम करते आएं थे उन्हें पता था पर यादविंदर जी को अधिक जानकारी न होने के कारण मुश्किल होती थी, वहां ही उन्होंने घोड़ों का व्यापार करने के बारे में सोचा जोकि पहले कभी नहीं सोचा था पर उन्होंने उस समय ध्यान नहीं दिया।

उन्होंनें घर में घोड़े रखे हुए थे और जैसे गांव में सभी को पता था जब बाहर के लोगों को पता चला तो लोग उनसे घोड़े खरीदने लगे इस तरह उनका एक घोडा या घोड़े का बच्चा 5 लाख में बिका जिसे देखकर वह हैरान हो गए। वैसे तो घोड़े-घोड़ी से बच्चे पैदा हो रहे थे जो बाद में उनके व्यापार का भाग बना।

यादविंदर सिंह जी के मन में विचार आया क्यों न शौंक के साथ-साथ व्यापार भी किया जाए, फिर उन्होंनें अपने पिता जी के साथ बात की और पिता जी ने इस काम के लिए मंजूरी दे दी। जैसे वह मेले में जाया करते थे और मेले में जाने के कारण धीरे-धीरे घोड़ियों के बारे में पूरी जानकारी हो गई थी। इस बार जब वह मेले गए तो उनसे घोड़ों के बारे में पूछने लगे उन्होंने हर एक की जानकारी बहुत विस्तार से दी और ग्राहक भी घोडा खरीदने के लिए मान गया, जिससे यादविंदर जी बहुत खुश हुए। इस तरह वह मेले में जाते और घोड़े का मूल्य ले आते। इस तरह से लोग उन्हें ओर जानने लगे और उनके ग्राहक बढ़ने लगे।

ग्राहक बनने पर लोग घोडा खरीदने के लिए उनके घर आने लगे जिसका कोई एक मूल्य नहीं ले सकते क्योंकि घोड़े खरीदने वाले पर निर्भर करता है कि घोड़े का बच्चा कितने महीने का लेना चाहता है। इस तरह करते करते 1995 के बाद वह 2005 में अच्छी तरह से कामयाब हुए।

आज इनका घोड़ों का काम इतना बढ़ गया है कि लोग नुकरा और मारवाड़ी का घोडा खरीदने के लिए दूर-दूर से आते हैं, जिससे उन्हें घर बैठे ही मुनाफा हो रहा है।

उन्होंने लगभग 10 घोड़े-घोड़ियां रखें हैं जिससे आगे बच्चे पैदा कर रहे हैं और बेच रहे हैं। उन्होंने मुख्य तौर पर 2 कनाल में फार्म तैयार किया हुआ है, जोकि बिल्कुल हवादार है। इसके इलावा वह घोड़ों को सैर के लिए भी लेकर जाते हैं और घोड़सवारी भी करते हैं। उनका परिवार इस काम में उनका साथ देता है और घोड़ों का अच्छी तरह से ध्यान रखने के लिए पक्के तौर पर डॉक्टर से बात कर रखी है जो समय-समय पर जांच करते रहते हैं।

भविष्य की योजना

वह घोड़ों को आगे प्रतियोगिता के लिए तैयार कर रहे हैं ताकि रेस में भाग लिया जा सके और इसकी तैयार वह हर रोज करते हैं।

संदेश

काम कोई भी बुरा नहीं है बस उसे पहले सीखना चाहिए और फिर करना चाहिए तभी इंसान कामयाब हो सकता है।

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नवरीत कौर

(प्रोसेसिंग)

खाना बनाने के शौक को व्यवसाय में बदलने वाली एक सफल महिला किसान

जिन्होंने मंजिल तक पहुंचना होता है वह मुश्किलों की परवाह नहीं करते, क्योंकि मंजिल भी उन्हीं तक पहुंचती है जिन्होंने मेहनत की होती है। सभी को अपनी काबिलियत पहचानने की जरुरत होती है. जिसने अपनी काबिलियत और खुद पर भरोसा कर लिया, मंजिल खुद ही उनकी तरफ आ जाती है।

इस स्टोरी में हम बात करेंगे एक महिला के बारे में जो अपने आप में गर्व वाली बात है, क्योंकि आजकल ऐसा समय है जहाँ औरत आदमी के साथ मिलकर काम करती है। पहले से ही औरत पढ़ाई, डॉक्टर, विज्ञान आदि के क्षेत्र में काम करती है लेकिन आज के समय में कृषि के क्षेत्र में भी अपना नाम बना रही है।

एक ऐसी महिला किसान “नवरीत कौर” जो जिला संगरूर के “मिमसा” गांव के रहने वाले हैं। जिन्होंने MA, M.ED की पढ़ाई की है। जो कॉलेज में पढ़ाते थे, पर कहते हैं कि परमात्मा ने इंसान को धरती पर जिस काम के लिए भेजा होता है, वह उसके हाथों से ही होना होता है।

यह बात नवरीत कौर जी पर लागू होती है, जिनके मन में कृषि के क्षेत्र में कुछ अलग करने का इरादा था और इस इरादे को दृढ़ निश्चय बनाने वाले उनके पति परगट सिंह रंधावा जी ने उनका बहुत साथ था। उनके पति ने M.Tech की हुई हैं, जोकि हिन्दुस्तान यूनीलिवर लिमिटेड, नाभा में सीनियर मैनेजर हैं और PAU किसान क्लब के सदस्य भी हैं। उनके पति नौकरी के साथ साथ कृषि नहीं कर सकते हैं थे इसलिए उन्होंने खुद खेती करनी शुरू की जिसमें उनके पति ने उनका साथ दिया।

खेती करना मुख्य व्यवसाय तो था पर मैं सोचती थी कि परंपरागत खेती को छोड़ कर कुछ नया किया जाए- नवरीत कौर

उन्होंने 2007 में निश्चित रूप से जैविक खेती करना शुरू कर दिया और 4 एकड़ में दालें और देसी फसल के साथ शुरुआत की। कुछ समय बाद ही यह समस्या आई कि इतनी फसल की खेती कर तो ली है लेकिन इसका मंडीकरण कैसे किया जाए। उनके पति के इलावा इस काम में उनके साथ में कोई नहीं था, क्योंकि परिवार का मुख्य व्यवसाय परंपरागत खेती ही था, पर परंपरागत खेती से अलग कुछ ऐसा करना जिसका कोई अनुभव नहीं था। यदि परंपरागत खेती कामयाब नहीं हुई तो परिवार वाले क्या बोलेंगे।

मुझे जब भी कहीं खेती में मुश्किलें आईं वे हर समय मेरे साथ होते थे- नवरीत कौर

उन्होंने सबसे पहले घर में खाने वाली दालों से शुरुआत की, जो आसान था। इसके इलावा तेल बीज वाली फसलें और इसके साथ मंडीकरण की तरफ भी ध्यान देना शुरू किया।

मुझे खाना बनाने का शोक था, फिर मैंने सोचा क्यों न देसी गेहूं, चावल, तेल बीज, गन्ने की प्रोसेसिंग और मंडीकरण किया जाए- नवरीत कौर

जब उन्होंने ने अच्छे से खेती करना सीख लिया तो उनका अगला काम प्रोसेसिंग करना था, प्रोसेसिंग करने से पहले उन्होंने दिल्ली IARI, पंजाब एग्रीकल्चर यूनिवर्सिटी लुधियाना, सोलन के साथ साथ ओर बहुत सी जगह से ट्रेनिंग ली है। ट्रेनिंग करने से प्रोसेसिंग करना शुरू कर दिया। अब वह शोक और उत्साह से प्रोसेसिंग कर रहे हैं।

2015 में उन्होंने बहुत से उत्पाद बनाने शुरू कर दिए। इस समय वह घर की रसोई में ही उत्पाद तैयार करते हैं। इसके साथ गांव की महिलाओं को रोजगार भी मिल गया और प्रोसेसिंग की तरह भी ध्यान देने लगी।

उनकी तरफ से 15 तरह के उत्पादों को तैयार किया जाता है, वह सीधे तरह से बनाये गए उत्पाद को बेच रहे हैं जो इस तरह हैं:

  • देसी गेहूं की सेवइयां
  • गेहूं का दलिया
  • बिस्कुट
  • गाजर का केक
  • चावल के कुरकुरे
  • चावल के लड्डू की बड़ियां
  • मांह की बड़ियां
  • स्ट्रॉबेरी जैम
  • नींबू का अचार
  • आंवले का अचार
  • आम की चटनी
  • आम का अचार
  • मिर्च का आचार
  • च्यवनप्राश आदि।

पहले वह मंडीकरण अपने गांव और शहर में ही करते थे पर अब उनके उत्पाद कई जगह पर पहुँच गए हैं। जिसमें वह मुख्य तौर पर अपने द्वारा बनाये गए उत्पादों का मंडीकरण चंडीगढ़ आर्गेनिक मंडी में करते हैं। वह धीरे धीरे अपने उत्पादों को ऑनलइन बेचने के बारे में सोच रहे हैं।

मैं आज खुश हूं कि जिस काम को करने के बारे में सोचा था आज उसमे सफल हो गई हूं- नवरीत कौर

नवरीत कौर जी खाद भी खुद तैयार करते हैं जिसमें वर्मीकम्पोस्ट तैयार करके किसानों को दे भी रहे हैं क्योंकि उनका मानना है कि यदि इससे किसी का भला होता है तो बहुत बढ़िया होगा। इसके इलावा उन्हें हाथ से बनाई गई वस्तुओं के लिए MSME यूनिट्स की तरफ से इनाम भी प्राप्त है।

भविष्य की योजना

वह एक स्टोर बनाना चाहते हैं जहां पर वह अपने द्वारा तैयार किए गए उत्पाद का मंडीकरण खुद ही कर सकें। जिसमें किसी तीसरे की जरुरत न हो। किसान से उपभोक्ता तक का मंडीकरण सीधा हो। वह अपना फार्म बनाना चाहते हैं जहां पर वह प्रोसेसिंग के साथ साथ उसकी पैकिंग भी कर सकें।

संदेश

खेती कभी करते हैं, पर एक ही तरह की खेती नहीं करनी चाहिए। उसे बड़े स्तर पर ले जाने के बारे में सोचना चाहिए। जो भी फसल उगाई जाती है उसके बारे में सोच कर फिर आगे बढ़ना चाहिए, क्योंकि कृषि एक ऐसा व्यवसाय है जिसमें लाभ ही लाभ है। यदि हो सके तो खुद ही प्रोसेसिंग कर खुद ही उत्पादों को बेचना चाहिए।

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हरभजन सिंह

(इंटीग्रेटेड फार्मिंग)

एक किसान जो एक ही फार्म पर 5 अलग-अलग व्यवसाय करने में सफल रहा और इसलिए वह किसानों के शक्तिमान के रूप में जाना जाता है

इस तेजी से बदल रही, तेजी से भागती दुनिया में सफल परिणाम प्राप्त करने के लिए विविधीकरण एक महत्वपूर्ण प्रक्रिया है। इसे अपनाना मुश्किल है लेकिन आजकल बहुत ज़रूरी है क्योंकि पूरी दुनिया में हर कोई कुछ अनोखा और विशिष्ट करने के लिए आया है। हालाँकि, बहुत से लोग परिवर्तन से डरते हैं और इसलिए, वे विविधीकरण पर अपने विचारों को रोकते हैं। केवल कुछ लोग ही अपने अनोखेपन को महसूस कर सकते हैं और दुनिया को बदलने के लिए उचाईयों तक पहुंच सकते हैं। यह कहानी एक ऐसे ही व्यक्ति की है।

जहां ज़्यादातर किसान गेहूं और धान की खेती के पारंपरिक तरीके से चलते हैं, वहीं मानसा के मलकपुर गांव के एक किसान हरभजन सिंह कृषि में विविधता की दिशा में अपने प्रयासों में योगदान देते हैं। वह अपनी 11 एकड़ जमीन पर सफलतापूर्वक एकीकृत फार्म चला रहे हैं जहाँ पर वह मछली, सुअर, मुर्गियां, बकरी और बटेर आदि का पालन करते हैं। इसके अलावा उन्होंने 55 एकड़ पंचायती जमीन भी किराए पर ली हुई है जिसमें वह मछली पालन करते हैं।

हरभजन सिंह जी ने 1981 में ग्रेजुएशन की पढ़ाई पूरी करने के बाद एक मैकेनिकल वर्कशॉप शुरू की और वह इसके साथ ही अपने परिवार की कृषि कार्य में सहायता करते थे। उस समय हरभजन सिंह जी के दोस्त ने उन्हें मछली पालन शुरू करने का सुझाव दिया। इसलिए उन्होंने मछली पालन की प्रक्रिया पर रिसर्च करना शुरू कर दिया और जल्द ही मछली पालन करने के लिए किराए पर गाँव का तालाब ले लिया।

मछली पालन करके मैंने बहुत मुनाफा कमाया और इसलिए मैंने अपनी खुद की ज़मीन पर काम करने का फैसला किया- हरभजन सिंह

इस काम से उन्हें फायदा हुआ, इसलिए 1995 में उन्होंने पंजाब राज्य मछली पालन बोर्ड, मानसा से ट्रेनिंग लेने का फैसला किया और अपनी ज़मीन पर अधिक बढ़िया ढंग से काम करना शुरू कर दिया। हरभजन सिंह जी ने अपनी ज़मीन पर 2.5 एकड़ में एक तालाब तैयार किया और बाद में अपने तालाब के नज़दीक में 2.5 एकड़ जमीन खरीदी। उस समय उनका मछली उत्पादन 6 टन प्रति हेक्टेयर था।

बाद में, उन्होंने उत्पादन को बढ़ाने के लिए सेंट्रल इंस्टीट्यूट ऑफ फ्रेशवाटर एक्वाकल्चर, भुवनेश्वर, ओडिशा से ट्रेनिंग लेने का फैसला किया और मछली की 6 नस्लें (रोहू, कतला, मुराख़, ग्रास कार्प, कॉमन कार्प और सिल्वर कार्प) और 3 एरेटर भी खरीदे। इन एरेटर पर सरकार ने आधी सब्सिडी भी प्रदान की। एरेटर के उपयोग के बाद मछली की उत्पादकता बढ़कर 8 टन प्रति हेक्टेयर हो गई।

मुझे सरकारी हैचरी से मछली के बीज खरीदने पड़े, जो एक महंगी प्रक्रिया थी, इसलिए मैंने अपनी खुद की एक हैचरी तैयार की- हरभजन सिंह

उन्होंने मछली पालन के साथ-साथ मछली के सीड पैदा करने के लिए एक हैचरी तैयार की क्योंकि अन्य हैचरी से बीज खरीदना महंगा था। आमतौर पर हैचरी सरकार द्वारा बनाई जाती है, लेकिन हरभजन सिंह इतने मेहनती और सक्षम थे कि उन्होंने अपनी खुद की हैचरी की शुरुआत बड़े निवेश के साथ की। हैचरी मछलियों को प्रजनन में मदद करने के लिए कृत्रिम वर्षा प्रदान करती है। उन्होंने हैचरी में लगभग 20 लाख उंगली के आकार के मछली के बच्चे तैयार किए और उन्हें 50 पैसे से 1 रुपये प्रति बीज के हिसाब से बेचा।

समय के साथ-साथ उन्होंने 2009 में Large White Yorkshire नस्ल के 50 सुअरों के साथ सुअर पालन का काम शुरू किया और उन्हें जीवित बेचने का फैसला किया। इस प्रकार की मार्केटिंग ज़्यादा सफल नहीं थी, इसलिए उन्होंने सुअर के मीट की प्रोसेसिंग शुरू करने का फैसला किया। उन्होंने CIPHET, पीएयू और गड़वासु से मीट उत्पादों में ट्रेनिंग ली और सुअर के मीट को आचार में प्रोसेस किया। मीट के आचार की मार्केटिंग एक बड़ी सफलता थी, पर उनकी आमदनी लगभग दोगुनी हो गई।

वर्तमान में, हरभजन जी के पास लगभग 150 सुअर हैं और वह सुअर के व्यर्थ पदार्थों का उपयोग मछलियों को खिलाने के लिए करते हैं। इससे उनकी लागत का 50-60% बच गया और मछलियों का उत्पादन लगभग 20% बढ़ गया। अब वह प्रति हेक्टेयर 10 टन मछली का उत्पादन करते हैं।

उन्होंने फिश पोर्क प्रोसेसिंग सेल्फ हेल्प ग्रुप 11 मेंबर का शुरू किया। इससे कई लोगों को रोज़गार मिला और उनकी आय में वृद्धि हुई। हरभजन सिंह को एकीकृत खेती में उनकी सफलता के लिए पंजाब के मुख्यमंत्री द्वारा सम्मानित भी किया गया था।

बात यहीं नहीं रुकी! उनको रास्ता लंबा तय करना है। जैसे-जैसे पानी की कमी बढ़ती जा रही, तो हरभजन जी ने पानी को रिसाइकिल करके प्रकृति को बचाने का एक तरीका खोजा। वह सुअरों को नहलाने के लिए पहले पानी का उपयोग करके उसको दोबारा फिर उपयोग करते हैं। फिर उसी पानी को मछली के तालाब में डाला जाता है और मछली तालाब के अपशिष्ट जल का उपयोग खेतों में फसलों की सिंचाई के लिए किया जाता है। यह पानी जैविक होता है और फसलों को उर्वरक प्रदान करता है; इसलिए उर्वरकों की केवल आधी मात्रा को कृत्रिम रूप से देने की आवश्यकता होती है। पंजाब के मुख्यमंत्री प्रकाश सिंह बादल जी ने हरभजन सिंह जी के यत्नों से प्रभावित होकर उनके खेत का दौरा किया।

बकरी पालन शुरू करने के लिए मुझे केवीके, मानसा से ट्रेनिंग मिली- हरभजन सिंह

इसके अलावा, उन्होंने अपनी फार्मिंग में बकरियों को शामिल करने का फैसला किया, इसलिए उन्होंने केवीके, मानसा से ट्रेनिंग प्राप्त की और शुरुआत में बीटल और सिरोही के साथ 30 बकरियों के साथ काम करना शुरू किया और वर्तमान में हरभजन के पास 150 बकरियां हैं। 2017 के बाद उन्होंने पीएयू के किसान मेले का दौरा करना शुरू किया, जहाँ से उन्हें बटेर और मुर्गी पालन की प्रेरणा मिली। इसलिए, उन्होंने चंडीगढ़ से 2000 बटेर और 150 कड़कनाथ मुर्गियाँ खरीदी। यह मुर्गियां खुलेआम घूम सकती हैं और अन्य जानवरों के चारे के बचे हुए भोजन से अपना चारा खोज लेती हैं। वह इस समय अपने खेत में 3000 बटेर का पालन करते हैं।

पशुओं/जानवरों के लिए सारा चारा उनके द्वारा मशीनों की मदद से खेत में तैयार किया जाता है। आज हरभजन सिंह जी अपने दो बेटों के साथ सफलतापूर्वक अपने खेत पर काम करते हैं और वह खेत के कार्यों में उनकी मदद करते हैं। वह केवल एक सहायक की सहायता से पूरी खेती का प्रबंधन करते है। वह मछली के बच्चे 2 रुपये प्रति बच्चे के हिसाब से बेचते हैं। इसके अलावा वह बकरा ईद के अवसर पर मलेरकोटला में बकरियों को बेचते हैं और बकरी के मीट से अचार तैयार करते हैं। कड़कनाथ मुर्गी के अंडे 15-20 रुपये और मुर्गे का मीट 700-800 रुपये में बिकता है। इसके बाद हरभजन जी ने ICAR-CIFE, कोलकाता से मछली का आचार, मछली का सूप आदि बनाने की ट्रेनिंग ली और घरेलू बाजार में उत्पाद का विपणन किया। वह अपना उत्पाद “ख़िआला पोर्क एंड फिश प्रोडक्ट्स” के नाम से बेचते हैं।

सभी उत्पादों की मार्केटिंग मेरे फार्म पर ही होती है- हरभजन सिंह

उनके फार्म पर ही मार्केटिंग की सारी प्रक्रिया की जाती है, उनको अपने उत्पाद बेचने के लिए कहीं जाने की ज़रूरत नहीं। उन्होंने बहुत से युवा किसानों को प्रेरित किया और वे एकीकृत खेती के बारे में उनकी सलाह लेने के लिए उनसे मिलने जाते हैं। वह दूसरों के लिए प्रेरणा बने और कई अन्य लोगों को खेती की एकीकृत खेती करने के लिए भी प्रोत्साहित किया।

भविष्य की योजना

हरभजन सिंह जी अपनी आमदन बढ़ाना चाहते हैं और अपनी खेती को उच्च स्तर पर लेकर जाना चाहते हैं। वह एकीकृत खेती में और भी अधिक सफल होना चाहता है और लोगों को जैविक और विविध खेती के फायदों के बारे में सिखाना चाहता है।

संदेश

हरभजन सिंह जी युवा किसानों को जैविक खेती करने की सलाह देते हैं। यदि कोई किसान एकीकृत खेती शुरू करना चाहता है तो उसकी शुरुआत छोटे स्तर से करनी चाहिए और धीरे-धीरे अन्य पहलुओं को अपने व्यवसाय में जोड़ना चाहिए।
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बबलू शर्मा

(सब्जियों की पनीरी और मार्केटिंग)

2 कनाल से किया था शुरू और आज 2 एकड़ में फैल चूका है इस नौजवान प्रगतिशील किसान का पनीरी बेचने का काम

मुश्किलें किस काम में नहीं आती, कोई भी काम ऐसा नहीं होगा जो बिना मुश्किलों के पूरा हो सके।इसलिए हर इंसान को मुश्किलों से भरी नाव पर सवार होना चाहिए और किनारे तक पहुंचने के लिए कड़ी मेहनत करे, जिस दिन नाव किनारे लग जाए समझो इंसान कामयाब हो गया है।

मुक्तसर जिले के गांव खुन्नन कलां के एक युवा किसान बबलू शर्मा ने भी इसी जुनून के साथ एक पेशा अपनाया, जिसके बारे में वे थोड़ा-बहुत जानते थे और थोड़ा-सा ज्ञान उनके लिए एक अनुभव बन गया और आखिर में कामयाब हो कर दिखाया, उन्होंने हार नहीं मानी, बस अपने काम में लगे रहे और आजकल हर कोई उन्हें अच्छी तरह से जानता है।

साल 2012 की बात है जब बबलू शर्मा के पास कोई नौकरी नहीं थी और वह किसी के पास जाकर कुछ न कुछ सीखा करते थे, लेकिन यह कब तक चलने वाला था। एक न एक दिन अपने पैरों पर खड़ा होना ही था। एक दिन वह बैठे हुए थे तो अपने पिता जी के साथ बात करने लगे कि पिता जी ऐसा कौन-सा काम हो सकता है जोकि खेती का हो और दूसरा आमदन भी हो। पिता जी को तो खेती में पहले से ही अनुभव था क्योंकि वह पहले से ही खेती करते आ रहे हैं और अब भी कर रहे हैं । अपने आसपास के किसानों को देखते हुए बबलू ने अपने पिता जी के साथ सलाह करके सब्जियों की पनीरी का काम शुरू करने के बारे में सोचा।

काम तो शुरू हो गया लेकिन पैसा लगाने के बाद भी फेल होने का डर था- बबलू शर्मा

पिता पवन कुमार जी ने कहा, बिना कुछ सोचे काम शुरू कर, जब बबलू शर्मा ने सब्जी की पनीरी का काम पहली बार शुरू किया तो उनका कम से कम 35,000 रुपये तक का खर्चा आ गया था जिसमें उन्होंने प्याज, मिर्च, टमाटर, शिमला मिर्च, बैंगन आदि की पनीरी से जो 2 कनाल में शुरू की थी, पर जानकारी कम होने के कारण बब्लू के सामने समस्या आ खड़ी हुई, पर जैसे-जैसे पता चलता रहा, वह काम करते रहे हैं और इसमें बब्लू के पिता जी ने भी उनका पूरा साथ दिया।

जब समय अनुसार पनीरी तैयार हुई तो उसके बाद मुश्किल थी कि इसे कहाँ पर बेचना है और कौन इसे खरीदेगा। चाहे पनीरी को संभाल कर रख सकते हैं पर थोड़े समय के लिए ही, यह बात की चिंता होने लगी।

शाम को जब बबलू घर आया तो उसके दिमाग में एक ही बात आती थी कि कैसे क्या कर सकते हैं। उन्होंने इस समस्या का समाधान खोजने के लिए बहुत रिसर्च की और उस समय इंटरनेट इतना नहीं था, फिर बहुत सोचने के बाद उनके मन में आया कि क्यों न गांवों में जाकर खुद ही बेचा जाए।

पिता ने यह कहते हुए सहमति व्यक्त की, “बेटा, जैसा तुम्हें ठीक लगे वैसा करो।” उसके बाद बबलू अपने गांव के पास के गांवों में ऑटो, छोटे हाथियों जैसे छोटे वाहनों में पनीरी बेचना शुरू किया। कभी गुरद्वारे द्वारा तो कभी किसी ओर तरह से पनीरी के बारे में लोगों को बताना, 3 से 4 साल लगातार ऐसा करने से पनीरी की मार्केटिंग भी होने लगी, जिससे लोगों को भी पता चलने लगा और मुनाफा भी होने लगा, पर बब्लू जी खुश नहीं थे, कि इस तरह से कब तक करेंगे, कोई ऐसा तरीका हो जिससे लोग खुद उनके पैसा पनीरी लेने के लिए आये और वह भी नर्सरी में बैठ कर ही पनीरी को बेचें।

इस बार जब बबलू पहले की तरह पनीरी बेचने गया तो कहीं से किसी ने उसे शर्मा नर्सरी के नाम से बुलाया, जिसे सुनकर बबलू बहुत खुश हुआ और जब पनीरी बेचकर वापस आया तो उसके मन में यही बात थी। उन्होंने इसके बारे में ध्यान से सोचा, फिर बबलू ने अपने पिता जी से सलाह ली और शर्मा नर्सरी के नाम से कार्ड बनाने का विचार किया। शर्मा नर्सरी के नाम से कार्ड बनाने के लिए दे दिए, उस पर हर एक जानकारी जैसे गांव का नाम, फ़ोन नंबर और जिस भी सब्जी की पनीरी उनके द्वारा लगाई जाती है, के बारे में कार्ड पर लिखवाया गया।

जब वह पनीरी बेचने के लिए गए तो वह बनवाये कार्ड वह अपने साथ ले गए। जब वह पनीरी किसे ग्राहक को बेच रहे थे तो साथ-साथ कार्ड भी देने शुरू कर दिए और इस तरह बनवाये कार्ड कई जगह पर बांटे गए।

जब वह घर वापस आए तो वह इंतजार कर रहे थे कोई कार्ड को देखकर फोन करेगा।कई दिन ऐसे ही बीत गए लेकिन वह दिन आया जब सफलता ने फोन पर दस्तक दी। जब उसने फोन उठाया तो एक किसान उससे पनीरी मांग रहा था, जिससे वह बहुत खुश हुए और धीरे-धीरे ऐसे ही उनकी मार्केटिंग होनी शुरू हो गई। फिर उन्होंने गांव-गांव जाकर पनीरी बेचनी बंद कर दिया और उनके कार्ड जब गांव से बाहर श्री मुक्तसर में किसी को मिले तो वहां भी लोगों ने पनीरी मंगवानी शुरू कर दी जिसे वह बस या गाडी द्वारा पहुंचा देते हैं। इस तरह उन्हें फ़ोन पर ही पनीरी के लिए आर्डर आने लगे फिर और उनके पास एक मिनट के लिए भी समय नहीं मिलता और आखिर उन्हें 2018 में सफलता हासिल हुई ।

जब वह पूरी तरह से सफल हो गए और काम करते करते अनुभव हो गया तो उन्होंने धीरे-धीरे करते 2 कनाल से शुरू किए काम को 2020 तक 2 एकड़ में और नर्सरी को बड़े स्तर पर तैयार कर लिया, जिसमें उन्होंने बाद में कद्दू, तोरी, करेला, खीरा, पेठा, जुगनी पेठा आदि की भी पनीरी लगा दी और पनीरी में क्वालिटी में भी सुधार लाये और देसी तरीके के साथ पनीरी पर काम करना शुरू कर दिया।

जिससे उनकी मार्केटिंग का प्रचार हुआ और आज उन्हें मार्केटिंग के लिए कहीं नहीं जाना पड़ता, फ़ोन पर आर्डर आते हैं और साथ के गांव वाले खुद आकर ले जाते हैं। जिससे उन्हें बैठे बैठे बहुत मुनाफा हो रहा है। इस कामयाबी के लिए वह अपने पिता पवन कुमार जी का धन्यवाद करते हैं।

भविष्य की योजना

वह नर्सरी में तुपका सिंचाई प्रणाली और सोलर सिस्टम के साथ काम करना चाहते हैं।

संदेश

काम हमेशा मेहनत और लगन के साथ करना चाहिए यदि आप में जज्बा है तो आप कुछ भी हासिल कर सकते हैं जो आपने पाने के लिए सोचा है।

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तरनजीत संधू

(बागवानी और मार्केटिंग)

एक किसान जिसने अपने जीवन के 25 साल संघर्ष करते हुए और बागवानी के साथ-साथ अन्य सहायक व्यवसायों में कामयाब हुए- तरनजीत संधू

जीवन का संघर्ष बहुत विशाल है, हर मोड़ पर ऐसी कठिनाइयाँ आती हैं कि उन कठिनाइयों का सामना करते हुए चाहे कितने भी वर्ष बीत जाएँ,पता नहीं चलता। उनमें से कुछ ऐसे इंसान हैं जो मुश्किलों का सामना करते हैं लेकिन मन ही मन में हारने का डर बैठा होता है, लेकिन फिर भी साहस के साथ जीवन की गति के साथ पानी की तरह चलते रहते हैं, कभी न कभी मेहनत के समुद्र से निकल कर बुलबुले बन कर किसी के लिए एक उदाहरण बनेंगे।

जिंदगी के मुकाम तक पहुँचने के लिए ऐसे ही एक किसान तरनजीत संधू, गांव गंधड़, जिला श्री मुक्तसर के रहने वाले हैं, जो लगातार चलते पानी की तरह मुश्किलों से लड़ रहे हैं, पर साहस नहीं कम हुआ और पूरे 25 सालों बाद कामयाब हुए और आज तरनजीत सिंह संधू ओर किसानों और लोगों को मुश्किलों से लड़ने के लिए प्रेरित कर रहे हैं।

साल 1992 की बार है तरनजीत की आयु जब छोटी थी और दसवीं कक्षा में पड़ते थे, उस दौरान उनके परिवार में एक ऐसी घटना घटी जिससे तरनजीत को छोटी आयु में ही घर की पूरी जिम्मेवारी संभालने के लिए मजबूर कर दिया, जोकि एक 17-18 साल के बच्चे के लिए बहुत मुश्किल था क्योंकि उस समय उनके पिता जी का निधन हो गया था और उनके बाद घर संभालने वाला कोई नहीं था। जिससे तरनजीत पर बहुत सी मुश्किलें आ खड़ी हुई।

वैसे तरनजीत के पिता शुरू से ही पारंपरिक खेती करते थे पर जब तरनजीत को समझ आई तो कुछ अलग करने के बारे में सोचा कि पारंपरिक खेती से हट कर कुछ अलग किया जाए और कुछ अलग पहचान बनाई जाए। उन्होंने सोच रखा था कि जिंदगी में कुछ ऐसा करना है जिससे अलग पहचान बने।

तरनजीत के पास कुल 50 एकड़ जमीन है पर अलग क्या उगाया जाए कुछ समझ नहीं आ रहा था, कुछ दिन सोचने के बाद ख्याल आया कि क्यों न बागवानी में ही कामयाबी हासिल की जाए। फिर तरनजीत जी ने बेर के पौधे मंगवा कर 16 एकड़ में उसकी खेती तो कर दी, पर उसके लाभ हानि के बारे में नहीं जानते थे, बेशक समझ तो थी पर जल्दबाजी ने अपना असर थोड़े समय बाद दिखा दिया।

उन्होंने न कोई ट्रेनिंग ली थी और न ही पौधों के बारे में जानकारी थी, जिस तरह से आये थे उसी तरह लगा दिए, उन्हें न पानी, न खाद किसी चीज के बारे में जानकारी नहीं थी। जिसका नुक्सान बाद में उठाना पड़ा क्योंकि कोई भी समझाने वाला नहीं था। चाहे नुक्सान हुआ और दुःख भी बहुत सहा पर हार नहीं मानी।

बेर में असफलता हासिल करने के बाद फिर किन्नू के पौधे लाकर बाग़ में लगा दिए, पर इस बार हर बात का ध्यान रखा और जब पौधे को फल लगना शुरू हुआ तो वह बहुत खुश हुए।

पर यह ख़ुशी कुछ समय के लिए ही थी क्योंकि उन्हें इस तरह लगा कि अब सब कुछ सही चल रहा है क्यों न एक बार में पूरी जमीन को बाग़ में बदल दिया जाए और यह चीज उनकी जिंदगी में ऐसा बदलाव लेकर आई जिससे उन्हें बहुत मुश्किल समय में से गुजरना पड़ा।

बात यह थी कि उन्होंने सोचा इस तरह यदि एक-एक फल के पौधे लगाने लगा तो बहुत समय निकल जाएगा। फिर उन्होंने हर तरह के फल के पौधे जिसमें अमरुद, मौसमी फल, अर्ली गोल्ड माल्टा, बेर, कागजी नींबू, जामुन के पौधे भरपूर मात्रा में लगा दिए। इसमें उनका बहुत खर्चा हुआ क्योंकि पौधे लगा तो लिए थे पर उनकी देख-रेख उस तरीके से करने लिए बैंक से काफी कर्जा लेना पड़ा। एक समय ऐसा आया कि उनके पास खर्चे के लिए भी पैसे नहीं थे। ऊपर से बच्चे की स्कूल की फीस, घर संभालना उन्हीं पर था।

कुछ समय ऐसा ही चलता रहा और समय निकलने पर फल लगने शुरू हुए तो उन्हें वह संतुष्ट हुए पर जब उन्होंने अपने किन्नू के बाग़ ठेके पर दे दिए तो बस एक फल के पीछे 2 से 3 रुपए मिल रहे थे।

16 साल तक ऐसे ही चलता रहा और आर्थिक तौर पर उन्हें मुनाफा नहीं हो रहा था। साल 2011 में जब समय अनुसार फल पक रहे तो उनके दिमाग में आया इस बार बाग़ ठेके पर न देकर खुद मार्किट में बेच कर आना है। जब वह जिला मुक्तसर साहिब की मार्किट में बेचने गए तो उन्हें बहुत मुनाफा हुआ और वह बहुत खुश हुए।

तरनजीत ने जब इस तरह से पहली बार मार्किट की तो उन्हें यह तरीका बहुत बढ़िया लगा, इसके बाद उन्होंने ठेके पर दिया बाग़ वापिस ले लिया और खुद निश्चित रूप से मार्केटिंग करने के बारे में सोचा। फिर सोचा मार्केटिंग आसानी से कैसे हो सकती है, फिर सोचा क्यों न एक गाडी इसी के लिए रखी जाए जिसमें फल रख कर मार्किट जाया जाए। फिर साल 2011 से वह गाडी में फल रख कर मार्किट में लेकर जाने लगे, जिससे उन्हें दिन प्रतिदिन मुनाफा होने लगा, जब यह सब सही चलने लगा तो उन्होंने इसे बड़े स्तर पर करने के लिए अपने साथ पक्के बंदे रख लिए, जो फल की तुड़ाई और मार्किट में पहुंचाते भी है।

जो फल की मार्केटिंग श्री मुक्तसर साहिब से शुरू हुई थी आज वह चंडीगढ़, लुधियाना, बीकानेर, दिल्ली आदि बड़े बड़े शहरों में अपना प्रचार कर चुकी है जिससे फल बिकते ही पैसे अकाउंट में आ जाते हैं और आज वह बाग़ की देख रेखन करते हैं और घर बैठे ही मुनाफा कमा रहे हैं जो उनके रोजाना आमदन का साधन बन चुकी है।

तरनजीत ने सिर्फ बागवानी के क्षेत्र में ही कामयाबी हासिल नहीं की, बल्कि साथ-साथ ओर सहायक व्यवसाय जैसे बकरी पालन, मुर्गी पालन में भी कामयाब हुए हैं और मीट के अचार बना कर बेच रहे हैं। इसके इलावा सब्जियों की खेती भी कर रहे हैं जोकि जैविक तरीके के साथ कर रहे हैं। उनके फार्म पर 30 से 35 आदमी काम करते हैं, जो उनके परिवार के लिए रोजगार का जरिया भी बने हैं। उसके साथ वह टूरिस्ट पॉइंट प्लेस भी चला रहे हैं।

इस काम के लिए उन्हें PAU, KVK और कई संस्था की तरफ से उन्हें बहुत से अवार्ड द्वारा सम्मानित किया जा चूका है।

यदि तरनजीत आज कामयाब हुए हैं तो उसके पीछे उनकी 25 साल की मेहनत है और किसी भी समय उन्होंने कभी हार नहीं मानी और मन में एक इच्छा थी कि कभी न कभी कामयाबी मिलेगी।

भविष्य की योजना

वह बागवानी को पूरी जमीन में फैलाना चाहते हैं और मार्केटिंग को ओर बड़े स्तर पर करना चाहते हैं, जहां भारत के कुछ भाग में फल बिक रहा है, वह भारत के हर एक भाग में फल पहुंचना चाहते हैं।

संदेश

यदि मुश्किलें आती है तो कुछ अच्छे के लिए आती है, खेती में सिर्फ पारंपरिक खेती नहीं है, इसके इलावा ओर भी कई सहायक व्यवसाय है जिसे कर कामयाब हुआ जा सकता है।

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संदीप सिंह

(प्रोसेसिंग और मार्केटिंग)

नौकरी छोड़ कर अपने पिता के रास्ते पर चलकर आधुनिक खेती कर कामयाब हुआ एक नौजवान किसान- संदीप सिंह

एक ऊँचा और सच्चा नाम खेती, लेकिन कभी भी किसी ने कृषि के पन्नों को खोलकर नहीं देखा यदि हर कोई खेती के पन्नों को खोलकर देखना शुरू कर दें तो उन्हें खेती के बारे में अच्छी जानकारी प्राप्त हो जाएगी और हर कोई खेती में सफल हो सकता है। सफल खेती वह है जिसमें नए-नए तरीकों से खेती करके ज़मीन की उपजाऊ शक्ति को बढ़ा सकते है।

ऐसे ही एक प्रगतिशील किसान हैं, संदीप सिंह जो गाँव भदलवड, ज़िला संगरूर के रहने वाले हैं और M Tech की हुई है जो अपने पिता के बताए हुए रास्ते पर चलकर और एक अच्छी नौकरी छोड़कर खेती में आज इस मुकाम पर पहुंच चुके है, यहाँ हर कोई उनसे कृषि के तरीकों के बारे में जानकारी लेने आता है। छोटी आयु में सफलता प्राप्त करने का सारा श्रेय अपने पिता हरविंदर सिंह जी को देते हैं, क्योंकि उनके पिता जी पिछले 40 सालों से खेती कर रहे हैं और खेती में काफी अनुभव होने से प्रेरणा अपने पिता से ही मिली है।

उनके पिता हरविंदर सिंह जो 2005 से खेती में बिना कोई अवशेष जलाए खेती करते आ रहे हैं। उसके बाद 2007 से 2011 तक धान के पुआल को आग न लगाकर सीधी बिजाई की थी, जिसमें वे कामयाब हुए और उससे खेती की उपजाऊ शक्ति में बढ़ावा हुआ और साथ ही खर्चे में कमी आई है। हमेशा संदीप अपने पिता को काम करते हुए देखा करता था और खेती के नए-नए तरीकों के बारे जानकारी प्रदान करता था।

2012 में जब संदीप ने M Tech की पढ़ाई पूरी की तब उन्हें अच्छी आय देने वाले नौकरी मिल रही थी लेकिन उनके पिता ने संदीप को बोला, तुम नौकरी छोड़कर खेती कर जो नुस्खे तुम मुझे बताते थे अब उनका खेतों में प्रयोग करना। संदीप अपने पिता की बात मानते हुऐ खेती करने लगे।

मुझे नहीं पता था कि एक दिन यह खेती मेरी ज़िंदगी में बदलाव करेगी- संदीप सिंह

जब संदीप परंपरागत खेती कर रहा था तो सभी कुछ अच्छे तरीके से चल रहा था और पिता हरविंदर ने बोला, बेटा, खेती तो कब से ही करते आ रहे हैं, क्यों न बीजों पर भी काम किया जाए। इस बात के ऊपर हाँ जताते हुए संदीप बीजों वाले काम के बारे में सोचने लगा और बीजों के ऊपर पहले रिसर्च की, जब रिसर्च पूरी हुई तो संदीप ने बीज प्रोसेसिंग की ट्रेनिंग का फैसला लिया।

फिर मैंने देरी न करते हुए के.वी.के. खेड़ी में बीज प्रोसेसिंग की ट्रेनिंग का कोर्स पूरा किया- संदीप सिंह

2012 में ही फिर उन्होंने गेहूं, चावल, गन्ना, चने, सरसों और अन्य कई प्रकार के बीजों के ऊपर काम करना शुरू कर दिया जिसकी पैकिंग और प्रोसेसिंग का सारा काम अपने तेग सीड प्लांट नाम से चला रहे फार्म में ही करते थे और उसकी मार्केटिंग धूरी और संगरूर की मंडी में जाकर और दुकानों में थोक के रूप में बेचने लगे, जिससे मार्केटिंग में प्रसार होने लगा।

संदीप ने बीजों की प्रोसेसिंग के ऊपर काम तो करना शुरू किया था तो उसका बीजों के कारण और PAU के किसान क्लब के मेंबर होने के कारण पिछले 4 सालों से PAU में आना जाना लगा रहता था। लेकिन जब सूरज ने चढ़ना है तो उसने रौशनी हर उस स्थान पर करनी है, यहाँ पर अंधेरा छाया हुआ होता है।

साल 2016 में जब वह बीजों के काम के दौरान PAU में गए थे तो अचानक उनकी मुलाकात प्लांट ब्रीडिंग के मैडम सुरिंदर कौर संधू जी से हुई, उनकी बातचीत के दौरान मैडम ने पूछा, आप GSC 7 सरसों की किस्म का क्या करते है, तो संदीप ने बोला, मार्केटिंग, मैडम ने बोला, ठीक है बेटा। इस समय संदीप को कुछ समझ नहीं आ रहा था कि मैडम कहना क्या चाहते हैं। तब मैडम ने बोला, बेटा आप एग्रो प्रोसेसिंग की ट्रेनिंग का कोर्स करके, सरसों का तेल बनाकर बेचना शुरू करें, जो आपके लिए बहुत फायदेमंद है।

जब संदीप सिंह ने बोला सरसों का तेल तो बना लेंगे पर मार्केटिंग कैसे करेंगे, इस के ऊपर मैडम ने बोला, इसकी चिंता तुम मत करो, जब भी तैयार हो, मुझे बता देना।

जब संदीप घर पहुंचा और इसके बारे में बहुत सोचने लगा, कि अब सरसों का तेल बनाकर बेचेंगे, पर दिमाग में कहीं न कहीं ये भी चल रहा था कि मैडम ने कुछ सोच समझकर ही बोला होगा। फिर संदीप ने इसके बारे पिता हरविंदर जी से बात की और बहुत सोचने के बाद पिता जी ने बोला, चलो एक बार करके देख ही लेते हैं। फिर संदीप ने के.वी.के. खेड़ी में सरसों के तेल की प्रोसेसिंग की ट्रेनिंग का कोर्स किया।

2017 में जब ट्रेनिंग लेकर संदीप सरसों की प्रोसेसिंग के ऊपर काम करने लगे तो यह नहीं पता चल रहा था कि सरसों की प्रोसेसिंग कहाँ पर करेंगे, थोड़ा सोचने के बाद विचार आया कि के.वी.के. खेड़ी में ही प्रोसेसिंग कर सकते हैं। फिर देरी न करते हुए उन्होंने सरसों के बीजों का तेल बनाना शुरू कर दिया और घर में पैकिंग करके रख दी। लेकिन मार्केटिंग की मुश्किल सामने आकर खड़ी हो गई, बेशक मैडम ने बोला था।

PAU में हर साल जैसे किसान मेला लगता था, इस बार भी किसान मेला आयोजित होना था और मैडम ने संदीप की मेले में ही अपने आप ही स्टाल की बुकिंग कर दी और बोला, बस अपने प्रोडक्ट को लेकर पहुँच जाना।

हमने अपनी गाड़ी में तेल की बोतलें रखकर लेकर चले गए और मेले में स्टाल पर जाकर लगा दी- संदीप सिंह

देखते ही देखते 100 से 150 लीटर के करीब कनोला सरसों तेल 2 घंटों में बिक गया और यह देखकर संदीप हैरान हो गया कि जिस वस्तु को व्यर्थ समझ रहा था वे तो एक दम ही बिक गया। वे दिन संदीप के लिए एक न भूलने वाला सपना बन गया, जिसको सिर्फ सोचा ही था और वह पूरा भी हो गया।

फिर संदीप ने यहां-यहां पर भी किसान मेले, किसान हट, आत्मा किसान बाज़ार में जाना शुरू कर दिया, लेकिन इन मेलों में जाने से पहले उन्होंने कनोला तेल के ब्रैंड के नाम के बारे में सोचा जो ग्राहकों को आकर्षित करेगा। फिर वह कनोला आयल को तेग कनोला आयल ब्रैंड नाम से रजिस्टर्ड करके बेचने लगे।

धीरे-धीरे मेलों में जाने से ग्राहक उनसे सरसों का तेल लेने लगे, जिससे मार्केटिंग में प्रसार होने लगा और बहुत से ग्राहक ऐसे थे जो उनके पक्के ग्राहक बन गए। वह ग्राहक आगे से आगे मार्केटिंग कर रहे थे जिससे संदीप को मोबाइल पर ऑर्डर आते हैं और ऑर्डर को पूरा करते हैं। आज उनको कहीं पर जाने की जरूरत नहीं पड़ती बल्कि घर बैठे ही आर्डर पूरा करते हैं और मुनाफा कमा रहे हैं, जिस का सारा श्रेय वे अपने पिता हरविंदर को देते हैं। बाकि मार्केटिंग वह संगरूर, लुधियाना शहर में कर रहे हैं।

आज मैं जो भी हूँ, अपने पिता के कारण ही हूँ- संदीप सिंह

इस काम में उनका साथ पूरा परिवार देता है और पैकिंग बगेरा वे अपने घर में ही करते हैं, लेकिन प्रोसेसिंग का काम पहले के.वी.के. खेड़ी में ही करते थे, अब वे नज़दीकी गांव में किराया देकर काम करते हैं।

इसके साथ वे गन्ने की भी प्रोसेसिंग करके उसकी मार्केटिंग भी करते हैं और जिसका सारा काम अपने फार्म में ही करते हैं और 38 एकड़ ज़मीन में 23 एकड़ में गन्ने की खेती, सरसों, परंपरागत खेती, सब्जियां की खेती करते हैं, जिसमें वह खाद का उपयोग PAU के बताए गए तरीकों से ही करते हैं और बाकि की ज़मीन ठेके पर दी हुई है।

उनको किसान मेले में कनोला सरसों आयल में पहला स्थान प्राप्त हुआ है, इसके साथ-साथ उनको अन्य बहुत से पुरस्कारों से सन्मानित किया जा चूका है।

भविष्य की योजना

वे प्रोसेसिंग का काम अपने फार्म में ही बड़े स्तर पर लगाकर तेल का काम करना चाहते हैं और रोज़गार प्रदान करवाना चाहते हैं।

संदेश

हर एक किसान को चाहिए कि वह प्रोसेसिंग की तरफ ध्यान दें, ज़रूरी नहीं सरसों की, अन्य भी बहुत सी फसलें हैं जिसकी प्रोसेसिंग करके आप खेती में मुनाफा कमा सकते हैं।

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गुरप्रीत सिंह

(प्रोसेसिंग और मार्केटिंग)

अस्पताल में जिंदगी की जंग लड़ते हुऐ इस किसान ने बनाया ऐसा उत्पाद जो इसकी सफलता का कारण बना- गुरप्रीत सिंह

जिंदगी हर पहलू पर सीखने और सिखाने का अवसर है, पर यदि समय पर प्राकृतिक के इशारे को समझ जाए तो इंसान हर वह असंभव वस्तु को संभव कर सकता है। बस उसे हिम्मत नहीं हारनी चाहिए, चाहे वह खेती व्यवसाय हो या फिर कोई ओर व्यवसाय। उसका हमेशा एक ही जुनून होना चाहिए।

ऐसे ही एक प्रगतिशील किसान गुरप्रीत सिंह हैं जो गांव मुल्लांपुर के रहने वाले हैं। जिनके पास अपनी जमीन न होते हुए भी सोयाबीन के प्रोडक्ट्स बना कर Daily Fresh नाम से बेच रहे हैं और उनके साथ एक ऐसा हादसा हुआ जिसने उनकी जिंदगी बदल कर रख दी और एक लाभकारी प्रोडक्ट मार्किट में लेकर आये, जिसके बारे में सभी को पता था पर उसके फायदे के बारे में कोई-कोई ही जानता था।

साल 2017 की बात है, गुरप्रीत सिंह जी को पीलिया हुआ था जोकि बहुत ही अधिक बढ़ गया और ठीक नहीं हो रहा था।

मैं गांव के डॉक्टर के पास अपना चेकअप करवाने के लिए चल गया- गुरप्रीत सिंह

जब उन्होंने ने चेकअप करवाया तो डॉक्टर ने कमज़ोरी को देखते ही ताकत के टीके लगवा दिए, जिसका सीधा असर लिवर पर पड़ा और लिवर में इन्फेक्शन हो गया क्योंकि पीलिया के कारण पहले ही अंदर गर्मी होती है, दूसरा ताकत के टीके ने अंदर ओर गर्मी पैदा कर दी थी।

जब हालत में सुधार नहीं हुआ और सेहत दिन-ब-दिन बिगड़ती गई तो उन्होंने बड़े अस्पताल में जाने का फैसला किया और जब वहां डॉक्टर ने देखा तो उनके होश उड़ गए और गर्मी का कारण जानने के लिए टेस्ट करवाने के लिए भेज दिया। जब गुरप्रीत ने टेस्ट करवाया तो डॉक्टर बोला आप शराब पीते हो तो गुरप्रीत जी ने कहा कि “अमृतधारी हूँ, इन सभी चीजों से दूर रहता हूँ” जब रिपोर्ट आई तो डॉक्टर ने उन्हें अस्पताल में भर्ती किया और इलाज शुरू हो गया।

जब वह अस्पताल में थे तो खाली समय में फोन का प्रयोग करने लगे और सोचा कि देसी तरीके के साथ कैसे ठीक हो सकते है इस पर रिसर्च की जाए। फिर रिसर्च करते समय सबसे ऊपर Wheat Grass आया और उनके मन में उसके बारे में रिसर्च करने की इच्छा जागरूक होने लगी और अच्छी तरह जाँच पड़ताल की और उसके फायदे के बारे में जानकर हैरान हो गए।

अस्पताल के बैड पर बैठ कर की रिसर्च मेरी जिंदगी में बदलाव लेकर आने का पहला पड़ाव था- गुरप्रीत सिंह

रिसर्च तो उन्होंने अस्तपाल में कर ली थी पर उसे प्रयोग करके उसके फायदे देखना बाकी था। इस दौरान अपनी पत्नी को बताया और घर में ही कुछ गमलों में गेहूं के बीज लगा दिए। जिसका फायदा यह है कि 12 से 15 दिन में तैयार हो जाती है।

थोड़ा ठीक होकर गुरप्रीत जी घर आये तो उनकी पत्नी ने रोज Wheat Grass का जूस बना कर उन्हें पिलाना शुरू कर दिया, जैसे-जैसे वह जूस का सेवन करते रहे दिन प्रतिदिन सेहत में फर्क आने लगा और बहुत कम समय में बिलकुल स्वाथ्य हो गए।

उन्होंने सोचा कि यदि इसके अनेक फायदे हैं और बी.पी, शुगर और ओर बहुत सी बीमारियों को खत्म करता है और इम्यूनिटी को मजबूत बनाता है तो क्यों न इसके बारे में ओर लोगों को बताया जाए और उनके पास प्रोडक्ट के रूप में पहुँचाया जाए। उसे मार्किट में लाने के लिए फिर से रिसर्च करने लगे ताकि ओर लोगों की भी सहायता हो सके।

मैंने परिवार के साथ इसके बारे में बात की- गुरप्रीत सिंह

घरवालों से बात करने के बाद उन्होंने सोचा कि इसे पाउडर के रूप में बनाकर लोगों तक पहुँचाया जाए। जिससे एक तो पाउडर खराब नहीं होगा दूसरा उनके पास सही से पहुंचेगा। पर यह नहीं पता था कि पाउडर कैसे बनाया जाए।

इस दौरान मैंने PAU के डॉक्टर रमनदीप सिंह जी के साथ संम्पर्क किया, जो अग्रि बिज़नेस विषय के माहिर हैं और हमेशा ही किसानों की सहायता के लिए तैयार रहते हैं। जिन्होंने प्रोडक्ट बनाने से लेकर मार्केटिंग में लाने तक बहुत सहायता की। आखिर उन्होंने Wheat Grass की प्रोसेसिंग अपने फार्म पर की जो वह मौसम के दौरान घर के गमलों में उगाई हुई थी जहां पर वह पहले ही सोयाबीन के प्रोडक्ट तैयार करते हैं, फिर उन्होंने Wheat Grass का पाउडर बनाकर उसे चैक करवाने के लिए रिसर्च केंद्र ले गए और जब रिपोर्ट आई तो उनका दिल ख़ुशी से भर गया, क्योंकि पाउडर की क्वालिटी जैविक और शुद्ध आई थी।

फिर मैंने सोचा मार्किट में लाने से पहले क्यों न अपने नज़दीकी रिश्तेदार में सैंपल के तौर पर दिया जाए- गुरप्रीत सिंह

जब प्रोडक्ट सैंपल के तौर पर भेजे तो उन्हें अनेक फायदे मिलने लगे और उनसे बहुत होंसला मिला।

होंसला मिलते ही देरी न करते हुए इसे मार्किट में लेकर आने का फैसला किया, इस दौरान उनके सामने एक बड़ी मुश्किल यह आई कि अब तो मौसम के अनुसार उग जाती है जब इसका मौसम नहीं होगा तो क्या करेंगे, फिर उन्होंने सोचा कि हैदराबाद में उनके रिश्तेदार है जो पहले से ही Wheat Grass का काम कर रहे हैं और वहां के मौसम में बदलाव होने के कारण क्यों न वहां से ही मंगवाया जाए इस तरह इस मुश्किल का समाधान हो गया, पर मन में अभी भी डर था लोगों को इसके फायदे के बारे में कैसे बताया जाए, जोकि सबसे बड़ी मुश्किल बन कर सामने आई। बस फिर भगवान को याद करते हुए उन्होंने दुकानदार और मेडिकल स्टोर वालों से जाकर बात की और मेडिकल स्टोर और दुकानदार को Wheat Grass के फायदे के बारे में ग्राहक को बताने के लिए कहा।

कुछ समय वह ऐसे ही मार्किटिंग करते रहे और जब उन्हें लगा कि मार्कटिंग सही से हो रही है, तो सोचा इसे ब्रांड का नाम देकर बेचा जाए, जिससे इसकी अलग पहचान बनेगी। इस दौरान श्री दरबार साहिब जाकर हुक्मनामे के पहले शब्द “” से Perfect Nutrition ब्रांड नाम रखा और उसकी पैकिंग करके बढ़िया तरीके से मार्कटिंग में बेचने लगे।

गुरप्रीत जी किसान मेलों में जाकर, गांव और शहरों में कैनोपी लगाकर इसके फायदे के बारे में बताने लगे और मार्कटिंग करने लगे जिससे उनकी मार्केटिंग में बहुत अधिक प्रसार हुआ।

2019 में वह पक्के तौर पर Wheat Grass पर काम करने लगे और लोगों को कम ही इसके फायदे के बारे में बताना पड़ता है और पाउडर बेचने के लिए मार्किट में नहीं जाना पड़ता बल्कि आजकल इतनी मांग बढ़ गई है कि उन्हें थोड़े समय के लिए भी फ्री समय नहीं मिलता। आज पाउडर की मार्केटिंग पूरे लुधियाना शहर में कर रहे हैं और साथ-साथ मार्कटिंग सोशल मीडिया के द्वारा भी करते हैं जिसमें कोरोना के समय Wheat Grass पाउडर की बहुत मांग बढ़ी और बहुत मुनाफा हुआ।

भविष्य की योजना

वह अपने प्रोडक्ट को बड़े स्तर पर और लोगों को इसके बारे में अधिक से अधिक जानकारी देना चाहते हैं ताकि कोई भी रह न जाए और आजकल जो बीमारियां शरीर को लग रही है उसे बचाव किया जा सके।

संदेश

हर एक इंसान को चाहिए वह अच्छा उगाये और अच्छा खाए, क्योंकि बीमारियों से तभी बचेंगे जब खाना पीना शुद और साफ होगा और इम्यूनिटी मज़बूत रहेगी।

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श्रुती गोयल

(प्रोसेसिंग और मार्केटिंग)

खुद को चुनौती देकर फिर उससे लड़ना और सफल होना सीखें इस उद्यमी महिला से- श्रुती गोयल

हर इंसान की हमेशा यही कोशिश होती है कि वह जिंदगी में कुछ अलग करे जिससे उसकी पहचान उसके नाम से नहीं बल्कि उसके काम से हो और बहुत इंसान ऐसे होते हैं जिनके पास पहचान तो होती है पर वह यह सोचते हैं कि पहचान मैं किसी के नाम की नहीं बल्कि अपने नाम और काम की बनानी है।

भारत की पहली ऐसी महिला श्रुती गोयल जिनको फ़ूड प्रोसेसिंग में 2 लाइसेंस सरकार की तरफ से प्राप्त हुए हैं, जो गांव जगराओं, ज़िला लुधियाना की रहनी वाली हैं। इनकी सोच इतनी विशाल है कि इन्होंने अपने परिवार का नाम और पहचान होते हुए भी अपनी अलग पहचान बनाने का काम किया और उसमें कामयाब होकर दिखाया।

मैं खुद कुछ अलग करना चाहती थी- श्रुती गोयल

वैसे श्रुति की पहचान उनकी मां अनीता गोयल के कारण ही बनी थी। जो ज़ाइका फ़ूड नाम का एक ब्रांड बाज़ार में लेकर आए और आज बहुत बड़े पैमाने पर काम कर रहे हैं। वहां हर कोई अच्छी तरह से उन्हें जानता है और पहले श्रुति जी आमला कैंडी पर काम कर रही थी जो ज़ाइका फ़ूड को पेश कर रहा था।

शुरू के समय में श्रुती अपने माता अनीता गोयल जी के साथ काम करते थे और खुश भी थे, जहां पर श्रुती को फ़ूड प्रोसेसिंग मार्केटिंग के बारे में बहुत कुछ पता चल चुका था और अक्सर जब कभी भी मार्केटिंग करने जाते थे तो अधिकतर वह ही जाते है थे। जिससे दिन प्रतिदिन इन उत्पादों के बारे में जानकारी मिलती रही। पर मन में हमेश एक बात थी यदि कोई काम करना है तो खुद का ही करना है और अलग पहचान बनानी है।

साल 2020 के फरवरी महीने में श्रुती जी ज़ाइका फ़ूड को पेश करते हुए एक SIDBI के मेले में गए थे, वहां उनकी मुलाकात SIDBI बैंक के GM राहुल जी के साथ हुई। मुलाकात के दौरान राहुल जी ने बोला, बेटा आप खुद की पहचान बनाने के लिए काम करें क्योंकि आपके काम करने का तरीका सबसे अलग और अच्छा है, तुम अपना काम अलग से करने के बारे में ज़रूर सोचना।

मेरे मन में बहुत से सवाल खड़े होने लगे, मैं ऐसा क्यों करूं जिससे मेरी पहचान बने- श्रुती गोयल

उन्हें चुनौती लेना बहुत पसंद है और इसे ध्यान में रखते हुए आगे बढ़ते गए पर उन्हें यह नहीं पता था कि करना क्या है। एक दिन वह कहीं प्रोग्राम में गए, तो वहां उन्होंने सजावट की तरफ देख रहे थे तो उनका ध्यान गुलाब के फूलों की ओर गया और जब प्रोग्राम खत्म हुआ तो देखते हैं कि कर्मचारी ताजे फूलों को कचरे में फेंक रहे थे। जिसे देखकर उनका मन उदास हो गया क्योंकि गुलाब एक ऐसा फूल है जो सुंदरता के लिए पहले नंबर पर आता है।

जब वह घर आए तो वह बार-बार उसी के बारे में सोचने लगे कि क्या किया जाए जिससे फूल बेकार न हो और फूलों का सही प्रयोग किया जाए।

बहुत समय रिसर्च करने के बाद उनके मन में यह ख्याल आया क्यों न गुलाब की पत्तियों को इकट्ठा करके जैम बनाया जाए जो गुलकंद मुक्त हो और उसमें किसी भी प्रकार की मिलावट न हो। उन्होंने फ़ूड नुट्रिशन पर पहले से ही एक साल की ट्रेनिंग की हुई थी, श्रुती जी के लिए एक बात बहुत ही फायदेमंद साबित हुई, क्योंकि उन्हें जानकारी तो बहुत थी और दूसरा वह अपने माता जी के साथ प्रोसेसिंग और मार्केटिंग का काम करते थे।

पर इतना रिसर्च करने के बाद एक समस्या थी कि परिवार वाले अलग काम करने के लिए मानेंगे या नहीं, और जब हुई तो परिवार वालों ने मना कर दिया। उस समय माता जी कहा बेटा जायका फ़ूड का काम बहुत अच्छा चल रहा है, उसमें है ही मेहनत करते हैं। पर श्रुती जी का होंसला अटूट था और बाद में श्रुती जी ने उन्हें मना लिया ।

इसके बाद श्रुती जी ने गुलाब की पत्तियों को इकट्ठा करके उस पर काम करना शुरू कर दिया इसमें उनका साथ डॉक्टर मरीदुला मैडम ने दिया। श्रुती ने CIPHET लुधियाना से ट्रेनिंग तो ली ही थी तो इकट्ठा किए गुलाब की पत्तीयों को तोड़ कर अपनी माता जी के साथ अपने घर में ही प्रोसेसिंग करनी शुरू कर दी और पहली बार जैम बनाया, उन्होंने बाद में जिसे Rose Petal Jam का नाम दिया। जिसका फायदा यह था कि आप दूध में डालकर या फिर वैसे ही चम्मच भरकर खा सकते है और जो खाने में भी स्वादिष्ट है। इसके साथ ही उन्होंने गुलाब के फूलों का शर्बत बनाया, जिसमें सभी पोषक तत्व वाली चीजें मौजूद है जो शरीर की इम्युनिटी और ताकतवर बनाने के लिए जरुरी होती है ।

लंबे समय से श्रुति बिना ब्रांड और पैकिंग से ही अपनी दूकान पर मार्केटिंग कर रही थी पर उन्हें कुछ नहीं मिला । जिससे निराश हुए और कहा जब मुसीबत आती है तो वह हमारे भले के लिए ही आती है। इस तरह ही श्रुती गोयल जी के साथ हुआ।

एक दिन वह बैठे ही थे कि मन में ख्याल आया कि क्यों न इसकी अच्छे से पैकिंग करके और ब्रांड के साथ मार्किट में लाया जाए, जिससे एक तो लोगों को इसके ऊपर लिखी जानकारी पढ़ कर पता चलेगा दूसरा एक अलग ब्रांड नाम लोगों को आकर्षित करेगा।

मैं ब्रांड के बारे में रिसर्च करनी लगी जोकि अलग और जिसमें पुराने संस्कृति की महक आती हो- श्रुती गोयल

बहुत अधिक रिसर्च करने पर उनके दिमाग में एक संस्कृत का नाम आया जिससे वह बहुत खुश हुए, फिर “स्वादम लाभ” ब्रांड रखें का फैसला किया, जिसके पीछे भी एक महत्ता है, जैसे स्व मतलब स्वाद हो, दम वे ताकतवर हो, लाभ का मतलब खा कर शरीर को कोई फायदा हो। इस तरह ब्रांड का नाम रखा।

फिर देरी न करते हुए वह जैम और शर्बत को मार्किट में ले कर आए और उसकी मार्केटिंग करनी शुरू कर दी, जिसमें उनकी बहुत सी सहायता डॉक्टर रमनदीप सिंह जी ने की जोकि PAU में एग्री बिज़नेस विषय के प्रोफेसर हैं और बहुत से किसानों को और उघमियों को उच्च स्तर पर पहुंचाने में हमेशा तैयार रहते हैं। इस तरह ही डॉक्टर रमनदीप जी ने श्रुती की बहुत से चैनल के साथ इंटरव्यू करवाई जहां से श्रुती जी के बारे में लोगों को पता चलने लगा और उनके जैम और शर्बत की मांग बढ़ने लगी और मार्केटिंग भी होने लगी।

जब पता लगा कि मार्केटिंग सही तरीके से चल रही है तो जैम के साथ आंवला केंडी, कद्दू के बीजों पर काम करना शुरू कर दिया। जिसमें उनहोंने कद्दू के बीजों से 3 से 4 प्रॉडक्ट त्यार किए जो कि ग्लूटन मुक्त है। इस तरह धीरे-धीरे मार्केटिंग में पैर स्थिर हो गए। सितंबर 2020 में सफल हुए।

उनके द्वारा त्यार किए जा रहे उत्पाद

  • जैम
  • शर्बत
  • केक
  • पंजीरी
  • बिस्कुट
  • लड्डू
  • ब्रेड आदि।

आज मार्केटिंग के लिए कहीं बाहर या दूकान पर उत्पाद के बारे में बताना नहीं पड़ता बल्कि लोगों की मांग के आधार पर बिक जाते हैं। श्रुती जी अपनी मार्केटिंग लुधियाना और चंडीगढ़ शहर में करते हैं, जिसके कारण उन्हें बहुत से लोग जानते हैं और मार्केटिंग हो जाती है।वह खुश है और इस ओर बड़े स्तर पर लेकर जाना चाहते हैं।

श्रुती को बहुत जगह पर उनके काम के लिए सम्मानित किया जा चुका है। श्रुती जी ऐसे एक महिला उघमी है जिन्होंने खुद को चुनौती दी थी कि खुद के साथ लड़ कर कामयाबी हासिल करनी है, जिस पर वह सफल साबित हुए ओर आज उन्हें अपने आप पर गर्व है और अपने परिवार का नाम रोशन किया।

भविष्य की योजना

वह आगे भी इसे ओर बड़े स्तर पर लेकर जाना चाहते हैं। बाकि उद्देश्य यह है कि उनके उत्पादों के बारे में लोग इतना जागरूक हों कि जो थोड़ा बहुत बताना पड़ता है, वह भी न बताना पड़े। बल्कि अपने आप ही बिक जाए। इसके साथ-साथ हरी मिर्च का पाउडर बना कर मार्केटिंग करना चाहते हैं।

संदेश

हर एक महिला को चाहिए कि वह किसी पर निर्भर न रह कर खुद का कोई व्यवसाय शुरू करे जिसका उसे शोक भी हो और उसे बड़े स्तर पर लेकर जाने की हिम्मत भी हो।

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लिंगारेडी प्रसाद

(देसी बीज और आर्गेनिक खेती)

सफल किसान होना ही काफी नहीं, साथ साथ दूसरे किसानों को सफल करना इस व्यवसायी का सूपना था और इसे सच करके दिखाया- लिंगारेडी प्रसाद

खेती की कीमत वही जानता है जो खुद खेती करता है, फसलों को उगाने और उनकी देखभाल करने के समय धरती मां के साथ एक अलग रिश्ता बन जाता है, यदि हर एक इंसान में खेती के प्रति प्यार हो तो वह हर चीज को प्रकृति के अनुसार ही बना कर रखने की कोशिश करता है और सफल भी हो जाता है। हर एक को चाहिए वह रसायनिक खेती न कर प्रकृति खेती को पहल दे और फिर प्रकृति भी उसकी जिंदगी को खुशियों से भर देती है।

ऐसा ही एक उद्यमी है किसान, जो कृषि से इतना लगाव रखते हैं कि वह खेती को सिर्फ खेती ही नहीं, बल्कि प्रकृति की देन मानते हैं। इस उपहार ने उन्हें बहुत प्रसिद्ध बना दिया। उस उद्यमी किसान का नाम लिंगारेड़ी प्रशाद है, जो चितूर, आंध्रा प्रदेश के रहने वाले हैं। पूरा परिवार शुरू से ही खेती में लगा हुआ था और जैविक खेती कर रहा था पर लिंगारेड़ी प्रशाद कुछ अलग करना चाहते थे, लिंगारेड़ी प्रशाद सोचते थे कि वह खुद को तब सफल मानेंगे जब उन्हें देखकर ओर किसान भी सफल होंगे। पारंपरिक खेती में वह सफलतापूर्वक आम के बाग, सब्जियां, हल्दी ओर कई फसलों की खेती कर रहे थे।

फसली विभिन्ता पर्याप्त नहीं थी क्योंकि यह तो सभी करते हैं- लिंगारेड़ी प्रशाद

एक दिन वे बैठे पुराने दिनों के बारे में सोच रहे थे, सोचते-सोचते उनका ध्यान बाजरे की तरफ गया क्योंकि उन्हें पता था कि उनके पूर्वज बाजरे की खेती करते थे जोकि सेहत के लिए भी फायदेमंद है ओर पशुओं के लिए भी बढ़िया आहार होने के साथ अनेक फायदे हैं। आखिर में उन्होंने बाजरे की खेती करने का फैसला किया क्योंकि जहां पर वह रहते थे, वहां बाजरे की खेती के बारे में बहुत ही कम लोग जानते थे, दूसरा इसके साथ गायब हो चुकी परंपरा को पुनर्जीवित करने की सोच रहे था।

शुरू में लिंगारेड़ी प्रशाद को यह नहीं पता था कि इस फसल के लिए तापमान कितना चाहिए, कितने समय में पक कर तैयार होती है, बीज कहाँ से मिलते है, और कैसे तैयार किये जाते है। फिर बिना समय बर्बाद किए उन्होंने सोशल मीडिया की मदद से मिल्ट पर रिसर्च करना शुरू कर दिया। उन्होंने अपने गांव में एक बुजुर्ग से बात की और उनसे बहुत सी जानकरी प्राप्त हुई और बुजुर्ग ने बिजाई से लेकर कटाई तक की पूरी जानकारी के बारे में लिंगारेड़ी प्रशाद को बताया। जितनी जानकारी मिलती रही वह बाजरे के प्रति मोहित होते रहे और पूरी जानकारी इकट्ठा करने में उन्हें एक साल का समय लग गया था। उसके बाद वह तेलंगाना से 4 से 5 किस्मों के बीज (परल मिलट, फिंगर मिलट, बरनयार्ड मिलट आदि) लेकर आए और अपने खेत में इसकी बिजाई कर दी।

फसल के विकास के लिए जो कुछ भी चाहिए होता था वह फसल को डालते रहते थे और वह फसल पकने के इंतजार में थे। जब फसल पक कर तैयार हो गई थी तो उस समय वह बहुत खुश थे क्योंकि जिस दिन का इंतजार था वह आ गया था और आगे क्या करना है बारे में पहले ही सोच रखा था।

फिर लिंगारेड़ी प्रशाद ने पीछे मुड़कर नहीं देखा और बाजरे की खेती के साथ उन्होंने प्रोसेसिंग करने के बारे में सोचा और उस पर काम करना शुरू कर दिया। सबसे पहले उन्होंने फसल के बीज लेकर मिक्सी में डालकर प्रोसेसिंग करके एक छोटी सी कोशिश की जोकि सफल हुई और इससे जो आटा बनाया (उत्पाद ) उन्हें लोगों तक पहुंचाया। फायदा यह हुआ कि लोगों को उत्पाद बहुत पसंद आया और हौसला बढ़ा।

जब उन्हें महसूस हुआ कि वह इस काम में सफल होने लग गए हैं तो उन्होंने काम को बड़े स्तर पर करना शुरू कर दिया। आज के समय में उन्हें मार्केटिंग के लिए बाहर नहीं जाना पड़ता क्योंकि ग्राहक पहले से ही सीधा उनके साथ जुड़े हुए हैं क्योंकि आम और हल्दी की खेती करके उनकी पहचान बनी हुई थी।

लिंगारेड़ी प्रशाद के मंडीकरण का तरीका था कि वह लोगों को पहले मिलट के फायदे के बारे में बताया करते थे और फिर लोग मिलट का आटा खरीदने लगे और मार्किट बड़ी होती गई।

साल 2019 में उन्होंने देसी बीज का काम करना शुरू कर दिया और मार्केटिंग करने लगे। सफल होने पर भी वह कुछ ओर करने के बारे में सोचा और आज वह अन्य सहायक व्यवसाय में भी सफल किसान के तौर पर जाने जाते हैं।

नौकरी के बावजूद वे अपने खेत में एक वर्मीकम्पोस्ट यूनिट, मछली पालन भी चला रहे हैं। उन्हें उनकी सफलता के लिए वहां की यूनिवर्सिटी द्वारा सम्मानित भी किया जा चुका है। उनके पास 2 रंग वाली मछली है। अपनी सफलता का श्रेय वह अपनी खेती एप को भी मानते हैं, क्योंकि वह अपनी खेती एप के जरिये उन्हें नई-नई तकनीकों के बारे में पता चलता रहता है।

उन्होंने अपने खेत के मॉडल को इस तरह का बना लिया है कि अब वह पूरा वर्ष घर बैठ कर आमदन कमा रहे हैं।

भविष्य की योजना

वह मुर्गी पालन और झींगा मछली पालन का व्यवसाय करने के बारे में भी योजना बना रहे हैं जिससे वह हर एक व्यवसाय में माहिर बन जाए और देसी बीज पर काम करना चाहते हैं।

संदेश

यदि किसान अपनी परंपरा को फिर से पुर्नजीवित करना चाहता है तो उसे जैविक खेती करनी चाहिए जिससे धरती सुरक्षित रहेगी और दूसरा इंसानों की सेहत भी स्वास्थ्य रहेगी।

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अमरजीत शर्मा

(कुदरती खेती)

ऐसा उद्यमी किसान जो प्रकृति के हिसाब से चलकर एक खेत में से लेता है 40 फसलें

प्रकृति हमारे जीवन का वह अभिन्न अंग है, जिसके बिना कोई भी जीव चाहे वह इंसान है, चाहे पक्षी, चाहे जानवर है, हर कोई अपना पूरा जीवन प्रकृति के साथ ही बिताता है और प्रकृति के साथ उसका प्यार पड़ जाता है। पर कुछ लोग यह भूल जाते हैं और प्रकृति के साथ खिलवाड़ करने से नहीं कतराते और इस तरह से खिलवाड़ करते हैं जो सीधा सेहत पर असर करती है।

आज जिस इंसान की कहानी आप पढ़ेंगे यह सभी बातें उस इंसान के दिल और दिमाग में रह गई और फिर शुरू हुआ प्रकृति के साथ उसका प्यार। इस उद्यमी किसान का नाम है “अमरजीत शर्मा” जो गांव चैना, जैतो मंडी, ज़िला फरीदकोट के रहने वाले हैं। लगभग 50 साल के अमरजीत शर्मा का प्रकृति के साथ खेती का सफर 20 साल से ऊपर है। इतना अधिक अनुभव है कि ऐसा लगता है जैसे अपने खेतों से बातें करते हों। साल 1990 से पहले वह नरमे की खेती करते थे, उस समय उन्हें एक एकड़ में 15 से 17 क्विंटल के लगभग फसल प्राप्त हो जाती थी, पर थोड़े समय के बाद उन्हें नरमे की फसल में नुक्सान होना शुरू हो गया और 2 से 3 साल तक ऐसे ही चलता रहा जिसके कारण वह बहुत परेशान हो गए और नरमे की खेती न करने का निर्णय लिया क्योंकि एक तो उन्हें फसल का मूल्य नहीं मिल रहा दूसरा सरकार भी साथ नहीं दे रही थी जिसके कारण वह बहुत दुखी हुए थे।

वह थक कर फिर से परंपरागत खेती करने लग गए, पर उन्होंने शुरू से ही गेहूं की फसल को पहल दी और आजतक धान की फसल नहीं उगाई और ना ही वह उगाना चाहते हैं। उनके पास 4 एकड़ जमीन है जिसमें उन्होंने रासायनिक तरीके से गेहूं और सब्जियों की खेती करनी शुरू कर दी। जब वह रासायनिक खेती कर रहे थे तो उन्हें प्रकृति खेती करने के बारे में सुनने को मिला और उसके बारे में पूरी जानकारी लेने के लिए पता करने लगे।

धीरे-धीरे मुझे प्रकृति खेती के बारे में पता चला- अमरजीत शर्मा

वैसे तो वह बचपन से ही प्रकृति खेती के बारे में सुनते आए थे पर उन्हें यह नहीं पता था कि प्रकृति खेती कैसे की जाती है क्योंकि उस समय सोशल मीडिया नहीं होता था जिससे पता चल सके पर उन्होंने पूरी तरह से जाँच पड़ताल करनी शुरू की।

कहा जाता है कि हिम्मत कभी नहीं हारनी चाहिए क्योंकि यदि हम निराश होकर बैठ जाए तो भगवान भी साथ नहीं देता।

वह कोशिश करते रहे और एक दिन कामयाबी उनकी तरफ आ गई, जब अमरजीत सिंह प्रकृति खेती के बारे में जानकारी लेने के लिए जांच पड़ताल करने लगे तो उन्होंने कोई भी अखबार नहीं छोड़ा जो न पढ़ा हो ताकि कोई जानकारी रह न जाए और एक दिन जब वह अखबार पढ़ रहे थे तो उन्होंने खेती विरासत मिशन संस्था के बारे में छपे आर्टिकल को पढ़ना शुरू किया।

जब मैंने आर्टिकल पढ़ना शुरू किया तो मैं बहुत खुश हुआ- अमरजीत शर्मा

उस आर्टिकल को पढ़ते वक्त उन्होंने देखा कि खेती विरासत मिशन नाम की एक संस्था है, जो किसानों को प्रकृति खेती के बारे में जानकारी प्रदान और ट्रेनिंग भी करवाती है, फिर अमरजीत जी ने खेती विरासत मिशन द्वारा उमेन्द्र दत्त जी के साथ संम्पर्क किया।

उस समय खेती विरासत मिशन वाले गांव-गांव जाकर किसानों को प्रकृति खेती के बारे में ट्रेनिंग देते थे और अभी भी ट्रेनिंग देते हैं। इसका फायदा उठाते हुए अमरजीत ने ट्रेनिंग लेनी शुरू की। बहुत समय तक वह ट्रेनिंग लेते रहे, जब धीरे-धीरे समझ आने लगा तो अपने खेतों में आकर तरीके अपनाने लगे। फसल पर इसका फायदा कुछ समय बाद हुआ जिसे देखकर वह बहुत खुश हुए ।

धीरे-धीरे वह पूरी तरह से प्रकृति खेती करने लगे और प्रकृति खेती को पहल देने लगे। जब वह प्रकृति खेती करके फसल की बढ़िया पैदावार लेने लगे तो उन्होंने सोचा कि इसे ओर बड़े स्तर पर ले कर जाया जाए।

मैंने कुछ ओर नया करने के बारे में सोचा -अमरजीत शर्मा

फिर उन्होंने बहु-फसली विधि अपनाने के बारे में सोचा, पर उनकी यह विधि औरों से अलग थी क्योंकि जो उन्होंने किया वह किसी ने सोचा भी नहीं था।

जिस तरह कहा जाता है “एक पंथ दो काज” को सच साबित करके दिखाया। क्योंकि उन्होंने वृक्ष के नीचे उसे पानी हवा पहुंचाने वाली ओर फसलों की खेती करनी शुरू कर दी, जिसके चलते उन्होंने एक जगह पर कई फसलें उगाई और लाभ कमाया।

जब अमरजीत की तकनीकों के बारे में लोगों को पता चला तो लोग उन्हें मिलने के लिए आने लगे, जिसका फायदा यह हुआ कि एक तो उन्हें पहचान मिल गई, दूसरा वह ओर किसानों को प्रकृति खेती के बारे में जानकारी देने में सफल हुए।

अमरजीत जी ने बहुत मेहनत की, क्योंकि 1990 से अब तक का सफर चाहे मुश्किलों वाला था पर उन्होंने होंसला नहीं छोड़ा और आगे बढ़ते रहे।

जब उन्हें लगा कि वह पूरी तरह से सफल हो गए हैं तो फिर स्थायी रूप से 2005 में प्रकृति खेती के साथ देसी बीजों पर काम करना शुरू कर दिया और आज वह देसी बीज जैसे कद्दू, अल, तोरी, पेठा, भिंडी, खखड़ी, चिब्बड़ अदि भी बेच रहे हैं। किसानों तक इन्हे पहुंचाने लगे, जिससे बाहर से किसी भी किसान को कोई रासायनिक वस्तु न लेकर खानी पड़े, बल्कि खुद अपने खेतों में उगाए और खाएं।

आज अमरजीत शर्मा जी इस मुकाम पर पहुँच गए हैं कि हर कोई उनके गांव को उनके नाम “अमरजीत” के नाम से जानते हैं, उनकी इस कामयाबी के कारण खेती विरासत मिशन और ओर संस्था की तरफ से अमरजीत को कई पुरस्कारों से सम्मानित किया जा चुका है।

भविष्य की योजना

वह प्रकृति खेती के बारे में लोगों को जानकारी प्रदान करवाना चाहते हैं ताकि इस रस्ते पर चल कर खेती को बचाया जा सके।

संदेश

यदि आपके पास जमीन है तो आप रासायनिक नहीं प्रकृति खेती को पहल दें बेशक कम है, लेकिन जितना खाना है वे कम से कम साफ तो खाएं।

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सुरभी गुप्ता त्रेहन

(प्रोसेसिंग और मार्केटिंग)

एक ऐसी महिला जो खुद समस्याओं से लड़कर दूसरों को सेहत के लिए प्रेरित कर रही है

कठिनाइयाँ हमेशा हर इंसान के रास्ते में आती हैं, लेकिन उस समय हारने की जगह हिम्मत दिखाने की जरुरत होती है, जो इंसान को उस रास्ते की तरफ लेकर जाती है जहां से उसे अपनी मंजिल नजदीक लगती है। फिर वह अपनी मंजिल तक पहुँचने के लिए इतनी कोशिश करता है जिससे परमात्मा भी उसका पूरा साथ देता है।

जिसकी बात करने जा रहे हैं उनका नाम सुरभी गुप्ता त्रेहन है, जो लुधियाना ज़िले के रहने वाले हैं। जिन्होंने लोगो की सेहत को स्वास्थ्य करने के बारे सोचा और उसे पूरा करने में सफल भी हुए। उन्होंने ने पहले घर में सोचा कि इसके लिए क्या किया जा सकता है, जिससे लोग पैकेट वाली वस्तुओं का प्रयोग न करें जिसमें मिलावट होती है और उससे लोगों का बचाव किया जा सके। इस कोशिश को जारी रखते वह फिर अपनी मंजिल की तरफ चल पड़े।

कुछ समय पहले वह अपने आप को बहुत कमजोर महसूस कर रहे थे फिर थोड़े समय बाद पता चला कि उन्हें एनीमिया नाम की बीमारी है, जो खून की कमी के कारण होती है। इस दौरान उन्होंने बहुत सी अंग्रेजी दवाइयों का सेवन किया, जितना समय उन्होंने दवाइयों का प्रयोग किया उतना समय तो ठीक रहते और दवाई बंद करने पर फिर से समस्या आनी शुरू हो जाती।

कई साल दवाई खाने के बाद वह सोचने लगे कि अब क्या किया जाए। परिणामस्वरूप यह देखा गया कि उनकी बीमारी का कारण सही खुराक की कमी है या फिर स्प्रे वाली खुराक खाने का असर है।

उन्होंने रिसर्च करनी शुरू कर दी और जाँच की कि रागी और मिल्ट में आयरन और कैल्शियम भरपूर मात्रा में डाला जाता है, इसलिए इसका सेवन करना शुरू कर दिया और इसका असर बीमारी और सेहत पर भी दिखाई देता है।

इसके बारे में उन्होंने तब सोचा जब उनकी सेहत पर फर्क पड़ा और उन्होंने फिर से शुरू करने के बारे में सोचा और कहते हैं

जिस तन लागे वो तन जानें

फिर मैंने अपनी माता जी के साथ बात की और काम करना शुरू कर दिया- सुरभी गुप्ता त्रेहन

पहली बार उन्होंने रागी और विटामिन्स को मिलाकर रागी मिल्ट बनाया, जिससे उनका काम तो शुरू हो गया पर उनके सामने बहुत सी मुश्किलें आई। पहले उन्हें मार्केटिंग के बारे में कुछ भी नहीं पता था कि मार्केटिंग कैसे करनी है और पैसे की कमी के कारण भी बहुत सी मुश्किलें आई। पर उन्होंने हिम्मत नहीं हारी और अपने काम को जारी रखा।

धीरे-धीरे उन्होंने छोटे स्तर पर उत्पाद बनाने शुरू कर दिए पर मार्केटिंग की समस्या अभी भी उनके सामने आ रही थी। पर कहते हैं इंसान को हिम्मत नहीं हारनी चाहिए, जब भी कभी इंसान हिम्मत हारने लग जाए उसे धरती से दिवार पर चढते कीड़ों की तरफ देखना चाहिए, कैसे वह बार बार गिर कर चढ़ने की कोशिश करते रहते हैं और हिम्मत नहीं हारते। इस तरह इंसान को बिना थके मेहनत करते रहना चाहिए।

मुझे मार्केटिंग के बारे में जानकारी नहीं थी- सुरभी गुप्ता त्रेहन

वह मार्केटिंग की समस्या का समाधान करने के लिए रिसर्च करने लगे और इस दौरान उन्होंने बहुत से आर्टिकल, जो कि सेहत से संबंधित होते थे उन्हें बहुत पढ़ा। पढ़ने का फायदा यह हुआ कि उन्हें वहां से मार्केटिंग के बारे जानकारी मिली और सेहत कैसे स्वास्थ्य रखी जाए।

उनके दिमाग में यह बात बैठ गई। उनके लिए लुधियाना शहर में रहना एक सुनहरी मौका बन गया क्योंकि लुधियाना के लोग अपनी सेहत को लेकर बहुत चिंतित रहते हैं और रोज सुबह सैर के लिए पार्क में आते हैं। इस मौके का लाभ उठाने के लिए वह अपने उत्पाद को पार्क में ले जाते और अपने उत्पाद के बारे में लोगों को जानकारी देते।

इसके बारे में वह चिंतित थे पर कहते हैं यदि आप किसी का भला करने की कोशिश करते हैं या भला मांगते हैं तो भगवान भी खुद उनकी मदद करने के लिए आगे आ जाता है। जब उन्होंने लोगों को उत्पाद और उसके फायदे के बारे में बताना शुरू किया तो बहुत से लोग यकीन करने लगे और लोगों ने उत्पाद लेने शुरू कर दिए। इस तरह धीरे-धीरे उनके उत्पाद की मार्केटिंग होनी शुरू हो गई।

जब वह मार्केटिंग कर रहे थे तो उनकी जान पहचान डॉ. रमनदीप सिंह जी के साथ हुई जो पंजाब खेतीबाड़ी यूनिवर्सिटी में खेती व्यापार विषय के प्रोफेसर हैं और अभी तक बहुत से किसानों की सहायता कर चुके हैं और किसानों की सहायता करने से पीछे नहीं हटते। डॉ. रमनदीप सिंह जी के साथ बहुत से प्रगतिशील किसान जुड़ें हैं। फिर डॉ. रमनदीप सिंह जी सुरभी जी को मार्केटिंग के बारे में जानकारी दी और इसके साथ तजिंदर सिंह रिआड़ जी उन्हें किसानों के साथ मिलवाया। जिससे उन्हें पहचान मिली और दिनों दिन मार्केटिंग भी होने लगी।

सुरभी गुप्ता जी ने साथ 2020 में निश्चित तौर पर इस काम को बड़े स्तर पर करना शुरू कर दिया और इसके साथ साथ वह कई तरह के उत्पाद भी बनाने लग पड़े। जिसमें गुड़, काली मिर्च और अशवगंधा डालकर टर्मेरिक सुपर ब्लेंडेड नाम का ड्रिंक मिक्स बनाया, जोकि सेहत के लिए बहुत फायदेमंद है, जिसे बच्चे से लेकर हर कोई इस ड्रिंक का प्रयोग कर सकता है। जिसे मैपिक फ़ूड ब्रांड के तहत बेचना शुरू कर दिया, इसके इलावा वह 5 से 6 तरह के उत्पाद बनाते हैं।

उनके द्वारा तैयार किए जाते उत्पाद-

  • टर्मेरिक सुपर ब्लेंडेड
  • मिल्ट बिस्कुट
  • रागी हेल्थ मिक्स

सभी उत्पाद की पैकिंग, लेबलिंग करने के लिए सुरभी गुप्ता ने से स्टोर बनाया है, जहां सारा काम उनकी देख-रेख में होता है, ड्रिंक बनाने के समय किसी भी केमिकल का प्रयोग नहीं किया जाता और उत्पादों की प्रोसेसिंग के लिए फसलें भी सीधी किसानों से खरीदते हैं।

वह अपने उत्पाद की मार्केटिंग किसान मेले और ओर अलग-अलग खेती के समागमों में जा कर करते हैं। इसके इलावा वह फेसबुक ओर इंस्टाग्राम द्वारा भी अपने उत्पादों का मंडीकरण करते हैं जहां पर उन्हें बहुत प्रतिक्रिया मिलती है।

भविष्य की योजना

वह उत्पादों की मार्केटिंग बड़े स्तर पर करना चाहते हैं और इसके साथ साथ वह इसकी मार्केटिंग ऑनलइन तरीके से करना चाहते हैं । जिससे उनके उत्पादों की विक्री बड़े स्तर पर हो सके, दूसरा लोगों में इसकी महत्ता बढ़ सके।

संदेश

यदि हम बाहर के बने उत्पाद छोड़ कर प्राकृतिक पदार्थ से बनाये गए उत्पादों की तरफ ध्यान दें तो इससे हमारी सेहत भी स्वास्थ्य रहेगी और साथ ही कई बिमारियों से बचाव रहेगा।

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ज्योति गभीर

(प्रोसेसिंग और मार्केटिंग)


एक ऐसी महिला जिसने न केवल अपने लक्ष्यों के बारे में सपना देखा बल्कि उन्हें पाने और सफलता हासिल करने का साहस भी किया – ज्योति गंभीर

ज्योति गंभीर एक ऐसी महिला हैं जिनकी न केवल ख्वाहिश थीं बल्कि उन्हें हासिल करने और सफल होने का साहस भी था।
अगर सही समय पर सही दिशा में निर्देशित किया जाए, तो आपका जुनून आपको ऊंचाइयों तक पहुंचाने में मदद कर सकता है।  हम में से हर एक के लक्ष्य और इच्छाएं होती हैं, लेकिन हर किसी में उसे पाने का साहस नहीं होता है। असफल होने के डर से व्यक्ति अपने लक्ष्यों को प्राप्त करने से रोकता है। फिर भी, कुछ ऐसे भी हैं जो कभी हार नहीं मानते।
ऐसी ही लुधियाना से एक महिला ज्योति गंभीर, जिन्होनें न केवल अपने शोक को एक व्यवसाय में बदलने और अपने लक्ष्यों को प्राप्त करने में सफल रही, बल्कि दूसरों के लिए भी आदर्श बने।
ज्योति गंभीर जी हमेशा खाना पकाने की शौक़ीन थी और यही शौक उन्हें  ख़ुशी देता था, पर यह शौक उनका रसोई तक ही सिमित था फिर उनकी ज़िंदगी में एक ऐसा मोड़ आया जब उन्हें लगा अब समय है जिंदगी को नए सिरे से शुरू करने का।

खाना बनाना मेरा शौक था और मैंने अपने परिवार के लिए घर पर अलग-अलग खाने की चीजें बनाई – ज्योति गंभीर

जैसा कि वे कहते हैं, ”जहाँ चाह होती है, वहाँ राह होती है।” ज्योति की बेटी lactose intolerance से पीड़ित थी और बाहर का खाना खाने के बाद अक्सर बीमार पड़ जाती थी। उसकी बेटी की बीमारी ने उन्हें मजबूत बनाया और उन्होंने अपनी बेटी के लिए ताजा बिस्कुट पकाना शुरू कर दिया, क्योंकि उसके बिस्कुट ग्लूटन और स्वादिष्ट थे। जोकि उनकी बेटी और परिवार ने खूब पसंद किये और उनकी तारीफ भी की। वह अपना खुद का काम शुरू करने के लिए प्रेरित हुई। उन्होंने अपने परिवार और दोस्तों को देने के लिए बिस्कुट बनाये। उनकी तरफ से बढ़िया प्रोत्साहन मिलने के बाद उन्होंने खुद में आशा की किरण जगाई और आगे बढ़ती गई। उसने प्रेरित महसूस किया और सोचा कि वह उन लोगों के लिए गुणवत्ता वाले बिस्कुट और बेकरी आइटम प्रदान कर सकती है जो ग्लूटेन एलर्जी, lactose intolerance से पीड़ित हैं। और जो ऑर्गनिक खाना पसंद करते हैं।
मैं अपनी नई शुरुआत को लेकर परिवार की मेरे प्रति प्रतिक्रिया के लिए बहुत उत्तेजित थी। उनके इस फैसले को उनके पति ने पूरा समर्थन दिया। समर्थन मिलने के बाद वह सातवें आसमान पर थी। वह इसके बारे में आशावादी थी। उसने सोचा कि उसने सभी चुनौतियों को पार कर लिया है और वह देख सकती है कि उसका रास्ता साफ हो गया है।
फिर उन्होंने खाना बनाने की ट्रेनिंग लेने के बारे में सोचा। जैसे ही उन्होंने अपनी रिसर्च शुरू की, उन्होंने अपने उत्पादों को “डिलीशियस बाइट्स” नाम से लेबल करना शुरू किया।  लुधियाना शहर में रहने के कारण उन्हें पंजाब कृषि विश्वविद्यालय (पी.ए.यू.)  से ट्रेनिंग की। उन्होंने पी.ए.यू. में अपनी ट्रेनिंग शुरू करने में एक सेकंड भी बर्बाद नहीं किया।

मैंने पी.ए.यू. में अपना प्रशिक्षण शुरू किया और फिर, बाद में, केक और कुकीज़ के लिए लिए घर से काम किया। —ज्योति गंभीर

अपना कोर्स पूरा करने के बाद, उन्होनें दिन में कुछ घंटे काम करना शुरू कर दिया। इस बीच, उनकी मुलाकात पी.ए.यू. के मार्केटिंग हेड डॉ. रमनदीप सिंह से हुई, जिन्होंने सफलता पाने में कई किसानों का मार्गदर्शन किया है और हमेशा उनकी सहायता करने के लिए तैयार रहते हैं। डॉ. सिंह,  ज्योति जी के काम से बहुत प्रभावित हुए, जब उन्होंने उन्हें अपनी खुद के लिए कुछ शुरू करने की उनकी आजीवन खोज के बारे में बताया।  उन्होनें उनमें दृढ़ संकल्प देखा। इसलिए, फिर उन्होंने ज्योति जी को पी.ए.यू. की सोशल मीडिया टीम से मिलवाया और उन्हें स्ट्रैटेजिक मार्केटिंग आइडिया दिए।
डॉ. रमनदीप ने तब अपनी खेती ऐप पर ज्योति जी की पहल को बढ़ावा देने पर विचार किया और फिर अपनी खेती टीम ने ज्योति जी की कहानी को ओर लोगों तक  पहुंचाया।
ज्योति जी के पास इस पर अनगिनत प्रतिक्रियाएँ थीं, और उन्हें जल्द ही पूरे शहर से ग्राहकों से फोन आने लगे जो ऑर्डर देना चाहते थे। इस बीच पंजाब कृषि विश्वविद्यालय के स्रोतों का उपयोग करते हुए, उन्होंने मार्केटिंग का अधिक ज्ञान प्राप्त करने के साथ ही अपने व्यवसाय का विस्तार करना शुरू कर दिया। कुछ हफ्तों के बाद, जब केक और कुकीज बनाने का उनका व्यवसाय अच्छी तरह से स्थापित हो गया, तो उन्होंने ओर अधिक उत्पादों का उत्पादन करने का निर्णय लिया।
जैसे ही डिलीशियस बाइट्स ने सफलता का रास्ता पकड़ा, ज्योति जी ने अपने उत्पादों को पैकेज और लेबल करना शुरू कर दिया।

वह इन उत्पादों में से 14-15 विभिन्न प्रकार के बेकरी उत्पाद बनाती है:

  • बिस्कुट
  • केक
  • ब्रेड
  • गुड़
  • गन्ना
  • जैम
  • स्क्वैश
बिस्कुट बनाने के लिए आवश्यक सामग्री पूरी तरह से जैविक होती है। अन्य सामान जिनमें गुड़ शामिल हैं, वे हैं केक, ब्रेड और कई तरह के बिस्कुट। उसने एक कदम आगे बढ़ाया, फिर अन्य जैविक खेती करने वाले किसानों के साथ सम्पर्क बनाया और उनसे सीधे तौरआवश्यक सामग्री खरीदना शुरू कर दिया।
डॉ. रमनदीप ने ज्योति जी को अपना करियर बनाने में सहायता करके यह सब संभव किया।
वर्तमान में, ज्योति जी इंस्टाग्राम और फेसबुक पेजों पर ‘डिलिशियस बाइट्स’ की मार्केटिंग और प्रचार का प्रबंधन खुद करती हैं।
2019 में, उन्हें परिरक्षक मुक्त उत्पादों की एक बड़ी पहल करने के लिए राष्ट्रीय कृषि विकास योजना-कृषि और संबद्ध क्षेत्र कायाकल्प (RKVY-RAFTAAR) के लिए लाभकारी दृष्टिकोण से 16 लाख रूपये से पुरस्कृत किया गया था।
ज्योति गंभीर 2021 में सेलिब्रेटिंग फार्मर्स एज इंटरनेशनल (C.F.E.I.) प्राइवेट लिमिटेड के साथ पार्टनर बन गए,  जहां वह कई किसानों को प्राकृतिक रूप से उगाए गए गन्ने की प्रोसेसिंग में गन्ना जैम और क्षारीय गन्ने के रस की चाय जैसे स्वस्थ उत्पादों में सहायता कर रही है। सी.एफ.ई.आई. कंपनी के माध्यम से पहले ही दो किसान हित समूह (एफ.आई.जी.) स्थापित कर चुके हैं,   उनके प्रौद्योगिकी भागीदार एस.बी.आई. कोयंबटूर और आई.आई.टी मुंबई की सहायता से इस साल के अंत तक 100 एफ.आई.जी. स्थापित करने का उनका लक्षण है।  ये किसान समूह समर्थन, शिक्षित और उन्हें अपने उत्पादों की मार्केटिंग करने में मदद करते हैं।

“वहां न जाए जहाँ रास्ता ले जा सकता है।” “बल्कि वहाँ जाओ जहाँ कोई रास्ता नहीं है और एक निशान छोड़ दो।”

हम सभी के सपने होते हैं, लेकिन कई उन्हें पूरा नहीं कर पाते। श्रीमती ज्योति गंभीर जी डिलीशियस बाइट्स की गर्वित ओनर हैं और C.F.E.I के साथ साझेदारी के तहत महाराष्ट्र में अपना पहला आउटलेट खोलकर अपने आजीवन सपने की खोज को पूरा करने में कामयाब रही है। वह इस साल अपने कारोबार का ओर विस्तार करने की योजना बना रही है और अपने इलाके लुधियाना में एक और आउटलेट खोल रही है।
यह सब एक होम बेकरी, बेकिंग केक और कुकीज और ऑर्डर देने के साथ शुरू हुआ। उसने धीरे-धीरे लोगों की विभिन्न प्रकार की पसंद की चीजों के बारे में जाना और शाकाहारी और ग्लूटन मुक्त उत्पादों को बनाना शुरू कर दिया। उन्होंने प्रति दिन 15 यूनिट बेचने से लेकर प्रतिदिन 1,000 यूनिट बेचे और अपना खुद का ब्रांड लॉन्च किया।
जैसा वे कहते हैं, “सपने तब तक काम नहीं करते जब तक आप नहीं करते।”
2021 में, भारत सरकार ने दुबई एक्सपो इंडिया पवेलियन में अपने उत्पादों का प्रदर्शन करने के लिए पंजाब की एक प्रिजर्वेटिव और केमिकल-फ्री बेकरी, डिलीशियस बाइट्स,को चुना।

भविष्य की योजना

वह अपने व्यवसाय को इस हद तक बढ़ाना चाहती है कि वह एक छत के नीचे अपने उत्पादों का पैकेज और मर्केटिंग करने में सक्षम हो।

संदेश

हर महिला को अपने सपनों को पूरा करना चाहिए अगर व्यक्ति पूरी तरह से दृढ़ संकल्प और जुनूनी है तो उन लक्ष्यों को पूरा करने की कोई सीमा नहीं है।

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रमन सलारिया

(ड्रैगन फ्रूट)

एक ऐसा किसान जो सफल इंजीनियर के साथ-साथ सफल किसान बना

खेती का क्षेत्र बहुत ही विशाल है, हजारों तरह की फसलें उगाई जा सकती है, पर जरुरत होती है सही तरीके की और दृढ़ निश्चय की, क्योंकि सफल हुए किसानों का मानना है कि सफलता भी उनको ही मिलती है जिनके इरादे मजबूत होते हैं।

ये कहानी एक ऐसे किसान की है जिसकी पहचान और शान ऐसे ही फल के कारण बनी। जिस फल के बारे में उन्होंने कभी भी नहीं सुना था। इस किसान का नाम है “रमन सलारिया” जो कि जिला पठानकोट के गांव जंगल का निवासी है। रमन सलारिया पिछले 15 सालों से दिल्ली मेट्रो स्टेशन में सिविल इंजीनयर के तौर 10 लाख रुपए सलाना आमदन देने वाली आराम से बैठकर खाने वाली नौकरी कर रहे थे। लेकिन उनकी जिंदगी में ऐसा बदलाव आया कि आज वह नौकरी छोड़ कर खेती कर रहे हैं। खेती भी उस फसल की कर रहे हैं जो केवल उन्होंने मार्किट और पार्टियों में देखा था।

वह फल मेरी आँखों के आगे आता रहा और यहां तक कि मुझे फल का नाम भी पता नहीं था- रमन सलारिया

एक दिन जब वे घर वापिस आए तो उस फल ने उन्हें इतना प्रभावित किया और दिमाग में आया कि इस फल के बारे में पता लगाना ही है। फिर यहां वहां से पता किया तो पता चला कि इस फल को “ड्रैगन फ्रूट” कहते हैं और अमरीका में इस फल की काश्त की जाती है और हमारे देश में बाहर देशों से इसके पौधे आते हैं।

फिर भी उनका मन शांत न हुआ और उन्होंने ओर जानकारी के लिए रिसर्च करनी शुरू कर दी। फिर भी कुछ खास जानकारी प्राप्त न हुई कि पौधे बाहर देशों से कहाँ आते हैं, कहाँ तैयार किये जाते हैं और एक पौधा कितने रुपए का है।

एक दिन वे अपने दोस्त के साथ बात कर रहे थे और बातें करते-करते वे अपने मित्र को ड्रैगन फ्रूट के बारे में बताने लगे, एक ड्रैगन फ्रूट नाम का फल है, जिस के बारे में कुछ पता नहीं चल रहा,तो उनके दोस्त ने बोला अपने सही समय पर बात की है, जो पहले से ही इस फल की जानकारी लेने के लिए रिसर्च कर रहे थे।

उनके मित्र विजय शर्मा जो पूसा में विज्ञानी है और बागवानी के ऊपर रिसर्च करते हैं। फिर उन्होंने मिलकर रिसर्च करनी शुरू कर दी। रिसर्च करने के दौरान दोनों को पता चला कि इसकी खेती गुजरात के ब्रोच शहर में होती है और वहां फार्म भी बने हुए हैं।

हम दोनों गुजरात चले गए और कई फार्म पर जाकर देखा और समझा- रमन सलारिया

सब कुछ देखने और समझने के बाद रमन सलारिया ने 1000 पौधे मंगवा लिए। जब कि उनके पूर्वज शुरू से ही परंपरागत खेती ही कर रहे हैं पर रमन जी ने कुछ अलग करने के बारे में सोचा। पौधे मंगवाने के बाद उन्होंने अपने गांव जंगल में 4 कनाल जगह पर ड्रैगन फ्रूट के पौधे लगा दिए और नौकरी छोड़ दी और खेती में उन्होंने हमेशा जैविक खेती को ही महत्त्व दिया।

सबसे मुश्किल समय तब था जब गांव वालों के लिए मैं एक मज़ाक बन गया था- रमन सलारिया

2019 में वे स्थायी रूप से ड्रैगन फ्रूट की खेती करने लगे। जब उन्होंने पौधे लगाए तो गांव वालों ने उनका बहुत मजाक बनाया था कि नौकरी छोड़ कर किस काम को अपनाने लगा और जो कभी मिट्टी के नजदीक भी नहीं गया वे आज मिट्टी में मिट्टी हो रहा है, पर रमन सलारिया ने लोगों की परवाह किए बिना खेती करते रहें।

ड्रैगन फ्रूट का समय फरवरी से मार्च के बीच होता है और पूरे एक साल बाद फल लगने शुरू हो जाते हैं। आजकल भारत में इसकी मांग इतनी बढ़ चुकी है कि हर कोई इसे अपने क्षेत्र की पहचान बनाना चाहता है।

जब फल पक कर तैयार हुआ, जिनके लिए मजाक बना था आज वे तारीफ़ करते नहीं थकते- रमन सलारिया

फल पकने के बाद फल की मांग इतनी बढ़ गई कि फल बाजार में जाने के लिए बचा ही नहीं। उन्होंने इस फल के बारे में सिर्फ अपने मित्रों और रिश्तेदारों को बताया था, पर फल की मांग को देखते हुए उनकी मेहनत का मूल्य पड़ गया।

मैं बहुत खुश हुआ, मेरी ख़ुशी का कोई ठिकाना नहीं था क्योंकि बिना बाजार गए फल का मूल्य पड़ गया- रमन सलारिया

उस समय उनका फल 200 से 500 तक बिक रहा था हालांकि ड्रैगन फ्रूट की फसल पूरी तरह तैयार होने को 3 साल का समय लग जाता है। वह इसके साथ हल्दी की खेती भी कर रहें और पपीते के पौधे भी लगाए हैं।

आज वह ड्रैगन फ्रूट की खेती कर बहुत मुनाफा कमा रहे हैं और कामयाब भी हो रहे हैं। खास बात यह है कि उनके गांव जंगल को जहां पहले शहीद कैप्टन गुरबचन सिंह सलारिया जी के नाम से जाना जाता था, जिन्होंने देश के लिए 1961 की जंग में शहीदी प्राप्त की थी और धर्मवीर चक्क्र से उन्हें सन्मानित किया गया था। वहां अब रमन सलारिया जी के कारण गांव को जाना जाता है जिन्होंने ड्रैगन फ्रूट की खेती कर गांव का नाम रोशन किया।

यदि इंसान को अपने आप पर भरोसा है तो वह जिंदगी में कुछ भी हासिल कर सकता है

भविष्य की योजना

वह ड्रैगन फ्रूट की खेती और मार्केटिंग बड़े स्तर पर करना चाहते हैं। वह साथ साथ हल्दी की खेती की तरफ भी ध्यान दे रहे हैं ताकि हल्दी की प्रोसेसिंग भी की जाए। इसके साथ ही वह अपने ब्रांड का नाम रजिस्टर करवाना चाहते हैं, जिससे मार्केटिंग में ओर बड़े स्तर पर पहचान बन सके। बाकि बात यह है कि खेती लाभदायक ही होती है यदि सही तरीके से की जाए।

संदेश

यदि कोई ड्रैगन फ्रूट की खेती करना चाहता है तो सबसे पहले उसे अच्छी तरह से रिसर्च करनी चाहिए और अपनी इलाके और मार्केटिंग के बारे में पूरी जानकारी लेने के बाद ही शुरू करनी चाहिए, क्योंकि अधूरी जानकारी लेकर शुरू कर तो लिया जाता जाता है पर वे सफल न होने पर दुःख भी होता, क्योंकि शुरुआत में सफलता न मिले तो आगे काम करनी की इच्छा नहीं रहती।

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नवजोत सिंह शेरगिल

(स्ट्रॉबेरी की खेती)

विदेश से वापिस आकर पंजाब में स्ट्रॉबेरी की खेती के साथ नाम बनाने वाला नौजवान किसान

जिंदगी में हर एक इंसान किसी भी क्षेत्र में प्रगति और कुछ अलग करने के बारे में सोचता है और यह विविधता इंसान को धरती से उठाकर आसमान तक ले जाती है। यदि बात करें विविधता की तो यह बात खेती के क्षेत्र में भी लागू होती है क्योंकि कामयाब हुए किसान की सफलता का सेहरा पारंपरिक तरीके का प्रयोग न कर कुछ नया करने की भावना ही रही है।

यह कहानी एक ऐसे ही नौजवान की है, जिसने पारंपरिक खेती को न अपना कर ऐसी खेती करने के बारे में सोचा जिसके बारे में बहुत कम किसानों को जानकारी थी। इस नौजवान किसान का नाम है नवजोत सिंह शेरगिल जो पटियाला ज़िले के गांव मजाल खुर्द का निवासी है, नवजोत सिंह द्वारा अपनाई गई खेती विविधता ऐसी मिसाल बनकर किसानों के सामने आई कि सभी के मनों में एक अलग अस्तित्व बन गया।

मेरा हमेशा से सपना था जब कभी भी खेती के क्षेत्र जाऊ तो कुछ ऐसा करूं कि लोग मुझे मेरे नाम से नहीं बल्कि मेरे काम से जानें, इसलिए मैंने कुछ नया करने का निर्णय किया -नवजोत सिंह शेरगिल

नवजोत सिंह शेरगिल का जन्म और पालन-पोषण UK में हुआ है, लेकिन जैसे-जैसे वह बड़ा हुआ, उन्हें अपने अंदर एक कमी महसूस होने लगी, जोकि उसकी मातृभूमि की मिट्टी की खुशबू के साथ थी। इस कमी को पूरा करने के लिए, वह पंजाब, भारत लौट आया। फिर उन्होंने आकर पहले MBA की पढ़ाई पूरी की और अपनी पढ़ाई पूरी करने के बाद निर्णय किया कि कृषि को बड़े पैमाने पर किया जाए, उन्होंने कृषि से संबंधित व्यवसाय शुरू करने के उद्देश्य से ईमू फार्मिंग की खेती करनी शुरू कर दी, लेकिन पंजाब में ईमू फार्मिंग का मंडीकरण न होने के कारण, वह इस पेशे में सफल नहीं हुए, असफल होने पर वह निराश भी हुए, लेकिन नवजोत सिंह शेरगिल ने हार नहीं मानी, इस समय नवजोत सिंह शेरगिल को उनके भाई गुरप्रीत सिंह शेरगिल ने प्रोत्साहित किया, जो एक प्रगतिशील किसान हैं।जिन्हें पंजाब में फूलों के शहनशाह के नाम के साथ जाना जाता है, जिन्होंने पंजाब में फूलों की खेती कर खेतीबाड़ी में क्रांति लेकर आए थे। जो कोई भी सोच नहीं सकता था उन्होंने वह साबित कर दिया था।

नवजोत सिंह शेरगिल ने अपने भाई के सुझावों का पालन करते हुए स्ट्रॉबेरी की खेती करने के बारे में सोचा, फिर स्ट्रॉबेरी की खेती के बारे में जानकारी इकट्ठा करना शुरू किया। सोशल मीडिया के माध्यम से जानकारी प्राप्त करने के बाद, उन्होंने फिर वास्तविक रूप से करने के बारे में सोचा, क्योंकि खेती किसी भी तरह की हो, उसे खुद किए बिना अनुभव नहीं होता।

मैं वास्तविक देखने और अधिक जानकारी लेने के लिए पुणे, महाराष्ट्र गया, वहां जाकर मैंने बहुत से फार्म पर गया और बहुत से किसानों को मिलकर आया -नवजोत सिंह शेरगिल

वहाँ उन्होंने स्ट्रॉबेरी की खेती के बारे में बहुत कुछ सीखा, जैसे स्ट्रॉबेरी के विकास और फलने के लिए आवश्यक तापमान, एक पौधे से दूसरे पौधे कैसे उगाए जाते हैं, और इसका मुख्य पौधा कौन-सा है और यह भारत में कहाँ से आता है।

हमारे भारत में, मदर प्लांट कैलिफ़ोर्निया से आता है और फिर उस पौधे से दूसरे पौधे तैयार किए जाते हैं -नवजोत सिंह शेरगिल

पुणे से आकर, उन्होंने पंजाब में स्ट्रॉबेरी के मुख्य पहलुओं पर पूरी तरह से जाँच पड़ताल की। जांच के बाद, वे फिर से पुणे से 14,000 से 15,000 पौधे लाए और आधे एकड़ में लगाए थे, जिसकी कुल लागत 2 से 3 लाख रुपये आई थी, उन्हें यह काम करने में ख़ुशी तो थी पर डर इस बात का था कि फिर मंडीकरण की समस्या न आ जाए, लेकिन जब फल पक कर तैयार हुआ और मंडियों में ले जाया गया, तो वहां फलों की मांग को देखकर और बहुत अधिक मात्रा में फल की बिक्री हुई और जो उनके लिए एक समस्या की तरह थी वह अब ख़ुशी में तब्दील हो गई।

मैं बहुत खुश हुआ कि मेरी ख़ुशी का कोई ठिकाना नहीं था क्योंकि जो लोग मुझे स्ट्रॉबेरी की खेती करने से रोकते थे, आज वे मेरी तारीफ़ करते नहीं थकते, क्योंकि इस पेशे के लिए पैसा और समय दोनों चाहिए -नवजोत सिंह शेरगिल

जब स्ट्रॉबेरी की खेती सफलतापूर्वक की जा रही थी, तो नवजोत सिंह शेरगिल ने देखा कि जब फल पकते थे, तो उनमें से कुछ छोटे रह जाते थे, जिससे बाजार में फलों की कीमत बहुत कम हो जाती थी। इसलिए इसका समाधान करना बहुत महत्वपूर्ण था।

एक कहावत है, जब कोई व्यक्ति गिर कर उठता है, तो वह ऊंची मंजिलों पर सफलता प्राप्त करता है।

बाद में उन्होंने सोचा कि क्यों न इसकी प्रोसेसिंग की जाए, फिर उन्होंने छोटे फलों की प्रोसेसिंग करनी शुरू की।

प्रोसेसिंग से पहले मैंने कृषि विज्ञान केंद्र पटियाला से ट्रेनिंग लेकर फिर मैंने 2 से 3 उत्पाद बनाना शुरू किया -नवजोत सिंह शेरगिल

जब फल पक कर तैयार हो जाते थे तो उन्हें तोड़ने के लिए मजदूर की जरुरत होती थी, फिर उन्होंने गांव के लड़के और लड़कियों को खेतों में फल की तुड़ाई और छांट छंटाई के लिए रखा। जिससे उनके गांव के लड़के और लड़कियों को रोजगार मिल गया। जिसमें वे छोटे फलों को अलग करते हैं और उन्हें साफ करते हैं और फिर फलों की प्रोसेसिंग करते हैं।फिर उन्होंने सोचा कि क्यों न उत्पाद बनाने के लिए एक छोटे पैमाने की मशीन स्थापित की जाए, मशीन को स्थापित करने के बाद उन्होंने स्ट्रॉबेरी उत्पाद बनाना शुरू किया। उनके ब्रांड का नाम Coco-Orchard रखा गया।

वे जो उत्पाद बनाते हैं, वे इस प्रकार हैं-

  • स्ट्रॉबेरी क्रश
  • स्ट्रॉबेरी जैम
  • स्ट्रॉबेरी की बर्फी।

वे प्रोसेसिंग से लेकर पैकिंग तक का काम स्वयं देखते हैं। उन्होंने पैकिंग के लिए कांच की बोतलों में जैम और क्रश पैक किए हैं और जैसा कि स्ट्रॉबेरी पंजाब के बाहर किसी अन्य राज्य में जाती हैं वे उसे गत्ते के डिब्बे में पैक करते हैं, जो 2 किलो की ट्रे है उनका रेट कम से कम 500 रुपये से 600 रुपये है। स्ट्रॉबेरी के 2 किलो के पैक में 250-250 ग्राम पनट बने होते हैं।

मैंने फिर से किसान मेलों में जाना शुरू किया और स्टाल लगाना शुरू कर दिया -नवजोत सिंह शेरगिल

किसान मेलों में स्टाल लगाने के साथ, उनकी मार्केटिंग में इतनी अच्छी तरह से पहचान हो गई कि वे आगामी मेलों में उनका इंतजार करने लगे। मेलों के दौरान, उन्होंने कृषि विभाग के एक डॉक्टर से मुलाकात की, जो उनके लिए बहुत कीमती क्षण था।जब कृषि विभाग के एक डॉक्टर ने उनसे जैम के बारे में पूछा कि लोगों को तो स्ट्रॉबेरी के बारे में अधिक जानकारी नहीं हैं, पर आपने तो इसका जैम भी तैयार कर दिया है। उनका फेसबुक पर Coco-Orchard नाम से एक पेज भी है, जहां वे सोशल मीडिया के जरिए लोगों को स्ट्रॉबेरी और स्ट्रॉबेरी उत्पादों के बारे में जानकारी देते हैं।

आज नवजोत सिंह शेरगिल एक ऐसे मुकाम पर पहुंच गए हैं, जहां वे मार्केटिंग में इतने मशहूर हो गए हैं कि उनकी स्ट्रॉबेरी और उनके उत्पादों की बिक्री हर दिन इतनी बढ़ गई है कि उन्हें अपने उत्पादों या स्ट्रॉबेरी को के लिए मार्केटिंग में जाने की जरूरत नहीं पड़ती।

भविष्य की योजना

वे अपने स्ट्रॉबेरी व्यवसाय को बड़े पैमाने पर लेकर जाना चाहते हैं और 4 एकड़ में खेती करना चाहते हैं। वे दुबई में मध्य पूर्व में अपने उत्पाद को पहुंचाने की सोच रहे हैं, क्योंकि स्ट्रॉबेरी की मांग विदेशों में अधिक हैं।

संदेश

“सभी किसान जो स्ट्रॉबेरी की खेती करना चाहते हैं, उन्हें पहले स्ट्रॉबेरी के बारे में अच्छी तरह से जानकारी होनी चाहिए और फिर इसकी खेती करनी चाहिए, क्योंकि स्ट्रॉबेरी की खेती निस्संदेह महंगी है और इसलिए समय लगता है। ऐसा इसलिए है क्योंकि यह एक ऐसी फसल है जिसे बिना देखभाल के नहीं उगाया जा सकता है।”

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परमजीत सिंह

(देसी बीज और आर्गेनिक खेती)

एक ऐसे किसान जिन्होंने कम आयु में ही ऊँची मंज़िलों पर जीत हासिल की

प्रकृति के अनुसार जीना अपने आप में एक बहुत बड़ी बात है। आज हम जो कुछ भी कर रहे हैं, खा रहे हैं या पी रहे हैं वह सभी प्रकृति की देन है। इसको ऐसे ही बनाई रखना हमारे ही ऊपर निर्भर करता है। यदि प्रकृति के अनुसार चलते है तो कभी भी बीमार नहीं होंगें।

ऐसी ही मिसाल है एक किसान परमजीत सिंह, जो लुधियाना के नज़दीक के गाँव कटहारी में रहते हैं, जो प्रकृति की तरफ से मिले उपहार को संभाल कर रख रहे हैं और बाखूबी निभा भी रहे हैं। “कहते हैं कि प्रकृति के साथ प्यार होना हर किसी के लिए संभव नहीं है, यदि प्रकृति आपको कुछ प्रदान कर रही है तो उसको वैसे ही प्रयोग करें जैसे प्रकृति चाहती है।

प्रकृति के साथ उनका इतना स्नेह बढ़ गया कि उन्होंने नौकरी छोड़कर प्रकृति की तरफ से मिली दात को समझा और उसका सही तरीके से इस्तेमाल करते हुए, बहुत से लोगों का बी.पी, शूगर आदि जैसी बहुत सी बीमारियों को दूर किया।

जब मनुष्य का मन एक काम करके खुश नहीं होता तो मनुष्य अपने काम को हास्यपूर्ण या फिर मनोरंजन तरीके के साथ करना शुरू कर देता है, ताकि उसको ख़ुशी हासिल हो। इस बात को ध्यान में रखते हुए परमजीत सिंह ने बहुत से कोर्स करने के बाद देसी बीजों का काम करना शुरू किया। देसी बीज जैसे रागी, कंगनी का काम करने से उनकी जिंदगी में इतने बदलाव आए कि आज वह सभी के लिए प्रेरणा का स्रोत बन गए हैं।

जब में मिलट रिसर्च सेंटर में काम कर रहा था तो मुझे वहां रागी, कंगनी के देसी बीजों के बारे में पता चला और मैंने इनके ऊपर रिसर्च करनी शुरू कर दी -परमजीत सिंह

पारंभिक जानकारी मिलने के बाद, उन्होंने तजुर्बे के तौर पर सबसे पहले खेतों में रागी, कंगनी के बीज लगाए थे। यह काम उनके दिल को इतना छुआ कि उन्होंने देसी बीजों की तरफ ही अपना ध्यान केंद्रित किया। फिर देसी बीजों के काम के ज़रिये वह अपना रोज़गार बढ़ाने लगे और अपने स्तर पर काम करना शुरू कर दिया।

जैसे-जैसे काम बढ़ता गया, हमने मेलों में जाना शुरू कर दिया, जिसके कारण हमें अधिक लोग जानने लगे -परमजीत सिंह

इस काम में उनका साथ उनके मित्र दे रहे हैं जो एक ग्रुप बनाकर काम करते हैं और मार्केटिंग करने के लिए विभिन्न स्थानों पर जाते हैं। उनके गाँव की तरफ एक रोड आते राड़ा साहिब गुरुद्वारे के पास उनकी 3 एकड़ ज़मीन है, जहां वह साथ-साथ सब्जियों की पनीरी की तरफ भी हाथ बढ़ा रहे हैं। वहां ही उनका पन्नू नेचुरल फार्म नाम का एक फार्म भी है, जहां किसान उनके पास देसी बीज के साथ-साथ सब्जियों की पनीरी भी लेकर जाते हैं।

उनके सामने सबसे बड़ी मुश्किल तब पैदा हुई जब उनको देसी बीज और जैविक खेती के बारे में लोगों को समझाना पड़ता था, उनमें कुछ लोग ऐसे होते थे जो गांव वाले थे, वह कहते थे कि “तुम आए हो हमें समझाने, हम इतने सालों से खेती कर रहे हैं क्या हमको पता नहीं”। इतनी फटकार और मुश्किलों के बावजूद भी वह पीछे नहीं हुए बल्कि अपने काम को आगे बढ़ाते गए और मार्कीटिंग करते रहे।

जब उन्होंने काम शुरू किया था तब वे बीज पंजाब के बाहर से लेकर आए थे। जिसमे वह रागी का एक पौधा लेकर आए थे और आज वही पौधा एकड़ के हिसाब से लगा हुआ है. वे ट्रेनिंग के लिए हैदराबाद गए थे और ट्रेनिंग लेने के बाद वापिस पंजाब आकर बीजों पर काम करना शुरू कर दिया। बीजो पर रिसर्च करने के बाद फिर उन्होंने नए बीज तैयार किये और उत्पाद बनाने शुरू कर दिए। वह उत्पाद बनाने से लेकर पैकिंग तक का पूरा काम स्वंय ही देखते हैं। जहां वह उत्पाद बनाने का पूरा काम करते हैं वहां ही उनके एक मित्र ने अपनी मशीन लगाई हुई है। उन्होंने अपने डिज़ाइन भी तैयार किए हुए है।

हमने जब उप्ताद बनाने शुरू किए तो सभी ने मिलकर एक ग्रुप बना लिया और ATMA के ज़रिये उसको रजिस्टर करवा लिया -परमजीत सिंह

फिर जब उन्होंने उत्पाद बनाने शुरू किए, जिसमें ग्राहकों की मांग के अनुसार सबसे ज्यादा बिकने वाले उत्पाद जैसे बाजरे के बिस्कुट, बाजरे का दलिया और बाजरे का आटा आदि बनाए जाने लगे।

उनकी तरफ से बनाये जाने वाले उत्पाद-

  • बाजरे का आटा
  • बाजरे के बिस्कुट
  • बाजरे का दलिया
  • रागी के बिस्कुट
  • हरी कंगनी के बिस्कुट
  • चुकंदर का पाउडर
  • देसी शक़्कर
  • देसी गुड़
  • सुहांजना का पाउडर
  • देसी गेहूं की सेवइयां आदि।

जहां वह आज देसी बीजों के बनाये उत्पाद बेचने और खेतों में बीज से लेकर फसल तक की देखभाल स्वंय ही कर रहे हैं क्योंकि वह कहते हैं “अपने हाथ से किए हुए काम से जितना सुकून मिलता है वह अन्य किसी पर निर्भर होकर नहीं मिलता”। यदि वह चाहते तो घर बैठकर इसकी मार्केटिंग कर सकते हैं, बेशक उनकी आमदन भी बहुत हो जाती है पर वह स्वंय हाथ से काम करके सुकून से जिंदगी बिताने में विश्वास रखते हैं।

परमजीत सिंह जी आज सबके लिए एक ऐसे व्यक्तित्व बन चुके हैं, आज कल लोग उनके पास देसी बीज के बारे में पूरी जानकारी लेने आते हैं और वह लोगों को देसी बीज के साथ-साथ जैविक खेती की तरफ भी ज़ोर दे रहे हैं। आज वह ऐसे मुकाम पर पहुँच चुके हैं जहां पर लोग उनको उनके नाम से नहीं बल्कि काम से जानते हैं।

परमजीत सिंह जी के काम और मेहनत के फलस्वरूप उनको यूनिवर्सिटी की तरफ से यंग फार्मर, बढ़िया सिखलाई देने के तौर पर, ज़िला स्तर पुरस्कार और अन्य यूनिवर्सिटी की तरफ से कई पुरस्कार से निवाजा गया है। उनको बहुत सी प्रदर्शनियों में हिस्सा लेने के अवसर मिलते रहते हैं और जिनमें से सबसे प्रचलित, दक्षिण भारत में सन्मानित किया गया, क्योंकि पूरे पंजाब में परमजीत सिंह जी ने ही देसी बीजों पर ही काम करना शुरू किया और देसी बीजों की जानकारी दुनिया के सामने लेकर आए।

मैंने कभी भी रासायनिक खाद का प्रयोग नहीं किया, केवल कुदरती खाद जो अपने आप फसल को धरती में से मिल जाती है, वह सोने पर सुहागा का काम करती है -परमजीत सिंह

उनकी इस कड़ी मेहनत ने यह साबित किया है कि प्रकृति की तरफ से मिली चीज़ को कभी व्यर्थ न जाने दें, बल्कि उस को संभालकर रखें। यदि आप बिना दवाई वाला खाना खाते है तो कभी दवा खाने की जरूरत नहीं पड़ेगी। क्योंकि प्रकृति बिना किसी मूल्य के प्रदान करती है। जो भी लोग उनसे सामान लेकर जाते हैं या फिर वह उनके द्वारा बनाये गए सामान को दवा के रूप में खाते हैं तो कई लोगों की बी पी, शुगर जैसी बीमारियों से छुटकारा मिल चुका है।

भविष्य की योजना

परमजीत सिंह जी भविष्य में अपने रोज़गार को बड़े स्तर पर लेकर जाना चाहते हैं और उत्पाद तैयार करने वाली प्रोसेसिंग मशीनरी लगाना चाहते हैं। जितना हो सके वह लोगों को जैविक खेती के बारे जागरूक करवाना चाहते हैं। ताकि प्रकृति के साथ रिश्ता भी जुड़ जाए और सेहत की तरफ से भी तंदरुस्त हो।

संदेश

खेतीबाड़ी में सफलता हासिल करने के लिए हमें जैविक खेती की तरफ ध्यान देने की जरूरत है, पर उन्हें जैविक खेती की शुरुआत छोटे स्तर से करनी चाहिए। आज कल के नौजवानों को जैविक खेती के बारे में पूरा ज्ञान होना चाहिए ताकि रासायनिक मुक्त खेती करके मनुष्य की सेहत के साथ होने वाले नुक्सान से बचाव किया जा सके।

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विवेक उनियाल

(मशरूम उत्पादन)

देश की सेवा करने के बाद धरती मां की सेवा कर रहा देश का जवान और किसान

हम सभी अपने घरों में चैन की नींद सोते हैं, क्योंकि हमें पता है कि देश की सरहद पर हमारी सुरक्षा के लिए फौज और जवान तैनात हैं, जो कि पूरी रात जागते हैं। जैसे देश के जवान देश की सुरक्षा के लिए अपने सीने पर गोली खाते हैं, उसी तरह किसान धरती का सीना चीरकर अनाज पैदा करके सब के पेट की भूख मिटाते हैं। इसीलिए हमेशा कहा जाता है — “जय जवान जय किसान”

हमारे देश का ऐसा ही नौजवान है जिसने पहले अपने देश की सेवा की और अब धरती मां की सेवा कर रहा है। नसीब वालों को ही देश की सेवा करने का मौका मिलता है। देहरादून के विवेक उनियाल जी ने फौज में भर्ती होकर पूरी ईमानदारी से देश और देशवासियों की सेवा की।

एक अरसे तक देश की सेवा करने के बाद फौज से सेवा मुक्त होकर विवेक जी ने धरती मां की सेवा करने का फैसला किया। विवेक जी के पारिवारिक मैंबर खेती करते थे। इसलिए उनकी रूचि खेती में भी थी। फौज से सेवा मुक्त होने के बाद उन्होंने उत्तराखंड पुलिस में 2 वर्ष नौकरी की और साथ साथ अपने खाली समय में भी खेती करते थे। फिर अचानक उनकी मुलाकात मशरूम फार्मिंग करने वाले एक किसान दीपक उपाध्याय से हुई, जो जैविक खेती भी करते हैं। दीपक जी से विवेक को मशरूम की किस्मों  ओइस्टर, मिल्की और बटन के बारे में पता लगा।

“दीपक जी ने मशरूम फार्मिंग शुरू करने में मेरा बहुत सहयोग दिया। मुझे जहां भी कोई दिक्कत आई वहां दीपक जी ने अपने तजुर्बे से हल बताया” — विवेक उनियाल

इसके बाद मशरूम फार्मिंग में उनकी दिलचस्पी पैदा हुई। जब इसके बारे में उन्होंने अपने परिवार में बात की तो उनकी बहन कुसुम ने भी इसमें दिलचस्पी दिखाई। दोनों बहन — भाई ने पारिवारिक सदस्यों के साथ सलाह करके मशरूम की खेती करने के लिए सोलन, हिमाचल प्रदेश से ओइस्टर मशरूम का बीज खरीदा और एक कमरे में मशरूम उत्पादन शुरू किया।

मशरूम फार्मिंग शुरू करने के बाद उन्होंने अपने ज्ञान में वृद्धि और इस काम में महारत हासिल करने के लिए उन्होंने मशरूम फार्मिंग की ट्रेनिंग भी ली। एक कमरे में शुरू किए मशरूम उत्पादन से उन्होंने काफी बढ़िया परिणाम मिले और बाज़ार में लोगों को यह मशरूम बहुत पसंद आए। इसके बाद उन्होंने एक कमरे से 4 कमरों में बड़े स्तर पर मशरूम उत्पादन शुरू कर दिया और ओइस्टर  के साथ साथ मिल्की बटन मशरूम उत्पादन भी शुरू कर दिया। इसके साथ ही विवेक ने मशरूम के लिए कंपोस्टिंग प्लांट भी लगाया है जिसका उद्घाटन उत्तराखंड के कृषि मंत्री ने किया।

मशरूम फार्मिंग के साथ ही विवेक जैविक खेती की तरफ भी अपना ध्यान केंद्रित कर रहे हैं। पिछले 2 वर्षों से वे जैविक खेती कर रहे हैं।

“जैसे हम अपनी मां की देखभाल और सेवा करते हैं, ठीक उसी तरह हमें धरती मां के प्रति अपने फर्ज़ को भी समझना चाहिए। किसानों को रासायनिक खेती को छोड़कर जैविक खेती की तरफ अपना ध्यान केंद्रित करना चाहिए ” — विवेक उनियाल

विवेक अन्य किसानों को जैविक खेती और मशरूम उत्पादन के लिए उत्साहित करने के लिए अलग अलग गांवों में जाते रहते हैं और अब तक वे किसानों के साथ मिलकर लगभग 45 मशरूम प्लांट लगा चुके हैं। उनके पास कृषि यूनिवर्सिटी के विद्यार्थी  मशरूम उत्पादन के बारे में जानकारी लेने और किसान मशरूम उत्पादन प्लांट लगाने के लिए उनके पास सलाह लेने के लिए आते रहते हैं। विवेक भी उनकी मदद करके अपने आपको भाग्यशाली महसूस करते हैं।

“मशरूम उत्पादन एक ऐसा व्यवसाय है जिससे पूरे परिवार को रोज़गार मिलता है” — विवेक उनियाल

भविष्य की योजना
विवेक जी आने वाले समय में मशरूम से कई तरह के उत्पाद जैसे आचार, बिस्किट, पापड़ आदि तैयार करके इनकी मार्केटिंग करना चाहते हैं।

संदेश
“किसानों को अपनी आय को बढ़ाने के लिए खेती के साथ साथ कोई ना कोई सहायक व्यवसाय भी करना चाहिए। पर छोटे स्तर पर काम शुरू करना चाहिए ताकि इसके होने वाले फायदों और नुकसानों के बारे में पहले ही पता चल जाए और भविष्य में कोई मुश्किल ना आए।”

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अमितेश त्रिपाठी और अरूणेश त्रिपाठी

(केले के खेती)

अपने पिता के केले के खेती के व्यवसाय को जारी रखते हुए उनके सपने को पूरा कर रहे दो भाइयों की कहानी

कहा जाता है कि यदि परिवार का साथ हो तो इंसान सब कुछ कर सकता है, फिर चाहे वह कुछ नया करने के बारे में हो या फिर पहले से शुरू किए किसी काम को सफलता की बुलंदियों पर लेकर जाने की बात हो।

ऐसी ही एक कहानी है दो भाइयों की जिन्होंने विरासत में मिली केले की खेती को सफलता के मुकाम तक पहुंचाने के लिए खूब मेहनत की और अपनी एक अलग पहचान बनाई। अपने पिता हरी सहाय त्रिपाठी की तरफ से शुरू की हुई केले की खेती करते हुए दोनों भाइयों ने अपनी मेहनत से पूरे शहर में अपने पिता का नाम रोशन किया।

उत्तर प्रदेश में बहराइच के रहने वाले अमितेश और अरूणेश के पिता गांव के प्रधान थे और अपनी 65 बीघा ज़मीन में वे रवायती खेती के साथ साथ केले की खेती भी करते थे। अपने गांव में केले की खेती शुरू करने वाले पहले किसान त्रिपाठी जी थे। उस समय दोनों भाई पढ़ाई करते थे। अमितेश (बड़ा भाई) बी एस सी एग्रीकल्चर की पढ़ाई करके किसी प्राइवेट कंपनी में नौकरी करते थे और अरूणेश भी बी एस सी बायोलोजी की पढ़ाई के साथ SSC की तैयारी कर रहे थे। इसी समय दौरान हरी सहाय त्रिपाठी जी का देहांत हो गया।

इस मुश्किल समय में परिवार का साथ देने के लिए दोनों भाई अपने गांव वापिस आ गए। गांव के प्रधान होने के कारण, गांव के लोगों ने त्रिपाठी के बड़े पुत्र अमितेश को गांव का प्रधान बनाने का फैसला किया। इसके साथ ही उन्होंने अपने पिता के द्वारा शुरू की हुई केले की खेती को संभालने का फैसला किया। पर इस दौरान गांव में तूफान आने के कारण पहले से लगी केले की सारी फसल नष्ट हो गई। इस मुश्किल की घड़ी में दोनों भाइयों ने हिम्मत नहीं हारी और कोशिश करने के बाद उन्हें सरकार के द्वारा प्रभावित फसल का मुआवज़ा मिल गया।

इस हादसे के बाद दोनों ने इस मुआवज़े की राशि से एक नई शुरूआत करने का फैसला किया। दोनों ने अपने पिता की तरफ से लगाई जाती केले की जी 9 किस्म लगाने का फैसला किया। उन्होंने अपनी 30 बीघा ज़मीन में केले की खेती शुरू की और बाकी 35 बीघा में रवायती खेती जारी रखी।

इस दौरान जहां भी कोई दिक्कत आई हमने केले की खेती के माहिरों से सलाह लेकर मुश्किलों का हल किया। — अरूणेश त्रिपाठी

दोनों भाइयों के द्वारा की गई इस नई शुरूआत के कारण उनकी फसल का उत्पादन काफी बढ़िया हुआ, जो कि लगभग 1 लाख प्रति बीघा था। उनके खेत में तैयार हुई केले की फसल की गुणवत्ता काफी बढ़िया थी, जिसके परिणामस्वरूप कई कंपनियों वाले उनसे सीधा व्यापार करने के लिए संपर्क करने लगे।

केला सदाबहार, पौष्टिक फल है। केले की मार्केटिंग करने में हमें कोई मुश्किल नहीं आती, क्योंकि व्यापारी सीधे हमारे खेतों में आकर केले लेकर जाते हैं।केले की खेती के साथ साथ हम गेहूं की पैदावार भी बड़े स्तर पर करते हैं। — अमितेश त्रिपाठी

दोनों भाइयों ने अपनी मेहनत और सोच समझ से अपने पिता की तरफ से शुरू, की हुई केले की खेती के कारोबार को बड़े स्तर पर लेकर जाने के सपने को सच कर दिखाया।

किसान होने के साथ साथ अमितेश गांव के प्रधान होने के कारण अपने फर्ज़ों को भी पूरी ईमानदारी से निभा रहे हैं। इसी कारण पूरे शहर के अच्छे किसानों में दोनों भाइयों का नाम काफी प्रसिद्ध है।

भविष्य की योजना

आने वाले समय में दोनों भाई मिलकर अपने फैक्टरी लगाकर केले के पौधे खुद तैयार करना चाहते हैं और अपने पिता की तरह एक सफल किसान बनना चाहते हैं।

संदेश
“यदि हम रवायती खेती के साथ साथ खेती के क्षेत्र में कुछ अलग करते हैं तो हम खेती से भी बढ़िया मुनाफा ले सकते हैं। हमारी नौजवान पीढ़ी को खेती के क्षेत्र में अपनी सोच समझ से नई खोजें करनी चाहिए, ताकि घाटे का सौदा कही जाने वाली खेती से भी बढ़िया मुनाफा लिया जा सके।”
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मोटा राम शर्मा

(मशरुम उत्पादन)

एक ऐसा किसान जिसने मशरूम से किया कैंसर जैसी ला—इलाज बीमारी का इलाज

खेती तो सभी किसान ही करते हैं, पर जिस किसान की बात आज हम करने जा रहे हैं वह बाकी किसानों से अलग है। पर खेती के साथ साथ रोगियों का इलाज करने के बारे में शायद ही किसी किसान ने सोचा होगा। यह एक ऐसा किसान है जो मशरूम की खेती करने के कारण डॉक्टर बना।

मशरूम मैन के नाम से प्रसिद्ध मोटा राम शर्मा जी आज से लगभग 24 वर्ष पहले डेयरी फार्मिंग के साथ साथ अपनी 5 बीघा ज़मीन में मशरूम की खेती करते थे। उस समय राजस्थान में मशरूम फार्मिंग का कोई ज्यादा रूझान नहीं था। सबसे पहले उन्होंने ओइस्टर मशरूम उगानी शुरू की थी। उस समय ज्यादातर किसान सिर्फ बटन मशरूम के बारे में ही जानते थे। इसलिए मोटा राम की तरफ से काफी मात्रा में ओइस्टर मशरूम तैयार की गई थी, तो इसकी ज्यादा मार्केटिंग ना होने के कारण उन्होंने मशरूम का पाउडर तैयार करके पशुओं को खिलाना शुरू कर दिया। इस पाउडर को खाने से गायों में मैसटाइटिस जैसी ला—इलाज बीमारी खत्म हो गई। इस सफलता के बाद मोटा राम जी ने बड़े स्तर पर ओइस्टर मशरूम का उत्पादन शुरू कर दिया जब इसके बारे में खेती अधिकारियों को पता लगा तो उन्होंने मोटा राम शर्मा को ट्रेनिंग लेने की सलाह दी। उसके बाद मोटा राम जी ट्रेनिंग लेने के लिए सोलन और जयपुर गए। मशरूम के बारे में जानकारी हासिल करने के बाद मोटा राम जी ने बटन और शिटाके मशरूम उगानी शुरू की। बटन मशरूम की मार्केटिंग उन्होने दिल्ली मंडी में करनी शुरू कर दी, इससे उन्हें बढ़िया कमाई होने लग गई। मोटा राम शर्मा जी मशरूम फार्मिंग बिना ए.सी. से करते हैं।

समय व्यतीत होने पर अपनी तरफ से की खोज के आधार पर मुझे पता लगा कि मशरूम को हम कई बीमारियां रोकने के लिए भी इस्तेमाल कर सकते हैं। मशरूम की कई किस्में हैं जो मानवी जीवन के लिए किसी संजीवनी से कम नहीं है — मोटा राम शर्मा

मशरूम उत्पादन करते करते मोटा राम जी ने मशरूम का बीज तैयार करना भी शुरू कर दिया और अब वह 16 अलग अलग किस्मों की मशरूम उगाते हैं।

वर्ष 2010 में वे भारत में गैनोडरमा मशरूम उगाने वाले सबसे पहले किसान बने, जिस कारण उन्हें मशरूम किंग आफ इंडिया का अवार्ड मिला। इस गैनोडरमा मशरूम का इस्तेमाल वे कैंसर की दवाई बनाने के लिए करते हैं।

अपने द्वारा तैयार की दवाइयों के साथ हम दिल के मरीज़ों और कैंसर के मरीज़ों का इलाज करते हैं अब तक हमने 90 प्रतिशत केसों में सफलता हासिल की है — मोटा राम शर्मा

बिना किसी डिग्री से पांचवी पास मोटा राम शर्मा के इस कारनामे के कारण कई लोग हैरत में हैं।

अपनी खोज के समय के दौरान उन्हें पता लगा कि मनुष्य में कैंसर होने का कारण शरीर में विटामिन 17 की कमी होना है और गैनोडरमा मशरूम में विटामिन 17 मौजूद होते हैं।

अब मोटा राम जी मशरूम से कई तरह की दवाइयां बनाते हैं, जिनसे वे कैंसर पीड़ित मरीज़ों का इलाज कर रहे हैं।

अपने पांच बीघा के फार्म के आस पास उन्होंने अशोका वृक्ष, एलोवेरा, शतावरी और गिलोय के पौधे भी लगाए हुए हैं, जिनका इस्तेमाल वे दवाइयां बनाने के लिए करते हैं।

मोटा राम शर्मा जी के दोनों पुत्र डॉक्टर हैं, पर अब वे भी अपने पिता के साथ मिलकर मशरूम फार्मिंग करते हैं।

शर्मा जी अब 16 तरह की अलग अलग किस्मों की मशरूम उगाते हैं, जिनके नाम इस प्रकार हैं:
  • गैनोडरमा मशरूम
  • ऋषि मशरूम
  • पिंक मशरूम
  • साजर काजू
  • काबुल अंजाई
  • ब्लैक ईयर
  • बटन मशरूम
  • ओइस्टर मशरूम
  • ढींगरी मशरूम
  • डीजेमोर
  • सिट्रो मशरूम
  • शीटाके
  • सागर काजू सरीखी
  • पनीर मशरूम
  • फ्लोरीडा मशरूम
  • कोडी शैफ मशरूम

मशरूम फार्मिंग के क्षेत्र में किए अपने इन प्रयत्नों और खोजों के कारण मोटा राम शर्मा जी को कई अवार्ड भी मिले हैं, जो कि निम्नलिखित अनुसार है:

  • बेस्ट मशरूम फार्मर अवार्ड 2010
  • कृषि रत्न 2010
  • कृषि सम्राट 2011
  • मशरूम किंग आफ इंडिया 2018
  • राष्ट्रीय मशरूम बोर्ड के मैंबर

मोटा राम शर्मा जी के फार्म पर कई किसान भी मशरूम फार्मिंग की ट्रेनिंग लेने के लिए आते हैं।

भविष्य की योजना

मोटा राम जी आने वाले समय में किसानों की इसी तरह मदद करके, अपने तज़ुर्बे से उनकी मुश्किलों का हल करना चाहते हैं और मशरूम उत्पादन में और नई खोजें करना चाहते हैं।

संदेश
“किसानों को खेती के क्षेत्र में आने वाली मुश्किलों के हल के लिए माहिरों की सलाह लेते रहना चाहिए। हर क्षेत्र में नई खोजें करने के लिए तत्पर रहें।”
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हरप्रीत सिंह बाजवा

(घुड़सवारी)

घुड़सवारी सीखने के शौकीन लोगों के सपने को पूरे करने वाला पशु-प्रेमी – हरप्रीत सिंह बाजवा

घोड़ों को पहले से ही मनुष्य का पसंदीदा पशु माना जाता है पुराने समय में घोड़े ही एक स्थान से दूसरे स्थान पर आने जाने का साधन होते थे। आज भी कई ऐसे पशु-प्रेमी हैं, जो पशुओं को अपनी ज़िंदगी का अहम हिस्सा समझते हैं।

यह कहानी है एक ऐसे ही पशु-प्रेमी हरप्रीत सिंह बाजवा जी की, जिन्होंने अपनी इसी पसंद को सार्थक रूप देते हुए, अपना एक घोड़ों का स्टड फार्म बनाया है।

फौजी परिवार से संबंध रखने वाले पंजाब, मोहाली के नज़दीक इलाके खरड़ के रहने वाले हरप्रीत जी 10-11 वर्षों की उम्र से घुड़सवारी करते थे। हरप्रीत जी के दादा जी और पिता जी फौज में देश की सेवा कर चुके हैं। फौज में होते हुए वे घुड़सवारी करते थे। हरप्रीत जी को भी बचपन से ही घुड़सवारी का शौंक था।

अपनी बी.कॉम की पढ़ाई करने के बाद और फौजी परिवार में होते हुए हरप्रीत भी देश की सेवा करने के इरादे से फौज में भर्ती होने के लिए तैयारी कर रहे थे। इसी दौरान उन्होंने घुड़सवारी भी सीखी। पर किसी कारण फौज में भर्ती ना होने के कारण उन्होंने दिल्ली और मोहाली में 10-12 वर्ष नौकरी की।

नौकरी के दौरान हमें कई काम ऐसे करने पड़ते हैं, जिसकी इजाज़त हमारा दिल नहीं देता। इसलिए मैं हमेशा अपनी इच्छा के मुताबिक कुछ अलग और अपनी पसंद का करना चाहता था।– हरप्रीत सिंह बाजवा

छोटी उम्र में ही घोड़ों के साथ लगाव और घुड़सवारी में लगभग 20 साल का तज़ुर्बा होने के कारण हरप्रीत जी अपने शौंक को हकीकत में बदलना चाहते हैं।

जैसे कि कहा ही जाता है कि घोड़ों का शौंक बहुत महंगा होता है। इसी कारण कई घोड़ों के शौकीन खर्चा अधिक होने के कारण, इस व्यवसाय से दूरी बनाए रखते हैं। इसी तरह एक साधारण परिवार से होने के कारण हरप्रीत जी अधिक तो नहीं कर सकते थे, पर अपनी नौकरी के समय के दौरान उन्होंने जो बचत की थी, उन्हीं से उन्होंने घोड़ों का फार्म खोलने का फैसला किया।

मैं हमेशा से ही एक ऐसा काम करना चाहता था, जिससे मेरे मन को संतुष्टी मिले। घोड़े और घुड़सवारी से अपने प्यार के कारण ही मैंने घोड़ों के लिए फार्म खोलने का मन बनाया। – हरप्रीत सिंह बाजवा

ऐसे कई क्षेत्र हैं जिनमें शामिल होने के लिए घुड़सवारी आनी लाज़मी होती है। इस उद्देश्य से उन्होंने ठेके पर ज़मीन ली। फार्म शुरू करने के लिए उनका लगभग 7 से 8 लाख रूपये का खर्चा आया। अपने इस फार्म का नाम उन्होंने DKPS रखा। हरप्रीज सिंह बाजवा जी ने अपने इस स्कूल का नाम अपने माता पिता दविंदर कौर और प्रकाश सिंह के नाम पर रखा। इस फार्म में उन्होंने थोरो ब्रैड नस्ल के घोड़े रखे हैं। थोरो ब्रैड घोड़ों की ऐसी नस्ल है जो रेसिंग के लिए सबसे बढ़िया मानी जाती है।

इस समय उनके पास फार्म में 5 घोड़ियां और 1 घोड़ा है। शुरूआती दौर में उनके पास घुड़सवारी में दिलचस्पी रखने वाले चाहवान आए, जिनमें बच्चे और बुज़ुर्ग शामिल थे। उनके इस फार्म में घुड़सवारी सीखने की फीस भी काफी कम है, जिस कारण आज भी उनके पास काफी लोग घुड़सवारी सीखने आते हैं।

हमारे फार्म पर 7 साल से लेकर 50 साल की उम्र तक के घुड़सवारी के शौकीन आते हैं। पंजाब के मशहूर पंजाबी गायक बब्बू मान जी भी हमारे फार्म पर घुड़सवारी करने आते रहते हैं। –  हरप्रीत सिंह बाजवा

हरप्रीज जी अपने स्कूल के बच्चों को घुड़सवारी की अलग अलग प्रतियोगिताओं में हिस्सा लेने के लिए भी तैयार करते हैं। उनके स्कूल के बच्चे कई क्षेत्रीय और राज्य स्तर की प्रतियोगिताओं में हिस्सा ले चुके हैं और कई अवार्ड भी हासिल कर चुके हैं।

घोड़ा एक ऐसा जानवर है जिसका अपना दिल और दिमाग होता है। घुड़सवार अपने इशारों से घोड़े को समझाता है। हम अपने स्कूल में ही ये सभी हुनर घुड़सवारों को सिखाते हैं। – हरप्रीत सिंह बाजवा

हरप्रीत जी का घुड़सवारी स्कूल खोलने का फैसला एक बहुत ही प्रशंसनीय फैसला है, क्योंकि जो लोग अधिक पैसे खर्च करके घुड़सवारी नहीं सीख सकते, वे DKPS के ज़रिये अपनी इस इच्छा को पूरा कर सकते हैं।

भविष्य की योजना

हरप्रीत जी घुड़सवारी सीखने वाले लोगों को ट्रेनिंग देकर एक बढ़िया और सेहतमंद पीढ़ी का निर्माण करना चाहते हैं।

संदेश
“हमें अपने जुनून को कभी भी मरने नहीं देना चाहिए। मेहनत हर काम में करनी ही पड़ती है नौजवानों को नशों के चक्कर में ना पड़कर अपनी मेहनत के साथ अपने और अपने माता— पिता के सपनों को सच करना चाहिए।”
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संदीप सिंह और राजप्रीत सिंह

(बकरी पालन)

किसानों के लिए बन कर आये नई मिसाल, बकरी पालन के व्यवसाय को इंटरनेशनल स्तर पर लेकर जाने वाले दो दोस्तों की कहानी

बकरी पालन का व्यवसाय बहुत लाभकारी व्यवसाय है क्योंकि इसमें बहुत कम निवेश की आवश्यकता होती है, यदि बात करें पशु—पालन के व्यवसाय की, तो ज्यादातर पशु पालन डेयरी फार्मिंग के व्यवसाय से संबंधित हैं। पर आज कल बकरी पालन का व्यवसाय, पशु पालन में सबसे सफल व्यवसाय माना जाता है और बहुत सारे नौजवान भी इस व्यवसाय में सफलता हासिल कर रहे हैं। यह कहानी है ऐसे ही दो नौजवानों की, जिन्होंने अपनी पढ़ाई पूरी करने के बाद बकरी पालन का व्यवसाय शुरू किया और सफलता हासिल करने के साथ साथ अन्य किसानों को भी इससे संबंधित ट्रेनिंग दे रहे हैं।

हरियाणा के जिला सिरसा के गांव तारूआणा के रहने वाले संदीप सिंह और राजप्रीत सिंह ग्रेजुएशन की पढ़ाई करने के बाद नौकरी करने की बजाय अपना कोई कारोबार करना चाहते थे। राजप्रीत ने एम.एस.सी. एग्रीकलचर की पढ़ाई की हुई थी, इसलिए राजप्रीत के सुझाव पर दोनों दोस्तों ने खेती या पशु पालन का व्यवसाय अपनाने का फैसला किया। इस उद्देश्य के लिए उन्होंने पहले पॉलीहाउस लगाने के बारे में सोचा पर किसी कारण इसमें वे सफल नहीं हो पाए।

इसके बाद उन्होंने पशु पालन का व्यवसाय अपनाने का फैसला किया। इसके लिए उन्होंने पशु पालन के माहिरों से मुलाकात की, तो माहिरों ने उन्हें बकरी पालन का व्यवसाय अपनाने की सलाह दी।

माहिरों की सलाह से उन्होंने बकरी पालन का व्यवसाय शुरू करने से पहले ट्रेनिंग ली। ट्रेनिंग लेने के लिए वे मथुरा गए और 15 दिनों की ट्रेनिंग लेने के बाद उन्होंने तारूआणा गांव में 2 कनाल जगह में SR COMMERCIAL बकरी फार्म शुरू किया।

आज कल यह धारणा आम है कि यदि कोई व्यवसाय शुरू करना है तो बैंक से लोन लेकर आसानी से काम शुरू किया जा सकता है पर संदीप और राजप्रीत ने बिना किसी वित्तीय सहायता के अपने पारिवारिक सदस्यों की मदद से वर्ष 2017 में बकरी फार्म शुरू किया।

जैसे कहा ही जाता है कि किसी की सलाह से रास्ते तो मिल ही जाते हैं पर मंज़िल पाने के लिए मेहनत खुद ही करनी पड़ती है।

इसलिए इस व्यवसाय में सफलता हासिल करने के लिए उन दोनों ने भी मेहनत करनी शुरू कर दी। उन्होंने समझदारी से छोटे स्तर पर सिर्फ 10 बकरियों के साथ बकरी फार्म शुरू किया था, ये सभी बकरियां बीटल नस्ल की थी। इन बकरियों को वे पंजाब के लुधियाना,रायकोट,मोगा आदि की मंडियों से लेकर आए थे। धीरे धीरे उन्हें बकरी पालन में आने वाली मुश्किलों के बारे में पता लगा। फिर उन्होंने इन मुश्किलों का हल ढूंढना शुरू कर दिया।

बकरी पालकों को जो सबसे अधिक मुश्किल आती है, वह है बकरी की नस्ल की पहचान करने की। इसलिए हमेशा ही बकरियों की पहचान करने के लिए जानकारी लेनी चाहिए। — संदीप सिंह

अपने दृढ़ संकल्प और परिवारिक सदस्यों से मिले सहयोग के कारण उन्होंने बकरी पालन के व्यवसाय को लाभदायक बनाने में कोई कसर नहीं छोड़ी। संदीप और राजप्रीत ने अपने फार्म में बकरियों की नस्ल सुधार पर काम करना शुरू कर दिया। अपने मेहनत के कारण, आज 2 वर्षों के अंदर अंदर ही उन्होंने फार्म में बकरियों की गिनती 10 से 150 तक पहुंच गई है।

बकरी पालन के व्यवसाय में कभी भी लेबर पर निर्भर नहीं रहना चाहिए। यदि इस व्यवसाय में सफलता हासिल करनी है तो हमें खुद ही मेहनत करनी पड़ती है। — राजप्रीत सिंह

बकरी पालन में आने वाली मुश्किलों को जानने के बाद उन्होंने अन्य बकरी पालकों की मदद करने के लिए बकरी पालन की ट्रेनिंग देनी शुरू कर दी ताकि बकरी पालकों को इस व्यवसाय से अधिक मुनाफा हो सके। संदीप और राजप्रीत अपने फार्म पर प्रैक्टीकल ट्रेनिंग देते हैं जिससे शिक्षार्थियों को अधिक जानकारी मिलती है और वे इन तकनीकों का प्रयोग करके बकरी पालन के व्यवसाय से लाभ कमा रहे हैं।

बकरी पालन की ट्रेनिंग देने के साथ साथ SR Commercial बकरी फार्म से पंजाब और हरियाणा ही नहीं, बल्कि अलग अलग राज्यों के बकरी पालक बकरियां लेने के लिए आते हैं।

भविष्य की योजना

आने वाले समय में संदीप और राजप्रीत अपना बकरी पालन ट्रेनिंग स्कूल शुरू करना चाहते हैं और बकरी पालन के व्यवसाय के साथ साथ खेती के क्षेत्र में भी आगे आना चाहते हैं। इसके अलावा वे बकरी की फीड के उत्पाद बनाकर इनकी मार्केटिंग करना चाहते हैं।

संदेश
“बकरी पालकों को छोटे स्तर से बकरी पालन का व्यवसाय शुरू करना चाहिए यदि किसी को भी बकरी पालन में कोई समस्या आती है तो वे कभी भी हमारे फार्म पर आकर जानकारी और सलाह ले सकते हैं।”
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अमनदीप सिंह सराओ

(ड्रैगन फ्रूट)

नई और आधुनिक तकनीकों के साथ कृषि क्षेत्र में अपनी अलग पहचान बना रहा नौजवान किसान

हमारे देश में रवायती खेती का रूझान बहुत ज्यादा है। पर रवायती खेती से किसानों को अपनी मेहनत के मुताबिक मुनाफा नहीं होता है। ऐसे किसान अपनी आय बढ़ाने के लिए रवायती खेती के साथ साथ सब्जियों और फलों की खेती को तरजीह दे रहे हैं, क्योंकि समय की आवश्यकतानुसार किसान भी अपने आप को बदल रहा है। जो, कुछ अलग सोचने और करने की हिम्मत रखते हैं, वही कुछ बड़ा करते हैं। ऐसा ही एक नौजवान किसान हैं अमनदीप सिंह सराओ, जो एक ऐसी फसल की खेती कर रहे हैं, जिसके बारे में उन्हें कोई जानकारी नहीं थी। पर अपनी मेहनत और कुछ अलग करने के जुनून ने आज उन्हें एक अलग पहचान दी है।

पंजाब के मानसा जिले के अमनदीप सिंह जी के दादा जी और पिता जी ने अपने निजी कारोबार के कारण काफी ज़मीन खरीदी हुई थी। पर समय की कमी होने के कारण उन्होंने अपनी 32 एकड़ ज़मीन ठेके पर दी हुई थी। इस ज़मीन पर रवायती खेती ही की जाती थी। घर में खेती का बहुत काम ना होने के कारण अमनदीप की भी खेती की तरफ कोई विशेष रूचि नहीं थी।

अपनी ग्रेजुएशन की पढ़ाई पूरी करने के बाद अमनदीप अपने दोस्तों के साथ गुजरात घूमने गए। यहां उन्होंने एक फार्म देखा। सभी दोस्तों को यह फार्म बहुत अजीब लगा और उन्होंने इस फार्म के अंदर जाकर इसके बारे में जानकारी इक्ट्ठी करने का फैसला किया। फार्म के अंदर जाकर उन्हें पता लगा कि यह ड्रैगन फ्रूट का फार्म है। इस फार्म का नाम GDF था। विदेशी फल होने के कारण हमारे देश में बहुत कम किसानों को ड्रैगन फ्रूट की खेती के बारे में जानकारी है। इसी तरह अमनदीप को भी इस विदेशी फल के बारे में कोई जानकारी नहीं थी। GDF के मालिक निकुंज पंसूरिया से उन्हें ड्रैगन फ्रूट और इसकी खेती के बारे में जानकारी मिली। वापिस पंजाब आकर अमनदीप ने इसकी खेती के बारे में अपने पारिवारिक सदस्यों के साथ सलाह की तो उन्होंने अपने बेटे को इस काम के लिए शाबाशी दी, कि वह रवायती खेती से कुछ अलग करने जा रहा है। और जानकारी इक्ट्ठी करने के लिए अमनदीप ने सोशल मीडिया का सहारा लिया। यहां उन्हें ड्रैगन फ्रूट के बारे में काफी कुछ नया पता लगा।

“GDF फार्म, लक्ष्मी पुत्रा ड्रैगन फ्रूट फार्म, RK ड्रैगन फ्रूट फार्म, वासुपूज्या ड्रैगन फ्रूट फार्म, श्री हरी हॉर्टिकल्चर नर्सरी, सांगर नर्सरी देखने के बाद, मुझे यह महसूस हुआ कि हमारे किसान शुरू से ही रवायती खेती के चक्र में फंसे हुए हैं। इसलिए हमें नई पीढ़ी को ही खेती में कुछ अलग करना पड़ेगा।” — अमनदीप सिंह

इंटरेनट के ज़रिए अमनदीप को पता लगा कि पंजाब के बरनाला में हरबंत सिंह औलख जी ड्रैगन फ्रूट की खेती करते हैं, तो ड्रैगन फ्रूट की खेती के बारे में और जानकारी लेने के उद्देश्य से अमनदीप, बरनाला उनके फार्म पर गए और यहां उन्होंने ड्रैगन फ्रूट की खेती शुरू करने के लिए काफी हौंसला मिला। इसके साथ ही अमनदीप ने भी इस विदेशी फल की खेती करने का पक्का मन बना लिया।

ड्र्रैगन फ्रूट की खेती शुरू करने के लिए अमनदीप ने अपनी ठेके पर दी 32 एकड़ ज़मीन में से 2 एकड़ पर फ्रूट की खेती के लिए, GDF के मालिक की सलाह से पोल (खंभे) तैयार करवाए और 4 अलग अलग स्थानों पर पौधे मंगवाए। अपने इस फार्म का नाम उन्होंने “सराओ ड्रैगन फ्रूट्स फार्म” रखा। अमन को जहां भी कोई मुश्किल आई उन्होंने हमेशा माहिरों और इंटरनेट की मदद ली। उन्होंने शुरूआत में ड्रैगन फ्रूट की लाल और सफेद किस्म के पौधे लगाए।

कहा जाता है कि प्रत्यक्ष को प्रमाण की जरूरत नहीं होती, उसी तरह सराओ ड्रैगन फ्रूट्स फार्म में पहले वर्ष हुए फलों का स्वाद बहुत बढ़िया था और बाकी लोगों ने भी इसकी काफी प्रशंसा की।

“ड्रैगन फ्रूट की खेती शुरू करने के बाद सभी पारिवारिक सदस्यों ने मेरा हौंसला बढ़ाया और मन लगाकर मेहनत करने के लिए प्रेरित किया और मैंने फिर कभी भी पीछे मुड़कर नहीं देखा” — अमनदीप सिंह सराओ

इस सफलता के बाद अमनदीप की हिम्मत काफी बढ़ गई।अमनदीप के भाभी जी हरमनदीप कौर जंगलात विभाग में नौकरी करते हैं और उन्होंने अमनदीप को ड्रैगन फ्रूट के साथ साथ चंदन की खेती करने के लिए भी कहा। हमारे देश में चंदन को धार्मिक क्रियाओं के लिए प्रयोग किया जाता है और इसकी कीमत भी काफी ज्यादा है। इसलिए अमनदीप ने चंदन की खेती के बारे में जानकारी इक्ट्ठी करनी शुरू कर दी।

फिर अमनदीप ने गुजरात के चंदन विकास एसोसिएशन के प्रधान श्री नितिन पटेल से संपर्क और मुलाकात की। नितिन पटेल के फार्म में चंदन के लगभग 2000 पौधे लगे हैं। यहां अमनदीप ने चंदन के थोड़े से पौधे लेकर अपने फार्म पर ट्रायल के तौर पर लगाए और अब सराओ फार्म में चंदन के लगभग 225 पौधे हैं।

“हालात को ऐसा ना होने दें कि आप हिम्मत हार जाओ, बल्कि हिम्मत ऐसी रखें कि हालात हार जाएं” — अमनदीप सिंह सराओ

नौजवान किसान होने के तौर पर अमनदीप हमेशा कुछ ना कुछ नया करने के बारे में सोचते रहते थे। इसलिए उन्होंने ड्रैगन फ्रूट के पौधों की ग्राफ्टिंग करनी भी शुरू कर दी। इसके लिए उन्होंने मैरी एन पसाउल से ट्रेनिंग ली जो कि Tangum Philipine Island से हैं।

सराओ ड्रैगन फ्रूट्स फार्म में ड्रैगन फ्रूट की 12 किस्में है, जिनके नाम इस प्रकार हैं:
• वालदीवा रोजा
• असुनता
• कोनी मायर
• डिलाईट
• अमेरिकन ब्यूटी
• पर्पल हेज़
• ISIS गोल्डन यैलो
• S8 शूगर
• आउसी गोल्डन यैलो
• वीयतनाम वाईट
• रॉयल रैड
• सिंपल रैड

अब भी अमनदीप खेती की नई तकनीकों के बारे में जानकारी इक्ट्ठी करते रहते हैं और उन्होंने अपने फार्म में तुपका सिंचाई सिस्टम भी लगवा लिया है। अपनी इसी मेहनत और दृढ़ संकल्प के कारण अमनदीप की आस पास के गांव में भी वाहवाही हो रही है और बहुत सारे लोग उनका फार्म देखने के लिए आते रहते हैं।

भविष्य की योजना

अमनदीप आने वाले समय में अपने फार्म के फलों की मार्केटिंग बड़े स्तर पर करना चाहते हैं और साथ ही चंदन से उत्पाद तैयार करके बेचना चाहते हैं।

संदेश
“हमारे किसान भाइयों को ज़हर मुक्त खेती करनी चाहिए। नौजवान पीढ़ी को आगे आकर नई सोच से खेती करनी होगी जिससे कि खेती के क्षेत्र में रोज़गार के अवसर और पैदा हो।”
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बैजुलाल कुमार

(मशरूम उत्पादन)

एक ऐसे नौजवान किसान की कहानी, जिसने अपने गांव के बाकी किसानों से किया कुछ अलग और कर दिया सभी को हैरान

पुराने समय में ज्यादातर किसानों की सोच यही थी कि सिर्फ वही खेती करनी चाहिए जो हमारे बुज़ुर्ग करते थे। पर आज—कल की नौजवान पीढ़ी खेती में भी कुछ नया करने की इच्छा रखती है, क्योंकि यदि एक नौजवान किसान अपनी सोच बदलेगा तो ही अन्य किसान कुछ नया करने के बारे में सोचेंगे।

यह कहानी भी एक ऐसे किसान की है जो अपने पिता के साथ रवायती खेती करने के अलावा कुछ अलग कर रहा है। बिहार के युवा किसान बैजुलाल कुमार जिनके पिता अपने 3—4 एकड़ ज़मीन पर गेहूं, धान आदि की खेती करते थे और डेयरी उद्देश्य के लिए उन्होंने 2 गायें और एक भैंस रखी हुई थी।

B.Sc. Physics की पढ़ाई के बाद बैजुलाल ने घर की आर्थिक स्थिति को देखते हुए अपने पिता के साथ खेती के काम में हाथ बंटाना शुरू कर दिया। पर बैजुलाल के मन में हमेशा कुछ अलग करने की इच्छा थी। इसलिए वे अपने खाली समय में यू—ट्यूब पर खेती से संबंधित वीडियो देखते रहते थे। एक दिन उन्होंने मशरूम फार्मिंग की वीडियो देखी और इसमें उनकी दिलचस्पी पैदा हुई।

मशरूम की खेती के बारे में जानकारी हासिल करने के लिए उन्होंने इंटरनेट के ज़रिए मशरूम उत्पादकों से संपर्क किया, जिससे उन्हें मशरूम की खेती करने के लिए उत्साह मिला। पर इस काम के लिए कोई भी उनसे सहमत नहीं था, क्योंकि गांव में किसी ने भी मशरूम की खेती नहीं की थी। पर बेजूलाल ने अपने मन में दृढ़ निश्चय कर लिया था कि सभी को ज़रूर कुछ अलग करके दिखाएंगे।

मेरे मशरूम की खेती शुरू करने के फैसले को किसी ने भी स्वीकार नहीं किया। वे सब मुझे कह रहे थे कि जिस काम के बारे में समझ ना हो, वह काम नहीं करना चाहिए। — बैजुलाल कुमार

मशरूम की खेती शुरू करने के लिए वे PUSA यूनिवर्सिटी से 5 किलो स्पॉन लेकर आए। इसके लिए उन्होंने पराली को उबालना शुरू कर दिया। बैजुलाल को इस तरह करते देख गांव वालों ने उनका मज़ाक उड़ाना शुरू कर दिया। पर उन्होंने किसी की परवाह नहीं की और काम को और मेहनत एवं लग्न से करना शुरू कर दिया।

मेरे इस काम को देखकर सभी गांव वाले मुझे पागल बुलाने लग गए और इस काम को छोड़ने के लिए कहने लगे पर मैं गांव वालों से कुछ अलग करने के अपने फैसले पर अटल था। — बैजुलाल कुमार

मशरूम उगाने के लिए जो भी जानकारी उन्हें चाहिए होती थी वह या तो इंटरनेट पर देखते या फिर माहिरों की सलाह लेते। समय बीतने पर मशरूम तैयार हो गए और उनके रिश्तेदारों को इनका स्वाद बहुत अच्छा लगा। उन्होंने बैजुलाल को उसकी इस कामयाबी के लिए शाबाशी भी दी एवं और ज्यादा मेहनत करने के लिए कहा।

फिर बैजुलाल तैयार की मशरूम अपनी लोकल मार्केट में बेचने के लिए गए, जहां ग्राहकों को भी मशरूम बहुत पसंद आई तथा वे और मशरूम की मांग करने लगे। इससे उत्साहित होकर बैजुलाल ने बड़े स्तर पर मशरूम की खेती करनी शुरू कर दी। अब वे मिल्की और बटन मशरूम उगाते हैं और इससे अच्छा मुनाफा कमा रहे हैं।

सफल होने के लिए संघर्ष करना पड़ता है और संघर्ष का परिणाम ही सफलता है। इसी तरह, बैजुलाल जी ने संघर्ष के बाद मिली सफलता के कारण, उन्होंने “चंपारण द मशरूम एक्सपर्ट प्राइवेट लिमिटेड कंपनी” शुरू की।

अब बैजुलाल इस काम में निपुण हो चुके हैं और वे अन्य किसान भाइयों और महिलाओं को मशरुम उत्पादन के साथ-साथ मशरुम की मार्केटिंग की ट्रेनिंग भी देते हैं। उनसे ट्रेनिंग लेने वाले किसानों को मशरूम की खेती शुरू करने के लिए 2 किलो स्पान, PPC बैग, फोर्मालिन, बेवास्टिन तथा स्प्रे मशीन भी देते है।

इसके इलावा मशरूम उत्पादकों के जो फ्रेश मशरूम नहीं बच जाते है, बैजुलाल उनको खरीदकर, उन्हें ड्राई कर के उनके उत्पाद तैयार करते है, जैसे कि सूप पाउडर, मशरूम आचार, मशरूम बिस्कुट, मशरूम पेड़ा इत्यादि।

जो गांव वाले मुझे पागल कहते थे, अब वे मेरे इस काम को देखकर मुझे शाबाशी देते हैं एवं और बढ़िया काम करने के लिए उत्साहित करते हैं। — बैजुलाल कुमार
भविष्य की योजना

बैजुलाल भविष्य में अपने एक किसान ग्रुप के द्वारा मशरूम से उत्पाद बनाकर, उन्हें बड़े स्तर पर बेचना चाहते हैं।

संदेश
“पराली को खेतों में जलाने से अच्छा है कि किसान पराली का इस्तेमाल मशरूम उत्पादन या फिर पशुओं के चारे के रूप में करें। इसके अलावा रवायती खेती के साथ साथ यदि कोई सहायक व्यवसाय शुरू किया जाए तो किसान इससे भी अच्छा मुनाफा कमा सकते हैं।”
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बलविंदर कौर

(फ़ूड प्रोसेसिंग)

एक ऐसी गृहणी की कहानी, जो अपने हुनर का बाखूबी इस्तेमाल कर रही है

हमारे समाज की शुरू से ही यही सोच रही है कि शादी के बाद महिला को बस अपनी घरेलू ज़िंदगी की तरफ ज्यादा ध्यान देना चाहिए। पर एक गृहणी भी उस समय अपने हुनर का बाखूबी इस्तेमाल कर सकती है जब उसके परिवार को उसकी ज़रूरत हो।

ऐसी ही एक गृहणी है पंजाब के बठिंडा जिले की बलविंदर कौर। एम.ए. पंजाबी की पढ़ाई करने वाली बलविंदर कौर एक साधारण परिवार से संबंध रखती हैं। पढ़ाई पूरी करने के बाद उनकी शादी सरदार गुरविंदर सिंह से हो गई, जो कि एक प्राइवेट कंपनी में नौकरी करते थे पर कुछ कारणों से, उन्होंने अपनी नौकरी से इस्तीफा दे दिया और अपने घर की आर्थिक हालत में सहयोग देने के लिए बलविंदर जी ने काम करने का फैसला किया और उनके पति ने भी उनके इस फैसले में उनका पूरा साथ दिया। जैसे कि कहा ही जाता है कि यदि पत्नी पति के कंधे से कंधा मिलाकर चले तो हर मुश्किल आसान हो जाती है। अपने पति की सहमति से बलविंदर जी ने घर में पी.जी. का काम शुरू किया। पहले—पहल तो यह पी.जी. का काम सही चलता रहा पर कुछ समय के बाद यह काम उन्हें बंद करना पड़ा। फिर उन्होंने अपना बुटीक खोलने के बारे में सोचा पर यह सोच भी सही साबित नहीं हुई। 2008—09 में उन्होंने ब्यूटीशन का कोर्स किया पर इसमें उनकी कोई दिलचस्पी नहीं थी।

शुरू से ही मेरी दिलचस्पी खाना बनाने में थी सभी रिश्तेदार भी जानते थे कि मैं एक बढ़िया कुक हूं, इसलिए वे हमेशा मेरे बनाए खाने को पसंद करते थे आखिरमें मैंने अपने इस शौंक को व्यवसाय बनाने के बारे में सोचा — बलविंदर कौर

बलविंदर जी के रिश्तेदार उनके हाथ के बने आचार की बहुत तारीफ करते थे और हमेशा उनके द्वारा तैयार किए आचार की मांग करते थे।

अपने इस हुनर को और निखारने के लिए बलविंदर जी ने इंडियन इंस्टीट्यूट ऑफ फूड प्रोसेसिंग टेक्नोलॉजी, लिआसन ऑफिस बठिंडा से आचार और चटनी बनाने की ट्रेनिंग ली। यहीं उनकी मुलाकात डॉ. गुरप्रीत कौर ढिल्लो से हुई, जिन्होंने बलविंदर जी को गाइड किया और अपने इस काम को बढ़ाने के लिए और उत्साहित किया।

आज—कल बाहर की मिलावटी चीज़ें खाकर लोगों की सेहत बिगड़ रही है मैंने सोचा क्यों ना घर में सामान तैयार करवाकर लोग को शुद्ध खाद्य उत्पाद उपलब्ध करवाए जाएं — बलविंदर कौर

मार्केटिंग की महत्तता को समझते हुए इसके बाद उन्होंने मैडम सतविंदर कौर और मैडम हरजिंदर कौर से पैकिंग और लेबलिंग की ट्रेनिंग ली।

के.वी.के. बठिंडा से स्क्वैश बनाने की ट्रेनिंग लेने के बाद उन्होंने अपना काम घर से ही शुरू किया। उन्होंने एक सैल्फ हेल्प ग्रुप बनाया जिसमें 12 महिलाएं शामिल हैं। ये महिलाएं उनकी सामान काटने और तैयार सामान की पैकिंग में मदद करती हैं।

इस सैल्फ हेल्प ग्रुप से जहां मेरी काम में बहुत मदद होती है वहीं महिलाओं को भी रोज़गार हासिल हुआ है, जो कि मेरे दिल को एक सुकून देता है — बलविंदर कौर

हुनर तो पहले ही बलविंदर जी में था, ट्रेनिंग हासिल करने के बाद उनका हुनर और भी निखर गया।

मुझे आज भी जहां कहीं मुश्किल या दिक्कत आती है, उसी समय मैं फूड प्रोसेसिंग आफिस चली जाती हूं जहां डॉ. गुरप्रीत कौर ढिल्लों जी मेरी पूरी मदद करती हैं — बलविंदर कौर
बलविंदर कौर के द्वारा तैयार किए जाने वाले उत्पाद
  • आचार — मिक्स, मीठा, नमकीन, आंवला (सभी तरह का आचार)
  • चटनी — आंवला, टमाटर, सेब, नींबू, घीया, आम
  • स्क्ववैश — आम, अमरूद
  • शरबत — सेब, लीची, गुलाब, मिक्स
हम इन उत्पादों को गांव में ही बेचते हैं और गांव से बाहर फ्री होम डिलीवरी की जाती है —बलविंदर कौर

बलविंदर जी Zebra smart food नाम के ब्रांड के तहत अपने उत्पाद तैयार करती हैं और बेचती हैं।

इन उत्पादों को बेचने के लिए उन्होंने एक व्हॉट्स एप ग्रुप भी बनाया है जिसमें ग्राहक आर्डर पर सामान प्राप्त कर सकते हैं।

भविष्य की योजना

बलविंदर जी भविष्य में अपने उत्पादों को दुनिया भर में मशहूर करवाना चाहती हैं।

संदेश
“हमें जैविक तौर पर तैयार की चीज़ों का इस्तेमाल करना चाहिए और अपने बच्चों की सेहत का ध्यान रखना चाहिए।
इसके साथ ही जो बहनें कुछ करने का सोचती हैं वे अपने सपनों को हकीकत में बदलें। खाली बैठकर समय को व्यर्थ नहीं गंवाना चाहिए। यह ज़रूरी नहीं कि वे कुकिंग ही करें, जिस काम में भी आपकी दिलचस्पी है आपको वही काम करना चाहिए। परमात्मा में विश्वास रखें और मेहनत करते रहें।”
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खुशपाल सिंह

(गन्ना प्रोसेसिंग)

खेती के साथ साथ गन्ने से ज़हर—मुक्त गुड़—शक्कर तैयार करके बढ़िया कमाई करने वाला किसान

हमारे देश में खेती करने वाले परिवारों में रवायती खेती का रूझान ज्यादा है। पर कुछ किसान ऐसे भी हैं जो समय के साथ बदल रहे हैं और खेती के व्यवसाय को और भी लाभदायक व्यवसाय बनाकर अन्य किसानों में अपनी अलग पहचान बना रहे हैं। यह कहानी भी एक ऐसे किसान की है जिसने रवायती खेती के साथ साथ कुछ अलग करने के बारे में सोचा और अपनी मेहनत और लगन से अपनी एक अलग पहचान बनायी।

पंजाब के जिला संगरूर के गांव मानां के किसान खुशपाल सिंह के पिता सरदार जियून सिंह जी 22 एकड़ ज़मीन पर रवायती खेती करते थे। किसानी परिवार में पैदा हुए खुशपाल सिंह का भी खेती की तरफ ही रूझान था। पिता के अचानक देहांत के बाद खेती की सारी जिम्मेवारी खुशपाल जी के कंधों पर आ गई। जब खुशपाल जी ने खेती करनी शुरू की तो उन्होंने रवायती खेती के साथ साथ अन्य फसलें जैसे सरसों, हल्दी, धान, बासमती, आलू, मक्की और गन्ना आदि की खेती करनी भी शुरू कर दी। समय बीतने पर उन्होने खेती के साथ ही मधु—मक्खी पालन और डेयरी फार्मिंग का काम करना भी शुरू कर दिया। मधु—मक्खी के काम में वह शहद की मक्खियों को राजस्थान, अफगानगढ़ आदि इलाकों में लेकर जाते थे, पर कुछ समय बाद कुछ कारणों के कारण उन्हें मधु—मक्खी पालन का व्यवसाय छोड़ना पड़ा।

फिर खुशपाल जी ने सोचा कि क्यों ना अपने खेती के काम के साथ ही कुछ अलग किया जाए। इसलिए उन्होंने अपने खेतों में गन्ने की खेती करनी शुरू की। गन्ने की खेती के बारे में अपनी जानकारी बढ़ाने के लिए उन्होंने पंजाब खेतीबाड़ी यूनिवर्सिटी, लुधियाना और के.वी.के. रौणी (पटियाला) से ट्रेनिंग भी ली।

धीरे — धीरे उन्होंने गन्ने से गुड़ तैयार करना शुरू कर दिया। उनकी तरफ से तैयार किए गए गुड़ को लोगों की तरफ से बहुत पसंद किया जाने लगा। लोगों की मांग पर उन्होंने गुड़ से शक्कर और अन्य उत्पाद तैयार करने भी शुरू कर दिए। इसके बाद खुशपाल जी ने कभी भी पीछे मुड़कर नहीं देखा और ग्राहकों की मांग को पूरा करने के लिए मेहनत करनी शुरू कर दिया। खुशपाल जी की मेहनत से आस—पास के गांव के लोग भी उन्हें जानने लगे।

हम गन्ने की फसल में खादों का प्रयोग पी ए यू की तरफ से सिफारिश मात्रा के अनुसार ही करते हैं और इससे तैयार गुड़ पूरी तरह रसायन—मुक्त होता है और इसमें किस भी तरह का रंग नहीं मिलाया जाता — खुशपाल सिंह
खुशपाल सिंह जी के द्वारा तैयार किये हुए उत्पादों की सूची:
  • साधारण गुड़
  • शक्कर
  • सौंफ वाला गुड़
  • अलसी का चूरा
  • तिल वाली टिक्की
  • ड्राई फ्रूट वाला गुड़
  • मेडीकटेड गुड़
  • आम हल्दी गुड़

अपने द्वारा तैयार किए इन उत्पादों को बेचने के लिए वे पटियाला — संगरूर रोड पर “ज़िमीदारा घुलाड़ सराओ और गिल” के नाम से घुलाड़ चला रहे हैं। दूर — दूर से लोग उनसे गुड़ और अन्य उत्पाद खरीदने के लिए आते हैं।उनके बहुत सारे ग्राहक उनसे अपनी मांग के आधार पर भी गुड़ तैयार करवाते हैं। घुलाड़ के अलावा वे किसान मेलों में भी अपना स्टॉल लगाते हैं और ग्राहकों से मिल रहा प्रोत्साहन उन्हें और भी अच्छी क्वालिटी के उत्पाद तैयार करने के लिए प्रेरित करता है।

इस पूरे कारोबार में खुशपाल जी को अपने पारिवारिक सदस्यों की तरफ से पूरा सहयोग मिलता है, जिनमें से उनका भाई हरबख्श सिंह हर समय उनके साथ कंधे से कंधा मिलाकर खड़ा होता है।

हमारी घुलाड़ पर आकर कोई भी अपनी पसंद और मांग के आधार पर पास खड़ा होकर गुड़ तैयार सकता है। — खुशपाल सिंह
भविष्य की योजना

खुशपाल जी भविष्य में अपने उत्पादों की सूची और बड़ी करना चाहते हैं और अच्छी पैकिंग के द्वारा मार्केट में उतारना चाहते हैं।


संदेश
“नौजवानों को पढ़—लिखकर नौकरी करने के साथ साथ खेती के क्षेत्र में भी सहयोग देना चाहिए। हमें इस सोच को मन में से निकाल देना चाहिए कि खेती पिछड़े वर्ग का व्यवसाय है। आज—कल बहुत सारे नौजवान खेती में भी नाम कमा रहे हैं। किसानों को खेती के साथ—साथ मंडीकरण भी स्वयं करना चाहिए।”
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जसकरन सिंह

(स्ट्रॉबेरी की खेती)

इस किसान ने साबित किया कि एक आम किसान भी कर सकता है कुछ विशेष, कुछ नया

भीड़ में चलने से कभी किसी की पहचान नहीं बनती, पहचान बनाने के लिए कुछ नया करना पड़ता है। जहां हर कोई एक दूसरे के पीछे लगकर काम कर रहा था, एक किसान ने लिया कुछ नया करने का फैसला। यह किसान स. बलदेव सिंह का पुत्र गांव कौणी तहसील गिदड़बाहा जिला मुक्तसर साहिब, पंजाब का रहने वाला है, जिसका नाम है — स. जसकरन सिंह।

स. बलदेव जी 27 एकड़ में रवायती खेती करते थे। पारिवारिक व्यवसाय, खेती होने के कारण बलदेव जी ने अपने पुत्र जसकरन को भी बहुत छोटी उम्र में ही खेतों में अपने साथ काम करवाना शुरू कर दिया था, जिसकी वजह से पढ़ाई की तरफ ध्यान नहीं दिया गया और पढ़ाई बीच में ही रह गई। 17—18 वर्ष की उम्र में जब खेतों में पैर रखा तो मिट्टी के साथ एक अलौकिक रिश्ता बन गया। शुरू से ही उनके पिता जी गेहूं—चने की रवायती खेती करते थे पर जसकरन सिंह जी के मन में कुछ और ही चल रहा था।

जब मैं बाहर देखता था कि रवायती खेती के अलावा खेती की जाती है, तो मेरा मन भी चाहता था कि कुछ अलग किया जाए कुछ नया किया जाए।— स. जसकरन सिंह

यही सोच मन में रखकर जसकरन जी ने स्ट्रॉबेरी की खेती करने का फैसला किया। जसकरन जी के इस फैसले ने उनके पिता जी को बहुत निराश कर दिया। यह स्वाभाविक भी था क्योंकि एक ऐसी फसल लगानी जिसकी जानकारी ना हो एक बहुत बड़ा कदम था। पर उन्होंने अपने पिता जी को समझाकर अपने 2 दोस्तों के साथ मिलकर 8 एकड़ में स्ट्रॉबेरी का फार्म लगा लिया। मन में एक डर भी बना हुआ था कि जानकारी ना होने के कारण कहीं नुकसान ना हो जाए, पर एक विश्वास भी था कि मेहनत की हुई कभी व्यर्थ नहीं जाती। इसलिए खेती शुरू करने से पहले उन्होंने बागबानी से संबंधित ट्रेनिंग भी ली।

स्ट्रॉबेरी की खेती शुरू करने में उन्हें ज्यादा कोई रूकावट नहीं आई। अपने दोस्तों से सलाह करके, उन्होंने पहले वर्ष दिल्ली से स्ट्रॉबेरी का बीज लिया। मजदूर ज्यादा लगने और मेहनत ज्यादा होने के कारण किसान यह खेती करना पसंद नहीं करते। पर थोड़े समय के बाद ही उनके दोस्तों को यह महसूस हुआ कि स्ट्रॉबेरी की खेती के बारे में कोई जानकारी ना होने के कारण उनके एक दोस्त ने इसके साथ ही अपने भविष्य को सुरक्षित करने के लिए साथ ही और व्यापार करना शुरू कर दिया और दूसरा दोस्त जाने के प्रयास करने लग गया। पर जसकरन जी ने अपने मन में पक्का इरादा किया हुआ था कि कुछ भी हो जाए पर वे स्ट्रॉबेरी की खेती ज़रूर करेंगे।

बाहर की रंग—बिरंगी दुनिया नौजवानों को बहुत आकर्षित करती है, और नौजवान भी अपना भविष्य सुरक्षित करने के लिए बाहर को भाग रहे हैं। मैं चाहता था कि विदेश जाने की बजाए, यहां अपने देश में रहकर ही कुछ ऐसा किया जाए जिससे पंजाब और नई पीढ़ी की सोच में भी बदलाव आए और वे अपना भविष्य यहीं सुरक्षित कर सकें। — स. जसकरन सिंह

पहले वर्ष जसकरन जी को उम्मीद से ज्यादा फायदा हुआ। जिस कारण उन्होंने इस खेती की तरफ अपना पूरा ध्यान केंद्रित कर दिया। उसके बाद उन्होंने हिमाचल की एक किस्म भी लगायी और अब वे पूणे जिसे स्ट्रॉबेरी का हाथ कहा जाता है, वहां से बीज लाकर स्ट्रॉबेरी लगाते हैं। जसकरन जी बठिंडा,  मुक्तसर साहिब और मलोट की मंडी में स्ट्रॉबेरी बेचते हैं।

स्ट्रॉबेरी के साथ साथ जसकरन जी खरबूजा और खीरा भी उगाते हैं। अब उन्होंने स्ट्रॉबेरी की खेती करते हुए 4—5 वर्ष हो गए हैं और वे इससे अच्छा मुनाफा कमा रहे हैं। अपनी मेहनत से जसकरन जी स्ट्रॉबेरी की नर्सरी लगा चुके हैं और इस नर्सरी में वे सब्जियां उगाते हैं।

हर वर्ष पानी का स्तर नीचे जा रहा है। इसलिए हमें तुपका सिंचाई का इस्तेमाल करना चाहिए। — जसकरन सिंह

भविष्य की योजना

भविष्य में जसकरन जी स्ट्रॉबेरी की प्रोसेसिंग करके उससे उत्पाद तैयार करके मार्केटिंग करना चाहते हैं और अन्य किसानों को भी इसके बारे में प्रेरित करना चाहते हैं।

संदेश
“मैं यही कहना चाहता हूं कि किसानों के खर्चे बढ़ रहे हैं पर गेहूं धान के मूल्य में कुछ ज्यादा फर्क नहीं आ रहा, इसलिए किसान भाइयों को रवायती खेती के साथ साथ कुछ अलग करना पड़ेगा। आज के समय में हमें पंजाब में फसली—विभिन्नता लाने की जरूरत है।”
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सुरिंदर सिंह नागरा

(चिकित्सक पौधे)

ऐसा किसान जिसने शौंक से शुरू की जड़ी—बूटियों की खेती और किसान से बना वैद्य

सूरेन्द्र सिंह नागरा पंजाब के जिला जालंधर में स्थित गांव कोहाला के निवासी हैं और आजकल वह करतारपुर साहिब में रेशम आयुर्वेदिक नर्सरी चला रहे हैं । नागरा जी ने कई तरह के चिकित्सक पौधों की खेती करके अपनी विलक्षण पहचान बनाई है।

सुरिंदर सिंह नागरा अपने पिता पहलवान नसीब सिंह और माता रेशम कौर के इकलौते पुत्र हैं। नसीब सिंह जी खेती के साथ — साथ आड़तिये का सामान टांगे पर लादकर जालंधर भी छोड़कर आते थे, जिससे उनके परिवार का गुज़ारा चलता था। घर में आर्थिक तंगी देखते हुए सुरिंदर जी ने पिता के साथ, हाथ बंटाने के लिए 17—18 वर्ष की उम्र में टैक्सी चलाने का काम शुरू कर दिया। हालात ठीक होते देख सुरिंदर जी की शादी कर दी गई। कुछ पारिवारिक समस्याओं के कारण उन्होंने अपनी पत्नी से तलाक ले लिया। कुछ समय बाद नागरा जी की दूसरी शादी हुई। दूसरी पत्नी के तौर पर उन्हें नछत्तर कौर का साथ मिला। पारिवारिक जिम्मेवारियों को और अच्छे ढंग से निभाने के लिए उन्होंने शराब के ठेके पर बतौर सुपरवाइज़र काम करना शुरू कर दिया। पर कुछ समय बाद उन्हें यह एहसास हुआ कि नशों का कारोबार ज़ुर्म जैसा है और नागरा जी ने यह नौकरी छोड़ दी। इस दौरान पिता के अचानक देहांत के बाद घर की पूरी ज़िम्मेवारी सुरिंदर जी के सिर पर आ गई। इसके बाद सुरिंदर जी ने कीड़ेमार दवाइयों और खाद की दुकान खोली। पर इस कारोबार में भी सफलता ना मिली। दुकान में चोरी होने के कारण उन्हें काफी नुकसान हुआ।

दुकान में चोरी होने के कारण, सभी लोग बोल रहे थे कि बहुत बुरा हुआ, पर मैंने सभी को हंसकर कहा कि मेरे पापा की कमाई निकल गई, बहुत अच्छा हुआ। — सुरेंन्द्र सिंह नागरा

इसके बाद उन्होने आड़त के साथ साथ ट्रांसपोर्ट का काम शुरू किया। पर खास बात यह है कि वे आड़तिये के काम में ज़िमींदारों से ब्याज नहीं लेते थे। नागरा जी कभी भी किसी किसान को निराश और खाली हाथ वापिस नहीं भेजते, बल्कि आवश्यकतानुसार नकद भी दे देते थे। इस तरीके से काम करने में किसानों का भला तो था ही पर उन्हें बहुत नुकसान हो रहा था, जिस कारण आखिरकार आड़त का काम भी बंद करना पड़ा। फिर उन्होंने अपना सारा ध्यान ट्रांसपोर्ट के काम पर केंद्रित कर दिया। इस कारोबार में मेहनत करके धीरे धीरे उनके पास स्वंय की 4—5 गाड़ियां हो गई।

पारिवारिक ज़िम्मेवारियों के साथ, उनका अपना एक अलग शौंक भी था, जिसने उन्हें प्रसिद्धि दिलवाई उन्हें बचपन से ही जड़ी—बूटियों के बारे में ज्ञान रखने का शौंक था और अपना खाली समय वे अक्सर इस शौंक को पूरा करने में व्यतीत करते थे।

जड़ी—बूटियों के बारे में जानने का शौंक मुझे मेरे दोस्त शिव कुमार के कारण पड़ा, जो कि जालंधर में कानूंगो लगा था। — सुरेंन्द्र सिंह नागरा

ज़िंदगी अपनी रफ्तार पकड़ ही रही थी, कि फिर सुरेंन्द्र जी को कुछ मुसीबतों का सामना करना पड़ा। एक दुर्घटना में सुरिंदर जी की टांग टूट गई। इस हादसे की खबर सुनकर उनके मित्र शिव कुमार उन्हें मिलने आए। शिव कुमार जी शूगर के मरीज़ थे और उनके छाले पड़े हुए थे, पर फिर भी वे सुरिंदर जी को मिलने आए और 10,000 रूपए और अपनी एक घड़ी दे गए।

शूगर की बीमारी के कारण शिव कुमार की बहूत भयावह मृत्यु हुई, जिसने मेरी आत्मा को झिंझोड़ कर रख दिया। इसलिए मैंने कुछ ऐसा करने के बारे में सोचा कि लोगों को ऐसी स्थितियों का सामना ना करना पड़े। — सुरिंदर सिंह नागरा

फिर उन्होंने जड़ी—बूटियों के बारे में और गंभीरता से जानकारी हासिल करनी शुरू की। इस उद्देश्य के लिए वे केरला के पहाड़ों में भी गए और अपने साथ अपने बेटे को भी ले गए, ताकि उन्हें दूसरी भाषा समझने में कोई दिक्कत ना आए। उस उद्देश्य को पूरा करने के चक्कर में उनकी गाड़ियां बिक गई। बैंक से लोन लेकर उन्होंने जो दुकान खोली थी, उससे संबंधित बैंक वालों ने भी घर आकर ज़लील करना शुरू कर दिया।

फिर मुझे पता लगा कि बैंक में नया मेनेजर आया है। मैं उससे मिला और अपने हालातों के बारे में बताया। उसने भी एक अच्छे इंसान की तरह मेरी मजबूरियों को समझा और पिछले लोन उतारने के लिए मुझे 12—13 लाख रूपए के लोन की मंज़ूरी दिलवाई। — सुरेंन्द्र सिंह नागरा

इन सबसे खाली होकर उन्होंने सबसे पहले स्टीविया का एक पौधा लगाया, जो कि वे पालमपुर से लेकर आए थे। इसके बाद उन्होंने अन्य चिकित्सक पौधे लगाने शुरू कर दिए। इस काम में उनके दोनों बेटों और बेटी ने भी पूरा सहयोग दिया। अब उनके सभी पारिवारिक मेंबर चिकित्सक पौधों से पाउडर तैयार करते हैं और इन पौधे की देख-भाल करते हैं।

धीरे धीरे उन्होंने अपने द्वारा लगाए गए चिकित्सक पौधों से दवाइयां तैयार करके बेचनी शुरू कर दी, जिससे मरीज़ों को बहुत लाभ होने लगा।

इस काम में सफलता हासिल करके वे अब बहुत खुशी महसूस करते हैं। इस काम को उनकी बेटी, वैद्य गुरदीप कौर भी अच्छे से संभाल रही है। सुरिंदर जी का छोटा बेटा डेयरी फार्मिंग का काम करता है। वह दूध से उत्पाद तैयार करके बाज़ार में बेचता है।अब उनके सभी पारिवारिक मेंबर चिकित्सक पौधों से पाउडर तैयार करते हैं और पौधों की देख-भल करते हैं।

सुरेंन्द्र सिंह नागरा जी द्वारा उगाए गए चिकित्सक पौधे
  • इंसुलिन
  • स्टीविया
  • सुहाजना
  • छोटी इलायची
  • बड़ी इलायची
  • ब्राह्मी
  • बनक्शा
  • बांसा
  • कपूर
  • अर्जन
  • तेज पत्ता
  • मघ
  • ज़रेनियम
  • हड्ड जोड़ बूटी
  • सदाबहार
  • अश्वगंधा
  • शतावरी
  • अजवायन
  • ओडोमास
  • सीता अशोका
  • सफेद चंदन
  • रूद्राक्श (तीन मुखी)
  • पुत्रनजीवा
  • लहसुन बेल
  • कपूर तुलसी
  • रोज़मेरी
  • नाग केसर
  • अकरकरा
  • सर्पगंधा
  • हार-सिंगार

    जो मरीज़ दवाइयों के पैसे नहीं दे सकते, हम उन्हें दवाई मुफ्त भी देते हैं। — सुरिंदर सिंह नागरा

    इस कार्य के कारण उन्हें शिरोमणि वैद्य कमेटी की तरफ से काफी सम्मान भी मिला है और के साथ भी उनके संबंध बहुत अच्छे हैं। अब सुरिंदर जी केंद्र सरकार के साथ मिलकर किसानों को चिकित्सक पौधों की खेती की तरफ उत्साहित करने वाले प्रोजेक्ट पर काम कर रहे हैं।

    भविष्य की योजना
    सुरिंदर जी चाहते हैं कि उनके द्वारा शुरू किए गए इस काम को उनके बच्चे संभालें और इसी तरह ही लोगों का इलाज और मदद करें।

    संदेश
    “नौजवान पीढ़ी को चिकित्सिक पौधों के बारे में जानकारी हासिल करनी चाहिए ताकि घर—घर में वैद्य हों और लोगों को डॉक्टरों के पास जाकर महंगी — महंगी फीसों से इलाज ना करवाना पड़े। सुरिंदर नागरा जी का मानना है कि किसान से बढ़िया और कोई डॉक्टर नहीं हो सकता। इसलिए किसान को जैविक तरीके से खेती करनी चाहिए।”

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जपिंदर वधावन

(फार्म मशीनरी)

खेती मशीनरी में तेजी से छा रहा नौजवान इंजीनियर — जपिंदर वधावन

कहा जाता है कि यदि किसी काम को करने का पक्का निश्चय कर लिया जाए तो फिर सफलता पीछे — पीछे भागती है और इसी कहावत को सच कर दिखाया है एक नौजवान इंजीनियर ने जिसका नाम है जपिंदर वधावन।

जपिंदर जी ने अपनी इंजीनियरिंग की पढ़ाई को खेती के क्षेत्र से जोड़ा, क्योंकि किसान और खेती का समाज में बहुत बड़ा योगदान है। खेती के लिए मशीन की आवश्यकता भी समय समय पर बदलती रहती है। नई मशीनरी से फसल बोने से लेकर प्रोसेसिंग तक के सभी काम आसानी से और कम समय में हो जाते हैं। पर इन महंगी मशीनों को खरीदना हर किसान के बस में नहीं होता। किसानों की इस मुश्किल को समझा, नौजवान इंजीनियर जपिंदर वधावन ने, जिन्हें “रफ्तार इंजीनियर” के नाम से भी जाना जाता है। मोहाली के रहने वाले इस नौजवान इंजीनियर का नाम, कम पैसे में और किसान की आवश्यकता और मांग के अनुसार मशीनें तैयार करने के लिए अलग तौर पर प्रसिद्ध है।

मैकेनिकल इंजीनियरिंग की पढ़ाई करने वाले जपिंदर वधावन पहले खेती क्षेत्र के बारे में बिल्कुल अनजान थे। उन्होंने पहले असिस्टेंट प्रोफेसर और मेंटेनेंस इंजीनियर के तौर पर नौकरी की। अचानक ही किस्मत से उन्हें दिल्ली में हुए मेक इन इंडिया इवेंट में जाने का अवसर मिला और इस इवेंट में उनकी मुलाकात एक किसान सरदार हरपाल सिंह गरेवाल जी से हुई जो वहां पर रोटावेटर लेने के लिए आए थे। जपिंदर जी ने उनकी आवश्यकता को समझते हुए उन्हें 10 फुट रोटावेटर तैयार करके देने का वादा कर दिया। हरपाल जी ने मशीन तैयार करने के लिए जपिंदर के बैंक अकाउंट में 40000 रूपए भी डलवा दिए। पर जपिंदर ने कभी भी इस तरह की कोई मशीन तैयार नहीं की थी, पर वे अपना किया हुआ वादा तोड़ना नहीं चाहते थे। इसलिए उन्होंने अपनी जिम्मेवारी को समझते हुए रोटावेटर तैयार करना शुरू कर दिया। अपनी मेहनत से उन्होंने अपने सहयोगियों के साथ मिलकर एक महीने में ही रोटावेटर तैयार कर दिया। जपिंदर की यह पहली कोशिश ही सफल रही और उन्हें किसानों की तरफ से काफी प्रोत्साहन भी मिला। इसके बाद जपिंदर ने अपने खाली समय में किसानों से मिलना और उन्हें प्रोसेसिंग के लिए प्रयोग की जाने वाली मशीनरी संबंधी पेश आती मुश्किलों के बारे में जानना शुरू किया।

इस दौरान जपिंदर की मुलाकात पंजाब खेतीबाड़ी यूनिवर्सिटी के खेती व्यापार विषय के माहिर और प्रोफेसर डॉ. रमनदीप सिंह और प्रगतिशील किसान सुक्खी लोंगिया जी से हुई। इन हस्तियों से जपिंदर ने किसानों को प्रोसिंसग में आने वाली दिक्कतों के बारे में और बारीकी से जाना और आगे बढ़ने का हौंसला भी मिला।

आज हमारे देश में बहुत सारे किसान आत्महत्या कर रहे हैं, जो कि हमारे देश के लिए एक शर्मनाक बात है। आत्महत्या का एक बड़ा कारण है खेती मशीनों के महंगे मूल्य। इन महंगी मशीनों को बहुत कम किसान ही खरीदते हैं। अत: हम किसान की आवश्यकता को समझते हुए कम मूल्य में मशीनें तैयार करने की कोशिश करते हैं — जपिंदर वधावन

जपिंदर को दूसरा प्रोजेक्ट मिला हल्दी उबालने वाली मशीन का। यह प्रोजेक्ट भी उन्हें किस्मत से ही मिला। एक बस में उनकी मुलाकात एक किसान से हुई, जो कि हल्दी बॉयलर मशीन बनाना चाहते हैं। एक महीने के अंदर अंदर जपिंदर ने हल्दी बॉयलर तैयार कर दिया। इसके बाद जपिंदर ने पीछे मुड़कर नहीं देखा। उन्हें किसानों की तरफ से जो भी प्रोजेक्ट मिले उन्होंने अपनी मेहनत से किसानों की उम्मीदों पर खरा उतरने की पूरी कोशिश की और वे इस काम में सफल भी हुए।

इन प्रोजेक्टों में मिली सफलता के बाद जपिंदर ने अपने सहयोगी साथियों के साथ मिलकर एक टीम बनाई और इस टीम को नाम दिया गया — रफ्तार प्रोफेशनल इंजीनियरिंग कंपनी। इनकी इस टीम में लगभग 15 अलग अलग विषयों के इंजीनियर और कॉलेज के विद्यार्थी शामिल हैं, जो कि अपने विषय में पूरी महारत रखते हैं।

अपने हुनर को अन्य किसानों और लोगों तक पहुंचाने के लिए जपिंदर अपनी टीम द्वारा तैयार की गई मशीनों की वीडियो सोशल मीडिया के द्वारा अन्य किसानों के साथ शेयर करते हैं। जिससे और भी किसान उनसे जुड़ते हैं।

यदि हम आसान शब्दों में कहें, तो हम किसानों की मुश्किलों को समझते हैं। हम किसान की आवश्यकतानुसार मशीन तैयार करते हैं, जिससे वे नई तकनीक को अपना सकें और अपनी कमाई में वृद्धि कर सकें — जपिंदर वधावन

रफ्तार इंजीनियरिंग टीम से जुड़े लगभग 300 किसान में से 120 किसान जैविक खेती करते हैं और जपिंदर स्वंय भी किसानों को जैविक खेती करने के लिए प्रेरित करते हैं। सिर्फ पंजाब ही नहीं, बल्कि हरियाणा, आंध्र प्रदेश और उत्तर प्रदेश सहित कई क्षेत्रों के किसान जपिंदर के पास मशीनरी तैयार करवाने के लिए आते हैं।

कहा जाता है कि इंसान की ज़िंदगी में सफलता के साथ साथ असफलता भी आती है। रफ्तार इंजीनियरिंग टीम अब तक 20 प्रोजेक्ट पर काम कर चुकी है, जिनमें से 17 प्रोजेक्ट में उन्हें सफलता मिली और 3 प्रोजेक्ट में असफलता। पर इस असफलता ने उनकी हिम्मत टूटने नहीं दी और उन्होंने अपने काम को और कुशलता से करने का फैसला किया। जपिंदर के साथ उनकी 15 सहयोगियों की टीम है, जो हर काम में उनकी मदद करते हैं।

जपिंदर के द्वारा तैयार की गई मशीनें

  • रोटावेटर
  • गार्लिक अनियन पीलर
  • जैगरी प्रोसेसिंग फ्रेम
  • टरमरिक स्टीम बॉयलर
  • टरमरिक पुलवेराईज़र
  • टरमरिक पॉलिशर
  • पावर वीडर
  • पल्सिस मिल्ल
  • पुलवेराईज़र
  • इरीगेशन शेड्यूलर

किसानों के लिए मशीनें तैयार करने के साथ साथ जपिंदर इंजीनियरिंग की पढ़ाई करने वाले विद्यार्थियों को उनके प्रोजेक्ट पूरे करने में भी मदद करते हैं, जो कि आने वाले समय में किसानों के लिए लाभदायक साबित होंगे।

किसानों को जैविक खेती के लिए प्रेरित करने के उद्देश्य से जपिंदर, जैविक खेती करने वाले किसानों को मशीनरी तैयार करने पर भारी छूट भी देते हैं।

भविष्य की योजना

भविष्य में जपिंदर अपनी कंपनी को बड़े स्तर पर लेकर जाने के लिए, स्वंय की इंडस्ट्री लगाना चाहते हैं और अपने द्वारा बनाई हुई मशीनरी का आयात निर्यात का काम करना चाहते हैं।

किसानों के लिए संदेश

“किसानों को रासायनिक खेती को छोड़कर, जैविक खेती की तरफ ध्यान देना चाहिए। किसानों को सोच समझकर निवेश करना चाहिए। किसी के पीछे लगकर कोई फैसला नहीं लेना चाहिए। सलाह सब से लेनी चाहिए, पर अपने पैसे निवेश करने से पहले अच्छी तरह विचार कर लेना चाहिए।”
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पवनदीप सिंह अरोड़ा

(मधु मक्खी पालन)

विदेश जाने के सपने को छोड़ कर विरासती व्यवसाय में सफलता हासिल करने वाला मधु-मक्खी पालक

पंजाब में आज कल युवा पीढ़ी विदेशों में जाकर बसने की चाहवान है, क्योंकि उन्हें लगता है कि विदेशों में उनका भविष्य ज़्यादा सुरक्षित हो सकता है। पर यदि हम अपने देश में रहकर अपना कारोबार यही पर ही बेहतर तरीके से करे तो हम अपने देश में ही अपना भविष्य सुरक्षित बना सकते हैं।

ऐसा ही एक नौजवान है पवनदीप सिंह अरोड़ा। एम.ए की पढ़ाई करने वाले पवनदीप भी पहले विदेश में जाकर बसने की इच्छा रखते थे, क्योंकि बाकि नौजवानों की तरह उन्हें भी लगता है कि विदेशों में काम करने के अधिक अवसर हैं।

पवन के चाचा जी स्पेन में रहते थे, इसलिए दसवीं की पढ़ाई करने के बाद ही पवन का रुझान वहां जाने की तरफ था। पर उनका बाहर का काम नहीं बना और उन्होंने साथ-साथ अपनी पढ़ाई भी जारी रखी। बाहर का काम ना बनता देख पवन ने अपनी ग्रेजुएशन की पढ़ाई करने के बाद अपनी बहन के साथ मिलकर एक कोचिंग सेंटर खोला। 2 साल के बाद बहन का विवाह होने के बाद उन्होंने कोचिंग सेंटर बंद कर दिया।

पवन के पिता जी मधु मक्खी पालन का काम 1990 से करते हैं। पढ़े-लिखे होने के कारण पवन चाहते हैं कि या तो वह विदेश में जाकर रहने लग जाएं या फिर किसी अच्छी नौकरी पर लग जाएं, क्योंकि वह यह मधुमक्खी पालन का काम नहीं करना चाहते थे। पर इस दौरान उनके पिता शमशेर सिंह जी की सेहत खराब रहने लग गई। उस समय शमशेर सिंह जी मध्य प्रदेश में मधु मक्खी फार्म पर थे। डॉक्टर ने उन्हें आराम करने की सलाह दी, जिसके कारण पवन को स्वयं मध्य प्रदेश जाकर काम संभालना पड़ा। उस समय पवन को शहद निकालने के बारे में बिलकुल भी जानकारी नहीं थी, पर मध्य प्रदश में 4 महीने फार्म पर रहने के बाद उन्हें इसके बारे में जानकारी हासिल हुई। इस काम में उन्हें बहुत लाभ हुआ। धीरे-धीरे पवन जी की दिलचस्पी कारोबार में बढ़ने लगी और उन्होंने मधुमक्खी पालन को अपने व्यवसाय के तौरपर अपनाने का फैसला किया और अपना पूरा ध्यान इस व्यवसाय पर केंद्रित कर लिया। इसके बारे में और जानकारी हासिल करने के लिए उन्होंने कृषि विज्ञान केंद्र, अमृसतर से 7 दिनों की मधुमक्खी पालन की ट्रेनिंग भी ली। शहद निकालने का तरीका सीखने के बाद पवन ने अब शहद की मार्केटिंग की तरफ ध्यान देना शुरू किया। उन्होंने देखा कि शहद बेचने वाले व्यापारी उनसे 70-80 रूपये किलो शहद खरीदकर 300 रूपये किलो के हिसाब से बेचते हैं।

“व्यापारी हमारे से सस्ते मूल्य पर शहद खरीदकर महंगे मूल्य पर बेचते हैं। मैंने सोचा कि अब मैं शहद बेचने के लिए व्यापारियों पर निर्भर नहीं रहूंगा। इस उद्देश्य के लिए मैंने खुद शहद बेचने का फैसला किया”- पवनदीप सिंह अरोड़ा

पवनदीप के पास पहले 500 बक्से मधु-मक्खी के थे, पर शहद की मार्केटिंग की तरफ ध्यान देने के खातिर उन्होंने बक्सों की संख्या 500 से कम करके 200 कर दी और काम करने वाले 3 मज़दूरों को पैकिंग के काम पर लगा दिया। स्वयं शहद की पैकिंग करके बेचने से उन्हें काफी लाभ हुआ। किसान मेलों पर भी वह खुद शहद बेचने जाते हैं, जहाँ पर उन्हें लोगों की तरफ से अच्छा रिजल्ट मिला।

युवा होने के कारण पवन सोशल मीडिया के महत्व को बाखूबी समझते हैं। इसलिए उन्होंने शहद बेचने के लिए वेबसाइट बनाई, ऑनलाइन प्रोमोशन भी की और वह इसमें भी सफल हुए।

आजकल मार्केटिंग के बारे में समझ कम होने के कारण मधु मक्खी पालक यह काम छोड़ जाते हैं। यदि अपना ध्यान मार्केटिंग की तरफ केंद्रित कर शहद का व्यापार किया जाये तो इस काम में भी बहुत लाभ कमाया जा सकता है।

  • पवनदीप जी की तरफ तैयार किये जाते शहद की किस्में:
  • सरसों का शहद
  • सफेदे का शहद
  • अकाशिया हनी
  • शीशम का शहद
  • लीची का शहद
  • मल्टीफ़्लोरा शहद
  • खेर का शहद
  • जामुन का शहद
  • बेरी का शहद
  • अजवाइन का शहद

जहाँ-जहाँ शहद प्राप्ति हो सकती है, पवनदीप जी, अलग-अलग जगह पर जैसे कि नहरों के किनारों पर मधु मक्खियों के बक्से लगाकर, वहां से शहद निकालते हैं और फिर माइग्रेट करके शहद की पैकिंग करके शहद बेचते हैं। वह ए ग्रेड शहद तैयार करते हैं, जो कि पूरी तरह जम जाता है, जो कि असली शहद की पहचान है। जिन लोगों की आँखों की रौशनी कम थी, पवन द्वारा तैयार किये शहद का इस्तेमाल करके उनकी आँखों की रौशनी भी बढ़ गई।

हम शहद निकालने के लिए अलग-अलग जगहों, जैसे – जम्मू-कश्मीर, सिरसा, मुरादाबाद, राजस्थान, रेवाड़ी आदी की तरफ जाते हैं। शहद के साथ-साथ बी-वेक्स, बी-पोलन, बी-प्रोपोलिस भी निकलती है, जो बहुत बढ़िया मूल्य पर बिकती है – पवनदीप सिंह अरोड़ा

शहद के साथ-साथ अब पवन जी हल्दी की प्रोसेसिंग भी करते हैं। वह किसानों से कच्ची हल्दी लेकर उसकी प्रोसेसिंग करते हैं और शहद के साथ-साथ हल्दी भी बेचते हैं। इस काम में पवन जी के पिता (शमशेर सिंह अरोड़ा), माता (नीलम कुमारी), पत्नी (रितिका सैनी) उनकी सहायता करते हैं। इस काम के लिए उनके पास गॉंव की अन्य लड़कियॉं आती हैं, जो पैकिंग के काम में उनकी मदद करती हैं।

भविष्य की योजना

मधु-मक्खी पालन के कारोबार में सफलता प्राप्त करने के बाद पवन जी इस कारोबार को ओर बढ़े स्तर पर लेकर जाकर अन्य उत्पादों की मार्केटिंग करना चाहते हैं।

किसानों के लिए संदेश
“मधु-मक्खी के कारोबार में शहद बेचने के लिए किसी व्यापारी पर निर्भर नहीं रहना चाहिए। मधु-मक्खी के रखवालों को खुद शहद निकालकर, खुद पैकिंग करके मार्केटिंग करनी चाहिए है, तभी इस काम में मुनाफा कमाया जा सकता है।”
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मिलन शर्मा

(डेयरी फार्मिंग)

जज़्बा हो तो महिलाओं के लिए कुछ भी असम्भव नहीं है….ऐसी ही एक मिसाल है मिलन शर्मा

अक्सर ही माना जाता है कि डेयरी फार्मिंग का काम ज़्यादातर कम पढ़े-लिखे लोग ही करते हैं। पर अब इस काम में ज़्यादा कमाई होती देखकर पढ़े लिखे लोग भी इस काम में शामिल हो रहे हैं। आज-कल डेयरी फार्मिंग के काम में पुरुषों के साथ-साथ महिलायें में आगे आ रही हैं। इस कहानी में हम एक ऐसी महिला की बात करने जा रहे हैं जो डेयरी फार्मिंग का काम अपनाकर कामयाब हुई और अब अन्य महिलाओं के लिए प्रेरणा स्रोत बन रही है।

हरियाणा की रहनी वाली मिलन शर्मा जी ने M.Sc Biochemistry की पढ़ाई की है। पढ़ाई के दौरान ही उनका विवाह चेतन शर्मा जी, जो कि एक इलेक्ट्रॉनिक इंजीनियर हैं, उनके साथ हो गया। विवाह के बाद दो बेटे होने के कारण वह अपने गृहस्थ में शामिल हो गए । बेटों के स्कूल जाने के बाद उन्होंने खाली समय में जर्मन भाषा सीखनी शुरू की और बाद में उनको एक स्कूल में जर्मन भाषा सिखाने के लिए अध्यापक के तौर पर नौकरी मिल गई। इसके साथ ही उन्होंने जर्मन कल्चर सेंटर के साथ प्रोजेक्ट मैनेजर के तौरपर कई सालों काम किया। इस प्रोजेक्ट के तहत बच्चों को जर्मन भाषा सिखाकर उच्च पढ़ाई के लिए जर्मन में जाने के लिए तैयार किया जाता था।

आगे जाकर दोनों बच्चों को बढ़िया नौकरी मिल गई तो हम दोनों (पति-पत्नी) ने वातावरण और समाज के लिए कुछ बेहतर करने के बारे में सोचा – मिलन शर्मा

मिलन जी के ससुर जी के पास गाँव में 4 गाय थी, जिनकी देखभाल स्वयं करते थे। 2017 में उनके देहांत के बाद मिलन और उनके पति ने अपने पिता की रखी 4 गायों की देखभाल करनी शुरू की और इसके साथ उन्होंने 2 और साहीवाल नस्ल की गाय खरीदी। समय के साथ उनका डेयरी का काम बढ़ने लगा और मिलन जी को अपनी नौकरी छोड़नी पड़ी। पर उन्हें डेयरी फार्मिंग के बारे में कुछ ज़्यादा जानकारी नहीं थी, इसलिए उन्होंने अपनी जानकारी में वृद्धि करने के लिए करनाल और LUVAS और GADVASU से ट्रेनिंग हासिल की। उनके पास धीरे-धीरे 30 गाय हो गई। इसके बाद उन्होंने 6 एकड़ में “रेवनार” नाम का एक फार्म शुरू किया। रेवनार नाम रेवती और नारायण के सुमेल से लिया गया है, जो कि मिलन जी के पति के दादा-दादी का नाम है। इस फार्म को उन्होंने FSSAI से रजिस्टर करवा लिया। इस समय उनके पास साहीवाल, थारपारकर, राठी और गिर नस्ल की 140 गाय हैं।

मैं पहले गाय के पास जाने से भी डरती थी, पर अब मेरा पूरा दिन गायों के बीच में ही गुजरता है। अब गाय मेरे साथ ऐसे रहती है जैसे वह मेरी सहेली हो – मिलन शर्मा

गायों की संख्या ज़्यादा होने के कारण उनके पास दूध की मात्रा भी बढ़ने लगी। पहले उनसे रिश्तेदार और गाँव के कुछ लोग ही दूध लेकर जाते थे, पर दूध की गुणवत्ता बढ़िया होने के कारण और लोगों ने दूध खरीदना शुरू कर दिया है। पहले वह ड्रम में डालकर ग्राहक तक पहुंचाते थे, पर कुछ समय के बाद उन्हें महसूस हुआ कि इसमें कोई बदलाव आना चाहिए। अब वह कांच की बोतलों में दूध डालकर ग्राहकों को बेचते हैं। उनके द्वारा जिन कांच की बोतलों में ग्राहकों को दूध बेचा जाता है, अगले दिन ग्राहक उन बोतलों को वापिस कर देते हैं। इस तरह फिर अगले दिन कांच की बोतलों में दूध भरकर ग्राहकों तक पहुँचाया जाता है। उनके द्वारा दूध और दूध द्वारा तैयार किये उत्पाद (पनीर, दहीं, मक्खन, लस्सी, देसी घी) ऑनलाइन भी बेचे जाते हैं। मिलन जी अपनी डेयरी का दूध दिल्ली, नोएडा, फरीदाबाद के ग्राहकों को बेचते हैं।

डेयरी फार्म के साथ ही वह मथुरा में 15 एकड़ ज़मीन पर खेती करते हैं। यहाँ फसलों में वह गेहूं, धान, सरसों के साथ ही चारे की फसलें जई, बरसीम, बाजरा, मक्की, लोबिया, ग्वार, चने आदि की खेती करते हैं।

इनके द्वारा डेयरी में गायों के गोबर और मूत्र का भी प्रयोग किया जाता है। उन्होंने एक बायोगैस प्लांट भी लगाया है , जिसमें गायों के गोबर से गैस तैयार की जाती है, जिसका प्रयोग गायों के लिए खुराक जैसे दलिया आदि तैयार करने के लिए करते हैं।

इसके अलावा मिलन जी ने अपने फार्म पर अलग-अलग तरह के फलदार, चकित्सिक और विरासती पेड़ लगाए हैं, जैसे कि नीम, टाहली, कदम, पपीता, गिलोय, आंवला, अमरुद, बेलपत्र, नींबू, इमली आदि।

इन सभी पेड़ों के पत्तों को गाय के मूत्र में मिलाकर जीव अमृत तैयार करते हैं, जिसका प्रयोग फसलों के लिए किया जाता है। इसके अलावा कीड़ेमार दवाइयों की जगह वह खट्टी लस्सी आदि का प्रयोग करते हैं।

मिलन जी के पति, चेतन जी घरों और कंपनियों में सोलर पैनल लगाने के काम करते हैं। उन्होंने ने अपने फार्म में भी 800 किलोवाट का सोलर पैनल लगाया हुआ है।

उपलब्धियां
मिलन जी के संकल्प और मेहनत के ज़रिये उनके द्वारा हसिल की उपलब्धिया नीचे लिखे अनुसार हैं:
  • पशु पालन विभाग, हरियाणा की तरफ से प्रगतिशील किसान का दर्जा दिया गया है।
  • रेवनार फार्म की 2 गायों ने फरीदाबाद पशु मेले में ईनाम जीते।
  • केवल एक साल के समय में 30 से 140 गायों तक संख्या बढ़ाई और 5 घरों से 200 से ज़्यादा ग्राहकों को अपने साथ जोड़ा।
भविष्य की योजना

मिलन जी अपने पूरे गाँव को रसायन मुक्त वातावरण देना चाहते हैं। वह आगे चलकर अपने डेयरी फार्म को एक स्किल सेंटर के तौरपर पशु पालकों को ट्रेनिंग देना चाहते हैं। वह सरकार के साथ मिलकर एक प्रोजेक्ट शुरू करना चाहते हैं, जिसमें उनके गाँव में सभी के लिए एक कम्युनिटी बायोगैस प्लांट लगाया जाये। इस प्रोजेक्ट के साथ जहाँ गाँव वालों को मुफ्त गैस मिलेगी, वहां ही उन्हें अपने पशुओं के गोबर के सही प्रयोग के बारे में जानकारी हासिल होगी और वह गोबर गैस के व्यर्थ को खेतों में खाद के तौरपर प्रयोग करके रसायन के होने वाले खर्चे को कम कर सकते हैं।

संदेश
“नौजवानों को डेयरी फार्मिंग के क्षेत्र में आगे आना चाहिए। इस क्षेत्र में रोज़गार के बहुत से अवसर होते हैं। हमे अपने बच्चों को भी शुरू से ही इस काम में आने के लिए प्रेरित करना चाहिए।”
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जसवंत सिंह सिद्धू

(जैविक खेती—फूलों की खेती)

जसवंत सिंह सिद्धू फूलों की खेती से जैविक खेती को प्रफुल्लित कर रहे हैं

जसवंत सिंह जी को फूलों की खेती करने के लिए प्रेरणा और दिलचस्पी उनके दादा जी से मिली और आज जसवंत सिंह जी ऐसे प्रगतिशील किसान हैं, जो जैविक तरीके से फूलों की खेती कर रहे हैं। खेतीबाड़ी के क्षेत्र में जसवंत सिंह जी की यात्रा बहुत छोटी उम्र में ही शुरू हुई, जब उनके दादा जी अक्सर उन्हें बगीची की देख—रेख में मदद करने के लिए कहा करते थे। इस तरह धीरे—धीरे जसवंत जी की दिलचस्पी फूलों की खेती की तरफ बढ़ी। पर व्यापारिक स्तर पर उनके पूर्वजों की तरह ही उनके पिता भी गेहूं—धान की ही खेती करते थे और उनके पिता जी कम ज़मीन और परिवार की आर्थिक स्थिति कमज़ोर होने के कारण कोई नया काम शुरू करके किसी भी तरह का जोखिम नहीं लेना चाहते थे।

परिवार के हलातों से परिचित होने के बावजूद भी 12वीं की पढ़ाई के बाद जसवंत सिंह जी ने पी ए यू की तरफ से आयोजित बागबानी की ट्रेनिंग में भाग लिया। हालांकि उन्होंने बागबानी की ट्रेनिंग ले ली थी, पर फिर भी फूलों की खेती में असफलता और नुकसान के डर से उनके पिता जी ने जसवंत सिंह जी को अपनी ज़मीन पर फूलों की खेती करने की आज्ञा ना दी। फिर कुछ समय के लिए जसवंत सिंह जी ने गेहूं—धान की खेती जारी रखी, पर जल्दी ही उन्होंने अपने पिता जी को फूलों की खेती (गेंदा, गुलदाउदी, ग्लेडियोलस, गुलाब और स्थानीय गुलाब) के लिए मना लिया और 1998 में उन्होंने इसकी शुरूआत ज़मीन के छोटे से टुकड़े (2 मरला = 25.2929 वर्ग मीटर) पर की।

“जब मेरे पिता जी सहमत हुए, उस समय मेरा दृढ़ निश्चय था कि मैं फूलों की खेती वाले क्षेत्र को धीरे धीरे बढ़ाकर इससे अच्छा मुनाफा हासिल करूंगा। हालांकि हमारे नज़दीक फूल बेचने के लिए कोई अच्छी मंडी नहीं थी, पर फिर भी मैंने पीछे हटने के बारे में नहीं सोचा।”

जब फूलों की तुड़ाई का समय आया, तो जसवंत सिंह जी ने नज़दीक के क्षेत्रों में शादी या और खुशी के समागमों वाले घरों में जाना शुरू किया ओर वहां फूलों से कार और घर सजाने के कॉन्ट्रेक्ट लेने शुरू किए। इस तरीके से उन्होंने आय में 8000 से 9000 रूपये का मुनाफा कमाया। जसवंत सिंह जी की तरक्की देखकर उनके पिता जी और बाकी परिवार के सदस्य बहुत खुश हुए और इससे जसवंत सिंह जी की हिम्मत बढ़ी। धीरे धीरे उन्होंने फूलों की खेती का विस्तार 2½ एकड़ तक कर लिया और इस समय वे 3 एकड़ में फूलों की खेती कर रहे हैं। समय के साथ साथ जसवंत सिंह जी अपने फार्म पर अलग अलग किस्मों के पौधे और फूल लाते रहते हैं। अब उन्होंने फूलों की नर्सरी तैयार करनी भी शुरू की है, जिससे वे बढ़िया मुनाफा कमा रहे हैं और अब मंडीकरण वाला काम भी खुद संभाल रहे हैं।

खैर जसवंत सिंह जी की मेहनत व्यर्थ नहीं गई और उनके प्रयत्नों के लिए उन्हें सुरजीत सिंह ढिल्लो पुरस्कार 2014 से सम्मानित किया गया।

भविष्य की योजना

भविष्य में जसवंत सिंह जी फूलों की खेती का विस्तार करना चाहते हैं और ज़मीन किराए पर लेकर पॉलीहाउस के क्षेत्र में प्रयास करने की योजना बना रहे हैं।

संदेश
सरकारी योजनाएं और सब्सिडियों पर निर्भर होने की बजाए किसानों को खेतीबाड़ी के लिए स्वंय प्रयत्न करने चाहिए।
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मुकेश देवी

(मक्खी पालन)

मीठी सफलता की गूंज — मिलिए एक ऐसी महिला से जो शहद के व्यवसाय से 70 लाख की वार्षिक आय के साथ मधुमक्खीपालन की दुनिया में आगे बढ़ रही है

“ऐसा माना जाता है कि भविष्य उन लोगों से संबंधित होता है जो अपने सपने की सुंदरता पर विश्वास करते हैं।”

हरियाणा के जिला झज्जर में एक छोटा सा गांव है मिल्कपुर, जो कि अभी तक अच्छे तरीके से मुख्य सड़क से जुड़ा हुआ नहीं है और यहां सीधी बस सेवा की कोई सुविधा नहीं है। किसी व्यक्ति के लिए ऐसी जगह पर रहने के दौरान किसी भी खेती संबंधित गतिविधि या व्यवसाय शुरू करने के बारे में सोचना भी असंभव सा लगता है। लेकिन मधुमक्खीपालन के क्षेत्र में मुकेश देवी के सफल प्रयासों ने साबित कर दिया है कि यदि आपके पास कुछ भी करने का जुनून है तो कुछ भी असंभव नहीं है। मधुमक्खियों के दर्दनाक जहरीले डंक से पीड़ित होने के बाद भी मुकेश देवी और उनके पति ने कभी भी रूकने का नहीं सोचा और उन्होंने उत्तरी भारत में सर्वश्रेष्ठ शहद उत्पादन करने का अपना जुनून जारी रखा।

वर्ष 1999 में, मुकेश देवी के पति — जगपाल फोगाट ने अपने रिश्तेदारों से प्रेरित होकर मधुमक्खीपालन की शुरूआत की, जो मधुमक्खीपालन कर रहे थे। कृषि विज्ञान केंद्र द्वारा प्रदान की गई ट्रेनिंग की सहायता से मुकेश देवी भी 2001 में अपने पति के उद्यम में शामिल हो गईं। जिस काम को उन्होंने कुछ मधुमक्खियों के साथ शुरू किया, धीरे धीरे वह काम समय के साथ बढ़ने लगा और अब वह दूसरे राज्यों जैसे पंजाब, हिमाचल प्रदेश, जम्मू कश्मीर, राजस्थान और दिल्ली के क्षेत्रों में भी विस्तृत हो गया है।

स्वास्थ्य लाभ और शहद के लिए बढ़ती बाज़ार की मांग को देखते हुए, अब मुकेश देवी ने अपने ही ब्रांड- नेचर फ्रेश के तहत शहद बेचना शुरू कर दिया है। वर्तमान में, उनके पास शहद के संग्रह के लिए मधुमक्खियों के 2000 बक्से हैं।

मुकेश देवी ने ना केवल अपने परिवार की स्थिति को वित्तीय रूप से स्थिर बनाया बल्कि उन्होंने 30 से अधिक लोगों को रोज़गार भी प्रदान किया है। अपने नियोजित कार्यबल की सहायता से 5 अलग अलग राज्यों में मधुमक्खियों के बक्से भेजकर मुकेश देवी और उनके पति वार्षिक 600 से 700 क्विंटल शहद इक्ट्ठा करते हैं, और शहद से, इसका मतलब यह नहीं है कि वह एक ही स्वाद का साधारण शहद है बल्कि उनके पास 7 से अधिक विभिन्न फ्लेवर में शहद है जो तुलसी, अजवायन, धनिया, शीशम, सफेदा, इलायची, नीम, सरसों और अरहर के पौधों से एकत्र किए जाते हैं। तुलसी का शहद उनकी विस्तृत बाज़ार मूल्यों के साथ सबसे अच्छे शहद में से एक है।

जब शहद इक्ट्ठा करने की बात आती है तब यह पति पत्नी का जोड़ा विभिन्न राज्यों के समय और मौसम पर विशेष ध्यान देते हैं और उनके अनुसार उन्होंने अपने मधुमक्खियों के बक्सों को विभिन्न स्थानों पर स्थापित किया है। जैविक शहद के लिए बक्सों को विभिन्न राज्यों में जंगलों में भेजा जाता है,विभिन्न स्थानों से शहद इक्ट्ठा करने के कुछ समय काल नीचे दिए गए हैं—

  • तुलसी शहद के लिए — बक्सों को मध्यप्रदेश के जंगलों में अक्तूबर से नवंबर में भेजा जाता है।
  • अजवायन शहद के लिए — बक्सों को राजस्थान के जंगलों में दिसंबर से जनवरी में भेजा जाता है।
  • अजवायन के लिए — बक्सों को जम्मू कश्मीर और पंजाब में अक्तूबर से नवंबर में भेजा जाता है।
  • और फरवरी से अप्रैल में बक्सों को हरियाणा के विभिन्न स्थानों पर स्थापित किया जाता है।

इसके अलावा, इस जोड़ी की आय शहद उत्पादन और इसकी बिक्री तक ही सीमित नहीं है बल्कि वे कॉम्ब हनी, हनी आंवला मुरब्बा, हनी कैरट मुरब्बा, बी पॉलन, बी वैक्स, प्रोपोलिस और बी वीनॉम भी बेचते हैं जो बाज़ार में अच्छे दामों में बिक जाते हैं।

वर्तमान में, मुकेश देवी और उनके पति सिर्फ मधुमक्खीपालन से ही लगभग 70 लाख वार्षिक आय कमा रहे हैं।

मुकेश देवी और जगपाल फोगाट के प्रयासों को कई संगठनों और अधिकारिकों द्वारा सराहा गया है उनमें से कुछ नीचे दिए गए हैं—

  • 2016 में IARI,नई दिल्ली,राष्ट्रीय कृषि उन्नति मेले में मधुमक्खीपालन और विभिन्न तरह के शहद उत्पादन के लिए उन्हें राष्ट्रीय पुरस्कार प्राप्त हुआ।
  • मुकेश देवी और जगपाल फोगाट को सूरजकुंड, फरीदाबाद में एग्री लीडरशिप पुरस्कार से सम्मानित किया गया।
  • इस्पात मंत्री बीरेंद्र सिंह द्वारा अच्छे शहद उत्पादन के लिए सम्मानित किया गया।
  • कृषि और किसान कल्याण मंत्री, परषोत्तम खोदाभाई रूपला द्वारा सम्मानित किया गया।
  • उनकी उपलब्धियों को प्रगतिशील किसान अधीता और अभिनव किसान नामक पत्रिका में अन्य 39 प्रगतिशील किसानों के साथ प्रकाशित किया गया।

मुकेश देवी एक प्रगतिशील मधुमक्खी पालनकर्ता हैं और उनकी पहल ने अन्य महिला उद्यमियों के लिए एक उदाहरण स्थापित किया है। कि यदि आपके प्रयास सही दिशा में हैं यहां तक कि मधुमक्खीपालन के व्यवसाय में भी तो आप करोड़पति बन सकते हैं।

भविष्य की योजनाएं

मुकेश देवी और उनके पति ने अपने गांव में ज़मीन खरीदी है जहां पर वे बाज़ार की मांग के अनुसार अपने उत्पादों की प्रोसेसिंग यूनिट स्थापित करने की योजना बना रहे हैं।

संदेश
वर्तमान स्थिति को देखते हुए, किसानों को बेहतर वित्तीय स्थिरता के लिए रवायती खेती के साथ संबंधित कृषि गतिविधियों को आगे बढ़ाना चाहिए।
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अमरनाथ सिंह

(जैविक खेती)

अमरनाथ सिंह जी के जीवन पर जैविक खेती ने कैसे अच्छा प्रभाव डाला और कैसे उन्हें इस काम की तरफ आगे ले जाने के लिए प्रेरित कर रही है।

स्वस्थ भोजन खाने और रासायन- मुक्त जीवन जीने की इच्छा बहुत सारे किसानों को जैविक खेती की तरफ लेकर गई है। बठिंडे से एक ऐसे किसान अमरनाथ सिंह जो जैविक खेती को अपनाकर सफलतापूर्वक अपने खेतों में से अच्छा मुनाफा ले रहे हैं।

खेतीबाड़ी में आने से पहले अमरनाथ जी ने 5 वर्ष (2005-2010) ICICI  जीवन बीमा सलाहकार के तौर पर काम किया और विरासत में मिली ज़मीन अन्य किसानों को किराये पर दी हुई थी। इस ज़मीन की विरासती कहानी इतनी ही नहीं है। सब कुछ बढ़िया चल रहा था, अमरनाथ जी के पिता — निर्भय सिंह जी ने 1984 तक इस ज़मीन पर खेती की। 1984 में हालात बहुत बिगड़ चुके थे और पंजाब के कई क्षेत्रों में यह मामला बहुत बढ़ चुका था। उस समय अमरनाथ जी के पिता ने रामपुरा फूल, जो बठिंडा जिले का कस्बा है, को छोड़ने का फैसला किया और वे बरनाला जिले के तपा मंडी कस्बे में जाकर बस गए, जो अमरनाथ जी के पिता के नाना का गांव था।

निर्भय सिंह का अपनी ज़मीन से बहुत लगाव था, इसलिए रामपुरा फूल छोड़ने के बाद भी वे तपा मंडी से रोज़ अपने खेतों की तरफ चक्कर लगाने जाते थे। पर एक दिन (वर्ष 2000) जब निर्भय सिंह जी अपने खेतों से वापिस आ रहे थे तो एक हादसे में उनकी मौत हो गई। तब से ही अमरनाथ जी अपने परिवार और ज़मीन की जिम्मेवारी संभाल रहे हैं।

2010 में ज़मीन के किराए का मूल्य कम हो जाने के कारण ज़मीन का सही मूल्य नहीं मिलने लगा। इसलिए उन्होंने स्वंय खेती करने का फैसला किया। इसके अलावा 2007 में जब वे खेती करने की सोच रहे थे, तब उनके मित्र निर्मल सिंह ने उन्हें जैविक खेती करने वाले प्रगतिशील किसानों के बारे में बताया।

राजीव दिक्षित वे व्यक्ति थे, जिन्होंने अमरनाथ जी को खेती करने के लिए बहुत प्रेरित किया। और मदद लेने के लिए 2012 में अमरनाथ जी खेती विरासत मिशन में शामिल हुए और उन्होंने सभी कैंपों में उपस्थित होना शुरू किया, जहां से खेती संबंधित जानकारी, भरपूर सूचना हासिल की।

शुरू में अमरनाथ जी ने व्यापारिक तौर पर नरमे और धान की खेती की और घरेलु उद्देश्य के लिए कुछ सब्जियां भी उगायीं। 2012 में उन्होंने 11 एकड़ में खरीफ की फसल ग्वारा उगायी, जिसमें से उन्हें ज्यादा मुनाफा हुआ, पर इससे प्राप्त आय उनके घरेलु और खेती खर्चों को पूरा करने के लिए काफी थी। धीरे-धीरे समय के साथ अमरनाथ जी ने कीटनाशकों का प्रयोग कम कर दिया और 2013 में उन्होंने पूरी तरह कीटनाशकों का प्रयोग बंद कर दिया। 2015 में उन्होंने रासायनिक खादों का प्रयोग भी कम करना शुरू कर दिया। पूरी ज़मीन (36 एकड़) में से वे 26 एकड़ में स्वंय खेती करते हैं और बाकी ज़मीन किराए पर दी है।

“अमरनाथ — रासायनिक खादों और कीटनाशकों का प्रयोग बंद करने के बाद मैं अपने और अपने परिवार के जीवन में आया सकारात्मक बदलाव देख सकता हूं।”

इसके फलस्वरूप 2017 में अमरनाथ जी ने अपने वास्तविक गांव वापिस आने का फैसला किया और आज वे अपने परिवार के साथ खुशियों से भरपूर जीवन व्यतीत कर रहे हैं। उन्होंने फार्म का नाम अपने पिता के नाम पर निर्भय फार्म रखा, ताकि उन्हें इस फार्म द्वारा हमेशा याद रखा जा सके।

जैविक खेती को और प्रफुल्लित करने के लिए अमरनाथ जी घर में स्वंय ही डीकंपोज़र और कुदरती कीटनाशक तैयार करके मुफ्त में अन्य किसानों को बांटते हैं आज अमरनाथ जी ने जो कुछ भी हासिल किया है, यह सब उनकी अपनी मेहनत और दृढ़ इरादे का परिणाम है।

भविष्य की योजना

आने वाले समय में मैं अपने बच्चों को खेती अपनाने के लिए प्रेरित करने की योजना बना रहा हूं। मैं चाहता हूं कि वे मेरे साथ खड़े रहें और खेती में मेरी मदद करें।

संदेश
मेरा संदेश नई पीढ़ी के लिए है, आज कल नई पीढ़ी सोशल मीडिया साइट जैसे कि फेसबुक, इंस्टाग्राम और व्हॉट्स एप आदि से बहुत प्रभावित हुई है। उन्हें सोशल मीडिया को, व्यर्थ समय गंवाने की बजाय खेती संबंधित जानकारी हासिल करने के लिए प्रयोग करना चाहिए।
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अमरजीत सिंह ढिल्लों

(बागबानी)

आखिर क्यों एम.टैक की पढ़ाई बीच में छोड़कर यह नौजवान करने लगा खेती?

हर माता-पिता का सपना होता है उनके बच्चे पढ़-लिखकर किसी अच्छी नौकरी पर लग जाएं ताकि उनका भविष्य सुरक्षित हो जाये। ऐसा ही सपना अमरजीत सिंह ढिल्लों के माता-पिता का था। इसलिए उन्होंने ने अपने बेटे के बढ़िया भविष्य के लिए उसे बढ़िया स्कूल में पढ़ाया और उच्च शिक्षा के लिए उन्होंने दाखिला बी.टेक मैकेनिकल में करवाया। मैकेनिकल इंजीनियर में ग्रेजुएशन करने के बाद अमरजीत ने एम.टेक करने का फैसला किया और अपना दाखिला भी करवा लिया। पर एम.टेक की पढ़ाई में उनकी कोई ख़ास दिलचस्पी नहीं थी, इसलिए उन्होंने पढ़ाई बीच ही छोड़ने का फैसला किया।

अमरजीत जी के परिवार के पास 24 एकड़ ज़मीन थी, जिस पर उनके पिता जी और भाई पारंपरिक खेती करते हैं। एक साल तक अमरजीत जी भी अपने पिता के साथ खेती करते रहे, पर नौजवान होने के कारण अमरजीत पारंपरिक खेती के चक्र में नहीं फसना चाहते थे। कृषि के बारे में अपने ज्ञान को अधिक बढ़ाने के लिए उन्होंने पंजाब एग्रीकल्चर यूनिवर्सिटी, लुधियाना जाना शुरू कर दिया।

उन्होंने ने पीएयू में यंग फार्मर कोर्स दाखिला लिया। कोर्स पूरा होने के बाद उन्होंने बागवानी फसल करने का फैसला किया। सबसे पहले उन्होंने अपने फार्म जिसका नाम “ग्रीन एनर्जी फार्म” है,  में फलों की खेती शुरू की।। वह बाद में साथ-साथ सब्जियां, फूलों की खेती और मधु मक्खी पालन का काम भी करने लगे।

“मैंने एक साल के अंदर-अंदर यह सब छोड़कर केवल फलों और सब्जियों की खेती करने का फैसला किया, क्योंकि फलों और सब्जियों का मंडीकरण आसानी से एक ही मंडी में हो जाता है। इसमें दुकानदारी की तरह रोज़ाना कमाई हो जाती है” – अमरजीत सिंह ढिल्लों

अमरजीत जी ने पूरे साल के लिए एक टाइम-टेबल बनाया, जिसके अनुसार वह अलग-अलग महीने बोई हुई फसलों की कटाई करते हैं।

अमरजीत जी जैविक खेती नहीं करते, पर वह सबसे पहले जैविक तरीकों से कीड़ों और बिमारियों पर नियंत्रण करने की कोशिश करते हैं और ज़रूरत पड़ने पर पीएयू की तरफ से सिफारिश की गई स्प्रे का प्रयोग सिफारिश मात्रा में ही करते हैं। आज भी अमरजीत के.वी.के. और यूनिवर्सिटी और जिला स्तर ट्रेनिंग में भी हिस्सा लेते हैं। आज भी यहाँ अमरजीत जी कोई भी समस्या आती है तो वह पीएयू के माहिरों की सलाह लेते हैं।

“मेरे अनुसार, फल तोड़ने के बाद पौधों पर स्प्रे करनी चाहिए ताकि तोड़ाई और स्प्रे के समय में 24 से 48 घंटे का फासला हो “– अमरजीत सिंह ढिल्लों
उपलब्धियां
अमरजीत जी ने राज्य स्तर और राष्ट्रीय स्तर पर बहुत से सन्मान हासिल किये हैं, जिनमें से कुछ नीचे दिए गए हैं:
  • पीएयू की तरफ से मुख्य मंत्री पुरस्कार (2006)
  • आत्मा की तरफ से राज्य स्तरीय पुरस्कार (2009)
  • एग्रीकल्चर समिट चप्पड़चिड़ी में स्टेट पुरस्कार
  • इंटरनेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ़ वेजिटेबल रिसर्च की तरफ से ज़ोनल पुरस्कार (2018)
  • IARI की तरफ से इनोवेटिव फार्मर पुरस्कार (नेशनल अवार्ड 2018)
भविष्य की योजना

भविष्य में अमरजीत सिंह ढिल्लों अपना पूरा ध्यान फलों और सब्जियों की सेल्फ मार्केटिंग और प्रोसेसिंग पर केंद्र करना चाहते हैं।

संदेश
“बागवानी क्षेत्र में आने के चाहवान नौजवानों को अच्छी तरह पढ़ाई करके और ट्रेनिंग लेकर खेती की तरफ अपना ध्यान केंद्रित करना चाहिए। छोटे स्तर पर खेती करनी शुरू करनी चाहिए, किसी की बातों में आकर शुरू में ही ज़्यादा पैसे का निवेश नहीं करना चाहिए। खेतीबाड़ी से संबंधित किताबें पड़नी चाहिए और हमेशा सीखते रहना चाहिए।”
manpreet hn

मनप्रीत कौर

(हस्तशिल्प)

पश्चिमी सभ्यता के इस युग में…पंजाब की बेटी एक बेटी जो विरासत संभालने के लिए यत्नशील है

आजकल पश्चिमी सभ्यता अपनाने के चक्कर में हम अपने पंजाब की अमीर विरासत को भूलते जा रहे हैं। हमारी संस्कृति विरासत और पिछोकड़ प्रदर्शनियों का हिस्सा बन कर रह गई है। पुराने समय में दरियां, खेसियां और फुलकारियां बनाना पंजाबी औरतों का शौंक हुआ करता था। पर आजकल फुलकारियां बनाना तो दूर की बात, पंजाब की लड़कियां फुलकारी लेती भी नहीं। हमारी नई पीढ़ी को तो यह भी नहीं पता होगा कि फुलकारी कहते किसे हैं?

पश्चिमी सभ्यता के इस दौर में पंजाब की एक ऐसी बेटी है, जो अपनी विरासत संभालने में यत्नशील है। तरनतारन जिले की अर्थशास्त्र में ग्रेजुएशन करने वाली मनप्रीत कौर फुलकारी बनाने का काम करती है। अपनी पढ़ाई पूरी करने के बाद घर में आर्थिक समस्याओं के कारण मनप्रीत अपने परिवार की मदद करना चाहती थी। मनप्रीत के दादी और माता जी फुलकारियां बनाया करते थे। एक दिन अचानक मनप्रीत की नज़र अपनी दादी के ट्रंक में पड़ी फुलकारी पर गई, तो उसने सोचा कि क्यों न फुलकारी बनाने के काम को एक कारोबार के तौर पर शुरू किया जाए। अपने इस सपने को हकीकत में बदलने के लिए मनप्रीत ने अपने दोस्तों से बातचीत की। पर उसके दोस्तों ने यह कह कर मना कर दिया कि इस व्यवसाय में कोई मुनाफा नहीं है और न ही आजकल लोग यह सब पसंद करते हैं।

“मेरे दोस्तों ने कहा कि यह बैकवर्ड चीज़ है, इसे कोई पसंद नहीं करता। इस बात ने मुझे यह सोचने के लिए मजबूर कर दिया लोग इसे बैकवर्ड क्यों समझते हैं ? इस क्यों का जवाब ढूंढ़ना बहुत ज़रूरी था।” – मनप्रीत कौर

इसके बाद मनप्रीत ने अपनी इस विरासत को फिर बहाल करने कोशिशें शुरू कर दीं। साल 2015 में 5 औरतों के एक ग्रुप की मदद से सब से पहले उन्होंने पांच फुलकारियां बनाईं। फुलकारियां बनाने के बाद सवाल यह था कि अब इन्हें बेचा कहां जाए? इस उदेश्य के लिए उन्होंने इंटरनेट पर खोज आरंभ की, जिस से उन्हें फुलकारी खरीदने वाली एक सरकारी संस्था के बारे में पता चला। मनप्रीत ने उस संस्था को यह फुलकारियां दिखाईं और वे पांच फुलकारियां बेचने के लिए ले गए। यह संस्था फुलकारियों के पैसे फुलकारी बिकने के बाद देती थी। इस वजह से अक्सर पैसे दो-तीन महीने बाद मिलते थे, जिस कारण घर का खर्चा चलाना भी मुश्किल था। एक वर्ष तक यही सिलसिला जारी रहा।

“मेरे मां-बाप ने अपना एक एक पैसा इस काम में लगा दिया, क्योंकि उन्हें मुझ पर विश्वास था कि मैं यह काम कर सकती हूँ।” – मनप्रीत कौर

एक साल ऐसे ही चलने के बाद उन्होंने सोचा कि इस तरह काम नहीं चल सकता, क्योंकि उन्होंने ग्रुप के बाकी मैंबरों को भी पैसे देने होते थे। इस उन्होंने फिर इंटरनेट की मदद ली। सोशल मीडिया पर पेज बनाए। पर यहां भी कोई ख़ास सफलता नहीं मिली। तब मनप्रीत ने सोचा कि जिस चीज़ को लोग बैकवर्ड कह रहे हैं, उसे एक मॉडर्न दिखावट दी जाए?

हम अपनी सभ्यता को थोड़ा सा मॉडर्न करके नई दिखावट देने के लिए हल्के दुपट्टों पर फुलकारी बनाए, ताकि इन्हें जीन्स के साथ भी इस्तेमाल कर सकें। – मनप्रीत कौर

मनप्रीत का यह विचार काफी हद तक सफल सिद्ध हुआ। इस से उनकी फुलकारियों की बिक्री काफी बढ़ गई। इस ग्रुप में शहर की 20-30 महिलाएं काम करती थीं, पर मनप्रीत इस काम में गांव की महिलाओं को भी अपने साथ जोड़ना चाहती थीं, क्योंकि गांव की औरतों को अपनी विरासत और सभ्यता के बारे में अधिक ज्ञान होता है और वे इस काम में काफी अनुभवी होती हैं। पर गांव की महिलाओं के लिए बाहर आ कर काम करना बहुत मुश्किल होता है, इस लिए मनप्रीत गांव की महिलाओं को खुद घर जा कर फुलकारी बनाने का सामान दे के आती हैं ताकि उन्हें कोई समस्या न आए। इनके इस उद्यम से उन महिलाओं को रोज़गार मिला, जो घर से निकल कर काम नहीं कर सकती थीं।

इंटरनेट पर मनप्रीत को सब से पहले जो विदेश से आर्डर मिला, उसमें तोहफों के साथ देने के लिए 40 फुलकारियों का आर्डर था। इस आर्डर में भेजी गई फुलकारियों को बहुत पसंद किया गया, जिस से विदेशों में भी उनकी फुलकारियों की मांग बढ़ गई। विदेशी मीडिया ने भी इस ग्रुप की बहुत मदद की। उन्होंने कॉल के ज़रिये ली गई इंटरव्यू वाला वीडियो प्रमोट किया, जिस से उन्हें विदेशों जैसे कि कनेडा, अमरीका में से भी बहुत सारे आर्डर मिलने शुरू हो गए। सीनियर पत्रकार बलतेज सिंह पंनू जी ने भी मनप्रीत की पोस्ट सोशल मीडिया पर शेयर की, जिस से काफी फायदा हुआ।

पंजाब से ज्यादा विदेश में फुलकारियां खरीदी जाती हैं और हमारे ज्यादातर ग्राहक भी विदेशों से ही हैं। – मनप्रीत कौर

इसके साथ साथ मनप्रीत जी के पास कई कॉलेज के विद्यार्थी इंटर्नशिप पर ट्रेनिंग के लिए भी आते हैं।

उपलब्धियां
अपनी विरासत को संभालने के लिए किये गए उद्यमों के लिए मनप्रीत को बहुत सारे अवार्ड भी मिले, जिन में से कुछ नीचे दिए हैं:
  • हमदर्द विरासती मेले में विशेष सम्मान
  • पी टी सी पंजाबी चैनल की तरफ से सिरजनहारी अवार्ड

विरासत को कायम रखने के लिए किये गए यत्नों को देखते हुए मनप्रीत को तरनतारन जिले की ब्रैंड अम्बैस्डर भी बनाया गया।

भविष्य की योजनाएं

आने वाले समय में मनप्रीत फुलकारी के इस कारोबार को विदेशों के साथ-साथ अपने देश में भी प्रसिद्ध करना चाहती हैं, ताकि आने वाली पीढ़ी अपनी अमीर संस्कृति को समझ और जान सके।

सन्देश
“नौजवान पीढ़ी को अपनी विरासत संभालने के यत्न करने चाहिए। इस काम में रोज़गार के मौके पैदा हो सकते हैं। जो महिलाएं घर से निकल कर काम नहीं कर सकतीं, वे घर में रह कर ही यह काम कर सकती हैं और यह उनकी कमाई का स्त्रोत बन सकता है।”
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प्रियंका गुप्ता

(जैविक खेती)

एक होनहार बेटी जो अपने पिता का सपना पूरा करने के लिए मेहनत कर रही है

आज-कल के ज़माने में जहाँ बच्चे माता-पिता को बोझ समझते हैं, वहां दूसरी तरफ प्रियंका गुप्ता अपने पिता के देखे हुए सपने को पूरा करने के लिए दिन-रात मेहनत कर रही है।

एम.बी.ए. फाइनांस की पढ़ाई पूरी कर चुकी प्रियंका का बचपन पंजाब के नंगल में बीता। प्रियंका के पिता बदरीदास बंसल बिजली विभाग, भाखड़ा डैम में नियुक्त थे जो कि नौकरी के साथ-साथ अपने खेती के शौंक को भी पूरा कर रहे थे। उनके पास घर के पीछे थोड़ी सी ज़मीन थी, जिस पर वह सब्जियों की खेती करते थे। 12 साल नंगल में रहने के बाद प्रियंका के पिता का तबादला पटियाला में हो गया और उनका पूरा परिवार पटियाला में आकर रहने लगा। यहाँ इनके पास बहुत ज़मीन खाली थी जिस पर वह खेती करने लग गए। इसके साथ ही उन्होंने अपना घर बनाने के लिए संगरूर में अपना प्लाट खरीद लिया।

बदरीदास जी बिजली विभाग में से चीफ इंजीनियर रिटायर हुए। इसके साथ ही उनके परिवार को पता लगा कि प्रियंका के माता जी (वीना बंसल) कैंसर की बीमारी से पीड़ित हैं और इस बीमारी से लड़ते-लड़ते वह दुनिया को अलविदा कह गए।

वीना बंसल जी के देहांत के बाद बदरीदास जी ने इस सदमे से उभरने के लिए अपना पूरा ध्यान खेती पर केंद्रित किया। उन्होंने संगरूर में जो ज़मीन घर बनाने के लिए खरीदी थी उसके आस-पास कोई घर नहीं और बाजार भी काफी दूर था तो उनके पिता ने उस जगह की सफाई करवाकर वहां पर सब्जियों की खेती करनी शुरू की। 10 साल तक उनके पिता जी ने सब्जियों की खेती में काफी तजुर्बा हासिल किया। रिश्तेदार भी उनसे ही सब्जियां लेकर जाते हैं। पर अब बदरीदास जी ने खेती को अपने व्यवसाय के तौरपर अपनाने के मन बना लिया।

पर बदरीदास जी की सेहत ज़्यादा ठीक नहीं रहती थी तो प्रियंका ने अपने पिता की मदद करने का मन बना लिया और इस तरह प्रियंका का खेती में रुझान और बढ़ गया।

वह पहले पंजाब एग्रो के साथ काम करते थे पर पिता की सेहत खराब होने के कारण उनका काम थोड़ा कम हो गया। इस बात का प्रियंका को दुख है क्योंकि पंजाब एग्रो के साथ मिलकर उनका काम बढ़िया चल रहा था और सामान भी बिक जाता था। इसके बाद संगरूर में 4-5 किसानों से मिलकर एक दुकान खोली पर कुछ कमियों के कारण उन्हें दुकान बंद करनी पड़ी।

अब उनका 4 एकड़ का फार्म संगरूर में है पर फार्म की ज़मीन ठेके पर ली होने के कारण वह अभी तक फार्म का रजिस्ट्रेशन नहीं करवा सके क्योंकि जिनकी ज़मीन है, वह इसके लिए तैयार नहीं है।

पहले-पहले उन्हें मार्केटिंग में समस्या आई पर उनकी पढ़ाई के कारण इसका समाधान भी हो गया। अब वह अपना ज़्यादा से ज़्यादा समय खेती को देने लगे। वह पूरी तरह जैविक खेती करते हैं।

ट्रेनिंग:

प्रियंका ने पंजाब एग्रीकल्चर यूनिवर्सिटी लुधियाना से बिस्कुट और स्कवैश बनाने की ट्रेनिंग के साथ-साथ मधुमक्खी पालन की ट्रेनिंग भी ली, जिससे उन्हें बहुत कुछ सीखने को मिला।

प्रियंका के पति कुलदीप गुप्ता जो एक आर्किटेक्ट हैं, के बहुत से दोस्त और पहचान वाले प्रियंका द्वारा तैयार किये उत्पाद ही खरीदते हैं।

“लोगों का सोचना है कि आर्गेनिक उत्पाद की कीमत ज़्यादा होती है पर कीमत का कोई ज़्यादा फर्क नहीं पड़ता। कीटनाशकों से तैयार किये गए उत्पाद खाकर सेहत खराब करने से अच्छा है कि आर्गेनिक उत्पादों का प्रयोग किया जाये, क्योंकि सेहत से बढ़कर कुछ नहीं”- प्रियंका गुप्ता
प्रियंका द्वारा तैयार किये कुछ उत्पाद:
  • बिस्कुट (बिना अमोनिया)
  • अचार
  • वड़ियाँ
  • काले छोले
  • साबुत मसर
  • हल्दी
  • अलसी के बीज
  • सोंफ
  • कलोंजी
  • सरसों
  • लहसुन
  • प्याज़
  • आलू
  • मूंगी
  • ज्वार
  • बाजरा
  • तिल
  • मक्की देसी
  • सभी सब्जियां
पेड़
  • ब्रह्मी
  • स्टीविया
  • हरड़
  • आम
  • मोरिंगा
  • अमरुद
  • करैनबेरी
  • पुदीना
  • तुलसी
  • नींबू
  • खस
  • शहतूत
  • आंवला
  • अशोका

यह सब उत्पाद बनाने के अलावा प्रियंका मधुमक्खी पालन और पोल्ट्री का काम भी करते हैं, जिसमें उनके पति भी उनका साथ देते हैं।

“हम मोनो क्रॉपिंग नहीं करते, अकेले धान और गेहूं की बिजाई नहीं करते, हम अलग-अलग फसलों जैसे ज्वार, बाजरा, मक्की इत्यादि की बिजाई भी करते हैं।” – प्रियंका गुप्ता
उपलब्धियां:
  • प्रियंका 2 बार वोमेन ऑफ़ इंडिया ऑर्गेनिक फेस्टिवल में हिस्सा ले चुकी है।
  • छोटे बच्चों को बिस्कुट बनाने की ट्रेनिंग दी।
  • जालंधर रेडियो स्टेशन AIR में भी हिस्सा ले चुके हैं।
भविष्य की योजना:

भविष्य में यदि कोई उनसे सामान लेकर बेचना चाहता है तो वह सामान ले सकते हैं ताकि प्रियंका अपना पूरा ध्यान क्वालिटी बढ़ाने में केंद्रित कर सकें और अपने पिता का सपना पूरा कर सकें।

किसानों को संदेश
“मेहनत तो हर काम में करनी पड़ती है। मेहनत के बाद तैयार खड़ी हुई फसल को देखकर और ग्राहकों द्वारा तारीफ सुनकर जो संतुष्टि मिलती है , उसकी शब्दों में व्याख्या नहीं की जा सकती।”
Mandeep verma-hn

मनदीप वर्मा

(कीवी फल)

जानिए कैसे यह किसान बंजर भूमि पर खेती कर कमा रहा है लाखों रुपए

एक किसान के लिए उसकी भूमि ही सब कुछ होती है। फसल की पैदावार भूमि के उपजाऊपन पर ही निर्भर करती है, पर यदि भूमि ही बंजर हो तो किसान की उम्मीदें हो टूट जाती है। पर हिमाचल का एक ऐसा किसान है जो बंजर भूमि पर खेती कर आज लाखों रूपये कमा रहा है।

एम.बी.ए. की पढ़ाई करने वाले मनदीप वर्मा ने मैनेजर के रूप में विपरो कंपनी में 4-5 साल नौकरी की। पर इस नौकरी से उनको संतुष्टि नहीं मिली और फिर उन्होंने अपनी पत्नी के साथ अपने शहर सोलन आने का फैसला किया। उन्होंने ने सोलन वापिस आकर बंजर भूमि पर खेती करने के बारे में सोचा। पर वह सभी किसानों की तरह पारंपरिक खेती नहीं करना चाहते थे। उन्होंने सबसे अलग करने का फैसला किया और बागवानी करने के विचार बनाया।

अपने इस विचार को हकीकत (वास्तविकता) का रूप देने के लिए उन्होंने ने पहले अपने इलाके के मौसम के बारे में जानकारी हासिल की और यूनिवर्सिटी के डॉक्टरों से मिलकर सभी जानकारी हासिल की और अंत में उन्होंने कीवी की खेती करने का फैसला किया।

कीवी के बारे में पूरी जानकारी हासिल करने के लिए मैं पुस्तकालय (लाइब्रेरी) में गया, बहुत सी किताबें पड़ी और यूनिवर्सिटी के डॉक्टरों से भी मिले और सभी जानकारी हासिल करने के बाद कीवी की खेती शुरू की- मनदीप वर्मा

सोलन के बागवानी विभाग और डॉ.यशवंत सिंह परमार यूनिवर्सिटी के वैज्ञानिकों से बात करने के बाद 2014 में कीवी का बाग तैयार करने का मन बनाया। उन्होंने ने 14 बीघा भूमि पर कीवी का बगीचा बनाया।

उन्होंने ने इस बगीचे में कीवी की उन्नत किस्में एलिसन और हैबर्ड के पौधे लगाए। लगभग 14 लाख रूपये में बगीचा तैयार करने के बाद 2017 में मनदीप सिंह जी ने कीवी बेचने के लिए वेबसाइट बनाई।

बाग से फल सीधा ग्राहक तक पहुँचाने की मेरी यह कोशिश सफल रही। – मनदीप वर्मा

कीवी की सप्लाई वेबसाइट पर ऑनलाइन बुकिंग के बाद की जाती है। हैदराबाद, बंगलौर, दिल्ली, उत्तराखंड, पंजाब, हरियाणा और चंडीगढ़ में ऑनलाइन कीवी फल बेचा जाता है।

कीवी के डिब्बे के ऊपर फल की कब तोड़ाई की, कब डिब्बे में पैक किया सभी जानकारी डिब्बे के ऊपर दी जाती है। एक डिब्बे में एक किलो कीवी फल पैक किया जाता है और इसकी कीमत 350 रूपये प्रति/बॉक्स है। जबकि सोलन में कीवी 150 रूपये प्रति किलोग्राम बेचा जाता है।

मनदीप मुताबिक देश में कीवी की खेती की शुरुआत हिमाचल प्रदेश से ही हुई। आज देश का कुल 60 प्रतिशत कीवी उत्पादन अरुणाचल प्रदेश में तैयार होता है।

मनदीप कीवी फल पूरी तरह जैविक तरीके से तैयार करते हैं। जैविक खेती के उद्देश्य को अपनाते हुए वह कंपोस्ट और जैविक अमृत भी आप तैयार करते हैं।

हमारे फार्म में तैयार हुए कीवी डेढ़-दो महीने तक खराब नहीं होता- मनदीप वर्मा

कीवी की खेती में सफलता हासिल करने के बाद उन्होंने 2018 में सेब की खेती शुरू की। मनदीप जीरो बजट खेती में विश्वास रखते हैं।

उपलब्धियां

कीवी की खेती में सफलता हासिल करने के कारण उन्हें 2019 में कृषि मेला हिमाचल प्रदेश में प्रगतिशील किसान पुरस्कार दिया गया।

भविष्य की योजना

इस समय मनदीप वर्मा की दो नर्सरी है और वे ऐसी और नर्सरी तैयार करना चाहते हैं।

संदेश
“किसी भी तरह की खेती करने से पहले उस जगह के मौसम संबंधी जानकारी हासिल करनी चाहिए। आज-कल सोशल मीडिया पर सभी जानकारी उपलब्ध है। हमें सोशल मीडिया का उपयोग सहज तरीके से करना चाहिए। हमे जैविक खेती और जीरो बजट खेती साथ में करनी चाहिए, क्योंकि इसमें ज़्यादा मुनाफा है।”
rishab hn

रिषभ सिंगला

(उत्पाद प्रोसेसिंग)

हरियाणा का 23 साल का नौजवान बन रहा है दूसरे नौजवानों के लिए मिसाल

बेरोज़गारी के इस दौर में एक तरफ जहाँ हमारी युवा पीढ़ी नशों की तरफ जा रही है या विदेशों में रहने के बारे में सोच रही है, वहां ही दूसरी तरफ हरियाणा का 23 साल का नौजवान कुछ अनोखा करके बाकि लोगों के लिए प्रेरणा स्रोत बन रहे है। जी हां हरियाणा के रिषभ सिंगला, जो कि अपनी BBA पढ़ाई पूरी कर चुके हैं, अपनी ज़िन्दगी में कुछ अलग करने की इच्छा रखते थे। आज-कल बच्चे से लेकर बुज़ुर्ग सभी ही चॉकलेट के शौक़ीन हैं। इसलिए रिशभ चॉकलेट बनाने के बारे में सोचने लगे। रिशभ को पढ़ाई करते हुए ही पता चला कि कोको प्लांट्स की आर्गेनिक खेती कर्नाटक में होती है, पर उन्हें इसके बारे में ज़्यादा जानकारी नहीं थी, क्योंकि रिशभ के पिता धूप-अगरबत्ती की ट्रेडिंग का व्यापार करते हैं। इसके लिए कोको प्लांट्स के बारे में अधिक जानकारी हासिल करने के लिए COORG (कर्नाटक) गए। उन्होंने जानकारी हासिल करने के बाद चॉकलेट तैयार करने का इरादा बनाया।

फरवरी 2018 में पहली बार कर्नाटक के किसानों से आर्गेनिक कोको बीन्स लेकर रिशभ ने घर पर ही मिक्सर ग्राइंडर के साथ कोको बीन्स पीसकर चॉकलेट तैयार की। हालाँकि पहले उनको इस काम में कठिनाई आई पर उन्होंने हार नहीं मानी। रिशभ ने अन्य कई किस्मों की चॉकलेट तैयार की और उनको इस काम में सफलता भी मिली। इस तरह उनके द्वारा घर में चॉकलेट तैयार करने का सिलसिला शुरू हो गया। पहले उनके परिवार के सदस्य ही इस काम में उनकी मदद करते थे, पर काम ज़्यादा होने के कारण उन्होंने 8 घरेलू महिलाओं को अपने काम में शामिल कर लिया और उनको रोज़गार उपलब्ध करवाया।

“मेरे अनुसार, भले ही इस व्यवसाय में मुनाफा कम हो लेकिन चॉकलेट की गुणवत्ता अच्छी होनी चाहिए, क्योंकि आज कल के दौर में मिलावटी चीजें बहुत बेची जाती हैं, जो लोगों के स्वस्थ के लिए हानिकारक होती हैं।” – रिशभ सिंगला

अपनी सोच के अनुसार ही रिशभ केवल आर्गेनिक तौर पर कोको बीन्स ही खरीदते हैं और इनसे ही चॉकलेट तैयार करते हैं। अब रिशभ बंगाल में तैयार किये आर्गेनिक कोको बीन्स ही चॉकलेट तैयार करने के लिए खरीदते हैं।

कोको बीन्स के बारे में पूरी जानकारी हासिल करने और उनसे चॉकलेट तैयार करने के बाद रिशभ अब चॉकलेट की पैकिंग भी स्वयं करते हैं। रिशभ चॉकलेट की पैकिंग इतने आकर्षक तरीके से करते हैं कि चॉकलेट की पैकिंग देखकर ही उसकी गुणवत्ता का अंदाज़ा लग जाता है। वह चॉकलेट की पैकिंग इस तरीके से करते हैं कि जो भी उसे देखता है चॉकलेट खाने के बिना नहीं रह सकता।

नौजवान होने के कारण रिशभ सब की ज़िंदगी में सोशल मीडिया के महत्व को अच्छी तरह से समझते हैं। उन्होंने सोशल मीडिया को सार्थक रूप में उपयोग करते हुए अपने ब्रांड “शियाम जी चॉकलेट” की मार्केटिंग ऑनलाइन करनी शुरू की। इससे उनके व्यवसाय को एक नई दिशा मिली।

“जो काम हाथों से अच्छी तरह और सफाई से हो सकता है, वह काम मशीनों से नहीं किया जा सकता। पर मशीनें काम को बहुत आसान बना देती हैं।” –  रिशभ सिंगला

शियाम जी चॉकलेट द्वारा तैयार किये गए उत्पाद:-

  • 85% आर्गेनिक डार्क चॉकलेट बार
  • 75% आर्गेनिक डार्क चॉकलेट बार
  • 55% आर्गेनिक डार्क चॉकलेट बार
  • 19% आर्गेनिक डार्क चॉकलेट बार इन डिफरेंट फ्लेवर्स
  • सी साल्ट आर्गेनिक चॉकलेट बार

खोज

  • माइंड बूस्टर चॉकलेट बार
  • जैगरी चॉकलेट बार
  • चिआ सीड्स चॉकलेट बार
  • फाइबर बूस्टर चॉकलेट बार
  • ब्लैक पैपर चॉकलेट बार
  • फ्लेक्स सीड्स चॉकलेट बार

फेस्टिवल आइटम

  • फेस्टिव सेलिब्रेशन एसोरटिड असॉर्टेड 15 पीस चॉकलेट बॉक्स

भविष्य की योजना:

रिशभ अब भी घर में ही चॉकलेट तैयार करते हैं, पर वह भविष्य में अपनी चॉकलेट की फैक्टरी लगाना चाहते हैं, जिसमें वह प्रोसेसिंग के लिए नई मशीनें और तकनीक इस्तेमाल करेंगे।

भले ही रिशभ को इस काम को शुरू किये हुए अभी एक साल का समय हुआ है, पर वह आगे भी इस क्षेत्र में अपना ध्यान केंद्रित करना चाहते हैं और चॉकलेट की गुणवत्ता को बढ़ाना चाहते हैं।

संदेश
“रिशभ सिंगला आर्गेनिक उत्पाद तैयार करते हैं और वह दूसरे नौजवानों को भी यह संदेश देना चाहते हैं कि वह आर्गेनिक तौर पर तैयार किये गए उत्पादों का प्रयोग करें और बिमारियों से दूर रहें, क्योकि स्वास्थ्य सबसे ज़रूरी है।”
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बिनसर फार्म

(डेयरी फार्मिंग और मंडीकरण)

बिनसर फार्म: कैसे दोस्तों की तिकड़ी ने फार्म से टेबल तक दूध पहुंचाने के कारोबार को स्थापित करने में सफलता प्राप्त की

आप में से कितने लोगों ने रोज़गार के साथ साथ कृषि समाज में योगदान देने के बारे में सोचा है ? जवाब बहुत कम हैं…

जो व्यक्ति पेशेवर तौर पर कृषि क्षेत्र के लिए समर्पित है, उसके लिए समाज की तरफ समय निकालना कोई बड़ी बात नहीं, पर सर्विस करने वाले व्यक्ति के लिए यह एक मुश्किल काम है।

खैर, यह उन तीन दोस्तों की कहानी है जिन्होंने अपने सपनों को अपनी नौकरी से जुड़े होने के बावजूद भी पूरा किया और बिनसर फार्म को सही तौर पर स्थापित करने के लिए मिलकर काम किया।

बिनसर फार्म के पीछे 40 वर्षों के पंकज नवानी जी की मेहनत है, जो आदर्शवादी पिछोकड़ से संबंधित थे, जहां उनके दादा पोखरा ब्लॉक, उत्तरांचल में अपने गांव गवानी की बेहतरी के लिए काम करते थे। उनके दादा जी ने गांव के बच्चों के लिए तीन प्राइमरी स्कूल, एक कन्या विद्यालय,एक इंटरमिडिएट और एक डिग्री कॉलेज स्थापित किया। पंकज नवानी जी की परवरिश ऐसे वातावरण में हुई, जहां उनके दादा जी ने समाज के लिए बिना शर्त स्व: इच्छुक भाईचारे की जिम्मेवारी का सकारात्मक दृष्टिकोण बनाया और अब तक पंकज के साथ ही रहे हैं।

उसके सपनों को अपने साथ लेकर, पंकज जी अभी भी एक अवसर की तलाश में थे और जीनामिक्स और इंटीग्रेटिव बायोलोजी के इंस्टीट्यूट में काम करते हुए आखिर में उन्होंने अपने भविष्य के साथी दीपक और सुखविंदर (जो उनके अधीन काम सीख रहे थे) के साथ मुलाकात की। बिनसर फार्म का विचार हकीकत में आया जब उनमें से तीनों ही बिनसर की पहाड़ियों में एक सफर पर गए और वापिस आते समय रास्ता भूल गए। पर सौभाग्य से वे एक गडरिये से मिले और उसने उन्हें अपने शैड की तरफ बुलाया और उन्होंने वह रात उस झोंपड़ी में बड़े आराम से व्यतीत की। अगली सुबह गडरिये ने उन्हें शहर की तरफ सही मार्ग दिखाया और इस तरह ही बिनसर का उनका सफर एक परी कहानी की तरह लगता है। गडरिये की दयालुता और निम्रता के बारे में सोचते हुए उन्होंने उत्तरांचल के लोगों के लिए कुछ करने का फैसला किया। वास्तव में, सबसे पहले उन्होंने सोचा कि वे फल, सब्जियां और दालों को पहाड़ों में उगाएं और मैदानी इलाकों में अन्य गांव के किसानों को इक्ट्ठा करके बेचें। उन तीनों ने नौकरी के साथ साथ इस प्रोजैक्ट पर काम करना शुरू कर दिया और उन्होंने समर्थन लेना शुरू कर दिया।

यह 2011 की बात है, जब तीनों ने अपने सपनों के प्रोजैक्ट से आगे बढ़ने की प्रक्रिया शुरू कर दी। चुनाव का समय होने के कारण, जहां कहीं भी वे गए, सबने उनकी योजना का समर्थन किया और उसी वर्ष पंकज एक दफ्तरी काम के सिलसिले में न्यूज़ीलैंड गए। पर इससे उनके सपनों के प्रोजैक्ट और प्रयत्नों में ज्यादा अंतर नहीं आया। न्यूज़ीलैंड में पंकज जी फोंटेरा डेयरी ग्रुप के संस्थापक डायरैक्टर अरल रैटरे को मिले। अरल रैटरे के साथ कुछ सामान्य बातें करने के बाद, पंकज जी ने उनके साथ अपने सपनों की योजना का विचार सांझा किया और उत्तरांचल की कहानी सुनने के बाद, अरल ने तिक्कड़ी में शामिल होने और चौथा साथी बनने में दिलचस्पी दिखाई बिनसर फार्म प्रोजैक्ट को हकीकत में बदलने के लिए अरल रैटरे हिस्सेदार कम निवेशक के रूप में आगे आए।

जैसे ही चुनाव खत्म हुए तो पता लगा कि सत्ताधारी पार्टी को चुनाव में हार का मुंह देखना पड़ा। इससे ही सारे वायदे और विचार एक रात में ही खत्म हो गए और बिनसर फार्म के सपनों का प्रोजैक्ट शुरूआती स्तर पर आ गया। पर पंकज, दीपक और सुखविंदर जी ने उम्मीद नहीं छोड़ी और खेतीबाड़ी समाज की मदद के लिए और संभव विकल्प अपनाने का फैसला किया, और यह वह समय था जब अरल रैटरे ने बिनसर फार्म प्रोजैक्ट की पूर्ति के लिए डेयरी फार्मिंग के विशाल अनुभव के साथ आगे आये।

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सुखविंदर सराफ, पंकज नवानी, अरल रैटरे, एक मित्र, दीपक राज (बायें से दायीं ओर)

दीपक और सुखविंदर जी दोनों ऐसे परिवारों से थे, जहां सभ्याचार और रीति रिवाज पुराने समय की तरह ही थे और उनका रहन सहन बहुत ही रवायती और बुनियादी है। प्राजैक्ट के बारे में जानने के बाद दीपक जी के पिता ने उन्हें सोनीपत, हरियाणा के नज़दीक 10 एकड़ ज़मीन ठेके पर लेने का प्रस्ताव दिया। 2012 तक उन्होंने डेयरी प्रबंधन और अरल द्वारा बतायी आधुनिक तकनीकों से डेयरी फार्मिंग का कारोबार शुरू किया।

इतना ही नहीं, सामाजिक विकास के लिए जिम्मेवारी से काम करते हुए उन (पंकज, दीपक, सुखविंदर और अरल) ने पांच स्थानीय किसानों को चारा उगाने के लिए 40 एकड़ ज़मीन ठेके पर दी, जिन्हें वे बीज, खादें और अन्य संसाधन सप्लाई करते हैं। पांच किसानों का यह समूह अपनी नियमित आय के लिए निश्चित रहता है और इन्हें फसलों के लिए मंडी रेट के बारे में सोचना नहीं पड़ता, जिससे वे भविष्यवादी सोच द्वारा अपने परिवार के बारे में सोच सकते हैं और अपने बच्चों की पढ़ाई और अन्य चीज़ों की तरफ ध्यान दे सकते हैं।

जब बात आती है पशुओं की सेहत की तो चारा सबसे अधिक ध्यान देने योग्य चीज़ है। किसानों को यह हिदायत दी जाती है कि वे कटाई से 21 दिन पहले तक ही कीटनाशकों का प्रयोग करें। पंकज और उनके साथी बहुत सारा समय और ताकत बेहतर डेयरी प्रबंधन के अभ्यास में लगाते हैं। इस कारण पशुओं के आवास स्थान पर पानी का भराव और चीकड़ जैसी समस्या नहीं आती। इसके अलावा शैड की तरफ ध्यान देते हुए उन्होंने फर्श कंकरीट की बजाय मिट्टी का बनाया है, क्योंकि पक्का फर्श पशुओं की उत्पादन क्षमता को प्रभावित करता है और बहुत सारे डेयरी किसान इस बात से अनजान हैं।

पंकज जी ने डेयरी संबंधी अन्य दिलचस्प जानकारी सांझा की। उन्होंने बताया कि उनके फार्म पर पशुओं में लंगड़ापन 1 प्रतिशत है जबकि बाकी फार्मो पर यह 12—13 प्रतिशत होता है।

यह बहुत ही अनोखी जानकारी थी क्योंकि यह जानकार दुख होता है कि जब पशु में लंगड़ापन आता है तो वह नियमित फीड नहीं लेता, जिससे दूध उत्पादन पर प्रभाव पड़ता है।

इस समय बिनसर फार्म पर 1000 से अधिक गायें हैं, जिनके द्वारा वे फार्म से टेबल तक दिल्ली और एन.सी.आर. के 600 परिवारों को दूध सप्लाई करते हैं।

थोड़े समय के बाद उन्होंने स्थानीय किसान परिवारों को गायें दान करने की योजना बनाई, जिनसे वे डेयरी प्रबंधन संबंधी माहिर सलाह और जानकारी सांझा करते हैं और अंत में उनसे स्वंय ही दूध खरीद लेते हैं। इससे किसान को स्थिर आय और जीवन में समय के साथ सार्थक बदलाव लाने में मदद मिलती है।

इस समय बिनसर फार्म हरियाणा और पंजाब के 12 अन्य डेयरी फार्म के मालिकों के साथ काम कर रहा है और सामूहिक तौर पर दहीं, पनीर, घी आदि का उत्पादन करते हैं।

इस तिकड़ी ने अपने प्रयत्नों के सुमेल से एक ऐसा ढांचा बनाने की कोशिश की, जिससे वे ना केवल सामाजिक विकास में मदद कर रहे हैं, बल्कि कृषि समाज से अपने आधुनिक खेती अभ्यास भी सांझा कर सकते हैं। बिनसर फार्म प्रोजैक्ट का विचार पहाड़ी सफर के दौरान पंकज, दीपक और सुखविंदर जी के दिमाग में आया, पर उसके बाद इससे कई किसान परिवारों की ज़िंदगी बदल गई।

पंकज और टीम का यह यकीन है कि आने वाले समय में नई पीढ़ी को चलाने के लिए पैसे ज़रूरत नहीं रहेगी बल्कि उन्हें उत्साहित करने और नैतिकता के अहसास के लिए जुनून की जरूरत होगी, तो ही वे आपने सपने पूरे कर सकेंगे।
shamsher_hn

शमशेर सिंह संधु

(बीज की तैयारी)

जानिये क्या होता है जब नर्सरी तैयार करने का उद्यम कृषि के क्षेत्र में अच्छा लाभ देता है

जब कृषि की बात आती है तो किसान को भेड़ चाल नहीं चलना चाहिए और वह काम करना चाहिए जो वास्तव में उन्हें अपने बिस्तर से उठकर, खेतों जाने के लिए प्रेरित करता है, फिर चाहे वह सब्जियों की खेती हो, पोल्टरी, सुअर पालन, फूलों की खेती, फूड प्रोसेसिंग या उत्पादों को सीधे ग्राहकों तक पहुंचाना हो। क्योंकि इस तरह एक किसान कृषि में अपना सर्वश्रेष्ठ दे सकता है।

जाटों की धरती—हरियाणा से एक ऐसे प्रगतिशील किसान शमशेर सिंह संधु ने अपने विचारों और सपनों को पूरा करने के लिए कृषि के क्षेत्र में अपने रास्तों को श्रेष्ठ बनाया। अन्य किसानों के विपरीत, श्री संधु मुख्यत: बीज की तैयारी करते हैं जो उन्हें रासायनिक खेती तकनीकों की तुलना में अच्छा मुनाफा दे रहा है।

कृषि के क्षेत्र में अपने पिता की उपलब्धियों से प्रेरित होकर, शमशेर सिंह ने 1979 में अपनी पढ़ाई (बैचलर ऑफ आर्ट्स) पूरी करने के बाद खेती को अपनाने का फैसला किया और अगले वर्ष उन्होंने शादी भी कर ली। लेकिन गेहूं, धान और अन्य रवायती फसलों की खेती करने वाले अपने पिता के नक्शेकदम पर चलना उनके लिए मुश्किल था और वे अभी भी अपने पेशे को लेकर उलझन में थे।

हालांकि, कृषि क्षेत्र इतने सारे क्षेत्र और अवसरों के साथ एक विस्तृत क्षेत्र है, इसलिए 1985 में उन्हें पंजाब कृषि विश्वविद्यालय के युवा किसान ट्रेनिंग प्रोग्राम के बारे में पता चला, यह प्रोग्राम 3 महीने का था जिसके अंतर्गत डेयरी जैसे 12 विषय थे जैसे डेयरी, बागबानी, पोल्टरी और कई अन्य विषय। उन्होंने इसमें भाग लिया। ट्रेनिंग खत्म करने के बाद उन्होंने बीज तैयार करने शुरू किए और बिना सब्जी मंडी या कोई अन्य दुकान खोले बिना उन्होंने घर पर बैठकर ही बीज तैयार करने के व्यवसाय से अच्छी कमाई की।

कृषि गतिविधियों के अलावा, शमशेर सिंह सुधु एक सामाजिक पहल में भी शामिल हैं जिसके माध्यम से वे ज़रूरतमंदों को कपड़े दान करके उनकी मदद करते हैं। उन्होंने विशेष रूप से अवांछित कपड़े इक्ट्ठे करने और अच्छे उद्देश्य के लिए इसका उपयोग करने के लिए किसानों का एक समूह बनाया है।

बीज की तैयारी के लिए, शमशेर सिंह संधु पहले स्वंय यूनिवर्सिटी से बीज खरीदते, उनकी खेती करते, पूरी तरह पकने की अवस्था पर पहुंच कर इसकी कटाई करते और बाद में दूसरे किसानों को बेचने से पहले अर्ध जैविक तरीके से इसका उपचार करते। इस तरीके से वे इस व्यवसाय से अच्छा लाभ कमा रहे हैं उनका उद्यम इतना सफल है कि उन्हें 2015 और 2018 में इनोवेटिव फार्मर अवार्ड और फैलो फार्मर अवार्ड के साथ आई.ए.आर.आई ने उत्कृष्ट प्रयासों के लिए दो बार सम्मानित किया है।

वर्तमान में शमशेर सिंह संधु बीज की तैयारी के साथ, ग्वार, गेहूं, जौ, कपास और मौसमी सब्जियों की खेती कर रहे हैं और इससे अच्छे लाभ कमा रहे हैं। भविष्य में वे अपने संधु बीज फार्म के काम का विस्तार करने की योजना बना रहे हैं, ताकि वे सिर्फ पंजाब में ही नहीं, बल्कि अन्य पड़ोसी राज्यों में भी बीज की आपूर्ति कर सकें।

संदेश
किसानों को अन्य बीज आपूर्तिकर्ताओं के बीज भी इस्तेमाल करके देखने चाहिए ताकि वे अच्छे सप्लायर और बुरे के बीच का अंतर जान सकें और सर्वोत्तम का चयन कर फसलों की बेहतर उपज ले सकें।
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नारायण लाल धाकड़

(प्राकृतिक खेती, नई खोज)

जानिये कैसे यह 19 वर्षीय युवा किसानों को स्थायी खेती के तरीकों को सिखाने के लिए यूट्यूब और फेसबुक का उपयोग कर रहा है

युवा किसान कृषि का भविष्य हैं और इस 19 वर्षीय लड़के ने खेती की ओर अपने जुनून को दिखाकर सही साबित किया है। नारायण लाल धाकड़ राजाओं, विरासत, पर्यटन, और समृद्ध संस्कृति की भूमि— राजस्थान के एक नौजवान हैं और उनका व्यक्तित्व भी उनकी मातृभूमि की तरह ही विशिष्ट है।

आजकल, हम कई उदाहरण देख रहे हैं जहां भारत के शिक्षित लोग अपने कार्यस्थल के रूप में कृषि का चयन कर रहे हैं और एक स्वतंत्र कृषि उद्यमी के रूप में उभर कर सामने आ रहे हैं, वैसे ही नारायण लाल धाकड़ हैं। बुनियादी सुविधाओं और पर्यटन संसाधनों की कमी के बावजूद, इस युवा ने कृषि समाज की सहायता के लिए ज्ञान का प्रसार करने के लिए युट्यूब और फेसबुक को माध्यम चुना। वर्तमान में उनके 60000 यूट्यूब सबस्क्राइबर और 30000 फेसबुक फोलोअर है। आपको यह जानकर हैरानी होगी कि इस लड़के के पास वीडियो एडिट करने के लिए कोई लैपटॉप, कंप्यूटर सिस्टम और किसी प्रकार का वीडियो एडिटिंग उपकरण नहीं है। अपने स्मार्टफोन की मदद से वे कृषि की सूचनात्मक वीडियो बनाते हैं।

“मेरे जन्म से कुछ दिन पहले ही मेरे पिता की मृत्यु हो गई थी और यह मेरे परिवार के लिए एक बहुत ही विकट स्थिति थी। मेरे परिवार को गंभीर वित्तीय संकट का सामना करना पड़ रहा था, लेकिन फिर भी मेरी मां ने खेती और मजदूरी दोनों काम करके हमें अच्छे से बड़ा किया। पारिवारिक परिस्थितियों को देखते हुए, मैनें बहुत कम उम्र में खेती शुरू की और इसे बहुत जल्दी सीख लिया” — नारायण

गुज़ारे योग्य स्थिति में रहकर नारायण ने महसूस किया कि दैनिक आम कीट और खेत की समस्याओं से निपटने के लिए संसाधनों का आसान नुस्खों से प्रयोग करना सबसे अच्छी बात हैं। नारायण ने यह भी स्वीकार किया कि खेती के खर्च का बड़ा हिस्सा सिर्फ खादों और कीटनाशकों के उपयोग के कारण है और यही कारण है कि किसानों पर कर्ज़े का एक बड़ा पहाड़ बनाता है।

“जब बात जैविक खेती को अपनाने की आती है, तो हर किसान सफलतापूर्वक ऐसा नहीं कर सकता क्योंकि इसमें उत्पादकता कम होती है और दूरदराज के स्थानों पर जैविक स्प्रे और उत्पाद आसानी से उपलब्ध नहीं हैं।” — नारायण

अपने क्षेत्र की समस्या को समझते हुए, नारायण ने नीलगाय, कीट और फसल की बीमारियों को नियंत्रित करने के लिए कई आसान तकनीकों का आविष्कार किया। नारायण द्वारा विकसित सभी तकनीकें सफल रहीं और वे इतनी सस्ती है कि कोई भी किसान इन्हें आसानी से अपना सकता है और हर तकनीक को उपलब्ध करवाने के लिए वे अपने फोन में वीडियो बनाते हैं इसमें सब कुछ समझाते हैं और इसे यूट्यूब और फेसबुक पर शेयर करते हैं।अपने फोन द्वारा वीडियो बनाने में आई कठिनाइयों का सामना करने के बावजूद उन्होंने किसानों की मदद करने के अपने विचार को कभी नहीं छोड़ा। नारायण अपने क्षेत्र के कई किसानों तक पहुंचते हैं और कृषि विज्ञान केंद्र और कृषि वैज्ञानिकों तक पहुंचकर उनकी समस्या हल कर देते हैं।

नारायण लाल धाकड़ ने 19 वर्ष की उम्र में अपनी सफलता की कहानी लिखी। सतत कृषि तकनीकों के प्रति सामंज्सयपूर्ण तरीके से काम करने के अपने जुनून और दृढ़ संकल्प को देखते हुए कृषि और किसान कल्याण मंत्रालय ने उन्हें 2018 में कृषि पुरस्कार के लिए नामांकित किया है।

आज, नारायण लाल धाकड़ भारत में उभरती हुई आवाज़ बन गए हैं जिसमें किसानों की खराब परिस्थितियों को बदलने की क्षमता है।


संदेश
“किसानों को जैविक खेती को अपनाना चाहिए क्योंकि उनके खेत में रसायनों और कीटनाशकों का उपयोग न केवल पर्यावरण को नुकसान पहुंचाता है बल्कि उनके अपने लोगों को भी नुकसान पहुंचता है। इसके अलावा, जैविक खेती करने वाले किसान कीटनाशकों और नदीननाशकों पर बिना खर्च किए स्वस्थ उपज ले सकते हैं।”
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किशन सुमन

(आम की खेती)

राजस्थान के किसान ने ग्राफ्टिंग द्वारा सभी मौसमों में उपलब्ध आम की एक नई किस्म विकसित की

जब बात फलो की आती है तो कोई ही इंसान होगा जोआमों को पसंद नहीं करता होगा। तो ये कहानी है राजस्थान के 52 वर्षीय किसान- किशन सुमन की, जिन्होंने आम की एक नई किस्म— सदाबहार की खोज की जो कि हर मौसम में उपलब्ध रहता है। खैर, यह उन सभी फल प्रेमियों के लिए अच्छी खबर है जो बे मौसम में भी आम खाने की लालसा रखते हैं।

अपनी पढ़ाई पूरी करने के बाद 1995 में किशन सुमन अपने पिता के नक्शेकदम पर चले और अपनी पैतृक ज़मीन पर खेती शुरू की। शुरूआत में उन्होंने अनाज वाली फसलों के साथ अपना उद्यम शुरू किया पर उचित मौसम और व्यापारियों से उचित मूल्य ना मिलने के कारण ये फसलें उनके लिए फायदेमंद सिद्ध नहीं हुई। इसलिए किशन सुमन चमेली की खेती करने लगे। इसके अलावा,कुछ नया सीखने के उत्सुकता होने के कारण, किशन सुमन ने गुलाब के पौधे में ग्राफ्टिंग विधि सीखी। जिससे उन्होंने उसी पौधे से विभिन्न रंग बिरंगे गुलाबों की खेती की। अच्छी तरह से गुलाब के पौधे से प्रयोग करने से किशन सुमन का विश्वास बढ़ गया और अगला पौधा था आम जिस पर उन्होंने ग्राफ्टिंग की।

ग्राफ्टिंग प्रक्रिया के लिए आम का चयन करने के पीछे किशन सुमन का यह कारण था कि आमतौर पर आम फल केवल 2—3 महीनों में उपलब्ध होता है और वे चाहते थे कि यह पूरे मौसम में उपलब्ध हो ताकि आम पसंद करने वाले जब चाहें इसे खा सकें।

2000 में किशन सुमन ने अपने बगीचे में अच्छी वृद्धि और गहरे रंग की पत्तियों के साथ एक आम का वृक्ष देखा, इसलिए आम की ग्राफ्टिंग में 15 वर्षों के लगातार प्रयासों के साथ किशन सुमन ने आखिरकार छोटे आम की एक नई किस्म तैयार की और इसे सदाबहार नाम दिया। जो सिर्फ दो वर्षों में फल की उपज देना शुरू कर देता है। छोटा फल होने की विशेषताओं के कारण आम की सदाबहार किस्म उच्च घनत्व खेती और अति उच्च घनत्व खेती तकनीक के लिए उपयुक्त है।

“मैंने अपने पूरे दृढ़ संकल्प और प्रयासों से यह आम की किस्म तैयार की है। यद्यपि पौधा दूसरे वर्ष में फल देना शुरू कर देता है, लेकिन इस पौधे को अच्छी तरह से वृद्धि करने की सिफारिश की जाती है। ताकि वह उचित ताकत हासिल कर सके। इसके अलावा, सदाबहार एक रोग प्रतिरोधक किस्म है जो जलवायु परिवर्तन से भी प्रभावित नहीं होती। चार साल बाद फल की तुड़ाई की जा सकती है। लेकिन तब तक पौधे को अच्छे से बढ़ने दें ”— किशन सुमन ने कहा।

सदाबहार आम की किस्म की कुछ प्रमुख विशेषताएं हैं:
• उच्च उपज (5—6 टन प्रति हेक्टेयर)
• पूरे वर्ष फल लगता है
• मीठा गुद्दा होने के साथ साथ आम का छिल्का गहरे संतरे रंग का होता है
• गुद्दे में बहुत कम फाइबर होता है।

वर्तमान में, किशन सुमन के पास उनके बाग में आम के 22 मुख्य पौधे हैं और 300 कलमी पौधे हैं। नेशनल इनोवेशन फाउंडेशन की सहायता से, श्री किशन सदाबार किस्म की कलमों और पौधों को बेच रहे हैं। छत्तीसगढ़, दिल्ली और हरियाणा क्षेत्रों के कई किसान उनके द्वारा विकसित किस्म खरीदने के लिए उनके फार्म पर आते हैं और परिणामों को देखने के बाद उनकी सराहना भी करते हैं। यहां तक कि राष्ट्रपति भवन के मुगल गार्डल में भी सदाबहार के पौधे लगाए गए हैं।

आम की एक किस्म जो पूरे वर्ष फल दे सकती हैं, में लगे उनके प्रयासों और मेहनत के लिए उन्हें 9वें राष्ट्रीय ग्रासरूद इनोवेशन और उत्कृष्ट पारंपरिक ज्ञान पुरस्कार समारोह में सम्मानित किया गया है।

यद्यपि सदाबहार सभी प्रमुख बीमारियों के प्रतिरोधक है। फिर भी किशन सुमन का मानना है कि रोकथाम इलाज से बेहतर है और इसलिए वे नीम की निंबोली, और गाय के मूत्र से कुदरती कीटनाशक तैयार करते हैं यह किसी भी तरह के कीट और बीमारियों से पौधे को सुरक्षा प्रदान करता है।

भविष्य में किशन सुमन कटहल पर प्रयोग करने की योजना बना रहे हैं। क्योंकि इसका फल लगने में अधिक समय लगता है इसलिए किशन सुमन उस समय को कम करने की योजना बना रहे हैं।

संदेश
“बागबानी एक बहुत ही रोचक क्षेत्र है और किसानों के पास विभिन्न पौधों पर उनकी रचनात्मकता के साथ प्रयोग करने और अच्छे लाभ अर्जित करने के विभिन्न अवसर हैं।”
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कुलविंदर सिंह नागरा

(सब्जियों की क़ुदरती खेती)

अच्छे वर्तमान और भविष्य की उम्मीद से कुलविंदर सिंह नागरा मुड़े कुदरती खेती के तरीकों की ओर

उम्मीद एकमात्र सकारात्मक भावना है जो किसी व्यक्ति को भविष्य के बारे में सोचने की ताकत देती है, भले ही इसके बारे में सुनिश्चित न हो। और हम जानते हैं कि जब हम बेहतर भविष्य के बारे में सोचते है तो कुछ नकारात्मक परिणामों को जानने के बावजूद भी हमारे कार्य स्वचालित रूप से जल्दी हो जाते हैं। ऐसा ही कुछ जिंला संगरूर के गांव नागरा के एक प्रगतिशील किसान कुलविंदर सिंह नागरा के साथ हुआ जिनकी उम्मीद ने उन्हें कुदरती खेती की तरफ बढ़ाया।

“जैविक खेती में करने से पहले, मुझे पता था कि मुझे लगातार दो साल तक नुकसान का सामना करना पड़ेगा। इस स्थिति से अवगत होने के बाद भी मैंने कुदरती ढंगों को अपनाने का फैसला किया। क्योंकि मेरे लिए मेरा परिवार और आसपास का वातावरण पैसे कमाने से ज्यादा महत्वपूर्ण हैं। इसके अलावा, मैं अपने परिवार और खुद के लिए कमा रहा हूं, क्या होगा यदि इतने पैसे कमाने के बाद भी मैं अपने परिवार को स्वस्थ रखने में योग्य नहीं… तब सब कुछ व्यर्थ है।”

खेती की पृष्ठभूमि से आने पर कुलविंदर सिंह नागरा ने अपने पिता के नक्शेकदम पर चलने का का फैसला किया। 1997 में, अपनी मैट्रिक की पढ़ाई पूरी करने के बाद, उन्होंने अपने परिवार की पुरानी तकनीकों को अपनाकर धान और गेहूं की खेती करनी शुरू की। 2000 तक, उन्होंने 10 एकड़ भूमि में गेहूं और धान की खेती जारी रखी और एक एकड़ में मटर, प्याज, लहसुन और लौकी जैसी कुछ सब्ज़ियां उगायी । लेकिन वह गेहूं और धान से संतुष्ट नहीं थे। इसलिए धीरे-धीरे उन्होंने सब्जी की खेती के क्षेत्र को एक एकड़ से 7 एकड़ तक और किन्नू और अमरूद को 1½ एकड़ में उगाना शुरू किया।

“किन्नू कम सफल था लेकिन अमरूद ने अच्छा मुनाफा दिया और मैं इसे भविष्य में भी जारी रखूगा।”

बागवानी में सफलता के अनुभव ने कुलविंदर सिंह नागरा के आत्मविश्वास को बढ़ाया और तेजी से उन्होंने अपनी कृषि गतिविधियों को, और अधिक लाभ कमाने के लिए विस्तारित किया। उन्होंने सब्जी की खेती से लेकर नर्सरी की तैयारी तक सब कुछ करना शुरू कर दिया। 2008-2009 में उन्होंने शाहबाद मारकंडा , सिरसा और पंजाब के बाहर विभिन्न किसान मेलों में मिर्च, प्याज, हलवा कद्दू, करेला, लौकी, टमाटर और बेल की नर्सरी बेचना शुरू कर दिया।

2009 में उन्होंने अपनी खेती तकनीकों को जैविक में बदलने का विचार किया, इसलिए उन्होंने कुदरती खेती की ट्रेनिंग पिंगलवाड़ा से ली, जहां पर किसानों को ज़ीरो बजट पर कुदरती खेती की मूल बातें सिखाई गईं। एक सुरक्षित और स्थिर शुरुआत को ध्यान में रखते हुए कुलविंदर सिंह नागरा ने 5 एकड़ के साथ कुदरती खेती शुरू की।

वह इस तथ्य से अच्छी तरह से अवगत थे कि कीटनाशक और रासायनिक उपचार भूमि को जैविक में परिवर्तित करने में काफी समय लग सकता है और वह शुरुआत में कोई लाभ नहीं कमाएंगे। लेकिन उन्होंने कभी भी शुरुआत करने से कदम पीछे नहीं उठाया, उन्होंने अपने खेती कौशल को बढ़ाने का फैसला किया और उन्होंने फूड प्रोसेसिंग, मिर्च और खीरे के हाइब्रिड बीज उत्पादन, सब्जियों की नैट हाउस में खेती और ग्रीन हाउस प्रबंधन के लिए विभिन्न क्षेत्रों में ट्रेनिंग ली । लगभग दो वर्षों के बाद, उन्होंने न्यूनतम लाभ प्राप्त करना शुरू किया।

“मंडीकरण मुख्य समस्या थी जिस का मैंने सबसे ज्यादा सामना किया था चूंकि मैं नौसिखिया था इसलिए मंडीकरण तकनीकों को समझने में कुछ समय लगा। 2012 में, मैंने सही मंडीकरण तकनीकों को अपनाया और फिर सब्जियों को बेचना मेरे लिए आसान हो गया।”

कुलविंदर सिंह नागरा ने प्रकृति के लिए एक और कदम उठाया वह था पराली जलाना बंद करना। आज पराली को जलाना प्रमुख समस्याओ में से एक है जिस का पंजाब सामना कर रहा है और यह विश्व स्तर का प्रमुख मुद्दा भी है। पंजाब और हरियाणा में किसान धन बचाने के लिए पराली जला रहे है, पर कुलविंदर सिंह नागरा ने पराली जलाने की बजाय इस की मल्चिंग और खाद बनाने के लिए इस्लेमाल किया।

कुलविंदर सिंह नागरा खेती के क्षेत्र में आगे बढ़ने के लिए हैप्पी सीडर, किसान, बैड्ड, हल, रीपर और रोटावेटर जैसे आधुनिक और नवीनतम पर्यावरण-अनुकूल उपकरणों को पहल देते हैं।

वर्तमान में, वे 3 एकड़ पर गेहूं, 2 एकड़ पर चारे वाली फसलें, सब्जियां (मिर्च, शिमला मिर्च, खीरा, पेठा, तरबूज, लौकी, प्याज, बैंगन और लहसुन) 6 एकड़ पर और और फल जैसे आड़ू, आंवला और 1 एकड़ पर किन्नू की खेती करते हैं। वह अपने खेत पर पानी का सही उपयोग करने के लिए ड्रिप सिंचाई का उपयोग करते हैं।

वे अपनी कृषि गतिविधियों का समर्थन करने के लिए डेयरी फार्मिंग भी कर रहे है। उनके पास उनके बाड़े में 12 पशू हैं, जिनमें मुर्रा भैंस, नीली रावी और साहीवाल शामिल है। इनका दूध उत्पादन प्रति दिन 90 से 100 किलो है, जिससे वह बाजार में 70-75 किलोग्राम दूध बेचते हैं और शेष घर पर इस्तेमाल करते हैं । अब, मंडीकरण एक बड़ी समस्या नहीं है, वे संगरूर, सुनाम और समाना मंडी में सभी जैविक सब्जियां बेचते हैं। व्यापारी फल खरीदने के लिए उनके फार्म पर आते हैं और इस प्रकार वे अपने फसल उत्पादों की अच्छी कीमत कमा रहे हैं।

वे अपनी सभी उपलब्धियों का श्रेय पंजाब खेतीबाड़ी यूनिवर्सिटी और अपने परिवार को देते हैं। आज, वे एक ऐसे व्यक्ति हैं जो दूसरों को अपनी कुदरती सब्जियों की खेती के कौशल के साथ प्रेरित करते है और उन्हें इस पर गर्व है। सब्जियों की कुदरती खेती के क्षेत्र में उनके काम के लिए, उन्हें कई पुरस्कार और प्रशंसा मिली, और उनमें से कुछ है…

• 19 फरवरी 2015 को सूरतगढ़ (राजस्थान) में भारत के माननीय प्रधान मंत्री नरेंद्र मोदी द्वारा प्रगतिशील किसान का कृषि कर्मण पुरस्कार प्राप्त किया।

• संगरूर के डिप्टी कमिश्नर श्री कुमार राहुल द्वारा ब्लॉक लेवल अवॉर्ड प्राप्त किया।

• पंजाब एग्रीकल्चर यूनिवर्सिटी, लुधियाना से पुरस्कार प्राप्त किया।

• कृषि निदेशक, पंजाब से पुरस्कार प्राप्त किया।

• सर्वोत्तम सब्जी की किस्म की खेती में कई बार पहला और दूसरा स्थान हासिल किया।

खैर, ये पुरस्कार उनकी उपलब्धियों को उल्लेख करने के लिए कुछ ही हैं। कृषि समाज में उन्हें मुख्य रूप से उनके काम के लिए जाना जाता है।

कृषि के क्षेत्र में किसानों को मार्गदर्शन करने के लिए अक्सर उनके फार्म हाउस पर वे के वी के और पी ए यू के माहिरों को आमंत्रित करते हैं कि वे फार्म पर आये और कृषि संबंधित उपयोगी जानकारी सांझा करें, साथ ही साथ किसानों के बीच में वार्तालाप भी करवाते हैं ताकि किसान एक दूसरे से सीख सकें। उन्होंने वर्मीकंपोस्ट प्लांट भी स्थापित किया है वे अंतर फसली और लो टन्नल तकनीक अपनाते हैं, मधुमक्खीपालन करते हैं। कुछ क्षेत्रों में गेहूं की बिजाई बैड पर करते हैं। नो टिल ड्रिल हैपी सीडर का इस्तेमाल करके गेहूं की खेती करते हैं, धान की रोपाई से पहले ज़मीन को लेज़र लेवलर से समतल करते हैं, मशीनीकृत रोपाई करते हैं। एकीकृत कीट प्रबंधन और एकीकृत निमाटोड प्रबंधन करते हैं।

कृषि तकनीकों को अपनाने का प्रभाव:

विभिन्न कृषि तकनीकों को लागू करने के बाद, उनके गेहूं उत्पादन ने देश भर में उच्चतम गेहूं उत्पादन का रिकॉर्ड बनाया जो कुदरती खेती के तरीकों से 2014 में प्रति हेक्टेयर 6456 किलोग्राम था और इस उपलब्धि के लिए उन्हें कृषि कर्मण अवार्ड से सम्मानित किया गया। उनके आस पास रहने वाले किसानों के लिए वे प्रेरक हैं और वातावरण अनुकूलन तकनीकों को अपनाने के लिए किसान अक्सर उनकी सलाह लेते है।

भविष्य की योजना:
भविष्य में, कुलविंदर सिंह नागरा सब्जियों को विदेशों निर्यात करने की बना रहे हैं।
संदेश
“जो किसान अपने कर्ज और जिम्मेदारियों के बोझ से राहत पाने के लिए आत्मघाती पथ लेने का विकल्प चुनते हैं उन्हें ऐसा करने से रोकना चाहिए। भगवान ने हमारे जीवन के लक्ष्यों को प्राप्त करने के लिए कई अवसर और क्षमताओं को दिया है और हमें इस अवसर को कभी भी छोड़ना चाहिए।”
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इंदर सिंह

(आलू और पुदीने की खेती)

जानिये कैसे आलू और पुदीने की खेती से इस किसान को कृषि के क्षेत्र में सफलता के साथ आगे बढ़ने में मदद मिल रही है

पंजाब के जालंधर शहर के 67 वर्षीय इंदर सिंह एक ऐसे किसान है जिन्होंने आलू और पुदीने की खेती को अपनाकर अपना कृषि व्यवसाय शुरू किया।

19 वर्ष की कम उम्र में, इंदर सिंह ने खेती में अपना कदम रखा और तब से वे खेती कर रहे हैं। 8वीं के बाद अपनी पढ़ाई छोड़ने के बाद, उन्होंने आलू, गेहूं और धान उगाने का फैसला किया। लेकिन गेहूं और धान की खेती वर्षों से करने के बाद भी लाभ ज्यादा नहीं मिला।

इसलिए समय के साथ लाभ में वृद्धि के लिए वे रवायती फसलों से जुड़े रहने की बजाय लाभपूर्ण फसलों की खेती करने लगे। एक अमेरिकी कंपनी—इंडोमिट की सिफारिश पर, उन्होंने आलू की खेती करने के साथ तेल निष्कर्षण के लिए पुदीना उगाना शुरू कर दिया।

“1980 में, इंडोमिट कंपनी (अमेरिकी) के कुछ श्रमिकों ने हमारे गांव का दौरा किया और मुझे तेल निकालने के लिए पुदीना उगाने की सलाह दी।”

1986 में, जब इंडोमिट कंपनी के प्रमुख ने भारत का दौरा किया, वे इंदर सिंह द्वारा पुदीने का उत्पादन देखकर बहुत खुश हुए। इंदर सिंह ने एक एकड़ की फसल से लगभग 71 लाख टन पुदीने का तेल निकालने में दूसरा स्थान हासिल किया और वे प्रमाणपत्र और नकद पुरस्कार से सम्मानित हुए। इससे श्री इंदर सिंह के प्रयासों को बढ़ावा मिला और उन्होंने 13 एकड़ में पुदीने की खेती का विस्तार किया।

पुदीने के साथ, वे अभी भी आलू की खेती करते हैं। दो बुद्धिमान व्यक्तियों डॉ. परमजीत सिंह और डॉ. मिन्हस की सिफारिश पर उन्होंने विभिन्न तरीकों से आलू के बीज तैयार करना शुरू कर दिया है। उनके द्वारा तैयार किए गए बीज, गुणवत्ता में इतने अच्छे थे कि ये गुजरात, बंगाल, इंदौर और भारत के कई अन्य शहरों में बेचे जाते हैं।

“डॉ. परमजीत ने मुझे आलू के बीज तैयार करने का सुझाव दिया जब वे पूरी तरह से पक जाये और इस तकनीक से मुझे बहुत मदद मिली।”

2016 में इंदर सिंह को आलू के बीज की तैयारी के लिए पंजाब सरकार से लाइसेंस प्राप्त हुआ।

वर्तमान में इंदर सिंह पुदीना (पिपरमिंट और कोसी किस्म), आलू (सरकारी किस्में: ज्योती, पुखराज, प्राइवेट किस्म:1533 ), मक्की, तरबूज और धान की खेती करते हैं। अपने लगातार वर्षों से कमाये पैसों को उन्होंने मशीनरी और सर्वोत्तम कृषि तकनीकों में निवेश किया। आज, इंदर सिंह के पास उनकी फार्म पर सभी आधुनिक कृषि उपकरण हैं और इसके लिए वे सारा श्रेय पुदीने और आलू की खेती को अपनाने को देते हैं।

इंदर सिंह को अपने सभी उत्पादों के लिए अच्छी कीमत मिल रही है क्योंकि मंडीकरण में कोई समस्या नहीं है क्योंकि तरबूज फार्म पर बेचा जाता है और पुदीने को तेल निकालने के लिए प्रयोग किया जाता है जो उन्हें 500 प्रति लीटर औसतन रिटर्न देता है। उनके तैयार किए आलू के बीज भारत के विभिन्न शहरों में बेचे जाते हैं।

कृषि के क्षेत्र में उनके जबरदस्त प्रयासों के लिए, उन्हें 1 फरवरी 2018 को पंजाब कृषि विश्वद्यिालय द्वारा सम्मानित किया गया है।

भविष्य की योजना
भविष्य में इंदर सिंह आलू के चिप्स का अपना प्रोसेसिंग प्लांट खोलने की योजना बना रहे हैं।

संदेश
“खादों, कीटनाशकों और अन्य कृषि इनपुट के बढ़ते रेट की वजह से कृषि दिन प्रतिदिन महंगी हो रही है इसलिए किसान को सर्वोत्तम उपज लेने के लिए स्थायी कृषि तकनीकों और तरीकों पर ध्यान देना चाहिए।”
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प्रतीक बजाज

(वर्मीकंपोस्टिंग)

बरेली के नौजवान ने सिर्फ देश की मिट्टी को अधिक उपजाऊ बनाने और किसानों को दोहरी आमदन कमाने में मदद करने के लिए सी ए की पढ़ाई छोड़कर वर्मीकंपोस्टिंग को चुना

प्रतीक बजाज, अपने प्रयासों के योगदान द्वारा अपनी मातृभूमि को पोषित करने और देश की मिट्टी को अधिक उपजाऊ बनाने में कृषि समाज के लिए एक उज्जवल उदाहरण है। दृष्टि और आविष्कार के अपने सुंदर क्षेत्र के साथ, आज वे देश की कचरा प्रबंधन समस्याओं को बड़े प्रयासों के साथ हल कर रहे हैं और किसानों को भी वर्मीकंपोस्टिंग तकनीक को अपनाने और अपने खेती को हानिकारक सौदे की बजाय एक लाभदायक उद्यम बनाने में मदद कर रहे हैं।

भारत के प्रसिद्ध शहरों में से एक — बरेली शहर, और एक बिज़नेस क्लास परिवार से आते हुए, प्रतीक बजाज हमेशा सी.ए. बनने का सपना देखते थे ताकि बाद में वे अपने पिता के रियल एस्टेट कारोबार को जारी रख सकें। लेकिन 19 वर्ष की छोटी उम्र में, इस लड़के ने रातों रात अपना मन बदल लिया और वर्मीकंपोस्टिंग का व्यवसाय शुरू करने का फैसला किया।

वर्मीकंपोस्टिंग का विचार प्रतीक बजाज के दिमाग में 2015 में आया जब एक दिन उन्होंने कृषि विज्ञान केंद्र, आई.वी.आर.आई, इज्ज़तनगर में अपने बड़े भाई के साथ डेयरी फार्मिंग की ट्रेनिंग में भाग लिया जिन्होंने हाल ही में डेयरी फार्मिंग शुरू की थी। उस समय, प्रतीक बजाज ने पहले से ही अपनी सी.पी.टी की परीक्षा पास की थी और सी.ए. की पढ़ाई कर रहे थे और अपनी महत्वाकांक्षी भावना के साथ वे सी.ए. भी पास कर सकते थे लेकिन एक बार ट्रेनिंग में भाग लेने के बाद, उन्हें वर्मीकंपोस्टिंग और बायोवेस्ट की मूल बातों के बारे में पता चला। उन्हें वर्मीकंपोस्टिंग का विचार इतना दिलचस्प लगा कि उन्होंने अपने करियर लक्ष्यों को छोड़कर जैव कचरा प्रबंधन को अपनी भविष्य की योजना के रूप में अपनाने का फैसला किया।

“मैंने सोचा कि क्यों हम अपने भाई के डेयरी फार्म से प्राप्त पूरे गाय के गोबर और मूत्र को छोड़ देते हैं जबकि हम इसका बेहतर तरीके से उपयोग कर सकते हैं — प्रतीक बजाज ने कहा 

उन्होंने आई.वी.आर.आई से अपनी ट्रेनिंग पूरी की और वहां मौजूद शोधकर्ताओं और वैज्ञानिकों से कंपोस्टिंग की उन्नत विधि सीखी और सफल वर्मीकंपोस्टिंग के लिए आवश्यक सभी जानकारी प्राप्त की।

लगभग, छ: महीने बाद, प्रतीक ने अपने परिवार के साथ अपनी योजना सांझा की,यह पहले से ही समझने योग्य था कि उस समय उनके पिता सी.ए. छोड़ने के प्रतीक के फैसले को अस्वीकार कर देंगे। लेकिन जब पहली बार प्रतीक ने वर्मीकंपोस्ट तैयार किया और इसे बाजार में बेचा तो उनके पिता ने अपने बेटे के फैसले को खुले दिल से स्वीकार कर लिया और उनके काम की सराहना की।

मेरे लिए सी ए बनना कुछ मुश्किल नहीं था, मैं घंटों तक पढ़ाई कर सकता था और सभी परीक्षाएं पास कर सकता था, लेकिन मैं वही कर रहा हूं जो मुझे पसंद है बेशक कंपोस्टिंग प्लांट में काम करते 24 घंटे लग जाते हैं लेकिन इससे मुझे खुशी महसूस होती है। इसके अलावा, मुझे किसी भी काम के बीज किसी भी अंतराल की आवश्यकता नहीं है क्योंकि मुझे पता है कि मेरा जुनून ही मेरा करियर है और यह मेरे काम को अधिक मज़ेदार बनाता है — प्रतीक बजाज ने कहा।

जब प्रतीक का परिवार उसकी भविष्य की योजना से सहमत हो गया तो प्रतीक ने नज़दीक के पर्धोली गांव में सात बीघा कृषि भूमि में निवेश किया और उसी वर्ष 2015 में वर्मीकंपोस्टिंग शुरू की और फिर उन्होंने पीछे मुड़कर नहीं देखा।

वर्मीकंपोस्टिंग की नई यूनिट खोलने के दौरान प्रतीक ने फैसला किया कि इसके माध्यम से वे देश के कचरा प्रबंधन समस्याओं से निपटेंगे और किसान की कृषि गतिविधियों को पर्यावरण अनुकूल और आर्थिक तरीके से प्रबंधित करने में भी मदद करेंगे।

अपनी कंपोस्ट को और समृद्ध बनाने के लिए उन्होंने एक अलग तरीके से समाज के कचरे का विभिन्न तकनीकों के साथ उपयोग किया। उन्होंने मंदिर से फूल, सब्जियों का कचरा, चीनी का अवशिष्ट पदार्थ इस्तेमाल किया और उन्होंने वर्मीकंपोस्ट में नीम के पत्तों को शामिल किया, जिसमें एंटीबायोटिक गुण भरपूर होते हैं।

खैर, इस उद्यम को एक पूर्ण लाभप्रद परियोजना में बदल दिया गया, प्रतीक ने गांव में कुछ और ज़मीन खरीदकर वहां जैविक खेती भी शुरू की। और अपनी वर्मीकंपोस्टिंग और जैविक खेती तकनीकों से उन्होंने निष्कर्ष निकाला कि यदि गाय मूत्र और नीम के पत्तों का एक निश्चित मात्रा में उपयोग किया जाये तो मिट्टी को कम खाद की आवश्यकता होती है। दूसरी तरफ यह फसल की उपज को भी प्रभावित नहीं करती। कंपोस्ट में नीम की पत्तियों को शामिल करने से फसल पर कीटों का कम हमला होता है और इससे फसल की उपज बेहतर होती है और मिट्टी अधिक उपजाऊ बनती है।


अपने वर्मीकंपोस्टिंग प्लांट में, प्रतीक दो प्रकार के कीटों का उपयोग करते हैं जय गोपाल और एसेनिया फोएटाइडा, जिसमें से जय गोपाल आई.वी.आर.आई द्वारा प्रदान किया जाता है और यह कंपोस्टिंग विधि को और बेहतर बनाने में बहुत अच्छा है।

अपनी रचनात्मक भावना से प्रतीक ज्ञान को प्रसारित करने में विश्वास करते हैं और इसलिए वे किसान को मुफ्त वर्मीकंपोस्टिंग की ट्रेनिंग देते हैं जिसमें से वे छोटे स्तर से खाद बनाने के एक छोटे मिट्टी के बर्तन का उपयोग करते हैं। शुरूआत में, उनसे छ: किसानों ने संपर्क किया और उनकी तकनीक को अपनाया लेकिन आज लगभग 42 किसान है जो इससे लाभ ले रहे हैं। और सभी किसानों ने प्रतीक की प्रगति को देखकर इस तकनीक को अपनाया है।

प्रतीक किसानों को यह दावे से कहते हैं कि वर्मीकंपोस्टिंग और जैविक खेती में निवेश करके एक किसान अधिक आर्थिक रूप से अपनी ज़मीन को उपजाऊ बना सकता है और खेती के जहरीले तरीकों की तुलना में बेहतर उपज भी ले सकता है। और जब बात मार्किटिंग की आती है जो जैविक उत्पादों का हमेशा बाजार में बेहतर मूल्य होता है।

उन्होंने खुद रासायनिक रूप से उगाए गेहूं की तुलना में बाजार में जैविक गेहूं बेचने का अनुभव सांझा किया। अंतत: जैविक खेती और वर्मीकंपोस्टिंग को अपनाना किसानों के लिए एक लाभदायक सौदा है।


प्रतीक ने अपना अनुभव बताते हुए हमारे साथ ज्ञान का एक छोटा सा अंश भी सांझा किया — वर्मीकंपोस्टिंग में गाय का गोबर उपयोग करने से पहले दो मुख्य चीज़ों का ध्यान रखना पड़ता है —गाय का गोबर 15—20 दिन पुराना होना चाहिए और पूरी तरह से सूखा होना चाहिए।

वर्तमान में, 22 वर्षीय प्रतीक बजाज सफलतापूर्वक अपना सहयोगी बायोटेक प्लांट चला रहे हैं और नोएडा, गाजियाबाद, बरेली और उत्तरप्रदेश एवं उत्तराखंड के कई अन्य शहरों में ब्रांड नाम येलो खाद के तहत कंपोस्ट बेच रहे हैं। प्रतीक अपने उत्पाद को बेचने के लिए कई अन्य तरीकों को भी अपनाते हैं।

मिट्टी को साफ करने और इसे अधिक उपजाऊ बनाने के दृढ़ संकल्प के साथ, प्रतीक हमेशा कंपोस्ट में विभिन्न बैक्टीरिया और इनपुट घटकों के साथ प्रयोग करते रहते हैं। प्रतीक इस पौष्टिक नौकरी का हिस्सा होने का विशेषाधिकार प्राप्त और आनंदित महसूस करते हैं जिसके माध्यम से वे ना केवल किसानों की मदद कर रहे हैं बल्कि धरती को भी बेहतर स्थान बना रहे हैं।

प्रतीक अपना योगदान दे रहे हैं। लेकिन क्या आप अपना योगदान कर रहे हैं? प्रतीक बजाज जैसे प्रगतिशील किसानों की और प्रेरणादायक कहानियां पढ़ने के लिए गूगल प्ले स्टोर पर जाकर अपनी खेती एप डाउनलोड करें।
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गुरप्रीत सिंह अटवाल

(जैविक खेती/मार्केटिंग)

जानिये कैसे ये किसान जैविक खेती को सरल तरीके से करके सफलता हासिल कर रहे हैं

35 वर्षीय गुरप्रीत सिंह अटवाल एक प्रगतिशील जैविक किसान है जो जिला जालंधर (पंजाब) के एक छोटे से नम्र और मेहनती परिवार से आये हैं। लेकिन सफलता के इस स्तर पर पहुंचने से पहले और अपने समाज के अन्य किसानों को प्रेरणा देने से पहले, श्री अटवाल भी अपने पिता और आसपास के अन्य किसानों की तरह रासायनिक खेती करते थे।

12वीं के बाद श्री गुरप्रीत सिंह अटवाल ने कॉलेज की पढ़ाई करने का फैसला किया, उन्होंने स्वंय जालंधर के खालसा कॉलेज में बी. ए. में दाखिला लिया। लेकिन जल्दी ही दिमाग में कुछ अन्य विचारों के कारण उन्होंने पहले वर्ष में ही कॉलेज छोड़ दिया और अपने चाचा और पिता के साथ खेतीबाड़ी करने लगे। खेती के साथ साथ वे 2006 में युवा अकाली दल के प्रधान के चुनाव में भी खड़े हुए और इसे जीत भी लिया। समय के साथ श्री अटवाल, 2015 में जिला स्तर पर उसी संगठन के प्रधान से वरिष्ठ प्रधान बन गए।

लेकिन शायद खेती में,किस्मत उनके साथ नहीं थी और उन्हें लगातार नुकसान और कठिनाइयों का सामना करना पड़ा। धान और ग्वार की खेती में उन्हें कोई फायदा नहीं हो रहा था इसलिए 2014 में उन्होंने हल्दी की खेती करने का फैसला किया लेकिन वह भी उनके लिए घाटे का सौदा साबित हुआ। क्योंकि वे बाज़ार में उचित तरीके से अपनी फसल को बेचने में सक्षम नहीं थे। अंत में, उन्होंने हल्दी से हल्दी पाउडर बनाया और गुरूद्वारों और मंदिरों में मुफ्त में बांट दिया। इस तरह की स्थिति का सामना करने के बाद, गुरप्रीत सिंह अटवाल ने फैसला किया कि वे खुद सभी उत्पादों का मंडीकरण करेंगे और बिचौलिये पर निर्भर नहीं रहेंगे।

उसी वर्ष, गुरप्रीत सिंह अटवाल को अपने पड़ोसी गांव के भंगु फार्म के बारे में पता चला। भंगु फार्म का दौरा श्री अटवाल के लिए इतना प्रेरणादायक था कि उन्होंने जैविक खेती करने का फैसला किया। हालांकि भंगु फार्म में गन्ने की खेती और प्रोसेसिंग होती थी लेकिन वहां से जैविक कृषि तकनीकों के बारे में पर्याप्त जानकारी प्राप्त हुई और उसी आधार पर, उन्होंने अपने परिवार के लिए 2.5 एकड़ भूमि पर सब्जियों की जैविक खेती शुरू की।

अब गुरप्रीत सिंह अटवाल ने अपने फार्म पर लगभग जैविक खेती शुरू कर दी है और उपज भी पहले से बेहतर है। वे मक्की, गेहूं, धान, गन्ना और मौसमी सब्जियां उगा रहे हैं और भविष्य में वे गेहूं का आटा और मक्की का आटा प्रोसेस करने की योजना बना रहे हैं। इसी बीच, श्री अटवाल ने भोगपुर शहर में 2 किलोमीटर के क्षेत्र में फार्म में उत्पादित ताजा सब्जियों की होम डिलीवरी शुरू की है।

जैविक खेती के अलावा, गुरप्रीत सिंह अटवाल डेयरी फार्मिंग में भी सक्रिय रूप से शामिल है। उन्होंने घरेलु उपयोग के लिए गायें और भैंसों की स्वदेशी नस्लें रखी हुई है और अधिक दूध गांव में बेच देते हैं।

भविष्य की योजना
गुरप्रीत सिंह अटवाल पंजाब स्तर पर और फिर भारत स्तर पर एक जैविक स्टोर खोलने की योजना बना रहे हैं।

संदेश
प्रत्येक किसान को जैविक खेती करनी चाहिए यदि बड़े स्तर तक संभव ना हो तो इसे कम से कम घर के उद्देश्य के लिए छोटे क्षेत्र में करने की कोशिश करनी चाहिए। इस तरह, वे अपनी ज़िंदगी में एक अंतर बना सकते हैं और इसे बेहतर बना सकते हैं।

गुरप्रीत सिंह अटवाल एक प्रगतिशील किसान है जो ना केवल अपने फार्म पर जैविक खेती कर रहे हैं बल्कि अपने गांव के अन्य किसानों को इसे अपनाने की प्रेरणा भी दे रहे हैं। वे डीकंपोज़र की सहायता से कुदरती कीटनाशक और खादें तैयार करते हैं और इसे किसानों में भी बांटते हैं अपने कार्यों से गुरप्रीत अटवाल ने यह साबित कर दिया है कि वे दूर की सोच रखते हैं और वर्तमान और कठिन समय का डट कर सामना करते हैं और सफलता हासिल करते हैं।

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संतवीर सिंह बाजवा

(फूलों की खेती)

जानिये कैसे एक वकील पॉलीहाउस में फूलों की खेती करके कृषि को एक सफल उद्यम बना रहा है

आपके पास केवल ज़मीन का होना भारी कर्ज़े और रासायनिक खेती के दुष्चक्र से बचने का एकमात्र साधन नहीं है क्योंकि यह दिन प्रतिदिन किसानों को अपाहिज बना रहा है। किसान को एक ऐसा व्यक्ति माना जाता है जिसे भविष्य के परिणामों को ध्यान में रखकर कड़ी मेहनत करनी पड़ती है और यदि भविष्य के परिणामों में से कोई भी विफल रहता है तो किसान को अन्य विकल्पों के साथ तैयार भी रहना पड़ता है। और केवल वे किसान जो आधुनिक तकनीकों, आदर्श मंडीकरण रणनीतियों और निश्चित रूप से कड़ी मेहनत की मदद से अपने आप को टूटने नहीं देते और खेती के सही तरीके को समझते हैं, सिर्फ उनकी अगली पीढ़ी ही इस पेशे को खुशी से अपनाती है।
यह कहानी है होशियारपुर स्थित वकील संतवीर सिंह बाजवा की जो बागबानी के क्षेत्र में अपने पिता जतिंदर सिंह लल्ली बाजवा की सफलता को देखने के बाद सफल युवा किसान बने। अपने पिता के समान उन्होंने पॉलीहाउस में फूलों की खेती करने का फैसला किया और इस उद्यम को सफल भी बनाया।

संतवीर सिंह बाजवा अपने विचार साझा करते हुए — वर्तमान में अगर हम आज के युवाओं को देखे तो हमें एक स्पष्ट चीज़ का पता चल सकता है कि या तो आजकल के नौजवान विदेश जा रहे हैं या फिर वे खेती के अलावा कोई और पेशे का चयन कर रहे हैं और इसके पीछे का मुख्य कारण कृषि में कोई निश्चित आय ना होना है, और तो और इसमें नुकसान का डर भी रहता है। इसके अलावा मौसम और सरकारी योजना भी किसान को ढंग से सहारा नहीं दे पाता।

अपने पिता के समान कौशल जिन्होंने विवधीकरण को सफलतापूर्वक अपनाया और महलांवाली गांव में एक सुंदर फलों के बाग की स्थापना की , संतवीर सिंह ने भी अपना फूलों की खेती के पॉलीहाउस की स्थापना की जहां पर उन्होंने जरबेरा की खेती शुरू की। सजावटी फूलों के बाजार की मांग के बारे में अवगत होने के कारण, संतवीर ने गुलाब ओर कारनेशन की खेती भी शुरू कर दी जिससे उन्हें अच्छा लाभ प्राप्त हुआ।

पॉलीहाउस में खेती करने के अपने अनुभव से, मैं अन्य किसानों के साथ एक महत्तवपूर्ण जानकारी साझा करना चाहता हूं कि पॉलीहाउस में काश्त की फसलों और उचित कृषि तकनीकों की देखभाल करने की आवश्यकता होती है, केवल तभी आप अच्छी उपज प्राप्त कर सकते हैं। मैं व्यक्तिगत रूप से फूलों के विशेषज्ञयों और प्रगतिशील किसानों से परामर्श करता हूं और अपना सर्वश्रेष्ठ कोशिश देन के लिए इंटरनेट से भी मदद लेता हूं। — संतवीर सिंह बाजवा।

अब भी संतवीर सिंह बाजवा अपने पिता की नई मंडीकरण रणनीतियों से मदद कर रहे हैं और फलों की खेती से भी अच्छा लाभ कमा रहे हैं।
संदेश
यदि किसान कृषि तकनीकों से अच्छी प्रकार से अवगत हैं तो पॉलीहाउस में खेती करना एक बहुत ही लाभदायक उद्यम है। युवा किसानों को पॉलीहाउस में खेती करने की कोशिश करनी चाहिए क्योंकि इस क्षेत्र में उनके लिए बहुत संभावनाएं हैं और वे इससे अच्छा लाभ कमा सकते हैं 
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दविंदर सिंह मुशकाबाद

(पॉलीहाउस फार्मिंग, बागबानी)

भारत में विदेशी कृषि के मॉडल को लागू करके सफलता प्राप्त करता यह किसान

भारतीयों में विदेश जाने और वहां बसने की बढ़ रही मानसिकता सामान्य है। उन्हें इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि उन्हें वहां जाकर क्या करना है, भले ही वह एक सफाई कर्मचारी की नौकरी हो या अन्य मजदूर वाली नौकरी। लेकिन यदि उन्हें वही काम अपने देश में करना पड़े तो उन्हें शर्म महसूस होती है। हां, यह तथ्य सच है कि वहां विदेश में काम करने में अधिक पैसा है लेकिन क्या होगा यदि हम विदेशी टैक्नोलोजी को अपने देश में लाएं और अपने व्यवसाय को लाभदायक उद्यम बनाएं। यह कहानी है मालवा क्षेत्र के, 46 वर्षीय किसान दविंदर सिंह की, जिन्होंने विदेश जाने के अवसर का बहुत अच्छी तरह से उपयोग किया और विदेशी कृषि मॉडल को पंजाब में लेकर आये।

1992 में दविंदर सिंह ने विदेश जाने की योजना बनाई, पर वे अपने प्रयत्नों में असफल रहे और आखिर में उन्होंने खेतीबाड़ी शुरू करने का फैसला किया। उस समय वे इस तथ्य से अनजान थे कि विदेश में रहना आसान नहीं था क्योंकि वहां रहने के लिए कड़ी मेहनत करनी पड़ती है, पर खेतीबाड़ी से बढ़िया लाभ प्राप्त करना आसान नहीं है क्योंकि खेतीबाड़ी खून और पसीने की मांग करती है। उन्होंने खेती करनी शुरू की लेकिन जब वे मार्किटिंग में आए तब मध्यस्थों से धोखा खाने के डर से उन्होंने खुद अपने हाथ में तराजू लेने का फैसला किया।

“मैं मां की दी सफेद दरी, तराजू और हरी मिर्च की बोरी के साथ लिए चंडीगढ़ के सेक्टर 42 की सब्जी मंडी के दौरे के अपने पहले अनुभव को कभी नहीं भूल सकता, मैं वहां पूरा दिन बैठा रहा, मैं इतना परेशान और संकुचित सा महसूस कर रहा था कि ग्राहक से पैसे लूं या नहीं। समझ नहीं आ रहा था। मुझे ऐसा देखने के बाद, मेरे कुछ किसान भाइयों ने मुझे बताया कि यहां इस तरह काम नहीं चलेगा आपको अपने ग्राहकों को बुलाना होगा और अपनी फसल की बिक्री कीमत पर ज़ोर देना होगा। इस तरह से मैंने सब्जियों को बेचना सीखा।”

उस समय लड़खड़ाते कदमों के साथ आगे बढ़ते हुए, दविंदर सिंह ने अपनी पहली फसल से 45 हज़ार रूपये कमाए और वे इससे बहुत खुश थे, खैर, उस समय तक दविंदर सिंह पहले ही जान चुके थे कि खेतीबाड़ी का मार्ग बहुत मजबूती और दृढ़ संकल्प की मांग करता है। वापिस मुड़े बिना, दविंदर सिंह ने कड़ी मेहनत और जुनून से काम करना शुरू कर दिया। धीरे धीरे जब उन्होंने अपने खेती क्षेत्र का विस्तार किया और अपने कौशल को और बढ़ाने के लिए 2007 में अपने एक दोस्त के साथ एक ट्रेनिंग कैंप के लिए स्पेन का दौरा किया।

स्पेन में उन्होंने कृषि मॉडल को देखा और इससे वे बहुत चकित हुए। छोटी सी छोटी जानकारी को बिना खोए दविंदर सिंह ने सब कुछ अपने नोट्स में लिखा।

“मैंने देखा कि इटली में प्रचलित कृषि मॉडल भारत से बहुत अलग है। इटली के कृषि मॉडल में किसान समूह में काम करते हैं और वहां बिचौलिये नहीं है। मैंने यह भी देखा कि इटली की जलवायु स्थिति भारत की तुलना में कृषि के अनुकूल नहीं थी, फिर भी वे अपने खेतों से उच्च उत्पादकता ले रहे थे। लोग अपनी फसल की वृद्धि और विकास के लिए फसलों को उच्च वातावरण देने के लिए पॉलीहाउस का उपयोग कर रहे थे। यह सब देखकर मुझे बहुत आश्चर्य हुआ। ”

उत्कृष्ट कृषि तकनीकों की खोज करने के बाद, दविंदर सिंह ने फैसला किया कि वे पॉलीहाउस का तरीका अपनाएंगे। शुरूआत में, उन्हें पॉलीहाउस का निर्माण करने के लिए कोई सहायता नहीं मिली, इसलिए उन्होंने इसे स्वंय बनाने का फैसला किया। बांस की सहायता से उन्होंने 500 वर्ग मीटर में अपना पॉलीहाउस स्थापित किया और इसमें सब्जियां उगानी शुरू की। जब आस पास के लोगों को इसके बारे में पता चला तो कई विशेषज्ञों ने भी उनके फार्म का दौरा किया लेकिन वे नकारात्मक प्रतिक्रिया देकर वापिस चले आये और कहा कि यह पॉलीहाउस सफल नहीं होगा। लेकिन फिर भी, दविंदर सिंह ने अपनी कड़ी मेहनत और उत्साहित भाव से इसे सफल बनाया और इससे अच्छी उपज ली।

उनके काम से खुश होकर, राष्ट्रीय बागबानी मिशन ने उन्हें पॉलीहाउस में सहायता करने और निर्माण करने में उनकी मदद करने का फैसला किया। जब कृषि विभाग उस समय दविंदर सिंह के पक्ष में था तब उनके पिता सुखदेव सिंह उनके पक्ष में नहीं थे। उनके पिता ने अपनी ज़मीन नहीं देना चाहते थे क्योंकि पॉलीहाउस तकनीक नई थी और उन्हें यकीन नहीं था कि इससे लाभ मिलेगा या नहीं और किसी मामले में ऋृण का भुगतान नहीं किया गया तो बैंक उनकी ज़मीन छीन लेगा।

अपने परिवार पर निर्भर हुए बिना, दविंदर सिंह ने पॉलीहाउस स्थापित करने के लिए एक एकड़ भूमि पर 30 लाख रूपये का ऋृण लेकर अपने दोस्त के साथ साझेदारी में अपना उद्यम शुरू करने का फैसला किया। उस वर्ष उन्होंने अपने पॉलीहाउस में रंग बिरंगी शिमला मिर्च उगाई उत्पादनऔर गुणवत्ता इतनी अच्छी थी कि उन्होंने एक वर्ष के अंदर अंदर अपनी कमाई से ऋृण का भुगतान कर दिया।

अगला चरण, जिस पर दविंदर सिंह ने कदम रखा। 2010 में उन्होंने एक समूह बनाया, उन्होंने धीरे धीरे उन लोगों और समूहों में काम का विस्तार किया जो एग्रो हेल्प एड सोसाइटी मुशकाबाद समूह के तहत पॉलीहाउस तकनीक सीखने के लायक थे। दविंदर सिंह का यह कदम एक बहुत ही अच्छा कदम था क्योंकि उनके समूह ने बीज, खाद और अन्य आवश्यक कृषि इनपुट 25 से 30 प्रतिशत सब्सिडी दर पर लेकर शुरूआत की। इसके अलावा सभी किसान जो समूह के सदस्य हैं अब कृषि इनपुट इकट्ठा करने के लिए विभिन्न दरवाजों पर दस्तक नहीं देते उन्हें सब कुछ एक ही छत के नीचे मिल जाता है। समूह निर्माण ने किसानों को परिवहन शुल्क, मंडीकरण, पैकेजिंग और अधिकतम लाभ प्रदान किए और इसका परिणाम यह हुआ कि एक किसान ज्यादा खर्चे के बोझ से परेशान नहीं होता। एग्री मार्ट ब्रांड नाम है जिसके तहत समूह द्वारा उत्पादित फसलों को चंडीगढ़ और दिल्ली की सब्जी मंडी में बेचा जाता है, लोग उनके ब्रांड पर भरोसा करते हैं और मंडीकरण के लिए उन्हें अतिरिक्त प्रयास नहीं करना पड़ता।

जब मैं अकेला था उस समय मंडीकरण का स्तर अलग था लेकिन आज हमारे पास एक समूह है और समूह में मंडीकरण करना आसान है लेकिन समूह की गुणवत्ता का अपना स्थान है। समूह एक बहुत शक्तिशाली चीज़ है क्योंकि लाभ को छोड़कर समूह में सब कुछ साझा किया जाता है — दविंदर सिंह मुशकाबाद ने कहा।

20 वर्ष की अवधि में, दविंदर सिंह के प्रयासों ने उन्हें एक साधारण विक्रता से एग्रो हेल्प एड सोसाइटी मुशकाबाद समूह का प्रमुख बना दिया, जिसके तहत वर्तमान में 230 किसान उस समूह में हैं। एक छोटे से क्षेत्र से शुरूआत करके, वर्तमान में उन्होंने अपने खेती क्षेत्र को बड़े पैमाने पर विस्तारित किया जिसमें से साढ़े पांच एकड़ में पॉलीहाउस खेती की जाती है और इसके अलावा उन्होंने कुछ आधुनिक कृषि तकनीकों जैसे तुपका सिंचाई, स्प्रिंकलर को पानी वितरण के उचित प्रबंधन के लिए मशीनीकृत किया है। अपनी इस सफलता के लिए वे पी ए यू, लुधियाना और उनके संगठित कार्यक्रमों और समारोह को भारी श्रेय देते हैं जिन्होंने उन्हें अच्छे ज्ञान स्रोत के रूप में समर्थन दिया।

आज दविंदर सिंह का समूह नवीन तकनीकों और स्थायी कृषि तरीकों से कृषि क्षेत्र में विवधीकरण का मॉडल बन गया है। बागबानी के क्षेत्र में उनके जबरदस्त प्रयासों के लिए, दविंदर सिंह को कई प्रतिष्ठित पुरस्कारों से सम्मानित किया गया है और उन्होंने विदेशों में कई प्रतिनिधिमंडल में भाग लिया है।

• 2008 में उजागर सिंह धालीवाल पुरस्कार से सम्मानित किया गया।
• 2009 में पूसा कृषि विज्ञान मेले में भारतीय कृषि अनुसंधान संस्थान, नई दिल्ली द्वारा मुख्यमंत्री पुरस्कार प्राप्त हुआ।
• 2014 में पंजाब सरकार द्वारा प्रमाण पत्र प्राप्त हुआ।
• 2014 में डॉ. मोहिंदर सिंह रंधावा मेमोरियल पुरस्कार प्राप्त हुआ।
• पंजाब कृषि विश्वविद्यालय वैज्ञानिक सलाहकार समिती के लिए नॉमिनेट हुए।
• पंजाब कृषि विश्वविद्यालय, लुधियाना में, अनुसंधान परिषद के सदस्य बने।
• अप्रैल 2013 में, कृषि विभाग द्वारा डेलीगेशन प्रायोजित के सदस्य बनकर उन नौजवान किसानों के लिए एग्रो आधारित मलेशिया और मंत्रालय का दौरा किया।

• अक्तूबर 2016 में कृषि मंत्रालय, पंजाब सरकार के नेतृत्व में प्रतिनिधिमंडल के प्रगतिशील किसान सदस्य के रूप में बाकी, अज़रबैजान का भी दौरा किया।

संदेश
“एक किसान के लिए मुश्किलों का सामना करना अनिवार्य है, क्योंकि जितना अधिक आप कठिनाइयों का सामना करते हैं, उतनी ही आपको सफलता मिलती है। मुश्किलें व्यक्ति को तैयार करती हैं, इसलिए मुश्किल परिस्थितियों से घबराना नहीं चाहिए बल्कि इनसे सीखना चाहिए। हमेशा अपने आप को प्रेरित करें और सकारात्मक सोचें। क्योंकि सब कुछ हमारी सोच पर निर्भर करता है।

जब जल प्रबंधन की बात आती है तो जल कृषि में प्रमुख भूमिका निभाता है। किसान को अपने पानी की जांच करवानी चाहिए और उसके बाद नहर के पानी से अपना टैंक स्थापित करना चाहिए और फिर उसे पॉलीहाउस में इस्तेमाल करना चाहिए, इसके परिणामस्वरूप 25—30 प्रतिशत आय में वृद्धि होती है।”

भविष्य की योजनाएं

उपभोक्ताओं को होम डिलीवरी प्रदान करने की योजना है ताकि वे कम रसायनों वाले पोषक तत्वों से समृद्ध ताजी सब्जियां खा सकें।

अपनी खेती के साथ अपने कृषि के अनुभव को साझा करते समय, दविंदर सिंह ने हमारे साथ अपनी ज़िंदगी का एक सुखद क्षण सांझा किया—
इससे पहले मैं विदेश जाने का सपना देखता था, बिना जाने कि मुझे वहां वास्तव में क्या करना है। लेकिन बाद में, जब मैंने मलेशिया और अन्य देशों के प्रतिनिधिमंडल टीम के सदस्य के रूप में दौरा किया तो मुझे बहुत खुशी और गर्व महसूस हुआ,यह सपना सच होने के जैसा था। मुझे “श्रमिक कार्य करने के लिए विदेश जाना” और “प्रतिनिधिमंडल टीम के सदस्य के रूप में विदेश जाने” के बीच के अंतर का एहसास हुआ।

शर्मिंदगी महसूस किए बिना, दविंदर सिंह ने अपने खेतों में किए गए प्रयासों के फलस्वरूप, परिणाम हर किसी के सामने हैं। वर्तमान में, वे अपने एग्रो हेल्प एड सोसाइटी मुशकाबाद समूह के तहत 230 किसानों का मार्गदर्शन कर रहे हैं और कृषि तकनीकों में अच्छे बदलाव कर रहे हैं। दविंदर सिंह संघर्ष कर रहे किसानों के लिए एक महान उदाहरण और प्रेरणा हैं। यदि उनकी कहानी पढ़कर आप प्रेरित महसूस करते हैं और अपने उद्यम में उससे जुड़ना चाहते हैं, तो नीचे दिए गए बटन पर क्लिक करके उनसे संपर्क कर सकते हैं।
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नवदीप बल्ली और गुरशरन सिंह

(खाद्य प्रसंस्करण, खेती)

 मालवा क्षेत्र के दो युवा किसान कृषि को फूड प्रोसेसिंग के साथ जोड़कर कमा रहे दोगुना लाभ

भोजन जीवन की मूल आवश्यकता है, लेकिन क्या होगा जब आपका भोजन उत्पादन के दौरान बहुत ही बुनियादी स्तर पर मिलावटी और दूषित हो जाये!

आज, भारत में भोजन में मिलावट एक प्रमुख मुद्दा है,जब गुणवत्ता की बात आती है तो उत्पादक/निर्माता अंधे हो जाते हैं और वे केवल मात्रा पर ध्यान केंद्रित करते हैं,जो ना केवल भोजन के स्वाद और पोषण को प्रभावित करता है बल्कि उपभोक्ता के स्वास्थ्य को भी प्रभावित करता है। लेकिन पंजाब के मालवा क्षेत्र के ऐसे दो युवा किसानों ने, समाज को केवल शुद्ध भोजन प्रदान करना अपना लक्ष्य बना लिया।

यह नवदीप बल्ली और गुरशरण सिंह की कहानी है जिन्होंने अपने अनूठे उत्पादन कच्ची हल्दी के आचार के साथ बाजार में प्रवेश किया और थोड़े समय में ही लोकप्रिय हो गए। एक अच्छी शिक्षित पृष्ठभूमि से आते हुए इन दो युवा पुरूषों ने समाज के लिए क्या, अच्छा प्रदान करने का फैसला किया। यह सब तब शुरू हुआ जब उन्होंने कच्ची हल्दी के कई लाभ और घरेलू नुस्खों की खोज की जो खराब कोलेस्ट्रोल को नियंत्रित करने में मदद करते हैं, त्वचा की बीमारियों, एलर्जी और घावों को ठीक करने में मदद करते हैं, कैंसर जैसी जानलेवा बीमारी और कई अन्य बीमारियों को रोकने में मदद करते हैं।

शुरू से ही दोनों दोस्तों ने कुछ अलग करने का फैसला किया था, इसलिए उन्होंने हल्दी की खेती शुरू की और 80-90 क्विंटल प्रति एकड़ की उपज प्राप्त की। उसके बाद उन्होंने अपनी फसल को स्वंय प्रोसेस करने और उसे कच्ची हल्दी के आचार के रूप में मार्किट में बेचने का फैसला किया।पहला स्थान जहां उनके उत्पाद को लोगों के बीच प्रसिद्धी मिली वह था बठिंडा की रविवार वाली मंडी और अब उन्होंने शहर के कई स्थानों पर इसे बेचना शुरू कर दिया है।

फूड प्रोसेसिंग व्यवसाय में प्रवेश करने से पहले नवदीप और गुरशरण ने जिले के वरिष्ठ कृषि विशेषज्ञ डॉ. परमेश्वर सिंह से खेती पर परामर्श लिया। आज, स्वंय डॉक्टर भी स्वयं पर गर्व महसूस करते हैं, कि उनकी सलाह का पालन करके ये युवा खाद्य प्रसंस्करण मार्किट में अच्छा कर रहे हैं और रसोई में प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष रूप से प्रयोग किए जाने वाले अधिक बुनियादी शुद्ध संसाधित खाद्य उत्पादों को बना रहे हैं।

कच्ची हल्दी के आचार की सफलता के बाद, नवदीप और गुरशरण को रामपुर में स्थापित प्रोसेसिंग प्लांट मिला और वर्तमान में उनकी उत्पाद सूची में 10 से अधिक वस्तुएं हैं, जिनमें कच्ची हल्दी, कच्ची हल्दी का आचार, हल्दी पाउडर, मिर्च पाउडर, सब्जी मसाला, धनिया पाउडर, लस्सी, दहीं, चाट मसाला, लहसुन का आचार, जीरा, बेसन, चाय का मसाला आदि।

ये दोनों ना केवल फूड प्रोसेसिंग को एक लाभदायक उद्यम बना रहे हैं। बल्कि अन्य किसानों को बेहतर राजस्व हासिल करने के लिए खेती के साथ फूड प्रोसेसिंग को अपनाने के लिए भी प्रोत्साहित कर रहे हैं।

भविष्य की योजनाएं: वे भविष्य में अपने उत्पादों को पोषक समृद्ध बनाने के लिए फसल विविधीकरण को अपनाने और अधिक किफायती खेती करने की योजना बना रहे हैं। अपने संसाधित उत्पादों को आगे के क्षेत्रों में बेचने और लोगों को मिलावटी भोजन और स्वास्थय की महत्तव के बारे में जागरूक करने की योजना बना रहे हैं।

संदेश
यदि किसान कृषि से बेहतर लाभ चाहते हैं तो उन्हें खेती के साथ फूड प्रोसेसिंग का कार्य शुरू करना चाहिए।
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सपिंदर सिंह

(मछली पालन, सूअर पालन)

सपिंदर सिंह ने सुअर पालन के साथ मछली पालन को समेकित कर पंजाब में कृषि संबंधित गतिविधियो को अगले स्तर तक पहुंचाया

भारत के अधिकांश भागों में, किसान अपनी घरेलु आर्थिकता को समर्थन देने के लिए समेकित कृषि संबंधित गतिविधियों को अपना रहे हैं और अपनाये भी क्यों ना । समेकित कृषि प्रणाली ना सिर्फ ग्रामीण समुदाय को उचित आजीविका प्रदान करती है बल्कि एक व्यवसाय में किसी कारणवश हानि होने पर अतिरिक्त व्यवसाय के रूप में समर्थन प्रदान करती है। इस उदाहरण के साथ संगरूर के प्रगतिशील किसान सपिंदर सिंह ने सुअर पालन के साथ मछली पालन को अपनाकर पंजाब के अन्य किसानों के लिए उदाहरण स्थापित किया है।

यह कहानी एक रिटायर्ड व्यक्ति— सपिंदर सिंह की है, जिन्होंने अपने 18 वर्ष मिल्टिरी इंजीनियरिंग सर्विस को समर्पित करने के बाद वापिस पंजाब आने का फैसला किया और अपना बाकी का जीवन खेतीबाड़ी को समर्पित कर दिया। कृषि पृष्ठभूमि से आने के कारण, सपिंदर सिंह के लिए दोबारा खेतीबाड़ी शुरू करना कुछ मुश्किल नहीं था। लेकिन मुख्य फसलें गेहू और धान उगाना उनके लिए लाभदायक उद्यम नहीं था। जिसका एक कारण उनका संबंधित कृषि गतिविधियों की तरफ प्रभावित होना था।

इस समय के दौरान, एक बार सपिंदर सिंह कुछ व्यक्तिगत कामों के लिए संगरूर शहर गए और वहां पर उन्होंने एक मछली बीज फार्म में मछली बीज उत्पादन की प्रक्रिया के बारे में पता चला। मछली फार्म में श्रमिकों से बात करने पर उन्हें पता चला कि महीने में एक बार उन अभिलाषी किसानों की ट्रेनिंग के लिए 5 दिनों का ट्रेनिंग प्रोग्राम आयोजित किया जाता है। जो कि मछली पालन के व्यवसाय को अपने करियर के रूप में अपनाना चाहते हैं।

“और यह तब हुआ जब मैंने मछली पालन करने का फैसला किया। मेरी मां और मैंने अक्तूबर 2013 में पांच दिनों की ट्रेनिंग ली। वहां से मुझे पता चला कि मछली का बच्चा केवल मार्च से अगस्त तक ही प्रदान किया जाता है।”

ट्रेनिंग के बाद एक भी पल बिना गंवाए सपिंदर सिंह ने अपना स्वंय का प्री कल्चर टैंक (नर्सरी टैंक) तैयार करने और उसमें मछली के पूंग संग्रहित करने का फैसला किया। टैंक की तैयारी के लिए उन्होंने मिट्टी और पानी की जांच के तहत अपनी ज़मीन की जांच के बाद अपनी ज़मीन पर एक तालाब खोदा। मछली पालन विभाग ने उन्हें लोन एप्लेकेशन में भी मदद की और सपिंदर सिंह के लिए लोन की किश्तों की प्रक्रिया बहुत ही आसान थीं।

“मछली पालन के लिए मैंने 4.50 लाख रूपये के लोन के लिए आवेदन किया और कुछ समय बाद 1.50 लाख रूपये पहली लोन की किश्त प्राप्त हुई। समय पर लोन भी चुकाया गया था, जिसके कारण मुझे अपना मछली फार्म स्थापित करने के दौरान किसी भी प्रकार की वित्तीय समस्या का सामना नहीं करना पड़ा।”

मछली पालन के अधिकारियों ने सपिंदर सिंह को सही समय पर जानकारी देने में महत्तवपूर्ण भूमिका निभाई। उन्होंने श्री सिंह को एकीकृत खेती का सुझाव दिया ओर फिर सपिंदर सिंह ने सुअर पालन का व्यवसाय शुरू करने का फैसला किया। ट्रेनिंग लेने के बाद सपिंदर सिंह ने पिग्गरी शैड स्थापित करने के लिए 4.90 लाख रूपये के लोन के लिए आवेदन किया।

वर्तमान में, सपिंदर सिंह 200 सुअरों के साथ 3.25 एकड़ में मछली पालन कर रहे हैं। सुअर पालन के साथ मछली पालन की समेकित कृषि प्रणाली से उन्हें 8 लाख का शुद्ध लाभ मिलता है। मछली पालन और पशु पालन दोनों विभागों ने 1.95 लाख और 1.50 लाख की सब्सिडी दी। दोनों विभागों और जिला प्रशासन दोनों ने उन्हें अपना उद्यम बढ़ाने में पूरी सहयोग और सभी अवसर उन्हें प्रदान किए।

वर्तमान में, सपिंदर सिंह अपने फार्म को सफलतापूर्वक चला रहे हैं और जब भी उन्हें मौका मिलता है तो वे किसानों को उचित कृषि ज्ञान हासिल करने के लिए द्वारा आयोजित के वी के ट्रेनिंग कैंप में शामिल होने के लिए प्रोत्साहित करने की कोशिश करते हैं।

अपनी तीव्र जिज्ञासा के साथ वे हमेशा एक कदम आगे रहना चाहते हैं सपिंदर सिंह ये भी जानते है। कि उन्नति के लिए उनका अगला कदम क्या होना चाहिए और यही कारण है कि वे सुअर — मछली युनिट के प्रोसेसिंग प्लांट में निवेश करने की योजना बना रहे हैं।

सपिंदर सिंह एक आधुनिक प्रगतिशील किसान हैं जिन्होंने आधुनिक पद्धति के अनुसार अपने खेती करने के तरीकों को बदला और प्रत्येक अवसर का लाभ उठाया। अन्य किसान यदि कृषि क्षेत्र में प्रगति करना चाहते हैं तो उन्हें सपिंदर सिंह के दृष्टिकोण को समझना होगा।

संदेश

यदि किसान अच्छी कमाई करना चाहते हैं और आर्थिक रूप से घरेलु स्थिति में सुधार करना चाहते हैं तो उन्हें फसल की खेती के साथ कृषि संबंधी व्यवसायों को अपनाना चाहिए।

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ननिल चौधरी

(फूलों की खेती)

मिलिये अगली पीढ़ी के समृद्ध किसान से जो उत्तर प्रदेश में स्थानीय रोज़गार को बढ़ावा दे रहा है

ननिल चौधरी के फार्म का दृश्य सपनों वाली सुगंधित दुनिया में किसी को भी उड़ा देगा। खैर आप सोच रहे होंगे कि वहां फसल, गायें, भैंसों, धूल और गोबर के अलावा और क्या हो सकता है? तो आप गलत हैं क्योंकि ननिल चौधरी उत्तर प्रदेश के अलीगढ़ जिले के एक ऐसे उभरते किसान हैं जो फूलों की खेती करते हैं और उनके फार्म में आपको केवल जरबेरा, रजनीगंधा, ग्लेडियोलस और कई अन्य रंग बिरंगे फूल देखने को मिलेंगे।

पारंपरिक खेती की पृष्ठभूमि से आने से, ननिल चौधरी की कृषि यात्रा अन्य किसानों की तरह गेहूं, बाजरा, आलू, जौं और सरसों की खेती के साथ शुरू हुई जो कि 2014-15 तक रही । यद्यपि उन्होंने एक पारंपरिक किसान की तरह शुरूआत की, लेकिन उन्होंने कभी भी अपने मन में उस रूढ़िवादी सोच को सीमित नहीं रखा और वर्ष 2015—16 में उन्होंने फूलों की खेती के क्षेत्र में प्रवेश किया।

ननिल चौधरी को अलीगढ़ जिले में इग्लास तहसील के पास पॉलीहाउस में जरबेरा के बागान के बारे में पता चला। कुछ पूछताछ करने के बाद उन्हें पता चला कि इसे स्थापित करने के लिए बड़ी भूमि की आवश्यकता है। चूंकि उनकी मां श्रीमती कृष्णा कुमारी के पास काफी ज़मीन थी इसलिए उनके नाम पर परियोजना मंजूर की गई और इसी तरह कृष्णा बायोटेक की स्थापना हुई।

“जलवायु नियंत्रित पॉलीहाउस की स्थापना के लिए मैंने लगभग 1.10 करोड़ का निवेश किया जिनमें से 75 लाख रूपये RBL बैंक लिमिटेड द्वारा दिए गए और यह मेरे लिए एक बहुत बड़ी मदद थी।”

ग्रामीण अर्थव्यवस्था में सुधार के लिए रोज़गार पैदा करने के उद्देश्य से वे फूलों की खेती की तरफ बढ़े और आज उनके अपने दो जलवायु नियंत्रित पॉलीहाउस हैं जहां पर उन्होंने 2 एकड़ में जरबेरा के 40000 पौधे लगाए हैं। पॉलीहाउस के बाहर 6 एकड़ में उन्होंने ग्लेडियोलस, 6 एकड़ में रजनीगंधा, 1 एकड़ में ब्रासिका और 3 एकड़ में गुलदाउदी के पौधे लगाए हैं।

और कैसे ये फूल ननिल चौधरी के कारोबार को मुनाफे में बदल रहे हैं:
एक जरबेरा का पौधा एक वर्ष में 25 फूल देता है जिसके फलस्वरूप 1000000 फूलों की उत्पादन संख्या में बदल जाती है और जब यह फूलों की संख्या 2.50 रूपये के हिसाब से बेची जाती है तो एक वर्ष में 20लाख की आमदन होती है। सब खर्चों की कटौती करने के बाद ननिल चौधरी को प्रति वर्ष 6—7 लाख का शुद्ध लाभ मिलता है। यह लाभ केवल जरबेरा फूल से है। इसके अलावा रजनिगंधा प्रति एकड़ 2 लाख के लगभग मुनाफा देता है। ग्लेडियोलस 1.50 लाख प्रति एकड़ के लगभग और गुलदाउदी प्रति वर्ष 3 लाख प्रति एकड़ के लगभग मुनाफा देता है।

“श्रम शुल्कों, बैंक किश्तों और अन्य इनपुट लागतों के व्यय को छोड़कर, यह फूल उत्पादन का उद्योग मुझे प्रति वर्ष लगभग 14 लाख का लाभ प्रदान कर रहा है।”

ननिल चौधरी के लिए, शुरूआत में मंडीकरण थोड़ा मुश्किल था, क्योंकि दिल्ली को फूलों की डिलीवरी करना मुश्किल था, लेकिन बाद में 2017—18 में, उत्तर प्रदेश राज्य रोडवेज़ बसें फूलों के मंडीकरण का सबसे अच्छा माध्यम थी।

कुछ लोग जो ननिल चौधरी के लिए उनकी फूलों की कृषि यात्रा के दौरान खंभे की तरह उनके साथ खड़े थे उनकी मां, डॉ. माम चंद सिंह (वैज्ञानित और आई.ए आर.आई, पूसा, नई दिल्ली में संरक्षित खेती विभाग प्रमुख) और श्री कौशल कुमार (जिला बागबानी अधिकारी, अलीगढ़)।

ज्ञान प्रसार सबसे महत्तवपूर्ण बात है जिसे ननिल चौधरी हमेशा मानते हैं और उत्तर प्रदेश के इटाह, हाथरस, मेरठ और गाज़ियाबाद जिलों के विभिन्न किसानों को फूलों की खेती के बारे में बताया है।

वर्तमान में, ननिल चौधरी के फार्म में 20—22 कुशल श्रमिक हैं जो विशेष रूप से डिज़ाइन किए गए प्लांटर, ड्रिप सिंचाई प्रणाली, सौर ऊर्जा सिंचाई पंप जैसे आधुनिक उपकरणों की मदद से पूरी तरह मशीनीकृत फार्म का काम करते हैं।

भविष्य के लिए ननिल चौधरी के पास कुछ योजनाएं हैं:
• रजनीगंधा से आवश्यक तेल निकालने की संभावना का पता लगाने की योजना
• उत्तरांचल में बड़े पैमाने पर फूलों की खेती का विस्तार करना।
• व्यापारिक खेती के लिए ग्लेडियोलस कंद,रजनिगंधा कंद और गुलदाउदी नर्सरी का बड़े पैमाने पर उत्पादन।

फूल उत्पादन के उद्यम द्वारा ननिल चौधरी ने अपने क्षेत्र में एक बड़ा बदलाव देखा है, लोगों को खेती, कटाई, पैकिंग और फूलों के परिवहन के कारण नियमित आय मिलती है, उन लोगों की आय उनके चेहरे पर वास्तविक खुशी दिखाती है … ननिल चौधरी

फूलों की खेती के क्षेत्र में जबरदस्त प्रयास करने के लिए ननिल चौधरी को सम्मानित किया गया है-
• 2016—17 में विभागीय कमिश्नर, अलीगढ़ द्वारा प्रगतिशील किसान पुरस्कार प्राप्त हुआ।
• दूरदर्शन, दिल्ली द्वारा कृष्णा बायोटेक फार्म पर एक डॉक्यूमेंट्री तैयार की गई थी और 22 नवंबर 2016 को कृषि दर्शन कार्यक्रम में प्रसारित की गई थी।
• बाद में वर्ष 2017—18 में, दूरदर्शन ने एक और डॉक्यूमेंट्री तैयार की और 27 दिसंबर 2017 को डी डी कृषि दर्शन पर प्रसारित की गई।
ननिल चौधरी के दृढ़ संकल्प और कड़ी मेहनत से कृष्णा बायोटेक ने फूलों की खेती का विसतार किया जिससे उनके परिवार और फार्म में काम करने वाले लोगों के लिए एक गुणवत्ता मानिक निर्धारित हुआ।
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इंदर सिंह सिद्धू

(जैविक खेती, फूड प्रोसेसिंग)

पंजाब में स्थित एक फार्म की सफलता की कहानी जो हरी क्रांति के प्रभाव से अछूता रह गया

एक किसान, जिसका पूरा जीवन चक्र फसल की पैदावार पर ही निर्भर करता है, उसके लिए एक बार भी फसल की पैदावार में हानि का सामना करना तबाही वाली स्थिति हो सकती है। इस स्थिति से निकलने के लिए हर किसान ने अपनी क्षमता के अनुसार बचाव के उपाय किए हैं, ताकि नुकसान से बचा जा सके। और इसी तरह ही कृषि क्षेत्र अधिक पैदावार लेने की दौड़ में हरी क्रांति को अपनाकर नवीनीकरण की तरफ आगे बढ़ा। पर पंजाब में स्थित एक फार्म ऐसा है जो हरी क्रांति के प्रभाव से बिल्कुल ही अछूता रह गया।

यह एक व्यक्ति — इंदर सिंह सिद्धू की कहानी है जिनकी उम्र 89 वर्ष है और उनका परिवार – बंगला नैचुरल फूड फार्म चला रहा है। यह कहानी तब शुरू हुई जब हरी क्रांति भारत में आई। यह उस समय की बात है जब कीटनाशकों और खादों के रूप में किसानों के हाथों में हानिकारक रसायन पकड़ा दिए गए। इंदर सिंह सिद्धू भी उन किसानों में से एक थे जिन्होंने कुछ असाधारण घटनाओं का सामना किया, जिस कारण उन्हें कीटनाशकों के प्रयोग से नफरत हो गई।

“गन्ने के खेत में कीड़े मारने के लिए एक स्प्रे की गई थी और उस समय किसानों को चेतावनी दी गई थी कि उस जगह से अपने पशुओं के लिए चारा इक्ट्ठा ना करें। इस किस्म की प्रक्रिया ज्वार के खेत में भी की गई और यह स्प्रे बहुत ज्यादा ज़हरीली थी, जिससे चूहे और अन्य कई छोटे कीट भी मर गए।”

इन दोनों घटनाओं को देखने के बाद, इंदर सिंह सिद्धू ने सोचा कि यदि ये स्प्रे पशुओं और कीटों के लिए हानिकारक है, तो ये हमें भी नुकसान पहुंचा सकती हैं। स. सिद्धू ने फैसला किया कि कुछ भी हो जाए, वे इन ज़हरीली चीज़ों को अपने खेतों में नहीं आने देंगे और इस तरह उन्होंने पारम्परिक खेती के अभ्यासों, फार्म में तैयार खाद और वातावरण अनुकूल विधियों के प्रयोग से बंगला नैचुरल फूड फार्म को मौत देने वाली स्प्रे से बचाया।

खैर,इंदर सिंह सिद्धू अकले नहीं थे, उनके पुत्र हरजिंदर पाल सिंह सिद्धू और बहू — मधुमीत कौर दोनों उनकी मदद करते हैं। रसोई से लेकर बगीची तक और बगीची से खेत तक, मधुमीत कौर हर काम में दिलचस्पी लेती हैं और अपने पति और ससुर के साथ कदम से कदम मिलाकर चलती हैं ।

पहले, जब अंग्रेजों ने भारत पर हुकूमत की थी, उस समय फाज़िलका को बंगलोअ (बंगला) कहते थे, इस कारण मेरे ससुर जी ने फार्म का नाम बंगला नैचुरल फूड्स रखा। – मधुमीत कौर ने मुस्कुराते हुए कहा।

इंदर सिंह सिद्धू पारंपरिक खेती के अभ्यास में विश्वास रखते हैं पर वे कभी भी आधुनिक पर्यावरण अनुकूल खेती तकनीकें अपनाने से झिझके नहीं। वे अपने फार्म पर सभी आधुनिक मशीनरी को किराये पर लेकर प्रयोग करते हैं और खाद तैयार करने के लिए अपनी बहू की सिफारिश पर वे वेस्ट डीकंपोज़र का भी प्रयोग करते हैं। वे कीटनाशकों के स्थान पर खट्टी लस्सी, नीम और अन्य पदार्थों का प्रयोग करते हैं जो हानिकारक कीटों को फसलों से दूर रखते हैं।

वे मुख्य फसल जिसके लिए बंगला नैचुरल फूड फार्म को जाना जाता है, वह है गेहूं की सबसे पुरानी किस्म बंसी। बंसी गेहूं भारत की 2500 वर्ष पुरानी देसी किस्म है, जिसमें विटामिनों की अधिक मात्रा होती है और यह भोजन के लिए भी अच्छी मानी जाती है।

“जब हम कुदरती तौर पर उगाए जाने वाले और प्रोसेस किए बंसी के आटे को गूंधते हैं तो यह अगले दिन भी सफेद और ताजा दिखाई देता है, पर जब हम बाज़ार से खरीदा गेहूं का आटा देखें तो यह कुछ घंटों के बाद काला हो जाता है— मधुमीत कौर ने कहा।”

गेहूं के अलावा स. सिद्धू गन्ना, लहसुन, प्याज, हल्दी, दालें, मौसमी सब्जियां पैदा करते हैं और उन्होंने 7 एकड़ में मिश्रित फलों का बाग भी लगाया है। स. सिद्धू 89 वर्ष की उम्र में भी बिल्कुल तंदरूस्त हैं, वे कभी भी फार्म से छुट्टी नहीं करते और कुछ कर्मचारियों की मदद से फार्म के सभी कामों की निगरानी करते हैं। गांव के बहुत सारे लोग इंदर सिंह सिद्धू के प्रयत्नों की आलोचना करते थे और कहते थे “यह बुज़ुर्ग आदमी क्या कर रहा है…” पर अब बहुत सारे आलोचक ग्राहकों में बदल गए हैं। और बंगला नैचुरल फूड फार्म से सब्जियां और तैयार किए उत्पाद खरीदना पसंद करते हैं।

इंदर सिंह सिद्धू की बहू खेती करने के अलावा खेती उत्पादों जैसे सेवियां, दलियां, चावल से तैयाार सेवियां, अमरूद का जूस और लहसुन पाउडर आदि उत्पाद भी तैयार करती हैं। ज्यादातर तैयार किए उत्पाद और फसलें घरेलु उद्देश्य के लिए प्रयोग की जाती हैं या दोस्तों और रिश्तेदारों के बांट दी जाती हैं।

उनकी 50 एकड़ ज़मीन को 3 प्लाट में बांटा गया है, जिसमें से इंदर सिंह सिद्धू के पास 1 प्लाट है, जिसमें पिछले 30 वर्षों से कुदरती तौर पर खेती की जा रही है और 36 एकड़ ज़मीन अन्य किसानों को ठेके पर दी है। कुदरती खेती करने के लिए खेती विरासत मिशन की तरफ से उन्हें प्रमाण पत्र भी मिला है।

यह परिवार पारंपरिक और विरासती ढंग के जीवन को संभाल कर रखने में यकीन रखता है। वे भोजन पकाने के लिए मिट्टी के बर्तनों (मटकी, घड़ा आदि) का प्रयोग करते हैं। इसके अलावा वे घर में दरियां, संदूक और मंजी आदि का ही प्रयोग करते हैं।

हर वर्ष उनके फार्म पर बहुत लोग घूमने और देखने के लिए आते हैं, जिनमें कृषि छात्र, विदेशी आविष्कारी और कुछ वे लोग होते हैं जो विरासत और कृषि जीवन को कुछ दिनों के लिए जीना चाहते हैं।

भविष्य की योजना
फसल और तैयार किए उत्पाद बेचने के लिए वे अपने फार्म पर कुछ अन्य किसानों के साथ मिलकर एक छोटा सी दुकान खोलने की योजना बना रहे हैं और अपने फार्म को एक पर्यटक स्थान में बदलना चाहते हैं।
संदेश

“जैसे कि हम जानते हैं कि यदि कीटों के लिए रसायन जानलेवा हैं तो ये कुदरत के लिए भी हानिकारक सिद्ध हो सकते हैं, इसलिए हमें इस बात का ध्यान रखना चाहिए कि हम ऐसी चीज़ों का प्रयोग करने से बचें जो भविष्य में नुकसान दे सकती हैं। इसके अलावा, ज्यादातर कीड़े — मकौड़े हमारे लिए सहायक होते हैं और उन्हें कीटनाशक दवाइयों के प्रयोग से मारना फसलों के साथ साथ वातावरण के लिए भी बुरा सिद्ध होता है। किसान को मित्र कीटों और दुश्मन कीटों की जानकारी होनी चाहिए और सबसे महत्तवपूर्ण बात यह है कि यदि आप अपने काम से संतुष्ट हैं तो आप कुछ भी कर सकते हैं।”

 

खैर, अच्छी सेहत और जीवन ढंग दिखाता है कि सख्त मेहनत और कुदरती खेती के प्रति समर्पण ने इंदर सिंह सिद्धू जी को अच्छा मुनाफा दिया है और उनकी शख्सियत और खेती के अभ्यासों ने उन्हें नज़दीक के इलाकों में पहले से ही प्रसिद्ध कर दिया है।

किसान को लोगों की आलोचनाओं से प्रभावित नहीं होनी चाहिए और वही करना चाहिए जो कुदरती खेती के लिए अच्छा है और आज हमें ऐसे लोगों की ज़रूरत है। इंदर सिंह सिद्धू और उन जैसे प्रगतिशील किसानों को हमारा सलाम है।
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विनोद कुमार

(मोतियों की खेती)

जानें इस नौजवान के बारे में जिसने मैकेनिकल इंजीनियर की नौकरी छोड़कर मोती उत्पादन शुरू किया, और अब है वार्षिक कमाई 5 लाख से भी ज्यादा

विनोद कुमार जो पेशे से मैकेनिकल इंजीनियर थे, वे अक्सर अपनी व्यस्त व्यवसायी ज़िंदगी से समय निकालकर खेती में अपनी दिलचस्पी तलाशने के लिए नई आधुनिक कृषि तकनीकों की खोज करते थे। एक दिन इंटरेनेट पर विनोद कुमार को मोती उत्पादन के बारे में पता चला और वे इसकी तरफ आकर्षित हुए और उन्होंने इसकी गहराई से जानकारी प्राप्त की जिससे उन्हें पता चला कि मोती उत्पादन कम पानी और कम क्षेत्र में किया जा सकता है।

जब उन्हें यह पता चला कि मोती उत्पादन की ट्रेनिंग देने वाला एकमात्र इंस्टीट्यूट सेंट्रल इंस्टीट्यूट ऑफ फ्रेश वॉटर एक्वाकल्चर भुवनेश्वर में स्थित है तो विनोद कुमार ने बिना समय गंवाए, अपने दिल की बात सुनी और अपनी नौकरी छोड़कर मई 2016 में एक सप्ताह की ट्रनिंग के लिए भुवनेश्वर चले गए।

उन्होंने मोती उत्पादन 20 x 10 फुट क्षेत्र में 1000 सीप से शुरू की थी और आज उन्होंने अपना मोती उत्पादन का व्यवसाय का विस्तार कर दिया है जिसमें वे 2000 सीप से, 5 लाख से भी ज्यादा का मुनाफा कमा रहे हैं। खैर, यह विनोद कुमार का कृषि की तरफ दृढ़ संकल्प और जुनून था जिसने उन्होंने सफलता का यह रास्ता दिखाया।

विनोद कुमार ने हमसे मोती उत्पादन शुरू करने वाले नए लोगों के लिए मोती उत्पादन की जानकारी सांझा की –

• न्यूनतम निवेश 40000 से 60000
• मोती उत्पादन के लिए आवश्यक पानी का तापमान — 35°सेल्सियस
• मोती उत्पादन के लिए एक पानी की टैंकी आवश्यक है।
• सीप मेरठ और अलीगढ़ से मछुआरों से 5—15 रूपये में खरीदे जा सकते हैं।
• इन सीपको पानी की टैंकी में 10—12 महीने के लिए रखा जाता है और जब शैल अपना रंग बदलकर सिल्वर रंग का हो जाता है तब मोती तैयार हो जाता है।
• खैर, यह अच्छा गोल आकार लेने में 2 —2.5 वर्ष लगाता है।
• शैल को इसकी आंतरिक चमक से पहचाना जाता है।
• आमतौर पर शैल का आकार 8—11 सैं.मी. होता है।
• मोती के लिए आदर्श बाजार राजकोट, दिल्ली, दिल्ली के नज़दीक के क्षेत्र और सूरत हैं।

मोती उत्पादन के मुख्य कार्य:
मुख्य कार्य सीप की सर्जरी है और इस काम के लिए संस्थान द्वारा विशेष ट्रेनिंग दी जाती है। मोती के अलावा सीप के अंदर विभिन्न तरह के आकार और डिज़ाइन बनाए जा सकते हैं।

विनोद ना केवल मोती उत्पादनकर रहे हैं बल्कि वे अन्य किसानों को भी ट्रेनिंग प्रदान कर रहे हैं। उन्हें उद्यमिता विकास के लिए ताजे पानी में मोती की खेती की ट्रेनिंग में ICAR- सेंट्रल इंस्टीट्यूट ऑफ फ्रेश वॉटर एक्वाकल्चर द्वारा प्रमाणित किया गया है। अब तक 30000 से अधिक लोगों ने उनके फार्म का दौरा किया है और उन्होंने कभी भी किसी को निराश नहीं किया है।

संदेश
“आज के किसान यदि अपने जीवन में आगे बढ़ना चाहते हैं तो उन्हें अलग सोचना चाहिए लेकिन यह भावना भी धैर्य की मांग करती है क्योंकि मेरे कई छात्र ट्रेनिंग के लिए मेरे पास आए और ट्रेनिंग के तुरंत बाद ही उन्होंने अपना व्यवसाय शुरू करने की कोशिश की लेकिन वे सफल नहीं हुए। लोगों को यह समझना चाहिए कि सफलता धैर्य और लगातार अभ्यास से मिलती है।”

फारूखनगर तहसील, गुरूग्राम के एक छोटे से गांव जमालपुर में रहने वाले श्री विनोद कुमार ने अपने अनुभव और दृढ़ संकल्प के साथ साबित कर दिया है कि फ्रैश वॉटर सीपकल्चर में विशाल क्षमता है।
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अमरजीत सिंह धम्मी

(फूड प्रोसेसिंग)

एक ऐसे उद्यमी जो अपने हर्बल उत्पादों से मधुमेह की दुनिया में क्रांति ला रहे हैं

आज भारत में 65.1 मिलियन से अधिक मधुमेह के मरीज़ हैं और इस तथ्य से, यह बिल्कुल स्पष्ट है कि मधुमेह एक महामारी की तरह फैल रहा है जो हमारे लिए खतरे की स्थिति है। मधुमेह के मरीज़ों की संख्या में वृद्धि के लिए जिम्मेदार ना केवल अस्वस्थ जीवनशैली और अस्वस्थ भोजन है बल्कि मुख्य कारण यह है कि उपभोक्ता अपने घर पर जो मूल उत्पाद खा रहे हैं वे उसके बारे में अनजान हैं। इस परेशान करने वाली स्थिति को समझते हुए और समाज में स्वस्थ परिवर्तन लाने के उद्देश्य से अमरजीत सिंह धम्मी ने अपने कम जी. आई. (GI) हर्बल उत्पादों के साथ इस व्यापक बीमारी को पराजित करने की पहल की।

ग्लाईसेमिक इन्डेक्स या जी. आई. (GI)
जी .आई . (GI) मापता है कि कैसे कार्बोहाइड्रेट युक्त भोजन आपके रक्त में ग्लूकोज़ स्तर को बढ़ाता है। उच्च जी. आई. (GI) युक्त भोजन, मध्यम और कम जी. आई . (GI) युक्त भोजन से अधिक आपके रक्त में ग्लूकोज़ की मात्रा को बढ़ाता है।

2007 में B.Tech एग्रीकल्चर में ग्रेजुएट होने के बाद और फिर अमेरिकी आधारित कंपनी में 3 वर्षों तक एक सिंचाई डिज़ाइनर के रूप में नौकरी करने के बाद, अमरजीत सिंह धम्मी ने अपना स्वंय का व्यवसाय शुरू करने का फैसला किया जिससे वे समाज के प्रमुख स्वास्थ्य मुद्दों का व्याख्यान कर सकें। अपने शोध के अनुसार, उन्होंने पाया कि डायबिटीज़ प्रमुख स्वास्थ्य समस्या है और यही वह समय था जब उन्होंने डायबिटीज़ के मरीज़ों के लिए हर्बल उत्पादों को लॉन्च करने का फैसला किया।

एग्रीनीर फूड (Agrineer Food) ब्रांड का नाम था जिसके साथ वे 2011 में आए और बाद में इसे ओवेर्रा हर्बल्स (Overra Herbals) में बदल दिया। पंजाब एग्रीकल्चर यूनिवर्सिटी, फूड प्रोसेसिंग विभाग से खाद्य प्रसंस्करण की ट्रेनिंग लेने के बाद उन्होंने अपना पहला उत्पाद लॉन्च किया जो मधुमेह के मरीज़ों के लिए डायबिटिक उपयुक्त आटा (Diabetic Friendly Flour) है और अन्य लोग इसे स्वस्थ जीवनशैली के लिए भी उपयोग कर सकते हैं।

अमरजीत सिंह धम्मी इस तथ्य से अच्छी तरह से अवगत थे कि एक नए ब्रांड उत्पाद की स्थापना करने के लिए बहुत सारा निवेश और प्रयास चाहिए। उन्होंने लुधियाना में प्रोसेसिंग प्लांट की स्थापना की, फिर मार्किट रीटेल चेन और इसके विस्तार की स्थापना द्वारा बाजार से व्यवस्थित रूप से संपर्क किया। उन्होंने अपने उद्यम में आयुर्वेद डॉक्टरों, मार्किटिंग विशेषज्ञ और पी एच डी माहिरों को शामिल करके एक कुशल टीम बनाई। इसके अलावा सामग्री की शुद्धता सुनिश्चित करने के लिए, उन्होंने जैविक खेती करने वाले किसानों का एक समूह बनाया और अपने ब्रांड के तहत जैविक दालों को बेचना शुरू कर दिया।

खैर, मुख्य बात यह है कि जिसके साथ मधुमेह के मरीज़ों को लड़ना है वह है मिठास। और इस बात को ध्यान में रखते हुए, अमरजीत सिंह धम्मी ने मधुमेह के मरीज़ों के लिए अपना मुख्य उत्पाद लॉन्च करने से लगभग 4—5 वर्ष पहले अपना शोध कार्य शुरू किया था। अपने शोध कार्य के बाद, श्री धम्मी ने डायबीट शूगर को मार्किट में लेकर आये।

आमतौर पर चीनी में 70 ग्लाइसेमिक इंडेक्स होता है लेकिन डायबीट शूगर में 43 ग्लाइसेमिक इंडेक्स है। यह विश्व में पहली बार है कि चीनी ग्लाइसेमिक इंडेक्स के आधार पर बनाई गई है।

डायबीट शूगर का मुख्य सक्रिय तत्व, जो इसे बाजार में उपलब्ध सामान्य चीनी से विशेष बनाते हैं वे हैं जामुन, अदरक, लहसुन,काली मिर्च, करेला और नीम। और यह ओवेर्रा फूड्स की विकसित की गई (पेटेंट)तकनीक है।

हल्दीराम, लवली स्टीवट्स, गोपाल स्वीट्स कुछ ब्रांड हैं जिनके साथ वर्तमान में ओवेर्रा फूड डायबीटिक फ्रेंडली मिठाई बनाने के लिए अपने डायबीट शूगरऔर डायफ्लोर का लेन देन और सप्लाई कर रही है।

शुरूआत में, अमरजीत सिंह धम्मी ने जिस समस्या का सामना किया वह थी उत्पादों का मंडीकरण और उनकी शेल्फ लाइफ। लेकिन जल्दी ही मार्किटिंग मांगों के मुताबिक उत्पादन करके इसे सुलझा लिया गया। वर्तमान में, ओवेर्रा फूड की मुख्य उत्पादन संयंत्र मैसूर और लुधियाना में स्थित हैं और इसके उत्पादों की सूची में कम जी आई (GI) युक्त डायबीट शूगर से बने जूस, चॉकलेट, स्क्वैश, कुकीज़ शामिल हैं और ये उत्पाद पूरे भारत में आसानी से उपलब्ध हैं।

स्वास्थ्य मुद्दे को संबोधित करने के साथ साथ, श्री धम्मी ने डॉ. रमनदीप के साथ सहयोग करके कॉर्पोरेट सामाजिक जिम्मेदारी की ओर सकारात्मक भूमिका निभाई है, उन्होंने एक कार्यकलाप शुरू की है जिसके माध्यम से वे उद्यमियों को अपनी ट्रेनिंग और मार्गदर्शन के तहत करियर को सही दिशा में ले जाने के लिए मदद की है।

भविष्य की योजनाएं:
अमरजीत सिंह धम्मी अपने उत्पादों को संयुक्त राज्य अमेरिका, केनेडा,फिलीपीन्स और अन्य खाड़ी देशों में निर्यात करने की योजना बना रहे हैं।
संदेश:
“यही समय शिक्षित युवा पीढ़ी के लिए सबसे ज्यादा सही है क्योंकि उनके पास कई अवसर हैं, जिसमें वे स्वंय का व्यवसाय शुरू कर सकते हैं, बजाय कि किसी ऐसी नौकरी के पीछे भागे जिनसे उनकी मौलिक आवश्यकताएं भी पूरी नहीं हो सकी, पर हर काम के लिए धैर्य रखना ज़रूरी है।”
यदि आप दवा की तरह खाना खाएंगे, तो आप स्वस्थ जीवन जियेंगे..
अमरजीत सिंह धम्मी 
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गुरमेल सिंह

(जैविक खेती, खाद्य प्रसंस्करण)

कैसे इस किसान ने कृषि को स्थायी कृषि प्रथाओं के साथ वास्तव में लाभदायक व्यवसाय में बदल दिया

खैर, खेती के बारे में हर कोई सोचता है कि यह एक कठिन पेशा है, जहां किसानों को तेज धूप और बारिश में घंटों तक काम करना पड़ता है लेकिन आपको यह जानकर हैरानी होगी कि गुरमेल सिंह को जैविक खेती में शांति और जीवन की संतुष्टि मिलती है।

68 वर्षीय, गुरमेल सिंह ने 2000 मे खेती शुरू की और तब से वे उसी काम को आगे बढ़ा रहे हैं । लेकिन जैविक खेती से पहले उन्होनें मोटर मकैनिक, इलेक्ट्रीशियन जैसे कई व्यवसायों पर हाथ आज़माया और फेब्रिकेशन और वेल्डिंग का काम भी सीखा, लेकिन कोई भी नौकरी उन्हें उपयुक्त नहीं लगी क्योंकि इन्हें करने से ना उन्हें संतुष्टि मिल रही थी और ना ही खुशी ।

2000, में जब उनकी पुश्तैनी ज़मीन उनके और उनके भाई में बंटी, उस समय उन्हें भी 6 एकड़ भूमि यानि संपत्ति का 1 तिहाई हिस्सा मिला। खेती करने के बारे में सोचते हुए उन्होंने दोबारा अपनी इलेक्ट्रीशियन की नौकरी छोड़ दी और गेहूं और धान की रवायिती खेती करनी शुरू की। गुरमेल सिंह ने अपने क्षेत्र में पूरी निष्ठा के साथ हर वो चीज़ की जिसे करने में वे सक्षम थे, लेकिन उपज कभी संतोषजनक नहीं थी। 2007 तक, रवायिती खेती को करने के लिए जो निवेश चाहिए था उसे पूरा करने के कारण वे इतना कर्जे में डूब गए थे कि इससे बाहर आना उनके लिए लगभग असंभव था। अंतत: वे खेती के व्यवसाय से भी निराश हुए।

लेकिन 2007 में अमुत छकने (अमृत संचार-एक सिख अनुष्ठान प्रक्रिया) के बाद उन्हें आध्यात्मिक ज्ञान प्राप्त हुआ जिसकी वजह से उनकी खेती की धारणा पूरी तरह बदल गई उन्होंने 1 एकड़ ज़मीन पर जैविक खेती शुरू करने का फैसला किया और धीरे धीरे पूरे क्षेत्र में इसे बढ़ाने का फैसला किया। गुरमेल सिहं के जैविक खेती के इरादे को जानने के बाद उनके परिवार ने उनका साथ छोड़ दिया और उन्होंने अकेले रहना शुरू कर दिया।

एक ऐसी भूमि पर जैविक खेती करना जहां पर पहले से रासायनिक खेती की जा रही हो, एक बहुत मुश्किल काम है। परिणामस्वरूप उपज कम हुई, लेकिन जैविक खेती के लिए गुरमेल सिंह के इरादे एक शक्तिशाली पहाड़ की तरह मजबूत थे। शुरूआत में सुभाष पालेकर की वीडियो से उन्हें बहुत मदद मिली और उसके बाद 2009 में उन्होंने खेती विरासत मिशन, नाभा फाउंडेशन और NITTTR, जैसे कई संगठनों में शामिल हुए, जिन्होंने उन्हें जैविक खेती के सर्वोत्तम उपयुक्त परिणाम और मंडीकरण के विषयों के बारे में शिक्षित किया। गुरमेल सिंह ने राष्ट्रीय स्तर पर कई समारोह और कार्यक्रमों में हिस्सा लिया जिन्होंने उन्हें वैश्विक स्तर पर जैविक खेती के ढंगों से अवगत करवाया। धीरे धीरे समय के साथ उपज भी बेहतर हो गई और उन्हें अपने उत्पादन को एक अच्छे स्तर पर बेचने का अवसर भी मिला। 2014 में NITTTR की मदद से, गुरमेल सिंह को चंडीगढ़ सब्जी मंडी में अपना खुद का स्टॉल मिला, जहां वे हर शनिवार को अपना उत्पादन बेच सकते थे। 2015 में, मार्कफेड के सहयोग से उन्हें अपने उत्पादन को बेचने का एक और अवसर मिला।

“समय के साथ मैनें अपने परिवार का विश्वास जीत लिया और वे मेरे खेती करने के तरीके से खुश थे। 2010 में, मेरा बेटा भी मेरे उद्यम में शामिल हो गया और उस दिन से वह मेरे खेती जीवन के हर कदम पर मेरे साथ है।”

वे अपने फार्म की 20 से अधिक स्वंय की उगायी हुई फसलों को बेचते हैं, जिसमें मटर, गन्ना, बाजरा, ज्वार, सरसों, आलू, हरी मूंगी, अरहर,मक्की, लहसुन, प्याज, धनिया और बहुत कुछ शामिल हैं। खेती के अलावा, गुरमेल सिंह ने पंजाब एग्रीकल्चर यूनिवर्सिटी से 1 महीने की बेकरी की ट्रेनिंग लेने के बाद खाद्य प्रसंस्करण की प्रोसेसिंग शुरू की।

गुरमेल सिंह ना केवल स्वंय की उपज की प्रोसेसिंग करते हैं बल्कि नाभा फाउंडेशन के अन्य समूह सदस्यों को उनकी उपज की प्रोसेसिंग करने में भी मदद करते हैं। आटा, मल्टीग्रेन आटा, पिन्नियां, सरसों का साग और मक्की की रोटी उनके कुछ संसाधित खाद्य पदार्थ हैं जो वे सब्जियों के साथ बेचते हैं।

जब बात मंडीकरण की आती है तो अधिकारियों और संगठन के सदस्यों में, दृढ़ संकल्प, कड़ी मेहनत और प्रसिद्ध व्यक्तित्व के कारण यह हमेशा गुरमेल सिंह के लिए एक आसान बात रही। वर्तमान में, वे अपने परिवार के साथ नाभा के गांव में रह रहे हैं, जहां 4—5 श्रमिकों की मदद से, वे फार्म में सभी श्रमिकों के कामों का प्रबंधन करते हैं, और प्रोसेसिंग के लिए उन्हें आवश्यकतानुसार 1—2 श्रमिकों को नियुक्त करते हैं।

भविष्य की योजनाए:
भविष्य में, गुरमेल सिंह एक नया समूह बनाने की योजना बना रहे हैं, जहां सभी सदस्य जैविक खेती, प्रोसेसिंग और मंडीकरण करेंगे।
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“किसानों को समझना होगा कि किसी चीज़ की गुणवत्ता उसकी मात्रा से ज्यादा मायने रखती है, और जिस दिन वे इस बात को समझ जायेंगे उस दिन उपज, मंडीकरण और अन्य मसले भी सुलझ जायेंगे। और आज किसान को बिना किसी उदृदेश्य के रवायिती फसलें उगाने की बजाय मांग और सप्लाई पर ध्यान देना चाहिए।”
 

शुरूआत में, गुरमेल सिंह ने कई समस्याओं का सामना किया इसके अलावा उनके परिवार ने भी उनका साथ छोड़ दिया, लोग उन्हें जैविक खेती अपनाने के लिए पागल कहते थे, लेकिन कुछ अलग करने की इच्छा ने उन्हें अपने जीवन में सफलता प्राप्त करवायी। वे उन शालीन लोगों में से एक हैं जिनके लिए पुरस्कार या प्रशंसा कभी मायने नहीं रखती, उनके लिए उनके काम का परिणाम ही पुरस्कार हैं।

गुरमेल सिंह खुश हैं कि वे अपने जीवन की भूमिका को काफी अच्छे से निभा रहे हैं और वे चाहते हैं कि दूसरे किसान भी ऐसा करें।
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सरबीरइंदर सिंह सिद्धू

(बागवानी, सहायक कृषि धंदे)

पंजाब -मालवा क्षेत्र के किसान ने कृषि को मशीनीकरण तकनीक से जोड़ा, क्या आपने कभी इसे आज़माया है…

44 वर्षीय सरबीरइंदर सिंह सिद्धू ने प्रकृति को ध्यान में रखते हुए सर्वोत्तम पर्यावरण अनुकूल कृषि पद्धतियों को लागू किया जिससे समय और धन दोनों की बचत होती है और प्रकृति के साथ मिलकर काम करने का यह विचार उनके दिमाग में तब आया जब वे बहुत दूर विदेश में थे।

खेतीबाड़ी, जैसे कि हम जानते हैं कि यह एक पुरानी पद्धति है जिसे हमारे पूर्वजों और उनके पूर्वजों ने भोजन उत्पादित करने और जीवन जीने के लिए अपनाया। लेकिन मांगों में वृद्धि और परिवर्तन के साथ, आज कृषि का एक लंबा इतिहास बन चुका है। हां, आधुनिक कृषि पद्धतियों के कुछ नकारात्मक प्रभाव हैं लेकिन अब न केवल कृषि समुदाय बल्कि शहर के बहुत से लोग स्थाई कृषि पद्धतियों के लिए पहल कर रहे हैं।

सरबीरइंदर सिंह सिद्धू उन व्यक्तियों में से एक हैं जिन्होंने विदेश में रहते हुए महसूस किया कि उन्होंने अपनी धरती के लिए कुछ भी नहीं किया जिसने उन्हें उनके बचपन में सबकुछ प्रदान किया। यद्यपि वे विदेश में बहुत सफल जीवन जी रहे थे, नई खेती तकनीकों, मशीनरी के बारे में सीख रहे थे और समाज की सेवा कर रहे थे, लेकिन फिर भी वे निराश महसूस करते थे और तब उन्होंने विदेश छोड़ने का फैसला किया और अपनी मातृभूमि पंजाब (भारत) वापिस आ गए।

“पंजाब यूनिवर्सिटी से ग्रेजुएशन पूरी करने के बाद मैं उच्च शिक्षा के लिए कैनेडा चला गया और बाद में वहीं पर बस गया, लेकिन 5-6 वर्षों के बाद मुझे महसूस हुआ कि मुझे वहां पर वापिस जाने की जरूरत है जहां से मैं हूं।”

विदेशी कृषि पद्धतियों से पहले से ही अवगत सरबीरइंदर सिंह सिद्धू ने खेती के अपने तरीके को मशीनीकृत करने का फैसला किया और उन्होंने व्यापारिक खेती और कृषि तकनीक को इक्ट्ठे जोड़ा। इसके अलावा, उन्होंने गेहूं और धान की बजाय किन्नू की खेती शुरू करने का फैसला किया।

“गेहूं और धान पंजाब की रवायती फसले हैं जिन्हें ज़मीन में केवल 4-5 महीने श्रम की आवश्यकता होती है। गेहूं और धान के चक्र में फंसने की बजाय, किसानों को बागबानी फसलों और अन्य कृषि संबंधित गतिविधियों पर ध्यान देना चाहिए जो साल भर की जा सकती हैं।”

श्री सिंह ने एक मशीन तैयार की जिसे बगीचे में ट्रैक्टर के साथ जोड़ा जा सकता है और यह मशीन किन्नू को 6 अलग-अलग आकारों में ग्रेड कर सकती है। मशीन में 9 सफाई करने वाले ब्रश और 4 सुखाने वाले ब्रश शामिल हैं। मशीन के मशीनीकरण ने इस स्तर तक श्रम की लागत को लगभग शून्य कर दिया है।

“मेरे द्वारा डिज़ाइन की गई मशीन एक घंटे में लगभग 1-1 ½ टन किन्नू ग्रेड कर सकती है और इस मशीन की लागत 10 लीटर डीज़ल प्रतिदिन है।”

श्री सिंह के मुताबिक- शुरूआत में जो मुख्य बाधा थी वह थी किन्नुओं के मंडीकरण के दौरान, किन्नुओं का रख रखाव, तुड़ाई में लगने वाली श्रम लागत जिसमें बहुत समय जाता था और जो बिल्कुल भी आर्थिक नहीं थी। श्री सिंह द्वारा विकसित की ग्रेडिंग मशीन के द्वारा, तुड़ाई और ग्रेडिंग की समस्या आधी हल हो गई थी।

छ: अलग अलग आकारों में किन्नुओं की ग्रेडिंग करने का यह मशीनीकृत तरीके ने बाजार में श्री सिंह की फसल के लिए एक मूल्यवान जगह बनाई, क्योंकि इससे उन्हें अधिक प्राथमिकता और निवेश पर प्रतिफल मिलता है। किन्नुओं की ग्रेडिंग के लिए इस मशीनीकृत तरीके का उपयोग करना “सिद्धू मॉडल फार्म” के लिए एक मूल्यवान जोड़ है और पिछले 2 वर्षों से श्री सिंह द्वारा उत्पादित फल सिट्रस शो में राज्य स्तर पर पहला और दूसरा पुरस्कार प्राप्त किए हैं।

सिर्फ यही दृष्टिकोण नहीं था जिसे श्री सिंह अपना रहे थे, बल्कि ड्रिप सिंचाई, फसल अपशिष्ट प्रबंधन, हरी खाद, बायोगैस प्लांट, वर्मी कंपोस्टिंग, सब्जियों, अनाज, फल और गेहूं का जैविक उत्पादन के माध्यम से वे कृषि के रवायती ढंगों के हानिकारक प्रभावों को कम कर रहे हैं।

कृषि क्षेत्र में सरबीरइंदर सिंह सिद्धू के योगदान ने उन्हें राज्य और राष्ट्रीय स्तर पर कई पुरस्कार और सम्मान प्राप्त करवाये हैं जिनमें से ये दो मुख्य हैं।
• पंजाब के अबोहर में राज्य स्तरीय सिट्रस शो जीता
• अभिनव खेती के लिए पूसा दिल्ली पुरस्कार प्राप्त हुआ
कृषि के साथ श्री सिंह सिर्फ अपने शौंक की वजह से अन्य पशु पालन और कृषि संबंधित गतिविधियों के भी माहिर हैं। उन्होंने डेयरी पशु, पोल्टरी पक्षी, कुत्ते, बकरी और मारवाड़ी घोड़े पाले हुए हैं। उन्होंने आधे एकड़ में मछली तालाब और जंगलात बनाया हुआ है जिसमें 7000 नीलगिरी के वृक्ष और 25 बांस की झाड़ियां हैं।
कृषि क्षेत्र में अपने 12 वर्ष के अनुभव के साथ, श्री सिंह ने कुछ महत्तवपूर्ण मामलों पर अपना ध्यान केंद्रित किया है और इन मुद्दों के माध्यम से वे समाज को संदेश देना चाहते हैं जो पंजाब में प्रमुख चिंता के विषय हैं:

सब्सिडी और कृषि योजनाएं
किसान मानते हैं कि सरकार सब्सिडी देकर और विभिन्न कृषि योजनाएं बनाकर हमारी मदद कर रही है, लेकिन यह सच नहीं है, यह किसानों को विकलांग बनाने और भूमि हथियाने का एक तरीका है। किसानों को अपने अच्छे और बूरे को समझना होगा क्योंकि कृषि इतना व्यापक क्षेत्र है कि यदि इसे दृढ़ संकल्प से किया जाए तो यह किसी को भी अमीर बना सकती है।

आजकल के युवा पीढ़ी की सोच
आजकल युवा पीढ़ी विदेश जाने या शहर में बसने के लिए तैयार है, उन्हें परवाह नहीं है कि उन्हें वहां किस प्रकार का काम करना है, उनके लिए खेती एक गंदा व्यवसाय है। शिक्षा और रोजगार में सरकार के पैसे निवेश करने का क्या फायदा जब अंतत: प्रतिभा पलायन हो जाती है। आजकल की नौजवान पीढ़ी इस बात से अनजान है कि खेतीबाड़ी का क्षेत्र इतना समृद्ध और विविध है कि विदेश में जीवन व्यतीत करने के जो फायदे, लाभ और खुशी है उससे कहीं ज्यादा यहां रहकर भी वे हासिल कर सकते हैं।

कृषि क्षेत्र में मंडीकरण – आज, किसानों को बिचौलियों को खेती- मंडीकरण प्रणाली से हटाकर स्वंय विक्रेता बनना पड़ेगा और यही एक तरीका है जिससे किसान अपना खोया हुआ स्थान समाज में दोबारा हासिल कर सकता है। किसानों को आधुनिक पर्यावरण अनुकूल पद्धतियां अपनानी पड़ेंगी जो कि उन्हें स्थायी कृषि के परिणाम की तरफ ले जायेंगी।

सभी को यह याद रखना चाहिए कि-
“ज़िंदगी में एक बार सबको डॉक्टर, वकील, पुलिस अधिकारी और एक उपदेशक की जरूरत पड़ती है पर किसान की जरूरत एक दिन में तीन बार पड़ती है।”
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ढाडा बकरी फार्म

(बकरी खेती और प्रजनन)

जानिये कैसे चार भविष्यवादी पुरूषों की मंडली, पंजाब में बकरी पालन को बेहतर बना रही है

ढाडा बकरी फार्म – चार भविष्यवादी पुरूषों (बीरबल राम शर्मा, जुगराज सिंह, अमरजीत सिंह और मनजीत कुमार) द्वारा संचालित फार्म, जिन्होंने सही समय पर पंजाब में बकरी के मीट और दूध के भविष्य के बाजार को देखते हुए एक बकरी फार्महाउस स्थापित की जहां से आप न केवल दूध और मीट खरीद सकते हैं बल्कि आप बकरी पालन के लिए बकरी की विभिन्न नस्लों को भी खरीद सकते हैं।

शुरू में, बकरी फार्म की स्थापना का विचार बीरबल और उनके चाचा मनजीत कुमार का था। इससे पहले कॉलेज सुपरवाइज़र के तौर पर काम करके बीरबल ऊब गए थे और वे अपना खुद का व्यवसाय स्थापित करना चाहते थे। लेकिन कुछ भी निवेश करने से पहले बीरबल एक संपूर्ण मार्किट रिसर्च करना चाहते थे। उन्होंने पंजाब में कई फार्म का दौरा किया और मार्किट का विशलेषण करने और कुछ मार्किट ज्ञान हासिल करने के लिए वे दिल्ली भी गए।

विशलेषण के बाद, बीरबल ने पाया कि पंजाब में बहुत कम बकरी फार्म है और बकरी के मीट और दूध की मांग अधिक है। बीरबल के चाचा, मनजीत कुमार शुरू से ही व्यवसाय के भागीदार थे और इस तरह ढाडा बकरी फार्म का विचार वास्तविकता में आया। अन्य दो मुख्य साझेदार इस उद्यम में शामिल हुए, जब बीरबल एक खाली भूमि की तलाश में थे, जहां पर वे बकरी फार्म स्थापित कर सकते और फिर वे सूबेदार जुगराज सिंह और अमरजीत सिंह से मिले। वे दोनों ही मिल्ट्री से रिटायर्ड व्यक्ति थे। बकरी फार्म के विचार के बारे में जानकर जुगराज सिंह और अमरजीत सिंह ने इस उद्यम में दिलचस्पी दिखाई। जुगराज सिंह ने बीरबल को 10 वर्ष के लिए 4 एकड़ भूमि ठेके पर दी। अंत में, जुलाई 2015 में 23 लाख के निवेश के साथ ढाडा बकरी फार्म की स्थापना हुई।

फार्म 70 पशुओं (40 मादा बकरी, 5 नर बकरी और 25 मेमनों) से शुरू हुआ, बाद में उनहोंने 60 पशु और खरीदे। अपने उद्यम को अच्छा प्रबंधन और संरक्षण देने के लिए, चारों सदस्यों ने GADVASU से 5 दिन की बकरी फार्म की ट्रेनिंग ली।

खैर, ढाडा बकरी फार्म चलाना इतना आसान नहीं था, उन्हें कई समस्याओं का भी सामना करना पड़ा। थोक में बकरियों को खरीदने के दौरान उन्होंने स्थानीय बकरी किसानों से बिना किसी उचित टीकाकरण के कुछ बकरियां खरीदीं। जिससे बकरियों को PPR रोग हुआ और परिणामस्वरूप बकरियों की मौत हो गई। इस घटना से, उन्होंने अपनी गल्तियों से सीखा और फिर पशु चिकित्सक सरबजीत से अपने खेत की बकरियों का उचित टीकाकरण शुरू करवाया।

डॉ. सरबजीत ने उन्हें एक बीमारी मुक्त स्वस्थ बकरी फार्म की स्थापना करने में बहुत मदद की, वे हर हफ्ते ढाडा बकरी फार्म जाते थे और उनका मार्गदर्शन करते। वर्तमान में, बकरियों की गिनती 400 से अधिक हो गई है। बीटल, सिरोही, बारबरी, तोतापरी और जखराना बकरी की नस्लें हैं जो ढाडा बकरी फार्म में मौजूद हैं। वे बाजार में बकरी का दूध, बकरी के गोबर से तैयार खाद बेचते हैं। अच्छा लाभ कमाने के लिए बकरीद के दौरान, वे नर बकरियों को भी बेचते हैं।

फीड सबसे महत्तवपूर्ण चीज़ है जिसका वे खास ध्यान रखते हैं। गर्मियों में वे बकरियों को हरी घास और पत्तियां, हरे चनों और हरी मूंग के पौधों का मिश्रण और सर्दियों में बरसीम, सरसों, गुआर और मूंगफली की घास देते हैं। फार्म में दो स्थायी श्रमिक हैं जो बकरी फार्म का प्रबंधन करने में मदद करते हैं। बेहतर फीड तैयार करने के लिए चारा घर में उगाया जाता है। बकरी की जरूरतों का उचित ध्यान रखने के लिए उन्होंने बकरियों के स्वतंत्र रूप से घूमने के लिए 4 कनाल क्षेत्र भी रखा है। डीवॉर्मिंग गन, चारा पीसने के लिए मशीन, चिकित्सक किट और दवाइयां कुछ आवश्यक चीज़ें हैं जिनका उपयोग बीरबल और अन्य सदस्य बकरी पालन की प्रक्रिया को आसान और सरल बनाने के लिए करते हैं।

बकरी फार्म से लगभग 750000 का औसतन लाभ वार्षिक कमाया जाता है जो ढाडा बकरी फार्म के सभी चार सदस्यों में विभाजित होता है। इस तरह बकरी फार्म उद्यम अच्छे से चलाने के बाद भी, ढाडा बकरी फार्म का कोई भी सदस्य अपनी सफलता के लिए शेखी नहीं मारता और जब भी कोई किसान मदद के लिए या मार्गदर्शन के लिए उनके फार्म का दौरा करता है तो वे पूरे दिल से उनकी मदद करते हैं।

पुरस्कार और उपलब्धियां:

बकरी पालन में सफलता के लिए, श्री जुगराज सिंह को ढाडा बकरी के लिए 23 मार्च 2018 को मुख्यमंत्री पुरस्कार भी मिला।

भविष्य की योजना:

भविष्य में, ढाडा बकरी फार्म के भविष्यवादी पुरूष अपनी बकरियों की गिनती को 1000 तक पहुंचाने की योजना बना रहे हैं।

संदेश

“बकरी पालन एक सहायक गतिविधि है जो कोई भी किसान फसलों की खेती के साथ अपना सकता है और इससे अच्छा लाभ कमा सकता है। किसानों को इस व्यवसाय की प्रमुख सीमाओं और इसके लाभ के बारे में पता होना चाहिए।”

 

आज के समय में कृषि समाज को यह समझना होगा कि उनका मिलकर रहने में ही फायदा है। इन चार व्यक्तियों ने इस बात को अच्छे से समझा जिसने उनकी एक सफल उद्यम चलाने में मदद की। बकरी पालन से संबंधित यदि आपका कोई सवाल है तो आप ढाडा बकरी फार्म से संपर्क कर सकते हैं और उनसे मार्गदर्शन ले सकते हैं। अन्य दिलचस्प कहानियां पढ़ने के लिए गूगल प्ले स्टोर पर जाकर अपनी खेती एप डाउनलोड करें।
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करमजीत सिंह भंगु

(जैविक खेती, बागवानी)

मिलिए आधुनिक किसान से, जो समय की नज़ाकत को समझते हुए फसलें उगा रहा है

करमजीत सिंह के लिए किसान बनना एक धुंधला सपना था, पर हालात सब कुछ बदल देते हैं। पिछले सात वर्षों में, करमजीत सिंह की सोच खेती के प्रति पूरी तरह बदल गई है और अब वे जैविक खेती की तरफ पूरी तरह मुड़ गए हैं।

अन्य नौजवानों की तरह करमजीत सिंह भी आज़ाद पक्षी की तरह सारा दिन क्रिकेट खेलना पसंद करते थे, वे स्थानीय क्रिकेट टूर्नामेंट में भी हिस्सा लेते थे। उनका जीवन स्कूल और खेल के मैदान तक ही सीमित था। उन्होंने कभी सोचा भी नहीं था कि उनकी ज़िंदगी एक नया मोड़ लेगी। 2003 में जब वे स्कूल में ही थे उस दौरान उनके पिता जी का देहांत हो गया और कुछ समय बाद ही, 2005 में उनकी माता जी का भी देहांत हो गया। उसके बाद सिर्फ उनके दादा – दादी ही उनके परिवार में रह गए थे। उस समय हालात उनके नियंत्रण में नहीं थे, इसलिए उन्होंने 12वीं के बाद अपनी पढ़ाई छोड़ने का फैसला किया और अपने परिवार की मदद करने के बारे में सोचा।

उनका विवाह बहुत छोटी उम्र में हो गया और उनके पास विदेश जाने और अपने जीवन की एक नई शुरूआत करने का अवसर भी था पर उन्होंने अपने दादा – दादी के पास रहने का फैसला किया। वर्ष 2011 में उन्होंने खेती के क्षेत्र में कदम रखने का फैसला किया। उन्होंने छोटे रकबे में घरेलु प्रयोग के लिए अनाज, दालें, दाने और अन्य जैविक फसलों की काश्त करनी शुरू की। उन्होंने अपने क्षेत्र के दूसरे किसानों से प्रेरणा ली और धीरे धीरे खेती का विस्तार किया। समय और तज़ुर्बे से उनका विश्वास और दृढ़ हुआ और फिर करमजीत सिंह ने अपनी ज़मीन ठेके पर से वापिस ले ली।
उन्होंने टिंडे, गोभी, भिंडी, मटर, मिर्च, मक्की, लौकी और बैंगन आदि जैसी अन्य सब्जियों में वृद्धि की और उन्होंने मिर्च, टमाटर, शिमला मिर्च और अन्य सब्जियों की नर्सरी भी तैयार की।

खेतीबाड़ी में दिख रहे मुनाफे ने करमजीत सिंह की हिम्मत बढ़ाई और 2016 में उन्होंने 14 एकड़ ज़मीन ठेके पर लेने का फैसला किया और इस तरह उन्होंने अपने रोज़गार में ही खुशहाल ज़िंदगी हासिल कर ली।

आज भी करमजीत सिंह खेती के क्षेत्र में एक अनजान व्यक्ति की तरह और जानने और अन्य काम करने की दिलचस्पी रखने वाला जीवन जीना पसंद करते हैं। इस भावना से ही वे वर्ष 2017 में बागबानी की तरफ बढ़े और गेंदे के फूलों से ग्लैडियोलस के फूलों की अंतर-फसली शुरू की।

करमजीत सिंह जी को ज़िंदगी में अशोक कुमार जी जैसे इंसान भी मिले। अशोक कुमार जी ने उन्हें मित्र कीटों और दुश्मन कीटों के बारे में बताया और इस तरह करमजीत सिंह जी ने अपने खेतों में कीटनाशकों के प्रयोग पर प्रतिबंध लगाया।

करमजीत सिंह जी ने खेतीबाड़ी के बारे में कुछ नया सीखने के तौर पर हर अवसर का फायदा उठाया और इस तरह ही उन्होंने अपने सफलता की तरफ कदम बढ़ाए।

इस समय करमजीत सिंह जी के फार्म पर सब्जियों के लिए तुपका सिंचाई प्रणाली और पैक हाउस उपलब्ध है। वे हर संभव और कुदरती तरीकों से सब्जियों को प्रत्येक पौष्टिकता देते हैं। मार्किटिंग के लिए, वे खेत से घर वाले सिद्धांत पर ताजा-कीटनाशक-रहित-सब्जियां घर तक पहुंचाते हैं और वे ऑन फार्म मार्किट स्थापित करके भी अच्छी आय कमा रहे हैं।

ताजा कीटनाशक रहित सब्जियों के लिए उन्हें 1 फरवरी को पी ए यू किसान क्लब के द्वारा सम्मानित किया गया और उन्हें पटियाला बागबानी विभाग की तरफ से 2014 में बेहतरीन गुणवत्ता के मटर उत्पादन के लिए दूसरे दर्जे का सम्मान मिला।

करमजीत सिंह की पत्नी- प्रेमदीप कौर उनके सबसे बड़ी सहयोगी हैं, वे लेबर और कटाई के काम में उनकी मदद करती हैं और करमजीत सिंह खुद मार्किटिंग का काम संभालते हैं। शुरू में, मार्किटिंग में कुछ समस्याएं भी आई थी, पर धीरे धीरे उन्होने अपनी मेहनत और उत्साह से सभी रूकावटें पार कर ली। वे रसायनों और खादों के स्थान पर घर में ही जैविक खाद और स्प्रे तैयार करते हैं। हाल ही में करमजीत सिंह जी ने अपने फार्म पर किन्नू, अनार, अमरूद, सेब, लोकाठ, निंबू, जामुन, नाशपाति और आम के 200 पौधे लगाए हैं और भविष्य में वे अमरूद के बाग लगाना चाहते हैं।

संदेश

“आत्म हत्या करना कोई हल नहीं है। किसानों को खेतीबाड़ी के पारंपरिक चक्र में से बाहर आना पड़ेगा, केवल तभी वे लंबे समय तक सफलता प्राप्त कर सकते हैं। इसके अलावा किसानों को कुदरत के महत्तव को समझकर पानी और मिट्टी को बचाने के लिए काम करना चाहिए।”

 

इस समय 28 वर्ष की उम्र में, करमजीत सिंह ने जिला पटियाला की तहसील नाभा में अपने गांव कांसूहा कला में जैविक कारोबार की स्थापना की है और जिस भावना से वे जैविक खेती में सफलता प्राप्त कर रहे हैं, उससे पता लगता है कि भविष्य में उनके परिवार और आस पास का माहौल और भी बेहतर होगा। करमजीत सिंह एक प्रगतिशील किसान और उन नौजवानों के लिए एक मिसाल हैं, जो अपने रोज़गार के विकल्पों की उलझन में फंसे हुए हैं हमें करमजीत सिंह जैसे और किसानों की जरूरत है।
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बलविंदर सिंह संधु

(जैविक खेती)

एक किसान की कहानी जिसने खेतीबाड़ी के पुरानी ढंगों को छोड़कर कुदरती तरीकों को अपनाया

आज, किसान ही सिर्फ वे व्यक्ति हैं जो अन्य किसानों को खेतीबाड़ी के जैविक ढंगों की तरफ प्रेरित कर सकते हैं और बलविंदर सिंह उन किसानों में से एक हैं जिन्होंने प्रगतिशील किसान से प्रेरित होकर पर्यावरण में सकारात्मक बदलाव लाने के लिए हाल ही के वर्षों में जैविक खेती को अपनाया।

खैर, जैविक की तरफ मुड़ना उन किसानों के लिए आसान नहीं होता जो रवायती ढंग से खेती करते हैं और अच्छी उपज प्राप्त करते हैं। लेकिन बलविंदर सिंह संधु ने अपनी दृढ़ संकल्प और कड़ी मेहनत से इस बाधा को पार किया।

इससे पहले, 1982 से 1983 में, वे कपास, सरसों और ग्वार फसलों की खेती करते थे लेकिन 1997 से उन्होंने कपास की फसल पर बॉलवार्म कीट के हमले का सामना किया जिस कारण उन्हें आगे चल कर बार बार बड़ी हानि का सामना करना पड़ा। इसलिए उसके बाद उन्होंने धान की खेती शुरू करने का फैसला किया लेकिन फिर भी वे पहले जितना मुनाफा नहीं कमा पाये। जैविक खेती की तरफ उन्होंने अपना पहला कदम 2011 में उठाया। जब उन्होंने मनमोहन सिंह के जैविक सब्जी फार्म का दौरा किया।

इस दौरे के बाद, बलविंदर सिंह का नज़रिया काफी विस्तृत हुआ और उन्होंने सब्जियों की खेती शुरू करने का फैसला किया। उन्होंने मिर्च से शुरूआत की। पहली गल्तियों को सुधारने के लिए वे कपास के अच्छी किस्म के बीजों को खरीदने के लिए गुजरात तक गए और वहां उन्होंने बीजरहित खीरे, स्ट्रॉबेरी और तरबूज की खेती के बारे में जानकारी प्राप्त हुई। लगातार 3 वर्षों से वे अपनी भूमि पर कीटनाशकों के प्रयोग को कम कर रहे हैं।

उस वर्ष, मिर्च की फसल की उपज बहुत अच्छी हुई अैर उन्होंने 2 एकड़ से 500000 रूपये का लाभ कमाया। बलविंदर सिंह ने अपने फार्म की जगह का भी लाभ उठाया। उनका फार्म रोड पर था इसलिए उन्होंने सड़क के किनारे एक छोटी सी दुकान खोल ली जहां पर उन्होंने सब्जियां बेचना शुरू कर दिया। उन्होंने मिर्च की प्रोसेसिंग करके मिर्च पाउडर बनाना भी शुरू कर दिया।

“जब मैंने मिर्च पाउडर की प्रोसेसिंग शुरू की तो बहुत से लोग शिकायत करते थे कि आपका मिर्च पाउडर का रंग लाल नहीं है। तब मैंने उन्हें समझाया कि मिर्च पाउडर कभी भी लाल रंग का नहीं होता। आमतौर पर बाजार से खरीदे जाने वाले पाउडर में अशुद्धता और रंग की मिलावट होती है।”

2013 में, बलविंदर सिंह ने खीरे, टमाटर, कद्दू और शिमला मिर्च जैसी सब्जियों की खेती शुरू कर दी।

“ज्यादा फसलों को ज्यादा क्षेत्र की आवश्यकता होती है इसलिए खेती के क्षेत्र को बढ़ाने के लिए मैंने अपने चचेरे और सगे भाइयों से ठेके पर 40 एकड़ ज़मीन ली। शुरूआत में सब्जियों का मंडीकरण करना एक बड़ी समस्या थी लेकिन समय के साथ इस समस्या का भी हल हो गया।”

वर्तमान में, बलविंदर सिंह 8-9 एकड़ में सब्जियों की और एक एकड़ में स्ट्रॉबेरी की और बाकी की ज़मीन पर धान और गेहूं की खेती कर रहे हैं। इसके अलावा उत्पादकता बढ़ाने के लिए उन्होंने सभी आधुनिक कृषि उपकरणों और पर्यावरणीय अनुकूल तकनीकों जैसे ट्रैक्टर, बैड प्लांटर, रोटावेटर, कल्टीवेटर, लेवलर, सीडर, तुपका सिंचाई, मलचिंग, कीटनाशकों के स्थान पर घर पर तैयार जैविक खाद और खट्टी लस्सी  स्प्रे को अपनाया है।

पिछले चार वर्षों से वे 2 एकड़ भूमि पर पूरी तरह से जैविक खेती कर रहे हैं और शेष भूमि पर कीटनाशक और फंगसनाशी का प्रयोग कम कर रहे हैं। बलविंदर सिंह की कड़ी मेहनत ने कई लोगों को प्रभावित किया, यहां तक कि उनके क्षेत्र के डी. सी. (DC) ने भी उनके फार्म का दौरा किया। विभिन्न प्रिंट मीडिया में उनके काम के बारे में कई लेख प्रकाशित किए गए हैं और जिस गति से वे प्रगति कर रहे ऐसा प्रतीत होता है कि भविष्य में भी उनकी अलग ही पहचान साबित होगी ।

संदेश
“अब किसानों को लाभ कमाने के लिए अपने उत्पादन बेचने के लिए तराजू को अपने हाथों में लेना होगा, क्योंकि यदि वे अपनी फसल बेचने के लिए बिचौलियों या डीलरों पर निर्भर रहेंगे तो वे प्रगति नहीं कर पायेंगे और बार बार ठगों से धोखा खाएंगे। बिचौलिये उन सभी लाभों को दूर कर देते हैं जिन पर किसान का अधिकार होता है।”
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भूपिंदर सिंह संधा

(मक्खीपालन)

प्रगतिशील किसान भूपिंदर सिंह संधा से मिलें जो मधुमक्खीपालन के प्रचार में मधुमक्खियों के जितना ही व्यस्त और कुशल हैं।

मधुमक्खी के डंक को याद करके, आमतौर पर ज्यादातर लोग आस-पास की मधुमक्खियों से नफरत करते हैं। इस तथ्य से अनजान होते हुए कि ये मशगूल छोटी मधुमक्खियां ना केवल शहद से बल्कि कई अन्य मधुमक्खी उत्पादों के द्वारा आपको एक अविश्वसनीय लाभ कमाने में मदद कर सकती हैं।

लेकिन यह कभी धन नहीं था जिसके लिए भूपिंदर सिंह संधा ने मधु मक्खी पालन शुरू किया, भूपिंदर सिंह को मधु मक्खियों की भनभनाहट, उनकी शहद बनाने की कला और मक्खीपालन के लाभों ने इस उद्यम की तरफ उन्हें आकर्षित किया।

1993 का समय था जब भूपिंदर सिंह संधा को कृषि विभाग द्वारा आयोजित राजपुरा में मधुमक्खी फार्म की दौरे के समय मक्खीपालन की प्रक्रिया के बारे में पता चला। मधुमक्खियों के काम को देखकर भूपिंदर सिंह इतना प्रेरित हुए कि उन्होंने केवल 5 अनुदानित मधुमक्खी बक्सों के साथ मक्खी पालन शुरू करने का फैसला किया।

कहने के लिए, भूपिंदर सिंह संधा फार्मासिस्ट थे और उनके पास फार्मेसी की डिग्री थी लेकिन उनका जीवन आस-पास भिनकती मक्खियां और शहद की मिठास से घिरा हुआ था।

1994 में भूपिंदर सिंह संधा ने एक फार्मा स्टोर भी खोला और उसे तैयार शहद बेचने के लिए प्रयोग किया और इससे उनका मक्खीपालन का व्यवसाय भी लगातार बढ़ रहा था। उनका फार्मेसी में आने का उद्देश्य लोगों की मदद करना था, पर बाद में उन्हें एहसास हुआ कि वे सिर्फ निर्धारित की गई दवाइयां बेच रहे हैं, जो वास्तव में वे नहीं हैं जो उन्होंने सोचा था। उन्होंने 1997 में, बाजार अनुसंधान की और विश्लेषण किया कि मक्खीपालन वह क्षेत्र है जिस पर उन्हें ध्यान केंद्रित करना चाहिए। इसलिए 5 साल फार्मा स्टोर चलाने के बाद उन्होंने चिकित्सक लाइन को छोड़ दिया और मधुमक्खियों पर पूरी तरह ध्यान देने का फैसला किया।

और यह कहा जाता है- जब आप अपनी पसंद का कोई काम चुनते हैं तो आप ज़िंदगी में वास्तविक खुशी महसूस करते हैं।

भूपिंदर सिंह संधा के साथ भी यही था उन्होंने मक्खीपालन में अपनी वास्तविक खुशी को ढूंढा। 1999 में उन्होंने 500 बक्सों से मक्खीपालन का विस्तार किया और 6 तरह की शहद की किस्मों के साथ आए जैसे हिमालयन, अजवायन, तुलसी, कश्मीरी, सफेदा, लीची आदि। शहद के अलावा वे बी पोलन, बी वैक्स और भुने हुए फ्लैक्स सीड पाउडर भी बेचते हैं। अपने मधुमक्खी उत्पादों के प्रतिनिधित्व के लिए उन्होंने जो ब्रांड नाम चुना वह है अमोलक और वर्तमान में, पंजाब में इसकी अच्छी मार्किट है। 10 श्रमिकों के समूह के साथ वे पूरे बी फार्म का काम संभालते हैं और उनकी पत्नी भी उनके उद्यम में उनका समर्थन करती है।

भूपिंदर सिंह संधा के लिए मधुमक्खीपालन उनके जीवन का एक प्रमुख हिस्सा है ना केवल इसलिए कि यह आय का स्त्रोत है बल्यि इसलिए भी कि वे मधुमक्खियों को काम करते देखना पसंद करते हैं और यह कुदरत के अनोखे अजूबे का अनुभव करने के लिए एक बेहतरीन तरीका है। मधुमक्खी पालन के माध्यम से, वे विभिन्न क्षेत्रों में अन्य किसानों के साथ आगे बढ़ना चाहते हैं। वे उन किसानों को भी गाइड करते हैं जो उनके फार्म पर शहद इक्ट्ठा करना, रानी मक्खी तैयार करना और उत्पादों की पैकेजिंग की प्रैक्टीकल ट्रेनिंग के लिए आते हैं। रेडियो प्रोग्राम और प्रिंट मीडिया के माध्यम से वे समाज और मक्खीपालन के विस्तार और इसकी विभिन्नता में अपना सर्वोत्तम सहयोग देने की कोशिश करते हैं।

भूपिंदर सिंह संधा का फार्म उनके गांव टिवाणा, पटियाला में स्थित है जहां पर उन्होंने 10 एकड़ ज़मीन किराये पर ली है। वे आमतौर पर 900-1000 मधुमक्खी बक्से रखते हैं और बाकी को बेच देते हैं। उनकी पत्नी उनकी दूसरी व्यापारिक भागीदार है और हर कदम पर उनका समर्थन करती है। अपने काम को और सफल बनाने के लिए और अपने कौशल को बेहतर बनाने के लिए उन्होंने कई ट्रेनिंग में हिस्सा लिया है और पूरे विश्व में कई राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय प्लेटफार्म पर अपने काम को प्रदर्शित किया है। उन्होंने मधुमक्खी पालन के क्षेत्र में पंजाब कृषि विश्वविद्यालय के विभिन्न विभागों द्वारा कई प्रशंसा पत्र प्राप्त किए है। ATMA स्कीम के तहत अमोलक नाम के द्वारा उनके पास अपनी ATMA किसान हट है जहां पर वे अपने तैयार उत्पादों को बेचते हैं।

भविष्य की योजना:

भविष्य में वे मधुमक्खियों के एक और उत्पाद के साथ आने की योजना बना रहे हैं और वह है प्रोपोलिस। मक्खीपालन के अलावा वे अमोलक ब्रांड के तहत रसायन मुक्त जैविक शक्कर से पहचान करवाना चाहते हैं। उनके पास कई अन्य महान योजनाएं हैं जिनपर वे अभी काम कर रहे हैं और बाद में समय आने पर सबके साथ सांझा करेंगे।

संदेश

“मक्खीपालकों के लिए शहद का स्वंय मंडीकरण करना सबसे अच्छी बात है क्योंकि इस तरह से वे मिलावटी और मध्यस्थों की भूमिका को कम कर सकते हैं जो कि अधिकतर मुनाफे को जब्त कर लेते हैं।”

भूपिंदर सिंह संधा ने मक्खीपालन में अपने जुनून के साथ उद्यम शुरू किया और भविष्य में वे समाज के कल्याण के लिए मक्खीपालन क्षेत्र में छिपी संभावनाओं को पता लगाने की कोशिश करेंगे। यदि भूपिंदर सिंह संधा की कहानी ने आपको मधुमक्खी पालन के बारे में अधिक जानने के लिए उत्साहित किया है तो अधिक जानने के लिए आप उनसे संपर्क कर सकते हैं।
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उमा सैनी

(जैविक खेती, वर्मीकंपोस्टिंग)

उमा सैनी – एक ऐसी महिला जो धरती को एक बेहतर जगह बनाने के लिए अपशिष्ट पदार्थ को सॉयल फूड में बदलने की क्रांति ला रही हैं

कई वर्षों से रसायनों, खादों और ज़हरीले अवशेष पदार्थों से हमारी धरती का उपजाऊपन खराब किया जा रहा है और उसे दूषित भी किया जा रहा है। इस स्थिति को समझते हुए लुधियाना की महिला उद्यमी और एग्रीकेयर ऑरगैनिक फार्मस की मेनेजिंग डायरेक्टर उमा सैनी ने सॉयल फूड तैयार करने की पहल करने का निर्णय लिया जो कि पिछले दशकों में खोए मिट्टी के सभी पोषक तत्वों को फिर से हासिल करने में मदद कर सकते हैं। प्रकृति में योगदान करने के अलावा, ये महिला सशिक्तकरण के क्षेत्र में भी एक सशक्त नायिका की भूमिका निभा रही हैं। अपनी गतिशीलता के साथ वे पृथ्वी को बेहतर स्थान बना रही हैं और इसे भविष्य में भी जारी रखेंगी…

क्या आपने कभी कल्पना की है कि धरती पर जीवन क्या होगा जब कोई भी व्यर्थ पदार्थ विघटित नहीं होगा और वह वहीं ज़मीन पर पड़ा रहेगा!

इसके बारे में सोचकर रूह ही कांप उठती है और इस स्थिति के बारे में सोचकर आपका ध्यान मिट्टी के स्वास्थ्य पर जायेगा। मिट्टी को एक महत्तवपूर्ण तत्व माना जाता है क्योंकि प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष रूप से लोग इस पर निर्भर रहते हैं। हरित क्रांति और शहरीकरण मिट्टी की गिरावट के दो प्रमुख कारक है और फिर भी किसान, बड़ी कीटनाशक कंपनियां और अन्य बहुराष्ट्रीय कंपनियां इसे समझने में असमर्थ हैं।

रसायनों के अंतहीन उपयोग ने उमा सैनी को जैविक पद्धतियों की तरफ खींचा। यह सब शुरू हुआ 2005 में जब उमा सैनी ने जैविक खेती शुरू करने का फैसला किया। खैर, जैविक खेती बहुत आसान लगती है लेकिन जब इसे करने की बात आती है तो कई विशेषज्ञों को यह भी नहीं पता होता कि कहां से शुरू करना है और इसे कैसे उपयोगी बनाना है।

“हालांकि, मैंने बड़े स्तर पर जैविक खेती शुरू करने का फैसला किया लेकिन अच्छी खाद अच्छी मात्रा में कहां से प्राप्त की जाये यह सबसे बड़ी बाधा थी। इसलिए मैंने अपना वर्मीकंपोस्ट प्लांट स्थापित करने का निर्णय लिया।”

शहर के मध्य में जैविक फार्म और वर्मीकंपोस्ट की स्थापना लगभग असंभव थी, इसलिए उमा सैनी ने गांवों में छोटी ज़मीनों में निवेश करना शुरू कर दिया और धीरे-धीरे एग्रीकेयर ब्रांड वास्तविकता में आया। आज, उत्तरी भारत के विभिन्न हिस्सों में एग्रीकेयर के वर्मीकंपोस्टिंग प्लांट और ऑरगैनिक फार्म की कई युनिट्स हैं।

“गांव के इलाके में ज़मीन खरीदना भी बहुत मुश्किल था लेकिन समय के साथ वे सारी मुश्किलें खत्म हो गई हैं। ग्रामीण लोग हमसे कई सवाल पूछते थे जैसे यहां ज़मीन खरीदने का आपका क्या मकसद है, क्या आप हमारे क्षेत्र को प्रदूषित कर देंगे आदि…”

एग्रीकेयर की उत्पादन युनिट्स में से एक , लुधियाना के छोटे से गांव सिधवां कलां में स्थापित है जहां उमा सैनी ने महिलाओं को कार्यकर्त्ता के रूप में रखा हुआ है।

“मेरा मानना है कि, एक महिला हमारे समाज में महत्तवपूर्ण भूमिका निभाती है, इसलिए महिला सशिक्तकरण के उद्देश्य से, मैंने सिधवां कलां गांव और अन्य फार्म में गांव की काफी महिलाओं को नियुक्त किया है।”

महिला सशिक्तकरण की हिमायती के अलावा, उमा सैनी एक महान सलाहकार भी हैं। वे कॉलेज के छात्रों, विशेष रूप से छात्राओं को जैविक खेती, वर्मीकंपोस्टिंग और कृषि व्यवसाय के इस विकसित क्षेत्र के बारे में जागरूक करने के लिए आमंत्रित करती हैं। युवा इच्छुक महिलाओं के लिए भी उमा सैनी फ्री ट्रेनिंग सैशन आयोजित करती हैं।

“छात्र जो एग्रीकल्चर में बी.एस सी. कर रहे हैं उनके लिए कृषि के क्षेत्र में बड़ा अवसर है और विशेष रूप से उन्हें जागरूक करने के लिए मैं और मेरे पति फ्री ट्रेनिंग प्रदान करते हैं। विभिन्न कॉलेजों में अतिथि के तौर पर लैक्चर देते हैं।”

उमा सैनी ने लुधियाना के वर्मीकंपोस्टिंग प्लांट में एक वर्मी हैचरी भी तैयार की है जहां वे केंचुएं के बीज तैयार करती हैं। वर्मी हैचरी एक ऐसा शब्द है जिसके बारे में बहुत कम लोग जानते हैं। हम सभी जानते हैं कि केंचुएं मिट्टी को खनिज और पोषक तत्वों से समृद्ध बनाने में असली कार्यकर्त्ता हैं। इसलिए इस युनिट में जिसे Eisenia fetida या लाल कृमि (धरती कृमि की प्रजाति) के रूप में जाना जाता है को जैविक पदार्थों को गलाने के लिए रखा जाता है और इसे आगे की बिक्री के लिए तैयार किया जाता है।

एग्रीकेयर की अधिकांश वर्मीकंपोस्टिंग युनिट्स पूरी तरह से स्वचालित है, जिससे उत्पादन में अच्छी बढ़ोतरी हो रही है और इससे अच्छी बिक्री हो सकती है। इसके अलावा, उमा सैनी ने भारत के विभिन्न हिस्सों में 700 से अधिक किसानों को जैविक खेती में बदलने के लिए कॉन्ट्रेक्टिंग खेती के अंदर अपने साथ जोड़ा है।

“जैविक खेती और वर्मीकंपोस्टिंग के कॉन्ट्रैक्ट से हमारा काम हो रहा है, लेकिन इसके साथ ही समाज के रोजगार और स्वस्थ स्वभाव के लाभ भी मिल रहे हैं।”

आज जैविक खाद के ब्रांड TATA जैसे प्रमुख ब्रांडों को पछाड़ कर, उत्तर भारत में एग्रीकेयर – सॉयल फूड वर्मीकंपोस्ट का सबसे बड़ा विक्रेता बन गया है। वर्तमान में हिमाचल और कश्मीर सॉयल फूड की प्रमुख मार्किट हैं। एग्रीकेयर वर्मीकंपोस्ट-सॉयल फूड के उत्पादन में नेस्ले, हिंदुस्तान लीवर, कैडबरी आदि जैसी बड़ी कंपनियों के खाद्यान अपशिष्ट प्रयोग किए जाते हैं। बड़ी-बड़ी मल्टी नेशनल कंपनियों के खाद्यान अपशिष्ट का इस्तेमाल करके एग्रीकेयर पर्यावरण को स्वस्थ बनाने में महत्तवपूर्ण भूमिका निभा रहा है।

जल्दी ही उमा सैनी और उनके पति श्री वी.के. सैनी लुधियाना में ताजी जैविक सब्जियों और फलों के लिए एक नया जैविक ब्रांड लॉन्च करने की योजना बना रहे हैं जहां वे अपने उत्पादों को सीधे ही घर घर जाकर ग्राहकों तक पहुंचाएगे।

“जैविक की तरफ जाना समय की आवश्यकता है, लोगों को अपने ज़मीनी स्तर से सीखना होगा सिर्फ तभी वे प्रकृति के साथ एकता बनाए रखते हुए कृषि के क्षेत्र में अच्छा कर सकते हैं।”

प्रकृति के लिए काम करने की उमा सैनी की अनन्त भावना यह दर्शाती है कि प्रकृति अनुरूप काम करने की कोई सीमा नहीं है। इसके अलावा, उमा सैनी के बच्चे – बेटी और बेटा दोनों ही अपने माता – पिता के नक्शेकदम पर चलने में रूचि रखते हैं और इस क्षेत्र में काम करने के लिए वे उत्सुकता से कृषि क्षेत्र की पढ़ाई कर रहे हैं।

संदेश
“आजकल, कई बच्चे कृषि क्षेत्र में बी.एस सी. का चयन कर रहे हैं लेकिन जब वे अपनी डिग्री पूरी कर लेते हैं, उस समय उन्हें केवल किताबी ज्ञान होता है और वे उससे संतुष्ट होते हैं। लेकिन कृषि क्षेत्र में सफल होने के लिए यह काफी नहीं है जब तक कि वे मिट्टी में अपने हाथ नहीं डालते। प्रायोगिक ज्ञान बहुत आवश्यक है और युवाओं को यह समझना होगा और उसके अनुसार ही प्रगति होगी।”
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मोहन सिंह

(नर्सरी की तैयारी)

एक व्यक्ति की कहानी जिसने अपने बचपन के जुनून खेतीबाड़ी को अपनी रिटायरमेंट के बाद पूरा किया

जुनून एक अद्भुत भावना है या फिर ये कह सकते हैं कि ऐसा जज्बा है जो कि इंसान को कुछ भी करने के लिए प्रेरित कर सकता है और मोहन सिंह जी के बारे में पता चलने पर जुनून से जुड़ी हर सकारात्मक सोच सच्ची प्रतीत होती है। पिछले दो वर्षों से ये रिटायर्ड व्यक्ति – मोहन सिंह, अपना हर एक पल बचपन के जुनून या फिर कह सकते हैं कि शौंक को पूरा करने में जुटे हुए हैं आगे कहानी पढ़िए और जानिये कैसे..

तीन दशकों से भी अधिक समय से BCAM की सेवा करने के बाद मोहन सिंह आखिर में 2015 में संस्था से जनरल मेनेजर के तौर से रिटायर हुए और फिर उन सपनों को पूरा करने के लिए खेती के क्षेत्र में कदम रखने का फैसला किया जिसे करने की इच्छा बरसों पहले उनके दिल में रह गई थी ।

एक शिक्षित पृष्ठभूमि से आने पर, जहां उनके पिता मिलिटरी में थे मोहन सिंह कभी व्यवसाय विकल्पों के लिए सीमित नहीं थे उनके पास उनके सपनों को पूरा करने की पूरी स्वतंत्रता थी। अपने बचपन के वर्षों में मोहन सिंह को खेती ने इतना ज्यादा प्रभावित किया कि इसके बारे में वे खुद ही नहीं जानते थे।

बड़े होने पर मोहन सिंह अक्सर अपने परिवार के छोटे से 5 एकड़ के फार्म में जाते थे जिसे उनका परिवार घरेलू उद्देश्य के लिए गेहूं, धान और कुछ मौसमी सब्जियां उगाने के लिए प्रयोग करता था। लेकिन जैसे ही वे बड़े हुए उनकी ज़िंदगी अधिक जटिल हो गई पहले शिक्षा प्रणाली, नौकरी की जिम्मेदारी और बाद में परिवार की ज़िम्मेदारी।

2015 में रिटायर होने के बाद मोहन सिंह ने प्रकाश आयरन फाउंडरी, आगरा में एक सलाहकार के तौर पर पार्ट टाइम जॉब की। वे एक महीने में एक या दो बार यहां आते हैं 2015 में ही उन्होंने अपने बचपन की इच्छा की तरफ अपना पहला कदम रखा और उन्होंने काले प्याज और मिर्च की नर्सरी तैयार करनी शुरू कर दी।

उन्होंने 100 मिट्टी के क्यारियों से शुरूआत की और धीरे धीरे इस क्षेत्र को 200 मिट्टी के क्यारियों तक बढ़ा दिया और फिर उन्होंने इसे 1 एकड़ में 1000 मिट्टी के क्यारियों में विस्तारित किया। उन्होंने ऑन रॉड स्टॉल लगाकर अपने उत्पादों की मार्किटिंग शुरू की। उन्हें इससे अच्छा रिटर्न मिला जिससे प्रेरित होकर उन्होंने सब्जियों की नर्सरी भी तैयार करनी शुरू कर दी। अपने उद्यम को अगले स्तर तक ले जाने के लिए एक व्यक्ति के साथ कॉन्ट्रेक्ट फार्मिंग शुरू की जिसमें उन्होंने मिर्च की पिछेती किस्म उगानी शुरू की जिससे उन्हें अधिक लाभ हुआ।

काले प्याज की फसल मुख्य फसल है जो प्याज की पुरानी किस्मों की तुलना में उन्हें अधिक मुनाफा दे रही है। क्योंकि इसके गलने की अवधि कम है और इसकी भंडारण क्षमता काफी अधिक है। कुछ मज़दूरों की सहायता से वे अपने पूरे फार्म को संभालते हैं और इसके साथ ही प्रकाश आयरन फाउंडरी में सलाहकार के तौर पर काम भी करते हैं। उनके पास सभी आधुनिक तकनीकें हैं जो उन्होने अपने फार्म पर लागू की हुई हैं जैसे ट्रैक्टर, हैरो, टिल्लर और लेवलर।

वैसे तो मोहन सिंह का सफर खेती के क्षेत्र में कुछ समय पहले ही शुरू हुआ है पर अच्छी गुणवत्ता वाले बीज और जैविक खाद का सही ढंग से इस्तेमाल करके उन्होंने सफलता और संतुष्टि दोनों ही प्राप्त की है।

वर्तमान में, मोहन सिंह, मोहाली के अपने गांव देवीनगर अबरावन में एक सुखी किसानी जीवन जी रहे हैं और भविष्य में स्थाई खेतीबाड़ी करने के लिए खेतीबाड़ी क्षेत्र में अपनी पहुंच को बढ़ा रहे हैं।

मोहन सिंह के लिए, अपनी पत्नी, अच्छे से व्यवस्थित दो पुत्र (एक वैटनरी डॉक्टर है और दूसरा इलैक्ट्रोनिक्स के क्षेत्र में सफलतापूर्वक काम कर रहा है), उनकी पत्नियां और बच्चों के साथ रहते हुए खेती कभी बोझ नहीं बनीं, वे खेतीबाड़ी को खुशी से करना पसंद करते हैं।उनके पास 3 मुर्रा भैंसे है जो उन्होंने घर के उद्देश्य के लिए रखी हुई है और उनका पुत्र जो कि वैटनरी डॉक्टर है उनकी देखभाल करने में उनकी मदद करता है।

संदेश

“किसानों को नई पर्यावरण अनुकूलित तकनीकें अपनानी चाहिए और सब्सिडी पर निर्भर होने की बजाये उन ग्रुपों में शामिल होना चाहिए जो उनकी एग्रीकल्चर क्षेत्र में मदद कर सकें। यदि किसान दोहरा लाभ कमाना चाहते हैं और फसल हानि के समय अपने वित्त का प्रबंधन करना चाहते हैं तो उन्हें फसलों की खेती के साथ साथ आधुनिक खेती गतीविधियों को भी अपनाना चाहिए।”

 

यह बुज़ुर्ग रिटायर्ड व्यक्ति लाखों नौजवानों के लिए एक मिसाल है, जो शहर की चकाचौंध को देखकर उलझे हुए हैं।
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रवि शर्मा

(मधुमक्खी पालन)

कैसे एक दर्जी बना मधुमक्खी पालक और शहद का व्यापारी

मक्खी पालन एक उभरता हुआ व्यवसाय है जो सिर्फ कृषि समाज के लोगों को ही आकर्षित नहीं करता बल्कि भविष्य के लाभ के कारण अलग अलग क्षेत्र के लोगों को भी आकर्षित करता है। एक ऐसे ही व्यक्ति हैं- रवि शर्मा, जो कि मक्खीपालन का विस्तार करके अपने गांव को एक औषधीय पॉवरहाउस स्त्रोत बना रहे हैं।

1978 से 1992 तक रवि शर्मा, जिला मोहाली के एक छोटे से गांव गुडाना में दर्जी का काम करते थे और अपने अधीन काम कर रहे 10 लोगों को भी गाइड करते थे। गांव की एक छोटी सी दुकान में उनका दर्जी का काम तब तक अच्छा चल रहा था जब तक वे राजपुरा, पटियाला नहीं गए और डॉ. वालिया (एग्री इंस्पैक्टर) से नहीं मिले।

डॉ. वालिया ने रवि शर्मा के लिए मक्खी पालन की तरफ एक मार्गदर्शक के तौर पर काम किया। ये वही व्यक्ति थे जिन्होंने रवि शर्मा को मक्खीपालन की तरफ प्रेरित किया और उन्हें यह व्यवसाय आसानी से अपनाने में मदद की।

शुरूआत में श्री शर्मा ने 5 मधुमक्खी बॉक्स पर 50 प्रतिशत सब्सिडी प्राप्त की और स्वंय 5700 रूपये निवेश किए। जिनसे वे 1 ½ क्विंटल शहद प्राप्त करते हैं और अच्छा मुनाफा कमाते हैं। पहली कमाई ने रवि शर्मा को अपना काम 100 मधुमक्खी बक्सों के साथ विस्तारित करने के लिए प्रेरित किया और इस तरह उनका काम मक्खीपालन में परिवर्तित हुआ और उन्होंने 1994 में दर्जी का काम पूरी तरह छोड़ दिया।

1997 में रेवाड़ी, हरियाणा में एक खेतीबाड़ी प्रोग्राम के दौरे ने मधुमक्खी पालन की तरफ श्री शर्मा के मोह को और बढ़ाया और फिर उन्होंने मधुमक्खियों के बक्सों की संख्या बढ़ाने का फैसला लिया। अब उनके फार्म पर मधुमक्खियों के विभिन्न 350-400 बक्से हैं।

2000 में, श्री रवि ने 15 गायों के साथ डेयरी फार्मिंग करने की कोशिश भी की, लेकिन यह मक्खीपालन से अधिक सफल नहीं था। मज़दूरों की समस्या होने के कारण उन्होंने इसे बंद कर दिया। अब उनके पास घरेलु उद्देश्य के लिए केवल 4 एच. एफ. नसल की गाय हैं और एक मुर्रा नसल की भैंस हैं और कई बार वे उनका दूध मार्किट में भी बेच देते हैं। इसी बीच मक्खी पालन का काम बहुत अच्छे से चल रहा था।

लेकिन मक्खीपालन की सफलता की यात्रा इतनी आसान नहीं थी। 2007-08 में उनकी मौन कॉलोनी में एक कीट के हमले के कारण सारे बक्से नष्ट हो गए और सिर्फ 35 बक्से ही रह गए। इस घटना से रवि शर्मा का मक्खी पालन का व्यवसाय पूरी तरह से नष्ट हो गया।

लेकिन इस समय ने उन्हें और ज्यादा मजबूत और अधिक शक्तिशाली बना दिया और थोड़े समय में ही उन्होंने मधुमक्खी फार्म को सफलतापूर्वक स्थापित कर लिया। उनकी सफलता देखकर कई अन्य लोग उनसे मक्खीपालन व्यवसाय के लिए सलाह लेने आये। उन्होंने अपने रिश्तेदारों और दोस्तों को 20-30 मधुमक्खी के बक्से बांटे और इस तरह से उन्होंने एक औषधीय स्त्रोत बनाया।

“एक समय ऐसा भी आया जब मधुमक्खी के बक्सों की गिणती 4000 तक पहुंच गई और वे लोग जिनके पास इनकी मलकीयत थी उन्होंने भी मक्खी पालन के उद्यम में मेरी सफलता को देखते हुए मक्खीपालन शुरू कर दिया।”

आज रवि मधुमक्खी फार्म में, फार्म के काम के लिए दो श्रमिक हैं। मार्किटिंग भी ठीक है क्योंकि रवि शर्मा ने एक व्यक्ति के साथ समझौता किया हुआ है जो उनसे सारा शहद खरीदता है और कई बार रवि शर्मा आनंदपुर साहिब के नज़दीक एक सड़क के किनारे दुकान पर 4-5 क्विंटल शहद बेचते हैं जहां से वे अच्छी आमदन कमा लेते हैं।

मक्खीपालन रवि शर्मा के लिए आय का एकमात्र स्त्रोत है जिसके माध्यम से वे अपने परिवार के 6 सदस्यों जिनमें पत्नी, माता, दो बेटियां और एक बेटा है, का खर्चा पानी उठा रहे हैं।

“मक्खी पालन व्यवसाय के शुरूआत से ही मेरी पत्नी श्रीमती ज्ञान देवी, मक्खीपालन उद्यम की शुरूआत से ही मेरा आधार स्तम्भ रही। उनके बिना मैं अपनी ज़िंदगी के इस स्तर तक नहीं पहुंच पाता।”

वर्तमान में, रवि मधुमक्खी फार्म में शहद और बी वैक्स दो मुख्य उत्पाद है।

भविष्य की योजनाएं:
अभी तक मैंने अपने गांव और कुछ रिश्तेदारों में मक्खीपालन के काम का विस्तार किया है लेकिन भविष्य में, मैं इससे बड़े क्षेत्र में मक्खीपालन का विस्तार करना चाहता हूं।

संदेश
“एक व्यक्ति अगर अपने काम को दृड़ इरादे से करे और इन तीन शब्दों “ईमानदारी, ज्ञान, ध्यान” को अपने प्रयासों में शामिल करे तो जो वह चाहता है उसे प्राप्त कर सकता है।”

श्री रवि शर्मा के प्रयासों के कारण आज गुडाना गांव शहद उत्पादन का एक स्त्रोत बन चुका है और मक्खीपालन को और अधिक प्रभावकारी व्यवसाय बनाने के लिए वे अपने काम का विस्तार करते रहेंगे।

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विपिन यादव

(हाइड्रोपोनिक्स)

एक किसान और एक कंप्यूटर इंजीनियर विपिन यादव की कहानी, जिसने क्रांति लाने के लिए पारंपरिक खेती के तरीके को छोड़कर हाइड्रोपोनिक खेती को चुना

आज का युग ऐसा युग है जहां किसानों के पास उपजाऊ भूमि या ज़मीन ही नहीं है, फिर भी वे खेती कर सकते हैं और इसलिए भारतीय किसानों को अपनी पहल को वापिस लागू करना पड़ेगा और पारंपरिक खेती को छोड़ना पड़ेगा।

टैक्नोलोजी खेतीबाड़ी को आधुनिक स्तर पर ले आई है। ताकि कीट या बीमारी जैसी रूकावटें फसलों की पैदावार पर असर ना कर सके और यह खेतीबाड़ी क्षेत्र में सकारात्मक विकास है। किसान को तरक्की से दूर रखने वाली एक ही चीज़ है और वह है उनका डर – टैक्नोलोजी में निवेश डूब जाने का डर और यदि इस काम में कामयाबी ना मिले और बड़े नुकसान का डर।

पर इस 20 वर्ष के किसान ने खेतीबाड़ी के क्षेत्र में तरक्की की, समय की मांग को समझा और अब पारंपरिक खेती से अलग कुछ और कर रहे हैं।

“हाइड्रोपोनिक्स विधि खेतीबाड़ी की अच्छी विधि है क्योंकि इसमें कोई भी बीमारी पौधों को प्रभावित नहीं कर सकती, क्योंकि इस विधि में मिट्टी का प्रयोग नहीं किया जाता। इसके अलावा, हम पॉलीहाउस में पौधे तैयार करते हैं, इसलिए कोई वातावरण की बीमारी भी पौधों को किसी भी तरह प्रभावित नहीं कर सकती। मैं खेती की इस विधि से खुश हूं और मैं चाहता हूं कि दूसरे किसान भी हाइड्रोपोनिक तकनीक अपनाएं।”विपिन यादव

कंप्यूटर साइंस में अपनी इंजीनियरिंग डिग्री पूरी करने के बाद नौकरी औरवेतन से असंतुष्टी के कारण विपिन ने खेती शुरू करने का फैसला किया, पर निश्चित तौर पर अपने पिता की तरह नहीं, जो परंपरागत खेती तरीकों से खेती कर रहे थे।

एक जिम्मेवार और जागरूक नौजवान की तरह, उन्होंने गुरूग्राम से ऑनलाइन ट्रेनिंग ली। शुरूआती ऑनलाइन योग्यता टेस्ट पास करने के बाद वे गुरूग्राम के मुख्य सिखलाई केंद्र में गए।

20 उम्मीदवारों में से सिर्फ 16 ही हाइड्रोपोनिक्स की प्रैक्टीकल सिखलाई हासिल करने के लिए पास हुए और विपिन यादव भी उनमें से एक थे। उन्होंने अपने हुनर को और सुधारने के लिए के.वी.के. शिकोहपुर से भी सुरक्षित खेती की सिखलाई ली।

“2015 में, मैंने अपने पिता को मिट्टी रहित खेती की नई तकनीक के बारे में बताया, जबकि खेती के लिए मिट्टी ही एकमात्र आधार थी। विपिन यादव

सिखलाई के दौरान उन्होंने जो सीखा उसे लागू करने के लिए उन्होंने 5000 से 7000 रूपये के निवेश से सिर्फ दो मुख्य किस्मों के छोटे पौधों वाली केवल 50 ट्रे से शुरूआत की।

“मैंने हार्डनिंग यूनिट के लिए 800 वर्ग फुट क्षेत्र निर्धारित किया और 1000 वर्ग फुट पौधे तैयार करने के लिए गुरूग्राम में किराये पर जगह ली और इसमें पॉलीहाउस भी बनाया। – विपिन यादव

हाइड्रोपोनिक्स की 50 ट्रे के प्रयोग से उन्हें बड़ी सफलता मिली, जिसने बड़े स्तर पर इस विधि को शुरू करने के लिए प्रेरित किया। हाइड्रोपोनिक खेती शुरू करने के लिए उन्होंने दोस्तों, रिश्तेदारों की सहायता से अगला बड़ा निवेश 25000 रूपये का किया।

“इस समय मैं ऑर्डर के मुताबिक 250000 या अधिक पौधे तैयार कर सकता हूं।”

गर्म मौसमी स्थितियों के कारण अप्रैल से मध्य जुलाई तक हाइड्रोपोनिक खेती नहीं की जाती, पर इसमें होने वाला मुनाफा इस अंतराल की पूर्ती के लिए काफी है। विपिन यादव अपने हाइड्रोपोनिक फार्म में हर तरह की फसलें उगाते हैं – अनाज, तेल बीज फसलें, सब्जियां और फूल। खेती को आसान बनाने के लिए स्प्रिंकलर और फोगर जैसी मशीनरी प्रयोग की जाती है। इनके फूलों की क्वालिटी अच्छी है और इनकी पैदावार भी काफी है, जिस कारण ये राष्ट्रपति सेक्ट्रीएट को भी भेजे गए हैं।

मिट्टी रहित खेती के लिए, वे 3:1:1 के अनुपात में तीन चीज़ों का प्रयोग करते हैं कोकोपिट, परलाइट और वर्मीक्लाइट। 35-40 दिनों में पौधे तैयार हो जाते हैं और फिर इन्हें 1 हफ्ते के लिए हार्डनिंग यूनिट में रखा जाता है। NPK, जिंक, मैगनीशियम और कैलशियम जैसे तत्व पौधों को पानी के ज़रिये दिए जाते हैं। हाइड्रोपोनिक्स में कीटनाशक दवाइयों का कोई प्रयोग नहीं क्योंकि खेती के लिए मिट्टी का प्रयोग नहीं किया जाता, जो आसानी से घर में तैयार की जा सकती है।

भविष्य की योजना:
मेरी भविष्य की योजना है कि कैकटस, चिकित्सक और सजावटी पौधों की और किस्में, हाइड्रोपोनिक फार्म में बेहतर आय के लिए उगायी जायें।

विपिन यादव एक उदाहरण है कि कैसे भारत के नौजवान आधुनिक तकनीक का प्रयोग करके खेतीबाड़ी के भविष्य को बचा रहे हैं।

संदेश

“खेतीबाड़ी के क्षेत्र में कुछ भी नया शुरू करने से पहले, किसानों को अपने हुनर को बढ़ाने के लिए के.वी.के. से सिखलाई लेनी चाहिए और अपने आप को शिक्षित बनाना चाहिए।”

देश को बेहतर आर्थिक विकास के लिए खेतीबाड़ी के क्षेत्र में मेहनत करने वाले और नौजवानों एवं रचनात्मक दिमाग की जरूरत है और यदि हम विपिन यादव जैसे नौजवानों को मिलना जारी रखते हैं तो यह भविष्य के लिए एक सकारात्मक संकेत है।

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दीपकभाई भवनभाई पटेल

(आम की खेती)

गुजरात के एक किसान ने आम की विभिन्न किस्मों की खेती करके अच्छा लाभ कमाया

आज, यदि हम प्रगतिशील खेती और किसानों के तथ्यों को देखें तो, तो टेक्नोलोजी की तरफ एक स्पष्ट इशारा दिखाई देता है। किसान की सफलता और उसके फार्म को अच्छा बनाने के लिए टेक्नोलोजी की प्रमुख भूमिका है। यह कहानी है गुजरात के एक किसान – दीपकभाई भवनभाई पटेल की, जिन्होंने कृषि से अच्छी उत्पादकता लेने के लिए अपने आशावादी व्यवहार के साथ कृषि की आधुनिक तकनीकों को अपनाया और अपने प्रयत्नों के साथ उन्होंने उन सभी मुश्किलों का सामना किया जो उनके पिता और दादा-पड़दादा को खेती करते समय आती थी।

आम वह फल है, जिसने गुजरात में नवसारी जिले के काचियावाड़ी गांव में दीपकभाई को बागों का बादशाह बना दिया। दीपकभाई को 1991 में, अपने पिता से 20 एकड़ ज़मीन विरासत में मिली थी, वे अलग-अलग तरह के आम जैसे कि जंबो केसर, लंगड़ा, राजापुरी, एलफोन्ज़ो, दशहरी और तोतापुरी उगाते हैं। समय के साथ धीरे-धीरे उन्होंने खेती के क्षेत्र को बढ़ा लिया और आज उनके आम के बगीचे में 125 एकड़ ज़मीन पर 3000 से 3200 आम के वृक्ष हैं, जिसमें से 65 एकड़ ज़मीन उनकी अपनी है और 70 एकड़ ज़मीन ठेके पर है।

शुरूआती खेती की पद्धती और लागूकरन:

खैर, शुरूआत में दीपक भाई के लिए रास्ता थोड़ा मुश्किल था। उन्होंने सब्जियों और आम का अंतरफसली करके अपना खेताबड़ी उद्यम शुरू किया लेकिन मज़दूरों की कमी और आय कम होने के कारण उन्होने सिर्फ आम की खेती की तरफ पूरा ध्यान देने का फैसला किया।

दीपकभाई कहते हैं – खेती करते हुए मुझे जहां भी एहसास होता है अपनी गल्तियों का, मैं उन्हें सुधारने की पूरी कोशिश करता हूं। ज्ञान और अनुभव की कमी के कारण, मैंने आम के वृक्षों में पानी और खाद की ज्यादा मात्रा प्रयोग की और बागों में कीटनाशकों का प्रयोग नहीं किया। लेकिन एक बार जब मैं रिसर्च और एग्रीकल्चर सेंटर के संपर्क में आया तब मुझे ज्ञान और खेती करने के सही तरीकों के बारे में पता चल गया।”

सही कृषि पद्धतियों का पालन करने के परिणाम प्राप्त करने के बाद, दीपक भाई ने काफी मेहनत करके अपने आप को आम का माहिर बना लिया है, और यही वो वक्त था जब उन्होंने आम की खेती करने को अपनी आय का मुख्य स्त्रोत बनाने का फैसला किया। और उसके बाद उन्होंने किताबें पढ़नी शुरू कर दी, और उन निर्देशों और सलाहों का पालन किया जो खेतीबाड़ी संस्थाओं द्वारा दी जाती थी।

“मैंने अपने ज्ञान को बढ़ाने के लिए अलग अलग समारोह में हिस्सा लिया, जिनमें से कुछ को औरंगाबाद के गन्ना रिसर्च केंद्र, दिल्ली कृषि रिसर्च केंद्र, जयपुर कृषि यूनिवर्सिटी आदि द्वारा आयोजित किया गया था। इन प्रोग्रामों से मैंने अलग-अलग फलों, सब्जियों और अन्य फसलों जैसे कि केला, अनार, आम, चीकू, अमरूद, आंवला, अनाज, गेहूं और सब्जियां उगाने की अधिक जानकारी प्राप्त की।”

दीपक ने ना केवल खेती की आधुनिक तकनीकों के बारे में ज्ञान प्राप्त किया बल्कि पैसों का प्रबंधन करना भी सीखा जो कि एक किसान के लिए बहुत महत्तवपूर्ण होता है। उन्होंने अपनी आमदन और खर्चों का रिकॉर्ड रखना शुरू कर दिया। जो भी दीपक भाई बचत करते थे वे उसे नई ज़मीन खरीदने के लिए प्रयोग कर लेते थे।

मंडीकरण:

शुरूआत में मंडीकरण एक छोटी सी समस्या थी क्योंकि दीपकभाई के पास आमों के कारोबार का कोई बाज़ार नहीं थी। बिचोलिये और व्यापारी आम के उत्पादन के लिए बहुत कम कीमत देते थे, जो दीपकभाई को स्वीकार नहीं थी। लेकिन कुछ समय बाद, दीपक साहाकारी मंडली के संपर्क में आये और फिर उन्होंने आम के जूस की पैकिंग के लिए सहकारी फैडरेशन के साथ जुड़ने का फैसला किया। उन्होंने उत्पाद की सही कीमत दीपक भाई को पेश की, जिससे दीपकभाई की आमदन में बहुत अधिक वृद्धि हुई।

आम के साथ, दीपकभाई ने फार्म के किनारों पर केला, 250 कालीपट्टी चीकू और नारियल के वृक्ष भी लगाये जिससे उनकी आमदन में काफी वृद्धि हुई।

“आम के वृक्ष को बहुत देखभाल की जरूरत होती है जिसमें सही मात्रा में पानी, खाद और कीटनाशक शामिल करने होते हैं। इसके अलावा, इस बार मैंने अच्छा उत्पादन प्राप्त करने के लिए यूनिवर्सिटी द्वारा सिफारिश की गई बढ़िया पैदावार वाले वृक्ष लगाए हैं। बीमारियों को नियंत्रण करने के लिए, यूनिवर्सिटियों द्वारा सिफारिश की गई दवाइयों का प्रयोग करता हूं। मैं समय समय पर वृक्षों को अच्छा आकार देने के लिए वृक्ष की शाखाओं की कांट छांट भी करता हूं। मैं पानी की जांच भी करता हूं और सभी कमियों को सुधारता भी हूं।”

दीपकभाई की सफलता को देखने के बाद, बहुत सारे किसान यह जानने के लिए उनके फार्म का दौरा करने के लिए आते हैं कि उन्होंने किस आधुनिक तकनीक या ढंग को अपने फार्म पर लागू किया है। कई किसान दीपकभाई से सलाह भी लेते हैं।

दीपकभाई ने नवसारी खेतीबाड़ी विभाग और आत्मा प्रोजेक्ट को उनके समर्थन और मार्गदर्शन के लिए प्रमुख श्रेय दिया है। उनकी सहायता से दीपकभाई ने आधुनिक और वैज्ञानिक तकनीकों को अपने फार्म पर लागू किया। उन्होंने खेती के ज्ञान को इक्ट्ठा करने के लिए जानकारी का एक भी स्त्रोत नहीं छोड़ा।

“तुपका सिंचाई जल बचत करने की एक ऐसी खेती विधि है जिसे मैंने अपने फार्म पर स्थापित किया और यह पानी को बड़े स्तर पर बचाने में मदद करती है। अब अनावश्यक खर्चे कम हो गए हैं और ज़मीन अधिक उपजाऊ और नम हो गई है।”

इस पूरे समय के दौरान दीपकभाई पटेल के जीवन में बुरा समय भी आया। 2013 में दीपक भाई को पता चला कि वे जीभ के कैंसर से ग्रस्त हैं। इसे ठीक करने के लिए उन्होंने ऑप्रेशन करवाया और सर्जरी के दौरान उनका ज़ुबानी भाग हटा दिया गया। उन्होंने अपनी बोलने की क्षमता को खो दिया।

“पर उन्होंने कभी भी अपनी विकलांगता को अपने जीवन की अक्षमता में परिवर्तित नहीं होने दिया।”

2017 में, उन्होंने दूसरा ऑप्रेशन करवाया जिसमें कैंसर को उनके शरीर से पूरी तरह से हटा दिया गया था और आज वे अपने सपनों को हासिल करने के लिए मजबूत दृढ़ संकल्प के साथ स्वस्थ व्यक्ति हैं।

पुरस्कार और उपलब्धियां:
वर्ष 2014-15 में दीपकभाई को “ATMA Best Farmer of Gujarat” के तौर पर सम्मानित किया गया।

खैर, उल्लेख करने के लिए यह सिर्फ एक पुरस्कार है, बागबानी के क्षेत्र में उनकी सफलता ने उन्हें 19 पुरस्कार, प्रमाण पत्र, नकद पुरस्कार और राज्य स्तरीय ट्रॉफी जिताये हैं।

संदेश
“यूनिवर्सिटियों द्वारा दिए गए सही ढंगों का पालन करके बागबानी करना आय का एक अच्छा स्त्रोत है। यदि किसान अपना भविष्य अच्छा बनाना चाहते हैं तो उन्हें बागबानी में निवेश करना चाहिए।”
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राजेश कुमार

(खरगोश पालन)

हरियाणा से खरगोश पालक-राजेश कुमार, खरगोश पालन के ज्ञान से 700 से अधिक किसानों को सशक्त बनाकर वास्तविक जादूगर की भूमिका निभा रहे हैं।

हरियाणा से राजेश कुमार असल जीवन के वैसे ही जादूगर हैं जो टोपी में से खरगोश निकालते हैं। हैरान मत होइये! हम यहां खरगोश पालन के बारे में बात कर रहे हैं।

खरगोश पालन एक ऐसा व्यवसाय है जिसके बारे में ज्यादातर किसान अनजान और अरोचक हैं लेकिन वर्तमान समय में खरगोश पालन आय का एक लाभदायक स्त्रोत बन चुका है और भविष्य में भी इससे अच्छी आमदन प्राप्त की जा सकती है।

वर्ष 1977 में, केंद्र सरकार द्वारा खरगोश पालन के लिए एक पहल की गई थी। भारत में खरगोश पालन का समर्थन करने के लिए सरकार द्वारा एक परियोजना शुरू की गई जिसमें वे किसानों को फंड देते थे। ताकि वे खरगोश पालन 10 यूनिट (1 युनिट में 70 मादा और 30 नर) के साथ शुरू कर सकें। लेकिन यह प्रोजेक्ट सफल नहीं हो सका और जल्दी ही इसे बंद कर दिया गया। लेकिन यह खरगोश पालन का अंत नहीं था। 2007 में कई प्राइवेट खरगोश पालन फर्म कुछ समय बाद खोली गई जो सरकार द्वारा पहले शुरू की गई परियोजना के दिशानिर्देशों के बाद शुरू हुई थी और राजेश कुमार द्वारा खोला गया ‘पैराडाइज़ रैबिट फार्म’ (Paradise Rabbit Farm) उनमें से एक था।

2007 में, राजेश कुमार ने अविकानगर, टोंक (राजस्थान) में सेंट्रल शीप एंड वूल रिसर्च इंस्टीट्यूट (CSWRI – Central Sheep and Wool Research Institute) का दौरा किया जहां उन्हें पहली बार खरगोश पालन के बारे में पता चला। वे खरगोश पालन की तरफ काफी आकर्षित हुए और उन्होंने इस उद्यम में निवेश करने का फैसला किया। अब 11 साल से वे सफलतापूर्वक खरगोश पालन कर रहे हैं।

और बस इतना ही नहीं!

राजेश कुमार ने पूरे भारत में (लगभग सभी राज्यों में) अपने खरगोश पालन के कॉन्ट्रैक्ट

व्यापार को फैला दिया है। उनके कॉन्ट्रैक्ट बिज़नेस के तहत वे किसानों को खरगोशों की 10 यूनिट प्रदान करते हैं और खरगोशों की देखभाल के लिए पूरी ट्रेनिंग भी देते हैं। वे खरगोश पालक के फार्म से खरगोशों की डिलीवरी और संग्रह की प्रक्रिया के लिए परिवहन भी प्रदान करते हैं।

राजेश“खरगोश पालन का व्यापार अधिकतर छोटे किसानों द्वारा अपनाया जाता है। इसलिए मूल रूप से खरगोश पालन वहीं किया जाता है जहां पर छोटे किसान होते हैं। वर्तमान में मैं पूरे भारत में स्थित 700 से ज्यादा फार्म के साथ कॉन्ट्रेक्ट फार्मिंग कर रहा हूं।”

राजेश कुमार ने कैसे अन्य खरगोश पालकों के लिए मार्किटिंग को आसान बनाया…

राजेश कुमार ने उन किसानों के लिए एक और लाभकारी काम किया जिन्होंने उनके माध्यम से खरगोश पालन शुरू किया और वह है मार्किटिंग। शुरू में ही किसानों से खरगोशों के खरीद मुल्य वापिस लेने का निर्णय लिया गया था और प्रत्येक वर्ष बाद खरगोश की कीमत में 10 प्रतिशत की वृद्धि होती है। इसके अलावा, उन्होंने किसानों के लिए मार्किटिंग को आसान बना दिया क्योंकि जब खरगोश बेचने के लिए तैयार हो जाते हैं तब राजेश कुमार उनके फार्म पर खरगोशों को इकट्ठा करने के लिए अपना वाहन भेजते हैं। सिर्फ इस शर्त पर कि हर किसान को मुफ्त परिवहन प्राप्त करने के लिए शुरूआत में खरगोशों की 10 या अधिक युनिट में निवेश करना होगा। किसान जो कम खरगोशों में निवेश करते हैं उन्हें खरगोश के वितरण के लिए अपने परिवहन का उपयोग करना पड़ता है।

खरगोश पालन के बारे में कुल मूल तथ्य जो श्री कुमार शेयर करते हैं…

• मादा खरगोश एक वर्ष में अधिक से अधिक 6 से 7 बार गाभिन होती है।
• एक ब्यांत में एक गाभिन खरगोश कम से कम 1 बच्चे को और अधिक से अधिक 14 बच्चों को जन्म दे सकती है।
• मादा खरगोश का गाभिन काल 30 दिन का होता है।
• यदि ब्यांत का समय बढ़ जाये तो कमज़ोर बच्चों के होने की संभावना होती है इसलिए हम कह सकते हैं कि औसतन 5 बच्चे प्रति मादा देती है।
• यदि मादा 5 बच्चों से अधिक बच्चे देती है तो किसान को बच्चों को पूरा पोषण प्रदान करने के लिए कुछ बच्चों को दूसरी मादा को स्थानांतरित करना होता है।
• यदि शिशु खरगोश को उचित फीड दी जाये, तो वह 3 महीने में विक्री के लिए तैयार हो जाता है।
• नए जन्में शिशु अपनी आंखे 12-14 दिनों में खोलते हैं।
• फीड के आधार पर खरगोश का भार 1.45 kg से 2 kg के बीच होता है।
• खरगोशों को मीट के लिए और सुअरों में स्वाइन बुखार से बचाव का टीका तैयार करने के लिए उपयोग किया जाता है।

राजेश कहते हैं कि- “किसान को अच्छा लाभ प्राप्त करने के लिए कोशिश करनी चाहिए कि उनकी मादा खरगोश एक साल में 8 बार गाभिन हो।”

राजेश कुमार खरगोशों के लिए फीड कैसे तैयार करते हैं…

भारत में खरगोशों के लिए कोई खास फीड कंपनी नहीं है क्योंकि खरगोश फीड की कम मात्रा खाते हैं। इसलिए राजेश कुमार खरगोशों की फीड घर पर तैयार करते हैं।

सूखी फीड की सामग्री – मक्की, गेहूं, सोयाबीन के छोटे दाने, चोकर, फैट के लिए धान का चोकर, नमक, खनिज मिश्रण

यह फीड क्षेत्र के अनुसार बदलती है।

जून, जुलाई और अगस्त महीने के दौरान वातावरण में नमी की मात्रा बहुत अधिक होती है इसलिए किसान को खरगोश की 10 यूनिट के अनुसार केवल 100 kg फीड बनानी चाहिए। क्योंकि खरगोश घटिया फीड खाकर बीमार हो जाते हैं। खरगोश मनुष्यों की तरह ही होते हैं और उनकी देख रेख पूरे ध्यानपूर्वक करनी चाहिए। हालांकि खरगोशों के लिए कोई विशिष्ट टीकाकरण नहीं है, लेकिन यदि खरगोश बीमार हो जाये तो राजेश कुमार अपनी दवाओं के साथ किसानों की मदद करते हैं।

वर्तमान में, राजेश कुमारअपनी माता, पिता, पत्नी, दो बहनों , दो भाइयों और बेटे के साथ अपने गांव धत्रथ जिला जींद (हरियाणा) में रह रहे हैं। उनके भाई परवीन कुमार ने खरगोश पालन के उद्यम में उनकी सहायता करते हैं। खरगोश पालन से उनकी महीने की आय 30 से 40000 रूपये है।

पुरस्कार और उपलब्धियां

• पंत नगर में सर्वश्रेष्ठ खरगोश प्रतियोगिता में तीसरा पुरस्कार
• हरियाणा सरकार द्वारा प्रमाणित
• 2016 में CPCSEA (Committee for the Purpose of Control and Supervision of Experiments on Animals) के साथ पंजीकृत

भविष्य की योजनाएं

वे भारत में अधिक किसानों में खरगोश पालन के कॉन्ट्रेक्ट बिज़नेस को विस्तारित करना चाहते हैं।

संदेश

“खरगोश पालन एक लाभदायक उद्यम है क्योंकि इसमें कम निवेश की जरूरत होती है और अधिक लाभ होता है। छोटे स्तर के किसान जिनके पास कम भूमि है वे इस उद्यम में निवेश कर सकते हैं और इससे अच्छा मुनाफा कमा सकते हैं।”

राजेश कुमार द्वारा प्रदान की जाने वाली कॉन्ट्रेक्ट खरगोश पालन का विवरण:

राजेश कुमार समूह में खरगोश पालन की 2 दिन की पूरी ट्रेनिंग प्रदान करते हैं। ट्रेनिंग में टीकाकरण, दवा, गर्भधारण की जांच, देखभाल करनी शामिल है। यदि कोई किसान खरगोश पालन में दिलचस्पी रखते हैं तो उन्हें खरगोश की 10 यूनिट में निवेश के लिए न्यूनतम 3 लाख रूपये की आवश्यकता पड़ती है, और 1 लाख रूपया शैड के लिए । भारत में सबसे ज्यादा खरगोश की नस्लें अंगोरा (ठंडे क्षेत्र), चिनचिला, ग्रे जाइंट, न्यूज़ीलैंड वाईट और डच हाफ ब्लैक-हाफ वाईट पायी जाती हैं।

राजेश कुमार का कुरूक्षेत्र में भी एक कार्यालय है जहां से वे अपने खेत के सभी आधिकारिक कामों का प्रबंधन करते हैं।

राजेश कुमार ने मल्टीमीडिया में B.Sc.ग्रेजुएट की है और साबित किया है कि खरगोश पालन ऐसा उद्यम है जिसे कोई भी व्यक्ति थोड़े से मार्गदर्शन और ट्रेनिंग से सफलतापूर्वक अपना सकता है और जारी रख सकता है। यद्यपि वे मल्टीमीडिया एनीमेशन के क्षेत्र का चयन कर सकते थे लेकिन उन्होंने भविष्य में आगे बढ़ने के लिए अपनी वास्तविक दिलचस्पी को चुना।

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मनजिंदर सिंह और स्वर्ण सिंह

(मुर्गी पालन और प्रजनन)

सफल पोल्टरी फार्मिंग उद्यम जो कि पिता द्वारा स्थापित किया गया और बेटे द्वारा नई ऊंचाइयों तक पहुंचाया गया

भारत में हर कोई वर्ष 1984 के इतिहास को जानता है, यह पूरे पंजाब में मनहूस समय था जब सिख नरसंहार का प्रमुख लक्ष्य थे। यह कहानी है एक साधारण किसान स्वर्ण सिंह की, जो अपने पुराने हालातों को सुधारने के लिए और उन्हीं हालातों से उभरने के लिए, सिर्फ 2.5 एकड़ ज़मीन के साथ ही संघर्ष करके अपनी आगे की ज़िंदगी की तरफ बढ़ रहे थे । स्वर्ण सिंह के भी कुछ सपने थे जिन्हें वे पूरा करना चाहते थे और उसके लिए उन्होंने 12 वीं और बी.ए के बाद वे उच्च शिक्षा (मास्टर्स) के लिए गए। लेकिन उनकी नियति में कुछ और लिखा गया था। वर्ष 1983 में, जब पंजाब के युवावर्ग लोकतंत्र के खिलाफ क्रांति के मूड की चरम सीमा पर थे, उस समय हालात साधारण लोगों के लिए आसान नहीं थे और स्वर्ण सिंह ने अपनी उच्च शिक्षा (मास्टर्स) को बीच में ही छोड़ दिया और घर रहकर कुछ नया शुरू करने का फैसला किया।

जब दंगे फसाद शांत हो रहे थे उस समय स्वर्ण सिंह अपनी ज़िंदगी के व्यावसायकि करियर को स्थिरता देने के लिए हर तरह की जॉब हासिल करने की कोशिश की, लेकिन उनके हाथ कुछ नहीं लगा। आखिरकार उन्होंने अपने पडोस में अन्य पोल्टरी किसानों से प्रेरित होकर पोल्टरी फार्मिंग शुरू करने का फैसला किया और 1990 में लगभग 2 दशक पहले सहोता पोल्टरी ब्रीडिंग फार्म स्थापित हुआ। उन्होंने अपना उद्यम 1000 पक्षियों से शुरू किया और 50 फुट लंबाई और 35 फुट चौड़ाई का एक चार मंज़िला शैड बनाया। उन्होंने उस समय एक लोन लेकर 1000 पक्षियों पर 70000 रूपये का निवेश किया, जिस पर उन्हें सरकार की तरफ से 25 प्रतिशत की सब्सिडी मिली। उसके बाद आज तक उन्होंने सरकार से कोई लोन और कोई सब्सिडी नहीं ली।

1991 में उनकी शादी हुई और उनका पोल्टरी उद्यम अच्छे से शुरू हुआ। उन्होंने हैचरी में भी निवेश किया। धीरे-धीरे समय के साथ जब उनका पुत्र – मनजिंदर सिंह बड़ा हुआ तब उसने अपने पिता के व्यापार में हाथ बंटाने का फैसला किया। उसने अपनी 12वीं कक्षा की पढ़ाई बीच में ही छोड़ दी और अपने पिता के व्यापार को संभाला। पोल्टरी व्यापार में मनजिंदर के शामिल होने का मतलब ये नहीं था कि स्वर्ण सिंह ने रिटायरमेंट ले ली। स्वर्ण सिंह पोल्टरी फार्म का काम संभालने के लिए हमेशा अपने बेटे के साथ खड़े रहे और उसका मार्गदर्शन करते रहे।

स्वर्ण सिंह – “अपने परिवार के समर्थन के बिना मैं अपने जीवन में कभी इस मुकाम तक नहीं पहुंच पाता। पोल्टरी एक अच्छा अनुभव है और मैं पोल्टरी से महीने में पचास से साठ हज़ार तक का अच्छा मुनाफा कमा लेता हूं। एक किसान आसानी से पोल्टरी फार्मिंग को अपना सकता है और अच्छा लाभ कमा सकता है।”

वर्तमान में मनजिंदर सिंह (27वर्षीय) अपने पिता और 2 श्रमिकों के साथ पूरे फार्म को संभालते हैं। वे अपनी ज़मीन पर सब्जियां, गेहूं, मक्की, धान और चारा स्वंय उगाते हैं। चारे की फसल से वे चूज़ों के लिए फीड तैयार करते हैं और कई बार बाज़ार से चूज़ों के लिए “संपूर्ण” नाम का ब्रांड चिक फीड खरीदते हैं। उनके पास घर के प्रयोग के लिए 2 भैंसे भी हैं।

मनजिंदर – “हानि और कुदरती आफतों से बचने के लिए हम चूज़ों और शैड का उचित ध्यान रखते हैं। शैड में किसी भी किस्म की बीमारी से बचने के लिए हम समय-समय पर नए पक्षियों का टीकाकरण करवाते हैं। हम जैव सुरक्षा का भी ध्यान रखते हैं क्योंकि यही वह मुख्य कारण है जिसपर पोल्टरी फार्मिंग आधारित है।”

(मशीनरी) यंत्र:
वर्तमान में सहोता पोल्टरी फार्म के पास 3 चिक्स इनक्यूबेटर है। एक हाथों द्वारा निर्मित मशीनरी है जिसे स्वर्ण सिह ने शाहकोट से स्वंय डिज़ाइन किया है। वे चूज़ों के लिए प्रतिदिन 2.5 क्विंटल फीड तैयार करते हैं। उनके पास 2 जेनरेटर, फीड्रज़ और ड्रिंकर्ज़ भी हैं।

मार्किटिंग और बिज़नेस

मार्किटिंग उनके लिए मुश्किल नहीं है। वे प्रत्येक चार दिनों के बाद 4000 पक्षियों को बेचते हैं। एक पक्षी वार्षिक 200 अंडे देता है और वे एक साल बाद हर अंडा देने वाले पक्षी को स्थानांतरित करते हैं। प्रति चूज़े का बिक्री रेट 25 रूपये है जो कि उन्हें पर्याप्त लाभ देता है।

भविष्य की योजनाएं:

वे भविष्य में पशु पालन शुरू करने की योजना बना रहे हैं।

संदेश
“आप कृषि के क्षेत्र में जो भी कर रहे हैं उसे पूरे समर्पण के साथ करें क्योंकि मेहनत हमेशा अच्छा रंग लाती है।”
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अंकुर सिंह और अंकिता सिंह

(डेरी उद्योग)

सिम्बॉयसिस से ग्रेजुएटड इस पति-पत्नी की जोड़ी ने पशु पालन के लिए उनकी एक नई अवधारणा के साथ एग्रीबिज़नेस की नई परिभाषा दी

भारत की एक प्रतिष्ठित यूनिवर्सिटी से एग्रीबिज़नेस में एम बी ए करने के बाद आप कौन से जीवन की कल्पना करते हैं। शायद एक कृषि विश्लेषक, खेत मूल्यांकक, बाजार विश्लेषक, गुणवत्ता नियंत्रक या एग्रीबिजनेस मार्केटिंग कोऑर्डिनेटर की।

खैर, एम.बी.ए (MBA) कृषि स्नातकों के लिए ये जॉब प्रोफाइल सपने सच होने जैसा है, और यदि आपने एम.बी.ए (MBA) किसी सम्मानित यूनिवर्सिटी से की है तो ये तो सोने पर सुहागा वाली बात होगी। लेकिन बहुत कम लोग होते हें जो एक मल्टीनेशनल संगठन का हिस्सा बनने की बजाय, एक शुरूआती उद्यमी के रूप में उभरना पसंद करते हैं जो उनके कौशल और पर्याप्तता को सही अर्थ देता है।

अरबन डेयरी- कच्चे रूप में दूध बेचने के अपने विशिष्ट विचार के साथ पशु पालन की अवधारणा को फिर से परिभाषित करने के लिए एक उद्देश्य के साथ इस प्रतिभाशाली जोड़ी- अंकुर और अंकिता की यह एक पहल है। यह फार्म कानपुर शहर से 55 किलोमीटर की दूरी पर उन्नाव जिले में स्थित है।

इस दूध उद्यम को शुरू करने से पहले, अंकुर विभिन्न कंपनियों में एक बायो टैक्नोलोजिस्ट और कृषक के रूप में काम कर रहे थे (कुल काम का अनुभव 2 वर्ष) और 2014 में अंकुर अपनी दोस्त अंकिता के साथ शादी के बंधन में बंधे, उन्होंने उनके साथ पुणे से एम.बी.ए (MBA) की थी।

खैर, कच्चा दूध बेचने का यह विचार सिद्ध हुआ, अंकुर के भतीजे के भारत आने पर। क्योंकि वह पहली बार भारत आया था तो अंकुर ने उसके इस अनुभव को कुछ खास बनाने का फैसला किया।

अंकुन ने विशेष रूप से गाय की स्वदेशी नसल -साहिवाल खरीदी और उसे दूध लेने के उद्देश्य से पालना शुरू किया, हालांकि यह उद्देश्य सिर्फ उसके भतीजे के लिए ही था लेकिन उन्हें जल्दी ही एहसास हुआ कि गाय का दूध, पैक किए दूध से ज्यादा स्वस्थ और स्वादिष्ट है। धीरे-धीरे पूरे परिवार को गाय का दूध पसंद आने लगा और सबने उसे पीना शुरू कर दिया।

अंकुर को बचपन से ही पशुओं का शौंक था लेकिन इस घटना के बाद उन्होंने सोचा कि स्वास्थ्य के साथ क्यों समझौता करना, और 2015 में दोनों पति – पत्नी (अंकुर और अंकिता) ने पशु पालन शुरू करने का फैसला किया। अंकुर ने पशु पालन शुरू करने से पहले NDRI करनाल से छोटी सी ट्रेनिंग ली और इस बीच उनकी पत्नी अंकिता ने खेत के सभी निर्माण कार्यों की देख-रेख की। उन्होंने 6 होलस्टिन से प्रजनित गायों से शुरूआत की और अब 3 वर्ष बाद उनके पास उनके गोशाला में 34 होलस्टीन/जर्सी प्रजनित गायें और 7 स्वदेशी गायें (साहिवाल, रेड सिंधी, थारपारकर) हैं।

अरबन डेयरी वह नाम था जिसे उन्होंने अपने ब्रांड का नाम रखने के बारे में सोचा, जो कि ग्रामीण विषय को शहरी विषय में सम्मिलित करता है, दो ऐसे क्षेत्रों को जोड़ता है जो कि एक दूसरे से बिल्कुल ही विपरीत हैं।

उन्होंने यहां तक पहुंचने के लिए डेयरी फार्म के प्रबंधन से लेकर उत्पाद की मार्किटिंग और उसका विकास करने के लिए एक भी कदम नहीं छोड़ा । पूरे खेत का निर्माण 4 एकड़ में किया गया है और उसके रख-रखाव के लिए 7 कर्मचारी हैं। पशुओं को नहलाना, भोजन करवाना, गायों की स्वच्छता बनाए रखना और अन्य फार्म से संबंधित कार्य कर्मचारियों द्वारा हाथों से किए जाते हैं और गाय की सुविधा देखकर दूध, मशीन और हाथों से निकाला जाता है। अंकुर और अंकिता दोनों ही बिना एक दिन छोड़े दिन में एक बार फार्म जाते ही हैं। वे अपने खेत में अधिकतर समय बिताना पसंद ही नहीं करते बल्कि कर्मचारियों को अपने काम को अच्छे ढंग से करने में मदद भी करते हैं।

“अंकुर: हम गाय की फीड खुद तैयार करते हैं क्योंकि दूध की उपज और गाय का स्वास्थ्य पूरी तरह से फीड पर ही निर्भर करता है और हम इस पर कभी भी समझौता नहीं करते। गाय की फीड का फॉर्मूला जो हम अपनाते हैं वह है – 33% प्रोटीन, 33% औद्योगिक व्यर्थ पदार्थ (चोकर), 33% अनाज (मक्की, चने) और अतिरिक्त खनिज पदार्थ।

पशु पालन के अलावा वे सब्जियों की जैविक खेती में भी सक्रिय रूप से शामिल हैं। उन्होंने अतिरिक्त 4 एकड़ की भूमि किराये पर ली है। इससे पहले अंकिता ने उस भूमि का प्रयोग एक घरेलु बगीची के रूप में किया था। उन्होंने गाय के गोबर के अलावा उस भूमि पर किसी भी खाद या कीटनाशक का इस्तेमाल नहीं किया। अब वह भूमि पूरी तरह से जैविक बन गई है। जिसका इस्तेमाल गेहूं, चना, गाजर, लहसुन, मिर्च, धनिया और अन्य मौसमी सब्जियां उगाने के लिए किया जाता है। वे कृषि फसलों का प्रयोग गाय के चारे और घर के उद्देश्य के लिए करते हैं।

शुरूआत में, मेरी HF प्रजनित गाय 12 लीटर दूध देती थी, दूसरे ब्यांत के बाद उसने 18 लीटर दूध देना शुरू किया और अब वह तीसरे ब्यांत पर हैं और हम 24 लीटर दूध की उम्मीद कर रहे हैं। दूध उत्पादन में तेजी से बढ़ोतरी की संभावना है।

मार्किटिंग:

दूध को एक बड़े दूध के कंटेनर में भरने और एक पुराने दूध मापने वाले यंत्र की बजाय वे अपने उत्पादन की छवि को बढ़ाने के लिए एक नई अवधारणा के साथ आए। वे कच्चे दूध को छानने के बाद सीधा कांच की बोतलों में भरते हैं और फिर सीधे ग्राहकों तक पहुंचाते हैं।

लोगों ने खुली बाहों से उनके उत्पाद को स्वीकार किया है आज तक अर्थात् 3 साल उन्होंने अपने उत्पादों की बिक्री के लिए कोई योजना नहीं बनाई और ना ही लोगों को उत्पाद का प्रयोग करने के लिए कोई विज्ञापन दिया। जितना भी उन्होंने अब तक ग्राहक जोड़ा है। वह सब अन्य लोगों द्वारा उनके मौजूदा ग्राहकों से उनके उत्पाद की प्रशंसा सुनकर प्रभावित हुए हैं। इस प्रतिक्रिया ने उन्हें इतना प्रेरित किया कि उन्होंने पनीर, घी और अन्य दूध आधारित डेयरी उत्पादों का उत्पादन शुरू कर दिया है। ग्राहकों की सकारात्मक प्रतिक्रिया से उनकी बिक्री में वृद्धि हुई है।

दूध की बिक्री के लिए उनके शहर में उनका अपना वितरण नेटवर्क है और उनकी उन्नति देखकर यह समय के साथ और ज्यादा बढ़ जायेगा।

भविष्य की योजनाएं:

स्वदेशी गाय की नस्ल की दूध उत्पादन क्षमता इतनी अधिक नहीं होती और वे प्रजनित स्वदेशी गायों द्वारा गाय की एक नई नसल को विकसित करना चाहते हैं जिसकी दूध उत्पादन की क्षमता ज्यादा हो क्योंकि स्वदेशी नसल के गाय की दूध की गुणवत्ता ज्यादा बेहतर होती है और मुनष्यों के लिए इसके कई स्वास्थ्य लाभ भी साबित हुए हैं।

उनके अनुसार, स्वस्थ हालातों में दूध को एक हफ्ते के लिए 2 डिगरी सेंटीग्रेड पर रखा जा सकता है और इस प्रयोजन के लिए वे आने वाले समय में दूध को लंबे समय तक स्टोर करने के लिए एक चिल्लर स्टोरेज में निवेश करना चाहते हैं ताकि वे दूध को बहु प्रयोजन के लिए प्रयोग कर सकें।

संदेश:
“पशु पालकों को उनकी गायों की स्वच्छता और देखभाल को अनदेखा नहीं करना चाहिए, उन्हें उनका वैसा ही ध्यान रखना चाहिए जैसा कि वे अपने स्वास्थ्य का रखते हैं और पशु पालन शुरू करने से पहले हर किसान को ज्ञान प्राप्त करना चाहिए और बेहतर भविष्य के लिए मौजूदा पशु पालन पद्धतियों से खुद को अपडेट रखना चाहिए। पशु पालन केवल तभी लाभदायक हो सकता है जब आपके फार्म के पशु खुश हों। आपके उत्पाद का बिक्री मुल्य आपको मुनाफा कमाने से नहीं मिलेगा लेकिन एक खुश पशु आपको अच्छा मुनाफा कमाने में मदद कर सकता है।”
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कैप्टन ललित

(अनार की खेती)

कैसे एक व्यक्ति ने अपनी अंतरात्मा की आवाज़ को सुना और बागबानी को अपनी रिटायरमेंट योजना के रूप में चुना

राजस्थान की सूखी भूमि पर अनार उगाना, एक मज़ाकिया और असफल विचार लगता है लेकिन अपने मजबूत दृढ़ संकल्प, जिद और उच्च घनता वाली खेती तकनीक से कैप्टन ललित ने इसे संभव बनाया।

कई क्षेत्रों में माहिर होने और अपने जीवन में कई व्यवसायों का अनुभव करने के बाद, आखिर में कैप्टन ललित ने बागबानी को अपनी रिटायरमेंट योजना के रूप में चुना और राजस्थान के गंगानगर जिले में अपने मूल स्थान- 11 Eea में वापिस आ गए। खैर, कई शहरों में रह रहे लोगों के लिए, खेतीबाड़ी एक अच्छी रिटारमेंट योजना नहीं होती, लेकिन श्री ललित ने अपनी अंर्तात्मा की आवाज़ को सही में सुना और खेतीबाड़ी जैसे महान और मूल व्यवसाय को एक अवसर देने के बारे में सोचा।

शुरूआती जीवन-
श्री ललित शुरू से ही सक्रिय और उत्साही व्यक्ति थे, उन्होंने कॉलेज में पढ़ाई के साथ ही अपना पेशेवर व्यवसाय शुरू कर दिया था। अपनी ग्रेजुऐशन की पढ़ाई पूरी करने के बाद, उन्होंने व्यापारिक पायलेट का लाइसेंस भी प्राप्त किया और पायलेट का पेशा अपनाया। लेकिन यह सब कुछ नहीं था जो उन्होंने किया। एक समय था जब कंप्यूटर की शिक्षा भारत में हर जगह शुरू की गई थी, इसलिए इस अवसर को ना गंवाते हुए उन्होंने एक नया उद्यम शुरू किया और जयपुर शहर में एक कंप्यूटर शिक्षा केंद्र खोला। जल्दी ही कुछ समय के बाद उन्होंने ओरेकल टेस्ट पास किया और एक ओरेकल प्रमाणित कंप्यूटर ट्रेनर बन गए। उनका कंप्यूटर शिक्षा केंद्र कुछ वर्षों तक अच्छा चला लेकिन लोगों में कंप्यूटर की कम होती दिलचस्पी के कारण इस व्यवसाय से मिलने वाला मुनाफा कम होने के कारण उन्होंने अपने इस उद्यम को बंद कर दिया।

उनके कैरियर के विकल्पों को देखते हुए यह तो स्पष्ट है कि शुरूआत से ही वे एक अनोखा पेशा चुनने में दिलचस्पी रखते थे जिसमें कि कुछ नई चीज़ें शामिल थी फिर चाहे वह प्रवृत्ति, तकनीकी या अन्य चीज़ के बारे में हो और अगला काम जो षुरू किया, उन्होंने जयपुर शहर में किराये पर एक छोटी सी ज़मीन लेकर विदेशी सब्जियों और फूलों की खेती व्यापारिक उद्देश्य के लिए की और कई पांच सितारा होटलों ने उनसे उनके उत्पादन को खरीदा।

“जब मैंने विदेशी सब्जियां जैसे थाईम, बेबी कॉर्न, ब्रोकली, लेट्स आदि को उगाया उस समय इलाके के लोग मेरा मज़ाक बनाते थे क्योंकि उनके लिए ये विदेशी सब्जियां नई थी और वे मक्की के छोटे रूप और फूल गोभी के हरे रूप को देखकर हैरान होते थे। लेकिन आज वे पिज्ज़ा, बर्गर और सलाद में उन सब्जियों को खा रहे हैं।”

जब विचार अस्तित्व में आया-
जब वे विदेशी सब्जियों की खेती कर रहे थे उस समय के दौरान उन्होंने महसूस किया कि खेतीबाड़ी में निवेश करना सबसे अच्छा है और उन्हें इसे बड़े स्तर पर करना चाहिए। क्योंकि उनके पास पहले से ही अपने मूल स्थान में एक पैतृक संपत्ति (12 बीघा भूमि) थी इसलिए उन्होंने इस पर किन्नू की खेती शुरू करने का फैसला किया वे किन्नू की खेती शुरू करने के विचार को लेकर अपने गांव वापिस आ गए लेकिन कईं किसानों से बातचीत करने के बाद उन्हे लगा कि प्रत्येक व्यक्ति एक ही चीज़ कर रहा है और उन्हें कुछ अलग करना चाहिए।

और यह वह समय था जब उन्होंने विभिन्न फलों पर रिसर्च करना शुरू किया और विभिन्न शहरों में अलग -अलग खेतों का दौरा किया। अपनी रिसर्च से उन्होंने एक उत्कृष्ट और एक आम फल को उगाने का निष्कर्ष निकाला। उन्होंने (केंद्रीय उपोष्ण बागबानी लखनऊ) से परामर्श लिया और 2015 में अनार और अमरूद की खेती शुरू की। उन्होंने 6 बीघा क्षेत्र में अनार (सिंदूरी किस्म) और अन्य 6 बीघा क्षेत्र में अमरूद की खेती शुरू की। रिसर्च और सहायता के लिए उन्होंने मोबाइल और इंटरनेट को अपनी किताब और टीचर बनाया।

“शुरू में, मैंने राजस्थान एग्रीकल्चर यूनिवर्सिटी से भी परामर्श लिया लेकिन उन्होंने कहा कि राजस्थान में अनार की खेती संभव नहीं है और मेरा मज़ाक बनाया।”

खेती करने के ढंग और तकनीक-
उन्होंने अनार की उच्च गुणवत्ता और उच्च मात्रा का उत्पादन करने के लिए उच्च घनता वाली तकनीक को अपनाया। खेतीबाड़ी की इस तकनीक में उन्होंने कैनोपी प्रबंधन को अपनाया और 20 मीटर x 20 मीटर के क्षेत्र में अनार के 7 पौधे उगाए। ऐसा करने से, एक पौधा एक मौसम में 20 किलो फल देता है और 7 पौधे 140 किलो फल देते हैं। इस तरीके से उन्होंने कम क्षेत्र में अधिक वृक्ष लगाए हैं और इससे भविष्य में वे अच्छा कमायेंगे। इसके अलावा, उच्च घनता वाली खेती के कारण, वृक्षों का कद और चौड़ाई कम होती है जिसके कारण उन्हें पूरे फार्म के रख रखाव के लिए कम श्रमिकों की आवश्यकता होती है।

कैप्टन ललित ने अपनी खेती के तरीकों को बहुत मशीनीकृत किया है। बेहतर उपज और प्रभावी परिणाम के लिए उन्होंने स्वंय एक टैंक- कम- मशीन बनाई है और इसके साथ एक कीचड़ पंप को जोड़ा है इसके अंदर घूमने के लिए एक शाफ्ट लगाया है और फार्म में सलरी और जीवअमृत आसानी से फैला दी जाती है। फार्म के अंदर इसे चलाने के लिए वे एक छोटे ट्रैक्टर का उपयोग करते हैं। जब इसे किफायती बनाने की बात आती है तो वे बाज़ार से जैविक खाद की सिर्फ एक बोतल खरीदकर सभी खादों, फिश अमीनो एसिड खाद, जीवाणु और फंगस इन सभी को अपने फार्म पर स्वंय तैयार करते हैं।

उन्होंने राठी नसल की दो गायों को भी अपनाया जिनकी देख रेख करने वाला कोई नहीं था और अब वे उन गायों का उपयोग जीवअमृत और खाद बनाने के लिए करते हैं। एक अहम चीज़ – “अग्निहोत्र भभूति”, जिसका उपयोग वे खाद में करते हैं। यह वह राख होती है जो कि हवन से प्राप्त होती है।

“अग्निहोत्र भभूति का उपयोग करने का कारण यह है कि यह वातावरण को शुद्ध करने में मदद करती है और यह आध्यात्मिक खेती का एक तरीका है। आध्यात्मिक का अर्थ है खेती का वह तरीका जो भगवान से संबंधित है।”

उन्होंने 50 मीटर x 50 मीटर के क्षेत्र में बारिश का पानी बचाने के लिए और इससे खेत को सिंचित करने के लिए एक जलाशय भी बनाया है। शुरूआत में उनका फार्म पूरी तरह पर्यावरण के अनुकूल था क्योंकि वे सब कुछ प्रबंधित करने के लिए सोलर ऊर्जा का प्रयोग करते थे लेकिन अब उन्हें सरकार से बिजली मिल रही है।

सरकार की भूमिका-
उनका अनार और अमरूद की खेती का पूरा प्रोजेक्ट राष्ट्रीय बागबानी बोर्ड द्वारा प्रमाणित किया गया है और उन्हें उनसे सब्सिडी मिलती है।

उपलब्धियां-
उनके खेती के प्रयास की सराहना कई लोगों द्वारा की जाती है।
जिस यूनिवर्सिटी ने उनका मज़ाक बनाया था वह अब उन्हें अपने समारोह में अतिथि के रूप में आमंत्रित करती है और उनसे उच्च घनता वाली खेती और कांट-छांट की तकनीकों के लिए परामर्श भी लेती है।

वर्तमान स्थिति-
आज उन्होंने 12 बीघा क्षेत्र में 5000 पौधे लगाए हैं और पौधों की उम्र 2 वर्ष 4 महीने है। उच्च घनता वाली खेती के द्वारा अनार के पौधों ने फल देना शुरू भी कर दिया है, लेकिन वे अगले वर्ष वास्तविक व्यापारिक उपज की उम्मीद कर रहे हैं।

“अपनी रिसर्च के दौरान मैंने कुछ दक्षिण भारतीय राज्यों का भी दौरा किया और वहां पर पहले से ही उच्च घनता वाली खेती की जा रही है। उत्तर भारत के किसानों को भी इस तकनीक का पालन करना चाहिए क्योंकि यह सभी पहलुओं में फायदेमंद हैं।”

यह सब शुरू करने से पहले, उन्हें उच्च घनता वाली खेती के बारे में सैद्धांतिक ज्ञान था, लेकिन उनके पास व्यावहारिक अनुभव नहीं था, लेकिन धीरे धीरे समय के साथ वह इसे भी प्राप्त कर रहे हैं उनके पास 2 श्रमिक हैं और उनकी सहायता से वे अपने फार्म का प्रबंधन करते हैं।

उनके विचार-
जब एक किसान खेती करना शुरू करता है तो उसे उद्योग की तरह निवेश करना शुरू कर देना चाहिए तभी वे लाभ प्राप्त कर सकते हैं। इसके अलावा आज हर किसान को मशीनीकृत होने की ज़रूरत है यदि वे खेती में कुशल होना चाहते हैं।

किसानों को संदेश-
“जब तक किसान पारंपरिक खेती करना नहीं छोड़ते तब तक वे सशक्त और स्वतंत्र नहीं हो सकते। विशेषकर वे किसान जिनके पास कम भूमि है उन्हें स्वंय पहल करनी पड़ेगी और उनहें बागबानी में निवेश करना चाहिए। उन्हें सिर्फ सही दिशा का पालन करना चाहिए।”
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रविंदर सिंह और शाहताज संधु

(ब्रॉयलर चिक फार्मिंग/चिक फीड)

कैसे संधु भाइयों ने अपने पारंपरिक आख्यान को जारी रखा और पोल्टरी के व्यवसाय को नई ऊंचाइयों तक पहुंचाया

यह कहानी सिर्फ मुर्गियों और अंडो के बारे में ही नहीं है। यह कहानी है भाइयों के दृढ़ संकल्प की, जिन्होंने अपने छोटे परिवार के उद्यम को कई बाधाओं का सामना करने के बाद एक करोड़पति परियोजना में बदल दिया।

खैर, कौन जानता था कि एक साधारण किसान- मुख्तियार सिंह संधु द्वारा शुरू किया गया पोल्टरी फार्मिंग का सहायक उद्यम उनकी अगली पीढ़ी द्वारा नए मुकाम तक पहुंचाया जायेगा।

तो, पोलटरी व्यवसाय की नींव कैसे रखी गई…

यह 1984 की बात है जब मुख्तियार सिंह संधु ने खेतीबाड़ी के साथ पोल्टरी फार्मिंग में निवेश करने का फैसला किया। श्री संधु ने वैकल्पिक आय के अच्छे स्त्रोत के रूप में मुर्गी पालन के व्यवसाय को अपनाया और परिवार की बढ़ती हुई जरूरतों को पूरा करने के लिए उन्हें खेतीबाड़ी के साथ यह उपयुक्त विकल्प लगा। उन्होंने 5000 ब्रॉयलर मुर्गियों से शुरूआत की और धीरे-धीरे समय और आय के साथ इस व्यवसाय का विस्तार किया।

उनके भतीजे का इस व्यवसाय में शामिल होना…

समय बीतने के साथ मुख्तियार सिंह ने इस व्यवसाय में अपना सर्वश्रेष्ठ दिया और अपने बच्चों को अच्छी शिक्षा दी और 1993 में उनके भतीजे रविंदर सिंह संधु (लाडी) ने अपने चाचा जी के व्यवसाय में शामिल होने और ब्रॉयलर उद्यम को नई ऊंचाइयों तक लेकर जाने का फैसला किया।

जब बर्ड फ्लू की मार मार्किट पर पड़ी और कई पोल्टरी व्यवसाय प्रभावित हुए…

2003-04 वर्ष में बर्ड फ्लू फैलने से पोल्टरी उद्योग को एक बड़ा नुकसान हुआ। मुर्गी पालकों ने अपनी मुर्गियां नदी में फेंक दी और पोल्टरी उद्यम शुरू करने की हिम्मत किसी की नहीं हुई। संधु पोल्टरी को भी इस बड़ी समस्या का सामना करना पड़ा लेकिन रविंदर सिंह संधु बहुत दृढ़ थे और वे किसी भी कीमत पर अपने व्यवसाय को शुरू करना चाहते थे। वे थोड़ा डरे हुए भी थे क्योंकि उनका कारोबार बंद हो जाएगा, लेकिन उनके दृढ़ संकल्प और लक्ष्य के बीच कुछ भी खड़ा नहीं रहा। उन्होंने बैंक से लोन लिया और मुर्गी पालन दोबारा शुरू किया।

“पोल्टरी उद्योग दोबारा शुरू करने का कारण यह था कि मेरे चाचा जी (मुख्तियार सिंह) का इस उद्योग से काफी लगाव था क्योंकि इस व्यवसाय को शुरू करने वाले वे पहले व्यक्ति थे।इसके अलावा हमारे परिवार में प्रत्येक सदस्य की शिक्षा (प्राथमिक से उच्च शिक्षा) का खर्च और परिवार के प्रत्येक सदस्य का खर्च इसी उद्यम से लिया गया। आज मेरी एक बहन कैलिफोर्निया में सरकारी अफसर के रूप में कार्यरत है। एक बहन करनाल के सरकारी हाई स्कूल में लैक्चरार है। कुछ वर्षों पहले शाहताज सिंह (रविंदर सिंह का चचेरा भाई) ने फ्लोरिडा की यूनिवर्सिटी से मकैनिकल इंजीनियरिंग में मास्टर्स पूरी की है। दोनों बेटी और बेटे की शादी का खर्च … सब कुछ पोल्टरी फार्म की आमदन से किया गया है।”

बहुत कम लोगों ने फिर से अपना पोल्टरी व्यवसाय शुरू किया और रविंदर सिंह संधु उनमें से एक थे। व्यवसाय दोबारा खड़ा करने के बाद संधु पोल्टरी फार्म जोश के साथ वापिस आए और पोल्टरी व्यवसाय से अच्छे लाभ कमाये।

व्यापार का विस्तार…

2010 तक, रविंदर ने अपने अंकल के साथ फार्म की उत्पादकता 2.5 लाख मुर्गियों तक बढ़ा दी। उसी वर्ष में, उन्होंने 40000 पक्षियों की क्षमता के साथ एक हैचरी की स्थापना की जिसमें से उन्होंने रोजाना औसतन 15000 पक्षी प्राप्त करने शुरू किए।

जब शाहताज व्यवसाय में शामिल हुए…

2012 में, अपनी पढ़ाई पूरी करने के बाद, शाहताज सिंह संधु अपने चचेरे भाई (रविंदर उर्फ लाडी पाजी) और पिता (मुख्तियार सिंह) के पोल्टरी व्यवसाय में शामिल हुए। पहले वे दूसरी कंपनियों से खरीदी गई फीड का प्रयोग करते थे लेकिन कुछ समय बाद दोनों भाई संधु पोल्टरी फार्म को नई ऊंचाइयों पर लेकर गए और संधु फीड्स की स्थापना की। संधु पोल्टरी फार्म और संधु फीड दोनों ही अधिकृत संगठन के तहत पंजीकृत हैं।

वर्तमान में उनके पास जींद रोड, असंध (हरियाणा) में स्थित, 22 एकड़ में पोल्टरी फार्म की 7-8 यूनिट, 4 एकड़ में हैचरी, 4 एकड़ में फीड प्लांट हैं और 30 एकड़ में वे फसलों की खेती करते हैं। अपने फार्म को हरे रंग के परिदृश्य और ताजा वातावरण देने के लिए उन्होंने 5000 से अधिक वृक्ष लगाए हैं। फीड प्लांट का उचित प्रबंधन 2 लोगों को सौंपा गया है और इसके अलावा पोल्टरी फार्म के कार्य के लिए 100 कर्मचारी हैं जिनमें से 40 आधिकारिक कर्मचारी हैं।

जब बात स्वच्छता और फार्म की स्थिति की आती है तो यह संधु भाइयों की कड़ी निगरानी के तहत बनाकर रखी जाती है। पक्षियों के प्रत्येक बैच की निकासी के बाद, पूरे पोल्टरी फार्म को धोया जाता है और साफ किया जाता है और उसके बाद मुर्गियों के बच्चों को ताजा और सूखा वातावरण प्रदान करने के लिए धान की भूसी की एक मोटी परत (3-3.5 इंच) ज़मीन पर फैला दी जाती है। तापमान बनाकर रखना दूसरा कारक है जो पोल्टरी फार्म को चलाने में महत्तवपूर्ण भूमिका निभाता है। इसलिए उन्होंने गर्मियों के मौसम में फार्म को हवादार बनाए रखने के लिए कूलर लगाए हुए हैं और सर्दियों के मौसम के दौरान पोल्टरी के अंदर भट्ठी के साथ ताप बनाकर रखा जाता है।

“एक छोटी सी अनदेखी से काफी बड़ा नुकसान हो सकता है इसलिए हम हमेशा मुर्गियों की स्वच्छता और स्वस्थ स्थिति बनाकर रखने को पहल देते हैं। हम सरकारी पशु चिकित्सा हस्पताल और कभी कभी विशेष पोल्टरी हस्पतालों में रेफर करते हैं जिनकी फीस बहुत मामूली है।”

मंडीकरण

पोल्टरी उद्योग में 24 वर्षों के अनुभव के साथ रविंदर संधु और 5 वर्षों के अनुभव के साथ शाहताज संधु ने अपने ही राज्य के साथ-साथ पड़ोसी राज्य जैसे पंजाब, उत्तर प्रदेश और राजस्थान में एक मजबूत मार्किटिंग नेटवर्क स्थापित किया है। वे हरियाणा, पंजाब, उत्तर प्रदेश और राजस्थान में विभिन्न डीलरों के माध्यम से और कभी कभी सीधे ही किसानों को मुर्गियां और उनके चूज़ों को बेचते हैं।

“यदि कोई पोल्टरी फार्म शुरू करने में दिलचस्पी रखता है तो उसे कम से कम 10000 पक्षियों के साथ इसे शुरू करना चाहिए शुरूआत में यह लागत 200 रूपये प्रति पक्षी और एक पक्षी तैयार करने के लिए 130 रूपये लगते हैं। आपका खर्चा लगभग 30 -35 लाख के बीच होगा और यदि फार्म किराये पर है तो 10000 पक्षियों के बैच के लिए 13-1400000 लगते हैं – यह संधु भाइयों का कहना है।”

भविष्य की योजनाएं

“फार्म का विस्तार करना और अधिक पक्षी तैयार करना हमारी चैकलिस्ट में पहले से ही है लेकिन एक नई चीज़ जो हम भविष्य में करने की योजना बना रहे हैं वो है पोल्टरी के उत्पादों की फुटकर बिक्री के उद्योग में निवेश करना।”
भाईचारे के अपने अतुल मजबूत बंधन के साथ दोनों भाई अपने परिवार के व्यवसाय को नई ऊंचाइयों पर ले गए हैं और वे इसे भविष्य में भी जारी रखेंगे।

संदेश
पोल्टरी व्यवसाय आय का एक अच्छा वैकल्पिक स्त्रोत है जिसमें किसानों को निवेश करना चाहिए यदि वे खेती के साथ अच्छा लाभ कमाना चाहते हैं। कुछ चीज़ें हैं जो हर पोल्टरी किसान को ध्यान में रखनी चाहिए यदि वे अपने पोल्टरी के कारोबार को सफलतापूर्वक चलाना चाहते हैं जैसे -स्वच्छता, तापमान बनाकर रखना और अच्छी गुणवत्ता वाले मुर्गी के चूज़े और फीड।
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जगदीप सिंह

(पर्यावरण प्रेमी)

जानें कैसे इस किसान की व्यावहारिक पहल ने पंजाब को पराली जलाने के लिए ना कहने में मदद की

पराली जलाना और कीटनाशकों का प्रयोग करना पुरानी पद्धतियां हैं जिनका पर्यावरण पर हानिकारक प्रभाव आज हम देख रहे हैं। पंजाब और हरियाणा में पराली जलाने के कारण भारत के उत्तरी भागों को वायु प्रदूषण में भारी वृद्धि का सामना करना पड़ रहा है। पिछले कई वर्षों में वायु की गुणवत्ता खराब हो गई है और यह कई गंभीर श्वास और त्वचा की समस्याओं को जन्म दे रही है।

हालांकि सरकार ने पराली जलाने की समस्या को रोकने के लिए कई प्रमुख कदम उठाए हैं फिर भी वे किसानों को पराली जलाने से रोक नहीं पा रहे। किसानों में ज्ञान और जागरूकता की कमी के कारण पंजाब में पराली जलाना एक बड़ा मुद्दा बन रहा है। लेकिन एक ऐसे किसान जगदीप सिंह ने ना केवल अपने क्षेत्र में पराली जलाने से किसानों को रोका बल्कि उन्हें जैविक खेती की तरफ प्रोत्साहित किया।

जगदीप सिंह पंजाब के संगरूर जिले के एक उभरते हुए किसान हैं। अपनी मातृभूमि और मिट्टी के प्रति उनका स्नेह बचपन में ही बढ़ गया था। मिट्टी प्रेमी के रूप में उनकी यात्रा उनके बचपन से ही शुरू हुई। जन्म के तुरंत बाद उनके चाचा ने उन्हें गोद लिया जिनका व्यवसाय खेतीबाड़ी था। उनके चाचा उन्हें शुरू से ही फार्म पर ले जाते थे और इसी तरह खेती की दिशा में जगदीप की रूचि बढ़ गई।

बढ़ती उम्र के साथ उनका दिमाग भी विकासशील रहा और पढ़ाई पूरी करने के बाद उन्होंने प्राथमिकता खेती को ही दी। अपनी 10वीं कक्षा पूरी करने के बाद उन्होंने पढ़ाई छोड़ने का फैसला किया और खेती में अपने पिता मुख्तियार सिंह की मदद करनी शुरू की। खेती के प्रति उनकी जिज्ञासा दिन प्रतिदिन बढ़ रही थी, इसलिए अपनी जरूरतों को पूरी करने के लिए उन्होंने 1989 से 1990 के बीच उन्होंने पी ए यू का दौरा किया। पी ए यू का दौरा करने के बाद जगदीप सिंह को पता चला कि उनकी खेती की मिट्टी का बुनियादी स्तर बहुत अधिक है जो कई मिट्टी और फसलों के मुद्दे को जन्म दे रहा है और मिट्टी को अधिक उपजाऊ बनाने के लिए दो ही उपाय थे या तो रूड़ी की खाद का प्रयोग करना या खेतों में हरी खाद का प्रयोग करना।

इस समस्या का निपटारा करने के लिए जगदीप एक अच्छे समाधान के साथ आये क्योंकि रूड़ी की खाद में निवेश करना उनके लिए महंगा था। 1990 से 1991 के बीच उन्होंने पी ए यू के समर्थन से happy seeder का प्रयोग करना शुरू किया। happy seeder के प्रयोग से वे खेत में से धान की पराली को बिना निकाले मिट्टी में बीजों को रोपित करने के योग्य हुए। उन्होंने अपने खेत में मिट्टी की उपजाऊ शक्ति को बढ़ाने के लिए धान की पराली को खाद के रूप में प्रयोग करना शुरू किया। धीरे-धीरे जगदीप ने अपनी इस पहल में 37 किसानों को इकट्ठा किया और उन्हें happy seeder प्रयोग करने के लिए प्रोत्साहित किया और पराली जलाने से परहेज करने को कहा। उन्होंने इस अभियान को पूरे संगरूर में चलाया जिसके तहत उन्होंने 350 एकड़ से अधिक ज़मीन को कवर किया।

2014 में मैंने IARI (Indian Agricultural Research Institute) से पुरस्कार प्राप्त किया और उसके बाद मैनें अपने गांव में ‘Shaheed Baba Sidh Sweh Shaita Group’ नाम का ग्रुप बनाया। इस ग्रुप के तहत हम किसानों को हवा प्रदूषण की समस्याओं से निपटने के लिए, पराली ना जलाने के लिए प्रोत्साहित करते हैं।

इन दिनों वे 40 एकड़ की भूमि पर खेती कर रहे हैं जिसमें से 32 एकड़ भूमि उन्होंने किराये पर दी है और 4 एकड़ की भूमि पर वे जैविक खेती कर रहे हैं और बाकी की भूमि पर वे बहुत कम मात्रा में कीटनाशकों का प्रयोग करते हैं। उनका मुख्य मंतव जैविक की तरफ जाना है। वर्तमान में वे अपने पिता, माता, पत्नी और दो बेटों के साथ कनोई गांव में रह रहे हैं।

जगदीप सिंह के व्यक्तित्व के बारे में सबसे आकर्षक चीज़ यह है कि वे बहुत व्यावहारिक हैं और हमेशा खेतीबाड़ी के बारे में नई चीज़ें सीखने के लिए इच्छुक रहते हैं। वे पशु पालन में भी बहुत दिलचस्पी रखते हैं और घर के उद्देश्य के लिए उनके पास 8 भैंसे हैं। वे भैंस के दूध का प्रयोग सिर्फ घर के लिए करते हैं और कई बार इसे अपने पड़ोसियों या गांव वालों को भी बेचते हैं खेतीबाड़ी और दूध की बिक्री से वह अपने परिवार के खर्चों को काफी अच्छे से संभाल रहे हैं और भविष्य में वे अच्छे मुनाफे के लिए अपनी उत्पादकता की मार्किटिंग शुरू करना चाहते हैं।

संदेश
दूसरे किसानों के लिए जगदीप सिंह का संदेश यह है कि उन्हें अपने बच्चों को खेती के बारे में सिखाना चाहिए और उनके मन में खेती के बारे में नकारात्मक विचार ना डालें अन्यथा वे अपने जड़ों के बारे में भूल जाएंगे।
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लवप्रीत सिंह

(हल्दी प्रसंस्करण)

कैसे इस B.Tech ग्रेजुएट युवा की बढ़ती हुई दिलचस्पी ने उसे कृषि को अपना फुल टाइम रोज़गार चुनने के लिए प्रेरित किया

मिलिए लवप्रीत सिंह से, एक युवा जिसके हाथ में B.Tech. की डिग्री के बावजूद उसने डेस्क जॉब और आरामदायक शहरी जीवन जीने की बजाय गांव में रहकर कृषि से समृद्धि हासिल करने को चुना।

संगरूर के जिला हैडक्वार्टर से 20 किलोमीटर की दूरी पर भवानीगढ़ तहसील में स्थित गांव कपियाल जहां लवप्रीत सिंह अपने पिता, दादा जी, माता और बहन के साथ रहते हैं।

2008-09 में लवप्रीत ने कृषि क्षेत्र में अपनी बढ़ती दिलचस्पी के कारण केवल 1 एकड़ की भूमि पर गेहूं की जैविक खेती शुरू कर दी थी, बाकी की भूमि अन्य किसानों को दे दी थी। क्योंकि लवप्रीत के परिवार के लिए खेतीबाड़ी आय का प्राथमिक स्त्रोत कभी नहीं था। इसके अलावा लवप्रीत के पिता जी, संत पाल सिंह दुबई में बसे हुए थे और उनके पास परिवार की जरूरतों को पूरा करने के लिए अच्छी नौकरी और आय दोनों ही थी।

जैसे ही समय बीतता गया, लवप्रीत की दिलचस्पी और बढ़ी और उनकी मातृभूमि ने उन्हें वापिस बुला लिया। जल्दी ही अपनी डिग्री पूरी करने के बाद उन्होंने खेती की तरफ बड़ा कदम उठाने के बारे में सोचा। उन्होंने पंजाब एग्रो (Punjab Agro) द्वारा अपनी भूमि की मिट्टी की जांच करवायी और किसानों से अपनी सारी ज़मीन वापिस ली।

अगली फसल जिसकी लवप्रीत ने अपनी भूमि पर जैविक रूप से खेती की वह थी हल्दी और साथ में उन्होंने खुद ही इसकी प्रोसेसिंग भी शुरू की। एक एकड़ पर हल्दी और 4 एकड़ पर गेहूं-धान। लेकिन लवप्रीत के परिवार द्वारा पूरी तरह से जैविक खेती को अपनाना स्वीकार्य नहीं था। 2010 में जब उनके पिता दुबई से लौट आए तो वे जैविक खेती के खिलाफ थे क्योंकि उनके विचार में जैविक उपज की कम उत्पादकता थी लेकिन कई आलोचनाओं और बुरे शब्दों में लवप्रीत के दृढ़ संकल्प को हिलाने की शक्ति नहीं थी।

अपनी आय को बढ़ाने के लिए लवप्रीत ने गेहूं की बजाये बड़े स्तर पर हल्दी की खेती करने का फैसला किया। हल्दी की प्रोसेसिंग में उन्होंने कई मुश्किलों का सामना किया क्योंकि उनके पास इसका कोई ज्ञान और अनुभव नहीं था। लेकिन अपने प्रयासों और माहिर की सलाह के साथ वे कई मुश्किलों को हल करने के काबिल हुए। उन्होंने उत्पादकता और फसल की गुणवत्ता बढ़ाने के लिए गाय और भैंस के गोबर को खाद के रूप में प्रयोग करना शुरू किया।

परिणाम देखने के बाद उनके पिता ने भी उन्हें खेती में मदद करना शुरू कर दिया। यहां तक कि उन्होंने पंजाब एग्रो से भी हल्दी पाउडर को जैविक प्रमाण पत्र प्राप्त करने के लिए संपर्क किया और इस वर्ष के अंत तक उन्हें यह प्राप्त हो जाएगा। वर्तमान में वे सक्रिय रूप से हल्दी की खेती और प्रोसेसिंग में शामिल हैं। जब भी उन्हें समय मिलता है, वे PAU का दौरा करते हैं और यूनीवर्सिटी के माहिरों द्वारा सुझाई गई पुस्तकों को पढ़ते हैं ताकि उनकी खेती में सकारात्मक परिणाम आये। पंजाब एग्रो उन्हें आवश्यक जानकारी देकर भी उनकी मदद करता है और उन्हें अन्य प्रगतिशील किसानों के साथ भी मिलाता है जो जैविक खेती में सक्रिय रूप से शामिल हैं। हल्दी के अलावा वे गेहूं, धान, तिपतिया घास (दूब), मक्की, बाजरा की खेती भी करते हैं लेकिन छोटे स्तर पर।

भविष्य की योजनाएं:
वे भविष्य में हल्दी की खेती और प्रोसेसिंग के काम का विस्तार करना चाहते हैं और जैविक खेती कर रहे किसानों का एक ग्रुप बनाना चाहते हैं। ग्रुप के प्रयोग के लिए सामान्य मशीनें खरीदना चाहते हैं और जैविक खेती करने वाले किसानों का समर्थन करना चाहते हैं।

संदेश

एक संदेश जो मैं किसानों को देना चाहता हूं वह है पर्यावरण को बचाने के लिए जैविक खेती बहुत महत्तवपूर्ण है। सभी को जैविक खेती करनी चाहिए और जैविक खाना चाहिए, इस प्रकार प्रदूषण को भी कम किया जा सकता है।
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मनि कलेर

(फूलों की खेती)

कैसे फूलों की बिखर रही खुशबू ने पंजाब में संभावित फूलों की खेती के एक नए केंद्र को स्थापित किया

फूलों की खेती में निवेश एक बढ़िया तरक्की का विकल्प है जिसमें किसान अधिक रूचि ले रहे हैं। कई सफल पुष्पहारिक हैं जो ग्लैडियोलस, गुलाब, गेंदे और कई अन्य फूलों की सुगंध बिखेर रहे हैं और पंजाब में संभावित फूलों की खेती के एक नए केंद्र का निर्माण कर रहे हैं। एक पुष्पवादी जो फूलों और सब्जियों के व्यापार से अधिक लाभ कमा रहे हैं, वे हैं – मनि कलेर

अन्य ज़मींदारों की तरह, कलेर परिवार अपनी ज़मीन अन्य किसानों को किराये पर देने के लिए उपयोग करता था और एक छोटे से ज़मीन के टुकड़े पर वे घरेलु प्रयोजन के लिए गेहूं और धान का उत्पादन करते थे। लेकिन जब मनि कलेर ने अपनी शिक्षा पूरी की तो उन्होंने बागबानी के व्यवसाय में कदम रखने का फैसला किया। मनि ने भूमि का आधा हिस्सा (20 एकड़) वापिस ले लिया जो उन्होंने किराये पर दिया था और उस पर खेती करनी शुरू की।

कुछ समय बाद, एक रिश्तेदार की सहायता से, मनि को RTS Flower व्यापार के बारे में पता चला जो कि गुरविंदर सिंह सोही द्वारा सफलतापूर्वक चलाया जाता है। इसलिए RTS Flower के मालिक से प्रेरित होने के बाद मनि ने अंतत: अपना फूलों का उद्यम शुरू कर दिया और पेटुनिया, बारबिना ओर मेस्टेसियम आदि जैसे पांच से छ: प्रकार के फूलों को उगाना शुरू किया।

शुरूआत में उन्होंने कॉन्ट्रेक्ट फार्मिंग में भी कोशिश की लेकिन कॉन्ट्रेक्टड कंपनी के साथ एक कड़वे अनुभव के बाद उन्होंने उनसे अलग होने का फैसला किया।

फूलों की खेती के दूसरे वर्ष में उन्होंने गुरविंदर सिंह सोही से 1 लाख रूपये के बीज खरीदे। उन्होंने 2 कनाल में ग्लेडियोलस की खेती शुरू की और आज 2 वर्ष बाद उन्होंने 5 एकड़ में फार्म का विस्तार किया है।

वर्तमान में वे 20 एकड़ की भूमि पर खेती कर रहे हैं जिसमें से वे 4 एकड़ का प्रयोग सब्जियों की लो टन्नल फार्मिंग के लिए कर रहे हैं जिसमें वे करेला, कद्दू, बैंगन, खीरा, खरबूजा, लहसुन (1/2 एकड़) और प्याज (1/2 एकड़) उगाते हैं। घरेलु उद्देश्य के लिए वे धान और गेहूं उगाते हैं। कुछ समय से उन्होंने प्याज के बीज तैयार करना भी शुरू किया है।

कड़ी मेहनत और विविध खेती तकनीक के कारण उनकी आय में वृद्धि हुई है। अब तक उन्होंने सरकार से कोई सब्सिडी नहीं ली। वे संपूर्ण मार्किटिंग का अपने दम पर प्रबंधन करते हैं और फूलों को दिल्ली और कुरूक्षेत्र की मार्किट में बेचते हैं। हालांकि वे सब्जियों और फूलों की खेती के व्यवसाय से अच्छा लाभ कमा रहे हैं लेकिन फिर भी उन्हें फूलों की खेती में कुछ समस्याएं आती हैं लेकिन वे अपनी उम्मीद को कभी नहीं खोने देते और हमेशा मजबूत दृढ़ संकल्प के साथ अपना काम जारी रखते हैं।

मनि के परिवार ने हमेशा उनका समर्थन किया और कृषि क्षेत्र में जो वे करना चाहते हैं उसे करने से कभी नहीं रोका। वर्तमान में वे अपने पिता मदन सिंह और बड़े भाई राजू कलेर के साथ अपने गांव संगरूर जिले के राय धरियाना गांव में रह रहे हैं। दूध के प्रयोजन के लिए उन्होंने 7 गायें और 2 मुर्रा भैंसे रखी हैं। वे पशुओं की देखभाल और फीड के साथ कभी समझौता नहीं करते। वे जैविक रूप से उगाए धान, गेहूं और चारे की फसलों से स्वंय फीड तैयार करते हैं। अतिरिक्त समय में वे गन्ने के रस से गुड़ बनाते हैं और गांव वालों को बेचते हैं।

भविष्य की योजना:

भविष्य में वे अपने, फूलों की खेती के उद्यम का विस्तार करने की योजना बना रहे हैं।

संदेश

आजकल के किसान धान और गेहूं के पारंपरिक चक्र में फंसे हुए हैं। उन्हें सोचना शुरू करना चाहिए और इस चक्र से बाहर निकलकर काम करना चाहिए यदि वे अच्छा कमाना चाहते हैं।
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शेर बाज सिंह संधु

(डेरी उद्योग)

शेरबाज़ सिंह संधु, भैंस की सर्वश्रेष्ठ नसल – मुर्रा, के साथ पंजाब में सफेद क्रांति ला रहे हैं

यह कहानी है एक ऐसे व्यक्ति की जिसने पशु पालन में अपनी दिलचस्पी को जारी रखा और इसे एक सफल डेयरी बिज़नेस – लक्ष्मी डेयरी फार्म में बदला।

कई अन्य किसानों के विपरीत, शेर बाज सिंह संधु ने निजी और सार्वजनिक क्षेत्रों में नौकरी ढूंढने की बजाय अपना दिमाग काफी छोटी उम्र में ही पशु पालन की तरफ मोड़ लिया था। पशु पालन में उनकी दिलचस्पी का मुख्य कारण उनकी माता -हरपाल कौर संधु थी।

शेर बाज सिंह संधु को पशु पालन की तरफ झुकाव की प्रेरणा उनकी मां के परिवार की ओर से मिली। काफी समय पहले शेर बाज सिंह संधु जी के नाना जी को सर्वोत्तम नसल के पशु पालने का शौंक था और यही शौंक शादी के बाद उनकी बेटी ने भी अपनाया और इसी शौंक को देखते हुए शेर बाज सिंह संधु का झुकाव पशु पालन की तरफ हुआ।
2002 में श्रीमती हरपाल कौर का निधन हो गया। हां, यह श्री संधु के लिए बहुत दुखद क्षण था, लेकिन अपनी माता की मृत्यु के बाद उन्हें एक बेहतर तरीके से पशु पालन करने की प्रेरणा मिली और तब उन्होंने पशु पालन व्यापार में प्रवेश करने का फैसला किया। श्री संधु ने पुराने पशुओं को बेच दिया और हरियाणा के एक क्षेत्र से 52000 रूपये में मुर्रा नसल की एक नई भैंस को खरीदा। उस समय वह भैंस 15-16 किलो दूध प्रतिदिन देती थी।
2003 में उन्होंने उसी नसल की एक नई भैंस 80000 रूपये में खरीदी और यह भैंस उस समय 25 किलो दूध देती थी।

फिर 2004 में उन्होंने पूरे परिवार की जांच करते हुए 75000 रूपये में भैंस के एक कटड़े को खरीदा (उसकी मां 20 किलो दूध देती थी और उसने इसके लिए एक पुरस्कार भी जीता था)।

और इस तरह उन्होंने अपने फार्म में भैंसों की नसल को सुधारा और अपने फार्म पर अच्छी गुणवत्ता वाली भैंसो की संख्या में वृद्धि की।

एक बार, उनकी भैंस लक्ष्मी ने मुक्तसर मेले में सर्वश्रेष्ठ नस्ल चैंपियनशिप का खिताब जीता और उसके बाद से ही उन्होंने अपने फार्म का नाम – “लक्ष्मी डेयरी फार्म” रख दिया।

ना केवल लक्ष्मी बल्कि कई अन्य भैंस और सांड हैं जैसे धन्नो, रानी, सिकंदर जिन्होंने श्री शेर बाज सिंह को गर्व महसूस करवाया और किसान मेलों और दूध उत्पादन और नसल चैंपियनशिप में बार-बार पुरस्कार जीतकर सारे रिकॉर्ड भी तोड़ दिए।

उनके कुछ पुरस्कार और उपलब्धियों का उल्लेख नीचे दिया गया है:
• लक्ष्मी डेयरी फार्म में भैंस के दूध के लए राष्ट्रीय रिकॉर्ड हैं।
• शेर बाज सिंह को मुख्यमंत्री प्रकाश सिंह बादल द्वारा “State Award for excellent services in Dairy Farming” पुरस्कार से सम्मानित किया गया।
• उनकी भैंस आठवें राष्ट्रीय पशुधन चैंपियनशिप में पहले स्थान पर आई।
• माघी मेले में सरदार गुलज़ार सिंह द्वारा सम्मानित किया गया।
• उनकी भैंस ने 2008 में मुक्तसर में दूध उत्पादन प्रतियोगिता में पहला पुरस्कार जीता।
• 2008 में PDFA मेले में उनकी भैंस ने पहला पुरसकार जीता।
• 2015 में उनकी भैंस धन्नों ने 25 किलो दूध देकर सारे रिकॉर्ड तोड़ दिए।
• जनवरी 2016 में मुक्तसर मेले में उनकी मुर्रा भैंस ने सभी पुरस्कार जीते।
• उनके सांड सिकंदर ने मुक्तसर मेले में दूसरा पुरस्कार जीता।
• रानी भैंस ने 26 किलो 357 ग्राम दूध देकर एक नया रिकॉर्ड बनाया और पहला पुरस्कार जीता।
• धन्नो भैंस ने 26 किलो दूध दिया और उसी प्रतियोगिता में दूसरे स्थान पर आई।
• उनके कई लेख, अखबार में advisory magazine में प्रकाशित किए गए हैं।

आज, उनके पास 1 एकड़ में फैले उनके फार्म में कुल 50 भैंसे हैं और वे सारा दूध शहर के कई दुकानों में बेचते हैं। श्री संधु स्वंय चारा उगाना पसंद करते हैं, उनके पास कुल 40 एकड़ भूमि हैं जिसमें वे गेहूं, धान और चारा उगाते हैं।

श्री संधु का बेटा – बरिंदर सिंह संधु जो पेशे से वकील हैं और उनकी पत्नी कुलविंदर कौर संधु, लक्ष्मी डेयरी फार्म के प्रबंधन में बहुत सहायक हैं। उनके बेटे ने फार्म के नाम पर एक फेसबुक पेज बनाया है जिसमें कि उनके साथ 3.5 लाख के करीब लोग जुड़े हैं और वे 2022-23 तक इस संख्या को बढ़कार 10 लाख करना चाहते हैं क्योंकि उनके फार्म की लोकप्रियता इतनी है कि, कई लोग यहां तक कि विदेशों से भी आकर उनसे भैंसों को खरीदते हैं।

श्री संधु हमेशा किसानों की पशु पालन में सहायता करते हैं और इसमें प्रगति के लिए प्रेरित करते हैं। वे किसानों को अच्छी गुणवत्ता वाला सीमेन (वीर्य) और दूध भी प्रदान करते हैं।

भविष्य की योजनाएं: उनके भविष्य की योजना है कि फार्म के क्षेत्र को बढ़ाना और सिर्फ अच्छी गुणवत्ता वाली भैंसों को रखना और अच्छी गुणवत्ता वाला सीमेन और दूध किसानों को उपलब्ध करवाना।

संदेश:

आजकल के किसानों की स्थानीय नसलों की बजाय विदेशी नसलों के पालन में अधिक रूचि है। उन्हें लगता है कि विदेशी नसलें उन्हें अधिक लाभ दे सकती हैं पर यह सच नहीं है। क्योंकि विदेशों नसलों को एक अलग जलवायु और परिस्थितियों की जरूरत होती है जो कि भारत में संभव नहीं है। इसके अलावा, विदेशी नसल के पालन में स्थानीय नसल की तुलना में अधिक खर्चे की आवश्यकता होती है। जिसके लिए साधारण किसान प्रबंधन करने में सक्षम नहीं होते। जिसके कारण कुछ समय बाद किसान स्थानीय नसलों को पालने लग जाते हैं या फिर वे पूरी तरह से पशु पालन के कार्य को बंद कर देते हैं।
किसानों को यह समझना चाहिए कि अब भारत में अच्छी नसलें उपलब्ध हैं जो प्रतिदिन 20-25 किलो दूध का उत्पादन कर सकती हैं। किसानों को खेती के साथ-साथ पशु पालन व्यवसाय का चयन करना चाहिए क्योंकि यह आय बढ़ाने में मदद करता है। इस तरह किसान बेरोजगारी की समस्या से निपट सकते हैं और भारत पशु पालन में प्रगति कर सकता है।
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भूपिंदर सिंह बरगाड़ी

(गन्ने की प्रोसेसिंग)

जानें कैसे एक बेटे ने अपने पिता के कदमों पर चलकर उनके गुड़ व्यापार को महान स्तर तक पहुंचाया

यह कहानी है- कैसे एक बेटे (भूपिंदर सिंह बरगाड़ी) ने अपने पिता (सुखदेव सिंह बरगारी) के व्यवसाय को समृद्ध तरीके से चलाया और वह पंजाब में गुड़ के प्रसिद्ध ब्रांड – BARGARI के नाम से आया।

एक समय था जब निकाले गए गन्ने के रस से गुड़ बनाने के लिए बैल का प्रयोग किया जाता था। लेकिन समय के साथ इस कार्य के लिए मशीनों का प्रयोग होने लगा। इसके अलावा गुड़ बनाने के लिए रासायनिक और रंग का प्रयोग होने के कारण इस स्वीटनर ने अपना सारा आकर्षण खो दिया और धीर धीरे लोग सफेद चीनी की तरफ आकर्षित होने लग गए।

लेकिन फिर भी कई परिवार चीनी की बजाय गुड़ को पसंद करते हैं और वे गन्ने के रस से गुड़ बनाने के लिए रवायिती ढंग का प्रयोग करते हैं। यह कहानी है सुखदेव सिंह बरगारी और उनके पुत्र भूपिंदर सिंह बरगाड़ी की। 1972 में सुखदेव सिंह औज़ारों और किसानों के उपकरणों को तीखा करने का काम करते थे और बदले में वे अनाज, सब्जियां या जो कुछ भी किसान उन्हें देते थे, वे मजदूरी के रूप में ले लेते थे। कुछ समय बाद उन्होंने ने एक इंजन खरीदा और इससे गुड़ बनाना शुरू किया। गुड़ निकालने के उनके शुद्ध पारंपरिक ढंग और बिना किसी रसायन का प्रयोग करके बनाए गुड़ ने उन्हें प्रसिद्ध कर दिया और कई गांव वालों ने उन्हें गुड़ बनाने के लिए गन्ने की फसल देनी शुरू कर दी। सुखदेव मुख्य रूप से इस काम को नवंबर से लेकर मार्च तक करते थे।

एक समय ऐसा आया जब सुखदेव की मेहनत रंग लायी और उनके गुड़ की मांग कई गुना बढ़ गई। यह 2011 की बात है जब उनकी बेटी की शादी थी। उस समय उन्होंने सभी रिश्तेदारों और मित्रों को शादी के निमंत्रण कार्डों के साथ गुड़, देसी घी और कई सारे मेवे से बनी हुई मिठाई वितरित की। हर किसी को वह मिठाई बहुत पसंद आई और उन्होंने इसे उनके लिए बनाने की मांग सुखदेव सिंह से की और उस समय उनके बेटे भूपिंदर सिंह ने अपने पिता के काम को करने और इसे एक उच्च स्तर तक विस्तृत करने का फैसला किया। इस घटना के बाद पिता पुत्र दोनों ने दो तरह के गुड बनाना शुरू किया एक मेवों के साथ और दूसरा बिना मेवे के।

बरगाड़ी परिवार के गन्ने के रस को साफ करने के लिए भिंडी की लेस के इस्तेमाल के पारंपरिक ढंग ने उनके गुड़ को, रसायनों और रंग का प्रयोग करके तैयार किए गए गुड़ से बेहतर बनाया। गुड़ बनाने के इस शुद्ध और साफ ढंग ने सुखदेव सिंह और भूपिंदर सिंह को प्रसिद्ध बना दिया और लोग उन्हें उनके काम से पहचानने लगे।

भूपिंदर सिंह सिर्फ अपने पिता के नक्शे कदम पर ही नहीं चले बल्कि उनके पास B.Ed. और MA की डिग्री थी और उसके बाद उन्होंने ETT Teacher Exam को भी पास किया और वे स्कूल टीचर के रूप में भी काम करते हैं और अपने पेशे से फ्री होने पर वे हर रोज गुड़ बनाने के लिए समय भी निकालते हैं।

इस पारंपरिक स्वीटनर को और अधिक लोकप्रिय बनाने के लिए, भूपिंदर ने 2 एकड़ क्षेत्र में गन्ने की C085 किस्म भी उगानी शुरू की और एक ग्रुप भी बनाया जिसमें वे ग्रुप के किसान सदस्यों को गन्ना उगाने के लिए प्रेरित भी करते हैं। भूपिंदर सिंह के इस कदम का परिणाम यह हुआ कि गन्ने की उतनी ही खेती की जाती थी जितनी की आवश्यक थी। जिसके परिणामस्वरूप किसानों को भी अधिक लाभ मिला और उसके साथ साथ बरगारी परिवार को भी फायदा हुआ।

पिछले 5 वर्षों से बरगारी परिवार द्वारा उत्पादित गुड़ ने PAU द्वारा आयोजित प्रतियोगिता में 4 बार पहला पुरस्कार जीता है और एक बार दूसरा पुरस्कार जीता है। 2014 में अच्छी गुणवत्ता वाले गुड़ के लिए उद्यमी किसान राज्य पुरस्कार (Udami Kisan State Award) भी जीता। भूपिंदर सिंह लखनऊ भी गए जहां उन्होंने अपनी मंडीकरण की तकनीकों के बारे में राष्ट्रीय गुड़ सम्मेलन (National Jaggery Sammelan) में चर्चा की। उन्होंने गुड़ की मार्किटिंग के लिए जागरूकता फैलाने का प्रयास ही नहीं किया बल्कि किसानों को मार्किटिंग की तकनीकों के बारे में जागरूक करवाने के लिए मार्च में आयोजित PAU सम्मेलन में भाग भी लिया।

अपना प्रोसेसिंग प्लांट स्थापित करना…

गुड़ प्रोसेसिंग प्लांट

वर्तमान में, कोटकपुरा – बठिंडा रोड पर उनका अपना गुड़ प्रोसेसिंग प्लांट है जहां पर वे अपने पारंपरिक ढंग से शुद्ध गुड़ बनाते हैं। गुड़ और शक्कर की मांग सर्दियों में ज्यादा बढ़ जाती है क्योंकि शुद्ध गुड़ से बनी चाय के सेहत पर कोई हानिकारक प्रभाव नहीं होते। यहां तक कि उस क्षेत्र के गैस्ट्रोएंटरोलॉजी (पेट के डॉक्टर) के विशेषज्ञ भी अपने मरीज़ों को बरगारी परिवार द्वारा बनाया गया गुड़ खाने की सलाह देते हैं।

अनाज की फसलों का प्रोसेसिंग प्लांट

इसके अलावा भूपिंदर सिंह के पास उसी स्थान पर अनाज का प्रोसेसिंग प्लांट भी है जहां पर वे सेल्फ हेल्प ग्रुप द्वारा उगाए गए गेहूं, मक्की, जौं, ज्वार और सरसों की प्रोसेसिंग करते हैं। प्रोसेसिंग प्लांट के साथ साथ उन्होंने एक स्टोर भी खोला है जहां पर वे अपने प्रोसेसिंग किए उत्पादों को बेचते हैं।

ब्रांड नाम कैसे दिया गया:

अपने गुड़ की डॉक्टरों द्वारा सिफारिश किए जाने के बारे में जानकर वे बहुत प्रभावित हुए और उन्होंने अपने ब्रांड का नाम “बरगाड़ी गुड़” रखने का फैसला किया।

भूपिंदर का “बरगाड़ी गुड़” के नाम से फेसबुक पेज भी है जिसके माध्यम से वे अपने आदर्श ग्राहकों के साथ विचार विमर्श करते हैं उन्होंने फेसबुक पेज के माध्यम से गुड़ बनाने की पूरी प्रक्रिया पर भी चर्चा की है।

वे हमेशा अपने व्यवसाय में सकारात्मक बदलाव लाने के लिए एग्रीकल्चर यूनिवर्सिटी के फूड टैक्नोलोजी और फूड प्रोसेसिंग और इंजीनियरिंग विभागों के साथ लगातार संपर्क बनाए रखते हैं।

आज, जो कुछ भी भूपिंदर सिंह ने अपने जीवन में हासिल किया है उसका सारा श्रेय वे अपने पिता श्री सुखदेव सिंह बरगाड़ी को देते हैं। सफल व्यवसाय चलाने के अलावा, भूपिंदर सिंह बरगाड़ी एक अच्छे शिक्षक भी हैं और फरीदकोट जिले के कोठे कहर सिंह गांव के लोगों और बच्चों की मदद कर रहे हैं। उनके अच्छे कार्यो के बारे में कई लेख, स्थानीय समाचार पत्रों में प्रकाशित किए गए हैं। वह ना केवल किसानों की मदद करना चाहते हैं बल्कि अपने काम और ज्ञान से लोगों को प्रेरित करना चाहते हैं और उनकी सहायता भी करना चाहते हैं।

खैर, पिता-पुत्र की यह जोड़ी सफलतापूर्वक काम कर रही है और सिर्फ दोनों के बीच की समझ के कारण ही इस स्तर तक पहुंची है। भविष्य में भी भूपिंदर सिंह बरगाड़ी अपने इस अच्छे काम को जारी रखेंगे और यूवा पीढ़ी के किसानों को अपने ज्ञान से प्रेरित करेंगे।

संदेश


मैं चाहता हूं कि किसान खेती के साथ फूड प्रोसेसिंग व्यवसाय में भी शामिल हों। इस तरीके से वे अपने व्यवसाय में अच्छा लाभ कमा सकते हैं। आज, किसानों को आधुनिक कृषि पद्धतियों के साथ अपडेट रहने की जरूरत है तभी वे आगे बढ़ सकते हैं और अपने क्षेत्रों में अच्छा प्रदर्शन कर सकते हैं।

 

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करमजीत कौर दानेवालिया

(किन्नुओं की खेती)

कैसे एक महिला ने शादी के बाद अपने खेती के प्रति जुनून को पूरा किया और आज सफलतापूर्वक इस व्यवसाय को चला रही है

आमतौर पर भारत में जब बेटियों की शादी कर दी जाती है और उन्हें अपने पति के घर भेज दिया जाता है तो वे शादी के बाद अपनी ज़िंदगी में इतनी व्यस्त हो जाती हैं कि वे अपनी रूचि और अपने शौंक के बारे में भूल ही जाती हैं। वे घर की चारदिवारी में बंध कर रह जाती हैं। लेकिन एक ऐसी महिला हैं – श्री मती करमजीत कौर दानेवालिया । जिसने शादी के बाद भी अपने जुनून को आगे बढ़ाया । घर में रहने की बजाय उन्होंने घर के बाहर कदम रखा और बागबानी के अपने शौंक को पूरा किया।

श्री मती करमजीत कौर दानेवालिया एक ऐसी महिला है जिन्होंने एक छोटे से गांव के एक ठेठ पंजाबी किसान के परिवार में जन्म लिया। खेती की पृष्ठभूमि से होने पर श्री मती करमजीत हमेशा खेती के प्रति आकर्षित थी और खेतों में अपने पिता की मदद करने में भी रूचि रखती थी। लेकिन शादी से पहले उन्हें कभी खेती में अपने पिता की मदद करने का मौका नहीं मिला।

जल्दी ही उनकी शादी एक बिजनेस क्लास परिवार के श्री जसबीर सिंह से हो गई। उन्होंने कभी नहीं सोचा था कि शादी के बाद उन्हें अपने सपनों को पूरा करने और इन्हें अपने व्यवसाय के रूप में करने का अवसर मिलेगा। शादी के कुछ वर्ष बाद 1975 में अपने पति के समर्थन से उन्होंने फलों का बाग लगाने का फैसला किया और अपनी दिलचस्पी को एक मौका दिया। लेवलर मशीन और मजदूरों की सहायता से, उन्होंने 45 एकड़ की भूमि को समतल किया और इसे बागबानी करने के लिए तैयार किया। उन्होंने 20 एकड़ की भूमि पर किन्नू उगाए और 10 एकड़ की भूमि पर आलूबुखारा, नाशपाति, आड़ू, अमरूद, केला आदि उगाए और बाकी की 5 एकड़ भूमि पर वे सर्दियों में गेहूं और गर्मियों में कपास उगाती हैं।

उनका शौंक जुनून में बदल गया और उन्होंने इसे जारी रखने का फैसला किया। 1990 में उन्होंने एक तालाब बनाया और इसमें बारिश के पानी को स्टोर किया। वे इससे बाग की सिंचाई करती थी। लेकिन उसके बाद उन्होंने इसमें मछली पालन शुरू किया और इसे दोनों मंतवों मछली पालन और सिंचाई के लिए प्रयोग किया। अपने व्यापार को एक कदम और बढ़ाने के लिए उन्होंने नए पौधे स्वंय तैयार करने का फैसला किया।

2001 में उन्होंने भारत में किन्नू के उत्पादन का एक रिकॉर्ड बनाया और किन्नू के बाग के व्यापार को और सफल बनाने के लिए, किन्नू की पैकेजिंग और प्रोसेसिंग की ट्रेनिंग के लिए वे विशेष तौर पर 2003 में कैलीफॉर्निया गई। वापिस आने के बाद उन्होंने उस ट्रेनिंग को लागू किया और इससे काफी लाभ कमाया। जिस वर्ष से उन्होने किन्नू की खेती शुरू की तब से उनके किन्नुओं की गुणवत्ता प्रतिवर्ष जिला स्तर और राज्य स्तर पर नंबर 1 पर रही है और किन्नू उत्पादन में बढ़ती लोकप्रियता के कारण 2004 में पंजाब के पूर्व मुख्यमंत्री प्रकाश सिंह बादल ने उन्हें ‘किन्नुओं की रानी’ के नाम से नवाज़ा।

खेती के उद्देश्य के लिए, आधुनिक तकनीक के हर प्रकार के खेतीबाड़ी यंत्र और मशीनरी उनके फार्म पर मौजूद है। बागबानी के क्षेत्र में उनकी प्रसिद्धि ने उन्हें कई प्रतिष्ठित समुदायों का सदस्य बनाया और कई पुरस्कार दिलवाए। उनमें से कुछ निम्नलिखित हैं।

• 2001-02 में कृषि मंत्री श्री गुलज़ार रानीका द्वारा राज्य स्तरीय सिटरस शो में पहला पुरस्कार मिला।
• 2004 में शाही मेमोरियल इंटरनेशनल सेवा सोसाइटी, लुधियाना में रवी चोपड़ा द्वारा देश सेवा रत्व पुरस्कार से पुरस्कृत हुईं।
• 2004 में पंजाब के पूर्व मुख्य मंत्री प्रकाश सिंह बादल द्वारा ‘किन्नुओं की रानी’ का शीर्षक मिला।
• 2005 में कृषि मंत्री श्री जगजीत सिंह रंधावा द्वारा सर्वश्रेष्ठ किन्नू उत्पादक पुरस्कार मिला।
• 2012 में राज्य स्तरीय सिटरस शो में दूसरा पुरस्कार मिला।
• 2012 में जिला स्तरीय सिटरस शो में पहला पुरस्कार मिला।
• 2010-11 में जिला स्तरीय सिटरस शो में दूसरा पुरस्कार मिला।
• 2010-11 में राज्य स्तरीय सिटरस शो में दूसरा पुरस्कार मिला।
• 2010 में कृषि मंत्री श्री सुचा सिंह लंगाह द्वारा सर्वश्रेष्ठ किन्नू उत्पादक महिला का पुरस्कार मिला।
• 2012 में श्री शरनजीत सिंह ढिल्लों और वी.सी पी ए यू, लुधियाना द्वारा किसान मेले में अभिनव महिला किसान के रूप में राज्य स्तरीय पुरस्कार मिला।
• 2012 में कृषि मंत्री श्री शरद पवार -भारत सरकार द्वारा 7th National conference on KVK at PAU, लुधियाना में उत्कृष्टता के लिए चैंपियन महिला किसान पुरस्कार मिला।
• 2013 में पंजाब के मुख्यमंत्री श्री प्रकाश सिंह बादल द्वारा अमृतसर में 64वें गणतंत्र दिवस पर प्रगतिशील महिला किसान के सम्मान में पुरस्कार मिला।
• 2013 में कृषि मंत्री Dr. R.R Hanchinal, Chairperson PPUFRA- भारत सरकार द्वारा indian agriculture at global agri connect (NSFI) IARI, नई दिल्ली में भारतीय कृषि में अभिनव सहयोग के लिए प्रशंसा पत्र मिला।
• 2012 में में पंजाब की सर्वश्रेष्ठ किन्नू उत्पादक के तौर पर राष्ट्रीय पुरस्कार मिला।
• 2013 में तामिलनाडू और आसाम के गवर्नर डॉ. भीष्म नारायण सिंह द्वारा कृषि में सराहनीय सेवा, शानदार प्रदर्शन और उल्लेखनीय भूमिका के लिए भारत ज्योति पुरस्कार मिला।
• 2015 में नई दिल्ली में पंजाब के पूर्व गवर्नर जस्टिस ओ पी वर्मा द्वारा भारत का गौरव बढ़ाने के लिए उनके द्वारा प्राप्त की गई उपलब्धियों को देखते हुए भारत गौरव पुरस्कार मिला।
• कृषि मंत्री श्री तोता सिंह और कैबिनेट मंत्री श्री गुलज़ार सिह रानीका और ज़ी पंजाब, हरियाणा, हिमाचल के संपादक श्री दिनेश शर्मा द्वारा बागबानी के क्षेत्र में उनके उत्कृष्ट सहयोग और किन्नू की खेती को बढ़ावा देने के लिए Zee Punjab/Haryana/Himachal एग्री पुरस्कार मिला।
• श्रीमती करमजीत पी ए यू किसान क्लब की सदस्या हैं।
• वे पंजाब AGRO की स्दस्या हैं
• वे पंजाब बागबानी विभाग की सदस्या हैं।
• मंडी बोर्ड की सदस्या हैं।
• चंगी खेती की सदस्या हैं।
• किन्नू उत्पादक संस्था की सदस्या हैं।
• Co-operative Society की सदस्या हैं।
• किसान सलाहकार कमेटी की सदस्या हैं।
• PAU, Ludhiana Board of Management की सदस्या हैं।

इतने सारे पुरस्कार और प्रशंसा प्राप्त करने के बावजूद, वे हमेशा कुछ नया सीखने के लिए उत्सुक हैं और यही वजह है कि वे कभी भी किसी भी जिला स्तर के कृषि मेलों और मीटिंगों में भाग लेना नहीं छोड़ती । वे कुछ नया सीखने के लिए और ज्ञान प्राप्त करने के लिए नियमित रूप से उन किसानों के खेतों का दौरा करती हैं जो पी ए यू और हिसार कृषि विश्वविद्लाय से जुड़े हैं।

आज वे प्रति हेक्टेयर में 130 टन किन्नुओं की तुड़ाई कर रही हैं और इससे 1 लाख 65 हज़ार आय कमा रही हैं। अन्य फलों के बागों से और गेहूं और कपास की फसलों से वे प्रत्येक मौसम में 1 लाख आय कमा रही हैं।

अपनी सभी सफलताओं के पीछे का सारा श्रेय वे अपने पति को देती हैं जिन्होंने उनके सपनों का साथ दिया और इन सभी वर्षों में खेती करने में उनकी मदद की। खेती के अलावा वे समाज के लिए एक बहुत अच्छे कार्य में सहयोग दे रही हैं। वे गरीब लड़कियों को वित्तीय सहायता और शादी की अन्य सामग्री प्रदान कर उनकी शादी में मदद भी करती हैं उनकी भविष्य योजना है – खेतीबाड़ी को और लाभदायक व्यापारिक उद्यम बनाना है।

किसानों को संदेश –
किसानों को अपने खर्चों को अच्छी तरह बनाकर रखना शुरू करना होगा और जो उनके पास नहीं है, उन्हें उसका दिखावा बंद करना होगा। आज, कृषि क्षेत्र को अधिक ध्यान की आवश्यकता है इसलिए युवा बच्चों को जिनमें बेटियों को भी शामिल किया जाना चाहिए और इस क्षेत्र के बारे में पढ़ाया जाना चाहिए और हर किसी को एक बात का ध्यान रखना चाहिए कि कृषि के क्षेत्रा में हर इंसान पहले एक किसान है और फिर एक व्यापारी।
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राजपाल सिंह गांधी

(स्टीविया की खेती)

जाने कैसे राजपाल सिंह गांधी स्टीविया की खेती करके प्रकृति के मीठे रहस्य को उजागर कर रहे हैं

क्या आपने कभी चीनी की तुलना में मीठा सफलता का स्वाद चखा है? आपने नहीं चखा होगा, लेकिन बंगा से आयकर सलाहकार (income tax consultant) ने शून्य कैलोरी के साथ सबसे आम स्वीटनर- चीनी से 400 गुना मीठे, सफलता का स्वाद चख लिया है। जी हां यहां स्टीविया की खेती के बारे में बात की जा रही है।

राजपाल सिंह गांधी ने भारत में एक लहर का नेतृत्व किया है और आने वाले समय में निश्चित रूप से ही दुनिया का स्वाद बदलने वाला है।

10 वर्ष के कार्यकाल में लोगों को बुद्धिमानी से अपना निवेश चुनने पर सलाह देने के बाद, अंत में राजपाल गांधी ने कृषि क्षेत्र में प्रवेश करने का फैसला किया। पंजाब के अन्य औसतन किसानों के विपरीत राजपाल गांधी ने पैसा कमाने के लिए ना केवल एक नये उद्यम के रूप में शिवालिक तलहटी के उप पहाड़ी इलाके में प्राकृतिक स्वीटनर उगाया बल्कि सख्त रिसर्च के साथ एक प्रोसेसिंग प्लांट भी खोल लिया।

कृषि क्षेत्र में प्रवेश करने की शुरूआत गांधी के लिए आसान नहीं थी। उन्होंने 2003 में 35 एकड़ किन्नू के बागों के साथ शुरूआत की लेकिन मार्किटिंग की सुविधाओं में कमी होने के कारण उन्हें 2008 तक फसल के उत्पादन को कम करने के लिए मजबूर कर दिया।

“मैनें ग्लेडियोलस, आलू और अन्य सब्जियों की रोपाई करने की कोशिश की लेकिन वहां भी मार्किटिंग की सुविधाओं में सुधार नहीं था इसलिए मैंने स्टीविया की खेती शुरू की और वह मेरा सबसे अच्छा फैसला था जो मैंने लिया।”

उन्होंने स्टीविया की खेती 6 एकड़ भूमि पर शुरू की लेकिन वहां पर कोई प्रोसेसिंग यूनिट नहीं था इसलिए उन्होंने अपने 10 वर्ष की कड़ी मेहनत का कोई फायदा नहीं हुआ। आखिरकार उन्होंने एक प्रोटोटाइप इकट्ठा करने के लिए इंडियन इंस्टीट्यूट ऑफ टैकनोलोजी मुंबई (Indian Institute of Technology, Mumbai) से संपर्क किया और लाखों निवेशों के बाद कई कमियों, अनुसंधान और कई वैज्ञानिकों, इंजीनियरों और नवप्रवर्तक की मीटिंग से वे एक अच्छे परिणाम के साथ आये।

आज गांधी के पास भारत में एकमात्र स्टीविया रिसर्च लैबोटरी (stevia research laboratory) है और यह Indian Department of Scientific and Industrial Research (DSIR) द्वारा प्रमाणित है। Ministry of Science and technology के अंतर्गत बायोटैक्नोलोजी के विभाग से एक छोटा सा लोन लेकर यह प्रोसेसिंग प्लांट और रिसर्च सैंटर स्थापित हुआ। प्रोसेसिंग यूनिट स्थापित करने के लिए पूरे तीन साल लगे। सपना देखना और फिर उस सपने को पूरा करना गांधी के लिए इसलिए आसान था क्योंकि मंत्रालय ने उनके अभिनव विचार को पसंद किया।

आज उनके 12 करोड़ सटीविया प्रोसेसिंग प्लांट में 8 घंटे की शिफ्ट में लगभग 5 टन स्टीविया के पत्ते प्रोसेस होते हैं जो कि 5 एकड़ की फसल के बराबर हैं।

शुरू में स्टीविया प्रोसेसिंग प्लांट एक चुनौती था और गांधी ने ना सिर्फ अपने लिए बल्कि कई उन अन्य लोगों के लिए भी इसे एक अवसर में बदल दिया जिनके पास अब रोज़गार हैं यह सिर्फ गांधी की पहल के कारण संभव हुआ। टिशु कल्चर लेबोरटरी और प्रोसेसिंग यूनिट स्थापित करने के बाद आज गांधी की कंपनी स्टीविया की कई उन्नत किस्में विकसित कर रही है और इसकी खेती और प्रोसेसिंग के बाद वे इन्हें पाउडर के रूप में छोटे छोटे पैकेट और कंटेनर बनाकर बेचते हैं। आज उनके द्वारा निर्मित स्टीविया ग्रीन टी मार्किट में तेजी से बढ़ रही है, लेकिन यह अंत नहीं हैं।

“एक एकड़ पर स्टीविया की खेती का खर्च लगभग 1 एकड़ पर किसी अन्य सामान्य फसल की खेती के बराबर होता है। अगर कोई भी स्टीविया की खेती करने में दिलचस्पी रखता है तो हम पौधे भी उपलब्ध करवाते हैं और यदि कोई इसे बड़े क्षेत्र में करना चाहता है तो हम क्षेत्र के अनुसार पौधों को गुणा करने की तकनीक भी प्रदान करते हैं।”

गांधी के काम ने गुजरात और उत्तर प्रदेश की राज्य सरकारों को भी उनके प्रति लुभाया है। गुजरात के मुख्य सचिव ने उन्हें बुलाया था और उसके बाद उन्होंने एक डील साइन की जिसमें अरावली और कपारगंज जिलों में 100 प्रतिशत buy-back clause के साथ 2500 एकड़ की भूमि पर स्टीविया उगाना था। उन्होंने उत्तर प्रदेश के साथ भी 4000 एकड़ में स्टीविया के पौधे उगाने के लिए डील साइन की। गांधी की बढ़ती सफलता एक छोटी सी चिंगारी नहीं थी जो कुछ समय में गायब हो जाती, अपितु यह एक विस्फोट था जिसने पंजाब के पूर्व मुख्यमंत्री प्रकाश सिंह बादल को भी अपने काम के प्रति आकर्षित किया। वर्तमान में गांधी, राज्य में stevia promotion bureau में सुरेश कुमार के साथ अतिरिक्त मुख्य सचिव (chief secretary) के रूप में हैं। अवसर को ना गंवाते हुए उन्होंने पहले से ही पंजाब के किसानों की मदद करना शुरू कर दिया| (वे गुरदासपुर, लुधियाना और फिरोज़पुर जिले में 25 एकड़ की भूमि पर स्टीविया की खेती में किसानों की मदद कर रहे हैं और धीरे-धीरे वे यह सुनिश्चित करेंगे कि इस मौसम में पंजाब में स्टीविया का खेती क्षेत्र बढ़े।

खैर, ये गांधी के काम के कुछ राष्ट्र के अंदर प्रभाव थे। प्रोसेसिंग प्लांट की स्थापना से पहले गांधी ने इस पौधे के बारे में जानने के लिए चीन और दक्षिण अमेरिका के देशों जैसे कोलंबिया और पैरागुए की यात्रा की। उनकी यात्रा ने उन्हें कैनेडा की कंपनी – Pixels Health के साथ एक अनुबंध साइन करवाया कि वे जितना चाहे स्टीविया प्रोसेस करके उन्हें बेच सकते हैं। यहां तक कि जर्मनी भी उनके बारे में जानने के बाद उनके फार्म का दौरा करने आते हैं।

गांधी पंजाब से Indian Council of Food and Agriculture के एकमात्र सदस्य हैं जिसका एम एस स्वामीनाथन-भारतीय हरित क्रांति का पिता (MS Swaminathan – “The father of Indian Green Revolution) भी हिस्सा हैं। पिछले सितंबर में उनके द्वारा गांधी को पुरस्कृत किया गया था और उन्होंने घोषणा की, कि स्टीविया उगाना स्वास्थ्य के लिए एक मीठी क्रांति है।

आने वाले समय में स्टीविया भविष्य में सबसे ज्यादा उगाई जाने वाली फसल होने वाली है। जापान की 70 प्रतिशत आबादी ने पहले ही स्टीविया की खेती शुरू कर दी है और गांधी वहां पर निवेश करने की प्रतीक्षा कर रहे हैं। यहां तक कि उनका स्टीविया उत्पाद भी नवंबर 2015 में भारत की Food and Safety Standards Authority द्वारा अनुमोदित किया गया है। यहां तक कि मल्टी नेशनल कंपनियां जैसे पेपसी और कोका कोला भी अपने नए उत्पादों – ज़ीरो- कैलोरी पेपसी और कोक लाइफ को लॉन्च कर रही है जिसमें वे स्वीटनर के रूप में स्टीविया का प्रयोग कर रहे हैं और गांधी इसमें निवेश करने के लिए उत्सुक हैं।

स्टीविया भविष्य की फसल है क्योंकि इसके पौधे को यदि एक बार रोपित किया जाये तो वह 5 वर्ष तक रहता है और प्रत्येक 4 महीने के बाद उसकी कटाई की जा सकती है। किसानों के साथ-साथ नागरिकों के लिए स्टीविया एक लाभदायक उपक्रम है क्योंकि इसका बाज़ार मूल्य भी अच्छा है और यह खाने के लिए भी स्वस्थ है।

“एक तथ्य से – भारत के सहस्त्राब्दी साल में अनुमानित 31,705,000 डायबिटीज़ के मरीज़ हैं जो कि 2030 तक 100 प्रतिशत की दर से बढ़कर लगभग 79,441,000 हो जाएंगे।”

 

गांधी कहते हैं –

“भारत में लगभग हर परिवार में एक शूगर का मरीज़ है और यह गंभीर स्थिति है। लेकिन यदि हम चीनी की जगह स्टीविया का प्रयोग करना शुरू कर दें तो शूगर के मरीज़ों की बढ़ती हुई संख्या को कम कर सकते हैं।”

गांधी नए अवसरों के साथ कृषि क्षेत्र के विकास में अपना योगदान दे रहे हैं। आप भी स्टीविया की खेती में निवेश करके इस उद्यम का हिस्सा बन सकते हैं।

संदेश :

हमारा मुख्य मिशन अमीर किसान और स्वस्थ समाज है। आज गिरती हुई आर्थिक स्थिति का मुख्य कारण गरीब किसानों का आत्महत्या करने के लिए मजबूर होना है और इस तरह की शर्मनाक परिस्थितियों के लिए सिर्फ हम ज़िम्मेदार हैं। नुकसानों को पूरा करने के लिए फसल विविधीकरण महत्तवपूर्ण है। किसानों को स्टीविया और अन्य चिकित्सक पौधे जैसी फसलें उगानी चाहिए और राज्य सरकार और केंद्र सरकार को अपनी योजनाओं को और अधिक प्रभावी बनाने के लिए कार्य करना चाहिए।
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शहनाज़ कुरेशी

(एग्री-बिज़नेस, फ़ूड प्रोसेसिंग)

जानें कैसे इस महिला ने फूड प्रोसेसिंग और एग्रीबिज़नेस के माध्यम से स्वस्थ भोजन के रहस्यों को प्रत्यक्ष किया

बहुत कम परोपकारी लोग होते हैं जो समाज के कल्याण के बारे में सोचते हैं और कृषि के रास्ते पर अपने भविष्य को निर्देशित करते हैं क्योंकि कृषि से संबंधित रास्ते पर मुनाफा कमाना आसान नहीं है। लेकिन हमारे आस -पास कई अवसर हैं जिनका लाभ उठाना हमें सीखना होगा। ऐसी ही एक महिला है श्री मती शहनाज कुरेशी जो कि अपने अभिनव सपनों और कृषि के क्षेत्र में अपना जीवन समर्पित करने की सोच रही थी।
बहुत कम उम्र में शादी करने के बावजूद शहनाज़ कुरेशी ने कभी सपने देखना नहीं छोड़ा। शादी के बाद उन्होंने अपनी पढ़ाई जारी रखी और अपनी ग्रेजुएशन पूरी की और फैशन डिज़ाइनिंग में M.Sc भी की। उन्हें विदेशों से नौकरी के कई प्रस्ताव मिले लेकिन उन्होंने अपने देश में रह कर, समाज के लिए कुछ अच्छा करने का फैसला किया।

इन सभी चीज़ों के दौरान उनके माता पिता के स्वास्थ्य ने खाद्य उत्पादों की गुणवत्ता की ओर उनका नज़रिया बदल दिया। उनके माता-पिता दोनों ही गठिया, डायबिटिज़ और किडनी की समस्या से पीड़ित थे। उन्होंने सोचा कि यदि भोजन इन समस्याओं के पीछे का कारण है तो भोजन ही इनका एकमात्र इलाज होगा। उन्होंने अपने परिवार की खाने की आदतों को बदल दिया और केवल अच्छी और ताजी सब्जियां चीज़ें खानी शुरू कर दीं। इस आदत ने उनके माता-पिता के स्वास्थ्य में काफी सुधार हुआ। इसी बड़े सुधार को देखते हुए उन्होंने फूड प्रोसेसिंग व्यापार में दाखिल होने का फैसला लिया। इसके अलावा वे खाली बैठने के लिए नहीं बनी थी इसलिए उन्होंने एग्रीबिज़नेस के क्षेत्र में अपने कदम रखे और जरूरतमंद किसानों की मदद करने का फैसला किया।

एग्रीबिज़नेस के क्षेत्र में कदम रखने का उनका फैसला सिर्फ सफलता का पहला चरण था और पूरा बठिंडा उनके बारे में जानने लगा। उन्होंने और उनके परिवार ने, के वी के बठिंडा से मधु मक्खी पालन की ट्रेनिंग ली और 200 मधुमक्खी बक्सों के साथ व्यवसाय शुरू किया। उन्होंने मार्किटिंग की और उनके पति ने प्रोसेसिंग का काम संभाला। व्यवसाय से अधिक लाभ लेने के लिए उन्होंने शहद के फेस वॉश, साबुन और बॉडी सक्रब बनाना शुरू किया। ग्राहकों ने इन्हें पसंद करना शुरू किया और उनकी सिफारिश और होने लगी। कुछ समय के बाद उन्होंने सब्जियों और फलों की खेती की ट्रेनिंग ली और इसे चटनी, मुरबा और आचार बनाकर लागू करना शुरू किया।
एक समय था जब उनके पति ने काम के लिए उनकी आलोचना की क्योंकि वे व्यवसाय से होने वाले लाभों को लेकर अनिश्चित थे। इसके अलावा उन्होंने यह भी सोचा कि ये उत्पाद पहले से ही बाज़ार में उपलब्ध हैं जो इन उत्पादों को लोग क्यों खरीदेंगे। लेकिन वे कभी भी इन बातों से वंचित नहीं हुई क्योंकि उनके पास उनके बच्चों का समर्थन हमेशा था। कुछ महान शख्सियतों जैसे ए पी जे अब्दुल कलाम, बिल गेट्स, अकबर और स्वामी विवेकानंद से वे प्रेरित हुई। खाली समय में वे उनके बारे में किताबें पढ़ना पसंद करती थी।

समय के साथ-साथ उन्होंने अपने उत्पादों को बढ़ाया और इनसे काफी लाभ कमाना शुरू किया। जल्दी ही उन्होंने फल के स्क्वैश, चने के आटे की बड़ियां और पकौड़े और भी काफी चीज़े बनानी शुरू की। अंकुरित मेथी का आचार उनके प्रसिद्ध उत्पादों मे से एक है क्योंकि अदभुत स्वास्थ्य लाभों के कारण इसकी मांग फरीदकोट, लुधियाना और अन्य जगहों में पी ए यू द्वारा करवाये जाते मेलों और समारोह में हमेशा रहती है। उन्होंने मार्किट में अपने उत्पादों की एक अलग जगह बनाई है जिसके चलते उन्होंने व्यापक स्तर पर अच्छे ग्राहकों को अपने साथ जोड़ा है।

2014 में उन्होंने बठिंडा के नज़दीक महमा सरजा गांव में किसान सैल्फ हैल्प ग्रुप बनाया और इस ग्रुप के द्वारा उन्होंने अन्य किसानों के उत्पादों को बढ़ावा दिया। कभी कभी वे उन किसानों की मदद और समर्थन करने के लिए अपने मुनाफे की अनदेखी कर देती थीं, जिनके पास आत्मविश्वास और संसाधन नहीं थे। 2015 में उन्होंने FRESH HUB नाम की एक फर्म बनायी और वहां अपने उत्पादों को बेचना शुरू किया। आज उनके कलेक्शन में कुल 40-45 उत्पाद हैं जिसका कच्चा माल वे खुद खरीदती हैं, प्रोसेस करती हैं, पैक करती हैं और मंडीकरण करती हैं। ये सब वे उत्पादों की शुद्धता और स्वस्थता सुनिश्चित करने के लिए करती हैं ताकि ग्राहक के स्वास्थ्य पर कोई दुष्प्रभाव ना हो। यहां तक कि जब वे आचार तैयार करती हैं तब भी वे घटिया सिरके का इस्तेमाल नहीं करती और अच्छी गुणवत्ता के लिए हमेशा सेब के सिरके का प्रयोग करती हैं।

2016 में उन्होंने सिरके की भी ट्रेनिंग ली और बहुत जल्द इसे लागू भी करेंगी। वर्तमान में वे प्रतिवर्ष 10 लाख लाभ कमा रही हैं। एक चीज़ जो उन्होंने बहुत जल्दी समझी और उसे लागू किया। वह थी उन्होने हमेशा मात्रा या स्वाद को ध्यान ना देकर गुणवत्ता की ओर ध्यान दिया। मंडीकरण के लिए वे आधुनिक तकनीकों जैसे व्हाट्स एप द्वारा किसानों और अन्य आवश्यक विवरणों के साथ जुड़ती हैं। खरीदने से पहले वे हमेशा सुनिश्चित करती हैं कि रासायनिक मुक्त सब्जियां ही खरीदें और किसानों को वे जैविक खेती शुरू करने के लिए प्रोत्साहित भी करती हैं। उनके काम में सिर्फ प्रोसेसिंग और मंडीकरण ही शामिल नहीं हैं बल्कि वे अन्य महिलाओं को अपनी तकनीक के बारे में जानकारी भी देती हैं। क्योंकि वे चाहती हैं कि अन्य लोग भी प्रगति करें और समाज के लिए कुछ अच्छा करें।

शुरू से ही शहनाज़ कुरेशी की मानसिकता उनके काम के लिए बहुत सपष्ट थी। वे चाहती हैं कि समाज में प्रत्येक इंसान आत्म निर्भर और आत्मविश्वासी बनें। उन्होंने अपने बच्चों को ऐसी परवरिश दी कि उन्हें किसी के सामने हाथ नहीं फैलाना पड़ता, सभी को अपनी मूल जरूरतों को पूरा करने के लिए आत्म निर्भर होना चाहिए। वर्तमान में उनका मुख्य ध्यान युवाओं, विशेष रूप से लड़कियों पर है। उन्होंने अपनी सोच और कौशल को अखबार और रेडियो के माध्यम से अधिक लोगों तक पहुंचाती हैं वे इनके माध्यम से ट्रेनिंग और जानकारी भी देती हैं। वे व्यक्तिगत तौर पर किसान ट्रेनिंग कार्यक्रमों और मीटिंग का दौरा करती हैं, विशेषकर कौशल प्रदान करती हैं। 2016 में उन्होंने कॉलेज के छात्रों के लिए टिफिन सेवा भी शुरू की। आज उनके काम ने उन्हें इतना लोकप्रिय बना दिया है कि उनका अपना रेडियो शो है जो हर शुक्रवार को दोपहर के 1 से 2 तक प्रसारित होता है, जहां पर वे लोगों को पानी के प्रबंधन, हेल्थ फूड रेसिपी और भी बहुत कुछ, के बारे में सुझाव देती हैं।

जन्म से कश्मीरी होने के कारण शहनाज़ हमेशा अपने काम और उत्पादों में अपने मूल स्थान का एक सार लाने की कोशिश करती हैं। उन्होंने “शाह के कश्मीरी और मुगलई चिकन” नाम से बठिंडा में एक रेस्टोरेंट भी खोला है और वहीं पर एक ग्रामीण कश्मीरी इंटीरियर देने और अपने रेस्टोरेंट में कश्मीरी क्रॉकरी सेट का उपयोग करने की भी योजना बना रही है। यहां तक कि उनका एक प्रसिद्ध उत्पाद है, कश्मीरी चाय जो कि कश्मीरी परंपरा और व्यंजनों के मूल को दर्शाता है। वे हर स्वस्थ, फायदेमंद और पारंपरिक नुस्खा सांझा करना चाहती हैं जो उन्होंने अपने उत्पादों, रेस्टोरेंट और ट्रेनिंग के माध्यम से जाना है। कश्मीर में उनके बाग भी है जो उनकी गैर मौजूदगी में उनके चचेरे भाई की देख रेख में है। बाग में मिट्टी की उपजाऊ शक्ति को बनाए रखने और अच्छी उपज प्राप्त करने के लिए वे जैविक तरीकों का पालन करती हैं।

शहनाज़ कुरेशी की ये सिर्फ कुछ ही उपलब्धियां थी। आने वाले समय में वे समाज के हित में और ज्यादा काम करेंगी। उनके प्रयासों को कई संगठनों द्वारा प्रशंसा मिली है और उन्हें मुक्तसर साहिब के फूड प्रोसेसिंग विभाग द्वारा सम्मानित भी किया गया है। इसके अलावा 2015 में उन्हें पी ए यू द्वारा जगबीर कौर मेमोरियल पुरस्कार से सम्मानित भी किया गया।

किसानों को संदेश

हर समय सरकार को दोष नहीं देना चाहिए क्योंकि जिन समस्याओं का आज हम सामना कर रहे हैं उनके लिए सिर्फ हम ही जिम्मेदार हैं। आजकल किसानों को पता ही नहीं है कि अवसरों का लाभ कैसे उठाया जाए, क्योंकि यदि किसान आगे बढ़ना चाहते हैं तो उन्हें अपनी सोच को बदलना होगा। इसके अलावा इसका पालन करना आवश्यक नहीं है। आप दूसरे किसानों के लिए प्रेरणा हो सकते हैं। किसानों को यह समझना होगा कि कच्चे माल की तुलना में फूड प्रोसेसिंग में अधिक मुनाफा है।

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अवतार सिंह

(सूअर पालन, प्रगतिशील किसान)

कई व्यवसायों को छोड़ने के बाद, इस किसान ने अपने लिए सुअर पालन को सही व्यवसाय के तौर पर चुना

व्यवसाय को बदलना कभी आसान नहीं होता और इसका उन लोगों के जीवन पर नकारात्मक प्रभाव पड़ सकता है जो इस पर निर्भर होते हैं। विशेष कर परिवार के सदस्य और जब यह मसला किसी किसान की ज़िंदगी से संबंधित हो तो असुरक्षा की भावना और भी दोहरी हो जाती है। एक नया अवसर अपने साथ जोखिम और लाभ दोनों लाता है। व्यक्ति को यह समझना चाहिए कि उसे और उसकी जरूरतों को क्या बेहतर ढंग से संतुष्ट करता है क्योंकि एक सार्थक काम को खोजना बहुत महत्तवपूर्ण है। पंजाब के बरनाला जिले के एक ऐसे ही किसान श्री अवतार सिंह रंधावा ने भी कई व्यवसायों को बदला और अपने लिए सुअर पालन को सही व्यवसाय के तौर पर चुना।

अन्य किसानों की तरह अवतार सिंह ने अपनी 10 वीं की पढ़ाई पूरी करने के बाद अपने पिता बसंत सिंह रंधावा के साथ गेहूं और धान की खेती शुरू की। लेकिन जल्दी ही उसने महसूस किया कि उसकी ज़िंदगी का मतलब खेतीबाड़ी के इस पारंपरिक ढंग के पीछे जाना नहीं है। इसलिए उसने ग्रोसरी स्टोर व्यापार में निवेश करने का सोचा। उसने अपने गांव- चन्ना गुलाब सिंह में एक दुकान खोली लेकिन कुछ समय बाद उसने महसूस किया कि वह इस व्यवसाय में संतुष्ट नहीं है। किसी ने मशरूम की खेती के बारे में सुझाव दिया और उसने इसे करना भी शुरू किया लेकिन उसने समझा कि इसमें बहुत निवेश की जरूरत है और यह उद्यम भी खाली हाथों से समाप्त हो गया। अंत में उसने एक व्यक्ति से सुना कि सुअर पालन एक लाभदायक व्यवसाय है और उसने सोचा कि क्यों ना इसमें भी एक कोशिश की जाये।

इससे संबंधित व्यक्ति से सलाह करने के बाद अवतार ने पी.ए.यू से सुअर पालन और सुअर के उत्पादों की प्रोसेसिंग की ट्रेनिंग ली। शुरूआत में उसने 3 सुअरों के साथ सुअर पालन शुरू किया और सख्त मेहनत के 3 वर्ष बाद, आज सुअरों की गिणती बढ़कर 50 हो गई है। 3 वर्ष पहले जब उसने सुअर पालन शुरू किया था तब कई गांव वाले उसके और उसके पेशे के बारे में बात करते थे। क्योंकि अपने गांव में सुअर पालन शुरू करने वाले अवतार सिंह पहले व्यक्ति थे इसलिए कई ग्रामीण लोग उलझन में थे और बहुत से लोग सिर्फ इस बात का विश्लेषण कर रहे थे कि इस का परिणाम क्या होगा। लेकिन रंधावा परिवार के खुश चेहरे और बढ़ते हुए लाभ को देखने के बाद कई ग्रामीणों में सुअर पालन में दिलचस्पी पैदा हुई।

“जब मैंने अपनी पत्नी को सुअर पालन के व्यवसाय के बारे में बताया तो वह मेरे खिलाफ थी और वह नहीं चाहती थी कि मैं इसमें निवेश करूं। यहां तक कि मेरे रिश्तेदार भी मुझे मेरे काम के लिए ताना देते थे क्योंकि उनके नज़रिये से मैं बहुत छोटे स्तर का काम कर रहा था। लेकिन मैं निश्चित था और इस बार मैं पीछे नहीं मुड़ना चाहता था और किसी भी चीज़ को बीच में छोड़ना नहीं चाहता था।”

आज अवतार सिंह अपने काम से बहुत खुश और संतुष्ट हैं और इस व्यव्साय की तरफ अपने गांव के दूसरे किसानों को भी प्रोत्साहित करते हैं। उसने अपने फार्म पर प्रजनन का काम भी स्वंय संभाला हुआ है। 7-8 महीनों के अंदर-अंदर वह औसतन 80 सुअर बेचते हैं, और इससे अच्छा लाभ कमाते हैं।

वर्तमान में वह अपने पुत्र और पत्नी के साथ रह रहे है, और छोटे परिवार और कम जरूरतों के बाद भी वह अपने घर के लिए गेहूं और धान खुद ही उगा रहे हैं। अब उनकी पत्नी भी सुअर पालन में उनका समर्थन करती है।

अवतार की तरह पंजाब में कई अन्य किसान भी सुअर पालन का व्यवसाय करते हैं और आने वाले समय में यह उनके लिए बड़ा प्रोजेक्ट है क्योंकि पोर्क और सुअर के उत्पादों की बढ़ती मांग के कारण सुअर पालन भविष्य में तेजी से बढ़ेगा। कुछ भविष्यवादी किसान इसे पहले ही समझ चुके थे और अवतार सिंह रंधावा उनमें से एक हैं।

भविष्य की योजना:

अवतार अपनी ट्रेनिंग का उपयोग करने और सुअर उत्पादों की प्रोसेसिंग शुरू करने की योजना बना रहे हैं वे भविष्य में रंधावा पिग्गरी फार्म का विस्तार करना चाहते हैं।

संदेश
आधुनिकीकरण के साथ खेती की कई नई तकनीकें आ रही हैं और किसानों को इनके बारे में पता होना चाहिए। किसानों को उस रास्ते पर चलना चाहिए जिसमें वे विश्वास करते हैं ना कि उस मार्ग पर जिसका अनुसरण अन्य लोग कर रहे हैं।
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निर्मल सिंह

(सुअर पालन)

कैसे सुअर पालन ने निर्मल सिंह की ज़िंदगी को बदल दिया और कैसे यह उन्हें सफलता की दिशा में आगे बढ़ा रहा है

भारत में, बड़े पैमाने पर सुअर पालतु जानवर नहीं होते लेकिन जब सुअर पालन की बात आती है तो ये पैसा कमाने का अच्छा स्त्रोत होते हैंऔर इस व्यवसाय की सबसे अच्छी बात यह है कि इसे बहुत ही कम पूंजी से शुरू किया जा सकता है।

पंजाब में सुअर पालन किसानों के बीच एक लोकप्रिय व्यवसाय के रूप में उभर रहा है और कई लोग इसमें दिलचस्पी दिखा रहे हैं। हालांकि कई लोग सुअर पालन को बहुत नीचे के स्तर के व्यवसाय के रूप में देखते हैं। लेकिन यह सबके लिए मायने नहीं रखता। क्योंकि सुअर पालन ने पंजाब के किसानों की ज़िंदगी और नज़रिये को बिल्कुल ही बदल कर रख दिया है। एक ऐसे ही किसान हैं – निर्मल सिंह, जो कि सफलतापूर्वक इस व्यवसाय को कर रहे हैं और इससे अच्छी आमदन कमा रहे हैं।

अपने दादा-पड़दादा के समय से निर्मल सिंह का परिवार खेतीबाड़ी में शामिल है। उनके लिए पैसा कमाने के लिए खेतीबाड़ी के अतिरिक्त कोई अन्य विकल्प नहीं है। लेकिन जब निर्मल सिंह बड़े हुए और अपनी पढ़ाई पूरी करने के बाद उन्होंने सब कुछ अपने हाथ में लिया तब उन्होंने गेहूं और धान की खेती के साथ डेयरी फार्मिंग का काम भी शुरू किया। लगभग डेढ़ साल तक उन्होंने व्यापारिक स्तर पर डेयरी फार्मिंग की लेकिन 2015 में जब वे अपने एक दोस्त की शादी में बठिंडा गए तब उन्होंने सुअर पालन के बारे में जाना। वे इसके बारे में जानकर बहुत उत्साहित हुए इसलिए शादी के बाद अगले दिन वे संघेड़ा में स्थित एक BT फार्म पर गए। इस फार्म का दौरा करने के बाद उनकी इस व्यवसाय को करने में दिलचस्पी पैदा हुई।

सुअर पालन का उद्यम शुरू करने से पहले उन्होंने माहिरों से सलाह और किसी माहिर व्यक्ति से ट्रेनिंग लेने के बारे में सोचा तो इसलिए उन्होने विशेष तौर पर GADVASU (Guru Angad Dev Veterinary and Animal Sciences University), लुधियाना से 5 दिनों की ट्रेनिंग ली। ट्रेनिंग लेने के बाद उन्होंने 10 मादा सुअर और 1 नर सुअर से सुअर पालन की शुरूआत की। उन्होंने 2 कनाल क्षेत्र में पिग्गरी फार्म को व्यवस्थित किया।

सुअर पालन की मांग बढ़ने के कारण उनका उद्यम अच्छा चल रहा है और आज उनके पास लगभग 90 सुअर हैं। जिनमें से 10 मादा और 1 नर सुअर है जो उन्होंने प्रजनन के लिए शुरू में खरीदा था। एक महीने में वे, 150 रूपये प्रति किलो मादा सुअर और 85 रूपये प्रति किलो नर सुअर के हिसाब से 10-12 सुअर बेचते हैं। उनके भाई और बेटा उनके इस उद्यम में उनकी सहायता करते हैं और उन्होंने सहायता के लिए किसी अन्य श्रमिक को नहीं रखा है। सुअरों के स्वास्थ्य को बनाए रखने के लिए वे स्वंय सुअरों की फीड बनाना पसंद करते हैं। वे बाज़ार से कच्चा माल खरीदते हैं और खुद ही उनकी फीड बनाते हैं।

आज निर्मल सिंह को Progressive Pig Farmers Association, GADVASU के सदस्यों में गिना जाता है। उन्हें श्री मुक्तसर साहिब में आयोजित जिला स्तरीय पशुधन चैंपियनशिप में पहला पुरस्कार, प्रमाण पत्र और नकद पुरस्कार भी मिला।

वर्तमान में वे अपनी पत्नी, एक बेटा और एक बेटी के साथ मुक्तसर के लुबानियां वाली गांव में रह रहे हैं। भविष्य में वे अपने सुअर पालन के व्यवसाय का विस्तार करना चाहते हैं और इसके उत्पादों की प्रोसेसिंग करना चाहते हैं। वे अन्य किसानों की मदद करना चाहते हैं और उन्हें अच्छी आय कमाने के लिए इस व्यवसाय को करने की सिफारिश करते हैं।

संदेश:
कोई भी काम शुरू करने से पहले ट्रेनिंग बहुत महत्तवपूर्ण है। प्रत्येक किसान को अपने कौशल को सुधारने के लिए ट्रेनिंग जरूर लेनी चाहिए नहीं तो, एक सरल सा काम करने में भी बहुत बड़ा खतरा रहता है।

यदि आप भी पंजाब में सुअर पालन व्यवयाय को शुरू करने के बारे में सोच रहे हैं तो यह आपके लिए सही समय है। सुअर पालन की ट्रेनिंग, सुअर प्रजनन या सुअर पालन की जानकारी के लिए अपनी खेती से संपर्क करें।
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प्रेम राज सैनी

(फूलों की खेती)

कैसे उत्तर प्रदेश के एक किसान ने फूलों की खेती से अपने व्यापार को बढ़ाया

फूलों की खेती एक लाभदायक आजीविका पसंद व्यवसाय है और यह देश के कई किसानों की आजीविका को बढ़ा रहा है। ऐसे ही उत्तर प्रदेश के पीर नगर गांव के श्री प्रेम राज सैनी एक उभरते हुए पुष्पविज्ञानी हैं और हमारे समाज के अन्य किसानों के लिए एक आदर्श उदाहरण हैं।

प्रेम राज के पुष्पविज्ञानी होने के पीछे उनकी सबसे बड़ी प्रेरणा उनके पिता है। यह 70 के दशक की बात है जब उनके पिता दिल्ली से फूलों के विभिन्न प्रकार के बीज अपने खेत में उगाने के लिए लाये थे। वे अपने पिता को बहुत बारीकी से देखते थे और उस समय से ही वे फूलों की खेती से संबंधित कुछ करना चाहते थे। हालांकि प्रेम राज सैनी B.Sc ग्रेजुएट हैं और वे खेती के अलावा विभिन्न व्यवसाय का चयन कर सकते थे लेकिन उन्होंने अपने सपने के पीछे जाने को चुना।

20 मई 2007 को उनके पिता का देहांत हो गया और उसके बाद ही प्रेम राज ने उस कार्य को शुरू करने का फैसला किया जो उनके पिता बीच में छोड़ गये थे। उस समय उनका परिवार आर्थिक रूप से स्थायी था और उनके भाई भी स्थापित हो चुके थे। उन्होंने खेती करनी शुरू की और उनके बड़े भाई ने एक थोक फूलों की दुकान खोली जिसके माध्यम से वे अपनी खेती के उत्पाद बेचेंगे। अन्य दो छोटे भाई नौकरी कर रहे थे लेकिन बाद में वे भी प्रेम राज और बड़े भाई के उद्यम में शामिल हो गए।

प्रेम राज द्वारा की गई एक पहल ने पूरे परिवार को एक धागे में जोड़ दिया। सबसे बड़े भाई कांजीपुर फूल मंडी में फूलों की दो दुकानों को संभालते हैं। प्रेम राज स्वंय पूरे फार्म का काम संभालते हैं और दो छोटे भाई नोयडा की संब्जी मंडी में अपनी दुकान संभाल रहे हैं। इस तरह उन्होंने अपने सभी कामों को बांट दिया है जिसके फलस्वरूप उनकी आय में वृद्धि हुई है। उन्होंने केवल एक स्थायी मजदूर रखा है और कटाई के मौसम में वे अन्य श्रमिकों को भी नियुक्त कर लेते हैं।

प्रेम राज के फार्म में मौसम के अनुसार हर तरह के फूल और सब्जियां हैं। अच्छी उपज के लिए वे नेटहाउस और बेड फार्मिंग के ढंगों को अपनाते हैं। दूसरे शब्दों में वे अच्छी गुणवत्ता वाली उपज के लिए रसायनों का उपयोग नहीं करते हैं और आवश्यकतानुसार ही बहुत कम नदीननाशक का प्रयोग करते हैं। इस तरह उनके खर्चे भी आधे रह जाते हैं। वे अपने फार्म में आधुनिक खेती यंत्रों जैसे ट्रैक्टर और रोटावेटर का प्रयोग करते हैं।

भविष्य की योजनाएं-
सैनी भाई अच्छी आमदन के लिए विभिन्न स्थानों पर और अधिक दुकानें खोलने की योजनाएं बना रहे हैं। वे भविष्य में अपने खेती के क्षेत्र और व्यापार को बढ़ाना चाहते हैं।

परिवार-
वर्तमान में वे अपने संपूर्ण परिवार (माता, पत्नी, दो पुत्र और एक बेटी) के साथ अपने गांव में रह रहे हैं। वे काफी खुले विचारों वाले इंसान हैं और अपने बच्चों पर कभी भी अपनी सोच नहीं डालते। फूलों की खेती के व्यापार और आमदन के साथ आज प्रेम राज सैनी और उनके भाई अपने परिवार की हर जरूरत को पूरा कर रहे हैं।

संदेश-
वर्तमान में नौकरियों की बहुत कमी है, क्योंकि अगर एक जॉब वेकेंसी है तो वहीं आवेदन भरने के लिए कई आवेदक हैं। इसलिए यदि आपके पास ज़मीन है तो इससे अच्छा है कि आप खेती शुरू करें और इससे लाभ कमायें। खेतीबाड़ी को निचले स्तर का व्यवसाय के बजाय अपनी जॉब के तौर पर लें।
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देविंदर सिंह

(नर्सरी की तैयारी)

कैसे एक किसान ने विविध खेती को अपनी सफलता का मार्ग बनाया और इसके माध्यम से दूसरों को प्रेरित किया

नकोदर (जिला जालंधर) के एक सफल किसान देविंदर सिंह ने अपनी खेती टीम से विचार विनमय किया कि कैसे वे विविध खेती की तरफ प्रेरित हुए और खेती के क्षेत्र में अच्छे लाभ प्राप्त करने के लिए, उन्होंने कौन से नए आविष्कार किए।

देविंदर सिंह इस सोच के दृढ़ विश्वासी हैं- कि सिर्फ स्वंय द्वारा किया गया काम महत्तवपूर्ण है और आज जो कुछ भी उन्होंने हासिल किया है वह अपनी कड़ी मेहनत और खेती के क्षेत्र में अधिक काम करने की तीव्र इच्छा से प्राप्त किया है। खेती की पृष्ठभूमि से आने के कारण उन्होंने अपनी 10वीं की पढ़ाई पूरी करने के बाद खेती शुरू की और उच्च शिक्षा के लिए नहीं गए। उन्होंने एक साधारण किसान की तरह सब्जियों की खेती शुरू की। उनके पास पहले से ही अपनी 1.8 हैक्टेयर भूमि थी, लेकिन उन्होंने 1 हैक्टेयर भूमि किराये पर ली। जो मुनाफा वे खेती से कमा रहे थे, वह उनके परिवार की वर्तमान की जरूरतों को पूरा करने के लिए काफी था लेकिन अपने परिवर के बेहतर भविष्य के बारे में सोचने के लिए पर्याप्त नहीं था।

1990-91 में वे पंजाब एग्रीकल्चर यूनिवर्सिटी के संपर्क में आये और खेती की कुछ नई तकनीकों के बारे में सीखा, जो खेती का क्षेत्र बढ़ाए बिना खेती के क्षेत्र में अच्छा लाभ कमाने के लिए मदद कर सकती हैं और इसमें कोई उच्च तकनीकी मशीनरी या रसायन शामिल ना होने के कारण ने उन्हें अपने फार्म में उन नई तकनीकों को लागू करने के लिए प्रेरित किया।

अपने क्षेत्र का विस्तार करने के लिए उन्होंने KVK- नूर महल, जालंधर से मधुमक्खी पालन की ट्रेनिंग ली और मक्खी पालन का काम शुरू किया। इस उपक्रम से उन्होंने अच्छा लाभ कमाया और इसे जारी रखा। खेती की नई तकनीकों जैसे बैड फार्मिंग और टन्नल फार्मिंग को लागू करके उन्होंने विविध खेती शुरू की।

खैर, पंजाब में कई लोग विविध खेती कर रहे हैं, लेकिन वे सिर्फ कुछ ही फसलों तक सीमित हैं। देविंदर सिंह ने अपनी सोच को तेज घोड़े की तरह दौड़ाया और बंद गोभी और प्याज का अंतर फसली करके प्रयोग किया। विविध खेती की इस पहल ने बहुत अच्छी उपज दी और उन्होंने उस मौसम में 375 क्विंटल बंद गोभ की कटाई और 125 क्विंटल प्याज की पुटाई की। कई खेतीबाड़ी माहिरों ने अपनी रिसर्च में उनके खेती के तरीकों से मदद ली है। वे पहले व्यक्ति थे जिन्होंने प्याज, टमाटर, धनिये को एक साथ उगाकर अंतर फसली किया और उसके बाद उन्होंने प्याज, खीरा, शिमला मिर्च का भी अंतर फसली किया और बंद गोभी, गेंदा को भी एक साथ उगाया।

विविध खेती के लिए उनके द्वारा किए गए फसलों का अंतर फसली एक महान सफलता थी और उन्होंने इन अंतरफसली पैट्रन से काफी लाभ कमाया। उन्होंने अपने पपीता-बैंगन और बंद गोभी-प्याज के अंतर फसली पैट्रन के लिए, जैन एडवाइज़र स्टेट अवार्ड भी प्राप्त किया।

शिक्षा उनके और खेती की नई आधुनिक तकनीकों के बीच कभी बाधा नहीं बनी। उनका जिज्ञासु दिमाग हमेशा सीखना चाहता था और अपने दिमाग की जरूरतों को पूरा करने के लिए उन्होंने हमेशा उचित ज्ञान हासिल किया। उन्होंने सब्जियों की खेती की मूल बातें जानने के लिए, मलेर कोटला के कई प्रगतिशील किसानों का दौरा किया और उन्होने हर प्रकार की मीटिंग और पंजाब कृषि विश्वविद्यालय या बागबानी विभाग द्वारा आयोजित कैंप में भी भाग लिया।

देविंदर सिंह के खेती के तरीके इतने अच्छे और उत्पादक थे कि उन्हें टन्नल फार्मिंग के लिए 2010 में PAU द्वारा सुरजीत सिंह ढिल्लों अवार्ड मिला। वे PAU किसान क्लब और एग्रीकल्चर टैक्नोलोजी प्रबंध एजेंसी – ATMA गवर्निंग बॉडी (जालंधर) के मैंबर भी बने।

कृषि के क्षेत्र में सफलता के लिए शुरूआत से ही एक अलग या रचनात्मक विचारधारा को जीवित रखना बहुत जरूरी है, देविंदर सिंह ने भी ऐसा ही किया। उन्होंने अपने खेत में पानी के अच्छे प्रबंधन के लिए तुपका सिंचाई और फुव्वारा सिंचाई को लागू किया। उन्होंने धान की खेती के लिए Tensiometer का भी प्रयोग करना शुरू किया और मिट्टी की उपजाऊ शक्ति बढ़ाने के लिए जंतर का प्रयोग भी किया।

हाल ही में, उन्होंने खीरे और तरबूज की विविध खेती शुरू की है और उम्मीद है कि इससे काफी लाभ मिलेगा। कई किसान उनसे सीखने के लिए उनके फार्म का दौरा करते हैं और देविंदर सिंह खुले दिल से अपनी तकनीकों को उनसे शेयर करते हैं। वे विविध खेती के साथ और अधिक प्रयोग करना चाहते हैं और अन्य किसानों तक अपनी तकनीकों को फैलाना चाहते हैं ताकि वे भी इससे लाभ लें सकें।

भविष्य की योजना:
भविष्य के लिए उनके दिमाग में बहुत सारे विचार हैं और बहुत जल्द वे इन्हें लागू भी करेंगे।

किसानों को संदेश
हमारी धरती सोना है और इसमें से सोना उगाने के लिए हमें कड़ी मेहनत और तीव्र बुद्धि से काम करने की आवश्यकता है। हमें अपनी स्वंय के स्वर्ण फसल के लिए अच्छी खेती तकनीकों की जरूरत है।
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हरबीर सिंह पंडेर

(मक्खी पालन)

कैसे एक पिता ने मक्खी पालन में निवेश करके भविष्य में अपने पुत्र को ज्यादा मुनाफा कमाने में मदद की

पंडेर परिवार के युवा पीढ़ी हरबीर सिंह पंडेर ने ना सिर्फ अपने पिता के मक्खीपालन के व्यापार को आगे बढ़ाया, बल्कि अपने विचारों और प्रयासों से इसे लाभदायक उद्यम भी बनाया।

हरबीर सिंह, कुहली खुर्द, लुधियाना के निवासी हैं। जिनके पास सिविल में इंजीनियर की डिग्री होते हुए भी, उन्होंने अपने पिता के व्यवसाय को आगे बढ़ाने का फैसला किया और अपने नए विचारों से उसे आगे बढ़ाया।

जब पंडेर परिवार ने मक्खी पालन शुरू किया….
गुरमेल सिंह पंडेर – हरबीर सिंह के पिता ने तकरीबन 35 वर्ष पहले बिना किसी ट्रेनिंग के मक्खी पालन का व्यापार शुरू किया था। 80 के दशक में जब किसी ने भी नहीं सोचा होगा कि मक्खी पालन भी एक लाभदायक स्त्रोत हो सकता है, गुरमेल सिंह का भविष्यवादी दिमाग एक अलग दिशा में चला गया। उस समय उसने मधु मक्खियों के दो बक्सों के साथ मक्खी पालन शुरू किया और आज उसके पुत्र ने उसके काम को मधु मक्खी के 700 बक्सों के साथ एक उत्कृष्ट प्रयास में बदल दिया।

हालांकि, हरबीर के पिता मधुमक्खी पालन के काम से अच्छा मुनाफा कमा रहे थे लेकिन यह मार्किटिंग के दृष्टिकोण से कम था। जिसके कारण वे उचित मार्किट को कवर नहीं कर पा रहे थे। इसलिए हरबीर सिंह ने सोचा कि वे अपनी योजना और सोच के साथ इस स्थानीय व्यापार को आगे बढ़ाएंगे। हरबीर ने अपनी पढ़ाई पूरी करने के तुरंत बाद ही अपने पिता के व्यापार को संभाल लिया। अपनी पिता के व्यापार का चयन करना हरबीर के लिए मजबूरी नहीं था यह उनका काम को जारी रखने का जुनून था जिसे उन्होंने अपने पूरे बचपन में अपने पिता को करते देखा था।

अपने पिता के काम को संभालते ही हरबीर ने अपने पिता के व्यापार को ‘रॉयल हनी’ ब्रांड का नाम दिया। हरबीर अच्छी तरह से जानते थे कि व्यापार को बड़े स्तर पर बढ़ावा देने के लिए ब्रांडिंग बहुत महत्तवपूर्ण है। इसलिए उन्होंने अपने व्यवसाय को ब्रांड नाम के तहत पंजीकृत करवाया। अपने काम को अधिक व्यवसायी बनाने के लिए हरबीर विशेष रूप से मक्खी पालन की ट्रेनिंग के लिए 2011 में पी ए यू गए।

वर्ष 2013 में उन्होंने अपने उत्पादों को AGMARK के तहत भी पंजीकृत किया और आज वे पैकेजिंग से लेकर मार्किटिंग का काम सब कुछ स्वंय करते हैं। वे मुख्य तौर पर दो उत्पादों शहद और बी वैक्स पर ध्यान देते हैं।

हरबीर के पास उनके फार्म पर मुख्यत: इटेलियन मक्खियां हैं और शहद की उच्च गुणवत्ता बनाए रखने के लिए वे मौसम से मौसम, पंजाब के आस पास के राज्यों में एक स्थान से दूसरे स्थान पर ले जाते हैं। उन्होंने इस काम के लिए 7 श्रमिकों को रोज़गार दिया है। मुख्यत: वे अपने बक्सों को चितौड़गढ़ (कैरम के बीजों के खेत में), कोटा (सरसों के खेत में), हिमाचल प्रदेश (विभिन्न फूलों), मलोट (सूरजमुखी के खेत) और राजस्थान (बाजरा और तुआर के खेत) में क्षेत्र किराये पर लेकर छोड़ देते हैं। शहद को हाथों से निकालने की प्रक्रिया द्वारा वे शहद निकालते हैं और फिर अपने उत्पादों की पेकेजिंग और मार्किटिंग करते हैं।

मक्खी पालन के अलावा हरबीर और उसका परिवार खेती और डेयरी फार्मिंग भी करता है। उनके पास 7 एकड़ भूमि है जिस पर वे घर के लिए धान और गेहूं उगाते हैं और उनके पास 15 भैंसे हैं जिनका दूध वे गांव में बेचते हैं और इसमें से कुछ अपने लिए भी रखते हैं।

वर्तमान में हरबीर अपने पारिवारिक व्यवसाय से अच्छा लाभ कमा रहे हैं और अपने अतिरिक्त समय में वे मक्खी पालन के व्यवसाय के बारे में अन्य लोगों को गाइड भी करते हैं। हरबीर भविष्य में अपने व्यापार को और बढ़ाना चाहते हैं और मार्किटिंग के लिए पूरी तरह से आत्म निर्भर होना चाहते हैं।

किसानों को संदेश

आजकल के दिनों में किसानों को सिर्फ खेती पर ही निर्भर नहीं होना चाहिए। उन्हें खेती के साथ साथ अन्य एग्रीबिज़नेस को भी अपनाना चाहिए ताकि अगर एक विकल्प फेल हो जाए तो आखिर में आपके पास दूसरा विकल्प हो। मक्खीपालन एक बहुत ही लाभदायक व्यापार है और किसानों को इसके लाभों के बारे में जानने का प्रयास करना चाहिए।

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अंग्रेज सिंह भुल्लर

(गुड़़ बनाने की प्रक्रिया, जैविक खेती)

कैसे इस किसान के बिगड़ते स्वास्थ्य ने उसे अपनी गल्ती सुधारने और जैविक खेती को अपनाने के लिए उकसाया

गिदड़बाहा के इस 53 वर्षीय किसान- अंग्रेज सिंह भुल्लर ने अपनी गल्तियों को पहचानने के बाद कि उसने क्या बनाया और कैसे यह उसके स्वास्थ्य को प्रभावित कर रहा है, अपने जीवन का सबसे प्रबुद्ध फैसला लिया।

4 वर्ष की युवा उम्र में अंग्रेज सिंह भुल्लर ने अपने पिता को खो दिया। उसके परिवार की स्थितियां दिन प्रतिदिन बिगड़ती जा रही थी क्योंकि उनके परिवार में कोई रोटी कमाने वाला नहीं था। उन्हें पैसे भी रिश्तेदारों को अपनी ज़मीन किराये पर देकर मिल रहे थे। परिवार में उनकी दो बड़ी बहनें थी और अपने परिवार की जरूरतों को पूरा करना उनकी मां के लिए दिन प्रतिदिन बहुत मुश्किल हो रहा था। बिगड़ती वित्तीय परिस्थितियों के कारण, अंग्रेज सिंह को 9वीं कक्षा तक शैक्षिक योग्यता प्राप्त हुई और उनकी बहनें कभी स्कूल नहीं गई।

स्कूल छोड़ने के बाद अंग्रेज सिंह ने कुछ समय अपने अंकल के फार्म पर बिताया और उनसे खेती की कुछ तकनीकें सीखीं। 1989 तक ज़मीन रिश्तेदारों के पास किराये पर थी। लेकिन उसके बाद अंग्रेज सिंह ने परिवार की ज़िम्मेदारी लेने का बड़ा फैसला लिया। इसलिए उन्होंने अपनी ज़मीन वापिस लेने का निर्णय लिया और इस पर खेती शुरू की।

अपने अंकल से उन्होंने जो कुछ सीखा और गांव के अन्य किसानों को देखकर उन्होंने रासायनिक खेती शुरू की। उन्होंने अच्छी कमाई करनी शुरू की और अपने परिवार की वित्तीय स्थिति में सुधार हुआ। जल्दी ही कुछ समय बाद उन्होंने शादी की और एक सुखी परिवार का जीवन जी रहे थे।

लेकिन 2006 में वे बीमार पड़ गये और प्रमुख स्वास्थ्य समस्याओं से पीड़ित हो गए। इससे पहले वे इस समस्या को हल्के ढंग से लेते थे लेकिन डॉक्टर की जांच के बाद उन्हें पता चला कि उनकी आंत में सोजिश आ गई है जो कि भविष्य में गंभीर समस्या बन सकती है। उस समय बहुत से लोग उनके स्वास्थ्य के बारे में पूछने के लिए आते थे और किसी ने उन्हें बताया कि स्वास्थ्य बिगड़ने का कारण खेती में रसायन का उपयोग करना है और आपको जैविक खेती शुरू करनी चाहिए।

हालांकि कई लोगों ने उन्हें इलाज के लिए काफी चीज़ें करने को कहा लेकिन एक बात जिसने मजबूती से उनके दिमाग में दस्तक दी वह थी जैविक खेती शुरू करना। उन्होंने इस मसले को काफी गंभीरता से लिया और 2006 में 2.5 एकड़ की भूमि पर जैविक खेती शुरू की उन्होंने गेहूं, सब्जियां, फल, नींबू, अमरूद, गन्ना और धान उगाना शुरू किया और इससे अच्छा लाभ प्राप्त किया। अपने लाभ को दोगुना करने के लिए उन्होंने स्वंय ही उत्पादों की प्रोसेसिंग शुरू की और बाद में उन्होंने गन्ने से गुड़ बनाना शुरू किया । उन्होंने हाथों से ही गुड़ बनाने की विधि को अपनाया क्योंकि वह इस उद्यम को अपने दम पर शुरू कर रहे थे। शुरूआत में वे अनिश्चित थे कि उन्हें इसका कैसा फायदा होगा लेकिन धीरे धीरे गांव के लोगों ने गुड़ को पसंद करना शुरू कर दिया। धीरे धीरे गुड़ की मांग एक स्तर तक बढ़ी जिससे उन्होंने एडवांस बुकिंग पर गुड़ बनाना शुरू किया। कुछ समय बाद उन्होंने अपने खेत में वर्मीकंपोस्टिंग प्लांट लगाया ताकि वे घर पर बनी खाद से अच्छी उपज ले सकें।

उन्होंने कई पुरस्कार, उपलब्धियां प्राप्त की और कई ट्रेनिंग कैंप में हिस्सा लिया| उनमें से कुछ निम्नलिखित हैं।
• 1979 में 15 से 18 नवंबर के बीच उन्होंने जिला मुक्तसर विज्ञान मेले में भाग लिया।
• 1985 में वेरका प्लांट बठिंडा द्वारा आयोजित Artificial Insemination के 90 दिनों की ट्रेनिंग में भाग लिया।
• 1988 में पी.ए.यू, लुधियाना द्वारा आयोजित हाइब्रिड बीजों की तैयारी के 3 दिनों की ट्रेनिंग में भाग लिया।
• पतंजली योग समिती में 9 जुलाई से 14 जुलाई 2009 में भाग लेने के लिए योग शिक्षक की ट्रेनिंग के लिए प्रमाण पत्र मिला।
• 28 सितंबर 2012 में खेतीबाड़ी विभाग, पंजाब के निदेशक से प्रशंसा पत्र मिला।
• 9 से 10 सितंबर 2013 को आयोजित Vibrant Gujarat Global Agricultural सम्मेलन में भाग लिया।
• कुदरती खेती और पर्यावरण मेले के लिए प्रशंसा पत्र मिला जिसमें 26 जुलाई 2013 को खेती विरासत मिशन द्वारा मदद की गई थी।
• खेतीबाड़ी विभाग जिला श्री मुक्तसर साहिब पंजाब द्वारा आयोजित Rabi Crops Farmer Training Camp में भाग लेने के लिए 21 सितंबर 2014 को Agricultural Technology Management Agency (ATMA) द्वारा राज्य स्तर पर प्रशंसा पत्र प्राप्त किया।
• 21 सितंबर 2014 को खेतीबाड़ी विभाग, श्री मुक्तसर साहिब द्वारा State Level Farmer Training Camp के लिए प्रशंसा पत्र मिला।
• 12 -14 अक्तूबर 2014 को पी ए यू द्वारा आयोजित Advance training course of Bee Breeding 7 Mass Bee Rearing Technique में भाग लिया।
• Sarkari Murgi Sewa Kendra, Kotkapura में पशु पालन विभाग, पंजाब द्वारा आयोजित 2 सप्ताह की पोल्टरी फार्मिंग ट्रेनिंग में भाग लिया।
• National Bee Board द्वारा मक्खीपालक के तौर पर पंजीकृत हुए।
• CRI पुरस्कार मिला|
• KVK, गोनिआना द्वारा आयोजित Kharif Crop Farming के 1 दिन की ट्रेनिंग कैंप में भाग लिया।
• PAU Ludhiana द्वारा आयोजित 10 दिनों की मक्खी पालन की ट्रेनिंग में भाग लिया।
• KVK, गोनिआना द्वारा आयोजित 1 दिन की Pest Control in Grains stored in Storehouse की ट्रेनिंग में भाग लिया।
• Department of Rural Development, NITTTR, Chandigarh द्वारा आयोजित Organic & Herbal Products Mela में भाग लिया।
• PAMETI (Punjab Agriculture Management & Extension Training Institute), PAU द्वारा आयोजित workshop training programme- “MARKET LED EXTENSION” में भाग लिया।
अंग्रेज सिंह भुल्लर पंजाब के वे भविष्यवादी किसान है जो जैविक खेती की महत्तता को समझते हैं। आज खराब पर्यावरण परिस्थितियों से निपटने के लिए हमें उनके जैसे अधिक किसानों की जरूरत है।

किसानों को संदेश

यदि हम अब जैविक खेती शुरू नहीं करते है तो यह हमारी भविष्य की पीढ़ी के लिए बड़ी समस्या होगी।
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गुरदीप सिंह बराड़

(प्रगतिशील जैविक किसान)

एक व्यक्ति का जागृत परिवर्तन- रासायनिक खेती से जैविक खेती की तरफ

लोगों की जागृति का मुख्य कारण यह है कि जो चीज़ें उन्हें संतुष्ट नहीं करती हैं उन पर उन्होंने सहमति देना बंद कर दिया है। यह कहा जाता है कि जब व्यक्ति सही रास्ता चुनता है तो उसे उस पर अकेले ही चलना पड़ता है वह बहुत अकेला महसूस करता है और इसके साथ ही उसे उन चीज़ों और आदतों को छोड़ना पड़ता है जिसकी उसे आवश्यकता नहीं होती। ऐसे ही एक व्यक्ति गुरदीप सिंह बराड़ हैं, जिन्होंने सामाजिक प्रवृत्ति के विपरीत जाकर, जागृत होकर रासायनिक खेती को छोड़ जैविक खेती को अपनाया।

गुरदीप सिंह बराड़ गांव मेहमा सवाई जिला बठिंडा के निवासी हैं। 17 वर्ष पहले श्री गुरदीप सिंह के जीवन में एक बड़ा बदलाव आया जिसने उनके विचारों और खेती करने के ढंगों को पूरी तरह बदल दिया। आज गुरदीप सिंह एक सफल किसान हैं और बठिंडा में जैविक किसान के नाम से जाने जाते हैं और उनकी कमायी भी अन्य किसानों के मुकाबले ज्यादा हैं जो पारंपरिक या रासायनिक खेती करते हैं।

जैविक खेती करने से पहले गुरदीप सिंह बराड़ एक साधारण किसान थे जो कि वही काम करते थे जो वे बचपन से देखते आ रहे थे। उनके पास केवल 2 एकड़ की भूमि थी जिस पर वे खेती करते थे और उनकी आय सिर्फ गुज़ारा करने योग्य थी।

1995 में वे किसान सलाहकार सेवा केंद्र के माहिरों के संपर्क में आये। वहां वे अपने खेती संबंधित समस्याओं के बारे में बातचीत करते थे और उनका समाधान और जवाब पाते थे। वे के वी के बठिंडा ब्रांच के माहिरों से भी जुड़े थे। कुछ समय बाद किसान सलाहकार केंद्र ने उन्हें सब्जियों के बीजों की किट उपलब्ध करवाकर क्षेत्र के 1 कनाल में एक छोटी सी घरेलु बगीची लगाने के लिए प्रेरित किया। जब घरेलु बगीची का विचार सफल हुआ तो उन्होंने 1 कनाल क्षेत्र को 2 कनाल में फैला दिया और सब्जियों का अच्छा उत्पादन करना शुरू किया।

सिर्फ चार वर्ष बाद 1999 में वे अंबुजा सीमेंट फाउंडेशन के संपर्क में आये। उन्होने उनके साथ मिलकर काम किया और कई विभिन्न खेतों का दौरा भी किया।

उनमें से कुछ हैं
• नाभा ऑरगैनिक फार्म
• गंगानगर में भगत पूर्ण सिंह फार्म
• ऑरगैनिक फार्म

इन सभी विभिन्न खेतों का दौरा करने के बाद वे जैविक खेती की तरफ प्रेरित हुए और उसके बाद उन्होंने सब्जियों के साथ मौसमी फल उगाने शुरू किए। वे बीज उपचार, कीटों के नियंत्रण और जैविक खाद तक तैयार करने के लिए जैविक तरीकों का प्रयोग करते थे। बीज उपचार के लिए वे नीम का पानी, गाय का मूत्र, चूने के पानी का मिश्रण और हींग के पानी के मिश्रण का प्रयोग करते हैं। वे सब्जियों की उपज को स्वस्थ और रसायन मुक्त बनाने के लिए घर पर तैयार जीव अमृत का प्रयोग करते हैं। कीटों के हमले के नियंत्रण के लिए वे खेतों में लस्सी का प्रयोग करते हैं। वे पानी के प्रबंधन की तरफ भी बहुत ध्यान देते हैं। इसलिए वे सिंचाई के लिए तुपका सिंचाई प्रणाली का प्रयोग करते हैं।

गुरदीप सिंह ने अपने फार्म पर वर्मी कंपोस्ट यूनिट भी लगाई है ताकि वे सब्जियों और फलों के लिए शुद्ध जैविक खाद उपलब्ध कर सकें। उन्होंने प्रत्येक कनाल में दो गड्ढे बनाये हैं जहां पर वे गाय का गोबर, भैंस का गोबर और पोल्टरी खाद डालते हैं।

खेती के साथ साथ वे कद्दू, करेले और काली तोरी के बीज घर पर ही तैयार करते हैं। जिससे उन्हें बाज़ार जाकर सब्जियों के बीज खरीदने की आवश्यकता नहीं पड़ती। कद्दू की मात्रा और गुणवत्ता को बढ़ाने के लिए वे विशेष तौर पर कद्दू की बेलों को उचित सहारा देने के लिए रस्सी का प्रयोग करते हैं।

आज उनकी सब्जियां इतनी प्रसिद्ध हैं कि बठिंडा, गोनियाना मंडी और अन्य नज़दीक के लोग विशेष तौर पर सब्जियों खरीदने के लिए उनके फार्म का दौरा करने आते हैं। जब बात सब्जियों के मंडीकरण की आती है तो वे कभी तीसरे व्यक्ति पर निर्भर नहीं होते। वे 500 ग्राम के पैकेट बनाकर उत्पादों को स्वंय बेचते हैं और आज की तारीख में वे इससे अच्छा लाभ कमा रहे हैं।

खेती की तकनीकों और ढंगों के लिए उन्हें कई स्थानीय पुरस्कार मिले हैं और वे कई खेती संस्थाओं और संगठनों के सदस्य भी हैं। 2015 में उन्होंने पी ए यू से सुरजीत सिंह ढिल्लों पुरस्कार प्राप्त किया। उस इंसान के लिए इस स्तर पर पहुंचना जो कभी स्कूल नहीं गया बहुत महत्तव रखता है। वर्तमान में वे अपनी माता, पत्नी और पुत्र के साथ अपने गांव में रह रहे है। भविष्य में वे जैविक खेती को जारी रखना चाहते हैं और समाज को स्वस्थ और रासायन मुक्त भोजन उपलब्ध करवाना चाहते हैं।

किसानों को संदेश
किसानों द्वारा प्रयोग किए जाने वाले रसायनों के कारण आज लोगों में कैंसर जैसी बीमारियां फैल रही हैं। मैं ये नहीं कहता कि किसानों को खादों और कीटनाशकों का प्रयोग नहीं करना चाहिए लेकिन उन्हें इनका प्रयोग कम कर देना चाहिए और जैविक खेती का अपनाना चाहिए। इस तरह वे मिट्टी और जल प्रदूषण को बचा सकते हैं और कैंसर जैसी अन्य बीमारियों को रोक सकते हैं।

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खुशदीप सिंह बैंस

(लहसुन के माहिर)

कैसे एक 26 वर्षीय नौजवान लड़के ने सब्जी की खेती करके अपनी ज़िंदगी की सबसे बड़ी खुशी को हासिल किया

भारत के पास दूसरी सबसे बड़ी कृषि भूमि है और भारतीय अर्थव्यवस्था पर इसका प्रभाव बहुत बड़ा है। लेकिन फिर भी आज अगर हम युवाओं से उनकी भविष्य की योजना के बारे में पूछेंगे तो बहुत कम युवा होंगे जो खेतीबाड़ी या एग्रीबिज़नेस कहेंगे।

हरनामपुरा, लुधियाना के 26 वर्षीय युवा- खुशदीप सिंह बैंस, जिसने दो विभिन्न कंपनियों में दो वर्ष काम करने के बाद खेती करने का फैसला किया और आज वह 28 एकड़ की भूमि पर सिर्फ सब्जियों की खेती कर रहा है।

खैर, खुशदीप ने क्यों अपनी अच्छी कमाई वाली और आरामदायक जॉब छोड़ दी और खेतीबाड़ी शुरू की। यह एग्रीकल्चर की तरफ खुशदीप की दिलचस्पी थी।

खुशदीप सिंह बैंस उस परिवार की पृष्ठभूमि से आते हैं जहां उनके पिता सुखविंदर सिंह मुख्यत: रियल एसटेट का काम करते थे और घर के लिए छोटे स्तर पर गेहूं और धान की खेती करते थे। खुशदीप के पिता हमेशा चाहते थे कि उनका पुत्र एक आरामदायक जॉब करे, जहां उसे काम करने के लिए एक कुर्सी और मेज दी जाए। उन्होंने कभी नहीं सोचा कि उनका पुत्र धूप और मिट्टी में काम करेगा। लेकिन जब खुशदीप ने अपनी जॉब छोड़ी और खेतीबाड़ी शुरू की उस समय उनके पिता उनके फैसले के बिल्कुल विरूद्ध थे  क्योंकि उनके विचार से खेतीबाड़ी एक ऐसा व्यवसाय है जहां बड़ी संख्या में मजदूरों की आवश्यकता होती है और यह वह काम नहीं है जो पढ़े लिखे और साक्षर लोगों को करना चाहिए।

लेकिन किसी भी नकारात्मक सोच को बदलने के लिए आपको सिर्फ एक शक्तिशाली सकारात्मक परिणाम की आवश्यकता होती है और यह वह परिणाम था जिसे खुशदीप अपने साथ लेकर आये।

यह कैसे शुरू हुआ…

जब खुशदीप ईस्टमैन में काम कर रहे थे उस समय वे नए पौधे तैयार करते थे और यही वह समय था जब वे खेती की तरफ आकर्षित हुए। 1 वर्ष और 8 महीने काम करने के बाद उन्होंने अपनी जॉब छोड़ दी और यू पी एल पेस्टीसाइड (UPL Pesticides) के साथ काम करना शुरू किया। लेकिन वहां भी उन्होंने 2-3 महीने काम किया। वे अपने काम से संतुष्ट नहीं थे और वे कुछ और करना चाहते थे। इसलिए ईस्टमैन और यू पी एल पेस्टीसाइड (UPL Pesticides) कंपनी में 2 वर्ष काम करने के बाद खुशदीप ने सब्जियों की खेती शुरू करने का फैसला किया।

उन्होंने आधे – आधे एकड़ में कद्दू, तोरी और भिंडी की रोपाई की। वे कीटनाशकों का प्रयोग करते थे और अपनी कल्पना से अधिक फसल की तुड़ाई करते थे। धीरे-धीरे उन्होंने अपने खेती के क्षेत्र को बढ़ाया और सब्जियों की अन्य किस्में उगायी। उन्होंने हर तरह की सब्जी उगानी शुरू की। चाहे वह मौसमी हो और चाहे बे मौसमी। उन्होंने मटर और मक्की की फसल के लिए Pagro Foods Ltd. से कॉन्ट्रैक्ट भी साइन किया और उससे काफी लाभ प्राप्त किया। उसके बाद 2016 में उन्होंने धान, फलियां, आलू, प्याज, लहसुन, मटर, शिमला मिर्च, फूल गोभी, मूंग की फलियां और बासमती को बारी-बारी से उसी खेत में उगाया।

खेतीबाड़ी के साथ खुशदीप ने बीज और लहसुन और कई अन्य फसलों के नए पौधे तैयार करने शुरू किए और इस सहायक काम से उन्होंने काफी लाभ प्राप्त किया। पिछले तीन वर्षों से वे बीज की तैयारी को पी ए यू लुधियाना किसान मेले में दिखा रहे हैं और हर बार उन्हें काफी अच्छी प्रतिक्रिया मिली।

आज खुशदीप के पिता और माता दोनों को अपने पुत्र की उपलब्धियों पर गर्व है। खुशदीप अपने काम से बहुत खुश है और दूसरे किसानों को इसकी तरफ प्रेरित भी करते हैं। वर्तमान में वे सब्जियों की खेती से अच्छा लाभ कमा रहे हैं और भविष्य में वे अपनी नर्सरी और फूड प्रोसेसिंग का व्यापार शुरू करना चाहते हैं।

किसानों को संदेश
किसानों को अपने मंडीकरण के लिए किसी तीसरे इंसान पर निर्भर नहीं होना चाहिए। उन्हें अपना काम स्वंय करना चाहिए। एक और बात जिसका किसानों को ध्यान रखना चाहिए कि उन्हें किसी एक के पीछे नहीं जाना चाहिए। उन्हें वो काम करना चाहिए जो वे करना चाहते हैं।
किसानों को विविधता वाली खेती के बारे में सोचना चाहिए और उन्हें एक से ज्यादा फसलों को उगाना चाहिए क्योंकि यदि एक फसल नष्ट हो जाये तो आखिर में उनके पास सहारे के लिए दूसरी फसल तो हो। हर बार एक या दो माहिरों से सलाह लेनी चाहिए और उसके बाद ही अपना नया उद्यम शुरू करना चाहिए।
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पूजा शर्मा

(अनाज/ प्रोसेसिंग)

एक दृढ़ इच्छा शक्ति वाली महिला की कहानी जिसने अपने परिवार की जरूरतों को पूरा करने के लिए खेती के माध्यम से अपने पति का साथ दिया

हमारे भारतीय समाज में एक धारणा को जड़ दिया गया है कि महिला को घर पर होना चाहिए और पुरूषों को कमाना चाहिए। लेकिन फिर भी ऐसी कई महिलाएं हैं जो रोटी अर्जित के टैग को बहुत ही आत्मविश्वास से सकारात्मक तरीके से पेश करती हैं और अपने पतियों की घर चलाने और घर की जरूरतों को पूरा करने में मदद करती हैं। ऐसी ही एक महिला हैं – पूजा शर्मा, जो अपने घर की जरूरतों को पूरा करने में अपने पति की सहायता कर रही हैं।

श्री मती पूजा शर्मा जाटों की धरती- हरियाणा की एक उभरती हुई एग्रीप्रेन्योर हैं और वर्तमान में वे क्षितिज सेल्फ हेल्प ग्रुप की अध्यक्ष भी हैं और उनके गांव (चंदू) की प्रगतिशील महिलाएं उनके अधीन काम करती हैं। अभिनव खेती की तकनीकों का प्रयोग करके वे सोयाबीन, गेहूं, मक्का, बाजरा और मक्की से 11 किस्मों का खाना तैयार करती हैं, जिन्हें आसानी से बनाया जा सकता है और सीधे तौर पर खाया जा सकता है।

खेती के क्षेत्र में जाने का निर्णय 2012 में तब लिया गया, जब श्री मती पूजा शर्मा (तीन बच्चों की मां) को एहसास हुआ कि उनके घर की जरूरतें उनके पति (सरकारी अनुबंध कर्मचारी) की कमाई से पूरी नहीं हो रही हैं और अब ये उनकी जिम्मेदारी है कि वे अपने पति को सहारा दें।

वे KVK शिकोपूर में शामिल हुई और उन्हें उन चीज़ों को सीखने के लिए कहा गया जो उनकी आजीविका कमाने में मदद करेंगे। उन्होंने वहां से ट्रेनिंग ली और खेती की नई तकनीकें सीखीं। उन्होंने वहां सोयाबीन और अन्य अनाज की प्रक्रिया को सीखा ताकि इसे सीधा खाने के लिए इस्तेमाल किया जा सके और यह ट्रेनिंग लेने के बाद उन्होंने अपने पड़ोस और गांव की अन्य महिलाओं को ट्रेनिंग लेने के लिए प्रोत्साहित किया।

2013 में उन्होंने अपने घर पर भुनी हुई सोयाबीन की अपनी एक छोटी निर्माण यूनिट स्थापित की और अपने उद्यम में अपने गांव की अन्य महिलाओं को भी शामिल किया और धीरे-धीरे अपने व्यवसाय का विस्तार किया। उन्होंने एक क्षितिज SHG के नाम से एक सेल्फ हेल्प ग्रुप भी बनाया और अपने गांव की और महिलाओं को इसमें शामिल होने के लिए प्रोत्साहित किया। ग्रुप की सभी महिलाओं की बचत को इकट्ठा करके उन्होंने और तीन भुनाई की मशीने खरीदीं और कुछ समय बाद उन्होंने और पैसा इकट्ठा किया और दो और मशीने खरीदीं। वर्तमान में उनके ग्रुप के पास निर्माण के लिए 7 मशीनें हैं। ये मशीनें उनके बजट के मुताबिक काफी महंगी हैं। लेकिन फिर भी उन्होंने सब प्रबंध किया और इन मशीनों की लागत 16000 और 20000 के लगभग प्रति मशीन है। उनके पास 1.25 एकड़ की भूमि है और वे सक्रिय रूप से खेती में भी शामिल हैं। वे ज्यादातर दालों और अनाज की उन फसलों की खेती करती हैं जिन्हें प्रोसेस किया जा सके और बाद में बेचने के लिए प्रयोग किया जा सके। वे अपने गांव की अन्य महिलाओं को भी यही सिखाती हैं कि उन्हें अपनी भूमि का प्रभावी ढंग से प्रयोग करना चाहिए क्योंकि इससे उन्हें भविष्य में फायदा हो सकता है।

11 महिलाओं की टीम के साथ आज वे प्रोसेसिंग कर रही है और 11 से ज्यादा किस्मों के उत्पादों (बाजरे की खिचड़ी, बाजरे के लड्डू, भुने हुए गेहूं के दाने, भुनी हुई ज्वार, भुनी हुई सोयाबीन, भुने हुए काले चने) जो कि खाने और बनाने के लिए तैयार हैं, को राज्यों और देश में बेच रही हैं। पूजा शर्मा की इच्छा शक्ति ने गांव की अन्य महिलाओं को आत्म निर्भरता और आत्म विश्वास हासिल करने में मदद की है।

उनके लिए यह काफी लंबी यात्रा थी जहां वे आज पहुंची हैं और उन्होंने कई चुनौतियों का सामना भी किया। अब उन्होंने अपने घर पर ही मशीनों को स्थापित किया है ताकि महिलाएं इन्हें चला सकें जब भी वे खाली हों और उनके गांव में बिजली की कटौती भी काफी होती हैं इसलिए उन्होंने उनके काम को उसी के अनुसार बांटा हुआ है। कुछ महिलायें बीन्स को सुखाती हैं, कुछ साफ करती है और बाकी की महिलायें उन्हें भूनती और पीसती हैं।

वर्तमान में कई बार पूजा शर्मा और उनका ग्रुप अंग्रेजी भाषा की समस्या का सामना करता है क्योंकि जब बड़ी कंपनियों के साथ संवाद करने की बात आती है तो उन्हें पता है कि किस कौशल में उनकी सबसे ज्यादा कमी है और वह है शिक्षा। लेकिन वे इससे निराश नहीं हैं और इस पर काम करने की कोशिश कर रही हैं। खाद्य वस्तुओं के निर्माण के अलावा वे सिलाई, खेती और अन्य गतिविधियों में ट्रेनिंग लेने में भी महिलाओं की मदद कर रही हैं, जिसमें वे रूचि रखती हैं।

उनके भविष्य की योजनाएं अपने व्यवसाय का विस्तार करना और अधिक महिलाओं को प्रेरित करना और उन्हें आत्म निर्भर बनाना ताकि उन्हें पैसों के लिए दूसरों पर निर्भर ना रहना पड़े। ज़ोन 2 के अंतर्गत राजस्थान, हरियाणा और दिल्ली राज्यों से उन्हें उनके उत्साही काम और प्रयासों के लिए और अभिनव खेती की तकनीकों के लिए पंडित दीनदयाल उपध्याय कृषि पुरस्कार के साथ 50000 रूपये की नकद राशि और प्रमाण पत्र भी मिला। वे ATMA SCHEME की मैंबर भी हैं और उन्हें गवर्नर कप्तान सिंह सोलंकी द्वारा उच्च प्रोटीन युक्त भोजन बनाने के लिए प्रशंसा पत्र भी मिला।

किसानों को संदेश
जहां भी किसान अनाज, दालों और किसी भी फसल की खेती करते हैं वहां उन्हें उन महिलाओं का एक समूह बनाना चाहिए जो सिर्फ घरेलू काम कर रही हैं और उन्हें उत्पादित फसलों से प्रोसेसिंग द्वारा अच्छी चीजें बनाने के लिए ट्रेनिंग देनी चाहिए, ताकि वे उन चीज़ों को मार्किट में बेच सकें और इसके लिए अच्छी कीमत प्राप्त कर सकें।”

 

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हरजिंदर कौर रंधावा

(मशरूम)

कैसे इस 60 वर्षीय महिला ने अमृतसर में मशरूम की खेती व्यवसाय की स्थापना की और उनके बेटों में इसे सफल बनाया

पंजाब में जहां आज भी लोग पारंपरिक खेती के चक्र में फंसे हुए हैं वहां कुछ किसान ऐसे हैं, जिन्होंने इस चक्र को तोड़ा और खेती की अभिनव तकनीक को लेकर आये, जो कि प्रकृति के जरूरी संसाधन जैसे पानी आदि को बचाने में मदद करते हैं।

यह कहानी एक परिवार के प्रयासों की कहानी है। रंधावा परिवार धार्मिक शहर पंजाब अमृतसर से है, जो अमृत सरोवर (पवित्र जल तालाब) से घिरा हुआ अद्भुत पाक शैली, संस्कृति और शांत स्वर्ण मंदिर के लिए जाना जाता है। यह परिवार ना केवल मशुरूम की खेती में क्रांति ला रहा है, बल्कि आधुनिक, किफायती तकनीकों की तरफ अन्य किसानों को प्रोत्साहित कर रहा है।

हरजिंदर कौर रंधावा अमृतसर की प्रसिद्ध मशरूम महिला हैं। उन्होंने मशरूम की खेती सिर्फ एक अतिरिक्त काम के तौर पर शुरू की या हम कह सकते हैं कि यह उनका शौंक था लेकिन कौन जानता था कि श्री मती हरजिंदर कौर का यह शौंक, भविष्य में उनके बेटों द्वारा एक सफल व्यापार में बदल दिया जायेगा।

यह कैसे शुरू हुआ…
अस्सी नब्बे के दशक में पंजाब पुलिस में सेवा करने वाले राजिंदर सिंह रंधावा की पत्नी होने के नाते, घर में कोई कमी नहीं थी, जो श्री मती हरजिंदर कौर को वैकल्पिक धन कमाई स्त्रोत की तलाश में असुरक्षित बनाती।

कैसे एक गृहिणी की रूचि ने परिवार के भविष्य के लिए नींव रखी…
लेकिन 1989 में हरजिंदर कौर ने कुछ अलग करने का सोचा और अपने अतिरिक्त समय का कुशल तरीके से इस्तेमाल करने का विचार किया, इसलिए उन्होंने अपने घर के बरामदे में मशरूम की खेती शुरू की। मशरूम की खेती शुरू करने से पहले उनके पास कोई ट्रेनिंग नहीं थी, लेकिन उनके समर्पण ने उनके कामों में सच्चे रंग लाए। धीरे-धीरे उन्होंने मशरूम की खेती के काम को बढ़ाया और मशरूम से खाद्य पदार्थ बनाने शुरू कर दिए।

जब बेटे अपनी मां का सहारा बने…
जब उनके बेटे बड़े हो गए और उन्होंने अपनी पढ़ाई पूरी कर ली, तो चार बेटों मे से तीन बेटे (मनजीत, मनदीप और हरप्रीत) मशरूम की खेती के व्यवसाय में अपनी मां की मदद करने का फैसला किया। तीनों बेटे विशेष रूप से ट्रेनिंग के लिए डायरेक्टोरेट ऑफ मशरूम रिसर्च, सोलन गए। वहां पर उन्होंने मशरूम की अलग-अलग किस्मों जैसे बटन, मिल्की और ओइस्टर के बारे में सीखा। उन्होंने मशरूम की खेती पर पी ए यू द्वारा दी गई अन्य व्यवसायिक ट्रेनिंग में भी भाग लिया। जबकि तीसरा बेटा (जगदीप सिंह) अन्य फसलों की खेती करने में अधिक रूचि रखता था और बाद में वह ऑस्ट्रेलिया गया और गन्ने और केले की खेती शुरू की।समय के साथ-साथ, हरजिंदर कौर के बेटे मशरूम की खेती के काम का विस्तार करते रहते हैं और उन्होंने व्यापारिक उद्देश्य के लिए मशरूम के उत्पादों जैसे आचार, पापड़, पाउडर, बड़ियां, नमकीन और बिस्किट का प्रोसेस भी शुरू कर दिया है। दूसरी तरफ, श्री राजिंदर सिंह रंधावा भी रिटायरमेंट के बाद अन्य सदस्यों के साथ मशरूम की खेती के व्यवसाय में शामिल हुए।

आज रंधावा परिवार एक सफल मशरूम उत्पादक हैं और मशरूम के उत्पादों का एक सफल निर्माता है। बीज की तैयारी से लेकर मार्किटिंग तक का काम परिवार के सदस्य सब कुछ स्वंय करते हैं। हरजिंदर कौर के बाद, एक अन्य सदस्य मनदीप सिंह (दूसरा बेटा), जिसने इस व्यापार को अधिक गंभीरता से लिया और उसका विस्तार करने की दिशा में काम किया। वे विशेष रूप से सभी उत्पादों का निर्माण और उनके मार्किटिंग का प्रबंधन करते हैं। मुख्य रूप से वे अपनी दुकान (रंधावा मशरूम फार्म) के माध्यम से काम करते हैं जो कि बटाला जालंधर रोड पर स्थित है।

अन्य दो बेटे (मनजीत सिंह और हरप्रीत सिंह) भी रंधावा मशरूम फार्म चलाने में एक महत्तवपूर्ण भूमिका निभाते हैं। वे मशरूम की खेती, कटाई और व्यवसाय से संबंधित अन्य कामों का प्रबंधन करते हैं।

हालांकि, परिवार के बेटे अब सभी कामों का प्रबंधन कर रहे हैं फिर भी हरजिंदर कौर बहुत सक्रिय रूप से भाग लेते हैं और व्यक्तिगत तौर पर खेती और निर्माण स्थान पर जाते हैं और उस पर काम कर रहे अन्य लोगों का मार्गदर्शन करते हैं। वे मुख्य व्यक्ति हैं जो उनके द्वारा निर्मित उत्पादों की स्वच्छता और गुणवत्ता का ध्यान रखते हैं ।

हरजिंदर कौर अपने आने वाले भविष्य में अपनी तीसरी पीढ़ी को देखना चाहती हैं …

“ मैं चाहती हूं कि मेरी तीसरी पीढ़ी भी हमारे व्यापार का हिस्सा हो, उनमें से कुछ यह समझने योग्य हैं कि क्या हो रहा है उन्होंने पहले से ही मशरूम की खेती व्यापार में दिलचस्पी दिखाना शुरू कर दिया है। हम अपने पोते (मनजीत सिंह का पुत्र, जो अभी 10वीं कक्षा की पढ़ाई कर रहा है ), को मशरूम रिसर्च में उच्च शिक्षा प्राप्त करने और इस पर पी एच डी करने के लिए विदेश भेजने की योजना बना रहे हैं।

मार्किट में छाप स्थापित करना…
रंधावा मशरूम फार्म ने पहले ही अपने उत्पादन की गुणवत्ता के साथ बाजार में बड़े पैमाने पर अपनी मौजूदगी दर्ज की। वर्तमान में 70 प्रतिशत उत्पाद (ताजा मशरूम और संसाधित मशरूम खाद्य पदार्थ) उनकी अपनी दुकान के माध्यम से बेचे जाते हैं और शेष 30 प्रतिशत आस-पास के बड़े शहरों जैसे जालंधर, अमृतसर, बटाला और गुरदासपुर के सब्जी मंडी में भेजे जाते हैं।चूंकि वे मशरूम की तीन किस्मों मिल्की, बटन और ओइस्टर उगाते हैं इसलिए इनकी आमदन भी अच्छी होती है। इन तीनों किस्मों में निवेश कम होता है और आमदन 70 से 80 रूपये (कच्ची मशरूम) प्रति किलो के बीच होती है। कटाई के लिए तैयार होने के लिए बटन मशरूम फसल को 20 से 50 दिन लगते हैं, जबकि ओइस्टर (नवंबर-अप्रैल) और मिल्की (मई-अक्तूबर) कटाई के लिए तैयार होने में 6 महीने लगते हैं। फसलों के तैयार होने और कटाई के समय के कारण इनका व्यापार कभी भी बेमौसम नहीं होता।

रंधावा परिवार…
बहुओं सहित पूरा परिवार व्यापार में बहुत ज्यादा शामिल है और वे घर पर सभी उत्पादों को स्वंय तैयार करते हैं। दूसरा बेटा मनदीप सिंह अपने परिवार के व्यवसाय के मार्किटिंग विभाग को संभालने के अलावा एक और पेशे में अपनी सेवा दे रहे हैं। वे 2007 से जगबाणी अखबार में एक रिपोर्टर के रूप में काम कर रहे हैं और अमृतसर जिले को कवर करते हैं। कभी कभी उनकी उपस्थिति में श्री राजिंदर सिंह रंधावा दुकान को संभालते हैं।आजकल सरकार और कृषि विभाग, किसानों को उन फसलों की खेती के लिए प्रोत्साहित कर रहे हैं, जिसमें कम पानी की आवश्यकता होती है और मशरूम इन फसलों में से एक हैं, जिसे सिंचाई के लिए अधिक मात्रा में पानी की आवश्यकता नहीं होती। इसलिए मशरूम की खेती में प्रयासों के कारण, रंधावा परिवार को दो बार जिला स्तरीय पुरस्कार और समारोह और मेलों में तहसील स्तरीय पुरस्कार से सम्मानित किया गया है। हाल ही में 10 सितंबर 2017 को रंधावा परिवार के प्रयासों को देश भर में मशरूम रिसर्च सोलन के निदेशालय द्वारा सराहा गया, जहां उन्हें राष्ट्रीय पुरस्कार से सम्मानित किया गया।

किसानों को संदेश
रंधावा परिवार एक साथ होने में विश्वास करता है और उनका संदेश किसानों के लिए सबसे अनोखा और प्रेरणादायक संदेश है।

जो परिवार एक साथ रहता है, वह सफलता को बहुत आसानी से प्राप्त करता है। आज कल किसान को एकता की शक्ति को समझना चाहिए और परिवार के सदस्यों के बीच उनकी ज़मीन और संपत्ति को विभाजित करने की बजाय उन्हें एकता में रहकर काम करना चाहिए। एक और बात यह है कि किसान को मार्किटिंग का काम स्वंय शुरू करना चाहिए क्योंकि यह आत्मविश्वास कमाने और अपनी फसल का सही मुल्य अर्जित करने का सबसे आसान तरीका है।

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सत्या रानी

(प्रोसेसिंग, जैविक खेती)

सत्या रानी: अपनी मेहनत से सफल एक महिला, जो फूड प्रोसेसिंड उदयोग में सूर्य की तरह उभर रही हैं

जब बात विकास की आती है तो इसमें कोई शक नहीं है कि महिलाएं भारत के युवा दिमागों को आकार देने और मार्गदर्शन करने में प्रमुख भूमिका निभा रही हैं। यहां तक कि खेतीबाड़ी के क्षेत्र में भी महिलायें पीछे नहीं हैं वे टिकाऊ और जैविक खेती के मार्ग का नेतृत्व कर रही हैं। आज, कई ग्रामीण और शहरी महिलायें खेतीबाड़ी में प्रयोग होने वाले रसायनों के प्रति जागरूक हैं और वे इस कारण इस क्षेत्र में काम भी कर रही हैं। सत्या रानी उन महिलाओं में से एक हैं जो जैविक खेती कर रही हैं और फूड प्रोसेसिंग के व्यापार में भी क्रियाशील हैं।

बढ़ते स्वास्थ्य मुद्दों और जलवायु परिर्वतन के साथ, खाद्य सुरक्षा से निपटना एक बड़ी चुनौती बन गई है और सत्या रानी एक उभरती हुई एग्रीप्रेन्योर हैं जो इस मुद्दे पर काम कर रही हैं। कृषि के क्षेत्र में योगदान करना और प्राकृति को उसका दिया वापिस देना सत्या का बचपन का सपना था। शुरू से ही उसके माता पिता ने उसे हमेशा इसकी तरफ निर्देशित और प्रेरित किया और अंतत: एक छोटी लड़की का सपना एक महिला का दृष्टिगोचर बन गया।

सत्या के जीवन में एक बुरा समय भी आया जिसमें अगर कोई अन्य लड़की होती तो वह अपना आत्म विश्वास और उम्मीद आसानी से खो देती। सत्या के माता पिता ने उन्हें वित्तीय समस्याओं के कारण 12वीं के बाद अपनी पढ़ाई रोकने के लिए कहा। लेकिन उसका अपने भविष्य के प्रति इतना दृढ़ संकल्प था कि उसने अपने माता-पिता से कहा कि वह अपनी उच्च शिक्षा का प्रबंधन खुद करेगी। उसने खाद्य उत्पाद जैसे आचार और चटनी बनाने का और इसे बेचने का काम शुरू किया।

इस समय के दौरान उसने कई नई चीज़ें सीखीं और उसकी रूचि फूड प्रोसेसिंग व्यापार में बढ़ गई। हिंदू गर्ल्स कॉलेज, जगाधरी से अपनी बी ए की पढ़ाई पूरी करने के बाद उसे उसी कॉलेज में होम साइंस ट्रेनर की जॉब मिल गई। इसके तुरंत बाद उसने 2004 में राजिंदर कुमार कंबोज से शादी की, लेकिन शादी के बाद भी उसने अपना काम नहीं छोड़ा। उसने अपने फूड प्रोसेसिंग के काम को जारी रखा और कई नये उत्पाद जैसे आम के लड्डू, नारियल के लड्डू, आचार, फ्रूट जैम, मुरब्बा और भी लड्डुओं की कई किस्में विकसित की। उसकी निपुणता समय के साथ बढ़ गई जिसके परिणाम स्वरूप उसके उत्पादों की गुणवत्ता अच्छी हुई और बड़ी संख्या में उसका ग्राहक आधार बना।

खैर, फूड प्रोसेसिंग ही ऐसा एकमात्र क्षेत्र नहीं है जिसमें उसने उत्कृष्टा हासिल की। अपने स्कूल के समय से वह खेल में बहुत सक्रिय थीं और कबड्डी टीम की कप्तान थी। वह अपने पेशे और काम के प्रति बहुत उत्साही थी। यहां तक कि उसने हिंदू गर्ल्स कॉलेज से सर्वश्रेष्ठ ट्रेनिंग पुरस्कार भी प्राप्त किया। वर्तमान में वह एक एकड़ ज़मीन पर जैविक खेती कर रही है और डेयरी फार्मिंग में भी सक्रिय रूप से शामिल है। वह अपने पति की सहायता से हर तरह की मौसमी सब्जियां उगाती है। सत्या ऑरगैनिक ब्रांड नाम है जिसके तहत वह अपने प्रोसेस किए उत्पादों (विभिन्न तरह के लड्डू, आचार, जैम और मुरब्बा ) को बेच रही है।

आने वाले समय में वह अपने काम को बढ़ाने और इससे अधिक आमदन कमाने की योजना बना रही है वह समाज में अन्य लड़कियों और महिलाओं को फूड प्रोसेसिंग और जैविक खेती के प्रति प्रेरित करना चाहती है ताकि वे आत्म निर्भर हो सकें।

किसानों को संदेश
यदि आपको भगवान ने सब कुछ दिया है अच्छा स्वास्थ्य और मानसिक रूप से तंदरूस्त दिमाग तो आपको एक रचनात्मक दिशा में काम करना चाहिए और एक सकारात्मक तरीके से शक्ति का उपयोग करना चाहिए। प्रत्येक व्यक्ति को स्वंय में छिपी प्रतिभा को पहचानना चाहिए ताकि वे उस दिशा में काम कर सके जो समाज के लिए लाभदायक हो।
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कुलवंत कौर

(फुड प्रोसेसिंग)

“हर सफल औरत के पीछे वह स्वंय होती हैं।”
-कैसे कुलवंत कौर ने इस उद्धरण को सही साबित किया

भारत में ऐसी कई महिलाएं हैं, जो असाधारण व्यक्तित्व रखती हैं, जिनका दिखने का उद्धरण नहीं, लेकिन उनका कौशल और आत्म विश्वास उन्हें दूसरों से अद्भुत बनाता है। कोई भी चीज़ उन्हें उनके उद्देश्य को पूरा करने से रोक नहीं सकती और उनके इस अद्वितीय व्यक्तित्व के पीछे उनकी स्वंय की प्रेरणा होती है।

ऐसी ही एक महिला – कुलवंत कौर, जिन्होंने अपने अंदर की पुकार को सुना और एग्रीव्यापार को अपने भविष्य की योजना के तौर पर चुना। खेती की पृष्ठभूमि से आने के कारण कुलवंत कौर और उनके पति जसविंदर सिंह, धान और गेहूं की खेती करते थे और डेयरी फार्मिंग में भी निष्क्रिय रूप से शामिल थे। शुरू से ही परिवार का ध्यान मुख्य तौर पर डेयरी बिज़नेस पर था क्योंकि वे 2.5 एकड़ भूमि के मालिक थे और जरूरत पड़ने पर भूमि को किराये पर दे सकते थे। डेयरी फार्म में 30 भैंसों के साथ, उनका दूध व्यवसाय बहुत अच्छे से विकास कर रहा था और खेती की तुलना में बहुत अधिक लाभदायक था।

कुलवंत कौर की खेतीबाड़ी में बहुत रूचि थी और इससे संबंधित व्यापार भी करते थे और एक दिन उन्होंने के वी के फतेहगढ़ साहिब के बारे में पढ़ा और इसमें शामिल होने का फैसला किया। उन्होंने 2011 में वहां से फलों और सब्जियों के प्रबंधन की 5 दिन की ट्रेनिंग ली। ट्रेनिंग के आखिरी दिन उन्होंने एक प्रतियोगिता में भाग लिया और सेब की जैम और हल्दी का आचार बनाने में पहला पुरस्कार जीता। उनकी ज़िंदगी में यह पहला पुरस्कार था, जो उन्होंने जीता और इस उपलब्धि ने उन्हें इतना दृढ़ और प्रेरित किया कि उन्होंने यह काम अपने आप शुरू करने का फैसला किया। उनके उत्पाद इतने अच्छे थे कि जल्द ही उन्हें एक अच्छा ग्राहक आधार मिला।

धीरे-धीरे उनके काम की गति, निपुणता और उत्पाद की गुणवत्ता समय के साथ बेहतर हो गई और हल्दी का आचार उनके उत्पादों में सबसे अधिक मांग वाला उत्पाद बन गया। उसके बाद अपने कौशल को बढ़ाने के लिए फिनाइल, साबुन, आंवला जूस, चटनी और आचार की ट्रेनिंग के लिए वे के वी के समराला में शामिल हो गए। अपनी ली गई ट्रेनिंग का प्रयोग करने के लिए वे विशेष तौर पर आंवला जूस की मशीन खरीदने के लिए दिल्ली गई। बहुत ही जल्दी उन्होंने एक ही मशीन से एलोवेरा जूस, शैंपू, जैल और हैंड वॉश बनाने की तकनीक को समझा और उत्पादों की प्रक्रिया देखने के बाद वे बहुत उत्साहित हुई और उन्होंने आत्मविश्वास हासिल किया।

ये उनका आत्मविश्वास और उपलब्धियां ही थी, जिन्होंने कुलवंत कौर को और ज्यादा काम करने के लिए प्रेरित किया। आखिर में उन्होंने उत्पादों का विनिर्माण घर पर ही शुरू किया और उनकी मंडीकरण भी स्वंय किया। एग्रीबिज़नेस की तरफ उनकी रूचि ने उन्हें इस क्षेत्र की तरफ और बढ़ावा दिया। 2012 में वे पी ए यू किसान क्लब की मैंबर बनी। उन्होंने उनके द्वारा दी जाने वाली हर ट्रेनिंग ली। खेतीबाड़ी की तरफ उनकी रूचि बढ़ती चली गई और धीरे धीरे उन्होंने डेयरी फार्म का काम कम कर दिया।

धान और गेहूं के अलावा, अब कुलवंत कौर और उनके पति ने मूंग, गन्ना, चारे की फसल, हल्दी, एलोवेरा, तुलसी और स्टीविया भी उगाने शुरू किए। हल्दी से वे , हल्दी का पाउडर, हल्दी का आचार और पंजीरी (चना पाउडर, आटा, घी से बना मीठा सूखा पाउडर) पंजीरी और हल्दी के आचार उनके सबसे ज्यादा मांग वाले उत्पाद हैं।

खैर, उनकी यात्रा आसान नहीं थी, उन्होंने कई समस्याओं का भी सामना किया। उन्होंने स्टीविया के 1000 पौधे उगाए जिनमें से केवल आधे ही बचे। हालांकि वे जानती थीं कि स्टीविया की कीमत बहुत ही ज्यादा है (1500 रूपये प्रति किलो), जो कि आम लोगों की पहुंच से दूर है। इसलिए उन्होंने इसे बेचने का एक अलग तरीका खोजा। उन्होंने मार्किट से ग्रीन टी खरीदी और स्टीविया को इसमें मिक्स कर दिया और इसे 150 रूपये प्रति ग्राम के हिसाब से बेचना शुरू किया क्योंकि शूगर के मरीजों के लिए स्टीविया के काफी स्वास्थ्य लाभ हैं इसलिए कई स्थानीय लोगों और अन्य ग्राहकों द्वारा भी टी को खरीदा गया।

वर्तमान में वे 40 उत्पादों का निर्माण कर रही है और नज़दीक की मार्किट और पी ए यू के मेलों में बेच रही हैं। उनका एक और उत्पाद है जिसे सत्र कहा जाता है (तुलसी, सेब का सिरका, शहद, अदरक, लहसुन, एलोवेरा और आंवला से बनता है) विशेषकर दिल के रोगियों के लिए है और बहुत प्रभावशाली है।

कौशल के साथ, कुलवंत कौर सभी नवीनतम कृषि मशीनरी और उपकरणों से अपडेट रहती हैं। उनके पास सभी खेती मशीनरी हैं और वे खेतों में लेज़र लेवलर का प्रयोग करती हैं। उनका पूरा परिवार उनकी मदद कर रहा है विशेषकर उनके पति उनके साथ काम कर रहे हैं। उनकी बेटी सरकारी नौकरी कर रही है और उनका बेटा उनके व्यापार में उनकी मदद कर रहा है। वर्तमान में उनके परिवार का मुख्य ध्यान मार्किटिंग पर है और उसके बाद कृषि पर है। कृषि व्यवसाय क्षेत्र में अपने प्रयासों से उन्होंने हल्दी उत्पादों के लिए पटियाला में किसान मेले में पहला पुरस्कार जीता है। इसके अलावा उन्होंने (2013 में पंजाब एग्रीकल्चर लुधियाना द्वारा आयोजित) किसान मेले में सरदारनी जगबीर कौर गरेवाल मेमोरियल अवार्ड भी प्राप्त किया।

आज कुलवंत कौर ने जो भी हासिल किया है वह सिर्फ अपने विश्वास पर किया है। भविष्य में वे अपने सभी उत्पादों की मार्किटिंग स्वंय करना चाहती हैं। वे समाज में अन्य महिलाओं को भी ट्रेनिंग प्रदान करना चाहती हैं ताकि वे अपने दम पर खड़े हो सकें और आत्मनिर्भर हो सकें।

किसानों को संदेश
महिलाओं को अपने व्यर्थ के समय में उत्पादक होना चाहिए क्योंकि यह घर की आर्थिक स्थिति को प्रभावी रूप से प्रबंध करने में मदद करता है। उन्हें फूड प्रोसेसिंग का लाभ लेना चाहिए और कृषि व्यवसाय के क्षेत्र में आगे बढ़ना चाहिए। कृषि क्षेत्र बहुत ही लाभदायक उद्यम है, जिसमें लोग बिना किसी बड़े निवेश के पैसे कमा सकते हैं।
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अमरीक सिंह ढिल्लो

(नई आविष्कार)

जानें कैसे इस जुगाड़ी किसान के जुगाड़ खेती में लाभदायक सिद्ध हुए

कहा जाता है कि अक्सर ज़रूरतें और मजबूरियों ही इनसान को नए आविष्कार करने की तरफ ले जाती हैं और इसी तरह ही नई खोजें संभव होती हैं।

ऐसे ही एक व्यक्ति की बात करने जा रहे हैं, जिन्होंने अपनी मजबूरियों और जरूरतों को मुख्य रखते हुए नए-नए जुगाड़ लगाकर आविष्कार किए और उनका नाम है- अमरीक सिंह ढिल्लो।

अमरीक सिंह ढिल्लो जी गांव गियाना, तहसील तलवंडी (बठिंडा) के रहने वाले हैं। उनके पिता जी (सरदार मोलन सिंह) को खेतीबाड़ी का व्यवसाय विरासत में मिला और उन्हें देखते हुए अमरीक सिंह जी भी खेतीबाड़ी में रूचि दिखाने लगे। उनके पास कुल 14 एकड ज़मीन है, जिस पर वे पारंपरिक खेती करते हैं।

जैसे कि बचपन से ही उनकी रूचि खेती में ज्यादा थी, इसलिए सन 2000 में उन्होंने दसवीं पास की और पढ़ाई छोड़ दी और खेती में अपने पिता का साथ देने का फैसला किया। साथ की साथ वे अपने खाली समय का उचित तरीके से लाभ उठाने के लिए अपने दोस्त की मोबाइल रिपेयर वाली दुकान पर काम करने लगे। पर कुछ समय बाद उन्हें एहसास हुआ कि बारहवीं तक की पढ़ाई जरूरी है, क्योंकि यह एक प्राथमिक शिक्षा है, जो सभी को अपनी ज़िंदगी में हासिल करनी चाहिए और यह इंसान का आत्म विश्वास भी बढ़ाती है। इसलिए उन्होंने प्राइवेट बारहवीं पास की।

वे बचपन से ही हर काम को करने के लिए अलग, आसान और कुशल तरीका ढूंढ लेते थे, जिस कारण उन्हें गांव में जुगाड़ी कह कर बुलाया जाता था। इसी कला को उन्होंने बड़े होकर भी प्रयोग किया और अपने दोस्त के साथ मिल कर किसानों के लिए बहुत सारे लाभदायक उपकरण बनाये।

यह उपकरण बनाने का सिलसिला उस समय शुरू हुआ, जब एक दिन वे अपने दोस्त के साथ मोबाइल रिपेयर वाली दुकान पर बैठे थे और उनके दिमाग में मोटरसाइकल चोरी होने से बचाने के लिए कोई उपकरण बनाने का विचार आया। कुछ ही दिनों में उन्होंने जुगाड़ लगा कर एक उपकरण तैयार किया जो नकली चाबी या ताला तोड़ कर मोटरसाइकल चलाने पर मोटरसाइकल को चलने नहीं देता और साथ की साथ फोन पर कॉल भी करता है। इस उपकरण में सफल होने के कारण उनकी हिम्मत और भी बढ़ गई।

इसी सिलसिले को उन्होंने आगे भी जारी रखा। उन्हें आस पास से ट्रांसफार्म चोरी होने की खबरें सुनने को मिली, तो अचानक उनके दिमाग में ख्याल आया कि क्यों ना मोटरसाइकिल की तरह ट्रांसफार्म को भी चोरी होने से बचाने के लिए कोई उपकरण बनाया जाये आखिर इस उपकरण के जुगाड़ में भी वे सफल हुए, जिससे किसानों को बड़ी राहत मिली।

उनके इलाके में खेतों के लिए मोटरों की बिजली बहुत कम आती है और कई बार तो बिजली के आने का पता भी नहीं लगता। इस समस्या को समझते हुए उन्होंने फिर से अपने जुगाड़ी दिमाग का प्रयोग किया और एक उपकरण तैयार किया, जो बिजली आने पर फोन पर कॉल करता है।

उनके द्वारा तैयार किए उपकरणों को किसान बहुत पसंद कर रहे हैं और इन उपकरणों का मुल्य आम लोगों की पहुंच में होने के कारण बहुत सारे लोग इसे खरीद कर प्रयोग कर रहे हैं।

उनका कहना है कि वे कोई उपकरण बनाने से पहले कोई योजना नहीं बनाते, बल्कि आवश्यकतानुसार उपकरण की जरूरत होती है, उस पर वे काम करते हैं और भविष्य में भी वे लोगों की जरूरतों को पूरा करने के लिए ऐसे उपकरण बनाते रहेंगे।
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बलजीत सिंह कंग

(जैविक खेती)

जानें कैसे एक शिक्षक ने जैविक खेती शुरू की और कैसे वे जैविक खेती में क्रांति ला रहे हैं

मिलें बलजीत सिंह कंग से जो एक शिक्षक से जैविक किसान बन गए। जैविक खेती मुख्य विचार नहीं था जिसके कारण श्री कंग अपने शिक्षक व्यवसाय से जल्दी रिटायर हो गए। ये उनके बच्चे थे जिनकी वजह से उन्होंने जल्दी रिटायरमैंट ली और इसके साथ ही खेतीबाड़ी शुरू की।

बलजीत सिंह हमेशा कुछ अलग करना चाहते थे और नीरसता और पुरानी पद्धतियों का हिस्सा नहीं बनना चाहते थे और उन्होंने जैविक खेती में कुछ अलग पाया। खेतीबाड़ी उनके परिवार का मूल व्यवसाय नहीं था क्योंकि उनके पिता और भाई पहले से ही विदेश में बस चुके थे। लेकिन बलजीत अपने देश में रहकर कुछ बड़ा करना चाहते थे।

पंजाबी में एम ए की पढ़ाई पूरी करने के बाद बलजीत को स्कूल में शिक्षक के तौर पर जॉब मिल गई। एक शिक्षक के तौर पर कुछ समय के लिए काम करने के बाद उन्होंने 2003-2010 में अपना रेस्टोरेंट खोला। 2010 में रेस्टोरेंट का व्यवसाय छोड़कर जैविक खेती शुरू करने का फैसला किया। 2011 में उनकी शादी हुई और कुछ समय बाद उन्हें दो सुंदर बच्चों – एक बेटी और एक बेटा के साथ आशीर्वाद मिला। उनकी बेटी अब 4 वर्ष की है और पुत्र 2 वर्ष का है।

इससे पहले वे रसायनों का प्रयोग कर रहे थे लेकिन बाद  में वे जैविक खेती की तरफ मुड़ गए। उन्होंने एक एकड़ भूमि पर मक्की की फसल बोयी। लेकिन उनके गांव में हर कोई उनका मज़ाक उड़ा रहा था क्योंकि उन्होंने सर्दियों में मक्की की फसल बोयी थी। बलजीत इतने दृढ़ और आश्वस्त थे कि कभी भी बुरे शब्दों और नकारात्मकता ने उन्हें प्रभावित नहीं किया। जब कटाई का समय आया तो उन्होंने मक्की की 37 क्विंटल उपज की कटाई की और यह उनकी कल्पना से ऊपर था। इस कटाई ने उन्हें अपने खेती के काम को और बढ़ाने के लिए प्रोत्साहित किया और उन्होंने 1.5 एकड़ ज़मीन किराये पर ली।

रसायन से जैविक खेती की तरफ मुड़ना बलजीत के लिए एक बड़ा कदम था, लेकिन उन्होंने कभी मुड़कर नहीं देखा। उन्होंने 6 एकड़ भूमि पर सब्जियां उगाना शुरू किया। उनके खेत में उन्होंने हर तरह के फल के वृक्ष उगाये और उन्होंने वर्मीकंपोस्ट को भी व्यवस्थित किया जिससे उन्हें काफी लाभ मिला। वे अपने काम के लिए अतिरिक्त श्रमिक नहीं रखते और जैविक खेती से वे बहुत अच्छा लाभ कमा रहे हैं।

भविष्य की योजना:
वर्तमान में, वे अपने खेत में बासमती, गेहूं, सरसों और सब्जियां उगा रहे हैं। भविष्य में वे अपने स्वंय के उत्पादों को बाज़ार में लाने के लिए ‘खेती विरासत मिशन’ के भागीदार बनना चाहते हैं।
किसानों को संदेश-
किसानों को अपना काम स्वंय करना चाहिए और मार्किटिंग के लिए किसी तीसरे व्यक्ति पर निर्भर नहीं रहना चाहिए। दूसरी बात यह, कि किसानों को समझना चाहिए कि बेहतर भविष्य के लिए जैविक खेती ही एकमात्र समाधान है। किसानों को रसायनों का प्रयोग करना बंद करना चाहिए और जैविक खेती को अपनाना चाहिए।
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महक सिंह

(माहिर)

खेतीबाड़ी के प्रेम के लिए कैसे यह व्यक्ति किसानों को आधुनिक खेती तकनीकों से अपडेट करके उनकी मदद कर रहा है।

आजकल बहुत कम लोग होते हैं जो जन हितैशी के वास्तविक अर्थ को साबित कर पाते हैं उनमें से एक हैं- महक सिंह

महक सिंह मुजफ्फरनगर (उत्तर प्रदेश) के एक सामान्य खेतीबाड़ी के माहिर हैं। अपनी रिटायरमैंट को दूसरों के लिए एक सकारात्मक अनुभव बनाने के लिए इस व्यक्ति ने खेती के अच्छे ढंगों से अपडेट कर किसानों की मदद करने का चयन किया।

शुरूआत में महक सिंह खेतीबाड़ी करने में रूचि रखते थे क्योंकि वे खेतीबाड़ी की पारिवारिक पृष्ठभूमि से थे। वे हमेशा खुद को भूमि की तरफ खींचा हुआ महसूस करते थे, उस भूमि के प्रति जिसने उन्हें सब कुछ दिया और इसी वजह से खेतीबाड़ी अभी भी उनकी ज़िंदगी में मौजूद है और एक महत्तवपूर्ण भूमिका निभा रही है।

खैर, कई किसानों के परिवारों में अपने बच्चों को उच्च शिक्षा देने की प्रवृत्ति है। ताकि उन्हें खेतीबाड़ी के व्यवसाय पर निर्भर ना होना पड़े और अपने कैरियर के रूप में वे किसी अन्य जॉब प्रोफाइल को चुन सकें। लेकिन महक सिंह के परिवार में, स्थिति बिल्कुल विपरीत थी। उनके माता पिता ने उन्हें हमेशा कृषि की तरफ प्रेरित किया और इसीलिए उन्होंने अपने कॉलेज के समय के दौरान बी एस सी एग्रीकल्चर को चुना। कॉलेज की पढ़ाई पूरी करने के लिए उन्हें मुज्जफरनगर के क्षेत्र कृषि विभाग में विषय वस्तु विशेषज्ञ (Subject Matter Expert) के रूप में एक सरकारी नौकरी मिली।

“बी एस सी एग्रीकल्चर को चुनने का एक और कारण था कि मैं दलित किसानों की मदद करना चाहता था जो खेती की बेहतर तकनीकों और ढंगों से अवगत नहीं थे और कृषि विशेषज्ञ के रूप में जॉब मिलने के बाद मुझे उनकी मदद करने का मौका मिला।”

एक किसान का पुत्र होने के नाते वे हमेशा किसानों की आम समस्याओं को समझते थे। कृषि विभाग में काम करने के दौरान उनकी पोस्टिंग हमेशा उत्तर प्रदेश के पिछड़े क्षेत्रों जैसे सोनभादरा, लखमीरपुर, मिर्ज़ापुर और फैज़ाबाद में होती थी। उस समय के दौरान वे गरीब किसानों के लिए काम करते थे और उन्होने उनके गांव के नज़दीक एक क्वार्टर भी किराये पर लिया था ताकि वे उन्हें बहुत नज़दीक से देख सकें। और उनकी खेती में मदद कर सकें। उन्होंने अपने पेशे को 40 वर्ष दिए और जुलाई 2016 में रिटायर हो गये।

खेती के प्रति उनका जुनून इतना था कि रिटायरमेंट के बाद भी उन्होंने कृषि के लिए अपना पूरा जीवन समर्पित करने का फैसला किया। आज भी अगर किसी किसान को किसी भी समय मदद की जरूरत पड़ती हैं तो वे हमेशा मदद के लिए तैयार रहते हैं।

“मैं अपने जीवन का बहुत बड़ा धन्यवादी हूं कि मुझे किसानों की मदद करने का अवसर मिला।”

किसानों की मदद करने के लिए उन्होंने विशेष तौर पर व्हॉट्स एप पर “हेलो किसान” के नाम से एक ग्रुप बनाया है और किसानों तक पहुंचने के लिए वे माध्यम के रूप में फेसबुक का उपयोग कर रहे हैं और किसानों की मदद कर रहे हैं। राज्य सेवा (state service) की सेवा और इस तरह के बड़े स्तर पर किसानों की मदद करने के बाद उन्होनें कभी किसी प्रकार के पुरस्कारों में किसी भी प्रकार की रूचि नहीं दिखाई।

भविष्य की योजना:
भविष्य में वे अपने काम को जारी रखना चाहते हैं और किसानों की मदद करना चाहते हैं। 

किसानों को संदेश
प्रत्येक किसान को माहिरों से अपनी भूमि की जांच करवानी चाहिए कि उसमें कौन से खनिज किस मात्रा में मौजूद हैं। ताकि वे उसी अनुसार फसलों को उगा सकें और आवश्यकतानुसार जैविक खादों का प्रयोग कर सकें।
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कौशल सिंह

(मार्केटिंग, प्रोसेसिंग)

जानें कैसे इस युवा छात्र ने खेती के क्षेत्र में अन्य नौजवानों के लिए लक्ष्य स्थापित किए

गुरदासपुर का यह युवा छात्र दूसरे छात्रों से विपरीत नहीं है वह अकेला नहीं है जिसने खेती का चयन किया क्योंकि उसके पिता खेती करते थे और उसके पास कोई अन्य विकल्प नहीं था। लेकिन कौशल ने खेतीबाड़ी को चुना, क्योंकि वह अपनी पढ़ाई के साथ खेतीबाड़ी में कुछ नया सीखना चाहता था।

मिलिए कौशल सिंह – एक आकांक्षी छात्र से, जिसने 22 वर्ष की उज्जवल युवा उम्र में अपना एग्री बिज़नेस स्थापित किया। जी, सिर्फ 22 की उम्र में। इस विकसित होने वाली उम्र में जहां ज्यादातर युवा अपने करियर विकल्प को लेकर दुविधा में रहते हैं, वहीं कौशल सिंह ने अपने उत्पादों को ब्रांड नाम बनाया और बाज़ार में उत्पादों की मार्किटिंग भी शुरू की।

कौशल ज़मीदारों के परिवार से हैं और वे अन्य किसानों को अपनी ज़मीन किराये पर देते हैं। इससे पहले इन पर उनके पूर्वज खेती करते थे। लेकिन वर्तमान पीढ़ी खेती से दूर जाना पसंद करती है पर कौन जानता था कि परिवार की सबसे छोटी पीढ़ी अपनी यात्रा खेती के साथ शुरू करेगी।

“CANE FARMS” तक कौशल सिंह की यात्रा स्पष्ट और आसान नहीं थी। पंजाब के अन्य युवाओं की तरह कौशल सिंह अपनी 12वीं की पढ़ाई पूरी करने के बाद अपने बड़े भाई के पास विदेश जाने की योजना बना रहे थे। यहां तक कि उनका ऑस्ट्रेलिया का वीज़ा भी तैयार था। लेकिन अंत में उनके पूरे परिवार को एक बहुत ही दुखी खबर से धक्का लगा। कौशल सिंह की मां को कैंसर था जिसके कारण कौशल सिंह ने अपने विदेश जाने की योजना रद्द कर दी थी।

यद्पि कौशल की मां कैंसर का मुकाबला नहीं कर सकीं। लेकिन फिर कौशल ने भारत में रहकर अपने गांव में ही कुछ नया करने का फैसला किया। सभी मुश्किल समय में कौशल ने अपनी उम्मीद नहीं खोयी और पढ़ाई से जुड़े रहे। उन्होंने B.Sc. एग्रीकल्चर में दाखिला लिया और सोचा –

“मैंने सोचा कि हमारे पास पर्याप्त पैसा है और यहां पंजाब में 12 एकड़ ज़मीन है तो क्यों ना इसका उचित प्रयोग किया जाये।”

इसलिए उन्होनें किरायेदारों से अपनी ज़मीन वापिस ली और जैविक तरीके से गन्ने की खेती शुरू की। 2015 में उन्होंने गन्ने से गुड़ और शक्कर का उत्पादन किया। हालांकि शुरू में उन्हें मार्किटिंग का कोई ज्ञान नहीं था इसलिए उन्होंने बिना पैकिंग और ब्रांडिंग के इसे खुला ही बेचना शुरू किया लेकिन कौशल को उनके उद्यम में बहुत बड़ा नुकसान हुआ।

लेकिन कहते हैं ना कि उड़ने वाले को कोई नहीं रोक सकता। इसलिए कौशल ने अपने दोस्त हरिंदर सिंह से पार्टनरशिप करने का फैसला किया। उसके साथ कौशल ने अपने 10 एकड़ की भूमि और हरिंदर की 20 एकड़ की भूमि पर गन्ने की खेती की। इस बार कौशल बहुत सतर्क था और उसने डॉ रमनदीप सिंह- पंजाब एग्रीकल्चर युनिवर्सिटी में माहिर, से सलाह ली।

डॉ रमनदीप सिंह ने कौशल को प्रेरित किया और कौशल से कहा कि वह अपने उत्पादों को मार्किट में बेचने से पहले उनकी पैकिंग करें और उन्हें ब्रांड नाम दे। कौशल ने ऐसा ही किया। उसने अपने उत्पादों को गांव के नज़दीक की मार्किट में बेचना शुरू किया। उसने सफलता और असफलता दोनों का सामना किया । कुछ दुकानदार बहुत प्रसन्नता से उसके उत्पादों को स्वीकार कर लेते थे लेकिन कुछ नहीं। लेकिन धीरे धीरे कौशल ने अपने पांव मार्किट में जमा लिए और उसने अच्छे परिणाम पाने शुरू किए। कौशल ने पंजीकृत करने से पहले SWEET GOLD ब्रांड नाम दिया लेकिन बाद में उसने इसे बदलकर CANE FARMS कर दिया क्योंकि इस नाम की उपलब्धता नहीं थी।

आज कौशल और उसके दोस्त ने फार्मिंग से लेकर मार्किटिंग तक का सब काम स्वंय संभाला हुआ है और वे पूरे पंजाब में अपने उत्पादों को बेच रहे हैं। उन्होंने अपने ब्रांड का लोगो (logo) भी डिज़ाइन किया है। पहले वे मार्किट से बक्से और स्टिकर खरीदते थे लेकिन अब कौशल ने अपने स्तर पर सब चीज़ें करनी शुरू की हैं।

भविष्य की योजना
भविष्य में हम उत्पाद बेचने के लिए अपने उद्यम में हर जैविक किसान को जोड़ने की योजना बना रहे हैं। ताकि अन्य किसान जो हमारे ब्रांड के बारे में अनजान हैं वे आधुनिक एग्रीबिज़नेस के रूझान के बारे में जानें और इससे लाभ ले सकें।

कौशल के लिए यह सिर्फ शुरूआत है और भविष्य में वह एग्रीकल्चर से अधिक लाभ लेने के लिए और उज्जवल विचारों के साथ आएंगे।

किसानों को संदेश :
यह संदेश उन किसानों के लिए है जो 18-20 वर्ष की आयु में सोचते हैं कि खेती एक सब कुछ खो देने वाला व्यापार है। उन्हें यह समझने की जरूरत है कि खेती क्या है क्योंकि यदि वे हमारी तरह कुछ नया करने का सोचना शुरू कर देंगे तो वे हमारे साथ एकजुट होकर काम कर सकते हैं।
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इकबाल सिंह

(जैविक खेती)

भविष्यवादी किसान ने समाज की खाद्य प्रणाली में बदलाव करने के लिए खेती का एक अनोखा तरीका अपनाया

आमतौर पर लोग जानते हैं कि उनके काम में क्या गल्तियां हैं, लेकिन वे उसी तरह से काम करते रहते हैं क्योंकि दूसरे  भी ऐसा करते हैं और फिर भी वे समाज में बदलाव चाहते हैं लेकिन जैसे कि अल्बर्ट आइंस्टीन ने कहा है –

हम किसी भी मुश्किल को उसी सोच से ठीक नहीं कर सकते जिस सोच से वह शुरू हुई थी।

इसलिए यदि हम समाज में बदलाव लाना चाहते हैं तो हमें कुछ अलग सोचना है और कुछ अलग करना है। इकबाल सिंह बासरका गांव (जिला तरनतारन) के एक किसान हैं, जिन्होंने अपनी पढ़ाई पूरी करने के बाद खाद्य उत्पादों और इसके लोगों पर पड़ते बुरे प्रभावों में सुधार लाने के लिए जैविक खेती का चयन किया।

इकबाल सिंह के पिता शुरू से ही पारंपरिक खेती करते थे और पी यू से बी कॉम की पढ़ाई पूरी करने के बाद इकबाल ने भी अपने पिता के साथ खेतीबाड़ी शुरू करने का फैसला किया लेकिन जब उन्होंने अपने एक रिश्तेदार के बिगड़ते स्वास्थ्य पर ध्यान दिया तो उन्होंने महसूस किया कि उपयोग किए जाने वाले, रसायनों और कीटनाशकों द्वारा हमारी खाद्य प्रणाली को कितनी बुरी तरह प्रभावित किया गया है। उस समय उन्होंने समझा कि हमारे भोजन चक्र और जल चक्र को जहर दिया गया है और यदि हम अपने पर्यावरण के प्रति आवश्यक कदम नहीं उठाते, तो हमारी आने वाली नई पीढ़ी इसके द्वारा बुरी तरह प्रभावित हो जायेगी।

इकबाल ने एक अलग तरीके से खेती शुरू करने का फैसला किया। उन्होंने रसायनों और कीटनाशकों का प्रयोग बंद कर दिया और अपनी 16 एकड़ की भूमि पर धीरे-धीरे जैविक खेती कर विस्तार किया। आज वे सभी प्रकार की मौसमी सब्जियों की पूरी तरह से जैविक खेती करके अच्छा लाभ कमा रहे हैं। वे हर प्रकार के ट्रैक्टर, ट्रॉली, हल, डिस्क और रोटावेटर को लागू करते हैं। आने वाले समय में वे खाद्य प्रसंस्करण और इसकी मार्किटिंग शुरू करना चाहते हैं ताकि वे इससे बेहतर लाभ ले सकें और अधिक लाभ कमा सकें।

किसानों को संदेश
यदि हम चाहते हैं कि हमारी आने पीढ़ी त्वचा की समस्याओं और बीमारियों जैसे- कैंसर, त्वचा की एर्ल्जी  आदि का सामना ना करे, तो हमें जैविक खेती को अपनाना होगा। यह सही समय है, हम अपने पर्यावरण पर किए गए नुकसान को भर सकते हैं क्योंकि किसी भी तरह की देरी से मानव के स्वास्थ्य पर गंभीर प्रभाव पड़ता है।”
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राजा राम जाखड़

(बागबानी, घृतकुमारी)

राजस्थान के भविष्यवादी किसान, जो घीकवार की खेती से पारंपरिक खेती में परिवर्तन ला रहे हैं

बेशक, राजस्थान आज भी पारंपरिक खेती वाले ढंगों के लिए जाना जाता है और यहां की मुख्यफसलें बाजरा, ग्वार और ज्वार हैं। बहुत सारे किसान तरक्की कर रहे हैं, पर आज भी बहुत किसान ऐसे हैं, जो अपनी पारंपरिक खेती की रूढ़ीवादी सोच से बाहर निकलकर कुछ करने की कोशिश कर रहे हैं और खेतीबाड़ी के क्षेत्र में बदलाव ला रहे हैं।

राजस्थान की धरती पर राजा राम सिंह जी जन्मे और पले बढ़े हैं। उन्होंने बी एस सी एग्रीकल्चर में ग्रेजुएशन की और उन्होंने सरकारी नौकरी छोड़ दी, ताकि वे खेती के प्रति अपने जुनून को पूरा कर सकें। उन्होंने मौके का फायदा लेना और उससे लाभ कमाना भी सीखा। आज वे राजस्थान में घीकवार के सफल किसान हैं, जो अपनी उपज के मंडीकरण के लिए किसी पर भी निर्भर नहीं हैं, क्योंकि उनकी उपज केवल खेत से ही खप्तकारों को बेची जाती है।

राजा राम जाखड़ जी का परिवार बचपन से ही खेतीबाड़ी से जुड़ा है और उन्होंने अपने बचपन से ही अपने परिवार के सभी सदस्यों को खेती करते देखा। पर 1980 में उन्होंने डी ए वी कॉलेज संघरिया (राजस्थान) से बी एस सी एग्रीकल्चर की डिग्री पूरी की और उन्हें एक अलग पेशे में नौकरी (सैंट्रल स्टेट फार्म, सूरतगढ़ में सुपरवाइज़र) का मौका मिला। पर वे 3-4 महीनों से ज्यादा, वहां काम नहीं कर सके क्योंकि उनकी इस काम में दिलचस्पी नहीं थी और उन्होंने घर वापिस आकर पिता प्रधान व्यवसाय -जो कि खेती था, इसे अपनाने का फैसला किया।

उन्होंने अपने बुज़ुर्गों वाले ढंग से ही खेती करनी शुरू की, पर इसमें कुछ विशेष लाभ नहीं मिल रहा था। धीरे-धीरे उनके परिवार की रोज़ी रोटी चलनी भी मुश्किल हो रही थी, क्योंकि उनका मुनाफा केवल गुज़ारे योग्य ही था। पर उस समय उन्होंने पतंजली ब्रांड और इसके एलोवेरा उत्पादों के बारे में सुना। उन्हें यह भी सुनने को मिला कि इन उत्पादों को बनाने के लिए पतंजली में एलोवेरा की बहुत मात्रा में उपज की जरूरत है। इसलिए इस मौके का फायदा उठाते हुए उन्होंने केवल 15000 रूपये के निवेश से 1 एकड़ एलोवेरा की खेती Babie Densis नाम की किस्म से शुरू की।

इन सब के चलते, एक बार तो उनका परिवार भी उनके विरूद्ध हो गया, क्योंकि वे जो भी काम कर रहे थे, उस पर परिवार को कोई यकीन नहीं था और उस समय अपने क्षेत्र (जिला गंगानगर) में एलोवेरा की खेती करने वाले वे पहले किसान थे। पर राजा राम जी ने अपना मन नहीं बदला, क्योंकि उन्हें खुद पर यकीन था। एक वर्ष बाद, आखिर जब एलोवेरा के पौधे पककर तैयार हो गए, कुछ खरीददारों ने उनकी उपज खरीदने के लिए संपर्क किया और तब से ही वे अपनी उपज फार्म से ही बेचते हैं, वो भी बिना कोई प्रयत्न किए। वे एक वर्ष में एक एकड़ से एक लाख रूपये तक का मुनाफा लेते हैं।

जैसे कि राजस्थान में एलोवेरा के उत्पाद तैयार करने वाली बहुत फैक्टरियां हैं, इसलिए हर 50 दिन बाद खरीददारों के द्वारा दो ट्रक उनके फार्म पर भेजे जाते हैं, और उनका काम केवल मजदूरों की मदद से ट्रकों को लोड करना होता है। अब उन्होंने अधिक मुनाफा लेने के लिए अंतर फसली विधि द्वारा एलोवेरा के खेतों में मोरिंगा पौधे भी लगाए हैं।

इस समय वे खुशी खुशी अपने परिवार (पत्नी, तीन बेटियां और एक पुत्र) के साथ रह रहे हैं और पूरे फार्म का काम काज खुद ही संभालते हैं। उनके पास खेती के लिए एक ट्यूबवैल और ट्रैक्टर है। वे अपने खेतों में एलोवेरा, मोरिंगा और कपास की खेती के लिए केवल जैविक खेती तकनीक ही अपनाते हैं। इन तीन फसलों के अलावा वे भिंडी, तोरी, खीरा, लौकी, ग्वार की फलियां और अन्य मौसमी सब्जियों की खेती घरेलू उपयोग के लिए करते हैं।

राजा राम जाखड़ जी ने अंतर फली के लिए मोरिंगा के पौधों को इस लिए चुना, क्योंकि इसमें बहुत सारे चिकित्सक गुण होते हैं और इसे बहुत कम देखभाल करके भी आसानी से उगाया जा सकता है। अब उन्होंने पौधे बेचने का काम भी शुरू किया है और जो किसान एलोवेरा की खेती के लिए ट्रेनिंग लेना चाहते हैं, उन्हें मुफ्त सिखलाई भी देते हैं। राजा राम जी अपने भविष्यवादी विचारों से खेतीबाड़ी के क्षेत्र में एक नई क्रांति लाना चाहते हैं। अभी तक कभी भी उन्होंने सरकार या किसी अन्य स्त्रोत से मदद नहीं ली और जो कुछ किया खुद से ही किया। वे भविष्य में अपने काम को और बढ़ाना चाहते हैं और अन्य किसानों को भी एलोवेरा की खेती के प्रति जागरूक करवाना चाहते हैं।


किसानों के लिए संदेश
“कुछ भी नया करने से पहले, किसानों को मंडीकरण के बारे में सोचना चाहिए ओर फिर खेती करनी चाहिए। किसानों को बहुत सारे मौके मिलते रहते हैं, बस उन्हें इन मौकों का फायदा उठाना चाहिए और इन्हें खोना नहीं चाहिए।”

 

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गुरविंदर सिंह सोही

(फूलों की खेती)

एक युवा खेतीप्रेन्योर की कहानी, जो हॉलैंड ग्लैडियोलस की खेती से पंजाब में फूलों के व्यापार में आगे बढ़ा

यह कहा जाता है कि सफलता आसानी से प्राप्त नहीं होती। आपको असफलता का स्वाद काफी बार चखना पड़ता है तभी आप सफलता के असली स्वाद का मज़ा ले सकते हो। ऐसा ही गुरविंदर सिंह सोही के साथ हुआ। वे एक सामान्य विद्यार्थी, जिसने खेतीबाड़ी का चयन उस समय किया जब वे पंजाब जे ई टी की परीक्षा में सफल नहीं हो पाये।

उन्होंने शुरू से ही निर्धारित किया था कि वे भेड़ की तरह काम नहीं करेंगे, ना ही अपने परिवार के व्यवसाय की तरह गेहूं-धान की खेती करेंगे। इसलिए उन्होंने मशरूम की खेती शुरू की लेकिन इसमें सफल नहीं हो सके। जल्दी ही उन्होंने नज़दीक के शहर खमानो में अपनी मिठाई की दुकान स्थापित की। लेकिन वे शायद इसके लिए भी नहीं बने थे। इसलिए उन्होंने घोड़े के प्रजनन का व्यवसाय शुरू किया और बाद में उन्होंने अपना व्यवसाय बदलकर जीप का काम शुरू किया।

इन सभी नौकरियों को छोड़ने के बाद 2008 में उन्हें एक खबर के बारे में पता चला कि पंजाब बागबानी विभाग हॉलैंड ग्लैडियोलस के बीजों पर सब्सिडी दे रहा है और फिर गुरविंदर सिंह सोही का वास्तविक खेल शुरू हुआ। उन्होंने 2 कनाल में ग्लैडियोलस को उगाया शुरू किया और धीरे धीरे एक ही फूल की खेती कई एकड़ में करनी शुरू की। फूल की स्थानीय किस्मों की तुलना में उन्हें उच्च मुल्य प्राप्त होना शुरू हो गया और अनकी आमदन में वृद्धि हुई।

एरिया बढ़कर 8 एकड़ से 18 एकड़ हो गया जिनमें से 9 उनके अपने थे और 9 ठेके पर थे। उन्होंने ग्लैडियोलस के लिए 10 एकड़, गेंदे के फूल के लिए 1 एकड़ और बाकी का क्षेत्र दालों, धान (मुख्यत: बासमती), गेंहू, मक्का और हरा चारा के लिए प्रयोग किया। ग्लैडियोलस की खेती में 7-8 महीने का समय लगता है इसकी बिजाई (सितंबर-अक्तूबर) और कटाई (जनवरी-फरवरी) में की जाती है। जबकि धान और गेहूं की बिजाई और कटाई इसके विपरीत होती है। इसलिए एक वर्ष में एक ही भूमि से आमदन होती है। इसके अलावा शादी के दिनों में ग्लैडियोलस की एक डंडी 7 रूपये मे बिकती है और 3 रूपये औसतन होता है। इस तरीके से वे एक वर्ष में अपनी आमदन बचा लेते हैं।

ग्लैडियोलस की फसल खजाना लूटने की तरह है क्योंकि हॉलैंड के बीजों का एक समय में 1.6 लाख प्रति एकड़ निवेश होता है जो कि बाद में 2 रूपये के हिसाब से एक फूल (बल्ब) बिकता है और उसी फसल से अगले वर्ष पौधे भी तैयार किए जा सकते हैं। हालांकि यह एक समय का निवेश होता है, पर बिजाई से लेकर बीज निकालने के लिए अप्रैल से मई महीने में ज्यादा श्रमिकों की आवश्यकता होती है। जिनका खर्चा लगभग 40000 रूपये एक एकड़ में आता है।

गेंदे की फसल भी ज्यादा लाभ देने वाली फसल है और इससे प्रत्येक मौसम में लगभग 1.25 लाख से 1.3 लाख रूपये लाभ होता है और यह लाभ गेंहू और धान से कहीं ज्यादा अच्छा है। इसके अलावा भूमि ठेके पर लेने, श्रमिक और अन्य निवेश लागत का खर्चा कुल लाभ में से निकालकर जो उनके पास बचता है वो भी उनके लिए काफी होता है।

उनका स्टार्टअप RTS फूलों के नाम से हुआ और यह कई शहरों जैसे पंजाब, चंडीगढ़, लुधियाना और पटियाला में तेजी से बढ़ गया। हालांकि उन्होंने उच्च शिक्षा नहीं ली, लेकिन वे समय समय पर अपने आपको अपडेट करते रहते हैं ताकि मंडीकरण में निपुण हो सकें और आज वे अपने ग्लैडियोलस के उत्पादन को अपने फर्म के फेसबुक पेज और अन्य ऑनलाइन वैबसाइट जैसे इंडियामार्ट के माध्यम से पूरे देश में बेच रहे हैं।

नए आधुनिक मार्किटिंग कौशल और प्रगति के साथ, गुरविंदर ने खुद को एग्री मार्किटिंग के बारे में भी अपडेट किया है और उनका काम फार्म टू फॉर्क के सिद्धांत पर प्रगति पर है। उन्होने और उनके 12 दोस्तों ने सरकारी विभागों की मदद से ड्रिप सिंचाई, सोलर पंप और अन्य कृषि यंत्र स्थापित किए हैं और किसान वेलफेयर कल्ब भी स्थापित किया है जिसकी मैंबरशिप 5000 रूपये प्रत्येक के लिए है ताकि भविष्य में अन्य मशीनरी जैसे रोटावेटर, पावर स्प्रे, और सीड ड्रिल खरीद सकें और जैविक खेती को बढ़ावा देने के लिए ग्रुप के सदस्यों ने हल्दी, दालें, मक्की और बासमती जैविक रूप से उगानी शुरू की है और अपने जैविक खाद्य उद्योग की मार्किट को बढ़ाने के लिए, उन्होंने व्हाट्स एप ग्रुप के माध्यम से ग्राहकों को सीधे उत्पादों का मंडीकरण शुरू कर दिया है और यह सुनिश्चित करने के लिए कि ग्राहक और किसान दोनों को उचित उत्पाद मिल जाए, वे मोहाली में सीधे 30 घरों में अपने उत्पाद बेचते हैं और जल्द ही वे वेबसाइट के माध्यम से अपनी सेवा शुरू करेंगे।

गुरविंदर सिंह सोही के युवा दिमाग ने सपने देखना बंद नहीं किया और जल्दी ही वे अपने उज्जवल विचारों के साथ आगे आएंगे।

किसानों को संदेश
किसानों को छोटे समूह बनाकर एकता में काम करना चाहिए, क्योंकि इस तरीके से कृषि मशीनरी को खरीदना और प्रयोग करना आसान होता हैं एक समूह में मशीनों का प्रयोग करने से खर्चा भी कम होता है जिसके परिणामस्वरूप एक लाभदायक उद्यम होता है। मैं भी ऐसे ही करता हूं। मैंने भी एक समूह बनाया है जिसमें समूह के नाम से मशीनों को खरीदा जाता है और समूह के सभी मैंबर इसका उपयोग कर सकते हैं।”

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गुरराज सिंह विर्क

(बागबानी, किन्नू)

एक किसान, जिसने अपने मुश्किल समय में अपने कौशल को अपनी ताकत बनाया और भविष्यवादी कृषक के रूप में उभरकर आए

यह देखा गया है की भारत में आम तौर पर ज्यादातर किसान अपनी घरेलू आर्थिक एवं और मुश्किलों का सामना सबर और मेहनत से करने की बजाए, हार मान लेते हैं। यहां तक कि कुछ किसान आत्महत्या का रास्ता भी अपनाते हैं। पर आज हम एक ऐसे किसान कि बात करने जा रहे हैं, जिसने न केवल अपनी घरेलू एवं आर्थिक मुश्किलों का सामना किया बल्कि अपनी मेहनत से बागबानी कि खेती में सफलता प्राप्त करके उच्च स्तरीय इनाम भी हांसिल किये और उस किसान का नाम है- गुरराज सिंह विर्क, जो पिछले 30 सालों से किन्नू कि खेती कर रहे हैं।

गुरराज सिंह का जन्म 1 अक्टूबर 1954 को एक आम परिवार में हुआ और वे मोहल्ला सुरगापुरी , कोटकपूरा, जिला फरीदकोट के निवासी हैं। उन्होंने खुद बाहरवीं तक ही पढ़ाई की है, पर उन्होंने अपनी हिम्मत व् आत्मविश्वास से न केवल बागबानी के क्षेत्र में सफल मुकाम हांसिल किया बल्कि अपने काम को आसान एवं प्रभावशाली बनाने के लिए देसी तरीके से कई मशीनों की खोज भी की।पर उनको यह मुकाम हांसिल करने के लिए बहुत संघर्ष करना पड़ा।

जीवन का प्राथमिक संघर्ष
शुरुआत में वे कपास की खेती करते थे पर 1990 में बीमारियों का हमला होने की वजह से उनको यह खेती बंद करनी पड़ी क्योंकि बैंको और बिचौलियों का कर्जा बढ़ता जा रहा था उन कुछ समय बाद गन्ने की खेती शुरू की लेकिन फरीदकोट में गन्ना मिल बंद हो जाने की वजह से उन्हें इससे भी ख़ास मुनाफा नहीं हुआ। इसके बाद उन्होंने धान की खेती करने का फैसला किया, पर इसमें भी ज्यादा मुनाफा नहीं था क्योंकि जमीन में पानी का स्तर समान्य नहीं था।

जीवन का अहम मोड़
आखिर उन्होंने 1983 में बागबानी विभाग फरीदकोट और पंजाब एग्रीकल्चर यूनिवर्सिटी के सहयोग से प्रशिक्षण हांसिल करके किन्नू का बाग़ लगाया। बाग़ लगाए को अभी 2 साल भी नहीं हुए थे कि उनके पिता जी सरदार सरवन सिंह का देहांत हो गया, जिससे पुरे परिवार को बहुत गहरा धक्का लगा। हालाँकि इसमें बहुत समय लगा पर वे सबर एवं मेहनत और विश्वास के साथ जिंदगी को सही रहते पर ले आये। अभी परिवार पिछले दुखों को भुला भी नहीं पाया था कि1999 में उनकी माता जी सरदारनी मोहिंदर कौर का भी देहांत हो गया और परिवार फिर से शोक में चला गया। पर इतना सब कुछ होने के बाद भी उन्होंने हौंसला नहीं हारा और अपने काम को जारी रखा।

मेहनत का फल
कहा जाता है कि सब्र का फल मीठा होता है इसी तरह किन्नू के पौधों ने भी फल देना शुरू किया और अच्छे दिन वापिस आने लगे। इस मुनाफे से हुए पैसों को व्यर्थ न करते हुए उन्होंने बड़ी सूझ-बूझ से बाग़ का क्षेत्र आगे बढ़ाया और एक ट्यूबवेल लगवाया। अब पानी सिंचाई योग्य होने कि वजह से धान से भी मुनाफा शुरू हो गया। उन्होंने २०५ एकड़ में अंगूर का बाग़ भी लगाया जो एक लाख प्रति एकड़ के हिसाब दे आमदन देता था।

पर सफलता का रास्ता इतना भी आसान नहीं होता बाग़ लगाने के 15 साल बाद दीमक के गंभीर हमले कि वजह से बाग़ उखाड़ना पड़ा, फिर भी उन्होंने हार नहीं मानी और किन्नू के साथ साथ धान कि खेती को आगे बढ़ाया।

स. विर्क मौजूदा समय कि आधुनिक तकनीकों के साथ अपडेट रहते हैं और जरूरत पड़ने पर उन्हें अपने खेतो में लागू भी करते हैं।आज उनके पास 41 एकड़ जमीन हैं जिसमे से 21 एकड़ पर किन्नू का बाग़ है 20 एकड़ पर वे गेहूं, धान की खेती कर रहे हैं। उनके बाग़ में किन्नू के पौधों के अलावा कहीं कहीं पर नींबू, ग्रेप फ्रूट, मौसमी, माल्टा रेड, माल्टा जाफ़ा, नागपुरी संगतरा, नारंगी, आलू-बुखारा, अनार, अंगूर, अमरुद, आंवला, जामुन, फालसा, चीकू आदि के भी हैं। वे पानी कि बचत के लिए बाग़ में तुपका सिंचाई और गर्मियों में मिट्टी कि नमी बनाये रखने के लिए मल्चिंग तकनीक का भी इस्तेमाल करते हैं। वे कुदरती स्त्रोतों के रख-रखाव में भी निपुण हैं। ज्यादातर किन्नू के नए पौधों वाली मिट्टी के उपजाऊपन को ठीक रखने के लिए वे हमेशा हरी खाद के पक्ष में रहते हैं। वे पारम्परिक ढंग के साथ साथ अधिक घनत्व वाले तरीके से भी खेती करते हैं।

खोजें एवं रचनाएँ
अपने काम को और आसान बनाने के लिए उन्होंने बहुत सारी खोजें भी की। उन्होंने कई तरह की मशीनें बनाई, जो ज्यादा उच्च स्तरीय यां महंगी नहीं हैं बल्कि साधारण एवं देसी तरीके से तैयार की गयी हैं। ये मशीनें पैसा और समय दोनों की बचत करती हैं। उन्होंने एक देसी स्प्रे पंप और पेड़ों की कटाई- छंटाई वाला यंत्र भी तैयार किया। इसके आलावा उन्होंने एक किन्नू की सफाई और ग्रेडिंग वाली मशीन भी बनाई, जो एक घंटे में २ टन तक किन्नू साफ़ करती है। २ टन फल साफ़ करने और छांटने में १२५ रूपये तक का खर्चा आता है जबकि हाथों से यही काम करने में १००० रूपये तक खर्चा आता है। मशीन से छंटे हुए फलों का मार्किट में अच्छा भाव मिलता है।

ऊपर लिखी हुई खोजों के आलावा गुरराज सिंह विर्क ने साहित्य कला में भी अपना योगदान दिया, उन्होंने किन्नू की खेती पर 7 मशहूर लेख एवं एक किताब भी लिखी।

उपलब्धियां
स. गुरराज सिंह विर्क को उनकी मेहनत एवं सफलता के लिए बहुत सारे समारोह में सम्मानित किया गया। उनमे से कुछ उपलब्धियां नीचे लिखी गयी हैं:

उनके किन्नुओं को राज्य और जिला स्तर पर बहुत सरे इनाम मिले हैं।उनको 2010-2011 और 2011-12 साल में सर्वोत्तम किन्नू लगाने वाले किसान के तौर पर राष्ट्रीय बागबानी बोर्ड की तरफ से सम्मानित किया गया।

मार्च 2012 में मासिक खेतीबाड़ी मैगज़ीन ” एडवाइजर” की तरफ से लगाए गए मेले में भी सम्मानित किया गया।

गुरराज सिंह विर्क जी ने कई उच्च स्तरीय समितियों जैसे की पी. ए. यू. की “फल और सब्जियां उगाऊ सलाहकार समिति” और मालवा फल और सब्जियां उगाऊ समिति” में भीअपनी ख़ास जगह बनाई है।

बहुत सारे विभागों की तरफ से किसानो को विर्क के खेतो में सफल ढंग से खेती करने की जानकारी देने के लिए ले जाया जाता है।

गुरराज सिंह विर्क ने जिले में लगभग १५० एकड़ पर किन्नू की खेती कर्म में किसानो की मदद की है।

वे किन्नू उत्पादन में सफल होने और अपनी सभी उपलब्धियों के लिए के. वी. के. फरीदकोट और राज्य बागबानी विभाग से मिले प्रशिक्षण के लिए आभार व्यक्त करते हैं।

पारिवारिक जीवन
स. विर्क ने बहुत सारी मुश्किलों और कम पढ़ाई होने के बावजूद भी बड़े स्तर पर उपलब्धियां हासिल की और आज यही सब उनके बच्चे भी करके दिखा रहे हैं। उनकी पत्नी जगमीत कौर एक घरेलू औरत हैं। उनके 5 बच्चों में से एक बेटा कनाडा में इंजिनियर, एक बेटा अमरीका में डॉक्टर, एक बेटी कनाडा और दूसरी बेटी पंजाब में डॉक्टर है और उनकी एक बेटी कनेडा में नर्स है। उनके सभी बच्चे अपने परिवारों के साथ ख़ुशी से जीवन व्यतीत कर रहे हैं और गुरराज सिंह विर्क उनसे मिलने के लिए कनेडा और अमरीका जाते रहते हैं।

किसानों के लिए सन्देश
“किसानो को छोटे-मोटे नुकसान और खेती में आने वाली मुश्किलों के कारन अपना आत्म विश्वास टूटने नहीं देना चाहिए और हार नहीं माननी चाहिए। किसानो को पारम्परिक खेती से अलग भी सोचना चाहिए। खेतीबाड़ी में आज भी बहुत सारे ऐसे क्षेत्र हैं जिनमे कम निवेश से भी बहुत मुनाफा कमाया जा सकता है। बागबानी भी एक ऐसा क्षेत्र है जिसमे किसान आसानी से लाखों का मुनाफा कमा सकते हैं, पर शुरुआती समय में बहुत सब्र रखने की जरूरत होती है। मै खुद भी बागबानी के क्षेत्र में मेहनत करके आज अच्छी आमदन ले रहा हूँ और भविष्य में यही चाहता हूँ कि किसान पारम्परिक खेती के साथ-साथ बागबानी को भी अपनाएं और आगे लेकर आएं। 

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हिंदपाल सिंह

(तेल वाली फसलें-जोजोबा)

राजस्थान के जोजोबा की खेती करने वाले किसान से मिलें, जिसने आई एच एम पूसा दिल्ली से होटल मैनजमेंट की डिगरी हासिल की, पर अपने पिता के नक्शेकदम पर चले

खेतीबाड़ी ना कभी आसान थी और ना ही आसान होगी। लेकिन कई लोगों के लिए जिनके पास कोई विकल्प नहीं होता, उनके लिए खेती ही एकमात्र विकल्प होता है। इसलिए आज के कई किसान अपने बच्चों को स्कूल और कॉलेज में भेजते हैं ताकि वे जो चाहते हैं उसे चुने और जो बनना चाहते हैं वे बनें। लेकिन एक ऐसे इंसान हिंद पाल सिंह औलख जिनके पास अच्छा व्यवसाय चुनने का मौका था, लेकिन उन्होंने खेती को चुना।

हिंद पाल सिंह का जन्म राजस्थान के गंगानगर जिले में एक विशिष्ट कृषि परिवार में हुआ, लेकिन वे एक बहुत ही अलग आधुनिक वातावरण में पले बढ़े। अपने पिता से अलग पेशा चुनने के उद्देश्य से उन्होंने आई एच एम पूसा, दिल्ली से होटल मैनेजमेंट में बैचलर की डिग्री ली।

“लेकिन शायद हिंद पाल सिंह की किस्मत में, इसी क्षेत्र में अपना व्यवसाय जारी रखना नहीं था। उनके पिता किसान थे और कृषि में उनकी अत्याधिक रूचि थी। उनके पिता ने उन्हें खेतीबाड़ी शुरू करने के लिए प्रेरित किया।”

अपने पिता का खेती की तरफ इतना रूझान देखकर उन्होंने उनकी सहायता करने का फैसला किया। उन्होंने खेतीबाड़ी से संबंधित मैगज़ीन जैसे चंगी खेती आदि पढ़ना शुरू किया। उनमें से एक मैगज़ीन में उन्होंने जोजोबा की खेती के बारे में पढ़ा और इसे शुरू करने के बारे में सोचा। उन्होंने जयपुर का दौरा किया और वहां जोजोबा की खेती की ट्रेनिंग ली। श्री सैनी ट्रेनिंग स्टाफ के एक मैंबर थे, जिन्होंने जोजोबा की खेती में उनकी मदद की और निर्देशित किया और विशेष रूप से अपने शहर में स्थित अपने फार्म का दौरा भी करवाया।

शुरू में हिंद पाल सिंह जोजोबा की खेती शुरू करने के लिए थोड़ा घबराये हुए थे लेकिन अब 12 वर्ष से वे जोजोबा की खेती कर रहे हैं और उपज और लाभ से काफी खुश हैं। वे जोजोबा के पौधे राजस्थान एग्रीकल्चर यूनिवर्सिटी से खरीदते हैं क्योंकि जोजोबा के पौधे को 10:1 रेशो में उगाया जाता है जहां 10 पौधे मादा जोजोबा के होते हैं और 1 पौधा नर जोजोबा का होता है और एक उचित एग्रीकल्चर यूनिवर्सिटी या माहिर ही सही जोजोबा के पौधे उपलब्ध करवा सकते हैं क्योंकि आम लोग फूल निकलने से पहले (तीन वर्ष के हो जाने पर) नर और मादा पौधों की पहचान नहीं कर सकते।

“नर पौधों के प्रजनन द्वारा मादा पौधे फूलों से बीजों का उत्पादन करते हैं, बीज उत्पादन के लिए मादा पौधे नर पौधों पर निर्भर होते हैं।”

हिंद पाल सिंह के लिए जोजोबा की खेती और बिजाई आसान नहीं थी। उन्होंने दीमक और फंगस जैसी कई समस्याओं का सामना किया, लेकिन उन्होंने बहुत अच्छे तरीके से इनका सामना किया। वे हमेशा माहिर से सलाह लेते हैं और खेती के लिए माइक्रो फूड और प्राथमिक खादों का प्रयोग करते हैं। बिजाई के बाद 6 से 7 वर्ष तक जोजोबा का पौधा फल देना शुरू करता है।

“एक समय निवेश – राजस्थान जैसे क्षेत्र जहां पानी की हमेशा कमी रहती है, में जोजोबा की खेती करने की सबसे अच्छी बात यह है कि इसे सिंचाई के लिए बहुत कम पानी की आवश्यकता होती है (2 वर्षों तक बिना पानी के यह पौधा रह सकता है) इसके अलावा पौधे की उम्र 100 वर्ष तक होती है।”

शुरूआत में, जब जोजोबा के पौधे छोटे होते हैं, अंतरफसली भी किया जा सकता है क्योंकि 6 से 7 वर्ष तक ये बीज पैदा नहीं करते। उन्होंने उपज के मंडीकरण में भी कुछ समस्याओं का सामना किया, लेकिन सरकार से कोई सहायता नहीं ली। कॉस्मेटिक कंपनियों को फेस क्रीम, तेल, फेस वॉश और कई सौंदर्य उत्पाद बनाने के लिए जोजोबा के बीजों की आवश्यकता होती है। इसलिए उन्होंने उपभोक्ताओं को जल्दी ही ढूंढा और लाभ कमाना शुरू किया।

“जोजोबा के तेल में विस्कोसिटी इंडेक्स के कारण इसका ईंधन तेल के रूप में वैकल्पिक उपयोग होता है। इसे हाई स्पीड मशीनरी या उच्च तापमान पर चलने वाली मशीनों के लिए ट्रांसफार्मर तेल या लुबरीकेंट के रूप में प्रयोग किया जा सकता है।”

इसके अलावा वे जोजोबा की खेती लगभग 5 एकड़ में करते हैं। बाकी की 65 एकड़ भूमि में वे कपास, गेहूं, मौसमी सब्जियां, सरसों, किन्नू और अन्य फसलें उगाते हैं। वे अच्छी खेती के लिए सभी आधुनिक खेती मशीनरी जैसे ट्रैक्टर, ट्रॉली, कल्टीवेटर, लेवलर, डिस्क हैरो और तुपका सिंचाई का प्रयोग करते हैं। वे भविष्य में इस काम को बढ़ाना चाहते हैं, जो वे अभी कर रहे हैं और जोजोबा के बीजों के वफादार और मुनाफे वाले उपभोक्ताओं को आकर्षित करना चाहते हैं। 45 हज़ार के निवेश के साथ आज वे लाखों कमा रहे हैं। इसके अलावा जोजोबा एक बीमारी रहित और आग के प्रतिरोधक पौधा है, जिसे एक बार विकसित हो जाने के बाद बहुत कम देखभाल की जरूरत पड़ती है।

किसानों को संदेश
किसानों को आत्मनिर्भर होना चाहिए और यदि खेतीबाड़ी से लाभ कमाना चाहते हैं तो कुछ अलग सोचना शुरू करना चाहिए। एक और बात किसानों को अपने लाभों को जो भी वे कमाते हैं उसका हिसाब रखना चाहिए और यदि वे कुछ अलग शुरू करते हैं तो उसमें अपना 100 प्रतिशत देना चाहिए।

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प्रभजोत, शमिंदर और सौरभ

(प्रोसेसिंग)

तीन सूक्ष्म जीव वैज्ञानिकों की कहानी, जो समाज को उत्तम भोजन उपलब्ध करवाने के लिए अंतर-प्रेन्योर के ग्रुप के रूप में उभर रहे हैं

हम सब जानते हैं कि हर सफल कारोबार, संघर्ष से शुरू होकर ही शिखर तक पहुंचता है और कुछ भी आसानी से प्राप्त नहीं होता। हर एक व्यापार की शुरूआत के पीछे उज्जवल ख्याल, देर रात की चर्चा, नज़दीक के लोगों के साथ बहस, विचारों का आदान प्रदान और भी बहुत कुछ होता है। यदि हम ये कह सकते हैं कि वह बुद्धिमान है या वह आर्थिक रूप से अच्छा है। इसलिए एक अच्छा कारोबार शुरू करने में सक्षम है तो यह सच नहीं है। हम सभी के पास समान मौके होते हैं और हम सब बड़े व्यवसायिक विचारों से घिरे हैं हमें सिर्फ खुद को खोलना है और संभावनाओं को अपने नज़दीक आने देना है। आज हम उन तीन युवा पुरूषों के बारे में बात करने जा रहे हैं जिन्होंने अपने आस-पास के अवसरों की खोज की और उभरते उद्यमियों के ग्रुप के तौर पर आये।

ये तीन नौजवान पंजाब खेतीबाड़ी यूनिवर्सिटी के विद्यार्थी हैं -प्रभजोत सिंह खन्ना, शमिंदर सिंह बराड़, और सौरव सिंगला, जो व्यापारिक तौर पर नहीं, बल्कि सूक्ष्म जीव विज्ञानी के तौर पर इस विश्वास से आगे आये कि वे लोगों को सबसे उत्तम भोजन उपलब्ध करवायेंगे और अपने विचार को पहचान और दिशा देने के लिए 2015 में उन्होंने माइक्रो फूडज़ के नाम से लुधियाना (पंजाब) में अपनी कंपनी स्थापित की।

यह सच है कि यह, इन तीनों का मिलकर किया प्रयत्न था, पर उनकी शुरूआत के पीछे मुख्य प्रेरणा उनके प्रोफेसरों की थी, जो हैं – डॉ. संजीव कपूर और डॉ. रमनदीप सिंह। अपनी पढ़ाई और विनेगर के क्षेत्र में रिसर्च पूरी करने के बाद, तीनों नौजवानों (प्रभजोत, शमिंदरजीत और सौरव) ने आखिर यह उद्यम शुरू किया। उन तीनों ने खुद ही कंपनी का नाम सोचा और लोगो भी तैयार किया।

अपने शोध कार्य के दौरान वे पहले से ही काम का अनुभव और कई प्रमुख किण्वन (खमीर) और सिरका उदयोगों का ज्ञान रखते थे। इसलिए उन्होंने प्राकृतिक फलों से प्राकृतिक किण्वन तकनीकों का उपयोग करके कार्बनिक सिरका बनाने की प्रक्रिया शुरू की, वह भी बनावटी एसिड या बनावटी सामग्री का उपयोग किए बिना। प्रभजोत के घर में उन्होंने 500 गज के क्षेत्र में अपना कारोबार, उत्पादन यूनिट स्थापित किया । वे इस यूनिट में सफाई और कीटाणुओं से बचाव आदि का विशेष ध्यान रखते हैं।

उन्होंने FRUIGAR ब्रांड नाम के तहत सेब, जामुन, गन्ना और सफेद अंगूर से 4 किस्मों के सिरके का उत्पादन शुरू किया। FRUIGAR नाम चुनने के पीछे यह विचार था कि FRUIT से FRUI शब्द और विनेगर से गर शब्द लिया गया। उन्होंने दक्षिण भारत से कच्च माल मंगवाया। इस फलों को चुनने का कारण यह था कि इन सभी के मुख्य स्वास्थ्य लाभ हैं और बाजार में इनकी बहुत अधिक मांग है। इसके अलावा ये जैविक है और मानव शरीर को नुकसान नहीं पहुंचाते।

उत्पाद बनाने के बाद उन्होंने मार्किटिंग योजना बनाई। उन्होंने उत्पाद को उन डेटा के आधार पर मार्किटिंग करना शुरू किया जिसका उपयोग उन्होंने अपने शोध में किया था। उन्होंने अपना उत्पाद सभी डॉक्टर तक भी पहुंचाने की कोशिश की और उन्हें अपने जैविक विनेगर के शारीरिक फायदों की भी जानकारी दी। फलों का सिरका बनाने के पीछे उनका मुख्य उद्देश्य किसी भी बनावटी सामग्री के बिना समाज को स्वस्थ उत्पाद प्रदान करना था।

ये उद्यमी यहां ही नहीं रूके। वे दो अन्य नए उत्पादों के साथ आए जिन्हें आजकल डायबिटिक रोगी के लिए आटा और ग्लूटेन रहित आटा के नाम से जाना जाता है। जिसकी आजकल बहुत मांग है। खेती की पृष्ठभूमि से आने के बाद शमिंदरजीत सिंह ने गेहूं और धान का उत्पादन किया है और अपने नए उत्पाद के लिए कच्चा माल भी प्रदान करते हैं।

वे अपना काम पिछले 2 वर्षों से कर रहे हैं और धीरे धीरे अपने उत्पाद को बाज़ार में स्थापित करने की कोशिश कर रहे हैं। वर्तमान में उन्हें कोई लाभ नहीं हो रहा लेकिन साथ ही कोई हानि भी नहीं हो रही। लेकिन थोड़े से समय में ही उन्होंने वफादार ग्राहकों की अच्छी संख्या बना ली है जो कि उनके उत्पादों के स्वास्थ्य उपयोगों के प्रति अवगत हैं और उनके उत्पादों में निवेश करना चाहते हैं।

उनके लिए यह सिर्फ शुरूआत है। वे समाज में और स्वास्थ्यवर्धक और जैविक उत्पादों के साथ आना चाहते हैं। भविष्य में वे मार्किट और बड़ी संख्या में फैक्टरियों को कवर करना चाहते हैं। अभी तक वे आंशिक रूप से पैकेजिंग, प्रोसैसिंग और मार्किटिंग के लिए दूसरों पर निर्भर हैं। लेकिन 2017 के बाद वे खुद से उत्पादों के प्रोसैस, पैक और मार्किट करने की योजना बना रहे हैं और वे अपने उत्पादों को बेचने के लिए MARKFED के साथ जुड़ने की सोच रहे हैं।

प्रभजोत, शमिंदरजीत और सौरभ द्वारा संदेश
आज के युवा जो कि माइक्रोबायोलोजी के क्षेत्र से हैं, उन्हें अपनी शिक्षा को समाज के लिए वरदान बनाने की दिशा में सोचना चाहिए। माइक्रोबायोलॉजी में कई अलग अलग क्षेत्र हैं जिसमें छात्र कुछ अलग कर सकते हैं और शुरू करने से पहले उन्हें लोगों के साथ चर्चा करनी चाहिए। पेशेवरों और अपने प्रोफेसरों से जितना हो सके सीखना चाहिए।
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राजिंदर पाल सिंह

(जैविक खेती)

एक इंसान की कहानी जिसने अपनी गल्तियों से सीखकर बुद्धिमता के रास्ते को चुना – जैविक खेती

प्राकृति हमारे सबसे महान शिक्षकों में से एक है और वह कभी भी हमें सिखाने से रूकी नहीं है, जिसकी हमें जानने की जरूरत होती है। आज हम धरती पर इस तरीके से रह रहे हैं कि जैसे हमारे पास एक और ग्रह भी है। हम इस बात से अवगत नहीं है कि हम प्राकृति के संतुलन को कैसे परेशान कर रहे हैं और यह हमें कैसे प्रतिकूल प्रभाव दे सकती है। आजकल हम मनुष्यों और जानवरों में बीमारियों, असमानताओं और कमियों के कई मामलों को देख रहे हैं। लेकिन फिर भी ज्यादातर लोग गल्तियों की पहचान करने में सक्षम नहीं हैं वे आंखों पर पट्टी बांधकर बैठे हैं। जैसे कि कुछ गलत हो ही नहीं रहा। पर इनमें से कुछ व्यक्ति ऐसे हैं जो कि अपनी गल्तियों से सीखते हैं और समाज में एक बड़ा बदलाव लाने की कोशिश कर रहे हैं।

ऐसा कहा जाता है कि गल्तियों में आपको पहले से अच्छा बनाने की शक्ति होती है और एक ऐसे व्यक्ति हैं राजिंदर पाल सिंह जो कि बेहतर दिशा में अपना रास्ता बना रहे हैं और आज वे जैविक खेती के क्षेत्र में एक सफल शख्सियत हैं। उनके उत्पादों की प्रशंसा और अधिक मांग केवल भारत में ही नहीं बल्कि अमेरिका, कैनेडा और यहां तक कि लंदन के शाही परिवार में भी है।

खैर, एक सफल यात्रा के पीछे हमेशा एक कहानी होती है।राजिंदरपाल सिंह जिला बठिंडा के गांव कलालवाला के वसनीक; एक समय में ऐसे किसान थे जो कि पारंपरिक खेती करते थे लेकिन रसायनों और कीटनाशकों के प्रतिकूल प्रभावों का सामना करने के बाद उन्हें एहसास हुआ कि वे रसायनों का प्रयोग करके अपने पर्यावरण और अपनी सेहत को प्रभावित कर रहे हैं। वे फसलों पर कीटनाशकों का प्रयोग करते थे, लेकिन एक दिन उस स्प्रे ने उनके नर्वस सिस्टम को प्रभावित किया और ऐसा ही उनके एक रिश्तेदार के साथ हुआ। उस दिन से उन्होंने रसायनों के प्रयोग को छोड़कर कृषि के लिए जैविक तरीका अपनाया।

शुरूआत में उन्होंने और उनके चाचा जी ने 4 एकड़ भूमि में जैविक खेती करनी शुरू की और धीरे धीरे इस क्षेत्र को बढ़ाया 2001 में वे उत्तर प्रदेश से गुलाब के पौधे खरीद कर लाये और तब से वे अन्य फसलों के साथ गुलाब की खेती भी कर रहे हैं। उन्होंने जैविक खेती के लिए कोई ट्रेनिंग नहीं ली। उनके चाचा जी ने किताबों से सभी जानकारी इकट्ठा करके जैविक खेती करने में उनकी मदद की। वर्तमान में वे अपने संयुक्त परिवार अपनी पत्नी, बच्चे, चाचा, चाची और भाइयों के साथ रह रहे हैं और अपनी सफलता के पीछे का पूरा श्रेय अपने परिवार को देते हैं।

वे बठिंडा के मालवा क्षेत्र के पहले किसान हैं जिन्होंने पारंपरिक खेती को छोड़कर जैविक खेती को चुना। जब उन्होंने जैविक खेती शुरू की, उस समय उन्होंने कई मुश्किलों का सामना किया और कई लोगों ने उन्हें यह कहते हुए भी निराश किया कि वे सिर्फ पैसा बर्बाद कर रहे हैं, लेकिन आज उनके उत्पाद एडवांस बुकिंग में बिक रहे हैं और वे पंजाब के पहले किसान भी हैं जिन्होंने अपने फार्म पर गुलाब का तेल बनाया और 2010 में फतेहगढ़ साहिब के समारोह में प्रिंस चार्ल्स और उनकी पत्नी को दिया था।

वे जो काम कर रहे हैं उसके लिए उन्हें फूलों का राजा नामक टाइटल भी दिया गया है। उनके पास गुलाब की सबसे अच्छी किस्म है जिसे Damascus कहा जाता है और आप गुलाबों की सुगंध उनके गुलाब के खेतों की कुछ ही दूरी पर से ले सकते हैं जो कि 6 एकड़ की भूमि पर फैला हुआ है। उन्होंने अपने फार्म में तेल निकालने का प्रोजैक्ट भी स्थापित किया है जहां पर वे अपने फार्म के गुलाबों का प्रयोग करके गुलाब का तेल बनाते हैं। गुलाब की खेती के अलावा वे मूंग दाल, मसूर, मक्की, सोयाबीन, मूंगफली, चने, गेहूं, बासमती, ग्वार और अन्य मौसमी सब्जियां उगाते हैं। 12 एकड़ में वे बासमती उगाते हैं और बाकी की भूमि में वे उपरोक्त फसलें उगाते हैं।

राजिंदरपाल सिंह जिन गुलाबों की खेती करते हैं वे वर्ष में एक बार दिसंबर महीने में खिलते हैं और इनकी कटाई मार्च और अप्रैल तक पूरी कर ली जाती है। एक एकड़ खेत में वे 12 से 18 क्विंटल गुलाब उगाते हैं और आज एक एकड़ गुलाब के खेतों से उनका वार्षिक मुनाफा 1.25 लाख रूपये है। उनके उत्पादों की मांग अमेरिका, कैनेडा और अन्य देशों में है। यहां तक कि उनके द्वारा बनाये गये गुलाब के तेल को भी निर्यातकों द्वारा अच्छी कीमत पर खरीदा जाता हैं सिर्फ इसलिए क्योंकि वे तेल, शुद्ध जैविक गुलाबों से बनाते हैं। बेमौसम में वे गुलाब की अन्य किस्में उगाते हैं और उनसे गुलकंद बनाते हैं और उसे नज़दीक के ग्रोसरी स्टोर में बेचते हैं। गुलाब का तेल, रॉज़ वॉटर और गुलकंद के इलावा अन्य फसलें जैविक मसूर, गेहूं, मक्की, धान को भी बेचते हैं। सभी उत्पाद उनके द्वारा बनाये जाते है और उनके ब्रांड नाम भाकर जैविक फार्म के नाम से बेचे जाते हैं।

आज राजिंदर पाल सिंह जैविक खेती से बहुत संतुष्ट हैं। हां उनके उत्पादों की उपज कम होती है लेकिन उनके उत्पादों की कीमत, पारंपरिक खेती का प्रयोग करके उगाई अन्य फसलों की कीमत से ज्यादा होती है। वे अपने खेतों में सिर्फ गाय की खाद और नदी के पानी का प्रयोग करते हैं और बाज़ार से किसी भी तरह की खाद या कंपोस्ट नहीं खरीदते। जैविक खेती करके वे मिट्टी के पोषक तत्व और उपजाऊ शक्ति को बनाए रखने में सक्षम हैं। शुरूआत में उन्होंने अपने उत्पादों के मंडीकरण में छोटी सी समस्या का सामना किया लेकिन जल्दी ही लोगों ने उनके उन्पादों की क्वालिटी को मान्यता दी, फिर उन्होंने अपने काम में गति प्राप्त करनी शुरू की और वे जैविक खेती करके अपनी फसलों में बहुत ही कम बीमारियों का सामना कर रहे हैं।

अब उनके पुरस्कार और प्राप्तियों पर आते हैं। ATMA स्कीम के तहत केंद्र सरकार द्वारा उनकी सराहना की गई और देश के अन्य किसानों को प्रोत्साहित करने के लिए एक प्रेरणास्त्रोत के रूप में प्रस्तुत किया गया। वे भूमि वरदान फाउंडेशन के मैंबर भी हैं जो कि रोयल प्रिंस ऑफ वेलस के नेतृत्व में होता है और उनके सभी उत्पाद इस फाउंउेशन के द्वारा प्रमाणित हैं। उन्होंने पटियाला के पंजाब एग्रीकल्चर विभाग से प्रशंसा पत्र भी प्राप्त किया और यहां तक कि पंजाब के पूर्व कृषि मंत्री श्री तोता सिंह ने उन्हें प्रगतिशील किसान के तौर पर पुरस्कृत किया।

भविष्य की योजना
भविष्य में वे जैविक खेती के क्षेत्र में अपने काम को जारी रखना चाहते हैं और जैविक खेती के बारे में ज्यादा से ज्यादा किसानों को जागरूक करना चाहते हैं ताकि वे जैविक खेती करने के लिए प्रेरित हो सकें।

राजिंदर पाल सिंह द्वारा दिया गया संदेश-
आज हमारी धरती को हमारी जरूरत है और किसान के तौर पर धरती को प्रदूषन से बचाने के लिए हम सबस अधिक जिम्मेदार व्यक्ति हैं। हां, जैविक खेती करने से कम उपज होती है लेकिन आने वाले समय में जैविक उत्पादों की मांग बहुत अधिक होगी, सिर्फ इसलिए नहीं कि ये स्वास्थ्यवर्धक हैं अपितु इसलिए क्योंकि यह समय की आवश्यकता बन जाएगी। इसके अलावा जैविक खेती स्थायी है और इसे कम वित्तीय की आवश्यकता होती है। इसे सिर्फ श्रमिकों की आवश्यकता होती है और यदि एक किसान जैविक खेती करने में रूचि रखता है तो वह इसे बहुत आसानी से कर सकता है।

 

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हरबंत सिंह

(ड्रैगन फ्रूट)

पिता पुत्र की जोड़ी जिसने इंटरनेट को अपना शोध हथियार बनाकर जैविक खेती की

खेतीबाड़ी मानवी सभ्यता का एक महत्तवपूर्ण भाग है। तकनीकों और जीवन में उन्नति के साथ साथ कई वर्षों में खेती में भी बदलाव आया है। लेकिन फिर भी, भारत में कई किसान परंपरागत तरीके से ही खेती करते हैं, लेकिन ऐसे ही एक किसान हैं या हम कह सकते हैं कि एक पिता पुत्र की जोड़ी-हरबंत सिंह (पिता) और सतनाम सिंह (पुत्र), जिन्होंने खेती के क्षेत्र में उन्नति के लिए इंटरनेट को अपना अनुसंधान हथियार बनाया।

जब तक उनका बेटा जैविक तरीके से बागबानी करने के विचार से पहले अन्य किसानों की तरह, हरबंत सिंह भी पहले परंपरागत खेती करते थे। हां, ये सतनाम सिंह ही थे जिन्होंने अपने 1 वर्ष की रिसर्च के बाद, अपने पिता से ड्रैगन फल की खेती करने की सिफारिश की।

यह सब 1 वर्ष पहले शुरू हुआ जब सतनाम सिंह अपने एक दोस्त के माध्यम से गुजरात के एक व्यकित विशाल डोडा के संपर्क में आए, विशाल डोडा 15 एकड़ के क्षेत्र में ड्रैगन फल की खेती करते हैं। सतनाम सिंह ने ड्रैगल फल पौधे के बारे में सब कुछ रिसर्च किया और अपने पिता से इसके बारे में चर्चा की और जब हरबंत सिंह ने ड्रैगन फल की खेती के बारे में और इसके फायदों के बारे में जाना, तो उन्होंने बहुत प्रसन्नता से अपने पुत्र को इसे शुरू करने के लिए प्रेरित किया, फिर चाहे इसमें कितना भी निवेश करना हो। जल्द ही उन्होंने गुजरात का दौरा किया और ड्रैगन फल के पौधों को खरीदा और विशाल डोडा से इसकी खेती के बारे में कुछ दिशा निर्देश लिये।

आज इस पिता पुत्र की जोड़ी पहली है जिसने पंजाब में ड्रैगन फल की खेती शुरू कर और अब इन पौधों ने फल देना भी शुरू कर दिया है। उन्होंने डेढ़ बीघा क्षेत्र में ड्रैगन फल के 500 नए पौधे लगाए हैं। एक पौधा 4 वर्ष में 4-20 किलो फल देता है। उन्होंने सीमेंट का एक स्तम्भ बनाया है जिसके ऊपर पहिये के आकार का ढांचा है जो कि पौधे को सहारा देता है। जब भी उन्हें ड्रैगन फल की खेती से संबंधित मदद की जरूरत होती है तो वे इंटरनेट पर उसकी खोज करते हैं या विशाल डोडा से सलाह लेते हैं।

वे सिर्फ ड्रैगन फल की ही खेती नहीं करते बल्कि उन्होंने अपने खेत में चंदन के भी पौधे लगाए हुए हैं। चंदन की खेती का विचार सतनाम सिंह के मन में उस समय आया जब वे एक न्यूज चैनल देख रहे थे जहां उन्होंने जाना कि एक मंत्री ने चंदन के पौधे का एक बड़ा हिस्सा मंदिर में दान किया जिसकी कीमत लाखों में थी। उस समय उनके दिमाग में अपने भविष्य को पर्यावरण की दृष्टि और वित्तीय रूप से सुरक्षित और लाभदायक बनाने का विचार आया। इसलिए उन्होंने जुलाई 2016 में चंदन की खेती में निवेश किया और 6 कनाल क्षेत्र में 200 पौधे लगाए।

हरबंत सिंह के अनुसार, वे जिस तकनीक का प्रयोग कर रहे हैं उसे भविष्य के लिए तैयार कर रहे हैं क्योंकि ड्रैगनफल और चंदन दोनों को कम पानी की आवश्यकता होती है (इसे केवल बारिश के पानी से ही सिंचित किया जा सकता है) और किसी विशेष प्रकार की खाद की जरूरत नहीं होती। इसके अलावा वे ये भी अच्छी तरह से जानते हैं कि आने वाले समय में धान और गेहूं की खेती पंजाब से गायब हो जाएगी क्योंकि भूजल की कमी के कारण और बागबानी आने वाले समय की आवश्यकता बन जाएगी।

हरबंत सिंह ड्रैगन फल और चंदन की खेती के लिए जैविक तरीकों का पालन करते हैं और धीरे धीरे समय के साथ वे अपनी अन्य फसलों में भी रसायनों का प्रयोग कम कर देंगे। हरबंत सिंह और उनके बेटे का रूझान जैविक खेती की तरफ इसलिए है क्योंकि समाज में बीमारियां बहुत ज्यादा बढ़ रही हैं। वे भविष्य की पीढ़ियों के लिए वातावरण को सेहतमंद और रहने योग्य बनाना चाहते हैं। जैसा उनके पूर्वज उनके लिए छोड़ गए थे। एक कारण यह भी है कि सतनाम सिंह ने अपनी इंजीनियरिंग की पढ़ाई पूरी करने के बाद जैविक खेती करने लगे थे और शुरूआत से ही उनकी रूचि खेती में थी।

आज सतनाम सिंह, अपने पिता की आधुनिक तरीके से खेती करने में पूरी मदद कर रहे हैं। वे गाय के गोबर और गऊ मूत्र का प्रयोग करके घर पर ही जीव अमृत और खाद तैयार करते हैं। वे कीटनाशकों और खादों का प्रयोग नहीं करते। हरबंत सिंह अपने गांव में पानी के प्रबंधन का भी काम कर रहे हैं और अन्य गांवों को भी इसके बारे में शिक्षा दे रहे हैं ताकि वे ट्यूबवैल का कम प्रयोग कर सकें। उनके खुद के पास 12 एकड़ खेत के लिए केवल एक ही ट्यूबवैल है। सामान्य फसलों के अलावा उनके पास अमरूद, केला, आम और आड़ू के पेड़ भी हैं।

सतनाम सिंह ने चंदन और ड्रैगन फल की खेती करने से पहले रिसर्च में एक वर्ष लगाया क्योंकि वे एक ऐसी फसल में निवेश करना चाहते थे। जिसमें कम सिंचाई की जरूरत हो और उसके स्वास्थ्य और वातावरणीय लाभ भी हो। वे चाहते हैं कि अन्य किसान भी ऐसे ही करें खेतीबाड़ी की ऐसी तकनीक अपनायें जो पर्यावरण के अनुकूल हो और जिसके विभिन्न लाभ हो।

भविष्य की योजना
वे भविष्य में लहसुन और महोगनी वृक्ष उगाने चाहते हैं। वे चाहते हैं कि अन्य किसान भी इसकी संभावना को पहचाने और अपने अच्छे भविष्य के लिए इसमें निवेश करें।

किसानों को संदेश
हरबंत सिंह और उनके बेटे दोनों ही चाहते हैं कि अन्य किसान जैविक खेती शुरू करें और भविष्य की पीढ़ियों के लिए पर्यावरण को बचाएं। तभी वे जीवित रह सकते हैं और धरती को बेहतर रहने की जगह बना सकते हैं।

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रजनीश लांबा

(बागबानी)

एक इंसान, जिसने अपने दादा जी के नक्शे कदम पर चल कर जैविक खेती के क्षेत्र में सफलता हासिल की

बहुत कम बच्चे होते हैं जो अपने पुरखों के कारोबार को अपने जीवन में इस प्रेरणा से अपनाते हैं ताकि उनके पिता और दादा को उन पर गर्व हो। एक ऐसे ही इंसान हैं रजनीश लांबा, जिसने अपने दादा जी से प्रेरित होकर जैविक खेती शुरू की।

रजनीश लांबा राजस्थान के जिला झुनझुनु में स्थित गांव चेलासी के रहने वाले एक सफल बागबानी विशेषज्ञ हैं। उनके पास 4 एकड़ का बाग है, जिसका नाम उन्होंने अपने दादा जी के नाम पर रखा हुआ है -हरदेव बाग और उद्यान नर्सरी और इसमें नींबू, आम, अनार, बेल पत्र, किन्नू, मौसमी आदि के 3000 से ज्यादा वृक्ष फलों के हैं।

खेती को पेशे के रूप में चुनना रजनीश लांबा की अपनी दिलचस्पी थी। रजनीश लांबा के पिता श्री हरी सिंह लांबा एक पटवारी थे और उनके पास अलग पेशा चुनने के लिए पूरे मौके थे और डबल एम.ए. करने के बाद वे अपने ही क्षेत्र में अच्छी जॉब कर सकते थे पर उन्होंने खेती को चुना। जैविक खेती से पहले वे पारंपरिक खेती करते थे और बाजरा, गेहूं, ज्वार, चने, सरसों, मेथी, प्याज और लहसुन फसलें उगाते थे, पर जब उन्होंने अपने दादा जी के जैविक खेती के अनुभव के बारे में जाना तो उन्होंने अपने पैतृक व्यवसाय को आगे ले जाने और उस काम को और अधिक लाभदायक बनाने के बारे में सोचा।

यह सब 1996 में शुरू हुआ, जब 1 बीघा क्षेत्र में बेल के 25 वृक्ष लगाए गए और बिना रसायनों के प्रयोग के जैविक खेती को लागू किया गया। इसके साथ ही उन्होंने नर्सरी की तैयारी शुरू कर दी। 8 वर्षों की कड़ी मेहनत और प्रयासों के बाद 2004-2005 में अंतत: बेल पत्र के वृक्षों ने फल देना शुरू किया और उन्होंने 50,000 का भारी लाभ कमाया।

लाभ में इस वृद्धि ने उनके विश्वास को और मजबूत बनाया कि बाग के व्यवसाय से अच्छी उपज और अच्छा लाभ मिलता है इसलिए उन्होंने अपने पूरे क्षेत्र में बाग के विस्तार का निर्णय लिया। 2004 में उन्होंने बेल पत्र के 600 अन्य वृक्ष लगाए और 2005 में बेल पत्र के साथ, किन्नू और मौसमी के 150-150 वृक्ष लगाए। जैसे कि कहा जाता है कि मेहनत का फल मीठा होता है, ऐसे ही परिणाम समान थे । 2013 में उन्होंने मौसमी और किन्नू के उत्पादन से लाभ कमाया और इनसे प्रेरित होकर सिंदूरी किस्म के 600 वृक्ष और लैमन के 250 वृक्ष लगाए। 2012 में उन्होंने आम और अमरूद के 5-5 वृक्ष भी लगाए थे।

वर्तमान में उनके बाग में कुल 3000 वृक्ष फलों के हैं और अब तक सभी वृक्षों से वे अच्छा लाभ कमा रहे हैं। अब उनके छोटे भाई विक्रात लांबा और उनके पिता हरि सिंह लांबा, भी उनके बाग के कारोबार में मदद कर रहे हैं। बागबानी के अलावा उन्होंने 2006 में 25 गायों के साथ डेयरी फार्मिंग की कोशिश भी की, लेकिन इससे उन्हें ज्यादा लाभ नहीं मिला और 2013 में इसे बंद कर दिया। अब उनके पास घरेलू उद्देश्य के लिए सिर्फ 4 गायें हैं।

स्वस्थ उपज और गुणवत्ता को बनाए रखने के लिए, वे गाय का गोबर, गऊ मूत्र, नीम का पानी, धतूरा और गंडोया खाद का प्रयोग करके स्वंय खाद तैयार करते हैं और यदि आवश्यकता हो तो कभी-कभी बाजार से भी गाय का गोबर खरीद लेते हैं।

बागबानी को मुख्य व्यवसाय के रूप में अपनाने के पीछे रजनीश लांबा का मुख्य उद्देश्य यह है कि पारंपरिक खेती की तुलना में यह 10 गुना अधिक लाभ प्रदान करती है और इसे आसानी से पर्यावरण के अनुकूल तरीके से किया जा सकता है। इसके अलावा इसमें बहुत कम श्रम की आवश्यकता होती है, वे श्रमिकों को केवल तब नियुक्त करते हैं जब उन्हें फल तोड़ने की आवश्यकता होती है। अन्यथा उनके पास 2 स्थायी श्रमिक हैं जो हर समय उनके लिए काम करते हैं। अब उन्होंने नर्सरी की तैयारी व्यावसायिक उद्देश्य के लिए शुरू कर दी है और इससे लाभ कमा रहे हैं और जब भी उन्हें बागबानी के बारे में जानकारी की जरूरत होती है तो वे कृषि से संबंधित पत्रिकाओं, प्रिंट मीडिया और इंटरनेट आदि से संपर्क करते हैं।

अपनी जैविक खेती को और अधिक अपडेट और उन्नत बनाने के लिए 2009 में उन्होंने मोरारका फाउंडेशन में प्रवेश किया। कई किसान रजनीश लांबा से कुछ नया सीखने के लिए नियमित तौर पर उनके फार्म का दौरा करते हैं और वे भी बिना किसी लागत के उन्हें जानकारी और ट्रेनिंग उपलब्ध करवाते हैं। यहां तक कि कभी-कभी खेतीबाड़ी अफसर भी सम्मेलन और ट्रेनिंग सैशन के लिए किसानों के ग्रुप के साथ उनके फार्म का दौरा करते हैं।

शुरूआत से ही उनका सपना हमेशा उनके दादा (हरदेव लांबा) को गर्व कराना था, लेकिन वे अपनी शिक्षाओं को आगे ले जाना चाहते हैं और अन्य किसानों को नर्सरी तैयार करने और उनकी तरह बागबानी शुरू करने के लिए प्रेरित करना चाहते हैं। बागबानी के क्षेत्र में उनके महान प्रयासों के लिए 2011 में उन्हें कृषि मंत्री हरजी राम बुरड़क द्वारा पुरस्कृत किया गया और राजस्थान के राज्यपाल कल्यान सिंह द्वारा भी उनकी सराहना की गई। इसके अलावा उनके कई लेख (आर्टिकल) अखबारों और मैगज़ीनों में प्रकाशित किए जा चुके हैं।

किसानों को संदेश-
“वे चाहते हैं कि अन्य किसान भी जैविक खेती को अपनायें क्योंकि यह पर्यावरण अनुकूल होने के साथ-साथ इसके कई स्वास्थ्य लाभ भी हैं। किसानों को रसायनों के प्रयोग को भी कम करना चाहिए। एक चीज़ जो उन्हें हमेशा याद रखनी चाहिए। वो ये है कि वे चाहे जितना भी लाभ कमा रहे हों, लाभ सिर्फ कुछ नया करके ही जैसे बागबानी की खेती करके अर्जित किया जा सकता है।”

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सतवीर सिंह

(सब्जियों की खेती)

एक सफल एग्रीप्रेन्योर की कहानी जो समाज में अन्य किसानों के लिए प्रेरणास्त्रोत बनें – सतवीर फार्म सधाना

यह कहा जाता है कि महान चीज़ें कभी भी आराम वाले क्षेत्र से नहीं आती और यदि एक व्यक्ति वास्तव में कुछ ऐसा करना चाहता है, जो उसने पहले कभी नहीं किया तो उसे अपना आराम क्षेत्र छोड़ना होगा। ऐसे एक व्यक्ति सतवीर सिंह हैं, जिन्होंने अपने आसान जीवनशैली को छोड़ दिया और वापिस पंजाब, भारत आकर अपने लक्ष्य का पीछा किया।

आज श्री सतवीर सिंह एक सफल एग्रीप्रेन्योर हैं और गेहूं और धान की तुलना में दो गुणा अधिक लाभ कमा रहे हैं। उन्होंने सधाना में सतवीर फार्म के नाम से अपना फार्म भी स्थापित किया है। वे मुख्य रूप से स्वंय की 7 एकड़ भूमि में सब्जियों की खेती करते हैं और उन्होंने अपनी 2 एकड़ ज़मीन किराये पर दी है।

सतवीर सिंह ने जीवन के इस स्तर पर पहुंचने के लिए जिस रास्ते को चुना वह आसान नहीं था। उन्हें कई उतार चढ़ाव का सामना किया, लेकिन फिर भी लगातार प्रयासों और संघर्षों के बाद उन्होंने अपनी रूचि को आगे बढ़ाया और इसमें सफलता हासिल की। यह सब शुरू हुआ जब उन्होंने अपनी स्कूल की पढ़ाई खत्म की और चार साल बाद वे नौकरी के लिए दुबई चले गए। लेकिन कुछ समय बाद वे भारत लौट आए और उन्होंने खेती शुरू करने का फैसला किया और वापिस दुबई जाने का विचार छोड़ दिया। शुरूआत में उन्होंने गेहूं और धान की खेती शुरू की, लेकिन अपने दोस्तों के साथ एक सब्जी के फार्म का दौरा करने के बाद वे बहुत प्रभावित हुए और सब्जी की खेती की तरफ आकर्षित हो गये।

करीब 7 साल पहले (2010 में) उन्होने सब्जी की खेती शुरू की और शुरूआत में कई समस्याओं का सामना किया। फूलगोभी पहली सब्जी थी जिसे उन्होंने अपने 1.5 एकड़ खेत में उगाया और एक गंभीर नुकसान का सामना किया। लेकिन फिर भी उन्होंने कभी हार नहीं मानी और सब्जी की खेती करते रहें। धीरे धीरे उन्होने अपने सब्जी क्षेत्र का विस्तार 7 एकड़ तक कर दिया और कद्दू, लौकी, बैंगन, प्याज और विभिन्न किस्मों की मिर्चें और करेले को उगाया और साथ ही उन्होंने नए पौधे तैयार करने शुरू किए और उन्हें बाज़ार में बेचना शुरू किया। धीरे धीरे उनके काम को गति मिलती रही और उन्होंने इससे अच्छा लाभ कमाया।

फूलगोभी के गंभीर नुकसान का सामना करने के बाद, भविष्य में ऐसी स्थितियों से बचने के लिए सतवीर सिंह ने सब्जी की खेती बहुत ही बुद्धिमानी और योजना बनाकर की। पहले वे ग्राहक और मंडी की मांग को समझते हैं और उसके अनुसार वे सब्जी की खेती करते हैं। वे एक एकड़ में सब्जी की एक किस्म को उगाते हैं फिर मंडीकरण की समस्याओं का समाधान करते हैं। उन्होंने पी ए यू के समारोह में भी हिस्सा लिया जहां उनहें विभिन्नि खेतों को देखने का मौका मिला और नेट हाउस फार्मिंग के ढंग को सीखा और वर्तमान में वे अपनी सब्जियों को संरक्षित वातावरण देने के लिए इस ढंग का प्रयोग करते हैं। उन्होंने थोड़े समय पहले टुटुमा चप्पन कद्दू की खेती की और दिसंबर में सही समय पर बाज़ार में उपलब्ध करवाया था। इससे पहले इसी सब्जी का स्टॉक गुजरात से बाज़ार में पहुंचा था। इस तरह उन्होंने अपने सब्जी उत्पाद को बाज़ार में अच्छी कीमत पर बेच दिया। इसके इलावा, वे हर बार अपने उत्पाद को बेचने के लिए मंडी में स्वंय जाते हैं और किसी पर भी निर्भर नहीं होते।

सर्दियों में वे पूरे 7 एकड़ भूमि में सब्जियों की खेती करते हैं और गर्मियों में इसे कम करके 3.5 एकड़ में खेती करते हैं और बाकी की भूमि धान और गेहूं की खेती के लिए प्रयोग करते हैं। पूरे गांव में सिर्फ उनका ही खेत सब्जियों की खेती से ढका होता है और बाकी का क्षेत्र धान और गेहूं से ढका होता है। अपनी कुशल कृषि तकनीकों और मंडीकरण नीतियों के लिए, उन्हें पंजाब एग्रीकल्चर यूनिवर्सिटी से चार पुरस्कार प्राप्त हुए हैं। उनकी अनेक उपलब्धियों में से एक उपलब्धि यह है कि उन्होंने कद्दू की एक नई किस्म को विकसित किया है और उसका नाम अपने बेटे के नाम पर कबीर पंपकीन रखा है।

वर्तमान में वे अपने परिवार (माता, पिता, पत्नी, दो बेटों और बड़े भाई और उनकी पत्नी सिंगापुर में बस गए हैं) के साथ सधाना गांव में रह रहे हैं जो कि पंजाब के बठिंडा जिले में स्थित है। उनके पिता उनकी मुख्य प्रेरणा थे जिन्होंने खेती की शुरूआत की, लेकिन अब उनके पिता खेत में ज्यादा काम नहीं करते। वे सिर्फ घर पर रहते हैं और बच्चों के साथ समय बिताते हैं। आज उनके सफलतापूर्वक खेती अनुभव के पीछे उनके परिवार का समर्थन है और वे पूरा श्रेय अपने परिवार को देते हैं।

सतवीर सिंह अपने खेत का प्रबंधन केवल एक स्थायी कर्मचारी की मदद से करते हैं और कभी कभी महिला श्रमिकों को सब्जियां चुनने के लिए नियुक्त कर लेते हैं। सब्जियों की कीमत के आधार पर वे एक एकड़ ज़मीन से एक मौसम में 1-2 लाख कमाते हैं।

भविष्य कि योजना
भविष्य में वे जैविक खेती करने की योजना बना रहे हैं और वर्मी कंपोस्ट बनाने के लिए उन्होंने 3 दिन की ट्रेनिंग भी ली है। वे लोगों को जैविक और गैर कार्बनिक सब्जियों और खाद्य उत्पादों के बीच के अंतर से अवगत करवाना चाहते हैं। वे ये भी चाहते हैं कि सब्जियों को अन्य किराने के सामान जैसे पैकेट में भी आना चाहिए ताकि लोग समझ सकें कि वे कौन से खेत और कौन से ब्रांड की सब्जी खरीद रहे हैं।

किसानों को संदेश
“मैंने अपने ज्ञान में कमी होने के कारण शुरू में बहुत कठिनाइयों का सामना किया। लेकिन अन्य किसान जो कि सब्जियों की खेती करने में दिलचस्पी रखते हैं उन्होंने मेरी तरह गल्ती नहीं करनी चाहिए और सब्जियों की खेती शुरू करने से पहले किसी माहिर से सलाह लेनी चाहिए और सब्जियों की मंडी का विश्लेषण करना चाहिए। इसके इलावा, जिन किसानों के पास पर्याप्त संसाधन है उन्हें अपनी प्राथमिक जरूरतों को बाज़ार से खरीदने की बजाय स्वंय पूरा करना चाहिए।”

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गोबिंदर सिंह रंधावा (जोंटी)

(मधुमक्खी पालन)

एक उभरते मक्खीपालक की कहानी, जिन्होंने सफलतापूर्वक मक्खीपालन के व्यवसाय को करने के लिए अपना रास्ता खुद बनाया

यह कहा गया है कि जब आपको कुछ अच्छा पाने का मौका मिलता है तो उसे गंवाना नहीं चाहिए। क्योंकि चीज़ें उनके लिए ही अच्छी होती है जो जानते हैं कि उन्हें कैसे अच्छा बनाया जायें। ऐसे ही एक व्यक्ति हैं – गोबिंदर सिंह रंधावा उर्फ जोंटी रंधावा, जिन्होंने मौके को गंवाया नहीं और मधु मक्खी पालन के क्षेत्र में सफलता के लिए अपना रास्ता खुद बनाया।

गोबिंदर सिंह रंधावा गांव लांडा, जिला लुधियाना के रहने वाले हैं। उन्होंने कॉलेज की पढ़ाई के बाद युवावस्था में ही मक्खीपालन के काम का चयन किया। इन सबके पीछे उनके गांव के प्रमुख सरदार बलदेव सिंह थे जिन्होंने उनकी प्रेरणा शक्ति के रूप में काम किया। सरदार बलदेव सिंह स्वंय एक प्रगतिशील किसान थे और मधुमक्खी पालन के क्षेत्र में उनका नाम बहुत प्रसिद्ध था।

गोबिंदर सिंह ने अपने दो दोस्तों के साथ पी ए यू में 8 दिनों के लिए मक्खी पालन की ट्रेनिंग ली और उसके बाद ही मक्खी पालन का काम शुरू कर दिया। आज वे एक सफल मक्खीपालक हैं और उन्होंने अपना अच्छा व्यवसाय स्थापित कर लिया है। उन्होंने 2003 में 280000 रूपये का लोन लेकर 114 मधुमक्खी बक्से के साथ मक्खीपालन का काम शुरू किया था और आज उनके पास 1000 मधुमक्खी के बक्से हैं। वे मक्खी पालन के लिए रसायनों या खुराक का प्रयोग नहीं करते। वे हमेशा शक्कर या गुड़ पीसकर मधुमक्खियों को प्राकृतिक फीड देते हैं और कीटों के हमले को रोकने के लिए कुदरती तरीके का प्रयोग करते हैं। मुख्य रूप से वे गेंदे और सरसों के फूलों से शहद तैयार करते हैं और वर्तमान में उनकी आमदन 3 करोड़ के लगभग है।

अपना व्यवसाय स्थापित करते समय उन्होंने कुछ लक्ष्य बनाये और उन्हें एक एक कर पूरा करके अपने उत्पादों के लिए बाज़ार में एक अच्छी जगह बनाई। शुरूआत से ही वे अपने उत्पादों को विदेशों में निर्यात करने की दिलचस्पी रखते थे और फिलहाल वे स्वंय द्वारा बनाये गये मधुमक्खी मोम का निर्यात अमेरिका को कर रहे हैं। भारत में, वे शहद को दोराहा, लुधियाना जीटी रोड शॉप पर थोक में बेचते हैं और इससे वे अच्छा लाभ कमा रहे हैं। वे राष्ट्रीय बागबानी विभाग के पंजीकृत आपूर्तिकर्त्ता भी हैं और उनके माध्यम से अपने उत्पाद बेचते हैं।

महान व्यकितत्व में से एक- डॉ रमनदीप सिंह, जिन्होंने व्हाट्स एप ग्रुप के माध्यम से मेलों और समारोह के बारे में आवश्यक जानकारी देकर उनके उत्पादों के मंडीकरण में उनकी मदद की। गोबिंदर सिंह ने मक्खीपालकों और किसानों की उन समस्याओं के बारे में अपने विचार सांझा किए जिनका वे सामना कर रहे हैं। उनके अनुसार आज के समय में सब कुछ ऑनलाइन ही उपलब्ध होता है, यहां तक कि उपभोक्ता बुनियादी चीज़ों की खरीददारी भी ऑनलाइन ही करते हैं इसलिए उत्पादकों को एक कदम आगे बढ़ाकर अपने उत्पादों को ऑनलाइन बेचने की जरूरत है।

वर्तमान में गोबिंदर सिंह अपने संपूर्ण परिवार (माता, पिता, पत्नी और दो बेटों) के साथ अपने गांव में रह रहे हैं और अपने बिग बी एसोसिएशन का समर्थन भी कर रहे हैं। वे एक सहायक व्यक्ति भी हैं और अन्य उभरते हुए मक्खीपालकों को बक्से प्रदान करके उनकी मदद करते हैं और उनका आवश्यक मार्गदर्शन भी करते हैं। वे किसानों को अपना व्यवसाय शुरू करने के लिए लोन की प्रक्रिया के बारे में जानकारी भी देते हैं। वे भविष्य में शहद के अन्य उत्पादों जैसे बी विनोम, रोयल जैली और हनी बी पोलन के दाने बनाना और पेश करना चाहते हैं और अंतरराष्ट्रीय बाज़ार में निर्यात करना चाहते हैं जिनकी वहां पर अधिक मांग है।

किसानों को संदेश
जो युवा असफलता का सामना करने के बाद आत्महत्या कर लेते हैं उन्हें ऐसा नहीं करना चाहिए। उन्हें अपनी क्षमता को पहचानना शुरू करना चाहिए, क्योंकि यदि किसी व्यक्ति में कुछ करने की इच्छा होती है तो वे इसे प्राप्त कर सकते हैं और अपने जीवन में किसी भी स्तर पर बहुत आसानी से पहुंच सकते हें। आत्महत्या करना किसी भी समस्या का समाधान नहीं है।

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सुनीता देवी

(हस्तशिल्प)

जानिए, कैसे एक गतिशील माँ-बेटी की जोड़ी अपने दस्तकारी फुलकारी उत्पादों की ओर लोगों को आकर्षित कर रही है

हमारे भारतीय समाज में, शुरू से ही पुरूषों को परिवार के लिए आजीविका कमाने वाले और परिवार के लिए मुख्य सदस्य के रूप में माना जाता है। दूसरी ओर, महिलाओं को गृहणी माना जाता है जो परिवार की सभी कामों जैसे (कपड़े साफ करने, भोजन, घर की सफाई आदि) को समय पर परिवार के सदस्यों को उपलब्ध करवाने की जिम्मेदार है। खैर, इन प्रवृत्तियों को पहले निभाया जाता था लेकिन वर्तमान में नहीं। आज कई महिलायें समाज के लिए प्रेरणा के रूप में सामने आई हैं और अपने परिवार के लिए पुरूष और महिला दोनों की भूमिका निभा रही हैं और दुनिया को पलट रही हैं।

पंजाब के फतेहगढ़ साहिब के एक छोटे से गांव (चनारथल खुरद) से दो ऐसी महिलायें अपने गांव से 10 महिलाओं का नेतृत्व करके स्वंय के सफल फुलकारी व्यवसाय को चला रही हैं। महिलाओं की यह जोड़ी मां-बेटी की है। जो व्यापार के हर काम को बहुत ही आसानी से प्रबंधित करती हैं। इस ग्रुप की मुखिया सुनीता देवी (मां) और बेअंत शर्मा (बेटी) हैं। बेअंत एक सक्रिय, युवा और संवादक सदस्य के रूप में है, जो हर मंच पर ग्रुप का प्रतिनिधित्व करती है।

1996 में सुनीता जी के पति की मृत्यु हो गई और परिवार के लिए यह बहुत दुखद स्थिति थी, तब से परिवार के सदस्यों को जीवित रहना मुश्किल हो गया, लेकिन धीरे-धीरे सुनीता जी और उनके बच्चे इस सदमे से बाहर हुए और धीरे-धीरे अपनी ज़िंदगी को सुचारू रूप से आसान बनाया। उन्होंने कई मुश्किलों का सामना किया और आज इस अवस्था तक पहुंचने के लिए कई बाधाएं पार की।

आंगनवाड़ी ने स्थानीय स्तर पर उस गांव की महिलाओं की मदद करने के लिए 2012 में सैल्फ हैल्प ग्रुप बनाया और सुनीता जी की बेटियां इस सैल्फ हैल्प ग्रुप की मैंबर थीं। वे फुलकारी, सूट, दुपट्टा, शॉल और जैकेट के हर टुकड़े पर इतनी मेहनत से काम करती थीं लेकिन वे अपने द्वारा बनाये गये उत्पादों की सही कीमत नहीं पा रही थीं। कुछ भी ठीक से प्रबंधित नहीं था। इसलिए एक मीटिंग में बेअंत शर्मा ने अपनी और अन्य महिलाओं की समस्याओं को व्यक्त किया, उसके बाद 2017 में दो ग्रुप बनाए गए – श्री गुरू अर्जन देव सैल्फ हैल्प ग्रुप और देवी अन्नपूर्णा ग्रुप। सुनीता जी को श्री गुरू अर्जन देव सैल्फ हैल्प ग्रुप की मुखिया बनाया गया और बेअंत ग्रुप की प्रतिनिधि थीं। वैसे यह एक ग्रुप का प्रयास था लेकिन ग्रुप को बनाने में बेअंत की इच्छा शक्ति और सुनीता जी की अपनी बेटी को समर्थन की ताकत है और जब प्यार और कौशल एक साथ काम करते हैं तो एक उत्तम रचना के होने की उम्मीद होती है।

इससे पहले आर्थिक संकट के कारण बेअंत और अन्य बच्चों को अपनी पढ़ाई बीच में ही छोड़नी पड़ी लेकिन अब चीज़ें अच्छी हो रही हैं। बेअंत और अन्य लड़कियां अपनी पढ़ाई जारी रखने की योजना बना रही हैं। बेअंत ने पंजाबी यूनिवर्सिटी से BA प्राइवेट करने की योजना बनाई है।

सुनीता जी के परिवार में कुल छ: सदस्य हैं, चार बेटियां, एक बेटा और वे स्वंय। पुत्र कांट्रेक्ट के आधार पर गुजरात में होंडा सिटी में काम कर रहा है और बेटियां ग्रुप को चलाने में अपनी माता का साथ दे रही हैं। बेअंत इनमें से काफी सक्रिय है और विभिन्न सम्मेलन और प्रदर्शनियों में अपने ग्रुप का प्रतिनिधित्व करती हैं। अब, सुनीता जी और बेअंत ग्राहकों से जुड़े हुए हैं और वे अपने उत्पादों को ग्राहकों को बेचते हैं और उत्पादिन वस्तुओं का सही मूल्य प्राप्त करते हैं। बेअंत एक युवा लड़की है और वर्तमान के मंडीकरण प्रवृत्तियों के बारे में अच्छे से जानती हैं और उनका अनुसरण करती हैं। उसने ग्रुप के नाम पर विज़िटिंग कार्ड बनाया है और व्हाट्स एप् के माध्यम से सभी ग्राहकों से जुड़ी हुई हैं। इस समूह द्वारा बनाए गए दस्तकारी उत्पाद वास्तव में बहुत ही सुंदर, अनूठे और गुणवत्ता में बेहतरीन हैं। वे कच्चे माल को सरहिंद से खरीदते हैं और फुलकारी सूट, दुपट्टा, की-रिंगज़, बुक मारकर्ज़, शॉल, जैकेट और अन्य घर के सजावटी उत्पादों को निर्माण करते हैं। भविष्य में वे रचनात्मक डिज़ाइनों के साथ अधिक फुलकारी उत्पादों का निर्माण करने की योजना बना रहे हैं।

मां बेटी दोनों द्वारा संदेश
एक औरत में सब कुछ करने की क्षमता होती है, यह सब अंदरूनी शक्ति और दृढ़ संकल्प पर है। तो कभी भी खुद को कम मत समझें और हमेशा अपने कौशल को स्वंय के लिए उपयोगी बनाने की कोशिश करें। एक चीज़ जो महिला को मजबूत करती है वह है शिक्षा। दुनिया की वर्तमान स्थिति से अपडेट और जागरूक होने के लिए हर महिला को अपनी शिक्षा का पूरा अध्ययन करना चाहिए।

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कमला शौकीन

(प्रोसेसिंग)

एक महिला की प्रेरणास्त्रोत कहानी, जिसने अपनी सेवा-मुक्ति के बाद खुद का व्यवसाय शुरू किया और आज उस कारोबार में सफल है

भारत में जब एक मनुष्य सेवा मुक्ति वाली उम्र पर पहुंचता है, तो उसकी उम्र लगभग 60 वर्ष होती है और भारतीय लोगों की मानसिकता है कि सेवा मुक्ति के बाद कोई काम नहीं करना क्योंकि हर किसी के अपनी सेवा-मुक्ति के समय के लिए अलग-अलग सपने होते हैं। कुछ लोग छुट्टियां मनाने जाना चाहते हैं, कुछ लोग आराम और शांति भरी ज़िंदगी जीना चाहते हैं और कुछ लोग परमात्मा की भक्ति का रास्ता चुनते हैं, पर कुछ लोग ऐसे भी होते हैं, जो सेवा मुक्ति के बाद अपने शौंक और दिलचस्पी को चुनते हैं और उन्हें अपनी दूसरी नौकरी की तरह पूरा करते हैं। कमला शौकीन जी भी ऐसी एक महिला हैं, जिन्होंने सेवा मुक्ति के बाद खुद का कारोबार शुरू किया।

कमला शौकीन जी आत्मिक तौर पर आज भी जवान हैं और उन्होंने रिटायरमैंट के बाद स्वंय का कारोबार शुरू किया, पर रिटायरमैंट होने से पहले वे 39 वर्षों तक सरकारी स्कूल में शारीरिक शिक्षा के अध्यापक थे। उन्होंने आचार बनाने का शुरू से ही बहुत शौंक था, इसलिए रिटायरमैंट के बाद उन्होंने इस शौंक को कारोबार में बदलने के बारे में सोचा और वे आज कल कमल आचार के ब्रांड से अपना सफल आचार का कारोबार चला रहे हैं। कमला शौकीन जी ने अपना आचार का कारोबार 7 वर्ष पहले 2010 में अध्यापक के पेशे से रिटायर्ड होने के बाद शुरू किया। अपने आचार के कारोबार को और व्यावहारिक बनाने के लिए उन्होंने कामकाजी महिला कुटीर उद्योग के अधीन पूसा की शाखा- के वी के उजवा से आचार बनाने की ट्रेनिंग हासिल की। वहां से प्रमाण पत्र हासिल करने के बाद उन्होंने गांव डिचाओं कला जो कि नज़फगढ़ जिले में स्थित है, की जरूरतमंद और गरीब महिलाओं को आचार बनाने और बेचने के कारोबार को शुरू करने के लिए इक्ट्ठा किया। आज उनके फलों का फार्म 2.75 एकड़ की ज़मीन तक फैल चुका है, जिसमें वे आचार बनाने के लिए बेर, करौंदा, आंवला, जामुन और अमरूद आदि उगाते हैं। वे खेत का सारा काम कुछ श्रमिकों की सहायता से स्वंय ही संभालते हैं। पौधों से अच्छी पैदावार लेने के लिए वे रासायनिक खादों का प्रयोग नहीं करते। वे केवल गंडोया खाद का ही प्रयोग करते हैं।

कमला शौकीन जी ने राजनीतिक शास्त्र में एम ए की है, पर जब उन्होंने रिटायरमैंट के बाद आचार बनाने का कारोबार शुरू किया, तो उन्हें उस समय यह बिल्कुल महसूस नहीं किया कि वे जो काम शुरू करने जा रही हैं वे उनके दर्जे या अहुदे से निम्न का है। यहां तक कि उनके पति श्री मूलचंद शौकीन जी डी ए से रिटायर्ड निर्देशक हैं, दो बेटे हैं- जिनमें से एक पायलट है और दूसरा इंजीनियर है, एक बेटी पेशे से डॉक्टर है और दोनों बहुएं पेशे से शिक्षक हैं, जो कि उनके व्यापार में उन्हें सहयोग देती हैं।

आज वे 69 वर्ष की हो गई हैं, लेकिन अपने शौंक के प्रति उनका उत्साह रिटायरमैंट के बाद के पहले दिन की तरह ही है। कमला शौकीन ने हमेशा अपने अध्यापन काल और अपने आचार के व्यवसाय में अपना सर्वश्रेष्ठ प्रयास किया है। स्कूल से उन्हें उनके शिक्षण के लिए बेस्ट टीचर अवार्ड प्राप्त हुआ और आचार व्यापार शुरू करने के बाद उन्हें पूसा द्वारा सर्वश्रेष्ठ आचार की गुणवत्ता के लिए भी सम्मानित किया गया।

आमतौर पर वे अपने हाथों से बने आचार को बेचने के लिए सम्मेलनों, प्रदर्शनियों और मेलों में जाती हैं, लेकिन अपने उत्पाद को अधिक लागों तक पहुंचाने के लिए उन्होंने अपने घर में एक छोटी सी दुकान खोली है। वे सबसे ज्यादा प्रगति मैदान और पूसा मेलों में जाती हैं जहां पर वे अपने उत्पादों को बेचकर सबसे ज्यादा लाभ कमाती हैं। एक वर्ष में वह अपने आचार के कारोबार से 60000-70000 रूपये से अधिक कमा लेती हैं और भविष्य में वे अपने आचार के व्यापार में अधिक किस्मों को शामिल करने की योजना बना रही हैं-जैसे आम और नींबू। जब भी कोई व्यक्ति आचार बनाने के संबंधित सलाह लेने आता है वह उन्हें कभी मना नहीं करती। हमेशा अच्छा और सही सुझाव देती हैं। अब तक उन्होंने पूसा से ट्रेनिंग ले रहे कई लोगों को सुझाव दिया है ताकि वे अपना कारोबार शुरू कर सकें।

कमला शौकीन द्वारा संदेश
“पूरा दिन कुर्सी पर बैठकर कुछ ना करने से बेहतर है खुद को उपयोगी बनाना। मैंने अपनी रिटायरमैंट के बाद काम करना शुरू कर दिया क्योंकि मुझे आचार बनाने का शौंक था और मैं ऊबना नहीं होना चाहती थी। अपने आचार के कारोबार से मैं अपने गांव के गरीब लोगों को समर्थन करने में सक्षम हूं। मेरे अनुसार, हर महिला को अपने कौशल और शौंक का इस्तेमाल शादी के बाद भी खुद को आत्मनिर्भर बनाने के लिए करना चाहिए, लेकिन इससे पहले उन्हें अपनी शिक्षा पूरी करनी चाहिए।”

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अनीता गोयल

(बेकरी उत्पाद प्रोसेसिंग)

एक ऐसी महिला की कहानी जो अपनी मेहनत से एक आम गृहणी से एक जानी मानी हस्ती बन गयी और ज़ायका मैंम के नाम से जानी जाने लगी

पुराने समय में, भारत में पहले विवाह के बाद महिलाओं में इतना विश्वास नहीं होता था कि वे अपने शौंक और रूचि को अपना व्यवसाय बना सकें। इसके पीछे काफी कारण हैं जैसे कि सामाजिक दबाव, पारिवारिक दबाव, रूढ़िवादी समाज, वित्तीय संकट, पारिवारिक जिम्मेदारियां और बहुत कुछ शामिल थे। लेकिन कुछ महिलाओं को आगे बढ़ने से रोका नहीं जा सकता। यह पंक्ति इन महिलाओं के लिए ही बनी है – जो रोशनी अंदर से प्रकाशित होती है, उसे कोई मध्यम नहीं कर सकता।

ऐसी महिला जो हमेशा महिला समाज के लिए प्रेरणा रही है वे हैं अनीता गोयल। अनीता गोयल लुधियाना शहर के एक कस्बे जगरांव की एक सफल उद्यमी हैं। वे अपने हॉमटाउन में कुकिंग क्लासिज़ के लिए बहुत प्रसिद्ध हैं और ज़ायका कुकिंग क्लासिज़ नामक ब्रांड के तहत अपने व्यवसाय को चलाती हैं। वह अपने छात्रों को पेंटिंग और कढ़ाई भी सिखाती हैं और उनके सभी छात्र छोटी उम्र की लड़कियों से लेकर बड़ी उम्र की महिलायें हैं। अपने काम के प्रति जुनून के कारण उन्हें “ज़ायका मैम” के नाम से जाना जाता है। वे 2009 में पी ए यू में किसान क्लब की मैंबर भी बनीं और अब तक वे पी ए यू में नियमित रूप से कुकिंग क्लासिज़ दे रही हैं। उनके सभी विद्यार्थी बड़ी लग्न से उनसे कुकिंग क्लासिज़ लेते हैं और उन्हें बहुत शांति से और ध्यान से सुनते हैं।

यह सब सफलता, समृद्धि और नाम इतनी आसानी से हासिल नहीं हुआ है। यह सब उनकी शादी के बाद 1986 में शुरू हुआ। उन्होंने एक ऐसे परिवार में शादी की, जहां किसी भी औरत ने घर से बाहर कभी कदम नहीं रखा। वे उनमें से पहली थी। उसके पति पेशे से वकील थे इसीलिए उनके परिवार की आर्थिक अवस्था अच्छी थी और उन्हें कभी काम करने की जरूरत नहीं पड़ी। लेकिन ये उनका जुनून ही था जिसने उन्हें उपलब्धि के इस स्तर तक पहुंचाया, जहां वे आज हैं। वे जगरांव में अपने संपूर्ण परिवार (पति, दो पुत्र, एक बेटी, दो बहुएं और दो पोतों) के साथ रहती हैं और साथ-साथ में अपने दैनिक व्यवसाय और शिक्षण कार्य को भी संभालती हैं। उनके लिए, उनका परिवार ही उनकी सबसे बड़ी ताकत है जिसने हमेशा उनका साथ दिया और वे जो भी कार्य करती हैं उसमें उन्हें उत्साहित करते हैं।

यह कहा जाता है कि कुछ भी बड़ा करने के लिए आपको कम से शुरूआत करनी पड़ती है और वही श्री मती अनीता गोयल ने किया। अपनी पहली नौकरी से उन्होनें 750 रूपये प्रति माह कमाये जिस पर शुरूआत में उनके पति को आपत्ति थी। कम राशि में सभी खर्चों जैसे खाना पकाने की सामग्री, सहूलतें, निजी उपयोग आदि का प्रबंध करना बहुत मुश्किल था। उन्होंने अपने व्यवसाय को शुरू करने के लिए बहुत मुश्किलों का सामना किया। हालांकि उन्होंने अपने जीवन में बहुत कुछ खोया लेकिन वह कभी भी निराश नहीं हुई और हमेशा खुद को उत्साहित रखा। बहुत काम करने के बाद अंत में उन्हें सफलता मिल ही गई और अधिकारिक तौर पर कुकिंग क्लासिज़ शुरू की और आज वे सफलतापूर्वक अपना व्यवसाय चला रही हैं।

उनके लिए खाना बनाना खुशी फैलाने की तरह है और उनके द्वारा बनाए गए खाद्य पदार्थों का स्वास्थ्यवर्धक होना उनके खाना बनाने के गुण को अलग और विशेष बनाता है। वे हर किस्म के बेकरी उत्पाद, आचार, चटनी, 17 किस्म के मसाले, 3 किस्म के इंस्टैंट मसाले और 3 किस्मों के इंस्टैंट पकवान (ठंडाई, फिरनी और खीर) बनाती हैं। वे ब्रैड, मफिनस, पिज्जा बेस, विभिन्न स्वाद के केक, नारियल कैस्टल, कपकेक, बिस्कुट और अन्य बेकरी उत्पाद बनाने के लिए मैदे की जगह गेंहूं के आटे का प्रयोग करती हैं और आचार में वे नमक, चीनी और तेल को छोड़कर किसी संरक्षित पदार्थ का प्रयोग नहीं करती क्योंकि उनके अनुसार नमक, चीनी और तेल आचार के लिए कुदरती संरक्षित पदार्थ हैं। उनके द्वारा बनाया गया हर उत्पाद स्वास्थ्यवर्धक और कुदरती होता है। वे बहुत स्वादिष्ट आचार बनाती हैं और उनके आचार की मांग विदेशों में भी है। वे कहती हैं कि यदि आप कुछ अच्छा देते हो तो आप भीड़ से निकलकर जरूर आगे आओगे।

उन्होंने अपने घर के पीछे एक छोटी बगीची लगाई हुई है जहां पर उन्होंने अपने घर में प्रयोग होने के लिए हल्दी, हरी मिर्च और अन्य मौसमी सब्जियां उगाई है। वे साठ साल की हैं लेकिन अलग अलग इवेंटस, प्रदर्शनियों और व्यवसायों में सक्रिय भागीदारी से ऐसा लगता है कि वे भविष्य में और बहुत कुछ हासिल करेंगी। श्रीमती अनीता गोयल के कुकिंग के प्रति शौंक और जुनून ने उनकी समाज में अपनी पहचान और अच्छा कमाने में बहुत मदद की है। वर्तमान में, वे अपने व्यवसाय को अगले स्तर तक ले जाने की योजना बना रही हैं और एक अधिकारिक दुकान खोलने की योजना बना रही हैं जहां वे सभी उत्पादों को आसानी से बेच सकें।

श्रीमती अनीता गोयल द्वारा दिया गया संदेश
“उनके अनुसार कोई भी काम छोटा या बड़ा नहीं होता, यदि आप वास्तव में परिवर्तन करना चाहते हैं तो आपको दृढ़ संकल्प और इच्छा शक्ति के माध्यम से आगे बढ़ना है। आप में दृढ़ इच्छा शक्ति होनी चाहिए तभी आप जो चाहें प्राप्त कर सकते हैं। एक महिला अपनी शक्ति के साथ ही अपने जीवन में आगे बढ़ सकती है। महिलाओं को समाज में अपनी पहचान बनानी चाहिए। महिला की पहचान उसके गुणों और प्रतिभा से होती है ना कि सिर्फ उसके पति के नाम से। जब आपका परिवार आपके नाम से जाना जाता है यह बहुत गर्व महसूस करवाता है।”

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नरपिंदर सिंह धालीवाल

(मधुमक्खी पालन)

एक इंसान की कहानी जो मधु मक्खी पालन के व्यवसाय की सफलता में मीठा स्वाद हासिल कर रहा है

भारत में मधु मक्खी पालन बहुत पहले से किया जा रहा है और आज़ादी के बाद इसे अलग-अलग ग्रामीण विकास प्रोग्रामों के द्वारा प्रफुल्लित किया जा रहा है, पर जब मधु मक्खी पालन को एक अगले स्तर पर उत्पादों के व्यापार की तरफ ले जाने की बात करें, तो आज भी ज्यादातर लोग इस तरह की जानकारी से रहित हैं। पर कुछ लोग ऐसे भी हैं जिन्होंने इस व्यापार में अच्छी आमदन और सफलता हासिल की है। ऐसे एक किसान नरपिंदर सिंह धालीवाल जो पिछले 20 वर्षों से मधु मक्खी पालन में अच्छा मुनाफा ले रहे हैं।

यह कहा जाता है कि हमारा विकास आसान समय में नहीं, बल्कि उस समय होता है जब हम चुनौतियों का सामना करते हैं। नरपिंदर सिंह धालीवाल भी उन लोगों में से एक हैं, जिन्होंने बहुत सारी असफलताओं का सामना और सख्त मेहनत करके यह कामयाबी हासिल की। आज वे धालीवाल हनी बी फार्म के मालिक हैं। जो कि उनके ही मूल स्थान गांव चूहड़चक जिला मोगा (पंजाब) में स्थापित है और आज उनके पास लगभग मधु मक्खियों के 1000 बक्से हैं। मक्खी पालन शुरू करने से पहले नरपिंदर सिंह जी की हालत एक बेरोज़गार जैसी ही थी और वे 1500 रूपये तनख्वाह पर काम करते थे, जिसमें जरूरतों को पूरा करना मुश्किल था। उनकी पढ़ाई कम होना भी एक समस्या थी। इसलिए उन्होंने अपने पिता का व्यवसाय अपनाने का फैसला किया और मक्खी पालन में मदद करने लगे। उनके पिता रिटायर्ड फौजी थे और उन्होंने 1997 में 5 बक्सों से मक्खी पालन का काम शुरू किया था। सबसे पहले उन्होंने ही मक्खी पालन को व्यापारिक स्तर पर शुरू किया। स. नरपिंदर सिंह जी ने कारोबार स्थापित करने के लिए खुद सब कुछ किया और इसमें बहुत सारी मुश्किलों का सामना भी किया। पैसे और साधनों की कमी के कारण उन्हें बहुत बार असफलताएं झेलनी पड़ी, पर उन्होंने कभी हार नहीं मानी। मक्खी पालन के कारोबार को सही दिशा में ले जाने के लिए उन्होंने बागबानी विभाग, पी ए यू से 5 दिनों की ट्रेनिंग ली। उन्होंने बैंक से कर्ज़ा लिया और कुछ दोस्तों से भी मदद ली और आखिर परिवार और कुछ मजदूरों के पूरे सहयोग से अपने गांव में ही बी फार्म स्थापित कर लिया।

उन्होंने यह कारोबार 5 बक्सों से शुरू किया था और आज उनके पास लगभग 1000 बक्से हैं। वे शहद की अच्छी पैदावार के लिए इन बक्सों को एक जगह से दूसरी जगह भेजते रहते हैं। उनके फार्म में मुख्य तौर पर पश्चिमी मक्खियां हैं, यूरोपियन और इटालियन। वे मक्खियों को किसी भी तरह की बनावटी या अधिक खुराक नहीं देते, बल्कि कुदरती खुराक को पहल देते हैं। इसके इलावा वे कीटों की रोकथाम के लिए भी किसी तरह की कीटनाशक या रासायनिक स्प्रे का प्रयोग नहीं करते और इनकी रोकथाम और बचाव के लिए कुदरती तरीकों का प्रयोग करते हैं, क्योंकि वे सब कुछ कुदरती तरीके से करने में यकीन रखते हैं।

वैरो माईट और हॉरनैट का हमला एक मुख्य समस्या है, जिनका सामना उन्हें हमेशा करता पड़ता है और इनकी रोकथाम के लिए वे कुदरती तरीकों का प्रयोग करते हैं। कुदरती ढंगों को अपनाने के बावजूद भी वे वार्षिक आमदन ले रहे हैं। बहुत लोग मक्खी पालन का व्यवसाय करते हैं, पर उनका ग्राहकों के साथ सीधे तौर पर संपर्क करना और उत्पादों का मंडीकरण खुद करना ही उन्हें मक्खी पालक साबित करता है। वे शहद तैयार करने से लेकर पैक करने और उसकी ब्रांडिंग करने तक का सारा काम 6 मजदूरों की मदद से करते हैं और किसी भी काम के लिए वे किसी पर भी निर्भर नहीं हैं। इस समय वे सरकार से अपने मधु मक्खी फार्म के लिए सब्सिडी भी ले रहे हैं।

शुरू में बहुत लोग उनके काम और शहद की आलोचना करते हैं, पर वेकभी भी निराश नहीं हुए और मक्खी पालन का पेशा जारी रखा। मक्खी पालन के अलावा वे जैविक खेती, डेयरी फार्मिंग, फलों की खेती, मुर्गी पालन और पारंपरिक खेती भी करते हैं, पर इन सब की पैदावार से वे मुख्य तौर पर अपने परिवार की जरूरतों को पूरा करते हैं।

नरपिंदर सिंह जी ने शहद की शुद्धता की जांच करने और अलग अलग रंगो के शहद के बारे में अपने विचार दिये:
उनके अनुसार शहद की क्वालिटी की जांच इसके रंग या तरलता से नहीं की जा सकती, क्योंकि अलग अलग पौधों के अलग अलग फूलों से प्राप्त शहद के गुण अलग अलग होते हैं। सरसों के फूलों से प्राप्त शहद सब से उत्तम किस्म का और गाढ़ा होता है। गाढ़े शहद को फरोज़न शहद भी कहा जाता है, जो मुख्य तौर पर सरसों के फूलों से प्राप्त होता है। यह सेहत के लिए भी बहुत लाभदायक होता है। इसलिए इसकी अंतरराष्ट्रीय मार्किट में भी भारी मांग है। शहद की शुद्धता की सही जांच लैबोटरी में मौजूद माहिरों या खेतीबाड़ी यूनिवर्सिटी द्वारा करवायी जा सकती है। इसलिए यदि किसी इंसान को शहद की क्वालिटी पर कोई शक हो तो वे किसी के कुछ कहे पर यकीन करने की बजाय माहिरों से जांच करवा लें या फिर किसी प्रमाणित व्यक्ति से ही खरीदें।

नरपिंदर सिंह जी स्वंय मक्खी पालन करते हैं और लीची, सरसों और अलग-अलग फूलों से शहद तैयार करते हैं और सरसों से ज्यादातर शहद यूरोप में भेजते हैं। वे पी.ए.यू में प्रोग्रैसिव बी कीपर एसोसीएशन के भी मैंबर हैं। शहद पैदा करने के अलावा, वे शहद और हल्दी से बने कुछ उत्पाद जैसे कि बी पोलन कैप्सूल, हल्दी कैप्सूल और रोयल जैली आदि को मार्किट में लेकर आने की योजना बना रहे हैं। उन्होंने बी पोलन कैप्सूल के लिए पी ए यू से खास तौर पर आधुनिक ट्रेनिंग हासिल की है।

बी पोलन में महत्तवपूर्ण तत्व होते हैं, जो मानव शरीर के लिए जरूरी होते हैं और रोयल जैली भी सेहत के लिए बहुत लाभदायक है। इन दोनों उत्पादों की अंतरराष्ट्रीय मार्किट में भारी मांग है और जल्दी ही इसकी मांग भारत में भी बढ़ेगी। इस समय उनका मुख्य उद्देश्यबी पोलन कैप्सूल और हल्दी कैप्सूल का मंडीकरन करना और लोगों को इनके सेहत संबंधी फायदों और प्रयोग से जागरूक करवाना है।

उन्होंने अपने काम के लिए अलग अलग किसान मेलों में बहुत सारे सम्मान और पुरस्कार हासिल किये। उन्होंने परागपुर में जट्ट एक्सपो अवार्ड जीता। उन्हें 2014 में खेतीबाड़ी विभाग की तरफ से और 2016 में विश्व शहद दिवस पर सम्मानित किया गया।

नरपिंदर सिंह धालीवाल जी द्वारा दिया गया संदेश
आज के समय में यदि किसान खेतीबाड़ी के क्षेत्र में विभिन्नता लाने के लिए तैयार है, तो भविष्य में उसकी सफलता की संभावना बहुत बढ़ जाती है। मैंने अपने फार्म में विभिन्नता लायी और आज उससे मुनाफा ले रहा हूं। मैं किसान भाइयों को यही संदेश देना चाहता हूं कि यदि आप खेतीबाड़ी में सफल होना चाहते हैं तो विभिन्नता लेकर आनी पड़ेगी। मधु मक्खी पालन एक ऐसा व्यवसाय है, जिसे किसान लंबे समय से नज़रअंदाज कर रहे हैं। यह क्षेत्र बहुत लाभदायक है और इंसान इसमें बहुत सफलता हासिल कर सकते हैं। आज कल तो सरकार भी किसानों को मक्खी पालन शुरू करने वाले व्यक्ति को 5-10 बक्सों पर सब्सिडी देती है।

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भगत सिंह

(मुर्गी पालन)

दो भाइयों की मिलकर की गई कोशिश ने उनके पिता के छोटे से पोल्टरी फार्म को लाखों के कारोबार में बदल दिय: जगजीत पोल्टरी ब्रीडिंग फार्म

एक व्यक्ति द्वारा 15000 रूपये से एक कारोबार शुरू हुआ उन्होंने कभी नहीं सोचा था कि भविष्य में उनके बेटे इस कारोबार को लाखों का बना देंगे। ऐसा कहा जाता है कि हर बड़ी चीज़ की छोटे से ही शुरूआत होती है। ये दो बेटों की कहानी है जो शिक्षा के बाद अपने पिता के नक्शे कदम पर चले और कारोबार को अधिक मात्रा में विस्तारित किया।

सरदार भगत सिंह पंजाब के तरनतारन शहर के पट्टी शहर के एक छोटे से किसान थे, उन्होंने 1962 में केवल 400 मुर्गियों के साथ एक पोल्टरी फार्म का कारोबार शुरू किया। उन्होंने यह कारोबार उस समय शुरू किया जब इस कारोबार के बारे में कोई कुछ नहीं जानता था। उन्होंने अपने पोल्टरी फार्म को जगजीत पोल्टरी फार्म का नाम दिया, ‘जग’ उनकी पत्नी का नाम (जगदीश) से लिया गया और ‘जीत’ उनका अपना उपनाम था। भगत सिंह ने पोल्टरी व्यवसाय शुरू किया क्योंकि यह उनका सपना भी था और उनकी ऐसा करने में रूचि भी थी, लेकिन उन्होंने अपने शब्दों और व्यवसायों को कभी अपने बच्चों पर थोपा नहीं। उनके दो बेटे हैं- मनदीप सिंह और रमनदीप सिंह । दोनों को अपनी प्राथमिक और उच्च शिक्षा के लिए स्कूल और कॉलेज भेज दिया गया ताकि वे अपने करयिर में जो करना चाहें, करें। लेकिन दोनों बेटों ने अपने पिता के व्यवसाय में शामिल होने और इसे ओर बढ़ाने का फैसला किया।

दोनों भाइयों, मनदीप सिंह और रमनदीप सिंह ने 2012 में अपने पिता की मौत के तुरंत बाद कारोबार को संभाल लिया और धीरे धीरे समय पर अपने फार्म को 3.5 एकड़ क्षेत्र में बढ़ा दिया। पहले सिर्फ पोल्टरी फार्म था, लेकिन कुछ समय बाद उन्होंने प्रजनन (ब्रीडिंग) का काम भी शुरू किया और उन्होने अपने फार्म को जगजीत पोल्ट्री प्रजनन फार्म का नाम दिया, लेकिन गांव के सभी लोग उस समय से अब तक भगत सिंह के नाम पर ही पोल्टरी फार्म को जानते थे। फार्म के नाम में ज्यादा अंतर नहीं है यह दोनों भाइयों का प्रयास है जिन्होंने पूरे पोल्टरी व्यवसाय का नक्शा ही बदल दिया।

उनके पास प्रजनन के लिए 1.5 एकड़ ज़मीन और व्यापारिक उद्देश्य के लिए 2 एकड़ ज़मीन है। आज उनके प्रजनन फार्म में 12000 मुर्गे और व्यापारिक फार्म में 18-20,000 मुर्गियां हैं।

अपने फार्म के कामकाज को आसान और स्वचालित बनाने के लिए धीरे-धीरे उन्होंने 8 मशीनों को स्थापित किया और प्रत्येक मशीन की लागत लगभग 3 लाख थी। उन्होंने लगभग 25 मज़दूरों को अपने फार्म और मशीनों का प्रबंधन करने के लिए काम पर लगाया। मनदीप सिंह और रमनदीप, विशेष रूप से पोल्टरी फार्म की सफाई का ध्यान रखते हैं। यहां तक कि मनदीप सिंह के बेटे डॉ. जसदीप सिंह भी पोल्टरी फार्म कारोबार से जुड़े हैं। पशु चिकित्सक के रूप में, जसदीप सिंह चिकन के स्वास्थ्य की व्यक्तिगत देखभाल करते हैं, वे ये सुनिश्चित करते हैं कि मुर्गी उत्पादों की अच्छी गुणवत्ता बनाए रखने के लिए हर चिकन स्वस्थ और बीमारी रहित हो। वे आवश्यकतानुसार टीकाकरण देते हैं और बीमार या बीमारी के लक्षण वाले चिकन को अलग करते हैं।

7 साल पहले दो भाइयों द्वारा किए गए संयुक्त प्रयास ने छोटे पोल्टरी खेत के व्यवसाय मुल्य को लाखों में बदल दिया। आज वे अपने पोल्टरी उत्पादों को पंजाब और उत्तर प्रदेश के आस पास सप्लाई करते हैं। जो लोग अपना स्वंय का पोल्टरी फार्म खोलना चाहते हैं वे उन लोगों को ट्रेनिंग और निर्देशित भी करते हैं और डॉ. जसदीप सिंह मुर्गियों के खाद्य और टीकाकरण के बारे में बताकर लोगों की मदद भी करते हैं ताकि वे मुर्गी उत्पादों की गुणवत्ता को बनाए रख सकें। भविष्य में दोनों भाई पुत्र अपने कारोबार में वृद्धि करने और अपने पोल्टरी फार्म उत्पादों को आगे के क्षेत्रों में उपलब्ध करवाने की योजना बना रहे हैं।

भगत सिंह व् उनके पुत्रों द्वारा दिया गया संदेश
आजकल किसान आत्महत्या कर रहे हैं, उन्हें ऐसा नहीं करना चाहिए। उन्हें यह सोचना चाहिए कि उनके बाद उनके परिवार का क्या होगा, उनका परिवार उन पर निर्भर है और यह अपनी जिम्मेदारियों से छुटकारा पाने का कोई तरीका नहीं है। किसानों को यह सोचना चाहिए कि कैसे वे अपने कौशल का उपयोग करें और अपने कामों की प्रक्रिया कैसे करें ताकि वो आने वाले समय में मुनाफा दे सकें। अब, किसानों को बुद्धिमानी से खेती शुरू करनी चाहिए और अपनी फसलों का सही मूल्य प्राप्त करने के लिए उत्पादों को स्वंय बेचना चाहिए।”

 

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अमरजीत सिंह

(जैविक खेती और मंडीकरण)

किसान जंकश्न- एक व्यक्ति जिसने अपनी जॉब को छोड़ दिया और खेती विभिन्नता के माध्यम से खेतीप्रेन्योर बन गए

आज कल हर किसी का एक सम्माननीय नौकरी के द्वारा अच्छे पेशे का सपना है और हो भी क्यों ना। हमें हमेशा यह बताया गया है कि सेवा क्षेत्र में एक अच्छी नौकरी करके ही जीवन में खुशी और संतुष्टि प्राप्त की जाती है। बहुत कम लोग हैं जो खुद को मिट्टी में रखना चाहते हैं और इससे आजीविका कमाना चाहते हैं। ऐसे एक इंसान हैं जिन्होंने अपनी नौकरी को छोड़कर मिट्टी को चुना और सफलतापूर्वक कुदरती खेती कर रहे हैं।

श्री अमरजीत सिंह एक खेतीप्रेन्योर हैं, जो सक्रिय रूप से जैविक खेती और डेयरी फार्मिंग के काम में शामिल हैं और एक रेस्टोरेंट भी चला रहे हैं। जिसका नाम किसान जंकश्न है, जो घड़ुंआ में स्थित है। उन्होंने 2007 में खेती करनी शुरू की। उस समय उनके दिमाग में कोई ठोस योजना नहीं थी, बस उनके पास अपने जीवन में कुछ करने का विश्वास था।

खेती करने से पहले अमरजीत सिंह ट्रेनिंग के लिए पी.ए.यू. गए और विभिन्न राज्यों का भी दौरा किया जहां पर उन्होंने किसानों को बिना रासायनों का प्रयोग किए खेती करते देखा। वे हल्दी की खेती और प्रोसैसिंग की ट्रेनिंग के लिए कालीकट और केरला भी गए।

अपने राज्य के दौरे और प्रशिक्षण से उन्हें पता चला कि खाद्य पदार्थों में बहुत मिलावट होती है जो कि हम रोज़ उपभोग करते हैं और इसके बाद उन्होंने कुदरती तरीके से खेती करने का निर्णय लिया ताकि वह बिना किसी रसायनों के खाद्य पदार्थों का उत्पादन कर सकें। पिछले दो वर्षों से वे अपने खेत में खाद और कीटनाशी का प्रयोग किए बिना जैविक खाद का प्रयोग करके कुदरती खेती कर रहे हैं। खेती के प्रति उनका इतना जुनून है कि उनके पास केवल 1.5 एकड़ ज़मीन हैं और उसी में ही वेगन्ना, गेहूं, धान, हल्दी, आम, तरबूज, मसाले, हर्बल पौधे और अन्य मौसमी सब्जियां उगा रहे हैं।

पी.ए.यू. में डॉ. रमनदीप सिंह का एक खास व्यक्तित्व है जिनसे अमरजीत सिंह प्रेरित हुए और अपने जीवन को एक नया मोड़ देने का फैसला किया। डॉ. रमनदीप सिंह ने उन्हें ऑन फार्म मार्किट का विचार दिया जो कि किसान जंकश्न पर आधारित था। आज अमरजीत सिंह किसान जंकश्न चला रहे हैं जो कि उनके फार्म के साथ चंडीगढ़-लुधियाना राजमार्ग पर स्थित है। किसान जंकश्न का मुख्य मकसद किसानों को उनके प्रोसेस किए गए उत्पादों को उसके माध्यम से बाज़ार तक पहुंचाने में मदद करना है। उन्होंने 2007 में इसे शुरू किया और खुद के ऑन फार्म मार्किट की स्थापना के लिए उन्हें 9 वर्ष लग गए। पिछले साल ही उन्होंने उसी जगह पर किसान जंकश्न फार्म से फॉर्क तक नाम का रेस्टोरेंट खोला है।

अमरजीत सिंह सिर्फ 10वीं पास है और आज 45 वर्ष की उम्र में आकर उन्हें पता चला है कि उन्हें क्या करना है। इसलिए उनके जैसे अन्य किसानों के मार्गदर्शन के लिए उन्होंने घड़ुआं में श्री धन्ना भगत किसान क्लब नामक ग्रुप बनाया है। वे इस ग्रुप के अध्यक्ष भी हैं और खेती के अलावा वे ग्रुप मीटिंग के लिए हमेशा समय निकालते हैं। उनके ग्रुप में कुल 18 सदस्य हैं और उनके ग्रुप का मुख्य कार्य बीजों के बारे में चर्चा करना है कि किस्म का बीज खरीदना चाहिए और प्रयोग करना चाहिए, आधुनिक तरीके से खेती को कैसे करें आदि। उन्होंने ग्रुप के नाम पर गेहूं की बिजाई, कटाई के लिए और अन्य प्रकार की मशीनें खरीदी हैं। इनका प्रयोग सभी ग्रुप के मैंबर कर सकते हैं और अपने गांव के अन्य किसानों को कम और उचित कीमतों पर उधार भी दे सकते हैं।

अमरजीत सिंह का दूसरा सबसे महत्तवपूर्ण पेशा डेयरी फार्मिंग का है उनके पास कुल 8 भैंसे हैं और जो उनसे दूध प्राप्त होता है वे उनसे दूध, पनीर, खोया, मक्खन, लस्सी आदि बनाते हैं। वे सभी डेयरी उत्पादों को अपने ऑन फॉर्म मार्किट किसान जंकश्न में बेचते हैं। उनमें से एक प्रसिद्ध व्यंजन है जो उनमें रेस्टोरेंट में बिकती है वह है खोया-बर्फी जो कि खोया और गुड़ का प्रयोग करके बनाई होती है।

उनके रेस्टोरेंट में ताजा और पौष्टिक भोजन, खुला हवादार, उचित कूलिंग सिस्टम और ऑन रोड फार्म मार्किट है जो ग्राहकों को आकर्षित करती हैं। उन्होंने ग्रीन नेट और ईंटों का प्रयोग करके रेस्टोरेंट की दीवारें बनाई हैं जो रेस्टोरेंट के अंदर हवा का उचित वेंटिलेशन सुनिश्चित करते हैं।

वर्तमान प्रवृत्ति और कृषि प्रथाओं पर चर्चा करने के बाद उन्होंने हमें अपने विचारों के बारे में बताया-

लोगों की बहुत गलत मानसिकता है, उन्हें लगता है कि खेती में कोई लाभ नहीं है और उन्हें अपनी आजीविका के लिए खेती नहीं करनी चाहिए। पर यह सच नहीं है। बच्चों के मन में खेती के प्रति गलत सोच और गलत विचारों को भरा जाता है कि केवल अशिक्षित और अनपढ़ लोग ही खेती करते हैं और इस वजह से युवा पीढ़ी, खेती को एक जर्जर और अपमानपूर्ण पेशे के रूप में देखती है।आज कल बच्चे 10000 रूपये की नौकरी के पीछे दौड़ते हैं और यह चीज़ उन्हें उनकी ज़िंदगी में निराश कर देती है। अपने बच्चों के दिमाग में खेती के प्रति गलत विचार भरने से अच्छा है कि उन्हें खेती के उपयोग और खेती करने से होने वाले लाभों के बारे में बताया जाये। खेतीबाड़ी एक विभिन्नतापूर्ण क्षेत्र है और यदि एक बच्चा खेतीबाड़ी को चुनता है तो वह अपने भविष्य में चमत्कार कर सकता है।”

अमरजीत सिंह जी ने अपने नौकरी छोड़ने और खेती शुरू करने का जोखिम उठाया और खेतीबाड़ी में अपनी कड़ी मेहनत और जुनून की कारण उन्होंने इस जोखिम का अच्छे से भुगतान किया है। किसान जंकश्न हब के पीछे अमरजीत सिंह के मुख्य उद्देश्य हैं।

• किसानों को अपनी दुकान के माध्यम से अपने उत्पाद बेचने में मदद करना।

• ताजा और रसायन मुक्त सब्जियां और फल उगाना।

• ग्राहकों को ताजा, वास्तविक और कुदरती खाद्य उत्पाद उपलब्ध करवाना।

• रेस्टोरेंट में ताजा उपज का उपयोग करना और ग्राहकों को स्वस्थ और ताजा भोजन प्रदान करना।

• किसानों को प्रोसैस, ब्रांडिंग और स्वंय उत्पादन करने के लिए गाइड करना।

खैर, यह अंत नहीं है, वे आई ए एस की परीक्षा के लिए संस्थागत ट्रेनिंग भी देते हैं और निर्देशक भी उनके फार्म का दौरा करते हैं। अपने ऑन रोड फार्म मार्किट व्यापार को बढ़ाना और अन्य किसानों को खेतीबाड़ी के बारे में बताना कि कैसे वे खेती से लाभ और मुनाफा कमा सकते हैं, उनके भविष्य की योजनाएं हैं। खेतीबाड़ी के क्षेत्र में सहायता के लिए आने वाले हर किसान का वे हमेशा स्वागत करते हैं।

अमरजीत सिंह द्वारा संदेश
कृषि क्षेत्र प्रमुख कठिनाइयों से गुजर रहा है और किसान हमेशा अपने अधिकारों के बारे में बात करते हैं ना कि अपनी जिम्मेदारियों के बारे में। सरकार हर बार किसानों की मदद के लिए आगे नहीं आयेगी। किसान को आगे आना चाहिए और अपनी मदद स्वंय करनी चाहिए। पी ए यू में 6 महीने की ट्रेनिंग दी जाती है जिसमें खेत की तैयारी से लेकर बिजाई और उत्पाद की मार्किटिंग के बारे में बताया जाता है। इसलिए किसान यदि खेतीबाड़ी से अच्छी आजीविका प्राप्त करना चाहते हैं तो उन्हें अपने कंधों पर जिम्मेदारी लेनी होगी।

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अमरजीत सिंह भट्ठल

(जैविक खेती)

जानें एक रिटायर्ड फौजी के बारे में, जो एग्रीप्रेन्योर बन गए और एग्री बिज़नेस के क्षेत्र में क्रांति ला रहे हैं

आज कल बहुत कम लोग अपने भविष्य में खेतीबाड़ी के क्षेत्र में जाने के बारे में सोचते हैं। जिस दौर में हम रह रहे हैं, इसमें ज्यादातर लोग बड़े शहरों का हिस्सा बनना चाहते हैं और सेवा मुक्ति के बाद की ज़िंदगी को लोग आमतौर पर आसान और आरामदायक तरीके से जीना चाहते हैं, जिसमें उनके पास कोई काम ना होना, घर में खाली बैठना, अखबार पढ़ना, बच्चों के साथ समय बिताना और थोड़ी बहुत कसरत करना आदि शामिल हो। बहुत कम लोग होते हैं, जो कुदरत की चिंता करते हैं और अपनी जिम्मेदारियां निभाते हैं और अपने जीवन में उन्होंने मिट्टी से जो कुछ हासिल किया, उसे वापिस देने की कोशिश करते हैं।

स. अमरजीत सिंह भट्ठल एक रिटायर्ड फौजी हैं, जो कुदरत के प्रति अपनी जिम्मेदारी निभा रहे हैं और इस जिम्मेदारी को उन्होंने अपना शौंक और आराम का तरीका बना लिया। वे आराम वाली ज़िंदगी को छोड़कर लुधियाना में स्थित अपने गांव में अपने पिता और पत्नी सहित रह रहे हैं और जट्ट सौदा के नाम से एक दुकान चला रहे हैं।

सड़क के साथ लगती और भी दुकानें और रिटेल स्टोर हैं, पर जट्ट सौदे में खास क्या है दुकान के पीछे स्वंय के खेत में उगाई जैविक सब्जियां, दालें, फल और मसाले आदि जट्ट सौदे को दूसरों से अलग और विलक्षण बनाते हैं। वास्तव में उनकी ऑन रोड फार्म मार्किट है, जहां पर आप सब कुछ ताजा और जैविक खरीद सकते हैं। इसके अलावा उनके पास एक छोटा पॉल्टरी फार्म भी है, जहां उनके पास लगभग 100 देसी मुर्गियां हैं। मुर्गियों की गिनती कम ज्यादा होती रहती है, पर देसी अंडों की मांग कभी भी नहीं घटती और स्टोर में पहुंचने के साथ-साथ ही सारे अंडे बिक जाते हैं।

उन्होंने विरासत मिशन से ट्रेनिंग लेने के बाद दिसंबर 2012 में जैविक खेती शुरू की। उस दिन से लेकर आज तक वे खेती का काम पूरी लगन से कर रहे हैं। वे सुबह से शाम तक का समय अपने फार्म स्टोर पर ही व्यतीत करते हैं, जहां उनके पिता भी उनका साथ देते हैं। ये पिता-पुत्र अपनी ज़मीन के छोटे से हिस्से को अपने पुत्र की तरह पालते हैं।

उन्होंने अपनी दुकान की दिखावट ग्रामीण तरीके से तैयार की है, जिसके एक ओर आप ताज़ी मौसमी सब्जियां डिस्पले पर लगी देख सकते हैं और छत से नीचे लटकती लहसुन की गांठे देख सकते हैं। दुकान के बीच में से एक रास्ता पीछे बने फार्म की तरफ जाता है, जहां आपको भिंडी, टमाटर, करेले, अरहर अलग अलग तरह के लैट्टस (सलाद पत्ता) की किस्में और अन्य बहुत तरह की सब्जियां मिलती हैं। उनके अनुसार फार्म देखने के लिए सबसे उचित समय जल्दी सुबह से शाम तक का होता है क्योंकि उस समय आप बहुत अच्छे कुदरत के रंगों को फार्म की खूबसूरती से मिलते देख सकते हैं। फार्म के एक कोने पर पोल्टरी फार्म बना है जहां आप किल्ली से बंधा कुत्ता देख सकते हैं। सब कुछ मिलाकर यह फार्म एक संपूर्ण फार्म का दीदार करवाता है। उनके पास खेती के कामों के लिए 2-3 मजदूर हैं।

अमरजीत सिंह जी ने पंजाब यूनिवर्सिटी, चंडीगढ़ से एम एस सी की डिग्री पूरी की और देश की सेवा करना उनके द्वारा चुना गया पेशा था। खेती से पहले, स. अमरजीत सिंह एक इमीग्रेशन कंपनी में सलाहकार के तौर पर भी काम करते थे, जहां वे बच्चों के साथ बात करके भविष्य की ज़िंदगी के लक्ष्यों और उद्देश्यों के बारे में चर्चा करते थे और उन्हें सलाह देते थे। इसके अलावा वे पंजाब के मुख्य मंत्री अमरिंदर सिंह जी के भी प्रसिद्ध सलाहकार रहे हैं। अपनी ज़िंदगी में इतने मशहूर पद हासिल करने के बाद भी आज वे किसी भी चीज़ का घमंड नहीं करते। वे सादा जीवन व्यतीत करने में यकीन रखते हैं और कुदरत की इज्ज़त भी करते हैं। वे जैविक खेती के द्वारा कुदरत को बचाने और समाज को तंदरूस्त भोजन देने की कोशिश कर रहे हैं। अमरजीत सिंह जी का एक छिपा हुआ गुण भी है। उनके कॉलेज के समय से ही वे साहित्य में रूचि रखते थे और उन्हें लियो टॉलस्टॉये को पढ़ने का बहुत शौंक था। वे बहुत बढ़िया लेखक भी हैं और अब भी जब खेती के कामों से समय मिलता है तो अपने विचारों और सोच को शब्दों में लिखते हैं।

उनसे बातचीत करने के बाद उन्होंने ग्राहकों की मांग बारे में चर्चा की और उनके अनुसार आज कल ग्राहकों की मांग स्वास्थ्य के हित में नहीं है। आधुनिक तकनीकों और नए तरीकों से खाना बचाकर आज आप गर्मियों में मटर और गाजर और सर्दियों में लौकी खा सकते हैं। जैसे कि हम सब जानते हैं कि सब्जियां मानवी पाचन क्रिया में मुख्य हिस्सा है और प्रत्येक मौसम हमें बहुत सारी ताजी उपज प्रदान करता है। इसलिए यदि आप अपने भोजन में अन्य जैविक, मौसमी फल और सब्जियों को शामिल करते हैं, तो यह और भी ज्यादा लाभदायक होगा, क्योंकि खुराक में मौसमी फल शामिल करने से आप अधिक तत्वों वाली सब्जियां, जो कि बिना किसी रसायनों से होती हैं, उनका अच्छा स्वाद ले सकते हैं। यह भोजन आपके शरीर के लिए भी मौसम के अनुसार सहायक होगा। उन्होंने यह भी कहा कि जिस दिन ग्राहकों को जैविक भोजन के फायदों के बारे में पता लगेगा, उस दिन से जैविक सब्जियों और फलों की मांग अपने आप बढ़ जायेगी और जागरूकता बढ़ाने के लिए किसानों और ग्राहकों में संपर्क होना बहुत जरूरी है।

वे स्वंय लोगों को जैविक खेती के बारे में जागरूक करने की कोशिश करते हैं और उन्होंने स्कूल के बच्चों को जैविक खेती और भोजन की महत्वत्ता पर प्रैज़ैनटेशन भी दी। इस समय वे जैविक खेती को जारी रखने और अन्य लोगों को जैविक खेती के फायदों से जागरूक करवाने की योजना बना रहे हैं।

भविष्य में उनकी योजनाएं इस प्रकार हैं:

• अपनी ऑन रोड मार्किट के ढांचे को अपग्रेड करना

• 2000 गज में नैट हाउस बनाना

• अपने फार्म में फसलों को संरक्षित वातावरण प्रदान करना

• सिंचाई का हाइब्रिड सिस्टम लगाना

• पानी की स्टोरेज बढ़ाना

अमरजीत सिंह भट्ठल जी के द्वारा दिया गया संदेश
“उन्होंने आज के किसानों को बड़ी समझदारी वाला संदेश दिया कि आप उत्पाद का मुल्य नियंत्रण नहीं कर सकते, क्योंकि वह सरकार पर निर्भर करता है, आपको वह करना चाहिए, जो आप कर सकते हैं। किसानों को लागत मुल्य पर नियंत्रण करना चाहिए और जैविक खेती करनी चाहिए, क्योंकि इससे ज्यादा खर्चा नहीं आता। एक समय आयेगा, जब लोगों को अहसास होगा कि पारंपरिक खेती उनकी मांगों को पूरा नहीं कर रही है। इसलिए अच्छा होगा, यदि हम समय की जरूरत को समझ लें और इसके अनुसार ही काम करें।”

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अमनदीप कौर

(उत्पाद प्रोसेसिंग)

एक ऐसी लड़की की कहानी, जो उभरते हुए कौशल के साथ अपने पैरों पर खड़ा होने और रसोई कला से समाज में अपनी पहचान बनाने की कोशिश कर रही है

यह कहा जाता है कि जो लोग अपने जीवन में कुछ हासिल करना चाहते हैं, उनके लिए केवल एक छोटी सी प्रेरणा ही पर्याप्त होती है। भगवान ने हर किसी को उपहार के साथ भेजा है, उनमें से कुछ ही उस अपनी प्रतिभा को पहचान पाते हैं और अधिकांश लोग विश्वास की कमी के कारण ऐसा करने की हिम्मत नहीं करते। लेकिन मोगा की एक लड़की ने अपनी प्रतिभा को पहचाना और आत्मनिर्भर होने के लिए अपने पैरों पर खड़े होने की हिम्मत की।

अमनदीप कौर (25 वर्षीय) एक उभरती उद्यमी है जो समाज में अपनी पहचान बनाने की कोशिश कर रही है जैसे कि हम सब जानते हैं कि हर नेता के पीछे एक संघर्ष का अनुभव होता है जो उसे उस स्थान तक पहुंचाने के लिए उत्साहित करता है, उसी तरह अमनदीप के साथ भी है। वह अन्य लड़कियों के समान एक युवा और उत्साही लड़की है लेकिन उसका दृढ़ संकल्प है, जो उसे दूसरों से अलग करता है। वर्तमान में वह अपने भाई और मां के साथ रह रही है, उसके पिता का बहुत समय पहले निधन हो गया था और आर्थिक तंगी के कारण उसने 10 वीं के बाद पढ़ाई छोड़ दी, लेकिन जैसा कि हम सबने सुना है कि, जो लोग कुछ बड़ा करना चाहते हैं और भीड़ से बाहर खड़े होते हैं, उन्हें किसी प्रकार की कठिनाइयों से रोका नहीं जा सकता।

आज अमनदीप 7 लड़कियों के (स्वाति महिला सहकारी संस्था) ग्रुप का नेतृत्व कर रही है और इस ब्रांड नाम के तहत वह सफलता के कुछ कदम उठा रही है। इस समूह गठन के पीछे महिला लोक हितैषी श्री मती सुंदरा का हाथ है। श्रीमती सुंदरा ने एक छोटी सी प्रेरणा अमनदीप को दी जो उसके लिए लड़कियों को इक्ट्ठा करने और अपने घर से तैयार चटनी और आचार का व्यवसाय शुरू करने के लिए काफी थी।

अमनदीप कौर ने बताया कि श्री मती सुंदरा ने 2003 में उनके गांव का दौरा किया, उन्हें इक्ट्ठा कर जागरूक किया कि उनके पास क्या क्षमताएं है और वे बेकार रहने की बजाय अपने कौशल को कैसे उपयोगी बना सकते हैं। वह अमनदीप और अन्य लड़कियों को आचार, चटनी और कई अन्य खाद्य उत्पादों, जैसे घर के उत्पादों को बनाने की ट्रेनिंग में दाखिला लेने में भी मदद करती है और उन्हें आगे अध्ययन करने के लिए प्रेरित करती हैं।

अमनदीप ना केवल कमाने और अपने परिवार को समर्थन देने के लिए काम कर रही है बल्कि समाज में अपनी पहचान बनाने के लिए भी काम कर रही है। वह अपने काम के प्रति काफी भावुक है और उसने घर से बने उत्पादों में शिक्षा लेने की योजना बनाई है ताकि वह विभिन्न खाद्य उत्पादों को बाज़ार में बिक्री के लिए ला सके। अन्य लड़कियों के नाम परमिंदर, बलजीत, रणजीत, गुरप्रीत, चन्नी, मंजीत, पवनदीप। ये लड़कियां शुरूआती 20 वें वर्ष या उससे कम उम्र की हैं लेकिन कुछ परिस्थितयों के कारण उन्हें अपनी शिक्षा बीच में ही छोड़नी पड़ी। उनके अध्ययन को जारी रखने, नई चीज़ों का पता लगाने, अपनी आजीविका अर्जित करने और आत्मनिर्भर होने के लिए उनमें उत्साह अभी भी है। सभी लड़कियां अपने काम के प्रति बहुत उत्साहित हैं और वे व्यवसाय के साथ अपने अध्ययन को जारी रखने में रूचि रखती हैं।

अमनदीप और उसके ग्रुप के बाकी सदस्य काफी मेहनती हैं और जानते हैं कि अपने काम का कुशलता से कैसे प्रबंध करना है। वे आचार, चटनी और इत्र बनाने के लिए स्वंय बाज़ार (सब्जी मंडी) से कच्चा माल खरीदते हैं। वे 10 प्रकार के आचार, 2 प्रकार की चटनी, और 3 प्रकार का इत्र और कैंडिज़ भी बनाते हैं। सब कुछ उनके द्वारा हाथों से बनाया गया है और बिना किसी रसायन के शुद्ध रूप से प्राकृतिक हैं। उनके द्वारा बनाए गए उत्पादों में आचार, चटनी और कैंडिज़ बहुत स्वादिष्ट होते हैं और वास्तविक स्वाद वाले हैं और आपको अपनी दादी के हाथ का स्वाद याद दिलायेंगे।

आम की चटनी, लच्छा निंबू का आचार, अदरक का आचार और लहसुन का आचार सबसे अधिक बिकने वाले उत्पाद हैं। वे कई प्रदर्शनियों और इवेंट्स में जाते हैं ताकि वे अपने हाथों से बने प्राकृतिक उत्पादों को बेच सकें और इसके अलावा वे अपने उत्पाद को बेचने के लिए व्यक्तिगत रूप से विभिन्न समाजों और विभिन्न जिलों के समितियों का दौरा करते हैं। अब तक वे फतेहगढ़, फिरोज़पुर, लुधियाना और मोगा में गए हैं और आने वाले समय में अधिक से अधिक शहरों में जायेंगे। आमतौर पर वे एक दिन में लगभग 100 डिब्बे बनाते हैं।

वर्तमान में इस ग्रुप की कुल आय केवल 20000 रूपये प्रति महीना है और उनके लिए इस तरह की कम आमदन में प्रबंधन करना बहुत मुश्किल है। इसका कारण यह है कि उनके उत्पाद को बेचने के लिए उनके पास उचित प्लेटफॉर्म नहीं है और बहुत कम लोग स्वाति महिला सहकारी समिति के बारे में जानते हैं। उनके अनुसार यह सिर्फ शुरूआत है और इस प्रकार की कठिनाइयां कभी भी उन्हें निराश नहीं कर सकती और जो काम वे कर रही हैं वो करने से उन्हें नहीं रोक सकती।


अमनदीप कौर द्वारा संदेश
हर लड़की को अपना कौशल पहचानना चाहिए और उन्हें अपने दम पर आत्मनिर्भर होने के लिए बुद्धिमानी से इसका उपयोग करना चाहिए। आज, महिलाओं को दूसरों पर निर्भर नहीं होना चाहिए। उन्हें आत्म निर्धारित और स्व- नियंत्रण होना चाहिए क्योंकि यह अच्छा लगता है जब आप में अपनी इच्छाओं को पूरा करने की शक्ति होती है। रास्ता दिखाने में शिक्षा बहुत आवश्यक है। काम और आत्मनिर्भरता आपको महसूस करवाते हैं कि आप क्या हैं। इसलिए हर लड़की को अपनी शिक्षा पूरी करनी चाहिए और रूचि के अनुसार उन्हें अपना रास्ता चुनना चाहिए जो उन्हें अच्छा जीवन जीने में मदद करता है।

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मनिंदरजीत कौर

(ट्रेनिंग)

कैसे एक महिला की प्रतिभा ने उसे एक सफल उद्यमी एवं सफल उद्योगपति बना दिया

यह कहा जाता है कि यदि आप में कुछ करने का जुनून हो तो वह ज़रूर संभव होता है। ऐसी एक महिला है जिन्होंने अपने जुनून का पीछा किया और आज वे सफलतापूर्वक अपना व्यवसाय चला रही हैं।

मनिंदरजीत कौर- एक साधारण महिला है जो कि अपने बचपन में कलात्मक हैंडवर्क को देखकर प्रभावित होती थी और बाद में किशोरावस्था में सिलाई, कढ़ाई उनके शौंक बन गए। रचनात्मकता के लिए उनका जुनून और शौंक इतना बढ़ गया, उन्हें लगा कि अपने इस शौंक को पेशेवर ढंग से सीखना चाहिए। अंतत: उन्होंने 10वीं कक्षा के बाद सिलाई में डिप्लोमा किया।

शादी के बाद आमतौर पर महिलायें अपने जीवनसाथी के साथ समय बिताने, पारिवारिक जिम्मेदारियों को संभालने और अपने बच्चों के साथ समय बिताने के बारे में सोचती हैं, लेकिन मनिंदरजीत कौर ऐसी नहीं थी। ऐसा नहीं है कि उन्होंने अपनी जिम्मेदारियों को पूरा नहीं किया अपितु उसके साथ अपने शौंक को भी समान महत्तव दिया। वर्तमान में वे जीरकपुर में अपने परिवार के साथ खुशी से रह रही हैं और अपने व्यवसाय को चला रही हैं।

बीस साल पहले मनिंदरजीत कौर ने मनिंदर सिलाई केंद्र की शुरूआत की और बाद में अपने व्यवसाय को कोहिनूर नामक लेबल दिया जो आज कल बहुत ही व्यवसाय कम वर्क शॉप के नाम से जाना जाता है और कुछ बड़ा करने के लिए छोटे से ही शुरूआत करनी पड़ती है। मनिंदरजीत कौर ने अपने घर में कुछ लड़कियों को सिलाई और कढ़ाई सिखाना शुरू किया। जल्द ही उन्हें अपने इलाके में प्रसिद्धि मिली और कई महिलाएं और लड़कियां उनके पास सिलाई, कढ़ाई सीखने आने लगी। आखिरकार उनकी डिग्री प्रयोग में आई। उन्होंने एक जगह किराये पर ली जहां पर सिलाई क्लासिज़ शुरू की। वे अपने छात्रों को डिज़ाइनर सूट, चादरें, तकिया कवर, रसोई के कपड़े बैग, ग्रोसरी शॉपिंग बैग, मैट्स और कई अन्य चीजें सिखाते हैं। आज उनके पास कुल 60 लड़कियां है, उनमें से कुछ शिक्षक हैं और बाकी छात्र अभी सीख रहे हैं।

उनके सिलाई केंद्र में 15 सिलाई मशीन हैं। वे 10 विषयों को सिखाती हैं- जैसे सिलाई, फैशन सिलाई, रजाई बनाना, बेड शीट बनाना, पेंटिंग, कढ़ाई (मशीन/हस्तनिर्मित दोनों), खाना पकाना और विभिन्न प्रकार के बैगों की सिलाई सिखाती हैं। उनका सिलाई केंद्र और क्लासिज़ इतनी लोकप्रिय हैं कि जो महिलायें शिक्षित, डॉक्टर, इंजीनियर और नर्स हैं वे भी अपने व्यस्त कामों से समय निकालकर उनसे सीखने आती हैं। आमतौर पर वे सिलाई विषय के लिए 500 रूपये और पेंटिंग विषय के लिए 1000 रूपये लेती हैं लेकिन कई बार वे लड़कियों और महिलायें जिनकी आर्थिक स्थिति अच्छी नहीं होती और कोर्स की फीस देने के लिए उनके पर्याप्त धन नहीं होता, उनसे फीस नहीं लेती। इसके अलावा वे अपनी ओर से सिलाई की सामग्री प्रदान करती हैं ताकि वे इस विषय को सीख सकें और स्वंय के लिए कमा सकें।

शुरूआत में जब उन्होंने अपना व्यवसाय शुरू किया तब उनके काम की गुणवत्ता ने अच्छे ग्राहकों को अपनी तरफ आकर्षित किया। चंडीगढ़ में एक दुकान है VIVCO जिससे उन्होंने भागीदारी की। वे VIVCO से थोक में कपड़े खरीदती थी, उन्हें धो लेती थी, बैड शीट, तकिये के कवर, बैग, सूट जैसे चीज़ें वे अपनी वर्कशॉप में बनाती थी और उन सभी उत्पादों को VIVCO में भेजती थी ताकि वे इसे बाज़ार में आगे बेच सकें। इस पूरी प्रक्रिया से उन्हें अपने व्यवसाय में बहुत अच्छा लाभ होता था लेकिन लगभग 3 साल पहले 2014 में VIVCO ने व्यवसाय बंद कर दिया, जिससे मनिंदरजीत कौर का व्यवसाय गंभीर रूप से प्रभावित हुआ, तब से वे अपने कारोबार को सुचारू रूप से चलाने में बाधाओं का सामना कर रही हैं क्योंकि उनके पास अपनी वर्कशॉप में बनाए गए उत्पादों को बेचने के लिए उचित मंच नहीं है। इन सभी बाधाओं के बावजूद उन्होंने कभी खुद को निरउत्साहित नहीं किया और आज जब भी उन्हें कोई मौका मिलता है वे सक्रिय रूप में उसमें भाग लेती हैं और अपना 100 प्रतिशत देती हैं।

इस समय उनकी उम्र 65 वर्ष है लेकिन फिर भी उनके अंदर का जुनून अभी तक कम नहीं हुआ है। वह अभी भी पूरे जोश और उत्साह से अपने छात्रों को सिखाती हैं। उनके अनुसार वे अभी भी आगे बढ़ रही हैं और सीख रही हैं जो उन्हें व्यवसाय में ओर अधिक उत्पाद जोड़ने में मदद करता है। वे अपने ब्रांड को लोकप्रिय बनाने और अधिक ग्राहकों को जोड़ने के लिए हर प्रकार की प्रदर्शनी और इवेंट में जाती हैं।

मनिंदरजीत कौर किशोरावस्था से ही सिलाई और कढ़ाई कर रही हैं लेकिन उन्होंने कभी नहीं सोचा था कि यह उनके लिए किसी दिन पूर्ण व्यापार में बदल जाएगा। वे सफलता के लिए अपने तरीके से काम कर रही हैं और उन्होंने जो भी अपनी पहचान कमाई है इसका कारण उनका अपने काम के प्रति रूचि को जारी रखना है। अब वे सिर्फ अपनी आमदनी को सुधारने में ध्यान दे रही हैं ताकि ज्यादा से ज्यादा लाभ कमा सके और अपने व्यवसाय को अधिक ऊंचाइयों तक लेकर जा सके।

मनिंदरजीत कौर द्वारा दिया गया संदेश
एक महिला को अन्य कारणों से अपने गुणों और रूचि को दबाना नहीं चाहिए क्योंकि इन गुणों और रूचि के कारण ही उन्हें मुश्किल समय में आजीविका प्राप्त करने में मदद मिलती है। इसके अलावा अगर आप कोई अतिरिक्त गुण सीखते हैं तो उसकी कोई हानि नहीं होती बल्कि भविष्य में कभी ना कभी वो गुण हमारे लिए काम आ ही जाता है और कभी भी आपको कोई अवसर मिले तो उसे गवाना नहीं चाहिए, बल्कि हमेशा उसका लाभ उठाना चाहिए।”

 

 

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परमजीत कौर

(उत्पाद प्रोसेसिंग)

कैसे एक उद्यमी सिख महिला ने अपनी हठ के एक सफल उद्योगपति बनने के लिए मील पत्थर रखा – माई भागो सैल्फ हैल्प ग्रुप

पुराने समय से ही समाज में पुरूषों के साथ-साथ महिलाओं ने अपना बहुत योगदान दिया है, पर अक्सर ही महिलाओं के योगदान को अन- देखा कर दिया जाता है। भारत में ऐसी बहुत महिलाएं हैं, जिन्होंने पुराने समय में अपने देश, समाज और लोगों पर राज किया, उन्हें सिखाया और उनकी सेवा की। उन्होंने संस्थाओं का प्रबंधन किया, समाज का नेतृत्व किया और शत्रुओं के विरूद्ध विद्रोह किया। यह सभी उपलब्धियां प्रशंसायोग हैं। ये सभी शूरवीर महिलाएं पुराने और आज के समय में भी उन्य महिलाओं के लिए प्रेरणा हैं। एक ऐसी महिला परमजीत कौर, जो महान सिख शूरवीर महिला माई भागो से प्रेरित हैं और एक उभरती हुई उद्यमकर्त्ता हैं।

परमजीत कौर जी ताकत और विश्वास वाली महिला हैं जिन्होंने अपने गांव लोहारा (लुधियाना) में माई भागो ग्रुप स्थापित करने के लिए पहला कदम उठाया। उन्होंने यह ग्रुप 2008 में शुरू किया था और आज भी वे अपना सबसे अधिक समय इस कारोबार को बढ़ाने और उत्पादों को सुधारने में लगाती हैं। खैर, इसमें कोई शक नहीं कि एक महिला होते हुए इस पुरूष जगत में अपना कारोबार स्थापित करना आसान नहीं होता है।

यह परमजीत कौर जी की इच्छा शक्ति और पारिवारिक सहयोग ही था जिस कारण उन्हें यह ग्रुप बनाने में बहुत सहायता मिली। जैसे कि हर काम की शुरूआत के लिए एक अच्छे मार्गदर्शक की जरूरत होती है, इसी तरह स्वंय ग्रुप तैयार करने के लिए परमजीत कौर जी के उत्साह के पीछे समाज सेविका सुमन बंसल जी का बहुत बड़ा योगदान है, जिन्होंने परमजीत कौर जी की पंजाब खेतीबाड़ी यूनिवर्सिटी, लुधियाना में घरेलू भोजन उत्पाद की एक महीने की मुफ्त ट्रेनिंग में बहुत मदद की। उसके बाद उन्होंने पीछे मुड़ कर नहीं देखा। आज उनके ग्रुप में 16 मैंबर हैं और वे प्रत्येक व्यक्ति को निजी तौर पर समझाती हैं।

माई भागो ग्रुप द्वारा सात तरह के स्कवैश (शरबत), इत्र, जल जीरा, फिनाइल, बॉडी मॉइश्चराइज़िंग बाम, सब्जी तड़का, शहद, हर्बल शैंपू और आम की चटनी आदि। परमजीत कौर जी स्वंय बाज़ार से जाकर सभी उत्पादों का कच्चा माल खरीद कर लाती हैं। माई भागो ग्रुप द्वारा बनाये गये सभी उत्पाद हाथों से तैयार किए जाते हैं और फलों का जूस निकालने, पैकिंग और सील लगाने के लिए मशीनों का प्रयोग किया जाता है।

• सभी स्कवैश (शरबत) फलों से कुदरती ढंग द्वारा तैयार किए जाते हैं और इनका स्वाद वास्तविक फलों के जैसा ही होता है।

• इत्र विभिन्न विभिन्न तरह के गुलाबों से तैयार किए जाते हैं, जिनमें गुलाबों की कुदरती खुशबू महसूस की जा सकती है।

• जल जीरा पाउडर ताजगी का स्वाद देता है।

• शुद्ध शहद कुदरती प्रक्रिया से निकाला जाता है।

• हर्बल शैंपू में किसी भी तरह के रसायनों का प्रयोग नहीं किया जाता।

• इनके कुछ ही उत्पाद ऊपर बताए गए हैं, पर भविष्य में ये अन्य भी बहुत सारे कुदरती और हर्बल उत्पाद लेकर आ रहे हैं।

परमजीत कौर जी केवल 10 वीं पास हैं, पर उनकी प्राप्तियां और कुछ हासिल करने के पक्के इरादों से ही कॉपरेटिव सोसाइटी की 55वीं समारोह पर उन्होंने कैप्टन कंवलजीत सिंह से पुरस्कार और 50000 की नकद राशि हासिल की। पंजाब खेतीबाड़ी यूनिवर्सिटी, लुधियाना से प्रशंसायोग काम के लिए पुरस्कार से सम्मानित किया गया। इसके इलावा वे समारोह, प्रदर्शनियों और किसानों, सैल्फ हैल्प ग्रुप और उद्यमकर्त्ता की वैल्फेयर कमेटियों में हिस्सा लेते हैं। वे और उनके पति कॉपरेटिव सोसाइटी के सैक्टरी हैं और वे जरूरतमंद लोगों की सहायता के लिए फैसले भी लेते हैं। वे किसान क्लब के भी मैंबर हैं और वे महीनेवार मीटिंगों और किसान मेलों में भी नियमित तौर पर पहुंचते हैं, ताकि खेतीबाड़ी के क्षेत्र से संबंधित नई चीज़ें और तकनीकों की जानकारी हासिल कर सकें।

इतने काम और अपने कारोबार में व्यस्त होने के बावजूद भी परमजीत कौर जी अपने बच्चों और पारिवारिक जिम्मेवारियों के प्रति लापरवाही नहीं दिखाते। वे अपने बच्चों की पढ़ाई के प्रति पूरा ध्यान देते हैं और उनकी उच्च शिक्षा के लिए कॉलेज भेजना चाहते हैं, ताकि वे अपनी आने वाली ज़िंदगी को ओर अच्छा बना सकें। इस समय उनका बेटा इलैक्ट्रीकल में डिप्लोमा कर रहा है और उनकी बेटी बी ए कर चुकी है और अब एम ए कर रही है। उनके बच्चे भविष्य में उनके कारोबार में योगदान देने के लिए दिलचस्पी रखते हैं और उन्हें जब भी अपनी पढ़ाई और कॉलेज से समय मिलता है, तो वे उनकी मदद के लिए समारोह और प्रदर्शनियों में भी जाते हैं।

इस व्यस्त दुनिया के इलावा, उनके कुछ शौंक हैं, जिनके लिए वे बहुत उत्सुक रहते हैं। उनका शौंक घरेलू बगीची तैयार करना और बच्चों को धार्मिक संगीत सिखाना है। चाहे वे जितने मर्ज़ी काम में व्यस्त हों, पर वे अपने व्यस्त कारोबार में अपने शौंक के लिए समय निकाल ही लेते हैं। उन्हें घरेलू बगीची का बहुत शौंक है और उनके घर छोटी सी घरेलू बगीची भी है, जहां उन्होंने मौसमी सब्जियां (भिंडी, सफेद बैंगन, करेले, मिर्च) आदि और हर्बल पौधे (घीकवार, तुलसी, सेज, अजवायन, पुदीना आदि) उगाये हैं। उनमें बच्चों को धार्मिक संगीत, संगीतक साज़ और गुरू ग्रंथ साहिब पढ़ने के तरीके सिखाने का बहुत जुनून है। शाम के समय नज़दीक के इलाकों से बच्चे बड़े जोश से हारमोनियम, सितार और तबला बजाना सीखने के लिए उनके पास आते हैं। वे बच्चों को ये सब कुछ मुफ्त में सिखाते हैं।

परमजीत कौर जी अपने गांव की महिलाओं के लिए प्रेरणास्त्रोत हैं। वे हमेशा स्वंय से कुछ करने की कोशिश करते हैं, क्योंकि उनका मानना है कि स्वंय कुछ करने से महिलाओं में विश्वास आता है और वे आत्म निर्भर बनती हैं। यहां तक कि उन्होंने अपनी बेटी को भी कुछ करने से नहीं रोका, ताकि वह भविष्य में आत्म निर्भर बन सके। आज कल वे अपने ग्रुप की प्रमोशन अलग अलग तरह के प्लेटफॉर्म पर कर रहे हैं और इसे ओर बड़े स्तर पर ले जाने की योजना बना रहे हैं।


परमजीत कौर की तरफ से सन्देश

“परमजीत कौर जी अपने गांव की महिलाओं के लिए प्रेरणास्त्रोत हैं। वे हमेशा स्वंय से कुछ करने की कोशिश करते हैं, क्योंकि उनका मानना है कि स्वंय कुछ करने से महिलाओं में विश्वास आता है और वे आत्म निर्भर बनती हैं। यहां तक कि उन्होंने अपनी बेटी को भी कुछ करने से नहीं रोका, ताकि वह भविष्य में आत्म निर्भर बन सके। आज कल वे अपने ग्रुप की प्रमोशन अलग अलग तरह के प्लेटफॉर्म पर कर रहे हैं और इसे ओर बड़े स्तर पर ले जाने की योजना बना रहे हैं।”

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हरनाम सिंह

(बागबानी, स्ट्रॉबेरी)

एक ऐसे व्यक्ति की कहानी जिसने विदेश जाने की बजाय अपने देश में मातृभूमि के लिए कुछ करने को चुना

पंजाब के नौजवान विदेशी सभ्याचार को इतना अपनाने लगे हैं कि विदेश जाना एक प्रवृत्ति बन चुकी है। अपने देश में पर्याप्त संसाधन होने के बावजूद भी युवाओं में विदेशों के प्रति आकर्षण है और वे विदेश में जाना और बसना पसंद करते हैं। पंजाब के अधिकांश लोगों के लिए, विदेशों में जाकर रहना पहचान पत्र की तरह बन गया है जब कि उन्हें पता भी नहीं होता कि वे किस मकसद से जा रहे हैं। विदेशों में जाकर पैसा कमाना आसान है पर इतना भी आसान नहीं है।

इसी सपने के साथ, लुधियाना के एक युवक हरनाम सिंह भी अपने अन्य दोस्तों की तरह ही कनाडा जाने की योजना बना रहे थे, लेकिन बीच में, उन्होंने अपना विचार छोड़ दिया। दोस्तों से बातचीत करने के बाद पता चला कि विदेश में रहना आसान नहीं है, आपको दिन-रात काम करना पड़ता है। यदि आप पैसा बनाना चाहते हैं तो आपको अपने परिवार से दूर रहना होगा। अपने दोस्तों के अनुभव को जानने के बाद उन्होंने सोचा कि विदेश जाने के बाद भी, अगर उन्हें आसान जीवन जीने में कठिनाइयों का सामना करना पड़े तो अपने देश में परिवार के साथ रहना और काम करना ज्यादा बेहतर है। उन्होंने अपनी पढ़ाई जारी रखने का निर्णय लिया और खेती में अपने पिता की मदद भी की।

उस फैसले के बाद उन्होंने कभी पीछे मुड़कर नहीं देखा और ना ही दूसरे किसी विचार को अपने दिमाग में आने दिया। आज हरनाम सिंह नामधारी स्ट्राबेरी फार्म के मालिक हैं जो अपने मूल स्थान पर 3.5 एकड़ ज़मीन में फैला है और लाखों में मुनाफा कमा रहे हैं यह सब 2011 में शुरू हुआ जब उनके पिता मशरूम की खेती की ट्रेनिंग के लिए पी ए यू गए और वापिस आने के बाद उन्होंने घरेलू बगीची के लिए स्ट्रॉबेरी के 6 छोटे नए पौधे लगाए और तब हरनाम सिंह के मन में स्ट्रॉबेरी की खेती करने का विचार आया। धीरे-धीरे समय के साथ पौधे 6 से 20, 20 से 50, 50 से 100, 100 से 1000 और 1000 से लाख बन गए। आज उनके खेत में 1 लाख के करीब स्ट्रॉबेरी के पौधे हैं। स्ट्रॉबेरी के पौधों की संख्या को बनाए रखने के लिए उन्होंने शिमला में 1 क्षेत्र किराये पर लेकर स्ट्रॉबेरी की खेती शुरू कर दी। ज्यादातर वे अपने खेत में रसायनों और खादों का प्रयोग नहीं करते और खेती के कुदरती तरीके को पसंद करते है और स्ट्रॉबेरी पैक करने के लिए उनके पास पैकिंग मशीन है और बाकी का काम मजदूरों (20-30) द्वारा किया जाता है, जो ज्यादातर स्ट्रॉबेरी के मौसम में काम करते हैं। उनका स्ट्रॉबेरी का वार्षिक उत्पादन बहुत अधिक है, जिस कारण हरमन को कुछ उत्पादन स्वंय बेचना पड़ता है और बाकी वह बड़े शहरों की दुकानों या सब्जी मंडी में बेचते हैं।

इसी बीच, हरनाम ने अपनी पढ़ाई को कभी नहीं रोका और आज उनकी डिग्रियों की सूचि काफी अच्छी है। उन्होंने आर्ट्स में ग्रेजुएशन, सोफ्टवेयर इंजीनियरिंग में डिप्लोमा किया और वर्तमान में बी एस सी एग्रीकल्चर में डिप्लोमा कर रहे हैं। वे किसानों से बिना कोई फीस लिए स्ट्रॉबेरी की खेती के बारे में शिक्षण और सलाह देते हैं।

वर्तमान में हरनाम सिंह अपनी छोटी और खुशहाल फैमिली (पिता, पत्नी, एक बेटी और एक बेटा) के साथ लुधियाना में रह रहे हैं।

भविष्य की योजना
वे भविष्य में स्ट्रॉबेरी की खेती को अधिक विस्तारित करने और अन्य किसानों को इसकी खेती के बारे में जागरूक करने की योजना बना रहे हैं।

 

संदेश
“हरनाम एक ही संदेश देना चाहते हैं जैसे उन्होंने खुद के जीवन में अनुभव किया है कि यदि आपके पास पर्याप्त संसाधन हैं, तो और संसाधन ढूंढने की बजाय उन्हीं संसाधनों का प्रयोग करें। पंजाब के युवाओं को विदेश जाने की बजाय अपनी मातृभूमि में योगदान देना चाहिए क्योंकि यहां रहकर भी वे अच्छा लाभ कमा सकते हैं।”

 

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अल्ताफ

(बकरी पालन)

एक ऐसे इन्सान की कहानी जिसके बकरी पालन के प्रति प्यार ने उसे बकरी पालन का सफल किसान बना दिया

अधिकतर लोग सोचते हैं कि आज की कामकाजी दुनिया में सफलता के लिए कॉलेज की शिक्षा महत्तवपूर्ण है। हां, ये सच है कि कॉलेज की शिक्षा आवश्यक है क्योंकि शिक्षा व्यक्ति को अपडेट करने में मदद करती है लेकिन सफलता के पीछे एक ओर प्रेरणा शक्ति होती है और वह है जुनून। आपका जुनून ही आपको पैसा कमाने में मदद करता है और जुनून, व्यक्ति में एक विशेष चीज के प्रति रूचि होने पर ही आता है।

ऐसे एक व्यक्ति हैं अल्ताफ, जो कम पढ़े लिखे होने के बावजूद भी अपना बकरी पालन का व्यापार व्यापारिक स्तर पर अच्छे से चला रहे हैं। इसमें उनकी बचपन से ही दिलचस्पी थी जिससे उन्होंने बकरी पालन को अपने पेशे के रूप में अपनाया और यह उनका जुनून ही था जिससे वे सफल बनें।

अल्ताफ राजस्थान के फतेहपुर सिकरी शहर में बहुत अच्छे परिवार में पैदा हुए। अल्ताफ के पिता, श्री अयूब खोकर एक मजदूर थे और वे अपना घर चलाने के लिए छोटे स्तर पर खेती भी करते थे। उनके पास दूध के लिए चार बकरियां थी। बचपन में अल्ताफ को बकरियों का बहुत शौंक था और वे हमेशा उनकी देखभाल करते थे लेकिन जैसे कि अल्ताफ के पिता के पास कोई स्थाई काम नहीं था, इसलिए कोई नियमित आय नहीं थी, परिवार की आर्थिक स्थिति अच्छी नहीं थी, जिस कारण अल्ताफ को 7वीं कक्षा के बाद अपनी पढ़ाई छोड़नी पड़ी, लेकिन बकरी पालन के प्रति उनका प्यार कभी कम नहीं हुआ और 2013 में उन्होंने बकरी पालन का बड़ा कारोबार शुरू किया।

शुरू में, अल्ताफ ने सिर्फ 20 बकरियों से बकरी पालन का कारोबार शुरू किया और धीरे -धीरे समय के साथ अपने व्यवसाय को 300 बकरियों के साथ बढ़ाया। उन्होंने बकरी पालन के लिए किसी तरह की ट्रेनिंग नहीं ली। वे सिर्फ बचपन से ही अपने पिता को देखकर सीखते रहे। इन वर्षों में उन्होंने समझा कि बकरियों की देखभाल कैसे करें। उनके फार्म में बकरी की विभिन्न प्रकार की नस्लें और प्रजातियां हैं। आज इनके फार्म में बने मीट को इसकी सर्वोत्तम गुणवत्ता के लिए जाना जाता है। वे अपनी बकरियों को कोई भी दवाई या किसी भी प्रकार की बनावटी खुराक नहीं देते। वे हमेशा बकरियों को प्राकृतिक चारा देना ही पसंद करते हैं और ध्यान देते हैं कि उनकी सभी बकरियां बीमारी रहित हो। अभी तक वे बड़े स्तर पर मंडीकरण कर चुके हैं। उन्होंने यू पी, बिहार, राजस्थान और मुंबई में अपने फार्म में निर्मित मीट को बेचा है। उनके फार्म में बने मीट की गुणवत्ता इतनी अच्छी है कि इसकी मुंबई से विशेष मांग की जाती है। इसके अलावा वे खेत के सभी कामों का प्रबंधन करते हैं और जब भी उन्हें अतिरिक्त मजदूरों की आवश्यकता होती है, वे मजदूरों को नियुक्त कर लेते हैं।

आज 24 वर्ष की आयु में अल्ताफ ने अपना बकरी पालन का कारोबार व्यापारिक रूप में स्थापित किया है और बहुत आसानी से प्रबंधित कर रहे हैं और जैसे कि हम जानते हैं कि भारत में बकरी, मीट उत्पादन के लिए सबसे अच्छा जानवर माना जाता है इसलिए बकरी पालन के लिए आर्थिक संभावनाएं बहुत अच्छी हैं लेकिन इस स्तर तक पहुंचना अल्ताफ के लिए इतना आसान नहीं था। बहुत मुश्किलों और प्रयासों के बाद, उन्होंने 300 बकरियों के समूह को बनाए रखा है।

भविष्य की योजना:
भविष्य में वे अपने कारोबार को और अधिक बड़ा करने की योजना बना रहे हैं। वे विभिन्न शहरों में मौजूद ग्राहकों के साथ संबंधों को मजबूत कर रहे हैं और अपने फार्म में बकरी की विभिन्न नस्लों को भी शामिल करने की कोशिश कर रहे हैं।


अल्ताफ द्वारा दिया गया संदेश

अल्ताफ के अनुसार, एक किसान को कभी हार नहीं माननी चाहिए क्योंकि भगवान हर किसी को मौका देते हैं बस आपको उसे हाथ से जाने नहीं देना है। अपने खुद के बल का प्रयोग करें और अपने काम की शुरूआत करें। आपका कौशल आपको ये तय करने में मदद करता है कि भविष्य में आपको क्या करना है।”

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रक्षा ढंड

(हस्तशिल्प)

एक ऐसी महिला की कहानी जो फुलकारी पर काम करने वाले लोगों की कला को उजागर करके उन्हें अपना कल्चर दिखाने में मदद कर रही है

वे दिन चले गए जब महिलाएं केवल रसोई में काम करने के लिए बंधी थी और आर्थिक रूप से असहाय थी। पुराने समय में बहुत कम लोग थे जो इस बात को स्वीकार करते थे कि मेहनत, दिमाग और नेतृत्व के तौर पर महिलाएं पुरूषों के समान हैं।

आज भी कई महिलाएं ऐसी हैं जो खुद पर विश्वास करती हैं। उनका अपने काम के प्रति जुनून है और उनमें इतनी दिमागी शक्ति है, जिसका प्रयोग करके वे अपनी ज़िंदगी और व्यवसाय को अच्छे से संभाल सकती हैं। ऐसे ही रक्षा ढंड नाम की महिला हैं जो कि कर्मचारियों के साथ रचनात्मक फुलकारी के कौशल का प्रयोग करके एक सैल्फ हैल्प ग्रुप कम व्यवसाय का नेतृत्व कर रही हैं। वे नए डिज़ाइनों और नवीनता के साथ फुलकारी की कला को ज़िंदा रखने की कोशिश कर रही हैं।

रक्षा ढंड चमकौर साहिब के रहने वाली हैं और गेंदा सैल्फ हैल्प ग्रुप की अध्यक्ष हैं। उन्होंने यह ग्रुप 2010 में 16 फुलकारी कर्मचारियों के साथ बनाया और जब उनके द्वारा बनाया गया फुलकारी हैंडीक्राफ्ट कलस्टर, विकास कमिश्नर हैंडीक्राफ्ट नई दिल्ली द्वारा मंज़ूर हो गया, फिर उसके बाद उन्होंने कभी पीछे मुड़ कर नहीं देखा। उन्होंने पंजाब की पारंपरिक हस्तकला को ऊपर उठाने में तेजी से शुरूआत की। मंजूरी मिलने के बाद NIFD के फैशन डिज़ाइनरों को विशेष तौर पर इस ग्रुप के कर्मचारियों को ट्रेनिंग देने के लिए भेजा गया। इन कर्मचारियों को कुल 25 दिन की ट्रेनिंग दी गई और धीरे-धीरे उनके काम को प्रशंसा मिलने लगी। धीरे-धीरे ग्रुप के ग्राहक बढ़े और उन्होंने अच्छा लाभ कमाया। आज रक्षा ढंड की चमकौर साहिब फुलकारी हाउस के नाम से दुकान उसी शहर में हैं जहां वे रहती हैं और दुकान में गेंदा सैल्फ हैल्प ग्रुप द्वारा के तैयार किए गए उत्पाद बेचती हैं। उनका बेटा उनके काम, प्रदर्शनियों और सभी सम्मेलनों में उनका साथ देता है।

रक्षा ढंड की कोई मजबूरी, पारिवारिक दबाव या आर्थिक समस्या नहीं थी, जिसके कारण उन्होंने ये ग्रुप बनाया और उत्पाद बेचने शुरू किए। यह रक्षा ढंड का जुनून था कि वे फुलकारी के इतिहास और कल्चर को लोगों के सामने पेश करे और खुद आत्मनिर्भर हो सके। उन्होंने हमेशा अपने ग्रुप मैंबरों को प्रेरित किया और कर्मचारियों की मदद से फुलकारी की तकनीकों से सुंदर और आकर्षक डिज़ाइनों का प्रयोग करते हुए फुलकारी सूट, दुपट्टा, शॉल, जैकेट और अन्य उत्पाद बनाए।

वर्तमान में, रक्षा ढंड अपने संपूर्ण परिवार पति, दो बेटों और बहू सहित खुश रह रही हैं। दो बेटों में से छोटा बेटा ऑस्ट्रेलिया रहता है और बड़ा-हर्ष ढंड कारोबार में अपनी मां की मदद करता है। अपने गेंदा सैल्फ हैल्प ग्रुप के तहत वे अन्य महिलाओं को भी फुलकारी की कला सिखाती हैं ताकि वे फुलकारी बना सकें और आत्मनिर्भर हो सकें। वे लुधियाना से कच्चा माल खरीदती हैं और कर्मचारियों को देती हैं, जो दिन, रात आकर्षक फुलकारी उत्पाद बनाते हैं। रक्षा ढंड मौके पर उनका भुगतान करती हैं। वे ग्राहकों को उत्पादों के लिए इंतज़ार नहीं करवाती क्योंकि उनके तहत काम कर रहे कर्मचारी सभी महिलाएं हैं जो अच्छे परिवारों में से हैं और अपनी आजीविका भी चलाती हैं। वे अपने अधीन काम कर रही महिलाओं की स्थिति को समझती हैं और इसीलिए हमेशा उनके काम की सही कीमत देती हैं।

भविष्य की योजना:
भविष्य में वे अपने कारोबार को ओर बड़ा करने की योजना बना रही हैं और अपने दस्तकारी का काम लोगों के लिए बड़े स्तर पर उपलब्ध करवाती हैं। हाल ही में उन्होंने इंडिया मार्ट से संपर्क किया है ताकि वे उनके साथ डील कर सके और अपने उत्पादों को वैबसाइट के माध्यम से बेच सके।

रक्षा ढंड द्वारा संदेश
“हर महिला को आत्मनिर्भर होना चाहिए और वही करना चाहिए जो उसे पसंद है क्योंकि यदि आप अपने भविष्य को बनाना चाहते हैं तो आपको कोई रोक नहीं सकता। मैं अपने समाज में महिलाओं का भविष्य बनाने की कोशिश कर रही हूं। यदि आप भी ऐसा करने में सक्षम है तो उन गरीब महिलाओं की मदद करने में एक कदम आगे बढाएं जो गरीब वर्ग से आती हैं और उन्हें सिखाएं कि कैसे वे अपने कौशल का उपयोग करें और आत्म निर्भर बन सकें।”

 

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श्री कट्टा रामकृष्ण

(उच्च घनत्व, कपास)

जानिये कैसे कट्टा रामकृष्ण ने उच्च घनत्व में रोपाई की तकनीक से कपास की खेती को और दिलचस्प बनाया

कट्टा रामकृष्ण आंध्र प्रदेश राज्य के प्रकाशम जिले में नागुलूप्पलडु के नज़दीक ओबन्न पलेम गांव के एक प्रगतिशील किसान हैं। उन्होंने वैज्ञानिकों के सुझाव अनुसार अपने कपास के खेत में उच्च घनत्व रोपाई तकनीक को सफलतापूर्वक लागू किया जिसके परिणामस्वरूप बेहतर उत्पादकता के साथ उच्च पैदावार प्राप्त की।

कट्टा रामकृष्ण की एक छोटे से क्षेत्र में अधिक पौधों को लगाने के लिए इस अभिनव पहल ने अंतत: उपज में वृद्धि की। इस कदम से उन्होंने 10 क्विंटल प्रति एकड़ का उत्पादन किया जिसने उन्हें भारतीय कृषि परिषद से राष्ट्रीय मान्यता प्राप्त करवाई और उन्हें 2013 में “बाबू जगजीवन राम अभिनव किसान पुरस्कार” से सम्मानित किया गया।

बाद में, जिला कृषि सलाहकार और ट्रांसफर ऑफ टेक्नोलोजी सेंटर के मार्गदर्शन से, कट्टा रामकृष्ण ने एक एकड़ में 12500 पौधे लगाए और इसे अपने 5 एकड़ प्लॉट में लागू किया और एक एकड़ से 22 क्विंटल उपज प्राप्त की।

“मेरे द्वारा निवेश की गई हर राशि के लिए, मुझे बदले में लाभ के बराबर राशि मिली”

— कट्टा रामकृष्ण ने गर्व से अपना पुरस्कार दिखाकर कहा जो उन्हें नई दिल्ली में केंद्रीय कृषि मंत्री राधा मोहन से प्राप्त किया।

“सामान्यत: एक किसान एक एकड़ में 8000 कपास के पौधे लगाता है और 10 से 15 क्विंटल उपज प्राप्त करता है लेकिन वे नहीं जानते कि पौधे की घनता में वृद्धि कपास की उपज में वृद्धि कर सकती है”

— डी ओ टी सेंटर के वरिष्ठ वैज्ञानिक वरप्रसाद राव ने कहा।

सफेद सोने की अच्छी उत्पादकता से उत्साहित होकर कट्टा रामकृष्ण ने कहा कि

– “आने वाले समय में मैं 16000 पौधे प्रति एकड़ में लगाकर 25 से 20 क्विंटल उपज प्राप्त कर सकता हूं।”

उपलब्धियां

• उन्हें विभिन्न राज्यों और राष्ट्रीय संगठनों द्वारा सम्मानित किया गया है।

• श्री रामकृष्ण ने कपास की सघन रोपाई अपनाई जिसमें 90 सैं.मी. x 30 सैं.मी. का फासला रखा (90 सैं.मी. x 45 सैं.मी. के स्थान पर), जिसके फलस्वरूप बारानी परिस्थितियों में अच्छी उपज (45.10 क्विंटल प्रति हैक्टेयर) प्राप्त हुई है।

• कपास के खेत में अधिकतम जल संरक्षण के लिए हाइड्रोजैल तकनीक कोअपनाया, जिसके फलस्वरूप उपज में 15 प्रतिशत की वृद्धि हुई।

• उन्होंने अपने खेतों में चना, उड़द, मूंग के प्रक्षेत्र परीक्षण लगाए, जिसके परिणामस्वरूप प्रकाशम जिले में किसानों के खेतों के लिए उपयुक्त प्रजातियों की पहचान करने में मदद मिली।

• चने की फसल में जैविक खादों जैसे राइजोबियम और फॉस्फोबैक्टीरिया का प्रयोग किया जिससे उपज में बढ़ोत्तरी हुई।

• वे खेती के लिए जैविक खादों और हरी खाद को पहल देते हैं।

• कीटों की नियंत्रण के लिए वे नीम के बीजों का प्रयोग करते हैं।

• उन्होंने सी.टी.आर.आई कंडुकर प्रकाशम जिले के सहयोग से तंबाकू के व्यर्थ पदार्थ को अपने खेतों में खाद के रूप में प्रयोग करके नई तकनीक विकसित की।

• उन्होंने सीड कम फर्टिलाइजर को मॉडीफाई किया, ताकि बीज और खाद को मिट्टी की विभिन्न गहराई पर एक समय में बोया जा सके। यह मॉडीफाइड सीड कम फर्टीलाइज़र ड्रिल स्थानीय किसानों के लिए सभी प्रकार की दालों की बिजाई के लिए उपयुक्त है।

• उनके द्वारा तैयार की गई आविष्कारी तकनीकें और संशोधित पैकेज प्रैक्टिसिज़ स्थानीय भाषाओं में प्रकाशित हैं। इसके अलावा, उनके फार्म पर होने वाले अनुभवों की अलग अलग रेडियो और सार्वजनिक मीटिंगों में चर्चा की जाती है।

• वे अपने क्षेत्र में दूसरे किसानों के लिए आदर्श मॉडल और प्रेरणा बन गए हैं।

संदेश
“फसल के बेहतर विकास के लिए किसानों को मिट्टी में सूक्ष्म पोषक तत्वों का प्रबंधन करने के लिए विशेषज्ञों से अपने खेत की मिट्टी का परीक्षण करवाना चाहिए और इसी तरीके से वे कम रसायनों और कीटनाशकों का उपयोग करके कीट प्रबंधन के सर्वोत्तम परिणाम प्राप्त कर सकते हैं।”

 

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डॉ. रमनदीप सिंह

(मंडीकरण)

डॉ. रमनदीप सिंह – भारतीय किसानों के लाभ और पूर्ति के लिए सहायक

डॉ. रमनदीप सिंह – सही जानकारी की अनुपस्थिति, कृषि मंडीकरण सुविधाओं और उचित परामर्श के अभाव में आज के किसान को अपने खेती उपज के निबटारे के लिए स्थानीय व्यापारियों और दलालों पर निर्भर होना पड़ता है, जो कि इन्हें ना-मात्र कीमतों पर बेचते हैं। भारतीय किसान के इस असहनेयोग्य कष्ट को खत्म करने के लिए पंजाब कृषि विश्वविद्यालय में व्यवसाय प्रबंधन के प्रोफेसर डॉ. रमनदीप ने अपनी टीम के साथ, नए कृषि आधारित उत्पादों और उन उपभोक्ताओं के विकास में किसानों की मदद करने का निर्णय लिया, जिनकी उपभोक्ताओं के बीच काफी स्वीकार्यता है और उनकी आमदनी को पूरा करने में मदद की और वैश्विक बाज़ारों में भी प्रवेश किया। डॉ. रमनदीप सिंह का दृढ़ विश्वास है कि आज के किसान को एक निश्चित बाजार, अधिक लाभ, कम जोखिम वाले कारक और आमदनी का निरंतर समानांतर स्त्रोत प्राप्त करने के लिए उत्पाद के विकास और मंडीकरण के रास्ते ढूंढने चाहिए।

सोशल मीडिया की ताकत का एहसास करते हुए, डॉ रमनदीप 12000 से ज्यादा कृषि घरों में किसानों को एक समान मंच पर आने और एक दूसरे के साथ जानकारी सांझा करने में सफल रहे हैं। आविष्कारी खेती की तकनीकों, उत्पाद की कीमतों, ब्रांडिंग और पैकेजिंग, उपभोक्ता की जरूरत को समझना, और ऑनलाइन, ऑफलाइन मोड के माध्यम से उत्पादों का सीधे तौर पर मंडीकरण हो, ताकि किसानों की सोच के अनुसार उन्हें लाभ मिल सके। डॉ. रमनदीप सिंह ने व्हाट्सएप, फेसबुक और यूट्यूब के प्रयोग से दुनिया भर के अधिक से अधिक किसानों को इन समूहों में शामिल होने के लिए प्रोत्साहित किया है। नवीनतम और उपयोगी कृषि सूचना के प्रसार में उनके सामाजिक मीडिया समूह एक महत्तवपूर्ण भूमिका निभाते हैं। वे बहुत तेजी से किसानों की व्यापक संख्या तक पहुंच रहे हैं। वे न केवल सूचना प्रसार के लिए बल्कि कृषि में नए विचारों और कार्यों में किसानों के हित को उत्तेजित करने के लिए एक सच्चे साधन के रूप में काम करते हैं।

डॉ. रमनदीप और उनकी टीम ने इस रिकॉर्ड तोड़ पहल के परिणामस्वरूप, बड़ी संख्या में किसानों के उत्पाद विकास की अवधारणा को सीखा है और इसे लागू करना भी शुरू कर दिया है। इससे उन्हें ना सिर्फ अपने उत्पाद की महत्त्ता और क्षमता का एहसास होगा बल्कि उन्हें आत्मनिर्भर बनने में भी मदद मिलेगी। उन्होंने किसानों को प्रोत्साहित किया कि वे अपना डेयरी फार्म खोलें और दूध से बने उत्पाद जैसे पनीर, आइस क्रीम आदि और मधु मक्खी पालकों को शहद अपने ब्रांड नाम से बेचें। डॉ. रमनदीप की सफलता की कहानियां अंतहीन है। उनका मानना है कि यदि आज के युवाओं को ठीक से निर्देशित किया जाये तो वे कृषि क्षेत्र में काफी योगदान कर सकते हैं, डॉ. रमनदीप, विद्यार्थियों और नौजवानों के साथ बातचीत करने के लिए हर समय उपलब्ध रहते हैं, ताकि वो उन्हें गेस्ट लैकचरज़, सैमीनार,कॉनफ्रैंस जैसे औपचारिक मंचों पर खेतीबाड़ी से संबंधित उचित जानकारी दे सकें।

आप भी डॉ. रमनदीप सिंह के व्हाट्स एप समूह जैसे Punjab Agri Brand, Punjab Honey, Punjab Poly House, Punjab Innovative, Punjab Horticulture, Punjab Young Farmers, Young Innovative Farmers, Punjab Global, Punjab Farm Tourism, Punjab Tomato, Punjab on Farm markets, Punjab Mushrooms, Punjab YFC Sathiala, Progressive Farmers Punjab, Young Innovative Farmers, NFA Sri Mukatsar Sahib, PB, Horticulture Farmers NFA, Potato Growers, Punjab PHC PAU में शामिल होकर उनके उत्साह का हिस्सा बन सकते हैं। डॉ. सिंह निम्नलिखित फेसबुक समूहों का भी संचालन कर रहे हैं Foundation for Agri Businesss Awareness and Education, Punjabi Young Innovative farmers and Agri preneurs, Progressive Bee Keepers Association.

कई भारतीय टेलीविज़न और रेडियो चैनलों ने डॉ. रमनदीप सिंह को अपने शो में कृषि अनुसंधान, मंडीकरण और कार्य प्रबंधन और कृषि समाज में परिवर्तन के बारे में गहरा ज्ञान प्राप्त करने के लिए आमंत्रित किया है। आज पंजाब में लगभग हर घर डॉ. रमनदीप के लिए एग्री व्यापार की अवधारणा के प्रति उनके उल्लेखनीय योगदान के लिए आभारी हैं।

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हरिमन शर्मा

(बागबानी, सेब)

एक किसान की कहानी जिसने अपना कर्म करते हुए, अपनी मेहनत से सफलता का स्वाद चखा

ऐसा कहा जाता है कि मानव इच्छा शक्ति के आगे कोई भी चीज़ टिकी नहीं रह सकती। ऐसी ही इच्छा और शक्ति के साथ एक ऐसे व्यक्ति आये जिन्होंने अपने निरंतर प्रयास के साथ उस ज़मीन पर सेब की एक नई किस्म का विकास किया, जहां पर यह लगभग असंभव था।

श्री हरिमन शर्मा एक सफल किसान हैं जिनके पास  सेब, आम, आडू, कॉफी, लीची और अनार के बगीचे हैं। एक उष्णकटिबंधीय स्थान (गांव पनीला कोठी, जिला बिलासपुर, हिमाचल प्रदेश), जहां तापमान 45 डिग्री तक बढ़ जाता है और भूमि में 80 %चट्टानें हैं और 20% मिट्टी है। यहां पर सेब उगाना लगभग असंभव था लेकिन हरिमन शार्मा की लगातार कोशिशों ने इसे संभव किया।

इससे पहले हरिमन शर्मा एक किसान नहीं थे और जो सफलता उन्होंने आज हासिल की है उसके लिए उन्हें अपने जीवन में कई चुनौतियों और कठिनाइयों का सामना करना पड़ा। 1971 से 1982 तक वे मजदूर थे, 1983 से 1990 तक उन्होंने पत्थर तोड़ने का और सब्जियों की खेती का काम किया। 1991 से 1998 तक उन्होंने सब्जी की खेती के साथ-साथ आम के बाग भी लगाए।

1999 में एक मोड़ ऐसा आया जब उन्होंने अपने आंगन में एक सेब का बीज अंकुरित होते देखा।उन्होंने उस अंकुर को संरक्षित किया और अपने खेती के अनुभव के दौरान प्राप्त ज्ञान से इसका पोषन करना शुरू कर दिया। क्वालिटी को सुधारने के लिए उन्होंने आलूबुखारा के वृक्ष के तने पर सेब के वृक्ष की शाखा की ग्राफ्टिंग कर दी और इसका परिणाम असाधारण था। दो वर्ष बाद सेब के पेड़ ने फल देना शुरू कर दिया। आखिरकार उन्होंने एक अलग प्रकार का सेब विकसित किया, जो कि गर्म जलवायु के साथ बहुत कम पहाड़ियों पर व्यापारिक रूप से उगाया जा सकता है।

धीरे-धीरे समय के साथ हरिमन शर्मा के द्वारा खोजी गई सेब की नई किस्म की बात फैल गई। अधिकांश लोगों ने इन रिपोर्टों को खारिज कर दिया और कुछ आश्चर्यचकित हुए। लेकिन 7 जुलाई 2008 को हरिमन शर्मा शिमला गए और उन्होंने उनके द्वारा विकसित किए गए सेब की एक टोकरी की पेशकश की, जो हिमाचल के मुख्यमंत्री के लिए थी। मुख्यमंत्री ने तुरंत अपने मंत्रीमंडल के सहयोगियों को इकट्ठा किया और उन सभी ने उन सेबों को चखा और जल्द ही मुख्यमंत्री ने इस सेब को हरिमन नाम दिया। बागबानी विश्वविद्यालय और विभाग के कई विशेषज्ञ विशेष रूप से उनके बगीचे में गए और वास्तव में आश्चर्यचकित और उनके काम से आश्वस्त हुए।

उन्होंने एक ही किस्म के सेब के 8 वृक्ष विकसित किए हैं जो कि बाग में आम के वृक्ष के साथ बढ़ रहे हैं और अब तक अच्छी उपज दे रहे हैं। हरिमन शर्मा द्वारा विकसित की गई किस्म का नाम उन्हीं के नाम पर HRMN-99  है। उन्होंने देश भर में किसानों, माली, उद्यमियों और सरकारी संगठनों को 3 लाख से अधिक पौधों को विकसित और वितरित किया है और HRMN-99  किस्म के 55 सेब के पौधे राष्ट्रपति भवन में लगाए हैं। उन्होंने आम, लीची, अनार, कॉफी और आड़ू फलों के बाग भी बनाए हैं।

हरिमन शर्मा द्वारा विकसित सेब की किस्म को कम  तापमान की जरूरत होती है और उप उष्णकटिबंधीय मैदानों में फूलों और फलों का उत्पादन होता है। उनकी उपलब्धि बागबानी के क्षेत्र में बहुत महत्तव रखती है, आज समाज में हरिमन शर्मा का योगदान केवल महान ही नहीं बल्कि दूसरे किसानों के लिए प्रेरणास्त्रोत भी है।

आज हरिमन एप्पल को भारत के लगभग प्रत्येक राज्य में उगाया और पोषित किया जाता है। उनकी कड़ी मेहनत ने साबित कर दिया है कि गर्म जलवायु के साथ बहुत कम पहाड़ियों पर सेब को व्यापारिक तौर पर उगाया जा सकता है।  श्री शर्मा अपनी बेहतर तकनीकों को अपने किसान साथियों के साथ शेयर कर रहे हैं और फैला रहे हैं।

कृषि के क्षेत्र में हरिमन शर्मा को उनके काम के लिए कई पुरस्कार और प्रशंसा मिली है उनमें से कुछ निम्नलिखित हैं:

• भारतीय कृशि अनुसंधान संस्थान, दिल्ली में प्रगतिशील किसान के रूप में सम्मानित किया गया।

• राष्ट्रपति भवन में नेशनल इनोवेशन फाउंडेशन के प्रोग्राम में अपनी नई खोज के लिए राष्ट्रपति से पुरस्कार प्राप्त किया।

• 2010 के सर्वश्रेष्ठ हिमाचली किसान शीर्षक से सम्मानित।

• 15 अगस्त 2009 में प्रेरणा स्त्रोत सम्मान पुरस्कार।

• 15 अगस्त 2008 में राज्य स्तरीय सर्वश्रेष्ठ किसान पुरस्कार।

• ऊना (2011 में) सेब का सफलतापूर्वक उत्पादन पुरस्कार।

• 19 जनवरी 2017 को कृषि पंडित पुरस्कार।

• इफको की जयंति के शुभ अवसर पर 29.4.2017 को उत्कृष्ट कृषक पुरस्कार।

• पूसा भवन दिल्ली केंद्रीय कृषि राज्य मंत्री द्वारा 17.3.2-10 में IARI Fellow Award

• 21 मार्च 2016 में केंद्रीय कृषि एवं किसान कल्याण मंत्री भारत सरकार – राधा मोहन सिंह द्वारा राष्ट्रीय नवोन्मेषी कृषक सम्मान।

• सेब उत्पादन के लिए 3 फरवरी 2016 को हिमाचल प्रदेश के महामहिम राज्यपाल द्वारा।

• नेशनल इनोवेशन फाउंडेशन द्वारा आयोजित, 4 मार्च 2017 को राष्ट्रीय द्वितीय अवार्ड।

• 9 मार्च 2017 को राजस्थान यूनिवर्सिटी ऑफ वैटर्नरी एंड एनीमल साइंसिज़ बीकानेर द्वारा फार्मर साइंटिस्ट अवार्ड।

हरिमन शर्मा द्वारा दिया गया संदेश
कर्म मनुष्य का अधिकार है फल को प्राप्त करने के लिए कर्म नहीं किया जाता। एक खेत में किसान का काम बीज बोना है, लेकिन अनाज का बढ़ना किसान के हाथों में नहीं है। किसान को अपना काम कभी भी अधूरा नहीं छोड़ना चाहिए और उसे अपना सर्वश्रेष्ठ प्रयास करना चाहिए। मैंने उस सेब के अंकुर को विकसित करने और उसके साथ कुछ नया करने की कोशिश की। यही कारण है कि मैं यहां हूं और यही कारण है कि सेब की किस्म का नाम मेरे नाम पर है। हर किसान को अपना सर्वश्रेष्ठ प्रयास करना चाहिए और कर्म करते रहना चाहिए।

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कुनाल गहलोट

(बागबानी)

जानें कैसे एक ग्रामीण किसान सब्जियों की विविध खेती से लाखों कमा रहा है

जैसे कि हम जानते हैं कि समय सभी के लिए एक सीमित वस्तु है, और कड़ी मेहनत से किसी व्यक्ति को करोड़पति प्रतियोगियों से मुकाबला करने में मदद नहीं मिलेगी क्योंकि यदि कड़ी मेहनत करके भाग्य प्राप्त करना संभव है तो आज के किसान इस देश के सबसे बड़े करोड़पति होंगे।

जो चीज़ आपके काम को अधिक प्रभावकारी और उत्पादक बनाती है वह है होशियारी। यह कहानी है दिल्ली के बाहरी गांव – टिगी पुर के एक साधारण किसान की, जो कि खेतीबाड़ी की आधुनिक तकनीक से सब्जियों की खेती में लाखों कमा रहे हैं। ऐसा नहीं है कि उनके पास कोई उच्च तकनीक वाली मशीनरी या उपकरण है या वे खाद की जगह सोने का प्रयोग करते हैं, यह सिर्फ उनका बुद्धिमत्तापूर्ण नज़रिया है जो वे अपने खेतों में लागू कर रहे हैं।

कुनाल गहलोट द्वारा अपनाई गई तकनीक….

कुनाल गहलोट 2004 से फसल विवधीकरण और खेती विविधीकरण से जुड़े हुए हैं, जिसके परिणामस्वरूप 10 वर्षों में उनके खेत की आमदन में 500 प्रतिशत की वृद्धि हुई है। जी हां, आप सही पढ़ रहे हैं! 2004 में उनके खेत की आय 5 लाख थी और 2015 में यह 3500000 लाख हो गई।

6 अंको की आय को 7 अंको में बदलना सिर्फ कुनाल गहलोट के लिए ही संभव था क्योंकि वे नई और आधुनिक तकनीकों को लागू करते हैं। अन्य किसानों के विपरीत उन्होंने फसलों, पौधों और बागबानी उत्पादों जैसे मशरूम की खेती और सब्जी की गहन खेती के उत्पादन में वैज्ञानिक तकनीकों को अपनाया। इस पहल से, उन्होंने सिर्फ 4 महीनों में 3.60 लाख प्रति हेक्टेयर अर्जित किया।

कैसे मार्किटिंग ने उनकी खेतीबाड़ी को अगले स्तर तक पहुंचाया….

मंडी की मांगों के मुताबिक,कृषि उत्पादों की बिक्री में बढ़ोतरी हुई और कई नए प्रभावी लिंक मंडीकरण के लिए बनाए गए, जिससे कुनाल गहलोट को जरूरतों के मुताबिक संभावित बाजारों की पहचान करने में मदद मिली।

कृषि उत्पाद की उत्पादकता बढ़ाने के लिए उन्होंने बड़े पैमाने पर वर्मीकंपोस्ट प्लांट की स्थापना की और बेहतर खेती और कटाई प्रक्रिया के लिए खेत में मशीनों का इस्तेमाल किया। वर्तमान में वे गेहूं (HD-2967 and PB-1509), धान, मूली, पालक, सरसों, शलगम, फूल गोभी, टमाटर, गाजर आदि उगा रहे हैंऔर इसके साथ ही वे सब्जी के बीजों को भी तैयार करते हैं। ये थी कुनाल गहलोट की कुछ उपलब्धियां उल्लेख करने के लिए।

उन्होंने खीरे की खेती, बंद गोभी की रोपाई, गेंदे का मूली के साथ अंतरीफसली में भी सुधार किया।

अपने काम के लिए, उन्हें विभिन्न सरकारी और गैर सरकारी संगठनों से कई पुरस्कार और मान्यता मिली है। वे हमेशा अपने क्षेत्र के साथी किसानों के बीच अपने ज्ञान और आविष्कारों को सांझा करने की कोशिश करते हैं और कृषि क्षेत्र के सुधार में भी योगदान करते हैं।

खैर, अच्छी तरह से किया गया होशियारी वाला काम एक आदमी को कहीं भी ले जा सकता है। यह उसके ऊपर है कि वह किस दिशा में जाना चाहता है। यदि आप कृषि विविधीकरण या सब्जियों की गहन खेती करना चाहते हैं तो ‘अपनी खेती’ मोबाइल एप डाउनलोड करें और स्वंय को खेतीबाड़ी की सभी आधुनिक तकनीकों से अपडेट रखें और इसे लागू करें।

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अशोक वशिष्ट

(बागबानी, मशरूम)

मशरूम की जैविक खेती और मशरूम के उत्पादों से पैसा बनाने वाले एक किसान की उत्साहजनक कहानी

बढ़ती आबादी की मांग को पूरा करने के लिए कृषि का विज्ञान परिष्कृत और अधिक समय तक सिद्ध हुआ है और उन्नति के साथ कृषि की तकनीकों में भी बदलाव आया है। वर्तमान में ज्यादातर किसान अपनी फसलों के ज्यादा उत्पादन के लिए परंपरागत / औद्योगिक कृषि तकनीकों, रासायनिक खादों, कीटनाशकों, जी एम ओ और अन्य औद्योगिक उत्पादों पर आधारित हैं। इनमें से कुछ ही किसान रसायनों का प्रयोग किए बिना खेती करते हैं। आज हम आपकी ऐसी शख्सीयत से पहचान करवाएंगे जो पहले परंपरागत खेती करते थे लेकिन बाद में कुदरती खेती के तरीकों के लाभ जानकर, उन्होंने कुदरती खेती के ढंगो से खेती करनी शुरू की।

अशोक वशिष्ट हरियाणा गांव के साधारण किसान हैं जिन्होंने परंपरागत खेती तकनीकों को उपयोग करने की रूढ़ी सोच को छोड़कर, मशरूम की खेती के लिए जैविक ढंगो का उपयोग करना शुरू किया। मशरूम के रिसर्च सेंटर के दौरे के बाद अशोक वशिष्ट को कुदरती ढंग से मशरूम की खेती करने की प्रेरणा मिली, जहां उन्हें मुख्य वैज्ञानिक डॉ. अजय सिंह यादव ने मशरूम के फायदेमंद गुणों से अवगत कराया और इसकी खेती शुरू करने के लिए प्रेरित किया।

शुरूआत में जब उन्होंने मशरूम की खेती शुरू की, तब वैज्ञानिक अजय सिंह यादव के अलावा उन्हें खेती के लिए प्रोत्साहन और सहायता करने वाली उनकी पत्नी थी। उनके परिवार के अन्य छ: सदस्यों ने भी उनकी मदद की और उनका साथ दिया।

अशोक वशिष्ट मशरूम की खेती करने के लिए महत्तवपूर्ण तीन कार्य करते हैं:

पहला कार्य: पहले वे धान की पराली, गेहूं की पराली, बाजरे की पराली आदि का उपयोग करके खाद तैयार करते हैं। वे पराली को 3 से 4 सैं.मी. काट लेते हैं और उसे पानी में भिगो देते हैं।

दूसरा  कार्य: वे घर में खाद तैयार करने के लिए पराली को 28 दिनों के लिए छोड़ देते हैं।

तीसरा कार्य: जब खाद तैयार हो जाती है, तब उनमें मशरूम के बीजों को बोया जाता है जो विशेषकर लैब में तैयार होते हैं।

मशरूम की खेती करने के लिए वे हमेशा ये तीन कार्य करते हैं और मशरूम की खेती के इलावा वे अपने खेत में गेहूं और धान की भी खेती करते हैं। योग्यता से वे सिर्फ 10वीं पास है लेकिन इस चीज़ ने उन्हें नई चीज़ों को सीखने और तलाशने में कभी भी उजागर नहीं किया। अपनी नई सोच और उत्साह के साथ वे मशरूम से अलग उत्पाद बनाने की कोशिश करते हैं और अब तक उन्होंने शहद का मुरब्बा, मशरूम का आचार, मशरूम का मुरब्बा, मशरूम की भुजिया, मशरूम के बिस्कुट, मशरूम की जलेबी और लड्डू जैसे उत्पाद बनाये हैं। उन्होंने हमेशा विभिन्न उत्पाद बनाने के लिए एक बात का ध्यान रखा है वह है सेहत। इसीलिए वे मीठे व्यंजनों को मीठा बनाने के लिए स्टीविया पौधे की प्रजातियों से तैयार स्टीविया पाउडर का प्रयोग करते हैं। स्टीविया सेहत के लिए एक अच्छा मीठा पदार्थ होता है और इसमें पोषक तत्व भी होते हैं, शूगर के मरीज़ बिना किसी चिंता के स्टीविया युक्त मीठे उत्पादों का प्रयोग कर सकते हैं।

अशोक वशिष्ट की यात्रा बहुत छोटे स्तर से, लगभग शून्य से ही शुरू हुई और आज उन्होंने अपनी कड़ी मेहनत से अपना खुद का व्यवसाय स्थापित किया है जहां वे FSSAI द्वारा पारित घरेलू उत्पादों को बेचते हैं। महर्षि वशिष्ट मशरूम वह ब्रांड नाम है जिसके तहत वे अपने उत्पादों को बेच रहे हैं और कई विशेषज्ञ, अधिकारी, नेताओं और मीडिया उनके आविष्कार किए तरीकों और मशरूम की खेती के पीछे के विचार और स्वादिष्ट मशरूम उत्पादों के लिए समय-समय पर उनके फार्म पर जाते रहते हैं।

महर्षि वशिष्ट की उपलब्धियां इस प्रकार हैं:

• HAIC Agro Research and Development Centre की तरफ से मशरूम प्रोडक्शन टेक्नोलॉजी ट्रेनिंग प्रोग्राम के लिए र्स्टीफिकेट मिला।

• चौधरी चरण सिंह हरियाणा एग्रीकल्चर यूनिवर्सिटी हिसार की तरफ से ट्रेनिंग र्स्टीफिकेट मिला।

• 2nd Agri Leadership Summit 2017 का पुरस्कार और र्स्टीफिकेट मिला।

• आमना तरनीम, DC जींद की तरफ से प्रशंसा पुरस्कार मिला।

मशरुम का बीज:
हाल ही में अशोक जी ने मशरूम का बीज तैयार किया है, जिसे स्पान की जगह पर इस्तेमाल किया जा सकता है और ऐसा करने वाले वह देश के पहले किसान है।

खैर, अशोक वशिष्ट के बारे में उल्लेख करने के लिए ये सिर्फ कुछ पुरस्कार और उपलब्धियां ही हैं। यहां तक कि उनकी भैंस ने 23 किलो दूध देकर प्रतियोगिता जीती, जिससे उन्हें 21 हज़ार रूपये का नकद पुरस्कार मिला। उनके पास 4.5 एकड़ ज़मीन है और 6 मुर्रा भैंस हैं, जिनमें से वे सबसे अच्छी कमाई और लाभ कमाने की कोशिश करते हैं। वे विभिन्न प्रदर्शनियों और इवेंट्स में भी जाते हैं जो उनके उत्पादों को दिखाने और उनके खेती तकनीक के बारे में जागरूक करवाने में उनकी मदद करते हैं। अपनी कड़ी मेहनत और जुनून के साथ वे भविष्य में निश्चित ही खेती की क्षेत्र में अधिक सफलताएं और प्रशंसा प्राप्त करेंगे।

अशोक वशिष्ट का किसानों के लिए एक विशेष संदेश
मशरूम बेहद पौष्टिक और मानव स्वास्थ्य के लिए फायदेमंद होते हैं। मैंने कुदरती तरीके से मशरूम की खेती करके बहुत लाभ कमाया है। जैसे कि हम जानते हैं कि भविष्य में खाद्य उत्पाद तैयार करना एक बहुत बड़ी बात होगी, इसलिए इस अवसर का लाभ उठाएं। आने वाले समय में, मैं अपने मशरूम की खेती का विस्तार करने की योजना बना रहा हूं ताकि इनसे तैयार उत्पादों को बेचने के लिए भारी मात्रा में उत्पादों को उत्पादन किया जा सके। अन्य किसानों के लिए मेरा संदेश यह है कि उन्हें भी मशरूम की खेती करनी चाहिए और बाज़ार में मशरूम से बने विभिन्न उत्पाद बेचने चाहिए। भूमिहीन किसान भी मशरूम की खेती से बड़ी कमाई कर सकते हैं और उन्हें खेती के लिए इस क्षेत्र का चयन करना चाहिए।

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गुरजतिंदर सिंह विर्क

(मछली पालन)

एक ऐसे व्यक्ति की कहानी जिसने मज़बूरी में मछली पालन शुरू किया, लेकिन आज वह दूसरे किसानो के लिए एक मिसाल बन चुके हैं

कभी किसी ने सोचा भी नहीं होगा कि जो ज़मीन पिछले 100 वर्षों से खाली पड़ी थी, वह आज उपजाऊ और उपयोगी होगी। इसके पीछे का कारण है कि किसी ने वहां कुछ भी करने की कोशिश नहीं की क्योंकि वहां साल के 11 महीने पानी खड़ा रहता था, लेकिन हर आने वाली नई पीढ़ी के साथ नई सोच आती है। हम सभी जानते हैं कि हमारे आस-पास और वातावरण में थोड़ा बदलाव करने के लिए एक बड़ी कोशिश की आवश्यकता होती है। यह कोशिश सिर्फ केवल मजबूत इच्छाशक्ति और जुनून के साथ प्रयोग में आ सकती है और इस तरह एक अलग नज़रिए, बुद्धि और उत्साह के साथ अपनी मातृ भूमि और अपने समुदाय के लिए कुछ करने के लिए गुरजतिंदर सिंह विर्क आए।

गुरजतिंदर सिंह विर्क गांव कंडोला, जिला रूपनगर के रहने वाले हैं, उन्होंने वर्ष 1985 में 5 एकड़ की जल जमाव वाली ज़मीन पर मछली पालन का काम शुरू किया, यह ज़मीन उन्हें पैतिृक संपत्ति से मिली थी। चूंकि उनके पास कोई विकल्प नहीं था, इसलिए उन्होंने गुरदासपुर का दौरा किया और वहां से 5 दिन की ट्रेनिंग लेकर मछली पालन का काम शुरू कर दिया। उन्होंने तकरीबन 30 साल पहले मछली पालन का काम शुरू किया और अब तक अपनी मेहनत और लगन से इस कार्य को 5 एकड़ से 30 एकड़ तक फैलाया है। मछली पालन के इस कार्य की दिशा में उनके इस क्रांतिकारी कदम ने कई अन्य किसानों को प्रेरित किया और अंतत: इससे कई अनुकूल प्रभाव दिखे जिन्होंने एक बंजर भूमि को मछली पालन के क्षेत्र में विकसित किया। उसी क्षेत्र में आज लगभग 300-400 एकड़ बंजर भूमि को मछली पालन के लिए उपयोग किया जाता है।

यह सब काफी वर्ष पहले एक बंजर ज़मीन और एक इंसान की मेहनत द्वारा शुरू हुआ और आज इससे काफी लोग प्रेरित हैं। आखिरकार यह छोटा कदम किसानों और कई अन्य इलाकों की जीविका को सुधारने में मदद कर रहा है ताकि उनके जीवन स्तर को उन्नत किया जा सके। अब उस क्षेत्र में आवेशपूर्ण मछली पकड़ने वाले किसानों का एक समुदाय बनाया गया है और इनके प्रयासों से अंतत: उस क्षेत्र का आर्थिक विकास हो रहा है जो राज्य और राष्ट्र के आर्थिक विकास को जोड़ रहा है।

अब विर्क जी की खेती पद्धति और आर्थिक प्रगति पर आते हैं। गुरजतिंदर सिंह विर्क के फार्म पर सामान्य कार्प मछलियां जैसे कतला और रोहू की किस्में हैं। एक एकड़ तालाब के लिए 2000 मछली के बच्चों की आवश्यकता होती है, इसीलिए वे 2000 मछली के बच्चों को पानी में छोड़ते हैं। मछलियों की वृद्धि, पानी की गुणवत्ता, आहार की गुणवत्ता और पानी में मौजूद शिकारियों के आधार पर निर्भर होती है। आमतौर पर वे तालाब में मछली की दो किस्मों को डालते हैं और उनकी अच्छी पैदावार के लिए उचित हालात बनाकर रखते हैं। वे मछलियों को 80 रू प्रति किलो के हिसाब से बेचते हैं जबकि बाज़ार में वह मछली 120 रू प्रति किलो के हिसाब से बिकती है और कम कीमतों पर मछलियों को बेचने के बावजूद भी वे लाखों कमा रहे हैं और पर्याप्त लाभ कमा रहे हैं।

गुरजतिंदर सिंह विर्क ने वातावरण के संरक्षण के लिए काफी कदम उठाए हैं, उनमें से एक महत्तवपूर्ण कार्य यह है कि उन्होंने अपने रसोई उद्यान की सिंचाई और तालाब को भरने के लिए सौर पंप सेटों का उपयोग करके कार्बन को कम किया है। श्री विर्क द्वारा किए गए अच्छे कार्य के लिए उन्हें कई पुरस्कार और उपलब्धियां मिली हैं। जिनमें से कुछ निम्नलिखित हैं।

उन्हें Agriculture Technology Management के लिए जिला स्तरीय पुरस्कार मिला है और सर्वोत्तम कृषि प्रणाली के लिए उन्हें Roopnagar Administration द्वारा प्रशंसा पत्र मिला है। उन्हें क्षेत्र को विकसित करने के लिए Zee Networks द्वारा पुरस्कृत भी किया गया। 2011 में उन्हें Best Citizen India Award से नवाज़ा गया। उसके बाद उन्हें Bharat Jyoti Award और Fish Farmer Award भी मिला।

खेती के क्षेत्र में उनके अच्छे काम से उन्हें कई प्रतिष्ठित समितियों और समाज में मैंबरशिप मिली। आज वे Advisory Committee (ATMA) और Board of Management at GADVASU के मैंबर हैं। वे किसान विकास चैंबर के 11 मैंबरों की सूचि में भी शामिल हैं जिन्होंने भारत की मुख्य उद्योग संघ को स्थापित किया जैसे CII, FICCI और ASSOCHAM और इस संघ का कार्य, राज्य की बिगड़ती कृषि अर्थव्यवस्था को अपग्रेड करना और खेती से संबंधित तकनीकों का प्रयोग करना जो किसान पहले से ही प्रयोग कर रहे थे। वे रूपनगर और मोहाली जिलों के लिए NABARD के तहत गांव Cooperative Society की तरफ से (वन विभाग) में भूतपूर्व वार्डन भी थे।

गुरजतिंदर सिंह विर्क द्वारा लिया गया एक महत्तवपूर्ण कदम था कि भूतपूर्व मंत्री प्रकाश सिंह बादल के साथ देखे गए चीन में मछली पालन के ढंग के बारे में ओर जानने के लिए चीने के मछली पालन के तरीके को अपनाया।

उनकी इन उपलब्धियों के इलावा उन्होंने हरियाली से भरी एक सुंदर जगह बनाने में बहुत मेहनत की है। उन्होंने तालाब के मध्य में अपना घर बनाया है और उस भूमि के टुकड़े पर जहां उनका घर है, उन्होंने सभी प्रकार की सब्जियां और फलों को विकसित किया है। उनके खेत में आडू, बादाम, किन्नू, मैड्रिन, आम, अनार, सेब, अनानास और 17 से अधिक सब्जियां और दालें हैं। उन्होंने अपने घर के आस-पास की ज़मीन को इस तरह विकसित किया है कि बाज़, किंगफिशर, fork tail, geese, तोते और मोर की कई दुर्लभ और आम प्रजातियां को उनके फार्म पर चहचहाते हुए आसानी से देखा जा सकता है। संक्षेप में उनके अपने देश के विकास कार्यों ने पक्षियों की विभिन्न प्रजातियों की एक विविधता बनाई है।

आज वे जो कुछ भी हैं उसके पीछे उनकी प्रेरणा और साथी उनकी पत्नी रूपिंदर कौर विर्क हैं जिन्होने ज़िंदगी के हर कदम पर उनका साथ दिया और उनके प्रत्येक काम में उनकी मदद की। वे उनकी ज़िंदगी में एक पेशेवर भूमिका भी निभाती हैं और उनके फार्म के सभी लेखों का रिकार्ड बनाकर रखती हैं। खाली समय में वे अपने खेत में उगाए फलों का बेचने के उद्देश्य से आचार और कैडिज़ बनाना पसंद करती हैं। गुरजतिंदर सिंह विर्क अपनी पत्नी और सिर्फ दो नौकरों की सहायता से फार्म के सभी कार्यों को संभालते हैं और भविष्य के विकास के लिए वे अपने फार्म को पर्यटन स्थल बनाने की योजना पर काम कर रहे हैं।

चीन की यात्रा के बाद गुरजतिंदर सिंह विर्क ने निष्कर्ष निकाला कि बेहतर तकनीकों का उपयोग करके बेहतर उत्पादन प्राप्त किया जा सकता है इसलिए वे चाहते हैं कि किसान बेहतर उत्पादन के लिए नई तकनीकों को अपनायें। उन्होंने ये भी कहा कि उनके गांव में 24 घंटे बिजली नहीं रहती जिसके कारण खेती का उत्पादन कम होता है और भविष्य में, यदि उन्हें 24 घंटे बिजली सुविधा उपलब्ध की जाती है तो वे खेती क्षेत्र में बेहतर परिणाम दे सकते हैं। वे सोचते हैं कि कड़ी मेहतन से आप ज़मीन के किसी भी टुकड़े से कुछ भी प्राप्त कर सकते हैं, अंतर बस फल और सब्जी के आकार में होगा।

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स. राजमोहन सिंह कालेका

(विष रहित खेती)

एक व्यक्ति की कहानी जिसे पंजाब में विष रहित फसल उगाने के लिए जाना जाता है

एक कृषक परिवार में जन्मे, सरदार राजमोहन सिंह कालेका गांव बिशनपुर, पटियाला के एक सफल प्रगतिशील किसान हैं। किसी भी तरह के रसायनों और कीटनाशकों का उपयोग किए बिना वे 20 एकड़ की भूमि पर गेहूं और धान का उत्पादन करते हैं और इससे अच्छी उत्पादकता (35 क्विंटल धान और गेहूं 22 क्विंटल प्रति एकड़) प्राप्त कर रहे हैं।

वे पराली जलाने के विरूद्ध हैं और कभी भी फसल के बचे कुचे (पराली) को नहीं जलाते। उनके विष रहित खेती और पर्यावरण के अनुकूल कृषि पद्धतियों के ढंग ने उन्हें पंजाब के अन्य किसानों के रॉल मॉडल के रूप में मान्यता दी है।

इसके अलावा वे जिला पटियाला की प्रोडक्शन कमेटी के सदस्य भी हैं। वे हमेशा प्रगतिशील किसानों, वैज्ञानिकों, अधिकारियों और कृषि के माहिरों से जुड़े रहते हैं यह एक बड़ी प्राप्ति है जो उन्होंने हासिल की है। कई कृषि वैज्ञानिक और अधिकारी अक्सर उनके फार्म में रिसर्च और अन्वेषण के लिए आते हैं।

अपनी नौकरी और कृषि के साथ वे सक्रिय रूप से डेयरी फार्मिंग में भी शामिल है, उन्होंने साहिवाल नसल की कुछ गायों को रखा है इसके अलावा उन्होंने अपने खेत में बायो गैस प्लांट भी स्थापित किया है उनके अनुसार वे आज जहां तक पहुंचे हैं, उसके पीछे का कारण सिर्फ KVK और IARI के कृषि माहिरों द्वारा दिए गए परामर्श हैं।

अपने अतिरिक्त समय में, राजमोहन सिंह को कृषि से संबंधित किताबे पढ़ना पसंद है क्योंकि इससे उन्हें कुदरती खेती करने के लिए प्रोत्साहन मिलता है।

उनके पुरस्कार और उपलब्धियां…

उनके अच्छे काम और विष रहित खेतीबाड़ी करने की पहल के लिए उन्हें कई प्रसिद्ध लोगों से सम्मान और पुरस्कार मिले हैं:

• राज्य स्तरीय पुरस्कार

• राष्ट्रीय पुरस्कार

• पंजाब खेतीबाड़ी यूनिवर्सिटी, लुधियाना से धालीवाल पुरस्कार

• उन्हें माननीय सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीश द्वारा सम्मानित किया गया।

• उन्हें पंजाब और हरियाणा के राज्यपाल द्वारा सम्मानित किया गया।

• उन्हें कृषि मंत्री द्वारा सम्मानित किया गया।

श्री राजमोहन ने ना सिर्फ पुरस्कार प्राप्त किए, बल्कि विभिन्न सरकारी अधिकारियों से विशेष रूप से प्रशंसा पत्र भी प्राप्त किए हैं जो उन्हें गर्व महसूस करवाते हैं।

• मुख्य संसदीय सचिव, कृषि, पंजाब

• कृषि पंजाब के निदेशक

• डिप्टी कमिशनर पटियाला

• मुख्य कृषि अधिकारी, पटियाला

• मुख्य निदेशक, IARI

संदेश
“किसानों को विष रहित खेती करने की ओर कदम उठाने चाहिए क्योंकि यह बेहतर जीवन बनाए रखने का एकमात्र तरीका है। आज, किसान को वर्तमान ज़रूरतों को समझना चाहिए और अपनी मौद्रिक जरूरतों को पूरा करने की बजाये कृषि करने के सार्थक और टिकाऊ तरीके ढूंढने चाहिए।”

 

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सरदार भरपूर सिंह

(फूलों की खेती)

भरपूर सिंह ने कृषि से लाभ कमाने के लिए फूलों की खेती का चयन किया

कृषि एक विविध क्षेत्र है और किसान कम भूमि में भी इससे अच्छा लाभ कमा सकते हैं, उन्हें सिर्फ खेती के आधुनिक ढंग और इसे करने के सही तरीकों से अवगत होने की अवश्यकता है। यह पटियाला के खेड़ी मल्लां गांव के एक साधारण किसान भरपूर सिंह की कहानी है, जो हमेशा गेहूं और धान की खेती से कुछ अलग करना चाहते थे।

भरपूर सिंह ने अपनी स्कूल की पढ़ाई पूरी करने के बाद अपने पिता सरदार रणजीत सिंह की खेती में मदद करने का फैसला किया, लेकिन बाकी किसानों की तरह वे गेहूं धान के चक्कर से संतुष्ट नहीं थे। हालांकि उन्होंने खेतों में अपने पिता की मदद की, लेकिन उनका दिमाग और आत्मा कुछ अलग करना चाहते थे।

1999 में, उन्होंने अपने परिवार के साथ गुरुद्वारा राड़ा साहिब का दौरा किया और गुलदाउदी के फूलों के कुछ बीज खरीदे और यही वह समय था जब उन्होंने फूलों की खेती के क्षेत्र में प्रवेश किया। शुरुआत में, उन्होंने जमीन के एक छोटे टुकड़े पर गुलदाउदी उगाना शुरू किया और समय के साथ उन्होंने पाया कि उनका उद्यम लाभदायक है इसलिए उन्होंने फूलों के खेती के क्षेत्र का विस्तार करने का फैसला किया।

समय के साथ, जैसे ही उनके बेटे बड़े हुए, तो वे अपने पिता के व्यवसाय में रुचि लेने लगे। अब भरपूर सिंह के दोनों पुत्र फूलों की खेती के व्यवसाय में समान रूप से व्यस्त रहते हैं।

फूलों की खेती
वर्तमान में, उन्होंने अपने खेत में चार प्रकार के फूल उगाए हैं – गुलदाउदी, गेंदा, जाफरी और ग्लैडियोलस। वे अपनी भूमि पर सभी आधुनिक उपकरणों का उपयोग करते हैं। वे 10 एकड़ में फूलों की खेती करते हैं। और कभी-कभी वे अन्य फसलों की खेती के लिए ज़मीन किराए पर भी ले लेते हैं।

बीज की तैयारी
खेती के अलावा उन्होंने जाफरी और गुलदाउदी के फूलों के बीज स्वंय तैयार करने शुरू किये, और वे हॉलैंड से ग्लैडियोलस और कोलकाता से गेंदे के बीज सीधे आयात करते हैं। बीज की तैयारी उन्हें एक अच्छा लाभ बनाने में मदद करती है, कभी-कभी वे फूलों की खेती को बढ़ावा देने के लिए अपने दोस्तों और रिश्तेदारों को बीज भी प्रदान करते हैं।

बागवानी में निवेश और लाभ
एक एकड़ में ग्लेडियोलस की खेती के लिए उन्होंने 2 लाख रूपये का निवेश किया है और बदले में उन्हें एक एकड़ ग्लैडियोलस से 4-5 लाख रुपये मिल जाते हैं, जिसका अर्थ लगभग 50% लाभ या उससे अधिक है।

मंडीकरण
वे मंडीकरण के लिए तीसरे व्यक्ति पर निर्भर नहीं हैं। वे पटियाला, नभा, समाना, संगरूर, बठिंडा और लुधियाना मंडी में अपनी उपज का मंडीकरण करते हैं। उनका ब्रांड नाम निर्माण फ्लावर फार्म है। कृषि से संबंधित कई कैंप बागवानी विभाग द्वारा उनके फार्म में आयोजित किए जाते हैं जिसमें कई प्रगतिशील किसान भाग लेते हैं और नियमित किसानों को फूलों की खेती के बारे में ट्रेनिंग प्रदान की जाती है।

सरदार भरपूर सिंह डॉ.संदीप सिंह गरेवाल (बागवानी विभाग, पटियाला), डॉ कुलविंदर सिंह और डॉ.रणजीत सिंह (पी.ए.यू) को अपने सफल कृषि उद्यम का अधिकांश श्रेय देते हैं क्योंकि वे उनकी मदद और सलाह के बिना अपने जीवन में इस मुकाम तक न पहुँचते।

उन्होंने किसानों को एक संदेश दिया कि उन्हें अन्य किसानों के साथ मुकाबला करने के लिए कृषि का चयन नहीं करना चाहिए, बल्कि उन्हें खुद के लिए और पूर्ण रुचि के साथ कृषि का चयन करना चाहिए, तभी वे मुनाफा कमाने में सक्षम होंगे।

एक छोटे से स्तर से शुरू करना और जीवन में सफलता को हासिल करना, भरपूर सिंह ने किसानों के लिए एक आदर्श मॉडल के रूप में एक उदाहरण स्थापित की है जो फूलों की खेती को अपनाने की सोच रहे हैं।

संदेश
“मेरा किसानों को यह संदेश है कि उन्हें विविधीकरण के लाभों के बारे में गंभीरता से सोचना चाहिए। गेहूं और धान की खेती के दुष्चक्र से किसान बहुत सारे कर्जों में फंस गए हैं। मिट्टी की उपजाऊ शक्ति कम हो रही है और किसानों को उत्पादन बढ़ाने के लिए अधिक से अधिक रसायनों का उपयोग करने के लिए मजबूर किया जा रहा है। विविधीकरण ही एकमात्र तरीका है जिसके द्वारा किसान सफलता प्राप्त कर सकते हैं और अधिक मुनाफा कमा सकते हैं और अपने जीवन स्तर को ऊंचा उठा सकते हैं। इसके अलावा, किसानों को अन्य किसानों के साथ प्रतिस्पर्धा करने के लिए कृषि का चयन नहीं करना चाहिए, बल्कि खुद के लिए और पूरी दिलचस्पी से कृषि का चयन करना चाहिए तभी वे अपनी इच्छा अनुसार मुनाफा कमाने के सक्षम होंगे।”

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मोहिंदर सिंह गरेवाल

(विविध खेती)

एक ऐसे इंसान की कहानी जिसने कृषि विज्ञान में महारत हासिल की और खेती विभिन्नता के क्षेत्र में अपने कौशल दिखाए

हर कोई सोच सकता है और सपने देख सकता है, पर ऐसे लोग बहुत कम होते हैं, जो अपनी सोच पर खड़े रहते हैं और पूरी लग्न के साथ उसे पूरा करते हैं। ऐसे ही दृढ़ संकल्प वाले एक जल सेना के फौजी ने अपना पेशा बदलकर खेतीबाड़ी की तरफ आने का फैसला किया। उस इंसान के दिमाग में बहु उदेशी खेती का ख्याल आया और अपनी मेहनत और जोश से आज विश्व भर में वह किसान पूरे खेतीबाड़ी के क्षेत्र में बहुत प्रसिद्ध है।

मोहिंदर सिंह गरेवाल पंजाब एग्रीकल्चरल यूनिवर्सिटी के पहले सलाहकार किसान के तौर पर चुने गए, जिनके पास 42 अलग अलग तरह की फसलें उगाने का 53 वर्ष का तर्ज़ुबा है। उन्होंने इज़रायल जैसे देशों से हाइब्रिड बीज उत्पादन और खेती की आधुनिक तकनीकों की सिखलाई हासिल की। अब तक वे खेतीबाड़ी के क्षेत्र में अपने काम के लिए 5 अंतरराष्ट्रीय, 7 राष्ट्रीय और 16 राज्य स्तरीय पुरस्कार जीत चुके हैं।

स. गरेवाल जी का जन्म 1 दिसंबर 1937 में लायलपुर, जो अब पाकिस्तान में है, में हुआ। उनके पिता का नाम अर्जन सिंह और माता का नाम जागीर कौर है। यदि हम मोहिंदर सिंह गरेवाल की पूरी ज़िंदगी देखें तो उनकी पूरी ज़िंदगी संघर्षों से भरी थी और उन्होंने हर संघर्ष और मुश्किल को चुनौती के रूप में समझा। पूरी लग्न और मेहनत से उन्होंने अपने और अपने परिवार के सपने पूरे किये।

अपने स्कूल और कॉलेज के दिनों में, मोहिंदर सिंह गरेवाल बड़े उत्साह से फुटबॉल खेलते थे और बहुत सारे स्कूलों की टीमों के कप्तान भी रहे। वे एक अच्छे एथलीट भी थे, जिस कारण उन्हें भारतीय जल सेना में पक्के तौर पर नौकरी मिल गई। 1962 में INS नाम के समुंद्री जहाज पर मोहिंदर सिंह गरेवाल काले पानी अंडेमान निकोबार द्वीप समूह, मलेशिया, सिंगापुर और इंडोनेशिया की यात्रा की। इंडोनेशिया में मैच खेलते समय उनके दायीं जांघ पर गंभीर चोट लगी। इस चोट और परिवार के दबाव के कारण उन्होंने 1963 में भारतीय जल सेना की नौकरी छोड़ दी। इसके बाद कुछ देर के लिए उनकी ज़िंदगी में ठहराव आ गया।

नौकरी छोड़ने के बाद उनके पास अपने विरासती व्यवसाय खेतीबाड़ी के अलावा कोई ओर अन्य विकल्प नहीं था। उन्होंने शुरूआती 4 वर्षों में गेहूं और मक्की की खेती की। मोहिंदर सिंह जी ने अपनी पत्नी जसबीर कौर के साथ मिलकर खेतीबाड़ी में सफलता हासिल करने के लिए एक ठोस योजना बनाई और आज वे अपनी खेती क्रियाओं के कारण विश्व भर में प्रसिद्ध इंसान हैं। हालांकि उनके पास 12 एकड़ का एक छोटा सा खेत है, पर फसल चक्र के प्रयोग से वे इससे अधिक लाभ ले रहे हैं। मोहिंदर सिंह गरेवाल जी अपने खेतों में लगभग 42 तरह की फसलें उगाने में सक्षम हैं और अच्छी क्वालिटी की पैदावार प्राप्त कर रहे हैं। उनके कौशल अकेले पंजाब में ही नहीं बल्कि पूरे भारत में जाने जाते हैं।

बहुत सारी जानी पहचानी कमेटियों और कौंसल के साथ काम करके मोहिंदर सिंह गरेवाल जी के काम को और अधिक प्रसिद्धि मिली। राज्य स्तर पर उन्हें गवर्निंग बोर्ड के मैंबर, पंजाब राज्य बीज सर्टीफिकेशन अथॉरिटी, पी ए यू पब्लीकेशन कमेटी और पी ए यू फार्मज़ एडवाइज़री कमेटी के तौर पर काम किया। राष्ट्रीय स्तर पर उन्होंने कमिश्न फॉर एग्रीकल्चर कॉस्ट एंड पराइसिस के मैंबर, भारत सरकार, सीड एक्ट सब-कमेटी के मैंबर, भारत सरकार एडवाइज़री कमेटी के मैंबर, प्रसार भारतीय, जालंधर, पंजाब और इंडियन इंस्टीट्यूट ऑफ शूगरकेन रिसर्च लखनउ के मैंबर के तौर पर काम किया।

इस समय वे एग्रीकल्चर और हॉर्टीकल्चर कमेटी, पी ए यू, गवर्निंग बोर्ड, एग्रीकल्चर टैक्नोलोजी मैनेजमैंट एजंसी के मैंबर हैं। वे पंजाब फार्मरज़ कल्ब, पी ए यू के संस्थापक और चार्टर प्रधान भी हैं।

खेती के क्षेत्र में उनके काम के लिए उन्हें इंगलैंड, मैक्सिको, इथियोपिया और थाइलैंड जैसे देशों के द्वारा सम्मानित किया गया और वे अलग अलग स्तर पर 75 से ज्यादा पुरस्कार जीत चुके हैं। उन्हें 1996 में ऑटोबायोग्राफिकल इंस्टीट्यूट, यू एस ए की तरफ से मैन ऑफ द ईयर पुरस्कार के साथ और 15 अगस्त 1999 को श्री गुरू गोबिंद सिंह स्टेडियम, जालंधर में माननीय गवर्नर एस एस राय द्वारा गोल्ड मैडल और लोई से सम्मानित किया। उन्हें पश्चिमी पंजाब के लोगों को खेती में से ज्यादा लाभ लेने और पाकिस्तान में एग्रीकल्चर्ल यूनिवर्सिटी के कर्मचारियों को फसली विभिन्नता के बारे में सिखाने के लिए फार्मरज़ इंस्टीट्यूट, पाकिस्तान की तरफ से दो बार निमंत्रण भेजा गया। उनकी ज्यादा ज़िंदगी यात्रा में ही गुज़री और वे बहुत सारे देशों जैसे कि यू एस ए, कैनेडा, मैक्सिको, थाइलैंड, इंगलैंड और पाकिस्तान में वैज्ञानिक किसान और प्रतीनिधि मैंबर के तौर पर गये और जब भी वे गये उन्होंने स्थानीय किसानों को टैक्नीकल जानकारी दी।

स. मोहिंदर सिंह गरेवाल एक बढ़िया लेखक भी हैं और उन्होंने खेतीबाड़ी की सफलता की कुंजी, तेरे बगैर ज़िंदगी कविताएं, रंग ज़िंदगी के स्वै जीवनी, ज़िंदगी एक दरिया और सक्सेसफुल साइंटिफिक फार्मिंग आदि शीर्षक के अधीन पांच किताबें लिखीं। उनके लेखन विदेशी अखबारों, नैशनल डेली, राज्य स्तरीय अखबार, खेतीबाड़ी मैगनीज़ और रोटरी मैगनीज़ आदि में छप चुकी हैं। उन्होंने मुफ्त आंखों का चैकअप कैंप, रोड सेफ्टी, खून दान कैंप, वृक्ष लगाओ, फील्ड डेज़ और मिट्टी टैस्ट जैसे प्रोजैक्टों का हिस्सा बनकर उन्होंने समाज सेवा में भी अपना हिस्सा डाला।

खेतीबाड़ी के क्षेत्र में मोहिंदर सिंह गरेवाल जी ने बहुत सफलता हासिल की और खेती के लिए ऊंचे मियार बनाये। उनकी प्राप्तियां अन्य किसानों के लिए जानकारी और प्रेरणा का स्त्रोत हैं।

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राजवीर सिंह

(डेरी फार्मिंग)

करनाल के एक छोटे डेयरी फार्म की सफलता की कहानी जो प्रतिदिन 800 लीटर दूध का उत्पादन करते हैं

यह राजवीर सिंह के डेयरी फार्म की उपलब्धियों और उनकी सफलता की कहानी है। करनाल जिले (हरियाणा) के एक छोटे से गांव से होने के कारण राजवीर सिंह ने कभी सोचा नहीं कि उनकी एच.एफ नस्ल की गाय लक्ष्मी को उच्च दूध उत्पादन के लिए राष्ट्रीय पुरस्कार से सम्मानित किया जाएगा।

राजवीर सिंह की लक्ष्मी गाय होल्स्टीन फ्रिसियन नस्ल की है जिस के दूध उत्पादन की क्षमता प्रति दिन 60 लीटर है जो अन्य एच.एफ नस्ल की गायों की तुलना में अधिक है। लक्ष्मी ने न केवल अपने उच्च दूध उत्पादन क्षमता के लिए पुरस्कार जीते हैं, बल्कि राष्ट्रीय स्तर पर कई पशु मेलों में अपनी सुंदरता के लिए भी पुरस्कार प्राप्त किए हैं। वह पंजाब नेशनल डेयरी फार्मिंग समारोह में एक ब्यूट चैंपियन रही है।

खैर, श्री राजवीर के फार्म पर लक्ष्मी सिर्फ एक उच्च दूध उत्पादक गाय है। उनके फार्म में कुल मिलाकर 75 पशु हैं, जिनसे राजवीर सिंह वार्षिक लगभग 15 लाख का लाभ कमा रहे हैं। उनका पूरा फार्म 1.5 एकड़ भूमि में बनाया गया है और विस्तारित किया गया है, जिस में आप 60 एच.एफ गाय, 10 जर्सी गाय, 5 साहीवाल गाय के अद्भुत दृश्य देख सकते है।

राजवीर सिंह के डेयरी फार्म पर दूध उत्पादन की कुल क्षमता 800 लीटर प्रति दिन की है। जिनमें से वे कुछ दूध बाजार में बेचते हैं और शेष अमूल डेयरी को बेचते हैं । उन्हें 8 साल हो गए है डेयरी फार्मिंग में सक्रिय रूप से शामिल हुए और अपने सभी प्रयासों और विशेषज्ञता के साथ वह अपनी गायों का ख्याल रखने की कोशिश करते है।

कोई भी कीमत राजवीर सिंह और उनकी गायों के बंधन को कमज़ोर नहीं बना सकती…

राजवीर सिंह अपनी गायें और डेयरी काम से बहुत जुड़े हुए है। एक बार उन्होंने बैंगलोर से आए एक बड़े व्यवसायी को 5 लाख रुपये में अपनी गाय लक्ष्मी बेचने से इनकार कर दिया। व्यवसायी ने गाय खरीदने के लिए राजवीर सिंह के फार्म का दौरा किया और लक्ष्मी के बदले में वह कोई भी राशि की देने के लिए तैयार थे, लेकिन लेकिन वे अपने फैसले पर अडिग थे और उन्होने उनके प्रस्ताव को खारिज कर दिया था।

राजवीर सिंह द्वारा लक्ष्मी को प्रदान की जाने वाली फ़ीड और देखभाल…

लक्ष्मी का जन्म राजवीर सिंह के फार्म में हुआ था, जिसके कारण राजवीर उससे बहुत जुड़े थे। लक्ष्मी आम तौर पर प्रति दिन 50 किलो हरा चारा, 2 किलो सूखा चारा और 14 किलो अनाज खाती है। फार्म में लक्ष्मी और अन्य जानवरों की देखभाल में लगभग 6 कर्मचारी रखे हुए हैं।

संदेश
“गायों की देखभाल एक बच्चे की तरह की जानी चाहिए। गायों को जो प्यार और देखभाल दी जाती है उसके प्रति वे बहुत प्रतिक्रियाशील रहती हैं। डेयरी किसानों को गायों की हर जरूरत का ख्याल रखना चाहिए, फिर ही वे अच्छा दूध उत्पादन प्राप्त कर सकते है।”

 

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राजविंदर पाल सिंह राणा

(मछली पालन)

कैसे एक किसान आधुनिक तकनीक से मछली पालन उद्योग का सश्क्तिकरण कर रहा है

कृषि पद्धतियां और कृषि की तकनीकें विश्व स्तर पर भिन्न हैं। दूसरी ओर नसल की विविधता और स्थान भी एक महत्तवपूर्ण भूमिका निभाते हैं और भारत जैसे देश में रहना जहां भूमि और जलवायु परिस्थितियां खेतीबाड़ी के पक्ष में है। यह किसानों के फायदे के लिए एक महत्तवपूर्ण मुद्दा है। लेकिन वह क्षेत्र जहां भारतीय किसान पीछे हैं वह है खेती करने की तकनीक। एक ऐसे किसान हैं – राजविंदर पाल सिंह राणा, जो विदेश से अपनी मातृभूमि में खेती की आधुनिक तकनीक लेकर आये। वे मंडियानी, लुधियाना, पंजाब के निवासी हैं।

श्री राणा के लिए 2000 में मछली पालन के क्षेत्र में कदम रखना पूरी तरह से नया था, लेकिन आज उनकी उपलब्धियों को देखकर कोई नहीं कह सकता कि उन्होंने मछली पालन 1.5 एकड़ की भूमि पर शुरू किया था। लेकिन इससे पहले उन्होंने एक मार्किटिंग व्यवसायी के तौर पर एक लंबा सफल रास्ता तय किया था। विज्ञापन और बिक्री प्रमोशन में ग्रेजुएट होने पर उन्होंने कोका कोला और जॉनसन एंड जॉनसन जैसी काफी अच्छी मान्यता प्राप्त ब्रांड के लिए कुछ वर्षों तक काम किया।

लेकिन संभवत: मार्किटिंग समर्थक के रूप में काम करना वह काम नहीं था जो वे अपनी ज़िंदगी में करना चाहते थे। उन्होनें अपनी ज़िंदगी में कुछ खोया हुआ महसूस किया और वापिस पंजाब लौटने का फैसला किया। पी ए यू के एक वरिष्ठ अधिकारी की सलाह लेने के बाद उन्होंने मछली पालन में अपना कैरियर बनाने का फैसला किया। उन्होंने अपने उद्याम को व्यापारिक मछली पालन उदयोग में बदलने से पहले पी ए यू और मछली पालन विभाग एजंसी लुधियाना में ट्रेनिंग ली।

16 वर्ष की अवधि में उनका कृषि उद्यम 70 एकड़ तक बढ़ा है और इन वर्षों में उन्होंने प्रत्येक वर्ष एक नए देश का दौरा किया ताकि मछली पालन में प्रयोग होने वाली आधुनिक और नई नकनीकों को सीख सकें।

“हॉलैंड और इज़रायल के लोग जानकारी शेयर करते हैं जबकि रूस के लोग थोड़े बहुत गोपनीय होते हैं। वे हंसते हुए कहते हैं।”

उनके आविष्कार :
शुरूआत से ही श्री राणा नई तकनीकों के बारे में जानने के लिए बहुत उत्सुक रहते थे। इसलिए अपने विदेशी खोजों के बाद श्री राणा ने नए अपनी तीव्र बुद्धि से मछली उत्पादों और मशीनरी का आविष्कार किया और उसे अपने खेत में लागू किया।

मशीन जो तालाब में मछली की वृद्धि ट्रैक करती है
हॉलैंड की यात्रा के अनुभव के बाद उन्होंने जिस पहली चीज़ का आविष्कार किया वह थी मछलियों के लिए एक टैग ट्रैकिंग मशीन। यह मशीन प्रत्येक मछली के टैगिंग और ट्रेसिंग में सहायता करती है। मूल रूप से यह एक डच मशीन है और एक साधारण किसान के लिए सस्ती नहीं है। इसलिए राजविंदर ने उस मशीन का भारतीय संस्करण का निर्माण किया। इस मशीन का उपयोग करके एक किसान मछली को ट्रैक कर सकता है और अन्य मछलियों को किसी भी जोखिम के मामले से बचा सकता

मछली की खाद
दूसरी चीज़ जिसका उन्होंने आवष्किार किया वह थी मछली की खाद। उन्होंने एक प्रक्रिया की खोज की जिसमें मछली के व्यर्थ पदार्थों को गुड़ और विघटित सामग्री के साथ एक गहरे गडढे में 45 दिनों के लिए रखा जाता है और फिर इसे सीधे इस्तेमाल किया जा सकता है और यह खाद बागबानी प्रयोजन के लिए काफी फायदेमंद है।

बाज़ार में बिक्री के लिए जीवित मछली रखने का उपकरण
जैसा कि हम सभी जानते हैं कि जीवित और ताजी मछलियों के अच्छे भाव मिलते हैं। इसलिए उन्होंने एक विशेष पानी की टंकी का निर्माण किया जिसे किसान आसानी से कहीं पर भी लेकर जा सकते हैं। इस टंकी में एक 12 वोल्ट डी सी की मोटर लगी है जो कि बाहर की हवा को पंप करती है जिससे मछलियां जीवित और ताजी रहती हैं।

मछली की त्वचा से बना फैशन सहायक उपकरण
मछली की त्वचा एक अम्ल जैसा पदार्थ छोड़ती है जिसके कारण मछली की त्वचा पानी में 24/7 चमकदार रहती है। इसलिए श्री राणा ने इसका उपयोग करने का फैसला किया और मछली की त्वचा को हटाने की बजाय उन्होंने इसे मोबाइल कवर बनाने का उपयोग किया। पी ए यू ने उनके इस प्रोजैक्ट को सफल बनाने में सहायता की। मछली की त्वचा से बने मोबाइल कवर बहुत फायदेमंद होते हैं क्योंकि वे मोबाइल विकिरण के उत्सर्जन को रोकते हैं और मनुष्यों को बुरे प्रभावों से बचाव करते हैं। उन्होंने यह भी समझा कि मछली की त्वचा का प्रयोग महिलाओं के बैग बनाने के लिए भी किया जा सकता है। इसके अलावा अंतर्राष्ट्रीय बाज़ार में मछली की त्वचा का मूल्य 600 यूरो प्रति इंच है। श्री राणा ने मोबाइल कवर पर पेटेंट के लिए आवेदन किया है और इस पर सरकार की स्वीकृति का इंतज़ार कर रहे हैं।

वे भारत के मछली उदयोग में होने वाली समस्याओं के बारे में भी बात करते हैं।-

“भारत के बैंक मछली प्रयोजन में कोई समर्थन नहीं करते। बिजली और पानी की उपलब्धता से संबंधित अन्य मुद्दे हैं। लेकिन किसानों के बीच साक्षरता का अभाव एक अन्य कारक है जो भारत में मछली पालन के क्षेत्र के विकास में बाधा पहुंचा रहा है।”

उनका मानना है कि इस विषय में भारत सरकार को ऐसे ट्रिप का आयोजन करना चाहिए जिसमें एक वैज्ञानिक और 9 किसानों के ग्रुप को ट्रेनिंग के लिए विदेशों में भेजा जाये।

वर्तमान में, राजविंदर अपने राज एक्वा वर्ल्ड फार्म (Raj Aqua World farm) पर व्यापारिक उद्देश्य के लिए रोहू, कतला और मुरक मछली की नस्लों को बढ़ा रहे हैं। कई अन्य साथी किसानों ने भी उनकी तकनीकों को अपनाकर लाभ प्राप्त किया है। उन्होंने अन्य किसानों के साथ मछली पालन में काफी अच्छी पार्टनरशिप की है और दूसरे राज्यों को बड़ी मात्रा में मछली बेच रहे हैं। सरकार उनसे सब्सिडी दरों पर मछलियां खरीद लेती है। यह सारी सफलता उनकी अपनायी गई नई तकनीकों, आविष्कारों और परीक्षण करने की योग्यता का नतीजा है।

भविष्य की योजना
वे भविष्य में एक्वापोनिक्स पर ध्यान केंद्रित करना चाहते हैं। उन्होंने इस बात पर ज़ोर दिया कि बेहतर परिणाम के लिए एक्वापोनिक्स में मछली की नस्ल का इस्तेमाल किया जाना चाहिए।


पुरस्कार और उपलब्धियां

• 2004-05 में मछली पालन में व्यर्थ पानी के सही उपयोग के लिए पी ए यू किसान क्लब की तरफ से Best Farmer of Punjab

• 2005-06 में श्री जगमोहन कंग की तरफ से पंजाब के सर्वश्रेष्ठ मछली पालक

• 2005-06 में Ministry of Animal Husbandry and Dairy Development and Fishery from Mr. Jagmohan Kang की तरफ से Best Fish Farmer of Punjab

• 2005 Fish Farmers Development Agency, Moga (35 qt.) द्वारा low level water harvesting technology में Best Production Award

• 2006-07 में water quality management के लिए सर्वश्रेष्ठ किसान पुरस्कार

• 2008-09 में मछलीपालन के पानी का भंडारण और एग्रीकल्चर के संसाधनों का दोबारा प्रयोग करने के लिए पुरस्कार

• 2010-2011 में मछली पालन में सीवेज़ पानी का सही उपयोग करने के लिए पुरस्कार

अवतार सिंह रतोल

(सब्जियों की खेती)

53 वर्षीय किसान – सरदार अवतार सिंह रतोल नई ऊंचाइयों को छू रहे हैं और बागबानी के क्षेत्र में दोहरा लाभ कमा रहे हैं।

खेती सिर्फ गायों और हल चलाने तक ही नहीं है बल्कि इससे कहीं ज्यादा है!

आज खेतीबाड़ी के क्षेत्र में, करने के लिए कई नई चीज़ें हैं जिसके बारे में सामान्य शहरी लोगों को नहीं पता है। बीज की उन्नत किस्मों का रोपण करने से लेकर खेतीबाड़ी की नई और आधुनिक तकनीकों को लागू करने तक, खेतीबाड़ी किसी रॉकेट विज्ञान से कम नहीं हैं और बहुत कम किसान हैं जो समझते हैं कि बदलते वक्त के साथ खेतीबाड़ी की पद्धति में बदलाव उन्हें कई भविष्य के खतरों को कम करने में मदद करता है। एक ऐसे ही संगरूर जिले के गांव सरोद के किसान – सरदार अवतार सिंह रतोल हैं जिन्होंने समय के साथ बदलाव के तथ्य को बहुत अच्छी तरह से समझा।

एक किसान के लिए 32 वर्षों का अनुभव बहुत ज्यादा है और सरदार अवतार सिंह रतोल ने अपने बागबानी के रोज़गार को एक सही दिशा में आकार देने में इसे बहुत अच्छी तरह इस्तेमाल किया है। उन्होंने 50 एकड़ में सब्जियों की खेती से शुरूआत की और धीरे-धीरे अपने खेतीबाड़ी के क्षेत्र का विस्तार किया। बढ़िया सिंचाई के लिए उन्होंने 47 एकड़ में भूमिगत पाइपलाइन लगाई जिसका उन्हें भविष्य में बहुत लाभ हुआ।

अपनी खेतीबाड़ी की उत्पादकता को बढ़ाने के लिए उन्होंने कृषि विज्ञान केंद्र और संगरूर में फार्म सलाहकार सेवा केंद्र से ट्रेनिंग ली। अपनी ट्रेनिंग के दौरान मिले ज्ञान से उन्होंने 4000 वर्ग फीट में दो बड़े हाई-टैक पॉलीहाउस का निर्माण किया और इसमें खीरे एवं जरबेरा फूल की खेती की। खीरे और जरबेरा की खेती से उनकी वर्तमान में वार्षिक आमदन 7.5 लाख रूपये है जो कि उनके खेतीबाड़ी उत्पादों के प्रबंध के लिए पर्याप्त से काफी ज्यादा है।

बागबानी सरदार अवतार सिंह रतोल के लिए पूर्णकालिक जुनून बन गया और बागबानी में अपनी दिलचस्पी को और बढ़ाने के लिए वे बागबानी की उन्नत तकनीकों को सीखने के लिए विदेश गए। विदेशी दौरे ने फार्म की उत्पादकता पर सकारात्मक प्रभाव डाला और सरदार अवतार सिंह रतोल ने आलू, मिर्च, तरबूज, शिमला मिर्च, गेहूं आदि फसलों की खेती में एक बड़ी सफलता हासिल की। इसके अलावा उन्होंने सब्जियों की नर्सरी तैयार करी और दूसरे किसानों को बेचनी भी शुरू कर दी।

उनकी उपलब्धियों की संख्या

पानी बचाने के लिए तुपका सिंचाई प्रणाली को अपनाना, सब्जियों के छोटे पौधों को लगाने के लिए एक छोटा ट्रांस प्लांटर विकसित करना और लो टन्ल तकनीक का प्रयोग उनकी कुछ उपलब्धियां हैं जिन्होंने उनकी शिमला मिर्च और कई अन्य सब्जियों की सफलतापूर्वक खेती करने में मदद की। अपने फार्म पर इन सभी आधुनिक तकनीकों को लागू करने में उन्हें कोई मुश्किल नहीं हुई जिसने उन्हें और तरक्की करने के लिए प्रेरित किया।

पुरस्कार
• दलीप सिंह धालीवाल मेमोरियल अवार्ड से सम्मानित।

• बागबानी में सफलता के लिए मुख्यमंत्री अवार्ड द्वारा सम्मानित।


संदेश
“बागबानी बहुत सारे नए खेती के ढंगों और प्रभावशाली लागत तकनीकों के साथ एक लाभदायक क्षेत्र है जिसे अपनाकर किसान को अपनी आय को बढ़ावा देने की कोशिश करनी चाहिए।”
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छेवांग नोर्फेल

(विविध खेती)

नक्ली ग्लेशियरों का निर्माण करके यह लद्दाखी व्यक्ति पहाड़ियों को कायम रख रहा है

छेवांग नोर्फेल— एक 83 वर्षीय व्यक्ति जिसे लखनऊ से सिविल इंजीनियरिंग में डिप्लोमा पूरा करने के बाद, जम्मू और कश्मीर में एक सिविल इंजीनियर के तौर पर सरकारी नौकरी में 36 वर्ष तक सेवा की। फिर वे सेहत खराब होने के कारण जल्दी सेवा मुक्त हो गए और अपने विरासती शहर लद्दाख में बस गए। पर समाज के लिए उनका काम अपनी रिटायरमैंट के बाद भी जारी रहा।

असाधारण नायक असल जीवन में भी होते हैं और जिस नायक के बारे में हम बात करने जा रहे हैं, उसके पास कोई भी शक्ति नहीं है, बल्कि उसके पास असाधारण हुनर, असाधारण ज्ञान, असाधारण समझदारी और असाधारण विद्वता है, जिससे उसने भारत के ठंडे मारूस्थल में खेतीबाड़ी को खत्म होने से बचा लिया।

एक ठंडी सुबह, श्री नोर्फेल अपने घर के बाहर बैठे हुए थे, जब उन्होंने देखा कि नदी में चलता पानी ठोस रूप से बदल रहा है और जैसे यह ज़मीन पर आकर गिरता है तो यह एक ठंडे बर्फीले बर्फ के गड्ढे के रूप में बदल जाता है।

लद्दाख में, आमतौर पर पानी के बहाव को रोकने के लिए टूटी को खुला रखा जाता है, ताकि पाइप को फटने से रोका जा सके।

यह उस समय हुआ जब श्री नोर्फेल जी को इसका अहसास हुआ और उन्होंने लद्दाख में पानी की समस्या को रोकने के लिए हल निकाला।

पिछले कुछ वर्षों से ग्लोबल वार्मिंग के प्रभाव को पिछले स्तर से 100 मीटर और उससे अधिक बर्फ की लाइन बना दी थी, जिस कारण बसंत ऋतु के शुरू में किसानों को अपनी ज़मीन की सिंचाई में बहुत मुश्किल हुई।

लद्दाख में सही बिजाई का समय अप्रैल से मई तक होता है, पर पिछले समय में पानी की कमी के कारण, किसान अपनी ज़मीन को सही ढंग से नम नहीं कर सकते और कोई बिजाई के समय में एक दिन भी देरी कैसे कर सकता है। इसके अलावा, जून में पहाड़ियों में ग्लेशियर का पानी आ जाता है, जिस से किसानों को बहुत देर होती है।

पर सिविल इंजीनियर, छेवांग नोर्फेल ने लद्दाख क्षेत्र के लोगों को राहत देने और मौसमी स्थिति को ठीक करने के लिए इस मुद्दे पर काम किया।

देर रात तक काम करके, उन्होंने हर चीज़ की योजना बनाई और अपने क्षेत्र के कुछ किसानों के साथ इस बारे में चर्चा की। इसके बाद 1994 में वे लेह पोषण प्रोजेक्ट में शामिल हो गए, जो सबसे पुराना है और 1978 से लद्दाख के वासियों की सेवा करता है।

छेवांग नोर्फेल — “जब मैं किसानों से अपने विचारों पर चर्चा की, उनमें से कुछ इस पर हस पड़े, पर उनमें से कई किसानों ने यह करने का विचार किया।”

अब तक, श्री नोर्फेल ने 10 ग्लेशियर बनाए, जिनमें से लद्दाख के सबसे छोटा उमला क्षेत्र में 500 फुट लंबा और सबसे बड़ा फुतसे इलाके में 2 किलोमीटर लंबा है।

नोर्फेल जी के नकली ग्लेशियर पहाड़ों से चलने वाले पानी को चलाने के लिए साधारण सिद्धांत पर आधारित है। पहाड़ी क्षेत्रों में पानी का प्रवाह बहुत तेज ढलानों वाला होता है, इसलिए नदियों में पानी जमता नहीं और इसे छांव वाले क्षेत्रों की तरफ मोड़ा जाता है। जहां सूर्य की किरणे सीधी नहीं पड़ती। जब पानी स्टोर करने वाली जगह पर पहुंचता है तो इसकी रफ्तार घटाने के लिए कम मात्रा में बांटा जाता है और फिर इसे बर्फ वाले पानी के रूप में बर्फ वाली दीवारों पर स्टोर कर लिया जाता है।

नकली ग्लेशियरों का निर्माण गांव के नज़दीक किया जाता है। ताकि जैसे ही बसंत ऋतु लद्दाख क्षेत्र से शुरू हो तो पानी खेतों तक जल्दी पहुंच सके। इस तरीके से एक महीने से अधिक समय के लिए बहुत सारा पानी खेतों तक पहुंचता है और गांव वासियों को चैन की सांस मिलती है।

पानी एक ऐसी ज़रूरत है जिसकी आवश्यकता हवा में पक्षियों और मिट्टी में कीड़े मकौड़ों को होती है। छेवांग नोर्फेल जी की इस पहल से, कुदरती तालाबों के निर्माण में 90000 रूपये का निवेश किया गया, जो आज गांव के 700 लोगों को पानी उपलब्ध करवाते हैं।

आज, लद्दाख में नोर्फेल जी के द्वारा कई सड़कों, सिंचाई प्रणालियों और अन्य बनतरें बनाई गई हैं। जिस कारण लद्दाख के लोगों के लिए वे एक सुपरहीरों हैं।

उनके काम के सम्मान में दिए गए कुछ शीर्षक और नाम हैं – वातावरण हीरो, आइसमैन और नकली ग्लेशियर बनाने वाला मनुष्य…

“पानी बचाने के बहुत सारे तरीके हैं, जैसे कि डैम, डाइवर्ज़न्स, चैक डैम आदि, पर नक्ली ग्लेशियम एक विलक्षण तरीका है …” इसलिए उन्होंने मुझे आइसमैन कहा — छेवांग नोर्फेन ने मुस्कुराते हुए बताया।

सबसे सुरक्षित स्वर्ग — लद्दाख को नोर्फेल जी की ऊंची सोच ने बचा लिया। कहा जाता है कि जब सोच ऊंची होती है तो मुसीबत और समस्याएं छोटी हो जाती हैं।
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हरतेज सिंह मेहता

(जैविक खेती)

जैविक खेती के लिए दूसरों को प्रोत्साहित करके बेहतर भविष्य के लिए एक आधार स्थापित कर रहे हैं

पहले जैविक एक ऐसा शब्द था जिसका प्रयोग बहुत कम किया जाता था। बहुत कम किसान थे जो जैविक खेती करते थे और वह भी घरेलु उद्देश्य के लिए। लेकिन समय के साथ लोगों को पता चला कि हर चमकीली सब्जी या फल अच्छा दिखता है लेकिन वह स्वास्थ्य के लिए अच्छा नहीं होता।

यह कहानी है – हरतेज सिंह मेहता की जिन्होंने 10 वर्ष पहले एक बुद्धिमानी वाला निर्णय लिया और वे इसके लिए बहुत आभारी भी हैं। हरतेज सिंह मेहता के लिए, जैविक खेती को जारी रखने का निर्णय उनके द्वारा लिया गया एक सर्वश्रेष्ठ निर्णय था और आज वे अपने क्षेत्र (मेहता गांव – बठिंडा) में जैविक खेती करने वाले एक प्रसिद्ध किसान हैं।

पंजाब के मालवा क्षेत्र, जहां पर किसान अच्छी उत्पादकता प्राप्त करने के लिए कीटनाशक और रसायनों का प्रयोग बहुत उच्च मात्रा में करते हैं। वहीं, हरतेज सिंह मेहता ने प्रकृति के साथ तालमेल बनाकर रखने को चुना। वे बचपन से ही अपने पैतृक व्यवसायों के प्रति समर्पित है और उनके लिए अपनी उपलब्धियों के बारे में फुसफुसाने से अच्छा, एक साधारण जीवन व्यतीत करना है।

उच्च योग्यता (एम.ए. पंजाबी, एम.ए. पॉलिटिकल साइंस) होने के बावजूद, उन्होंने शहरी जीवन और सरकारी नौकरी की बजाय जैविक खेती करने को चुना। वर्तमान में उनके पास 11 एकड़ ज़मीन है जिसमें वे कपास, गेहूं, सरसों, गन्ना, मसूर, पालक , मेथी, गाजर, मूली, प्याज, लहसुन और लगभग सभी सब्जियां उगाते हैं। वे हमेशा अपने खेतों को कुदरती तरीकों से तैयार करना पसंद करते हैं जिसमें कपास (F 1378), गेहूं (1482) और बंसी नाम के बीज अच्छे परिणाम देते हैं।

“अंसतोष, निरक्षरता और किसानों की उच्च उत्पादकता की इच्छा रासायनिक खादों और कीटनाशकों का उपयोग करने के लिए प्रेरित करती है, जिसके कारण किसान जो कि उद्धारकर्त्ता के रूप में जाने जाते हैं वे अब समाज को विष दे रहे हैं। आजकल किसान कीट प्रबंधन के लिए कीटनाशकों और रसायनों का इस्तेमाल करते हैं जो मिट्टी के मित्र कीटों और उपजाऊपन को नुकसान पहुंचाते हैं। वे इस बात से अवगत नहीं हैं कि वे अपने खेत में रसायनों को उपयोग करके पूरी खाद्य श्रंख्ला को विषाक्त बना रहे हैं। इसके अलावा, रसायनों और कीटनाशकों का उपयोग करके वे ना केवल पर्यावरण की स्थिति को बिगाड़ रहे हैं बल्कि कर्ज में बढ़ोतरी के कारण प्रमुख आर्थिक नुकसान का भी सामना कर रहे हैं।”– हरतेज सिंह ने कहा।

मेहता जी हमेशा खेती के लिए कुदरती ढंग को अपनाते हैं और जब भी उन्हें कुदरती खेती के बारे में जानकारी की आवश्यकता होती है तो वे अमृतसर के पिंगलवाड़ा सोसाइटी और एग्रीकल्चर हेरीटेज़ मिशन से संपर्क करते हैं। वे आमतौर पर गाय के मूत्र और पशुओं के गोबर का प्रयोग खाद बनाने के लिए करते हैं और यह मिट्टी के लिए भी अच्छा है और पर्यावरण अनुकूलन भी है।

मेहता जी के अनुसार कुदरती तरीके से उगाए गए भोजन के उपभोग ने उन्हें और उनके परिवार को पूरी तरह से स्वस्थ और रोगों से दूर रखा है। इसी कारण श्री मेहता का मानना है कि वे जैविक खेती के प्रति प्रेरित हैं और भविष्य में भी इसे जारी रखेंगे।

संदेश
“मैं देश भर के किसानों को एक ही संदेश देना चाहता हूं कि हमें निजी कंपनियों के बंधनों से बाहर आना चाहिए और समाज को स्वस्थ बनाने के लिए स्वस्थ भोजन प्रदान करने का वचन देना चाहिए।”

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नवरूप सिंह गिल

(जैविक खेती)

एक इंजीनियर की जीवन यात्रा जो किसान बन गया और कुदरत के तालमेल से मारूस्थल से भोजन प्राप्त कर रहा है

“खेती के गलत ढंगों से हम उपजाऊ भूमि को रेगिस्तान में बदल देते हैं। जब तक जैविक खेती की तरफ वापिस नहीं जाते और मिट्टी नहीं बचाते, तब तक तो हमारा कोई भविष्य नहीं” जग्गी वासुदेव

मिट्टी जीवों के लिए किसी जायदाद से कम नहीं है और सभी जीवों में से सिर्फ मनुष्य ही कुदरत की सबसे कीमती संपत्ति को प्रभावित करने या परिवर्तन करने में सक्षम है।

जग्गी वासुदेव के द्वारा बहुत सही कहा गया है कि हम खेती की गलत विधि का प्रयोग करके अपनी उपजाऊ ज़मीन को मारूस्थल में बदल रहे हैं। पर यहां हम एक व्यक्ति की कहानी को शेयर करने जा रहे हैं – नवरूप सिंह गिल, जो मिट्टी को अधिक उपजाऊ और कुदरती स्त्रोतों को कम जहरीला बनाकर मारूस्थल में से कुदरती तरीके से भोजन प्राप्त कर रहे हैं।

खेतीबाड़ी एक आशीर्वाद की तरह मनुष्य को प्राप्त हुई है, और इसे कुदरत के तालमेल से प्रयोग करके लोगों के कल्याण का खजाना हासिल किया जा सकता है। नवरूप सिंह गिल ने इस बात को बहुत अच्छी तरह समझा, बहुत समय पहले उन्होंने लोगों की तरक्की और कुदरत को बचाने के लिए कुदरती खेती की तरफ मुड़ने का फैसला किया।

नवरूप सिंह गिल विदेश में भी बहुत बढ़िया काम कर रहे थे, पर एक दिन उन्होंने भारत आकर अपने बड़े भाई के साथ खेतीबाड़ी में मदद करने का फैसला किया। जैसे ही उन्होंने जल्दी अपने आप को जीवन की समस्याओं के साथ जोड़ना शुरू किया। द्ढ़ता और आध्यात्मिक ज्ञान की लहर ने उन्हें एक नए रूप में बदल दिया।

“मेरा परिवार शुरू से ही खेतीबाड़ी के क्षेत्र में नहीं था। मेरे पिता जी कमलजीत सिंह गिल, एक बिज़नेसमैन थे और उन्होंने 1998 तक कपास की चिनाई और बुनाई की मिल चलायी। पर कुछ आर्थिक नुकसान और हालातों के कारण मिल बंद करनी पड़ी। उस समय हमने सोचा नहीं था कि यह बुरा अंत हमें एक अच्छी शुरूआत की तरफ ले जायेगा… उसके बाद मेरे पिता जी ने खेतीबाड़ी शुरू की और बड़े भाई की पढ़ाई पूरी होने के बाद, वह भी इस में शामिल हो गया। 2010 में मैं भी इस व्यवसाय में शामिल हो गया।”

पहले, नवदीप सिंह गिल कुदरती खेती करते थे, पर बड़े पैमाने पर नहीं। नवदीप ने छोटे भाई (नवरूप सिंह) की सहायता से धीरे-धीरे इसे बढ़ाना शुरू किया। एक-एक बचाया पैसा कुदरती खेती को बढ़ाने की तरफ कदम था।

एक और क्षेत्र, जिसमें नवरूप सिंह गिल जी का रूझान बना, वह था डेयरी फार्मिंग। यह उनका गायों के प्रति प्यार था। जिस कारण उन्होंने पशु पालन शुरू किया। उन्होंने शुरूआत में कुछ गायों से डेयरी फार्मिंग शुरू की और धीरे-धीरे फार्म में पशुओं की संख्या बढ़ायी।

2013 में “थार नैचुरल्ज़” का विचार दोनों भाइयों के मन में आया और फिर उन्होंने ज़मीन की तैयारी से कटाई करने तक के सभी व्यवसाय कुदरती तौर पर करने का फैसला किया। परिणामस्वरूप खेतों में रसायन और कीटनाशकों का प्रयोग करने वाले किसानों के मुकाबले उनकी फसल की पैदावार अधिक हुई। धीरे-धीरे “थार नैचुरल्ज़” प्रसिद्ध ब्रांड बन गया और गिल भाइयों ने अपने उत्पादों की सूची में और फसलें भी शामिल की।

यह नवरूप सिंह के सकारात्मक विचार और पारिवारिक सहयोग ही था, जिसने गिल परिवार को एक बार फिर शुरूआत करने में मदद की।

नवरूप सिंह और उनके परिवार के प्रयत्नों ने ही उनके कुदरती खेती के उद्यम को पहचान दिलाई और 2015 में कृषक सम्मान पुरस्कार मिला।

गिल परिवार को 2016 में भी कृषक सम्मान पुरस्कार के लिए नामांकित किया गया।

2016 में कमलजीत सिंह गिल के तीसरे और सबसे छोटे पुत्र (रमनदीप सिंह गिल) ने विदेश से वापिस आने का फैसला किया और अपने भाई के कारोबार में हाथ बंटाने का फैसला किया और इस तरह तिकड़ी पूरी हो गई।

नवरूप सिंह गिल – “गिल परिवार के लिए थार नैचुरल्ज़, कुदरती खेती को बड़े स्तर पर उत्साहित करने और राजस्थान के साथ-साथ अन्य राज्यों के किसानों को इससे जान पहचान करवाने का तरीका है कि कुदरती खेती के द्वारा उच्च पैदावार और अच्छी गुणवत्ता आसानी से प्राप्त की जा सकती है और थार नैचुरल्ज़ पूरे परिवार के प्रयत्नों के बिना संभव नहीं था।”

आज थार नैचुरल्ज़ में अनाज, दालें, बाजरा, फल और सब्जियों की अलग-अलग किस्में तैयार की जाती हैं। इसे चार श्रेणियों में बांटा जा सकता है खेतीबाड़ी, खाद, डेयरी और बागबानी। वे हरी मूंग, काले चने, मेथी के बीज, सफेद चने, एलोवेरा, सनई के बीज और कनौला तेल आदि का भी उत्पादन करते हैं। कुछ विशेष उत्पाद, जो कुदरती खेती को उत्साहित करने के लिए वे अपने खेतों में प्रयोग करते हैं जीव अमृत, जियान, वर्मीकंपोस्ट। वे डेयरी उत्पाद भी बेचते हैं जैसे कि साहिवाल गाय का दूध और देसी घी।

इस समय नवरूप सिंह गिल अपने परिवार के साथ राजस्थान के जिला श्री गंगानगर की तहसील राये सिंह में स्थित गांव 58 आर.बी. में रहते हैं। श्री मती संदीप कौर गिल (सुपत्नी नवदीप सिंह), श्री मती गुरप्रीत कौर गिल (सुपत्नी नवरूप सिंह) और श्री मती रमनदीप कौर गिल (सुपत्नी रमनदीप सिंह) थार नैचुरल के गुप्त सहायक मैंबर हैं और घर के मुख्य अधिकारी की भूमिका निभाते हैं।

फार्म के आंकड़े

खेती तकनीक – पानी के प्रबंधन के लिए मलचिंग
उपकरण – ट्रैक्टर, ट्रॉली, हैरो और डिस्क आदि जैसी सभी ज़रूरी मशीनरी उपलब्ध है।
फसलें – ग्वार, बाजरा, मूंगी काले चने , सफेद चने, मेथी, सनई।
बागबानी फसलें – किन्नू, मौसमी सब्जियां, कनौला

डेयरी फार्मिंग – गिल परिवार के पास डेयरी फार्म में 100 से अधिक साहिवाल नसल की गायें हैं। नवरूप सिंह जी कुछ श्रमिकों की मदद से स्वंय ही डेयरी फार्म की देख-रेख करते हैं।

संदेश

“कुदरती खेती किसानों के लिए लंबे समय तक सफलता हासिल करने का एकमात्र रास्ता है।”

नवरूप सिंह गिल उन किसानों के लिए एक प्रमुख उदाहरण हैं, जो भविष्य में स्वंय को खेतीबाड़ी के क्षेत्र में सफल बनाना चाहते हैं। थार नैचुरल्ज़ एक मिसाल है कि किस तरह रसायनों और उपचारित किए बीजों वाली खेती के मुकाबले कुदरती खेती से भी समान मुनाफा लिया जा सकता है।
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कांता देष्टा

(जैविक खेती)

एक किसान महिला जिसे यह अहसास हुआ कि किस तरह वह रासायनिक खेती से दूसरों में बीमारी फैला रही है और फिर उसने जैविक खेती का चयन करके एक अच्छा फैसला लिया

यह कहा जाता है, कि यदि हम कुछ भी खा रहे हैं और हमें किसानों का हमेशा धन्यवादी रहना चाहिए, क्योंकि यह सब एक किसान की मेहनत और खून पसीने का नतीजा है, जो वह खेतों में बहाता है, पर यदि वही किसान बीमारियां फैलाने का एक कारण बन जाए तो क्या होगा।

आज के दौर में रासायनिक खेती पैदावार बढ़ाने के लिए एक रूझान बन चुकी है। बुनियादी भोजन की जरूरत को पूरा करने की बजाय खेतीबाड़ी एक व्यापार बन गई है। उत्पादक और भोजन के खप्तकार दोनों ही खेतीबाड़ी के उद्देश्य को भूल गए हैं।

इस स्थिति को, एक मशहूर खेतीबाड़ी विज्ञानी मासानुबो फुकुओका ने अच्छी तरह जाना और लिखते हैं।

“खेती का अंतिम लक्ष्य फसलों को बढ़ाना नहीं है, बल्कि मानवता के लिए खेती और पूर्णता है।”

इस स्थिति से गुज़रते हुए, एक महिला- कांता देष्टा ने इसे अच्छी तरह समझा और जाना कि वह भी रासायनिक खेती कर बीमारियां फैलाने का एक साधन बन चुकी है और उसने जैविक खेती करने का एक फैसला किया।

कांता देष्टा समाला गांव की एक आम किसान थी जो कि सब्जियों और फलों की खेती करके कई बार उसे अपने रिश्तेदारों, पड़ोसियों और दोस्तों में बांटती थी। पर एक दिन उसे रासायनिक खादों के प्रयोग से पैदा हुए फसलों के हानिकारक प्रभावों के बारे में पता लगा तो उसे बहुत बुरा महसूस हुआ। उस दिन से उसने फैसला किया कि वह रसायनों का प्रयोग बंद करके जैविक खेती को अपनाएगी।

जैविक खेती के प्रति उसके कदम को और प्रभावशाली बनाने के लिए वह 2004 में मोरारका फाउंडेशन और खेतीबाड़ी विभाग द्वारा चलाए जा रहे एक प्रोग्राम में शामिल हो गई। उसने कई तरह के फल, सब्जियां, अनाज और मसाले जैसे कि सेब, नाशपाति, बेर, आड़ू, जापानी खुबानी, कीवी, गिरीदार, मटर, फलियां, बैंगन, गोभी, मूली, काली मिर्च, प्याज, गेहूं, उड़द, मक्की और जौं आदि को उगाना शुरू किया।

जैविक खेती को अपनाने पर उसकी आय पर सकारात्मक प्रभाव पड़ा और यह बढ़कर वार्षिक 4 से 5 लाख रूपये हुई। केवल यही नहीं, मोरारका फाउंडेशन की मदद से कांता देष्टा ने अपने गांव में महिलाओं का एक ग्रुप बनाया और उन्हें जैविक खेती के बारे में जानकारी प्रदान की, और उन्हें उसी फाउंडेशन के तहत रजिस्टर भी करवाया।

“मैं मानती हूं कि एक ग्रुप में लोगों को ज्ञान प्रदान करना बेहतर है क्योंकि इसकी कीमत कम है और हम एक समय में ज्यादा लोगों को ध्यान दे सकते हैं।”

आज उसका नाम सफल जैविक किसानों की सूची में आता है उसके पास 31 बीघा सिंचित ज़मीन है जिस पर वह खेती कर रही है और लाखों में लाभ कमा रही है। बाद में वह NONI यूनिवर्सिटी , दिल्ली, जयपुर और बैंगलोर में भी गई, ताकि जैविक खेती के बारे में अधिक जानकारी प्राप्त की जा सके और हिमाचल प्रदेश सरकार के द्वारा उसे उसके प्रयत्नों के लिए दो बार सरकारी पुरस्कारों से सम्मानित किया गया। शिमला में बेस्ट फार्मर अवार्ड के तौर पर सम्मानित किया गया और 13 जून 2013 को उसे जैविक खेती के क्षेत्र में योगदान के लिए प्रशंसा और सम्मान भी मिला।

एक बड़े स्तर पर इतनी प्रशंसा मिलने के बावजूद यह महिला अपने आप पूरा श्रेय नहीं लेती और यह मानती है कि उनकी सफलता का सारा श्रेय मोरारका फाउंडेशन और खेतीबाड़ी विभाग को जाता है। जिसने उसे सही रास्ता दिखाया और नेतृत्व किया।

खेती के अलावा, कांता के पास दो गायें और 3 भैंसें भी हैं और उसके खेतों में 30x8x10 का एक वर्मीकंपोस्टिंग प्लांट भी है जिस में वह पशुओं के गोबर और खेती के बचे कुचे को खाद के तौर पर प्रयोग करती है। वह भूमि की स्थितियों में सुधार लाने के लिए और खर्चों को कम करने के लिए कीटनाशकों के स्थान पर हर्बल स्प्रे, एप्रेचर वॉश, जीव अमृत और NSDL का प्रयोग करती है।

अब, कांता अपने रिश्तेदारों और दोस्तों में सब्जियां और फल बांटने के दौरान खुशी महसूस करती है क्योंकि वह जानती है कि जो वह बांट रही है वह नुकसानदायक रसायनों से मुक्त है और इसे खाकर उसके रिश्तेदार और दोस्त सेहतमंद रहेंगे।

कांता देष्टा की तरफ से संदेश –
“यदि हम अपने पर्यावरण को साफ रखना चाहते हैं तो जैविक खेती बहुत महत्तवपूर्ण है।”

 

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कृष्ण दत्त शर्मा

(जैविक खेती)

जानें कैसे जैविक खेती ने कृष्ण दत्त शर्मा को कृषि के क्षेत्र में सफल बनाने में मदद की

जीवन में ऐसी परिस्थितियां आती हैं, जो लोगों को अपने जीवन के खोये हुए उद्देश्य का एहसास करवाती हैं और इसे प्राप्त करने के लिए प्रेरित करती हैं। यही चीज़ चिखड़ गांव, (शिमला) के साधारण किसान कृष्ण दत्त शर्मा, के साथ हुई और उन्हें जैविक खेती को अपनाने के लिए प्रेरित किया।

जैविक खेती में कृष्ण दत्त शर्मा की उपलब्धियों ने उन्हें इतना लोकप्रिय बना दिया है कि आज उनका नाम कृषि के क्षेत्र में महत्तवपूर्ण लोगों की सूची में गिना जाता है।

यह सब शुरू हुआ जब कृष्ण दत्त शर्मा को कृषि विभाग की तरफ से हैदराबाद (11 नवंबर, 2002) का दौरा करने का मौका मिला। इस दौरे के दौरान उन्होंने जैविक खेती के बारे में काफी कुछ सीखा। वे जैविक खेती के बारे में और अधिक जानने के लिए उत्सुक थे और इसे अपनाना भी चाहते थे।

मोरारका फाउंडेशन (2004 में) के संपर्क में आने के बाद उनका जुनून और विचार अमल में आया। उस समय तक वे कृषि क्षेत्र में रसायनों के बढ़ते उपयोग के प्रतिकूल प्रभावों के बारे में अच्छी तरह से जान चुके थे और इससे वे बहुत परेशान और चिंतित थे। जैसे कि वे जानते थे कि आने वाले भविष्य में उन्हें खाद और कीटनाशकों के परिणाम का सामना करना पड़ेगा इसलिए उन्होंने जैविक खेती को पूरी तरह से अपनाने का फैसला किया।

उनके पास कुल 20 बीघा ज़मीन है, जिसमें से 5 बीघा सिंचित क्षेत्र हैं और 15 बीघा बारानी क्षेत्र हैं। शुरूआत में उन्होंने बागबानी विभाग से सेब का एक मुख्य पौधा खरीदा और उस पौधे से उन्होंने अपने पूरे बाग में सेब के 400 पौधे लगाए। उन्होंने नाशपाती के 20 वृक्ष, चैरी के 20 वृक्ष, आड़ू के 10 वृक्ष और अनार के 15 वृक्ष भी उगाए। फलों के साथ साथ उन्होंने सब्जियां जैसे फूल गोभी, मटर, फलियां, शिमला मिर्च और ब्रोकली भी उगायी।

आमतौर पर कीटनाशकों और रसायनों से उगायी जाने वाले ब्रोकली की फसल आसानी से खराब हो जाती है, लेकिन कृष्ण दत्त शर्मा द्वारा जैविक तरीके से उगाई गई ब्रोकली का जीवन काफी ज्यादा है। इस कारण किसान अब ब्रोकली को जैविक तरीके से उगाते हैं और उसे बिक्री के लिए दिल्ली की मंडी में ले जाते हैं। इसके अलावा जैविक तरीके से उगाई गई ब्रोकली की बिक्री 100-150 रूपये प्रति किलो के हिसाब से होती है और इसी को अगर किसानों की आय में जोड़ दिया जाये तो उनकी आय 500000 तक पहुंच जाती है, और इस छ अंकों की आमदनी में आधा हिस्सा ब्रोकली की बिक्री से आता है।

जैविक खेती की तरफ अन्य किसानों को प्रेरित करने के लिए कृष्ण दत्त शर्मा ने अपने नेतृत्व में अपने गांव में एक ग्रुप बनाया है। उनकी इस पहल ने कई किसानों को जैविक खेती अपनाने के लिए प्रेरित किया है।

जैविक खेती के क्षेत्र में कृष्ण दत्त शर्मा की उपलब्धियां काफी बड़ी हैं और यहां तक कि हिमाचल सरकार ने उन्हें जून 2013 में, “Organic Fair and Food Festival” में सर्वश्रेष्ठ किसान पुरस्कार से सम्मानित भी किया है। लेकिन अपनी नम्रता के कारण वे अपनी सफलता का सारा श्रेय मोरारका फाउंडेशन और कृषि विभाग को देते हैं।

वे अपने खेत और बगीचे में गाय (3), बैल (1) और बछड़े (2) के गोबर का उपयोग करते हैं और वे अच्छी उपज के लिए वर्मी कंपोस्ट भी खुद तैयार करते हैं। उन्होंने अपने खेत में 30 x 8 x 10 के बैड तैयार किए हैं जहां पर वे प्रति वर्ष 250 केंचुओं की वर्मी कंपोस्ट तैयार करते हैं। कीटनाशकों के स्थान पर वे हर्बल स्प्रे, एपर्चर वॉश, जीवामृत और NSDL का उपयोग करते हैं। इस तरह रासायनिक कीटनाशकों के स्थान पर कुदरती कीटनाशकों ने प्रयोग से उनकी ज़मीन की स्थितियों में सुधार हुआ और उनके खर्चे भी कम हुए।

संदेश:
बेहतर भविष्य और अच्छी आय के लिए वे अन्य किसानों को जैविक खेती अपनाने के लिए प्रेरित करना चाहते हैं।
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यादविंदर सिंह

(सब्जियों की खेती)

पंजाब के इस किसान ने गेहूं-धान की पारंपरिक खेती के स्थान पर एक सर्वश्रेष्ठ विकल्प चुना और इससे दोहरा लाभ कमा रहे हैं

पंजाब में जहां आज भी धान और गेहूं की खेती जारी है वहीं कुछ किसानों के पास अभी भी विकल्पों की कमी है। किसानों के पास भूमि का एक छोटा टुकड़ा होता है और कम जागरूकता वाले किसान अभी भी गेहूं और धान के पारंपरिक चक्र में फंसे हुए हैं। लेकिन बठिंडा जिले के चक बख्तू गांव के यादविंदर सिंह ने खेतीबाड़ी की पुरानी पद्धति को छोड़कर नर्सरी की तैयारी और सब्जियों की जैविक खेती शुरू की।

अपने लाखों सपनों को पूरा करने की इच्छा रखने वाले एक युवा यादविंदर सिंह ने अपनी ग्रेजुएशन के बाद होटल मैनेजमेंट में अपना डिप्लोमा पूरा किया और उसके बाद दो साल के लिए सिंगापुर में एक प्रतिष्ठित शेफ रहे। लेकिन वे अपने काम से खुश नहीं थे और सब कुछ होने के बावजूद भी अपने जीवन में कुछ कमी महसूस करते थे। इसलिए वे वापिस पंजाब आ गए और पूरे निश्चय के साथ खेतीबाड़ी के क्षेत्र में प्रवेश करने का फैसला किया।

2015 में उन्होंने अपना जैविक उद्यम शुरू किया लेकिन इससे पहले उन्होंने भविष्य के नुकसान से बचने के लिए बुद्धिमानी से काम लिया। अपनी चतुराई का प्रयोग करते हुए उन्होंने इंटरनेट की मदद ली और किसान मेलों में भाग लिया और जैविक सब्जियों को नर्सरी में तैयार करना शुरू किया। अपने ब्रांड को बढ़ावा देने के लिए यादविंदर ने अपने व्यापार का लोगो (LOGO) भी डिज़ाइन किया।

अपने खेतीबाड़ी उद्यम के पहले वर्ष उन्होंने 1 लाख कमाया और आज वे सिर्फ 2 कनाल (5 एकड़) से 2.5 लाख से भी ज्यादा कमा रहे हैं। खेतीबाड़ी के साथ उन्होंने नर्सरी प्रबंधन भी शुरू किया जिसमें कि बीज की तैयारी, मिट्टी प्रबंधन शामिल है। यहां तक कि उन्हें नए पौधे बेचने के लिए मार्किट जाने की भी जरूरत नहीं पड़ती क्योंकि पौधे खरीदने के लिए किसान स्वंय उनके फार्म का दौरा करते हैं।

आज यादविंदर सिंह अपने व्यवसाय और अपनी आमदन से बहुत खुश हैं। भविष्य में वे अपनी खेतीबाड़ी के व्यवसाय को बढ़ाना चाहते हैं और अच्छा मुनाफा कमाने के लिए कुछ और फसलें उगाना चाहते हैं।

संदेश:
“हम जानते हैं कि सरकार साधारण किसानों के समर्थन के लिए पर्याप्त प्रयास नहीं करती। लेकिन किसानों को निराश नहीं होना चाहिए क्योंकि मजबूत दृढ़ संकल्प और सही दृष्टिकोण से वे जो चाहें प्राप्त कर सकते हैं।”

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गुरप्रीत शेरगिल

(फूलों की खेती)

जानिये कैसे ये किसान पंजाब में फूलों की खेती में क्रांति ला रहे हैं

हाल के वर्षों में, भारत में उभरते कृषि व्यवसाय के रूप में फूलों की खेती उभर कर आई है और निर्यात में 20 प्रतिशत वार्षिक वृद्धि फूलों के उद्योग में देखी गई है। यह भारत में कृषि क्षेत्र के विकास का प्रतिनिधित्व करने वाला एक अच्छा संकेत है जो कुछ महान प्रगतिशील किसानों के योगदान के कारण ही संभव हुआ है।

1996 वह वर्ष था जब पंजाब में फूलों की खेती में क्रांति लाने वाले किसान गुरप्रीत सिंह शेरगिल ने फूलों की खेती की तरफ अपना पहला कदम रखा और आज वे कई प्रतिष्ठित निकायों से जुड़ें फूलों की पहचान करने वाले प्रसिद्ध व्यक्ति हैं।

गुरप्रीत सिंह शेरगिल – “1993 में मकैनीकल इंजीनियरिंग में अपनी डिग्री पूरी करने के बाद, मैं अपने पेशे के चयन को लेकर उलझन में था। मैं हमेशा से ऐसा काम करता चाहता था जो मुझे खुशी दे ना कि वह काम जो मुझे सांसारिक सुख दे।”

गुरप्रीत सिंह शेरगिल ने कृषि के क्षेत्र का चयन किया और साथ ही उन्होंने डेयरी फार्मिंग अपने पूर्ण कालिक पेशे के रूप में शुरू किया। वे कभी भी अपने काम से संतुष्टि नहीं महसूस करते थे जिसने उन्हें अधिक मेहनती और गहराई से सोचने वाला बनाया। यह तब हुआ जब उन्हें एहसास हुआ कि वे गेहूं — धान के चक्र में फंसने के लिए यहां नहीं है और इसे समझने में उन्हें 3 वर्ष लग गए। फूलों ने हमेशा ही उन्हें मोहित किया इसलिए अपने पिता बलदेव सिंह शेरगिल की विशेषज्ञ सलाह और भाई किरनजीत सिंह शेरगिल के समर्थन से उन्होंने फूलों की खेती करने का फैसला किया। गेंदे के फूलों की उपज उनकी पहली सफल उपज थी जो उन्होंने उस सीज़न में प्राप्त की थी।

उसके बाद कोई भी उन्हें वह प्राप्त करने से रोक नहीं पाया जो वे चाहते थे… एक मुख्य व्यक्ति जिसे गुरप्रीत सिंह पिता और भाई के अलावा मुख्य श्रेय देते हैं वे हैं उनकी पत्नी। वे उनके खेती उद्यम में उनकी मुख्य स्तंभ है।

गेंदे के उत्पादन के बाद उन्होंने ग्लैडियोलस, गुलज़ाफरी, गुलाब, स्टेटाइस और जिप्सोफिला फूलों का उत्पादन किया। इस तरह वे आम किसान से प्रगतिशील किसान बन गए।

उनके विदेशी यात्राओं के कुछ आंकड़े

2002 में, जानकारी के लिए उनके सवाल उन्हें हॉलैंड ले गए, जहां पर उन्होंने फ्लोरीएड (हर 10 वर्षों के बाद आयोजित अंतर्राष्ट्रीय फूल प्रदर्शनी) में भाग लिया।

उन्होंने आलसमीर, हॉलैंड में ताजा फूलों के लिए दुनिया की सबसे बड़ी नीलामी केंद्र का भी दौरा किया।

2003 में ग्लासगो, यू.के. में विश्व गुलाब सम्मेलन में भी भाग लिया।

कैसे उन्होंने अपनी खेती की गतिविधियों को विभिन्नता दी

अपने बढ़ते फूलों की खेती के कार्य के साथ, उन्होंने वर्मीकंपोस्ट प्लांट की स्थापना की और अपनी खेती गतिविधियों में मछली पालन को शामिल किया।

वर्मीकंपोस्ट प्लांट उन्हें दो तरह से समर्थन दे रहा है— वे अपने खेतों में खाद का प्रयोग करने के साथ साथ इसे बाजार में भी बेच रहे हैं।

उन्होंने अपने उत्पादों की श्रृंख्ला बनाई है जिसमें गुलाब जल, गुलाब शर्बत, एलोवेरा और आंवला रस शामिल हैं। कंपोस्ट और रोज़वॉटर ब्रांड नाम “बाल्सन” और रोज़ शर्बत, एलोवेरा और आंवला रस “शेरगिल फार्म फ्रेश” ब्रांड नाम के तहत बेचे जाते हैं।

अपनी कड़ी मेहनत और समर्पण के साथ उन्होंने कृषि के लिए अपने जुनून को एक सफल व्यवसाय में बदल दिया।

कृषि से संबंधित सरकारी निकायों ने जल्दी ही उनके प्रयत्नों को पहचाना और उन्हें कई पुरस्कारों से सम्मानित किया जिनमें से कुछ प्रमुख पुरस्कार हैं:

• 2011 में पी.ए.यू लुधियाना द्वारा पंजाब मुख्य मंत्री पुरस्कार

• 2012 में आई.सी.ए.आर, नई दिल्ली द्वारा जगजीवन राम अभिनव किसान पुरस्कार

• 2014 में आई.सी.ए.आर, नई दिल्ली द्वारा एन जी रंगा किसान पुरस्कार

• 2015 में आई.ए.आर.आई, नई दिल्ली द्वारा अभिनव किसान पुरस्कार

• 2016 में आई.ए.आर.आई, नई दिल्ली द्वारा किसान के प्रोग्राम के लिए राष्ट्रीय सलाहकार पैनल के सदस्य के लिए नामांकित हुए।

यहां तक कि, बहुत कुछ हासिल करने के बाद, गुरप्रीत सिंह शेरगिल अपनी उपलब्धियों को लेकर कभी शेखी नहीं मारते। वे एक बहुत ही स्पष्ट व्यक्ति हैं जो हमेशा ज्ञान प्राप्त करने के लिए विभिन्न सूचना स्त्रोतों की तलाश करते हैं और इसे अपनी कृषि तकनीकों में जोड़ते हैं। इस समय, वे आधुनिक खेती,फ्लोरीक्लचर टूडे, खेती दुनिया आदि जैसी कृषि पत्रिकाओं को पढ़ना पसंद करते हैं। वे कृषि मेलों और समारोह में भी सक्रिय रूप से भाग लेते हैं। वे ज्ञान को सांझा करने में विश्वास रखते हैं और जो किसान उनके पास मदद के लिए आता है उसे कभी भी निराश नहीं करते। किसान समुदाय की मदद के लिए वे अपने ज्ञान का योगदान करके अपनी खेती विशेषज्ञ के रूप में एक प्रमुख भूमिका निभा रहे हैं।

गुरप्रीत शेरगिल ने यह करके दिखाया है कि यदि कोई व्यक्ति काम के प्रति समर्पित और मेहनती है तो वह कोई भी सफलता प्राप्त कर सकता है और आज के समय में जब किसान घाटों और कर्ज़ों की वजह से आत्महत्या कर रहे हैं तो वे पूरे कृषि समाज के लिए एक मिसाल के रूप में खड़े हैं, यह दर्शाकर कि विविधीकरण समय की जरूरत है और साथ ही साथ कृषि समाज के लिए बेहतर भविष्य का मार्ग भी है।

उनके विविध कृषि व्यवसाय के बारे में और जानने के लिए उनकी वैबसाइट पर जायें।
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गुरदीप सिंह नंबरदार

(मशरूम की खेती)

मशरूम की खेती में गुरदीप सिंह जी की सफलता की कहानी

गांव गुराली, जिला फिरोजपुर (पंजाब) में स्थित पूरे परिवार की सांझी कोशिश और सहायता से, गुरदीप सिंह नंबरदार ने मशरूम के क्षेत्र में सफलता प्राप्त की। अपने सारे स्त्रोतों और दृढ़ता को एकत्र कर, उन्होंने 2003 में मशरूम की खेती शुरू की थी और अब तक इस सहायक व्यवसाय ने 60 परिवारों को रोज़गार दिया है।

वे इस व्यवसाय को छोटे स्तर पर शुरू करके धीरे धीरे उच्च स्तर की तरफ बढ़ा रहे हैं, आज गुरदीप सिंह जी ने एक सफल मशरूम उत्पादक की पहचान बना ली है और इसके साथ उन्होंने एक बड़ा मशरूम फार्म भी बनाया है। मशरूम के सफल किसान होने के अलावा वे 20 वर्ष तक अपने गांव के सरपंच भी रहे।

उन्होंने इस उद्यम की शुरूआत पी.ए.यू. द्वारा दिए गए सुझाव के अनुसार की और शुरू में उन्हें लगभग 20 क्विंटल तूड़ी का खर्चा आया। आज 2003 के मुकाबले उनका फार्म बहुत बड़ा है और अब उन्हें वार्षिक लगभग 7 हज़ार क्विंटल तूड़ी का खर्चा आता है।

उनके गांव के कई किसान उनकी पहलकदमी से प्रेरित हुए हैं। मशरूम की खेती में उनकी सफलता के लिए उन्हें जिला प्रशासन के सहयोग से खेतीबाड़ी विभाग, फिरोजपुर द्वारा उनके गांव में आयोजित प्रगतिशील किसान मेले में उच्च तकनीक खेती द्वारा मशरूम उत्पादन के लिए जिला स्तरीय पुरस्कार से भी सम्मानित किया गया।

संदेश
“मशरूम की खेती कम निवेश वाला लाभदायक उद्यम है। यदि किसान बढ़िया कमाई करना चाहते हैं तो उन्हें मशरूम की खेती में निवेश करना चाहिए।”

 

बलदेव सिंह बराड़

(बागबानी)

बलदेव सिंह बराड़ जो 80 वर्ष के हैं लेकिन उनका दिल और दिमाग 25 वर्षीय युवा का है

वर्ष 1960 का समय था जब अर्जन सिंह के पुत्र बलदेव सिंह बराड़ ने खेतीबाड़ी शुरू की थी और यह वही समय था जब हरी क्रांति अपने चरम समय पर थी। तब से ही खेती के लिए ना तो उनका उत्साह कम हुआ और ना ही उनका जुनून कम हुआ।

गांव सिंघावाला, तहसील मोगा, पंजाब की धरती पर जन्मे और पले बढ़े बलदेव सिंह बराड़ ने कृषि के क्षेत्र में काफी उपलब्धियां हासिल की और खेतीबाड़ी विभाग, फिरोजपुर से कई पुरस्कार जीते।

उन्होंने कृषि विज्ञान केंद्र, मोगा पंजाब के कृषि वैज्ञानिक से सलाह लेते हुए पहल के आधार पर खेती करने का फैसला किया। उनका मुख्य ध्यान विशेष रूप से गेहूं और ग्वार की खेती की तरफ था। और कुछ समय बाद धान को स्थानांतरित करते हुए उनका ध्यान पोपलर और पपीते की खेती की तरफ बढ़ गया। अधिक लाभ प्राप्त करने के लिए 1985 में 9 एकड़ में किन्नुओं की खेती और 3 एकड़ में अंगूर की खेती करके उनका ध्यान बागबानी की तरफ भी बढ़ा। घरेलु उद्देश्य के लिए उन्होंने अलग से फल और सब्जियां उगायीं। कुल मिलाकर उनके पास 37 एकड़ ज़मीन है जिसमें से 27 एकड़ उनकी अपनी है और 10 एकड़ ज़मीन उन्होंने ठेके पर ली है।

उनकी उपलब्धियां:

बलदेव सिंह बराड़ की दिलचस्पी सिर्फ खेती की तरफ ही नहीं थी परंतु खेतीबाड़ी पद्धति को आसान बनाने के लिए मशीनीकरण की तरफ भी थी। एक बार उन्होंनें मोगा की इंडस्ट्रियल युनिट को कम लागत पर धान की कद्दू करने वाली मशीन विकसित करने के लिए तकनीकी सलाह भी दी और वह मशीन आज बहुत प्रसिद्ध है।

उन्होंने एक शक्तिशाली स्प्रिंग कल्टीवेटर भी विकसित किया जिसमें कटाई के बाद धान के खेतों में सख्त परत को तोड़ने की क्षमता होती है।

वैज्ञानिकों की सलाह मान कर उसे लागू करना उनका अब तक का सबसे अच्छा कार्य रहा है जिसके द्वारा वो अब अच्छा मुनाफा भी कमा रहे हैं। वे हमेशा अपनी आय और खर्चे का पूरा दस्तावेज रखते हैं। और उन्होंने कभी अपनी जिज्ञासा को खत्म नहीं होने दिया। कृषि के क्षेत्र में होने वाले नए आविष्कार और नई तकनीकों को जानने के लिए वे हमेशा किसान मेलों में जाते हैं। अच्छे परिणामों के लिए वैज्ञानिक खेती की तरफ वे दूसरे किसानों को भी प्रेरित करते हैं।

संदेश
“एक किसान राष्ट्र का निर्माण करता है। इसलिए उसे कठिनाइयों के समय में कभी भी हिम्मत नहीं हारनी चाहिए और ना ही निराश होना चाहिए। एक किसान को आधुनिक पर्यावरण अनुकूलित तकनीकों को अपनाना चाहिए तभी वह प्रगति कर सकता है और अपनी ज़मीन से अच्छी उपज प्राप्त कर सकता है।”
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रत्ती राम

(सब्जियों की खेती)

एक उम्मीद की किरण जिसने रत्ती राम की खेतीबाड़ी को एक लाभदायक उद्यम में बदल दिया

रत्ती राम मध्य प्रदेश के हिनोतिया गांव के एक साधारण सब्जियां उगाने वाले किसान हैं। उन्नत तकनीकों और सरकारी स्कीमों का लाभ लेकर उन्होंने अपना सब्जियों का फार्म स्थापित किया जिससे कि आज वे करोड़ों में लाभ कमा रहे हैं। लेकिन यदि हम पहले की बात करें तो रत्ती राम एक हारे हुए किसान थे जिनके लिए जूते खरीदना भी मुश्किल काम था। आज उनके पास अपनी बाइक है जिसे वे गर्व से अपने गांव में चलाते हैं।

हालांकि रत्ती राम के पास खेती के लिए कम भूमि थी लेकिन जल संसाधनों की कमी ने उनके प्रयासों और भूमि के बीच प्रमुख हस्तक्षेप का काम किया। बारिश के मौसम में जब वे खेती करने की कोशिश करते थे तब अत्याधिक बारिश उनकी फसलों को खराब कर देती थी। ये सभी जलवायु परिस्थितियों और अन्य खमियां उनकी आर्थिक स्थिति खराब होने का मुख्य कारण थी।

कम आमदन जो उन्हें खेती से प्राप्त होती थी उसे वे परिवार की ज़रूरतों को पूरा करने में खर्च कर देते थे और ये स्थितियां कई वित्तीय समस्याओं को जन्म दे रही थीं लेकिन एक दिन रत्ती राम को बागबानी विभाग के बारे में पता चला और वे नंगे पांव अपने गांव हिनोतिया के कलेक्टर राजेश जैन के ऑफिस जिला मुख्यालय (Head Quarter) की तरफ चल दिए। जब कलेक्टर ने रत्ती राम को देखा तो उन्होंने उनके दर्द को महसूस किया और अगला कदम जो उन्होंने उठाया, उसने रत्ती राम की ज़िंदगी को बदल दिया।

कलेक्टर ने रत्ती राम को बागबानी विभाग के अधिकारी के पास भेजा, जहां श्री रत्ती को विभिन्न बागबानी योजनाओं के बारे में पता चला। उन्होंने अमरूद, आंवला, हाइब्रिड टमाटर, भिंडी, आलू, लहसुन, मिर्च आदि के बीज लिए और बागबानी योजनाओं और सब्सिडी की मदद से उन्होंने ड्रिप सिंचाई प्रणाली, स्प्रेयर, बिजली स्प्रे पंप, पावर ड्रिलर की भी स्थापना की। इसके अलावा, कलेक्टर ने उन्हें सब्सिडी दर के तहत एक पैक हाउस लगाने में मदद की।

रत्ती राम ने नई तकनीकों का इस्तेमाल करके सब्जियों की खेती शुरू कर दी और एक साल में रत्ती राम ने 1 करोड़ का शुद्ध लाभ कमाया जिससे उन्होंने मैटाडोर वैन, दो बाइक और दो ट्रैक्टर खरीदे। वाहनों में निवेश करने के अलावा उन्होंने अन्य संसाधनों में भी निवेश किया और 3 पानी के कुएं बनवाए, 12 ट्यूबवैल और 4 घर विभिन्न स्थानों पर खरीदे। उन्होंने खेती के लिए 20 एकड़ भूमि खरीदकर अपनी खेती के क्षेत्र का विस्तार किया और किराये पर 100 एकड़ ज़मीन ली। आज वे अपने परिवार के साथ खुशी से रह रहे हैं और कुछ समय पहले उन्होंने अपने दो बेटों और एक बेटी की शादी भी धूमधाम से की।

रत्ती राम भारत में उन सभी किसानों के लिए एक आदर्श हैं जो खुद को असहाय और अकेला महसूस करते हैं और उम्मीदों को खो बैठते हैं, क्योंकि रत्ती राम ने अपने मुश्किल समय में कभी भी अपनी उम्मीद को नहीं छोड़ा।
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गुरचरन सिंह मान

(मधुमक्खी पालन)

जानें कैसे गुरचरन सिंह मान ने विविध खेती और अन्य सहायक गतिविधियों के द्वारा अपनी ज़मीन से अधिकतम उत्पादकता ली

भारत में विविध खेती का रूझान इतना आम नहीं है। गेहूं, धान और अन्य पारंपरिक फसलें जैसे जौं आदि मुख्य फसलें हैं जिन्हें किसान उगाने के लिए पहल देते हैं। वे इस तथ्य से अनजान है कि परंपरागत खेती ना केवल मिट्टी के उपजाऊपन को प्रभावित करती है बल्कि किसान को भी प्रभावित करती है और कभी कभी यह उन्हें कमज़ोर भी बना देती है। दूसरी ओर विविध खेती को यदि सही ढंग से किया जाए तो इससे किसान की आय में बढ़ोतरी होती है। एक ऐसे ही किसान – गुरचरन सिंह संधु जिन्होंने विविध खेती की उपयोगिता को पहचाना और इसे उस समय लागू करके लाभ कमाया जब उनकी आर्थिक स्थिति बिल्कुल ही खराब थी।

गुरचरन सिंह संधु बठिंडा जिले के तुंगवाली गांव के एक साधारण से किसान थे। जिस स्थान से वे थे वह बहुत ही शुष्क और अविकसित क्षेत्र था लेकिन उनकी मजबूत इच्छा शक्ति के सामने ये बाधाएं कुछ भी नहीं थी।

1992 में युवा उम्र में उन्होंने अपनी पढ़ाई छोड़ दी और खेती करनी शुरू की। उनके पास पहले से ही 42 एकड़ ज़मीन थी लेकिन वे इससे कभी संतुष्ट नहीं थे। शुष्क क्षेत्र होने के कारण गेहूं और धान उगाना उनके लिए एक सफल उद्यम नहीं था। कई कोशिश करने के बाद जब गुरचरन पारंपरिक और रवायती खेती में सफल नहीं हुए तो उन्होंने खेती के ढंगों में बदलाव लाने का फैसला किया। उन्होंने विविध खेती को अपनाया और इस पहल के कारण उन्हें Punjab Agriculture University के द्वारा वर्ष का सर्वश्रेष्ठ किसान चुना गया और विविध खेती अपनाने के लिए उन्हें PAU के पूर्व अध्यापक मनिंदरजीत सिंह संधु द्वारा “Parwasi Bharti Puraskar” से सम्मानित किया गया।

आज 42 एकड़ में से उनके पास 10 एकड़ में बाग हैं, 2.5 एकड़ में सब्जियों की खेती, 10 एकड़ में मछली फार्म और आधे एकड़ में बरगद के वृक्ष हैं। हालांकि उनके लिए विविध खेती के अलावा वास्तविक खेल प्रवर्त्तक, जिसने सब कुछ बदल दिया वह था मधु मक्खी पालन। उन्होंने मक्खीपालन की सिर्फ मक्खियों के 7 बक्से से शुरूआत की और आज उनके पास 1800 से भी अधिक मधुमक्खियों के बक्से हैं जिनसे प्रत्येक वर्ष एक हज़ार क्विंटल शहद का उत्पादन होता है।

श्री गुरचरन अपने काम में इतने परिपूर्ण हैं कि उनके द्वारा निर्मित शहद की गुणवत्ता अति उत्तम हैं और कई देशों में मान्यता प्राप्त है। मक्खीपालन में उनकी सफलता ने उनके गांव में शहद प्रोसेसिंग प्लांट स्थापित करने के लिए जिला प्रशासन का नेतृत्व किया और इस प्लांट ने 15 लोगों को रोजगार दिया जो गरीबी रेखा के नीचे आते हैं। उनका मधुमक्खी पालन व्यवसाय ना केवल उन्हें लाभ देता है बल्कि कई अन्य लोगों को रोज़गार प्रदान करता है।

श्री गुरचरन ने विभिन्नता के वास्तविक अर्थ को समझा और इसे ना केवल सब्जियों की खेती पर लागू किया बल्कि अपने व्यवसाय पर भी इसे लागू किया। उनके पास बागान, मछली फार्म, डेयरी फार्म हैं और इसके अलावा वे जैविक खेती में भी निष्क्रिय रूप से शामिल हैं। मधुमक्खी पालन व्यवसाय से उन्होंने मधुमक्खी बक्से बनाने और मोमबत्ती बनाने जैसी अन्य गतिविधियों को शुरू किया है।

“एक चीज़ जो प्रत्येक किसान को करनी चाहिए वह है मिट्टी और पानी की जांच और दूसरी चीज़ किसानों को यह समझना चाहिए कि यदि एक किसान आलू उगा रहा है तो दूसरे को लहसुन उगाना चाहिए उन्हें कभी किसी की नकल नहीं करनी चाहिए।”

मधुमक्खी पालन अब उनका प्राथमिक व्यवसाय बन चुका है इसलिए उनके फार्म का नाम “Mann Makhi Farm” है और शहद के अलावा वे जैम, आचार, मसाले जैसे हल्दी पाउडर और लाल मिर्च पाउडर आदि भी बनाते हैं। वे इन सभी उत्पादों का मंडीकरण “Maan” नाम के तहत करते हैं।

वर्तमान में उनका फार्म आस पास के वातावरण और मनमोहक दृश्य के कारण Punjab Tourism के अंतर्गत आता है उनका फार्म वृक्षों की 5000 से भी ज्यादा प्रजातियों से घिरा हुआ है और वहां का दृश्य प्रकृति के नज़दीक होने का वास्तविक अर्थ देता है।

उनके अनुसार आज उन्होंने जो कुछ भी हासिल किया वह सिर्फ PAU के कारण। शुरूआत से उन्होंने वही किया जिसकी PAU के माहिरों द्वारा सिफारिश की गई। अपने काम में अधिक व्यावसायिकता लाने के लिए उन्होंने उच्च शिक्षा भी हासिल की और बाद में technical and scientific inventions में ग्रेजुएशेन की।

गुरचरन सिंह की सफलता की कुंजी है उत्पादन लागत कम करना, उत्पादों को स्वंय मंडी में लेकर जाना और सरकार पर कम से कम निर्भर रहना। इन तीनों चीज़ें अपनाकर वे अच्छा लाभ कमा रहे हैं।

उन्होंने खेती के प्रति सरकार की पहल से संबंधित अपने विचारों पर भी चर्चा की –

“ सरकार को खेतीबाड़ी में परिवर्तन को और उत्साहित करने की तरफ ध्यान देना चाहिए। रिसर्च के लिए और फंड निर्धारित करने चाहिए और नकदी फसलों के लिए सहयोग मुल्य पक्का करना चाहिए तभी किसान खेतीबाड़ी में परिवर्तन को आसानी से अपनाएंगे।”

संदेश
किसानों को इस प्रवृत्ति का पालन नहीं करना चाहिए कि अन्य किसान क्या कर रहे हैं उन्हें वह काम करना चाहिए जिसमें उन्हें लाभ मिले और अगर उन्हें मदद की जरूरत है तो कृषि विशेषज्ञों से मदद ले सकते हैं। फिर चाहे वे पी ए यू के हों या किसी अन्य यूनिवर्सिटी के क्योंकि वे हमेशा अच्छा सुझाव देंगे।

सरदार गुरमेल सिंह

(सब्जियों की खेती)

जानिये कैसे गुरमेल सिंह ने अपने आधुनिक तकनीकी उपकरणों का इस्तेमाल करके सब्जियों की खेती में लाभ कमाया

गुरमेल सिंह एक और प्रगतिशील किसान पंजाब के गाँव उच्चागाँव (लुधियाना),के रहने वाले हैं। कम जमीन होने के बावजूद भी वे पिछले 23 सालों से सब्जियों की खेती करके बहुत लाभ कमा रहे हैं। उनके पास 17.5 एकड़ जमीन है जिसमें 11 एकड़ जमीन अपनी है और 6 .5 एकड़ ठेके पर ली हुई है।

आधुनिक खेती तकनीकें ड्रिप सिंचाई, स्प्रे सिंचाई, और लेज़र लेवलर जैसे कई पावर टूल्स उनके पास हैं जो इन्हें कुशल खेती और पानी का संरक्षण करने में सहायता करते हैं। और जब बात कीटनाशक दवाइयों की आती है तो वे बहुत बुद्धिमानी से काम लेते हैं। वे सिर्फ पंजाब खेतीबाड़ी यूनिवर्सिटी की सिफारिश की गई कीटनाशकों का इस्तेमाल करते हैं। ज्यादातर वे अच्छी पैदावार के लिए अपने खेतों में हरी कुदरती खाद का इस्तेमाल करते हैं।

दूसरी आधुनिक तकनीक जो वह सब्जियों के विकास के लिए 6 एकड़ में हल्की सुरंग का सही उपयोग कर रहे हैं। कुछ फसलों जैसे धान, गेहूं, लौंग, गोभी, तरबूज, टमाटर, बैंगन, खीरा, मटर और करेला आदि की खेती वे विशेष रूप से करते हैं। अपने कृषि के व्यवसाय को और बेहतर बनाने के लिए उन्होंने सोया के हाइब्रिड बीज तैयार करने और अन्य सहायक गतिविधियां जैसे कि मधुमक्खी पालन और डेयरी फार्मिंग आदि की ट्रेनिंग कृषि विज्ञान केंद्र पटियाला से हासिल की।

मंडीकरण
उनके अनुभव के विशाल क्षेत्र में ना सिर्फ विभिन्न फसलों को लाभदायक रूप से उगाना शामिल है, बल्कि इसी दौरान उन्होंने अपने मंडीकरण के कौशल को भी बढ़ाया है और आज उनके पास “आत्मा किसान हट (पटियाला)” पर अपना स्वंय का बिक्री आउटलेट है। उनके प्रासेसड किए उत्पादों की गुणवत्ता उनकी बिक्री को दिन प्रति दिन बढ़ा रही है। उन्होंने 2012 में ब्रांड नाम “स्मार्ट” के तहत एक सोया प्लांट भी स्थापित किया है और प्लांट के तहत वे, सोया दूध, पनीर, आटा ओर गिरियों जैसे उत्पादों को तैयार करते और बेचते हैं।

उपलब्धियां
वे दूसरे किसानों के लिए प्रेरणा का स्त्रोत हैं और जल्दी ही उन्हें CRI पम्प अवार्ड से सम्मानित किया जाएगा

संदेश:
“यदि वह सेहतमंद ज़िंदगी जीना चाहते हैं तो किसानों को अपने खेत में कम कीटनाशक और रसायनों का उपयोग करना चाहिए और तभी वे भविष्य में धरती से अच्छी पैदावार ले सकते हैं।”

 

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गुरदयाल सिंह

(सब्जियों की खेती, हल्दी)

कैसे एक किसान की मेहनत और जुनून से पंजाब के गुरदासपुर जिले में पीली क्रांति आई

पंजाब राज्य एक ऐसा क्षेत्र है, जहां गेहूं, और धान की खेती ज्यादा की जाती है, क्योंकि इससे किसानों को अधिक मुनाफा होता है। किसान गेहूं और धान की तरफ खास ध्यान इसलिए भी देते हैं, क्योंकि इसकी पैदावार से सही परिणाम प्राप्त होते हैं, पर एक किसान ऐसा भी है जो बाकी किसानों से अलग है। उसने खेतीबाड़ी में बदलाव लाने के बारे में सोचा और पीली क्रांति शुरू की।

स. गुरदयाल सिंह गांव सल्लोपुर जिला गुरदासपुर के रहने वाले हल्दी की खेती करने वाले इंसान किसान हैं। वे एक किसान, एक उदयोगपति और एक हल्दी की खेती के ट्रेनर के तौर पर काम कर रहे हैं। वे हल्दी की खेती से लेकर उत्पाद तैयार करने और मंडीकरन तक का काम स्वंय करते हैं। वे अपने उत्पाद बेचने के लिए किसी तीसरे बंदे पर निर्भर नहीं हैं। उन्होंने समाज में अपनी अलग पहचान बनाने के लिए अन्य किसानों से अलग रास्ता चुना। इस समय उनकी हल्दी की वार्षिक पैदावार 1500-2000 क्विंटल है और वे ग्रीन गोल्ड सपाइस ग्रुप के राजा हैं।

सफलता कभी भी आसानी से नहीं मिलती, इसके लिए इंसान को दृढ़ मेहनत करनी पड़ती है, मुश्किलों का सामना करना पड़ता है और कई बार नुकसान को भी सहना पड़ता है। मुश्किलों का सामना करने के बाद, हार ना मानने और आगे बढ़ते रहने की सोच ही इंसान को सफल बनाती है। गुरदयाल सिंह जी की कहानी भी कुछ इस तरह ही है। दसवीं की पढ़ाई खत्म करने के बाद उन्होंने सरकारी नौकरी हासिल करने के लिए बहुत कोशिश की, पर कामयाबी ना मिलने पर उन्होंने अपने पिता के साथ खेतीबाड़ी में मदद करने का फैसला किया। शुरू से ही वे पारंपरिक खेती से संतुष्ट नहीं थे, क्योंकि इस में किसानों को अपनी मेहनत का मुल्य नहीं मिलता था। इसलिए 2004 में उन्होंने बागबानी विभाग की मदद से थोड़ी सी ज़मीन पर हल्दी की खेती का एक प्रयोग करके देखा। इसके साथ ही उन्होंने हल्दी पाउडर बनाने का काम भी शुरू किया, वो भी बिना किसी मशीनरी का प्रयोग किए बिना।

हल्दी की गांठों से हल्दी पाउडर तैयार करना बहुत ही मुश्किल काम था। इसलिए वे बागबानी विभाग के सुझाव अनुसार हल्दी पाउडर तैयार करने वाली मशीन लेकर आये। फिर थोड़े समय बाद उन्होंने अन्य आधुनिक मशीनें जैसे कि ट्रैक्टर, ट्राली, लैवलर, हल आदि भी ले आये। ये सब करने से इस समय उनकी कच्ची हल्दी की पैदावार 60 क्विंटल से बढ़ कर 110 क्विंटल तक पहुंच गई है। ये सब करते ही उन्होंने 2007 में ग्रीन गोल्ड मसाले के नाम का हल्दी प्रोसैसिंग प्लांट लगाया, जिस के उत्पादों में ग्रीन गोल्ड हल्दी भी एक है। उनके परिवार में पत्नी, दो पुत्र, एक बेटी, सब हल्दी की प्रोसैसिंग जैसे कि धुलाई, उबालना, पॉलीशिंग और पीसना आदि क्रियाओं में मुख्य रोल अदा करते हैं। उनके प्रोसैसिंग प्लांट में 4-5 मज़दूर काम करते हैं और हल्दी की पैकिंग, सीलिंग, और स्टैपिंग क्रियाओं में पूरा परिवार बराबर योगदान देता है। सारा मशीनरी सिस्टम लगाने के बाद उन्हें कुछ छोटी-मोटी समस्याओं का सामना करना पड़ रहा है। इन समस्याओं में एक उबाली हल्दी को सुखाने के लिए कम जगह का होना है।

गुरदयाल सिंह जी ने हल्दी की खेती के बारे में ही क्यों सोचा:

• इसे सिंचाई की कम आवश्यकता होती है, बिजाई से लेकर पुटाई तक (8-10) महीने, कुल 10-12 सिंचाइयों की आवश्यकता होती है।

• हल्दी कुदरती तौर पर एक एंटी बायोटिक है, इसीलिए इस फसल पर किसी भी बीमारी आदि का हमला नहीं होता। इस कारण इस पर ज्यादा रसायनों और स्प्रे की जरूरत नहीं पड़ती।

• वे एक एकड़ में 35000 रूपये निवेश करते हैं और 5 क्विंटल बीज बीजते हैं और पुटाई के लिए आलू उखाड़ने वाली मशीन का भी प्रयोग करते हैं।

• वे कुल 6-7 एकड़ में हल्दी की खेती करते हैं और फिर कुछ समय के बाद फसल बदल कर बो दी जाती है, क्योंकि हल्दी की खेती के बाद मिट्टी का उपजाऊ-पन बढ़ जाता है।

इसलिए यदि कोई भी किसान हल्दी की खेती शुरू करना चाहता है तो बड़ी आसानी से कर सकता है। हल्दी के प्रोसैसिंग प्लांट में सारी मशीनरी के लिए गुरदयाल सिंह जी ने 4.5 लाख रूपये निवेश किए। उन्होंने पी ए यू से ट्रेनिंग और हल्दी के बीजों के बारे में जानकारी हासिल की और पंजाब बागबानी विभाग से की हदायतों के अनुसार ग्रीन गोल्ड प्रोसैसिंग यूनिट से 25 प्रतिशत सब्सिडी प्राप्त की। इस क्रांतिकारी काम और अलग रास्ता चुनने के लिए उन्हें बहुत सारे पुरस्कार और ईनाम मिले। उनमें से कुछ निम्नलिखित हैं:

• पंजाब के मुख्यमंत्री की तरफ से उद्यमी पुरस्कार 2014

• किसान पुरस्कार 2015

• पी ए यू लुधियाना और पंजाब बागबानी की तरफ से चपड़चिड़ी में सम्मान

जिस तरीके से वे अपनी खेती की तकनीकों को बढ़ा रहे हैं, उस हिसाब से यह सम्मान बहुत कम है। भविष्य में वे ओर भी बहुत सारे सम्मान हासिल करेंगे।

हल्दी की खेती और पाउडर बनाने के इलावा वे अपने गांव के अन्य किसानों को हल्दी खेती के बारे में सुझाव देते हैं। आज उनके साथ लगभग 60 किसान जुड़े हैं, जिन्हें वे मुफ्त ट्रेनिंग देते हैं। वे अन्य किसानों से सही मुल्य पर कच्ची हल्दी खरीद कर भी उनकी मदद करते हैं। वे अपने खेत में हल्दी की खेती के इलावा अपने मित्र की भी हल्दी की खेती करने में मदद करते हैं। उनके सारे उत्पादों का मंडीकरण और प्रमोशन के लिए NABARD उन्हें विभिन्न विभिन्न प्रदर्शनियों और मेलों में जगह लेकर देता है और किसान उत्पादक संस्थाओं के तरह किसान मेलों में भी भेजते हैं।

इन कामों के इलावा गुरदयाल सिंह जी ने मक्खी पालन के कारोबार में भी निवेश किया है। उन्होंने यह काम सन 2000 में 5 बक्सों से शुरू किया था और इस समय उनके पास 100 बक्से हैं। मक्खी पालन का अच्छी तरह प्रबंध करने के लिए उन्होंने मजदूर रखे हैं। बाकी की ज़मीन पर वे मसूर (हरी मूंग), सफेद बैंगन, भिंडी, गेहूं और धान आदि की खेती घरेलू उपयोग के लिए करते हैं। भविष्य में वे ग्रीन गोल्ड हल्दी प्रोसैसिंग प्लांट को ओर आधुनिक बनाने के लिए पैकिंग के लिए हाई-टैक मशीनें लगाने के लिए योजना बना रहे हैं।

उनकी सोच के अनुसार, यदि किसान खेतीबाड़ी से अच्छा मुनाफा लेना चाहता है और कटाई के बाद फसल में से लाभ उठाना चाहता है, तो उसे दलालों को बाहर निकालना पड़ेगा। किसानों को अपनी फसलों पर खुद प्रोसैसिंग करनी पड़ेगी और खुद ही मंडी तक ले जाना पड़ेगा। यह सब करने के लिए बहुत मेहनत,ताकत और जोश की ज़रूरत है। यदि किसान खुद के तैयार किए उत्पाद मंडी में ले जाने में शर्म महसूस करता है, तो वो कभी भी मुनाफा नहीं ले सकता और ना ही तरक्की कर सकता है। यदि कोई किसान हल्दी की खेती में दिलचस्पी ले रहा है तो वह पी ए यू के माहिरों और अन्य हल्दी वाले किसानों से जानकारी ले सकता है क्योंकि माहिर किस्मों, बीजों, ज़मीन की किस्मों और अन्य जरूरी बातों के बारे में ज्यादा जानकारी दे सकते हैं।

गुरदयाल सिंह जी का संदेश-
वर्तमान समय की जरूरतों के अनुसार पारंपरिक खेती किसानों के लिए सहायक नहीं है। यदि किसान फसल की कटाई के बाद अच्छा मुनाफा लेना चाहता है तो विभिन्नता लेकर आनी जरूरी है। आधुनिक खेती के तरीकों से एक छोटा किसान भी सफलता हासिल कर सकता है। आज कल के समय की ज़रूरत फूड प्रोसैसिंग है, सो किसानों को अलग तरीके से सोचना चाहिए। किसानों को समझना पड़ेगा कि मंडी में स्वंय उत्पाद बेचने के लिए दलालों की कोई जरूरत नहीं है। यह काम स्वंय किया जा सकता है।
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गुरदेव कौर देओल

(प्रोसेसिंग)

एक महिला की कहानी जो उद्यमशीलता के द्वारा महिला समाज में एक बड़ा बदलाव लेकर आई

वर्षों से महिलाओं ने बहुत से क्षेत्रों में एक महत्तवपूर्ण प्रभाव डाला और सफलता हासिल की है, लेकिन फिर भी ऐसी कई महिलाएं है जो पीछे रहती हैं और सिर्फ घरेलू कामकाज तक ही सीमित हैं। आज, हमें महिलाओं को कार्यबल का एक बड़ा हिस्सा बनाने और उनके कौशल विकसित करने के लिए बढ़ावा देने की आवश्यकता है क्योंकि देश की अर्थव्यवस्था के विकास में तेजी लाने की शक्ति महिलाओं में है और महिलाओं को सशक्त बनाने का सबसे अच्छा तरीका उद्यमशीलता है ना कि दान द्वारा। महिला सशक्तिकरण को बढ़ावा देने के लिए कई लोग स्वेच्छा से काम कर रहे है, लेकिन सबसे अच्छा व्यक्ति जो एक महिला को सशक्त कर सकता है वह स्वंय महिला है। ऐसी एक महिला जो महिलाओं के हित में काम कर रही हैं और उन्हें आत्मनिर्भर बनने के लिए प्रोत्साहित कर रही हैं वे हैं श्री मती गुरदेव कौर देओल।

गुरदेव कौर एक प्रगतिशील किसान हैं और ग्लोबल सैल्फ हैल्प ग्रुप की अध्यक्ष हैं। पंजाब की धरती में पैदा हुई, पली बढ़ी गुरदेव कौर देओल, शुरुआत से ही एक मजबूत इच्छुक लड़की थीं। वे बहुत सक्रिय और उत्साही थी और हमेशा अपने साथ की महिलाओं को मदद करने और उन्हें सशक्त बनाने में पहल करना चाहती थी।

अन्य महिलाओं की तरह ही पढ़ाई (खालसा कॉलेज, गुरूसर सदर, लुधियाणा से एम ए- बी एड की) पूरी होने के बाद उनकी शादी हुई। लेकिन शादी के बाद उन्होंने महसूस किया कि यह वह सब नहीं है जो वह चाहती थी। 1995 में उन्होंने 5 बक्सों के साथ मक्खी पालन का काम शुरू किया और साथ ही खुद के द्वारा बनाये गये उत्पाद जैसे आचार, चटनी आदि का मंडीकरण भी शुरू किया।

2004 में वे पी ए यू के साथ जुड़ी और फिर उन्होंने समझा कि अब तक उन्हें केवल सैद्धांतिक ज्ञान ही था इसलिए उन्होंने पी ए यू से प्रैक्टिकल ज्ञान लेना शुरू किया। वे पी ए यू के मक्खी पालन एसोसिएशन की मैंबर भी बनीं। अपने आप पर बहुत कुछ करने के बाद उन्हें एहसास हुआ कि उन्हें अपने समाज की अन्य महिलाओं को भी अपनी क्षमताओं के बारे में पता होनी चाहिए। इसलिए 2008 में उन्होंने अपने गांव की 15 महिलाओं को इकट्ठा करके एक सहकारी ग्रुप बनाया जिसका नाम ग्लोबल सैल्फ हैल्प ग्रुप रखा। उन्होंने अपने ग्रुप की सभी महिलाओं को पी ए यू के ट्रेनिंग प्रोग्राम में नामांकित करने में मदद की ताकि वे उचित कौशल सीख सकें।

शुरू में उनके ग्रुप ने आचार, चटनी, जैम, हनी, सोसेज़, स्क्वैश जूस और मुरब्बा आदि बनाने का काम शुरू किया। जल्दी ही उनके ग्रुप ने अच्छा लाभ कमाया और 6 महीने के बाद बैंक ने उन्हें उनके काम के लिए लोन प्रदान किया। उन्होंने अपने काम को थोड़ा थोड़ा बढ़ाना शुरू किया और जैविक खेती भी शुरू कर दी और अपने ग्रुप में और अधिक उत्पादों को जोड़ा।

2012 में उन्होंने NABARD के साथ भागीदारी की और अपने ग्रुप को उनके साथ रजिस्टर कर लिया और इसे एक एन जी ओ में बदल दिया और उसके बाद उनके ग्रुप के सदस्यों ने काम करना शुरू कर दिया। NABARD के साथ पंजीकरण करने के बाद महिलाओं को अपने कौशल विकसित करने और आत्म निर्भर होने के लिए प्रोत्साहित करने के लिए 100 सैल्फ हैल्प ग्रुप्स बनाने का लक्ष्य रखा गया। अब तक उन्होंने 25 ग्रुप बनाये हैं और पी ए यू भी अधिक ग्रुप बनाने में उनकी मदद कर रहा है। 2015 में उन्होंने Farmer Producer Organization के साथ ग्लोबल सैल्फ हैल्प ग्रुप को पंजीकृत किया । अब तक वे 400 से अधिक महिलाओं और पुरुषों से जुड़ चुकी हैं और उनमें से अलग अलग ग्रुप्स बनाये हैं।

NABARD भी उन्हें फंड मुहैया कराने में सहायता कर रहा है, ताकि वे जरूरतमंद महिलाओं को प्रैक्टिकल ट्रेनिंग दे सकें और अपने ग्रुप बना सकें। वे हमेशा महिलाओं से कहती हैं कि वे अपने परिवार, बच्चों और रिश्तेदारों के लिए व्यंजन बनाने शुरू करे। उनका मानना है कि यदि एक गृहिणी अपने घर की जरूरतों को पूरा नहीं कर सकती, तो वे एक ही चीज़ बाहर कैसे करेंगी।

वर्तमान में, श्री मती गुरदेव कौर देओल अपने पति श्री गुरदेव सिंह देओल के साथ गांव दशमेश नगर, लुधियाणा में रह रही हैं और सफलतापूर्वक अपना ग्रुप चला रही हैं और अन्य महिलाओं और किसानों की बेहतरी के लिए उनका मार्गदर्शन कर रही हैं। अब तक उनके कुल 32 उत्पादों में कार्बनिक दालें, मसूर, स्क्वैश और मसाले शामिल हैं। मधुमक्खी पालन उनका पसंदीदा शौंक है और अब उनके ग्रुप में मधुमक्खी के 450 बक्से हैं। वे डेयरी फार्मिंग का काम भी करती हैं और बेचने के लिए दूध से तैयार उत्पाद बनाती हैं। वे किसानों से जैविक दालें खरीदती हैं, उन्हें पैक करती हैं और बेचती भी हैं। वे ग्लोबल एग्रो फूड प्रोडक्ट्स के नाम पर अपने ग्रुप द्वारा बनाये गये सभी उत्पादों को बेचती हैं। वे ग्लोबल सैल्फ हैल्प ग्रुप से काफी अच्छा लाभ कमा रही हैं।

भविष्य में वे, अपने ग्रुप के नाम पर एक दुकान खोलने की योजना बना रही हैं, ताकि अपने उत्पादों को बेचने के लिए उचित मंच स्थापित कर सकें और वे हिमाचल प्रदेश के किसानों से जैविक दालें, सब्जियों और मक्का आदि के व्यापार के लिए जुड़ना चाहती हैं।

अभी तक उन्होंने अपने काम के लिए काफी पुरस्कार और प्राप्तियां हासिल की हैं। उनमें से कुछ निम्नलिखित हैं:

  • 2009 में सरदारनी जगबीर कौर अवार्ड
  • 2010 में एग्रीकल्चर डिपार्टमैंट अंडर स्कीम से राज्य पुरस्कार
  • 2011 में डेयरी फार्मिंग के लिए नेशनल अवार्ड
  • 2012 में NABARD से ग्लोबल सैल्फ हैल्प ग्रुप के लिए राज्य पुरस्कार

गुरदेव कौर देओल द्वारा दिया गया संदेश
“गुरदेव कौर का उन किसानों का विशेष संदेश है जिनके पास कम भूमि है। यदि एक किसान के पास 3-4 एकड़ भूमि है तो उन्हें गेहूं और धान की बजाय सब्जियों और दालों को जैविक तरीके से उगाना चाहिए क्योंकि जैविक खेती एक संरक्षित तरीके से अच्छा लाभ कमाने में मदद करती है और प्रत्येक औरत को अपने कौशल का उपयोग करना शुरू करना चाहिए और उत्पादक होना चाहिए।”

                   

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हरजीत सिंह बराड़

(बागवानी, किन्नु)

कई मुश्किलों का सामना करने के बावजूद भी इस नींबू वर्गीय संपदा के मालिक ने सर्वश्रेष्ठ किन्नुओं के उत्पादन में सफल बने रहने के लिए अपना एक नया तरीका खोजा

फसल खराब होना, कीड़े/मकौड़ों का हमला, बारानी भूमि, आर्थिक परिस्थितियां कुछ ऐसी समस्याएं हैं जो किसानों को कभी-कभी असहाय और अपंग बना देती हैं और यही परिस्थितियां किसानों को आत्महत्या, भुखमरी और निरक्षरता की तरफ ले जाती हैं। लेकिन कुछ किसान इतनी आसानी से अपनी असफलता को स्वीकार नहीं करते और अपनी इच्छा शक्ति और प्रयासों से अपनी परिस्थितियों पर काबू पाते हैं। डेलियांवाली गांव (फरीदकोट) से ऐसे ही एक किसान है जिनकी प्रसिद्धि किन्नू की खेती के क्षेत्र में सुप्रसिद्ध है।

श्री बराड़ को किन्नू की खेती करने की प्रेरणा अबुल खुराना गांव में स्थित सरदार बलविंदर सिंह टीका के बाग का दौरा करने से मिली। शुरूआत में उन्होंने कई समस्याओं जैसे सिटरस सिल्ला, पत्ते का सुरंगी कीट और बीमारियां जैसे फाइटोपथोरा, जड़ गलन आदि का सामना किया लेकिन उन्होंने कभी अपने कदम पीछे नहीं लिए और ना ही अपने किन्नू की खेती के फैसले से निराश हुए। बल्कि धीरे-धीरे समय के साथ उन्होंने सभी समस्याओं पर विजय प्राप्त की और अपने बाग का विस्तार 6 एकड़ से 70 एकड़ तक कर दिखाया।

बाग की उत्पादकता को बढ़ाने के लिए उन्होंने उच्च घनता वाली खेती की तकनीक को लागू किया। किन्नू की खेती के बारे में अधिक जानने के लिए पूरी निष्ठा और जिज्ञासा के साथ उन्होंने सभी समस्याओं को समाधान किया और अपने उद्यम से अधिक लाभ कमाना शुरू किया।

अपनी खेतीबाड़ी के कौशल में चमक लाने और इसे बेहतर पेशेवर स्पर्श देने के लिए उन्होंने पी.ए.यू., के.वी.के फरीदकोट और बागबानी के विभाग से ट्रेनिंग ली।

प्राकृतिक संसाधनों के संरक्षण के लिए जुनून:
वे प्राकृतिक संसाधनों के संरक्षण के प्रति बहुत ही उत्साही हैं वे हमेशा उन खेती तकनीकों को लागू करने की कोशिश करते हैं जिसके माध्यम से वे संसाधनों को बचा सकते हैं। पी.ए.यू के माहिरों के मार्गदर्शन के साथ उन्होंने तुपका सिंचाई प्रणाली (drip irrigation system) स्थापित किया और 42 लाख लीटर क्षमता वाले पानी का भंडारण टैंक बनाया, जहां वे नहर के पानी का भंडारण करते हैं। इसके साथ ही उन्होंने सौर ऊर्जा के संरक्षण के लिए सौर पैनल में भी निवेश किया ताकि इसके प्रयोग से वे भंडारित पानी को अपने बगीचों तक पहुंचा सके। उन्होंने अधिक गर्मी के महीनों के दौरान मिट्टी में नमी के संरक्षण के लिए मलचिंग भी की।

मिट्टी के स्वास्थ्य को सुधारने के लिए वे हरी खाद का उपयोग करते हैं और अन्य किसानों को भी इसका प्रयोग करने की सिफारिश करते हैं। उन्होंने किन्नू की खेती के लिए लगभग 20 मीटर x 10 मीटर और 20 मीटर x 15 मीटर के मिट्टी के बैड तैयार किए हैं।

कैसे करते हैं कीटों का नियंत्रण…
सिटरस सिल्ला, सफेद मक्खी और पत्तों के सुरंगी के हमले को रोकने के लिए उन्होंने विशेष रूप से स्वदेशी एरोब्लास्ट स्प्रे पंप लागू किया है जिसकी मदद से वे कीटनाशक और नदीननाशक की स्प्रे एकसमान कर सकते हैं।

अभिनव प्रवृत्तियों को अपनाना…
जब भी उन्हें कोई नई प्रवृत्ति या तकनीक अपनाने का अवसर मिलता है, तो वे कभी भी उसे नहीं गंवाते। एक बार उन्होंने गुरराज सिंह विर्क- एक प्रतिष्ठित बागबानी करने वाले किसान से, एक नया विचार लिया और कम लागत वाली किन्नू क्लीनिंग कम ग्रेडिंग मशीन (साफ करने वाली और छांटने वाली) (क्षमता 2 टन प्रति एकड़) डिज़ाइन की और अब 2 टन फलों की सफाई और छंटाई के लिए सिर्फ 125 रूपये खर्चा आता है जिसका एक बहुत बड़ा लाभ यह है कि वे इससे 1000 रूपये बचाते हैं। आज वे अपने बागबानी उद्यम से बहुत लाभ कमा रहे हैं। वे अन्य किसानों के लिए भी एक प्रेरणा हैं।

संदेश
“हर किसान, चाहे वे जैविक खेती कर रहे हों या परंपरागत खेती उन्हें मिट्टी का उपजाऊपन बनाए रखने के लिए तत्काल और दृढ़ उपाय करने चाहिए। किन्नू की खेती के लिए, किसानों को मिट्टी के स्वास्थ्य को सुधारने के लिए हरी खाद का प्रयोग करना चाहिए।” 

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क्या आप एक प्रगतिशील किसान हैं?

क्या आप एक प्रगतिशील किसान हैं?

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मंजुला संदेश पदवी

(विविध खेती/जैविक खेती)

इस महिला ने अकेले ही साबित किया कि जैविक खेती समाज और उसके परिवार के लिए कैसे लाभदायक है

मंजुला संदेश पदवी दिखने में एक साधारण किसान हैं लेकिन जैविक खेती से संबंधित ज्ञान और उनके जीवन का संघर्ष इससे कहीं अधिक है। महाराष्ट्र के जिला नंदूरबार के एक छोटे से गांव वागसेपा में रहते हुए उन्होंने ना सिर्फ जैविक तरीके से खेती की, बल्कि अपने परिवार की ज़रूरतों को भी पूरा किया और अपने फार्म की आय से अपने बेटी को भी शिक्षित किया।

मंजुला के पति ने उन्हें 10 साल पहले ही छोड़ दिया था, उस समय उनके पास दो विकल्प थे, पहला उस समय की परिस्थितियों को लेकर बुरा महसूस करना, सहानुभूति हासिल करना और किसी अन्य व्यक्ति की तलाश करना। और दूसरा विकल्प था स्वंय अपने पैरों पर खड़े होना और खुद का सहारा बनना। उन्होंने दूसरा विकल्प चुना और आज वे एक आत्मनिर्भर जैविक किसान हैं।

उनके जीवन में एक समय ऐसा भी आया जब उनकी सेहत इतनी खराब हो गई कि उनके लिए चलना फिरना मुश्किल हो गया था। उस समय, उनके दिल का इलाज चल रहा था जिसमें उनके दिल का वाल्व बदला गया था। लेकिन उन्होंने कभी उम्मीद नहीं खोयी। सर्जरी के बाद ठीक होने पर उन्होंने बचत समूह (saving group) से लोन लिया और अपने खेत में एक मोटर पंप लगाया। मिट्टी को अधिक उपजाऊ बनाने के लिए, उन्होंने रासायनिक खादों और कीटनाशकों के स्थान पर जैविक खादों को चुना।

विभिन्न सरकारी नीतियों से मिली राशि उनके लिए अच्छी रकम थी और उन्होंने इसे बैलों की एक जोड़ी खरीदकर बुद्धिमानी से खर्च किया और अब वे अपने खेत की जोताई के लिए बैलों का प्रयोग करती हैं। उन्होंने मक्की और ज्वार की फसल उगायी और इससे उन्हें अच्छी उपज भी मिली।

मंजुला कहती हैं – “आस-पास के खेतों की पैदावार मेरे खेत से कम है पिछले वर्ष हमने मक्की की फसल उगायी लेकिन हमारी उपज अन्य खेतों की उपज के मुकाबले बहुत अच्छी थी क्योंकि मैं जैविक खादों का प्रयोग करती हूं और अन्य किसान रासायनिक खादों का प्रयोग करते हैं। इस वर्ष भी मैं मक्की और ज्वार उगा रही हूं। ”

नंदूरबार जिले में स्थित सार्वजनिक सेवा प्रणाली ने मंजुला की उसके खेती उद्यम में काफी सहायता की उन्होंने अपने क्षेत्र में 15 बचत समूह बनाए हैं और इन समूहों के माध्यम से वे पैसे इकट्ठा करते हैं और जरूरत के मुताबिक किसानों को ऋण प्रदान करते हैं। वे विशेष रूप से गैर रासायनिक और जैविक खेती को प्रोत्साहित करते हैं। एक और ग्रुप है जिससे मंजुला लाभ ले रही हैं वह स्वदेशी बीज बैंक है। वे इस समूह के माध्यम से बीज लेती हैं और सब्जियों, फलों और अनाजों की विविध खेती करती हैं। मंजुला की बेटी मनिका को अपनी मां पर गर्व है और वह हमेशा उनकी सहायता करती है।

आज, महिलायें खेतीबाड़ी के क्षेत्र में बीजों की बिजाई से लेकर फसलों के रख-रखाव और भंडारण में महत्तवपूर्ण भूमिका निभाती है। लेकिन जब खेती मशीनीकृत हो जाती है तो महिलायें इस श्रेणी से बाहर हो जाती हैं। लेकिन मंजुला संदेश पदवी ने खुद को कभी विकलांग नहीं बनाया और अपनी कमज़ोरी को ही अपनी ताकत में बदल दिया। उन्होंने अकेले ही अपने फार्म की देखभाल की और अपनी बेटी और अपने घर की ज़रूरतों को पूरा किया। आज उनकी बेटी ने उच्च शिक्षा हासिल की है और आज वह इतना कमा रही है कि अच्छा जीवन व्यतीत कर सके। वर्तमान में उनकी बेटी मनिका जलगांव में नर्स के रूप में काम कर रही है।

मंजुला संदेश पदवी जैसी महिलायें ग्रामीण भारत के लिए एक पावरहाउस के रूप में काम करती हैं, इनके जैसी महिलायें अन्य महिलाओं को भी मजबूत बनाती है और अपने बेहतर भविष्य के लिए टिकाऊ खेती का चुनाव करती हैं। यदि हम चाहते हैं कि हमारे भविष्य की पीढ़ी स्वस्थ जीवन जिये और उन्हें किसी चीज़ की कमी ना हो। तो आज हमें और मंजुला संदेश पदवी जैसी महिलाओं की जरूरत है।

समय को सतत खेती की जरूरत है क्योंकि रसायन भूमि की उपजाऊ शक्ति को कम करते हैं और भूमिगत जीवन को प्रदूषित करते हैं। इसके अलावा रसायन खेती के खर्चे को भी बढ़ाते हैं जिससे कि किसानों पर कर्ज़ा बढ़ता है और किसान आत्महत्या करने के लिए विवश हो जाते हैं।

हमें मंजुला से सीखना चाहिए कि जैविक खेती अपनाकर पानी, मिट्टी और वातावरण को कैसे बचाया जा सकता है।