नरेश कुमार

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32 प्रकार के जैविक उत्पाद बनाता है हरियाणा का यह प्रगतीशील किसान

हम अपने घरों में जो चीनी खाते हैं, वह हमारे शरीर को भीतर से नष्ट कर रही है। हमारी जीवन  की अधिकांश बीमारियां जैसे हार्मोनल असंतुलन, उच्च रक्तचाप, शुगर, मोटापा किसी न किसी रूप में शुगर से संबंधित हैं। जबकि इस समस्या को एक स्वस्थ पदार्थ से हल किया जा सकता है और वह है ‘गुड़’।
नरेश कुमार एक प्रगतिशील किसान हैं जो खड़क रामजी, जिला जींद, हरियाणा में रहते हैं और जैविक गुड़, शक़्कर, चीनी और इन तीनों से बने 32 विभिन्न उत्पादों का व्यापार करते हैं।
उन्होंने आयुर्वेदिक चिकित्सा का अध्ययन करके अपने करियर की शुरुआत की, बाद में आयुर्वेदिक जड़ी-बूटियों के अपने ज्ञान के साथ उन्होंने 2006 में नशामुक्ति के लिए एक दवा विकसित की। उन्होंने उस दवा का नाम ‘वाप्सी’ रखा जिसका मतलब होता है नशे से वापिस आना। उन्होंने ‘आपनी खेती’ टीम के साथ साझा किया कि नशे से छुटकारा पाने के लिए कई एलोपैथिक दवाएं की बजाए एक आयुर्वेदिक दवा अधिक उपयोगी है। क्योंकि आयुर्वेद सबसे पुरानी विधि है और इसमें उन बीमारियों को ठीक करने की क्षमता है जो प्राचीन काल से असंभव थी।
2018 में, उन्होंने अपना ध्यान दवाइयों से फ़ूड प्रोसेसिंग की और किया और 32 विभिन्न प्रकार के जैविक उत्पादों को पेश किया। उन्होंने उपभोक्ता की मांग के अनुसार गुड़ की कई किस्में बनाईं जैसे – चाय के लिए गुड़, पाचन के लिए गुड़, अजवाइन, इलायची, सौंफ, चॉकलेट गुड़। अन्य उत्पादों में गाजर और चुकंदर की चटनी, सेब, अनानास, आंवले का जैम शामिल हैं।
“हम अपने दैनिक जीवन में जो चीनी खाते हैं, वह मानव स्वास्थ्य के लिए बहुत हानिकारक है। जितनी जल्दी हम इसे समझेंगे और गुड़ का उपयोग करेंगे, यह हमारे शरीर के लिए उतना ही अच्छा होगा।” – नरेश कुमार
उन्होंने 4 एकड़ जमीन पर प्रोसेसिंग यूनिट लगा रखी है। ये सभी उत्पाद पारंपरिक तरीकों का उपयोग करके बनाए गए हैं जो उन्हें 100% जैविक बनाते हैं। जब गुड़ बनाया जाता है, तो उसमें प्रोसेसिंग किये फल और सब्जियां डाली जाती हैं और फिर मिट्टी के बर्तन में जमा कर दी जाती हैं। इन उत्पादों के निर्माण में पानी या चीनी का उपयोग नहीं किया जाता है।
एक अन्य उत्पाद जो वे पशुओं के लिए बनाते हैं वह है ‘दूध का अर्क’ जो पशुओं की दूध उत्पादन क्षमता को बढ़ाता है। यह बार बार रपीट होने पशुओं के लिए एक बहुत बढ़िया उत्पाद है। उन्होंने इस उत्पाद की फार्मूलेशन पहले ही कर दी थी  इसलिए उन्होंने पहले इसे लागू करने के बारे में सोचा। उन्होंने इसे किसी ओर द्वारा बनाने के बारे में भी सोचा था पर उन्हें डर था कि रासायनिक सूत्र में कुछ उतार-चढ़ाव तो न आ जाए। इस मामले में किसी पर भरोसा करना आसान नहीं था। इस शिरा की खासियत यह है कि इसे देसी खंड के राव से बनाया गया है।
जींद, में स्थित कृषि विज्ञान केंद्र  पांडु , पिंडारा और हरियाणा कृषि विश्वविद्यालय ने इस व्यवसाय के शुरुआती दिनों में उनकी बहुत मदद की। इन संस्थानों से उन्होंने वह तकनीकी ज्ञान प्रदान किया जिसकी उन्हें इस व्यवसाय को स्थापित करने के लिए सख्त जरूरत थी। उनका मार्गदर्शन डॉ. विक्रम ने किया, जो हरियाणा कृषि विश्वविद्यालय के एग्री बिजनेस इन्क्यूबेशन  केंद्र (ABIC) में मार्केटिंग के मैनेजर हैं।   नरेश जी ने इसी केंद्र से प्रशिक्षण प्राप्त किया जिसके बाद वह RAFTAR स्कीम  के तहत अपने उत्पाद “मिल्क शीरा” को प्रमोट करने के लिए 20 लाख रुपये प्राप्त करने में कामयाब हुए।
‘वापसी ‘ दवा 2015 से बाजार में है। वे 2015 से सीधे ग्राहकों को दवा बेच रहे हैं। आज उनके मुख्य रूप से हरियाणा और पंजाब के कुछ हिस्सों से 20 वितरक हैं। शुरुआत में उन्हें काफी दिक्कतों का सामना करना पड़ा क्योंकि बाजार में हर दूसरा उत्पाद नकली था जबकि उनके दाम ज्यादा थे क्योंकि उनके उत्पाद जैविक थे और जब उन्होंने शुरुआत की तो उन्हें काफी चुनौतियों का सामना करना पड़ा।  लेकिन बाद में ग्राहकों को ऑर्गेनिक और नकली उत्पादों के बीच अंतर के बारे में पता चला और अब उनके उत्पादों को ग्राहकों द्वारा सराहा जाता है। उन्होंने कहा कि लोगों को यह समझाना आसान नहीं था कि अन्य सभी उत्पाद मिलावटी हैं और शरीर के लिए अच्छे नहीं हैं। सीजन के दौरान उन्हें हर महीने 3 लाख रुपये का मुनाफा होता है।
जब सीजन में अधिक काम होता है, तो वे 15 मजदूरों को काम पर रखते हैं, जो आमतौर पर ऑफ सीजन में 5 होते हैं। यद्यपि वे उच्च मांग के कारण गन्ने की खेती करते हैं, फिर भी उन्हें जैविक किसानों से कुछ गन्ना खरीदना पड़ता है। वह पीलुखेड़ा किसान उत्पादक संगठन (एफपीओ) के सदस्य भी हैं जहां वे निदेशक के रूप में कार्य करते हैं।

उपलब्धियां

• चौधरी चरण सिंह हरियाणा कृषि विश्वविद्यालय द्वारा 2019 में प्रगतिशील किसान की उपाधि से सम्मानित किया गया।

भविष्य की योजनाएं

नरेश कुमार अपने व्यवसाय को नई ऊंचाइयों पर ले जाना चाहते हैं और बड़े पैमाने पर गुड़ और उसके उत्पादों का उत्पादन बढ़ाना चाहते हैं।

किसानों के लिए संदेश

वह अन्य किसानों को अपनी पैदा की फसल की प्रोसेसिंग शुरू करने के लिए प्रोत्साहित करना चाहते हैं क्योंकि कच्चे माल को बेचने की तुलना में पूरे उत्पाद को बनाने में अधिक मार्जिन है। गेहूं बोने वाले किसान को गेहूं के आटे की प्रोसेसिंग यूनिट शुरू करनी चाहिए, सूरजमुखी की बुवाई करने वाले किसान को बीज से तेल निकालना चाहिए और अन्य सभी फसलों के लिए भी प्रोसेसिंग संभव है।

यादविंदर सिंह

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एक ऐसा मेहनती इंसान जिसने बुजुर्गों के शौंक को संभाला और अपने काम में उसे अपनाकर हुआ कामयाब

दादे-परदादे की तरफ से चलती आ रही परंपरा को बना कर रखना और उस परंपरा को फिर से शौंक और पेशे में बदलना कोई आसान काम नहीं है क्योंकि आजकल बहुत कम लोग हैं जो अपने बुजुर्गों की पुरानी परंपरा का पालन कर रहे हैं नहीं तो सभी परंपरा तो क्या अपने बुजुर्गों को ही बुला चुके हैं उनके काम को कैसे याद रखे।

आइए आज हम आपको एक ऐसे किसान यादविंदर सिंह जी के साथ मिलवाते हैं जो जिला श्री मुक्तसर के गांव बरकंदी के निवासी हैं। जिन्होनें अपने बारे में नहीं अपने दादे परदादे की परंपरा को पुनर्जीवित करने के बारे में सोचा और उसे करके भी दिखाया। आज हर कोई उन पर गर्व करता है। इस काम में उनका साथ उनके पिता सरदार हरपाल सिंह जी देते हैं।

आजादी से पहले भी और बाद में भी बहुत से घराने ऐसे थे जिन्हें घोड़े रखने का शौंक था और घोड़े भी अच्छी नस्ल के रखा करते थे। अमीर लोगों में घोड़सवारी करने का शौंक भी था और जरूरत भी थी। पुराने समय में घोड़सवारी का शौंक होने के कारण लगभग 5 से 6 घोड़े हर एक के पास होते थे। पर उस समय के लोग घोड़ों का व्यापार नहीं करते थे।

उन घोड़सवारी के शौंक में यादविंदर सिंह जी के दादा जी का नाम भी आता है, जिन्होनें घोड़सवारी के शौंक को हमेशा बनाई रखा और घोड़े पालते रहे और घोड़सवारी करते रहे। उसके बाद शौंक उनके पिता सरदार हरपाल सिंह जी को पड़ा। हरपाल जी ने भी अपने पिता की तरह घोड़सवारी के शौंक को अपने साथ रखा और अभी तक घोड़सवारी करते हैं। साल 1990 में जब यादविंदर के पिता घोड़सवारी करने जाते थे तो यादविंदर तब छोटे ही होते थे पर वह हमेशा अपने पिता जी को घोड़सवारी करते देखते रहते थे।

जब वह थोड़े बड़े हुए तो उन्होंने धीरे-धीरे सारा दिन फार्म पर रहना शुरू किया और यादविंदर जी को वहां जाकर ऐसा महसूस होता था कि वह कौन-सी ऐसी जगह पर आ गए हैं जहां पर उन्हें सिर्फ शान्ति ही मिलती है फिर यादविंदर जी ने पक्के तौर पर मन बना लिया कि बड़े होकर उन्होंने यही काम करना है जिसकी तस्वीर दिल और दिमाग के ऊपर अच्छी तरह छप चुकी थी।

जब यादविंदर जी को जिंदगी की अच्छी तरह से समझ आने लगी तब उन्होंने 1995 के लगभग घोड़सवारी को शोंक के रूप में अपनाने का फैसला कर लिया और उस समय उनकी आयु 12 साल की ही थी और दिन रात फार्म पर रहकर काम करने लगे क्योंकि प्यार ही इतना हो गया था, ऐसे लगता था कि यादविंदर जी ने इन्हें ही अपना सब कुछ मान लिया था।

जैसे-जैसे दिन निकलते गए यादविंदर जी को मेले में जाने की इच्छा लगी रहती थी कि कब मेले में जाएं और इनाम जीते। उन्होंने नुकरा और मारवाड़ी घोड़े रखे हुए थे, जोकि सबसे बढ़िया नस्ल के माने जाते हैं। दोनों नस्ल के घोड़े बहुत सूंदर हैं क्योंकि इनका कद भी ओर घोड़ों के मुकाबले ऊचा और लंबा होता है।

धीरे-धीरे वह मेले में जाने लगे और घोड़सवारी करने लगे पर उन्हें मुश्किल तब आती थी जब उन्हें घोड़ों के बारे में पूछा जाता था, बेशक बुजुर्ग यह काम करते आएं थे उन्हें पता था पर यादविंदर जी को अधिक जानकारी न होने के कारण मुश्किल होती थी, वहां ही उन्होंने घोड़ों का व्यापार करने के बारे में सोचा जोकि पहले कभी नहीं सोचा था पर उन्होंने उस समय ध्यान नहीं दिया।

उन्होंनें घर में घोड़े रखे हुए थे और जैसे गांव में सभी को पता था जब बाहर के लोगों को पता चला तो लोग उनसे घोड़े खरीदने लगे इस तरह उनका एक घोडा या घोड़े का बच्चा 5 लाख में बिका जिसे देखकर वह हैरान हो गए। वैसे तो घोड़े-घोड़ी से बच्चे पैदा हो रहे थे जो बाद में उनके व्यापार का भाग बना।

यादविंदर सिंह जी के मन में विचार आया क्यों न शौंक के साथ-साथ व्यापार भी किया जाए, फिर उन्होंनें अपने पिता जी के साथ बात की और पिता जी ने इस काम के लिए मंजूरी दे दी। जैसे वह मेले में जाया करते थे और मेले में जाने के कारण धीरे-धीरे घोड़ियों के बारे में पूरी जानकारी हो गई थी। इस बार जब वह मेले गए तो उनसे घोड़ों के बारे में पूछने लगे उन्होंने हर एक की जानकारी बहुत विस्तार से दी और ग्राहक भी घोडा खरीदने के लिए मान गया, जिससे यादविंदर जी बहुत खुश हुए। इस तरह वह मेले में जाते और घोड़े का मूल्य ले आते। इस तरह से लोग उन्हें ओर जानने लगे और उनके ग्राहक बढ़ने लगे।

ग्राहक बनने पर लोग घोडा खरीदने के लिए उनके घर आने लगे जिसका कोई एक मूल्य नहीं ले सकते क्योंकि घोड़े खरीदने वाले पर निर्भर करता है कि घोड़े का बच्चा कितने महीने का लेना चाहता है। इस तरह करते करते 1995 के बाद वह 2005 में अच्छी तरह से कामयाब हुए।

आज इनका घोड़ों का काम इतना बढ़ गया है कि लोग नुकरा और मारवाड़ी का घोडा खरीदने के लिए दूर-दूर से आते हैं, जिससे उन्हें घर बैठे ही मुनाफा हो रहा है।

उन्होंने लगभग 10 घोड़े-घोड़ियां रखें हैं जिससे आगे बच्चे पैदा कर रहे हैं और बेच रहे हैं। उन्होंने मुख्य तौर पर 2 कनाल में फार्म तैयार किया हुआ है, जोकि बिल्कुल हवादार है। इसके इलावा वह घोड़ों को सैर के लिए भी लेकर जाते हैं और घोड़सवारी भी करते हैं। उनका परिवार इस काम में उनका साथ देता है और घोड़ों का अच्छी तरह से ध्यान रखने के लिए पक्के तौर पर डॉक्टर से बात कर रखी है जो समय-समय पर जांच करते रहते हैं।

भविष्य की योजना

वह घोड़ों को आगे प्रतियोगिता के लिए तैयार कर रहे हैं ताकि रेस में भाग लिया जा सके और इसकी तैयार वह हर रोज करते हैं।

संदेश

काम कोई भी बुरा नहीं है बस उसे पहले सीखना चाहिए और फिर करना चाहिए तभी इंसान कामयाब हो सकता है।

मोटा राम शर्मा

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एक ऐसा किसान जिसने मशरूम से किया कैंसर जैसी ला—इलाज बीमारी का इलाज

खेती तो सभी किसान ही करते हैं, पर जिस किसान की बात आज हम करने जा रहे हैं वह बाकी किसानों से अलग है। पर खेती के साथ साथ रोगियों का इलाज करने के बारे में शायद ही किसी किसान ने सोचा होगा। यह एक ऐसा किसान है जो मशरूम की खेती करने के कारण डॉक्टर बना।

मशरूम मैन के नाम से प्रसिद्ध मोटा राम शर्मा जी आज से लगभग 24 वर्ष पहले डेयरी फार्मिंग के साथ साथ अपनी 5 बीघा ज़मीन में मशरूम की खेती करते थे। उस समय राजस्थान में मशरूम फार्मिंग का कोई ज्यादा रूझान नहीं था। सबसे पहले उन्होंने ओइस्टर मशरूम उगानी शुरू की थी। उस समय ज्यादातर किसान सिर्फ बटन मशरूम के बारे में ही जानते थे। इसलिए मोटा राम की तरफ से काफी मात्रा में ओइस्टर मशरूम तैयार की गई थी, तो इसकी ज्यादा मार्केटिंग ना होने के कारण उन्होंने मशरूम का पाउडर तैयार करके पशुओं को खिलाना शुरू कर दिया। इस पाउडर को खाने से गायों में मैसटाइटिस जैसी ला—इलाज बीमारी खत्म हो गई। इस सफलता के बाद मोटा राम जी ने बड़े स्तर पर ओइस्टर मशरूम का उत्पादन शुरू कर दिया जब इसके बारे में खेती अधिकारियों को पता लगा तो उन्होंने मोटा राम शर्मा को ट्रेनिंग लेने की सलाह दी। उसके बाद मोटा राम जी ट्रेनिंग लेने के लिए सोलन और जयपुर गए। मशरूम के बारे में जानकारी हासिल करने के बाद मोटा राम जी ने बटन और शिटाके मशरूम उगानी शुरू की। बटन मशरूम की मार्केटिंग उन्होने दिल्ली मंडी में करनी शुरू कर दी, इससे उन्हें बढ़िया कमाई होने लग गई। मोटा राम शर्मा जी मशरूम फार्मिंग बिना ए.सी. से करते हैं।

समय व्यतीत होने पर अपनी तरफ से की खोज के आधार पर मुझे पता लगा कि मशरूम को हम कई बीमारियां रोकने के लिए भी इस्तेमाल कर सकते हैं। मशरूम की कई किस्में हैं जो मानवी जीवन के लिए किसी संजीवनी से कम नहीं है — मोटा राम शर्मा

मशरूम उत्पादन करते करते मोटा राम जी ने मशरूम का बीज तैयार करना भी शुरू कर दिया और अब वह 16 अलग अलग किस्मों की मशरूम उगाते हैं।

वर्ष 2010 में वे भारत में गैनोडरमा मशरूम उगाने वाले सबसे पहले किसान बने, जिस कारण उन्हें मशरूम किंग आफ इंडिया का अवार्ड मिला। इस गैनोडरमा मशरूम का इस्तेमाल वे कैंसर की दवाई बनाने के लिए करते हैं।

अपने द्वारा तैयार की दवाइयों के साथ हम दिल के मरीज़ों और कैंसर के मरीज़ों का इलाज करते हैं अब तक हमने 90 प्रतिशत केसों में सफलता हासिल की है — मोटा राम शर्मा

बिना किसी डिग्री से पांचवी पास मोटा राम शर्मा के इस कारनामे के कारण कई लोग हैरत में हैं।

अपनी खोज के समय के दौरान उन्हें पता लगा कि मनुष्य में कैंसर होने का कारण शरीर में विटामिन 17 की कमी होना है और गैनोडरमा मशरूम में विटामिन 17 मौजूद होते हैं।

अब मोटा राम जी मशरूम से कई तरह की दवाइयां बनाते हैं, जिनसे वे कैंसर पीड़ित मरीज़ों का इलाज कर रहे हैं।

अपने पांच बीघा के फार्म के आस पास उन्होंने अशोका वृक्ष, एलोवेरा, शतावरी और गिलोय के पौधे भी लगाए हुए हैं, जिनका इस्तेमाल वे दवाइयां बनाने के लिए करते हैं।

मोटा राम शर्मा जी के दोनों पुत्र डॉक्टर हैं, पर अब वे भी अपने पिता के साथ मिलकर मशरूम फार्मिंग करते हैं।

शर्मा जी अब 16 तरह की अलग अलग किस्मों की मशरूम उगाते हैं, जिनके नाम इस प्रकार हैं:
  • गैनोडरमा मशरूम
  • ऋषि मशरूम
  • पिंक मशरूम
  • साजर काजू
  • काबुल अंजाई
  • ब्लैक ईयर
  • बटन मशरूम
  • ओइस्टर मशरूम
  • ढींगरी मशरूम
  • डीजेमोर
  • सिट्रो मशरूम
  • शीटाके
  • सागर काजू सरीखी
  • पनीर मशरूम
  • फ्लोरीडा मशरूम
  • कोडी शैफ मशरूम

मशरूम फार्मिंग के क्षेत्र में किए अपने इन प्रयत्नों और खोजों के कारण मोटा राम शर्मा जी को कई अवार्ड भी मिले हैं, जो कि निम्नलिखित अनुसार है:

  • बेस्ट मशरूम फार्मर अवार्ड 2010
  • कृषि रत्न 2010
  • कृषि सम्राट 2011
  • मशरूम किंग आफ इंडिया 2018
  • राष्ट्रीय मशरूम बोर्ड के मैंबर

मोटा राम शर्मा जी के फार्म पर कई किसान भी मशरूम फार्मिंग की ट्रेनिंग लेने के लिए आते हैं।

भविष्य की योजना

मोटा राम जी आने वाले समय में किसानों की इसी तरह मदद करके, अपने तज़ुर्बे से उनकी मुश्किलों का हल करना चाहते हैं और मशरूम उत्पादन में और नई खोजें करना चाहते हैं।

संदेश
“किसानों को खेती के क्षेत्र में आने वाली मुश्किलों के हल के लिए माहिरों की सलाह लेते रहना चाहिए। हर क्षेत्र में नई खोजें करने के लिए तत्पर रहें।”

मनप्रीत कौर

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पश्चिमी सभ्यता के इस युग में…पंजाब की बेटी एक बेटी जो विरासत संभालने के लिए यत्नशील है

आजकल पश्चिमी सभ्यता अपनाने के चक्कर में हम अपने पंजाब की अमीर विरासत को भूलते जा रहे हैं। हमारी संस्कृति विरासत और पिछोकड़ प्रदर्शनियों का हिस्सा बन कर रह गई है। पुराने समय में दरियां, खेसियां और फुलकारियां बनाना पंजाबी औरतों का शौंक हुआ करता था। पर आजकल फुलकारियां बनाना तो दूर की बात, पंजाब की लड़कियां फुलकारी लेती भी नहीं। हमारी नई पीढ़ी को तो यह भी नहीं पता होगा कि फुलकारी कहते किसे हैं?

पश्चिमी सभ्यता के इस दौर में पंजाब की एक ऐसी बेटी है, जो अपनी विरासत संभालने में यत्नशील है। तरनतारन जिले की अर्थशास्त्र में ग्रेजुएशन करने वाली मनप्रीत कौर फुलकारी बनाने का काम करती है। अपनी पढ़ाई पूरी करने के बाद घर में आर्थिक समस्याओं के कारण मनप्रीत अपने परिवार की मदद करना चाहती थी। मनप्रीत के दादी और माता जी फुलकारियां बनाया करते थे। एक दिन अचानक मनप्रीत की नज़र अपनी दादी के ट्रंक में पड़ी फुलकारी पर गई, तो उसने सोचा कि क्यों न फुलकारी बनाने के काम को एक कारोबार के तौर पर शुरू किया जाए। अपने इस सपने को हकीकत में बदलने के लिए मनप्रीत ने अपने दोस्तों से बातचीत की। पर उसके दोस्तों ने यह कह कर मना कर दिया कि इस व्यवसाय में कोई मुनाफा नहीं है और न ही आजकल लोग यह सब पसंद करते हैं।

“मेरे दोस्तों ने कहा कि यह बैकवर्ड चीज़ है, इसे कोई पसंद नहीं करता। इस बात ने मुझे यह सोचने के लिए मजबूर कर दिया लोग इसे बैकवर्ड क्यों समझते हैं ? इस क्यों का जवाब ढूंढ़ना बहुत ज़रूरी था।” – मनप्रीत कौर

इसके बाद मनप्रीत ने अपनी इस विरासत को फिर बहाल करने कोशिशें शुरू कर दीं। साल 2015 में 5 औरतों के एक ग्रुप की मदद से सब से पहले उन्होंने पांच फुलकारियां बनाईं। फुलकारियां बनाने के बाद सवाल यह था कि अब इन्हें बेचा कहां जाए? इस उदेश्य के लिए उन्होंने इंटरनेट पर खोज आरंभ की, जिस से उन्हें फुलकारी खरीदने वाली एक सरकारी संस्था के बारे में पता चला। मनप्रीत ने उस संस्था को यह फुलकारियां दिखाईं और वे पांच फुलकारियां बेचने के लिए ले गए। यह संस्था फुलकारियों के पैसे फुलकारी बिकने के बाद देती थी। इस वजह से अक्सर पैसे दो-तीन महीने बाद मिलते थे, जिस कारण घर का खर्चा चलाना भी मुश्किल था। एक वर्ष तक यही सिलसिला जारी रहा।

“मेरे मां-बाप ने अपना एक एक पैसा इस काम में लगा दिया, क्योंकि उन्हें मुझ पर विश्वास था कि मैं यह काम कर सकती हूँ।” – मनप्रीत कौर

एक साल ऐसे ही चलने के बाद उन्होंने सोचा कि इस तरह काम नहीं चल सकता, क्योंकि उन्होंने ग्रुप के बाकी मैंबरों को भी पैसे देने होते थे। इस उन्होंने फिर इंटरनेट की मदद ली। सोशल मीडिया पर पेज बनाए। पर यहां भी कोई ख़ास सफलता नहीं मिली। तब मनप्रीत ने सोचा कि जिस चीज़ को लोग बैकवर्ड कह रहे हैं, उसे एक मॉडर्न दिखावट दी जाए?

हम अपनी सभ्यता को थोड़ा सा मॉडर्न करके नई दिखावट देने के लिए हल्के दुपट्टों पर फुलकारी बनाए, ताकि इन्हें जीन्स के साथ भी इस्तेमाल कर सकें। – मनप्रीत कौर

मनप्रीत का यह विचार काफी हद तक सफल सिद्ध हुआ। इस से उनकी फुलकारियों की बिक्री काफी बढ़ गई। इस ग्रुप में शहर की 20-30 महिलाएं काम करती थीं, पर मनप्रीत इस काम में गांव की महिलाओं को भी अपने साथ जोड़ना चाहती थीं, क्योंकि गांव की औरतों को अपनी विरासत और सभ्यता के बारे में अधिक ज्ञान होता है और वे इस काम में काफी अनुभवी होती हैं। पर गांव की महिलाओं के लिए बाहर आ कर काम करना बहुत मुश्किल होता है, इस लिए मनप्रीत गांव की महिलाओं को खुद घर जा कर फुलकारी बनाने का सामान दे के आती हैं ताकि उन्हें कोई समस्या न आए। इनके इस उद्यम से उन महिलाओं को रोज़गार मिला, जो घर से निकल कर काम नहीं कर सकती थीं।

इंटरनेट पर मनप्रीत को सब से पहले जो विदेश से आर्डर मिला, उसमें तोहफों के साथ देने के लिए 40 फुलकारियों का आर्डर था। इस आर्डर में भेजी गई फुलकारियों को बहुत पसंद किया गया, जिस से विदेशों में भी उनकी फुलकारियों की मांग बढ़ गई। विदेशी मीडिया ने भी इस ग्रुप की बहुत मदद की। उन्होंने कॉल के ज़रिये ली गई इंटरव्यू वाला वीडियो प्रमोट किया, जिस से उन्हें विदेशों जैसे कि कनेडा, अमरीका में से भी बहुत सारे आर्डर मिलने शुरू हो गए। सीनियर पत्रकार बलतेज सिंह पंनू जी ने भी मनप्रीत की पोस्ट सोशल मीडिया पर शेयर की, जिस से काफी फायदा हुआ।

पंजाब से ज्यादा विदेश में फुलकारियां खरीदी जाती हैं और हमारे ज्यादातर ग्राहक भी विदेशों से ही हैं। – मनप्रीत कौर

इसके साथ साथ मनप्रीत जी के पास कई कॉलेज के विद्यार्थी इंटर्नशिप पर ट्रेनिंग के लिए भी आते हैं।

उपलब्धियां
अपनी विरासत को संभालने के लिए किये गए उद्यमों के लिए मनप्रीत को बहुत सारे अवार्ड भी मिले, जिन में से कुछ नीचे दिए हैं:
  • हमदर्द विरासती मेले में विशेष सम्मान
  • पी टी सी पंजाबी चैनल की तरफ से सिरजनहारी अवार्ड

विरासत को कायम रखने के लिए किये गए यत्नों को देखते हुए मनप्रीत को तरनतारन जिले की ब्रैंड अम्बैस्डर भी बनाया गया।

भविष्य की योजनाएं

आने वाले समय में मनप्रीत फुलकारी के इस कारोबार को विदेशों के साथ-साथ अपने देश में भी प्रसिद्ध करना चाहती हैं, ताकि आने वाली पीढ़ी अपनी अमीर संस्कृति को समझ और जान सके।

सन्देश
“नौजवान पीढ़ी को अपनी विरासत संभालने के यत्न करने चाहिए। इस काम में रोज़गार के मौके पैदा हो सकते हैं। जो महिलाएं घर से निकल कर काम नहीं कर सकतीं, वे घर में रह कर ही यह काम कर सकती हैं और यह उनकी कमाई का स्त्रोत बन सकता है।”

शमशेर सिंह संधु

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जानिये क्या होता है जब नर्सरी तैयार करने का उद्यम कृषि के क्षेत्र में अच्छा लाभ देता है

जब कृषि की बात आती है तो किसान को भेड़ चाल नहीं चलना चाहिए और वह काम करना चाहिए जो वास्तव में उन्हें अपने बिस्तर से उठकर, खेतों जाने के लिए प्रेरित करता है, फिर चाहे वह सब्जियों की खेती हो, पोल्टरी, सुअर पालन, फूलों की खेती, फूड प्रोसेसिंग या उत्पादों को सीधे ग्राहकों तक पहुंचाना हो। क्योंकि इस तरह एक किसान कृषि में अपना सर्वश्रेष्ठ दे सकता है।

जाटों की धरती—हरियाणा से एक ऐसे प्रगतिशील किसान शमशेर सिंह संधु ने अपने विचारों और सपनों को पूरा करने के लिए कृषि के क्षेत्र में अपने रास्तों को श्रेष्ठ बनाया। अन्य किसानों के विपरीत, श्री संधु मुख्यत: बीज की तैयारी करते हैं जो उन्हें रासायनिक खेती तकनीकों की तुलना में अच्छा मुनाफा दे रहा है।

कृषि के क्षेत्र में अपने पिता की उपलब्धियों से प्रेरित होकर, शमशेर सिंह ने 1979 में अपनी पढ़ाई (बैचलर ऑफ आर्ट्स) पूरी करने के बाद खेती को अपनाने का फैसला किया और अगले वर्ष उन्होंने शादी भी कर ली। लेकिन गेहूं, धान और अन्य रवायती फसलों की खेती करने वाले अपने पिता के नक्शेकदम पर चलना उनके लिए मुश्किल था और वे अभी भी अपने पेशे को लेकर उलझन में थे।

हालांकि, कृषि क्षेत्र इतने सारे क्षेत्र और अवसरों के साथ एक विस्तृत क्षेत्र है, इसलिए 1985 में उन्हें पंजाब कृषि विश्वविद्यालय के युवा किसान ट्रेनिंग प्रोग्राम के बारे में पता चला, यह प्रोग्राम 3 महीने का था जिसके अंतर्गत डेयरी जैसे 12 विषय थे जैसे डेयरी, बागबानी, पोल्टरी और कई अन्य विषय। उन्होंने इसमें भाग लिया। ट्रेनिंग खत्म करने के बाद उन्होंने बीज तैयार करने शुरू किए और बिना सब्जी मंडी या कोई अन्य दुकान खोले बिना उन्होंने घर पर बैठकर ही बीज तैयार करने के व्यवसाय से अच्छी कमाई की।

कृषि गतिविधियों के अलावा, शमशेर सिंह सुधु एक सामाजिक पहल में भी शामिल हैं जिसके माध्यम से वे ज़रूरतमंदों को कपड़े दान करके उनकी मदद करते हैं। उन्होंने विशेष रूप से अवांछित कपड़े इक्ट्ठे करने और अच्छे उद्देश्य के लिए इसका उपयोग करने के लिए किसानों का एक समूह बनाया है।

बीज की तैयारी के लिए, शमशेर सिंह संधु पहले स्वंय यूनिवर्सिटी से बीज खरीदते, उनकी खेती करते, पूरी तरह पकने की अवस्था पर पहुंच कर इसकी कटाई करते और बाद में दूसरे किसानों को बेचने से पहले अर्ध जैविक तरीके से इसका उपचार करते। इस तरीके से वे इस व्यवसाय से अच्छा लाभ कमा रहे हैं उनका उद्यम इतना सफल है कि उन्हें 2015 और 2018 में इनोवेटिव फार्मर अवार्ड और फैलो फार्मर अवार्ड के साथ आई.ए.आर.आई ने उत्कृष्ट प्रयासों के लिए दो बार सम्मानित किया है।

वर्तमान में शमशेर सिंह संधु बीज की तैयारी के साथ, ग्वार, गेहूं, जौ, कपास और मौसमी सब्जियों की खेती कर रहे हैं और इससे अच्छे लाभ कमा रहे हैं। भविष्य में वे अपने संधु बीज फार्म के काम का विस्तार करने की योजना बना रहे हैं, ताकि वे सिर्फ पंजाब में ही नहीं, बल्कि अन्य पड़ोसी राज्यों में भी बीज की आपूर्ति कर सकें।

संदेश
किसानों को अन्य बीज आपूर्तिकर्ताओं के बीज भी इस्तेमाल करके देखने चाहिए ताकि वे अच्छे सप्लायर और बुरे के बीच का अंतर जान सकें और सर्वोत्तम का चयन कर फसलों की बेहतर उपज ले सकें।

किशन सुमन

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राजस्थान के किसान ने ग्राफ्टिंग द्वारा सभी मौसमों में उपलब्ध आम की एक नई किस्म विकसित की

जब बात फलो की आती है तो कोई ही इंसान होगा जोआमों को पसंद नहीं करता होगा। तो ये कहानी है राजस्थान के 52 वर्षीय किसान- किशन सुमन की, जिन्होंने आम की एक नई किस्म— सदाबहार की खोज की जो कि हर मौसम में उपलब्ध रहता है। खैर, यह उन सभी फल प्रेमियों के लिए अच्छी खबर है जो बे मौसम में भी आम खाने की लालसा रखते हैं।

अपनी पढ़ाई पूरी करने के बाद 1995 में किशन सुमन अपने पिता के नक्शेकदम पर चले और अपनी पैतृक ज़मीन पर खेती शुरू की। शुरूआत में उन्होंने अनाज वाली फसलों के साथ अपना उद्यम शुरू किया पर उचित मौसम और व्यापारियों से उचित मूल्य ना मिलने के कारण ये फसलें उनके लिए फायदेमंद सिद्ध नहीं हुई। इसलिए किशन सुमन चमेली की खेती करने लगे। इसके अलावा,कुछ नया सीखने के उत्सुकता होने के कारण, किशन सुमन ने गुलाब के पौधे में ग्राफ्टिंग विधि सीखी। जिससे उन्होंने उसी पौधे से विभिन्न रंग बिरंगे गुलाबों की खेती की। अच्छी तरह से गुलाब के पौधे से प्रयोग करने से किशन सुमन का विश्वास बढ़ गया और अगला पौधा था आम जिस पर उन्होंने ग्राफ्टिंग की।

ग्राफ्टिंग प्रक्रिया के लिए आम का चयन करने के पीछे किशन सुमन का यह कारण था कि आमतौर पर आम फल केवल 2—3 महीनों में उपलब्ध होता है और वे चाहते थे कि यह पूरे मौसम में उपलब्ध हो ताकि आम पसंद करने वाले जब चाहें इसे खा सकें।

2000 में किशन सुमन ने अपने बगीचे में अच्छी वृद्धि और गहरे रंग की पत्तियों के साथ एक आम का वृक्ष देखा, इसलिए आम की ग्राफ्टिंग में 15 वर्षों के लगातार प्रयासों के साथ किशन सुमन ने आखिरकार छोटे आम की एक नई किस्म तैयार की और इसे सदाबहार नाम दिया। जो सिर्फ दो वर्षों में फल की उपज देना शुरू कर देता है। छोटा फल होने की विशेषताओं के कारण आम की सदाबहार किस्म उच्च घनत्व खेती और अति उच्च घनत्व खेती तकनीक के लिए उपयुक्त है।

“मैंने अपने पूरे दृढ़ संकल्प और प्रयासों से यह आम की किस्म तैयार की है। यद्यपि पौधा दूसरे वर्ष में फल देना शुरू कर देता है, लेकिन इस पौधे को अच्छी तरह से वृद्धि करने की सिफारिश की जाती है। ताकि वह उचित ताकत हासिल कर सके। इसके अलावा, सदाबहार एक रोग प्रतिरोधक किस्म है जो जलवायु परिवर्तन से भी प्रभावित नहीं होती। चार साल बाद फल की तुड़ाई की जा सकती है। लेकिन तब तक पौधे को अच्छे से बढ़ने दें ”— किशन सुमन ने कहा।

सदाबहार आम की किस्म की कुछ प्रमुख विशेषताएं हैं:
• उच्च उपज (5—6 टन प्रति हेक्टेयर)
• पूरे वर्ष फल लगता है
• मीठा गुद्दा होने के साथ साथ आम का छिल्का गहरे संतरे रंग का होता है
• गुद्दे में बहुत कम फाइबर होता है।

वर्तमान में, किशन सुमन के पास उनके बाग में आम के 22 मुख्य पौधे हैं और 300 कलमी पौधे हैं। नेशनल इनोवेशन फाउंडेशन की सहायता से, श्री किशन सदाबार किस्म की कलमों और पौधों को बेच रहे हैं। छत्तीसगढ़, दिल्ली और हरियाणा क्षेत्रों के कई किसान उनके द्वारा विकसित किस्म खरीदने के लिए उनके फार्म पर आते हैं और परिणामों को देखने के बाद उनकी सराहना भी करते हैं। यहां तक कि राष्ट्रपति भवन के मुगल गार्डल में भी सदाबहार के पौधे लगाए गए हैं।

आम की एक किस्म जो पूरे वर्ष फल दे सकती हैं, में लगे उनके प्रयासों और मेहनत के लिए उन्हें 9वें राष्ट्रीय ग्रासरूद इनोवेशन और उत्कृष्ट पारंपरिक ज्ञान पुरस्कार समारोह में सम्मानित किया गया है।

यद्यपि सदाबहार सभी प्रमुख बीमारियों के प्रतिरोधक है। फिर भी किशन सुमन का मानना है कि रोकथाम इलाज से बेहतर है और इसलिए वे नीम की निंबोली, और गाय के मूत्र से कुदरती कीटनाशक तैयार करते हैं यह किसी भी तरह के कीट और बीमारियों से पौधे को सुरक्षा प्रदान करता है।

भविष्य में किशन सुमन कटहल पर प्रयोग करने की योजना बना रहे हैं। क्योंकि इसका फल लगने में अधिक समय लगता है इसलिए किशन सुमन उस समय को कम करने की योजना बना रहे हैं।

संदेश
“बागबानी एक बहुत ही रोचक क्षेत्र है और किसानों के पास विभिन्न पौधों पर उनकी रचनात्मकता के साथ प्रयोग करने और अच्छे लाभ अर्जित करने के विभिन्न अवसर हैं।”

कुलविंदर सिंह नागरा

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अच्छे वर्तमान और भविष्य की उम्मीद से कुलविंदर सिंह नागरा मुड़े कुदरती खेती के तरीकों की ओर

उम्मीद एकमात्र सकारात्मक भावना है जो किसी व्यक्ति को भविष्य के बारे में सोचने की ताकत देती है, भले ही इसके बारे में सुनिश्चित न हो। और हम जानते हैं कि जब हम बेहतर भविष्य के बारे में सोचते है तो कुछ नकारात्मक परिणामों को जानने के बावजूद भी हमारे कार्य स्वचालित रूप से जल्दी हो जाते हैं। ऐसा ही कुछ जिंला संगरूर के गांव नागरा के एक प्रगतिशील किसान कुलविंदर सिंह नागरा के साथ हुआ जिनकी उम्मीद ने उन्हें कुदरती खेती की तरफ बढ़ाया।

“जैविक खेती में करने से पहले, मुझे पता था कि मुझे लगातार दो साल तक नुकसान का सामना करना पड़ेगा। इस स्थिति से अवगत होने के बाद भी मैंने कुदरती ढंगों को अपनाने का फैसला किया। क्योंकि मेरे लिए मेरा परिवार और आसपास का वातावरण पैसे कमाने से ज्यादा महत्वपूर्ण हैं। इसके अलावा, मैं अपने परिवार और खुद के लिए कमा रहा हूं, क्या होगा यदि इतने पैसे कमाने के बाद भी मैं अपने परिवार को स्वस्थ रखने में योग्य नहीं… तब सब कुछ व्यर्थ है।”

खेती की पृष्ठभूमि से आने पर कुलविंदर सिंह नागरा ने अपने पिता के नक्शेकदम पर चलने का का फैसला किया। 1997 में, अपनी मैट्रिक की पढ़ाई पूरी करने के बाद, उन्होंने अपने परिवार की पुरानी तकनीकों को अपनाकर धान और गेहूं की खेती करनी शुरू की। 2000 तक, उन्होंने 10 एकड़ भूमि में गेहूं और धान की खेती जारी रखी और एक एकड़ में मटर, प्याज, लहसुन और लौकी जैसी कुछ सब्ज़ियां उगायी । लेकिन वह गेहूं और धान से संतुष्ट नहीं थे। इसलिए धीरे-धीरे उन्होंने सब्जी की खेती के क्षेत्र को एक एकड़ से 7 एकड़ तक और किन्नू और अमरूद को 1½ एकड़ में उगाना शुरू किया।

“किन्नू कम सफल था लेकिन अमरूद ने अच्छा मुनाफा दिया और मैं इसे भविष्य में भी जारी रखूगा।”

बागवानी में सफलता के अनुभव ने कुलविंदर सिंह नागरा के आत्मविश्वास को बढ़ाया और तेजी से उन्होंने अपनी कृषि गतिविधियों को, और अधिक लाभ कमाने के लिए विस्तारित किया। उन्होंने सब्जी की खेती से लेकर नर्सरी की तैयारी तक सब कुछ करना शुरू कर दिया। 2008-2009 में उन्होंने शाहबाद मारकंडा , सिरसा और पंजाब के बाहर विभिन्न किसान मेलों में मिर्च, प्याज, हलवा कद्दू, करेला, लौकी, टमाटर और बेल की नर्सरी बेचना शुरू कर दिया।

2009 में उन्होंने अपनी खेती तकनीकों को जैविक में बदलने का विचार किया, इसलिए उन्होंने कुदरती खेती की ट्रेनिंग पिंगलवाड़ा से ली, जहां पर किसानों को ज़ीरो बजट पर कुदरती खेती की मूल बातें सिखाई गईं। एक सुरक्षित और स्थिर शुरुआत को ध्यान में रखते हुए कुलविंदर सिंह नागरा ने 5 एकड़ के साथ कुदरती खेती शुरू की।

वह इस तथ्य से अच्छी तरह से अवगत थे कि कीटनाशक और रासायनिक उपचार भूमि को जैविक में परिवर्तित करने में काफी समय लग सकता है और वह शुरुआत में कोई लाभ नहीं कमाएंगे। लेकिन उन्होंने कभी भी शुरुआत करने से कदम पीछे नहीं उठाया, उन्होंने अपने खेती कौशल को बढ़ाने का फैसला किया और उन्होंने फूड प्रोसेसिंग, मिर्च और खीरे के हाइब्रिड बीज उत्पादन, सब्जियों की नैट हाउस में खेती और ग्रीन हाउस प्रबंधन के लिए विभिन्न क्षेत्रों में ट्रेनिंग ली । लगभग दो वर्षों के बाद, उन्होंने न्यूनतम लाभ प्राप्त करना शुरू किया।

“मंडीकरण मुख्य समस्या थी जिस का मैंने सबसे ज्यादा सामना किया था चूंकि मैं नौसिखिया था इसलिए मंडीकरण तकनीकों को समझने में कुछ समय लगा। 2012 में, मैंने सही मंडीकरण तकनीकों को अपनाया और फिर सब्जियों को बेचना मेरे लिए आसान हो गया।”

कुलविंदर सिंह नागरा ने प्रकृति के लिए एक और कदम उठाया वह था पराली जलाना बंद करना। आज पराली को जलाना प्रमुख समस्याओ में से एक है जिस का पंजाब सामना कर रहा है और यह विश्व स्तर का प्रमुख मुद्दा भी है। पंजाब और हरियाणा में किसान धन बचाने के लिए पराली जला रहे है, पर कुलविंदर सिंह नागरा ने पराली जलाने की बजाय इस की मल्चिंग और खाद बनाने के लिए इस्लेमाल किया।

कुलविंदर सिंह नागरा खेती के क्षेत्र में आगे बढ़ने के लिए हैप्पी सीडर, किसान, बैड्ड, हल, रीपर और रोटावेटर जैसे आधुनिक और नवीनतम पर्यावरण-अनुकूल उपकरणों को पहल देते हैं।

वर्तमान में, वे 3 एकड़ पर गेहूं, 2 एकड़ पर चारे वाली फसलें, सब्जियां (मिर्च, शिमला मिर्च, खीरा, पेठा, तरबूज, लौकी, प्याज, बैंगन और लहसुन) 6 एकड़ पर और और फल जैसे आड़ू, आंवला और 1 एकड़ पर किन्नू की खेती करते हैं। वह अपने खेत पर पानी का सही उपयोग करने के लिए ड्रिप सिंचाई का उपयोग करते हैं।

वे अपनी कृषि गतिविधियों का समर्थन करने के लिए डेयरी फार्मिंग भी कर रहे है। उनके पास उनके बाड़े में 12 पशू हैं, जिनमें मुर्रा भैंस, नीली रावी और साहीवाल शामिल है। इनका दूध उत्पादन प्रति दिन 90 से 100 किलो है, जिससे वह बाजार में 70-75 किलोग्राम दूध बेचते हैं और शेष घर पर इस्तेमाल करते हैं । अब, मंडीकरण एक बड़ी समस्या नहीं है, वे संगरूर, सुनाम और समाना मंडी में सभी जैविक सब्जियां बेचते हैं। व्यापारी फल खरीदने के लिए उनके फार्म पर आते हैं और इस प्रकार वे अपने फसल उत्पादों की अच्छी कीमत कमा रहे हैं।

वे अपनी सभी उपलब्धियों का श्रेय पंजाब खेतीबाड़ी यूनिवर्सिटी और अपने परिवार को देते हैं। आज, वे एक ऐसे व्यक्ति हैं जो दूसरों को अपनी कुदरती सब्जियों की खेती के कौशल के साथ प्रेरित करते है और उन्हें इस पर गर्व है। सब्जियों की कुदरती खेती के क्षेत्र में उनके काम के लिए, उन्हें कई पुरस्कार और प्रशंसा मिली, और उनमें से कुछ है…

• 19 फरवरी 2015 को सूरतगढ़ (राजस्थान) में भारत के माननीय प्रधान मंत्री नरेंद्र मोदी द्वारा प्रगतिशील किसान का कृषि कर्मण पुरस्कार प्राप्त किया।

• संगरूर के डिप्टी कमिश्नर श्री कुमार राहुल द्वारा ब्लॉक लेवल अवॉर्ड प्राप्त किया।

• पंजाब एग्रीकल्चर यूनिवर्सिटी, लुधियाना से पुरस्कार प्राप्त किया।

• कृषि निदेशक, पंजाब से पुरस्कार प्राप्त किया।

• सर्वोत्तम सब्जी की किस्म की खेती में कई बार पहला और दूसरा स्थान हासिल किया।

खैर, ये पुरस्कार उनकी उपलब्धियों को उल्लेख करने के लिए कुछ ही हैं। कृषि समाज में उन्हें मुख्य रूप से उनके काम के लिए जाना जाता है।

कृषि के क्षेत्र में किसानों को मार्गदर्शन करने के लिए अक्सर उनके फार्म हाउस पर वे के वी के और पी ए यू के माहिरों को आमंत्रित करते हैं कि वे फार्म पर आये और कृषि संबंधित उपयोगी जानकारी सांझा करें, साथ ही साथ किसानों के बीच में वार्तालाप भी करवाते हैं ताकि किसान एक दूसरे से सीख सकें। उन्होंने वर्मीकंपोस्ट प्लांट भी स्थापित किया है वे अंतर फसली और लो टन्नल तकनीक अपनाते हैं, मधुमक्खीपालन करते हैं। कुछ क्षेत्रों में गेहूं की बिजाई बैड पर करते हैं। नो टिल ड्रिल हैपी सीडर का इस्तेमाल करके गेहूं की खेती करते हैं, धान की रोपाई से पहले ज़मीन को लेज़र लेवलर से समतल करते हैं, मशीनीकृत रोपाई करते हैं। एकीकृत कीट प्रबंधन और एकीकृत निमाटोड प्रबंधन करते हैं।

कृषि तकनीकों को अपनाने का प्रभाव:

विभिन्न कृषि तकनीकों को लागू करने के बाद, उनके गेहूं उत्पादन ने देश भर में उच्चतम गेहूं उत्पादन का रिकॉर्ड बनाया जो कुदरती खेती के तरीकों से 2014 में प्रति हेक्टेयर 6456 किलोग्राम था और इस उपलब्धि के लिए उन्हें कृषि कर्मण अवार्ड से सम्मानित किया गया। उनके आस पास रहने वाले किसानों के लिए वे प्रेरक हैं और वातावरण अनुकूलन तकनीकों को अपनाने के लिए किसान अक्सर उनकी सलाह लेते है।

भविष्य की योजना:
भविष्य में, कुलविंदर सिंह नागरा सब्जियों को विदेशों निर्यात करने की बना रहे हैं।
संदेश
“जो किसान अपने कर्ज और जिम्मेदारियों के बोझ से राहत पाने के लिए आत्मघाती पथ लेने का विकल्प चुनते हैं उन्हें ऐसा करने से रोकना चाहिए। भगवान ने हमारे जीवन के लक्ष्यों को प्राप्त करने के लिए कई अवसर और क्षमताओं को दिया है और हमें इस अवसर को कभी भी छोड़ना चाहिए।”

प्रतीक बजाज

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बरेली के नौजवान ने सिर्फ देश की मिट्टी को अधिक उपजाऊ बनाने और किसानों को दोहरी आमदन कमाने में मदद करने के लिए सी ए की पढ़ाई छोड़कर वर्मीकंपोस्टिंग को चुना

प्रतीक बजाज, अपने प्रयासों के योगदान द्वारा अपनी मातृभूमि को पोषित करने और देश की मिट्टी को अधिक उपजाऊ बनाने में कृषि समाज के लिए एक उज्जवल उदाहरण है। दृष्टि और आविष्कार के अपने सुंदर क्षेत्र के साथ, आज वे देश की कचरा प्रबंधन समस्याओं को बड़े प्रयासों के साथ हल कर रहे हैं और किसानों को भी वर्मीकंपोस्टिंग तकनीक को अपनाने और अपने खेती को हानिकारक सौदे की बजाय एक लाभदायक उद्यम बनाने में मदद कर रहे हैं।

भारत के प्रसिद्ध शहरों में से एक — बरेली शहर, और एक बिज़नेस क्लास परिवार से आते हुए, प्रतीक बजाज हमेशा सी.ए. बनने का सपना देखते थे ताकि बाद में वे अपने पिता के रियल एस्टेट कारोबार को जारी रख सकें। लेकिन 19 वर्ष की छोटी उम्र में, इस लड़के ने रातों रात अपना मन बदल लिया और वर्मीकंपोस्टिंग का व्यवसाय शुरू करने का फैसला किया।

वर्मीकंपोस्टिंग का विचार प्रतीक बजाज के दिमाग में 2015 में आया जब एक दिन उन्होंने कृषि विज्ञान केंद्र, आई.वी.आर.आई, इज्ज़तनगर में अपने बड़े भाई के साथ डेयरी फार्मिंग की ट्रेनिंग में भाग लिया जिन्होंने हाल ही में डेयरी फार्मिंग शुरू की थी। उस समय, प्रतीक बजाज ने पहले से ही अपनी सी.पी.टी की परीक्षा पास की थी और सी.ए. की पढ़ाई कर रहे थे और अपनी महत्वाकांक्षी भावना के साथ वे सी.ए. भी पास कर सकते थे लेकिन एक बार ट्रेनिंग में भाग लेने के बाद, उन्हें वर्मीकंपोस्टिंग और बायोवेस्ट की मूल बातों के बारे में पता चला। उन्हें वर्मीकंपोस्टिंग का विचार इतना दिलचस्प लगा कि उन्होंने अपने करियर लक्ष्यों को छोड़कर जैव कचरा प्रबंधन को अपनी भविष्य की योजना के रूप में अपनाने का फैसला किया।

“मैंने सोचा कि क्यों हम अपने भाई के डेयरी फार्म से प्राप्त पूरे गाय के गोबर और मूत्र को छोड़ देते हैं जबकि हम इसका बेहतर तरीके से उपयोग कर सकते हैं — प्रतीक बजाज ने कहा 

उन्होंने आई.वी.आर.आई से अपनी ट्रेनिंग पूरी की और वहां मौजूद शोधकर्ताओं और वैज्ञानिकों से कंपोस्टिंग की उन्नत विधि सीखी और सफल वर्मीकंपोस्टिंग के लिए आवश्यक सभी जानकारी प्राप्त की।

लगभग, छ: महीने बाद, प्रतीक ने अपने परिवार के साथ अपनी योजना सांझा की,यह पहले से ही समझने योग्य था कि उस समय उनके पिता सी.ए. छोड़ने के प्रतीक के फैसले को अस्वीकार कर देंगे। लेकिन जब पहली बार प्रतीक ने वर्मीकंपोस्ट तैयार किया और इसे बाजार में बेचा तो उनके पिता ने अपने बेटे के फैसले को खुले दिल से स्वीकार कर लिया और उनके काम की सराहना की।

मेरे लिए सी ए बनना कुछ मुश्किल नहीं था, मैं घंटों तक पढ़ाई कर सकता था और सभी परीक्षाएं पास कर सकता था, लेकिन मैं वही कर रहा हूं जो मुझे पसंद है बेशक कंपोस्टिंग प्लांट में काम करते 24 घंटे लग जाते हैं लेकिन इससे मुझे खुशी महसूस होती है। इसके अलावा, मुझे किसी भी काम के बीज किसी भी अंतराल की आवश्यकता नहीं है क्योंकि मुझे पता है कि मेरा जुनून ही मेरा करियर है और यह मेरे काम को अधिक मज़ेदार बनाता है — प्रतीक बजाज ने कहा।

जब प्रतीक का परिवार उसकी भविष्य की योजना से सहमत हो गया तो प्रतीक ने नज़दीक के पर्धोली गांव में सात बीघा कृषि भूमि में निवेश किया और उसी वर्ष 2015 में वर्मीकंपोस्टिंग शुरू की और फिर उन्होंने पीछे मुड़कर नहीं देखा।

वर्मीकंपोस्टिंग की नई यूनिट खोलने के दौरान प्रतीक ने फैसला किया कि इसके माध्यम से वे देश के कचरा प्रबंधन समस्याओं से निपटेंगे और किसान की कृषि गतिविधियों को पर्यावरण अनुकूल और आर्थिक तरीके से प्रबंधित करने में भी मदद करेंगे।

अपनी कंपोस्ट को और समृद्ध बनाने के लिए उन्होंने एक अलग तरीके से समाज के कचरे का विभिन्न तकनीकों के साथ उपयोग किया। उन्होंने मंदिर से फूल, सब्जियों का कचरा, चीनी का अवशिष्ट पदार्थ इस्तेमाल किया और उन्होंने वर्मीकंपोस्ट में नीम के पत्तों को शामिल किया, जिसमें एंटीबायोटिक गुण भरपूर होते हैं।

खैर, इस उद्यम को एक पूर्ण लाभप्रद परियोजना में बदल दिया गया, प्रतीक ने गांव में कुछ और ज़मीन खरीदकर वहां जैविक खेती भी शुरू की। और अपनी वर्मीकंपोस्टिंग और जैविक खेती तकनीकों से उन्होंने निष्कर्ष निकाला कि यदि गाय मूत्र और नीम के पत्तों का एक निश्चित मात्रा में उपयोग किया जाये तो मिट्टी को कम खाद की आवश्यकता होती है। दूसरी तरफ यह फसल की उपज को भी प्रभावित नहीं करती। कंपोस्ट में नीम की पत्तियों को शामिल करने से फसल पर कीटों का कम हमला होता है और इससे फसल की उपज बेहतर होती है और मिट्टी अधिक उपजाऊ बनती है।


अपने वर्मीकंपोस्टिंग प्लांट में, प्रतीक दो प्रकार के कीटों का उपयोग करते हैं जय गोपाल और एसेनिया फोएटाइडा, जिसमें से जय गोपाल आई.वी.आर.आई द्वारा प्रदान किया जाता है और यह कंपोस्टिंग विधि को और बेहतर बनाने में बहुत अच्छा है।

अपनी रचनात्मक भावना से प्रतीक ज्ञान को प्रसारित करने में विश्वास करते हैं और इसलिए वे किसान को मुफ्त वर्मीकंपोस्टिंग की ट्रेनिंग देते हैं जिसमें से वे छोटे स्तर से खाद बनाने के एक छोटे मिट्टी के बर्तन का उपयोग करते हैं। शुरूआत में, उनसे छ: किसानों ने संपर्क किया और उनकी तकनीक को अपनाया लेकिन आज लगभग 42 किसान है जो इससे लाभ ले रहे हैं। और सभी किसानों ने प्रतीक की प्रगति को देखकर इस तकनीक को अपनाया है।

प्रतीक किसानों को यह दावे से कहते हैं कि वर्मीकंपोस्टिंग और जैविक खेती में निवेश करके एक किसान अधिक आर्थिक रूप से अपनी ज़मीन को उपजाऊ बना सकता है और खेती के जहरीले तरीकों की तुलना में बेहतर उपज भी ले सकता है। और जब बात मार्किटिंग की आती है जो जैविक उत्पादों का हमेशा बाजार में बेहतर मूल्य होता है।

उन्होंने खुद रासायनिक रूप से उगाए गेहूं की तुलना में बाजार में जैविक गेहूं बेचने का अनुभव सांझा किया। अंतत: जैविक खेती और वर्मीकंपोस्टिंग को अपनाना किसानों के लिए एक लाभदायक सौदा है।


प्रतीक ने अपना अनुभव बताते हुए हमारे साथ ज्ञान का एक छोटा सा अंश भी सांझा किया — वर्मीकंपोस्टिंग में गाय का गोबर उपयोग करने से पहले दो मुख्य चीज़ों का ध्यान रखना पड़ता है —गाय का गोबर 15—20 दिन पुराना होना चाहिए और पूरी तरह से सूखा होना चाहिए।

वर्तमान में, 22 वर्षीय प्रतीक बजाज सफलतापूर्वक अपना सहयोगी बायोटेक प्लांट चला रहे हैं और नोएडा, गाजियाबाद, बरेली और उत्तरप्रदेश एवं उत्तराखंड के कई अन्य शहरों में ब्रांड नाम येलो खाद के तहत कंपोस्ट बेच रहे हैं। प्रतीक अपने उत्पाद को बेचने के लिए कई अन्य तरीकों को भी अपनाते हैं।

मिट्टी को साफ करने और इसे अधिक उपजाऊ बनाने के दृढ़ संकल्प के साथ, प्रतीक हमेशा कंपोस्ट में विभिन्न बैक्टीरिया और इनपुट घटकों के साथ प्रयोग करते रहते हैं। प्रतीक इस पौष्टिक नौकरी का हिस्सा होने का विशेषाधिकार प्राप्त और आनंदित महसूस करते हैं जिसके माध्यम से वे ना केवल किसानों की मदद कर रहे हैं बल्कि धरती को भी बेहतर स्थान बना रहे हैं।

प्रतीक अपना योगदान दे रहे हैं। लेकिन क्या आप अपना योगदान कर रहे हैं? प्रतीक बजाज जैसे प्रगतिशील किसानों की और प्रेरणादायक कहानियां पढ़ने के लिए गूगल प्ले स्टोर पर जाकर अपनी खेती एप डाउनलोड करें।

गुरप्रीत सिंह अटवाल

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जानिये कैसे ये किसान जैविक खेती को सरल तरीके से करके सफलता हासिल कर रहे हैं

35 वर्षीय गुरप्रीत सिंह अटवाल एक प्रगतिशील जैविक किसान है जो जिला जालंधर (पंजाब) के एक छोटे से नम्र और मेहनती परिवार से आये हैं। लेकिन सफलता के इस स्तर पर पहुंचने से पहले और अपने समाज के अन्य किसानों को प्रेरणा देने से पहले, श्री अटवाल भी अपने पिता और आसपास के अन्य किसानों की तरह रासायनिक खेती करते थे।

12वीं के बाद श्री गुरप्रीत सिंह अटवाल ने कॉलेज की पढ़ाई करने का फैसला किया, उन्होंने स्वंय जालंधर के खालसा कॉलेज में बी. ए. में दाखिला लिया। लेकिन जल्दी ही दिमाग में कुछ अन्य विचारों के कारण उन्होंने पहले वर्ष में ही कॉलेज छोड़ दिया और अपने चाचा और पिता के साथ खेतीबाड़ी करने लगे। खेती के साथ साथ वे 2006 में युवा अकाली दल के प्रधान के चुनाव में भी खड़े हुए और इसे जीत भी लिया। समय के साथ श्री अटवाल, 2015 में जिला स्तर पर उसी संगठन के प्रधान से वरिष्ठ प्रधान बन गए।

लेकिन शायद खेती में,किस्मत उनके साथ नहीं थी और उन्हें लगातार नुकसान और कठिनाइयों का सामना करना पड़ा। धान और ग्वार की खेती में उन्हें कोई फायदा नहीं हो रहा था इसलिए 2014 में उन्होंने हल्दी की खेती करने का फैसला किया लेकिन वह भी उनके लिए घाटे का सौदा साबित हुआ। क्योंकि वे बाज़ार में उचित तरीके से अपनी फसल को बेचने में सक्षम नहीं थे। अंत में, उन्होंने हल्दी से हल्दी पाउडर बनाया और गुरूद्वारों और मंदिरों में मुफ्त में बांट दिया। इस तरह की स्थिति का सामना करने के बाद, गुरप्रीत सिंह अटवाल ने फैसला किया कि वे खुद सभी उत्पादों का मंडीकरण करेंगे और बिचौलिये पर निर्भर नहीं रहेंगे।

उसी वर्ष, गुरप्रीत सिंह अटवाल को अपने पड़ोसी गांव के भंगु फार्म के बारे में पता चला। भंगु फार्म का दौरा श्री अटवाल के लिए इतना प्रेरणादायक था कि उन्होंने जैविक खेती करने का फैसला किया। हालांकि भंगु फार्म में गन्ने की खेती और प्रोसेसिंग होती थी लेकिन वहां से जैविक कृषि तकनीकों के बारे में पर्याप्त जानकारी प्राप्त हुई और उसी आधार पर, उन्होंने अपने परिवार के लिए 2.5 एकड़ भूमि पर सब्जियों की जैविक खेती शुरू की।

अब गुरप्रीत सिंह अटवाल ने अपने फार्म पर लगभग जैविक खेती शुरू कर दी है और उपज भी पहले से बेहतर है। वे मक्की, गेहूं, धान, गन्ना और मौसमी सब्जियां उगा रहे हैं और भविष्य में वे गेहूं का आटा और मक्की का आटा प्रोसेस करने की योजना बना रहे हैं। इसी बीच, श्री अटवाल ने भोगपुर शहर में 2 किलोमीटर के क्षेत्र में फार्म में उत्पादित ताजा सब्जियों की होम डिलीवरी शुरू की है।

जैविक खेती के अलावा, गुरप्रीत सिंह अटवाल डेयरी फार्मिंग में भी सक्रिय रूप से शामिल है। उन्होंने घरेलु उपयोग के लिए गायें और भैंसों की स्वदेशी नस्लें रखी हुई है और अधिक दूध गांव में बेच देते हैं।

भविष्य की योजना
गुरप्रीत सिंह अटवाल पंजाब स्तर पर और फिर भारत स्तर पर एक जैविक स्टोर खोलने की योजना बना रहे हैं।

संदेश
प्रत्येक किसान को जैविक खेती करनी चाहिए यदि बड़े स्तर तक संभव ना हो तो इसे कम से कम घर के उद्देश्य के लिए छोटे क्षेत्र में करने की कोशिश करनी चाहिए। इस तरह, वे अपनी ज़िंदगी में एक अंतर बना सकते हैं और इसे बेहतर बना सकते हैं।

गुरप्रीत सिंह अटवाल एक प्रगतिशील किसान है जो ना केवल अपने फार्म पर जैविक खेती कर रहे हैं बल्कि अपने गांव के अन्य किसानों को इसे अपनाने की प्रेरणा भी दे रहे हैं। वे डीकंपोज़र की सहायता से कुदरती कीटनाशक और खादें तैयार करते हैं और इसे किसानों में भी बांटते हैं अपने कार्यों से गुरप्रीत अटवाल ने यह साबित कर दिया है कि वे दूर की सोच रखते हैं और वर्तमान और कठिन समय का डट कर सामना करते हैं और सफलता हासिल करते हैं।

संतवीर सिंह बाजवा

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जानिये कैसे एक वकील पॉलीहाउस में फूलों की खेती करके कृषि को एक सफल उद्यम बना रहा है

आपके पास केवल ज़मीन का होना भारी कर्ज़े और रासायनिक खेती के दुष्चक्र से बचने का एकमात्र साधन नहीं है क्योंकि यह दिन प्रतिदिन किसानों को अपाहिज बना रहा है। किसान को एक ऐसा व्यक्ति माना जाता है जिसे भविष्य के परिणामों को ध्यान में रखकर कड़ी मेहनत करनी पड़ती है और यदि भविष्य के परिणामों में से कोई भी विफल रहता है तो किसान को अन्य विकल्पों के साथ तैयार भी रहना पड़ता है। और केवल वे किसान जो आधुनिक तकनीकों, आदर्श मंडीकरण रणनीतियों और निश्चित रूप से कड़ी मेहनत की मदद से अपने आप को टूटने नहीं देते और खेती के सही तरीके को समझते हैं, सिर्फ उनकी अगली पीढ़ी ही इस पेशे को खुशी से अपनाती है।
यह कहानी है होशियारपुर स्थित वकील संतवीर सिंह बाजवा की जो बागबानी के क्षेत्र में अपने पिता जतिंदर सिंह लल्ली बाजवा की सफलता को देखने के बाद सफल युवा किसान बने। अपने पिता के समान उन्होंने पॉलीहाउस में फूलों की खेती करने का फैसला किया और इस उद्यम को सफल भी बनाया।

संतवीर सिंह बाजवा अपने विचार साझा करते हुए — वर्तमान में अगर हम आज के युवाओं को देखे तो हमें एक स्पष्ट चीज़ का पता चल सकता है कि या तो आजकल के नौजवान विदेश जा रहे हैं या फिर वे खेती के अलावा कोई और पेशे का चयन कर रहे हैं और इसके पीछे का मुख्य कारण कृषि में कोई निश्चित आय ना होना है, और तो और इसमें नुकसान का डर भी रहता है। इसके अलावा मौसम और सरकारी योजना भी किसान को ढंग से सहारा नहीं दे पाता।

अपने पिता के समान कौशल जिन्होंने विवधीकरण को सफलतापूर्वक अपनाया और महलांवाली गांव में एक सुंदर फलों के बाग की स्थापना की , संतवीर सिंह ने भी अपना फूलों की खेती के पॉलीहाउस की स्थापना की जहां पर उन्होंने जरबेरा की खेती शुरू की। सजावटी फूलों के बाजार की मांग के बारे में अवगत होने के कारण, संतवीर ने गुलाब ओर कारनेशन की खेती भी शुरू कर दी जिससे उन्हें अच्छा लाभ प्राप्त हुआ।

पॉलीहाउस में खेती करने के अपने अनुभव से, मैं अन्य किसानों के साथ एक महत्तवपूर्ण जानकारी साझा करना चाहता हूं कि पॉलीहाउस में काश्त की फसलों और उचित कृषि तकनीकों की देखभाल करने की आवश्यकता होती है, केवल तभी आप अच्छी उपज प्राप्त कर सकते हैं। मैं व्यक्तिगत रूप से फूलों के विशेषज्ञयों और प्रगतिशील किसानों से परामर्श करता हूं और अपना सर्वश्रेष्ठ कोशिश देन के लिए इंटरनेट से भी मदद लेता हूं। — संतवीर सिंह बाजवा।

अब भी संतवीर सिंह बाजवा अपने पिता की नई मंडीकरण रणनीतियों से मदद कर रहे हैं और फलों की खेती से भी अच्छा लाभ कमा रहे हैं।
संदेश
यदि किसान कृषि तकनीकों से अच्छी प्रकार से अवगत हैं तो पॉलीहाउस में खेती करना एक बहुत ही लाभदायक उद्यम है। युवा किसानों को पॉलीहाउस में खेती करने की कोशिश करनी चाहिए क्योंकि इस क्षेत्र में उनके लिए बहुत संभावनाएं हैं और वे इससे अच्छा लाभ कमा सकते हैं 

नवदीप बल्ली और गुरशरन सिंह

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 मालवा क्षेत्र के दो युवा किसान कृषि को फूड प्रोसेसिंग के साथ जोड़कर कमा रहे दोगुना लाभ

भोजन जीवन की मूल आवश्यकता है, लेकिन क्या होगा जब आपका भोजन उत्पादन के दौरान बहुत ही बुनियादी स्तर पर मिलावटी और दूषित हो जाये!

आज, भारत में भोजन में मिलावट एक प्रमुख मुद्दा है,जब गुणवत्ता की बात आती है तो उत्पादक/निर्माता अंधे हो जाते हैं और वे केवल मात्रा पर ध्यान केंद्रित करते हैं,जो ना केवल भोजन के स्वाद और पोषण को प्रभावित करता है बल्कि उपभोक्ता के स्वास्थ्य को भी प्रभावित करता है। लेकिन पंजाब के मालवा क्षेत्र के ऐसे दो युवा किसानों ने, समाज को केवल शुद्ध भोजन प्रदान करना अपना लक्ष्य बना लिया।

यह नवदीप बल्ली और गुरशरण सिंह की कहानी है जिन्होंने अपने अनूठे उत्पादन कच्ची हल्दी के आचार के साथ बाजार में प्रवेश किया और थोड़े समय में ही लोकप्रिय हो गए। एक अच्छी शिक्षित पृष्ठभूमि से आते हुए इन दो युवा पुरूषों ने समाज के लिए क्या, अच्छा प्रदान करने का फैसला किया। यह सब तब शुरू हुआ जब उन्होंने कच्ची हल्दी के कई लाभ और घरेलू नुस्खों की खोज की जो खराब कोलेस्ट्रोल को नियंत्रित करने में मदद करते हैं, त्वचा की बीमारियों, एलर्जी और घावों को ठीक करने में मदद करते हैं, कैंसर जैसी जानलेवा बीमारी और कई अन्य बीमारियों को रोकने में मदद करते हैं।

शुरू से ही दोनों दोस्तों ने कुछ अलग करने का फैसला किया था, इसलिए उन्होंने हल्दी की खेती शुरू की और 80-90 क्विंटल प्रति एकड़ की उपज प्राप्त की। उसके बाद उन्होंने अपनी फसल को स्वंय प्रोसेस करने और उसे कच्ची हल्दी के आचार के रूप में मार्किट में बेचने का फैसला किया।पहला स्थान जहां उनके उत्पाद को लोगों के बीच प्रसिद्धी मिली वह था बठिंडा की रविवार वाली मंडी और अब उन्होंने शहर के कई स्थानों पर इसे बेचना शुरू कर दिया है।

फूड प्रोसेसिंग व्यवसाय में प्रवेश करने से पहले नवदीप और गुरशरण ने जिले के वरिष्ठ कृषि विशेषज्ञ डॉ. परमेश्वर सिंह से खेती पर परामर्श लिया। आज, स्वंय डॉक्टर भी स्वयं पर गर्व महसूस करते हैं, कि उनकी सलाह का पालन करके ये युवा खाद्य प्रसंस्करण मार्किट में अच्छा कर रहे हैं और रसोई में प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष रूप से प्रयोग किए जाने वाले अधिक बुनियादी शुद्ध संसाधित खाद्य उत्पादों को बना रहे हैं।

कच्ची हल्दी के आचार की सफलता के बाद, नवदीप और गुरशरण को रामपुर में स्थापित प्रोसेसिंग प्लांट मिला और वर्तमान में उनकी उत्पाद सूची में 10 से अधिक वस्तुएं हैं, जिनमें कच्ची हल्दी, कच्ची हल्दी का आचार, हल्दी पाउडर, मिर्च पाउडर, सब्जी मसाला, धनिया पाउडर, लस्सी, दहीं, चाट मसाला, लहसुन का आचार, जीरा, बेसन, चाय का मसाला आदि।

ये दोनों ना केवल फूड प्रोसेसिंग को एक लाभदायक उद्यम बना रहे हैं। बल्कि अन्य किसानों को बेहतर राजस्व हासिल करने के लिए खेती के साथ फूड प्रोसेसिंग को अपनाने के लिए भी प्रोत्साहित कर रहे हैं।

भविष्य की योजनाएं: वे भविष्य में अपने उत्पादों को पोषक समृद्ध बनाने के लिए फसल विविधीकरण को अपनाने और अधिक किफायती खेती करने की योजना बना रहे हैं। अपने संसाधित उत्पादों को आगे के क्षेत्रों में बेचने और लोगों को मिलावटी भोजन और स्वास्थय की महत्तव के बारे में जागरूक करने की योजना बना रहे हैं।

संदेश
यदि किसान कृषि से बेहतर लाभ चाहते हैं तो उन्हें खेती के साथ फूड प्रोसेसिंग का कार्य शुरू करना चाहिए।

सपिंदर सिंह

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सपिंदर सिंह ने सुअर पालन के साथ मछली पालन को समेकित कर पंजाब में कृषि संबंधित गतिविधियो को अगले स्तर तक पहुंचाया

भारत के अधिकांश भागों में, किसान अपनी घरेलु आर्थिकता को समर्थन देने के लिए समेकित कृषि संबंधित गतिविधियों को अपना रहे हैं और अपनाये भी क्यों ना । समेकित कृषि प्रणाली ना सिर्फ ग्रामीण समुदाय को उचित आजीविका प्रदान करती है बल्कि एक व्यवसाय में किसी कारणवश हानि होने पर अतिरिक्त व्यवसाय के रूप में समर्थन प्रदान करती है। इस उदाहरण के साथ संगरूर के प्रगतिशील किसान सपिंदर सिंह ने सुअर पालन के साथ मछली पालन को अपनाकर पंजाब के अन्य किसानों के लिए उदाहरण स्थापित किया है।

यह कहानी एक रिटायर्ड व्यक्ति— सपिंदर सिंह की है, जिन्होंने अपने 18 वर्ष मिल्टिरी इंजीनियरिंग सर्विस को समर्पित करने के बाद वापिस पंजाब आने का फैसला किया और अपना बाकी का जीवन खेतीबाड़ी को समर्पित कर दिया। कृषि पृष्ठभूमि से आने के कारण, सपिंदर सिंह के लिए दोबारा खेतीबाड़ी शुरू करना कुछ मुश्किल नहीं था। लेकिन मुख्य फसलें गेहू और धान उगाना उनके लिए लाभदायक उद्यम नहीं था। जिसका एक कारण उनका संबंधित कृषि गतिविधियों की तरफ प्रभावित होना था।

इस समय के दौरान, एक बार सपिंदर सिंह कुछ व्यक्तिगत कामों के लिए संगरूर शहर गए और वहां पर उन्होंने एक मछली बीज फार्म में मछली बीज उत्पादन की प्रक्रिया के बारे में पता चला। मछली फार्म में श्रमिकों से बात करने पर उन्हें पता चला कि महीने में एक बार उन अभिलाषी किसानों की ट्रेनिंग के लिए 5 दिनों का ट्रेनिंग प्रोग्राम आयोजित किया जाता है। जो कि मछली पालन के व्यवसाय को अपने करियर के रूप में अपनाना चाहते हैं।

“और यह तब हुआ जब मैंने मछली पालन करने का फैसला किया। मेरी मां और मैंने अक्तूबर 2013 में पांच दिनों की ट्रेनिंग ली। वहां से मुझे पता चला कि मछली का बच्चा केवल मार्च से अगस्त तक ही प्रदान किया जाता है।”

ट्रेनिंग के बाद एक भी पल बिना गंवाए सपिंदर सिंह ने अपना स्वंय का प्री कल्चर टैंक (नर्सरी टैंक) तैयार करने और उसमें मछली के पूंग संग्रहित करने का फैसला किया। टैंक की तैयारी के लिए उन्होंने मिट्टी और पानी की जांच के तहत अपनी ज़मीन की जांच के बाद अपनी ज़मीन पर एक तालाब खोदा। मछली पालन विभाग ने उन्हें लोन एप्लेकेशन में भी मदद की और सपिंदर सिंह के लिए लोन की किश्तों की प्रक्रिया बहुत ही आसान थीं।

“मछली पालन के लिए मैंने 4.50 लाख रूपये के लोन के लिए आवेदन किया और कुछ समय बाद 1.50 लाख रूपये पहली लोन की किश्त प्राप्त हुई। समय पर लोन भी चुकाया गया था, जिसके कारण मुझे अपना मछली फार्म स्थापित करने के दौरान किसी भी प्रकार की वित्तीय समस्या का सामना नहीं करना पड़ा।”

मछली पालन के अधिकारियों ने सपिंदर सिंह को सही समय पर जानकारी देने में महत्तवपूर्ण भूमिका निभाई। उन्होंने श्री सिंह को एकीकृत खेती का सुझाव दिया ओर फिर सपिंदर सिंह ने सुअर पालन का व्यवसाय शुरू करने का फैसला किया। ट्रेनिंग लेने के बाद सपिंदर सिंह ने पिग्गरी शैड स्थापित करने के लिए 4.90 लाख रूपये के लोन के लिए आवेदन किया।

वर्तमान में, सपिंदर सिंह 200 सुअरों के साथ 3.25 एकड़ में मछली पालन कर रहे हैं। सुअर पालन के साथ मछली पालन की समेकित कृषि प्रणाली से उन्हें 8 लाख का शुद्ध लाभ मिलता है। मछली पालन और पशु पालन दोनों विभागों ने 1.95 लाख और 1.50 लाख की सब्सिडी दी। दोनों विभागों और जिला प्रशासन दोनों ने उन्हें अपना उद्यम बढ़ाने में पूरी सहयोग और सभी अवसर उन्हें प्रदान किए।

वर्तमान में, सपिंदर सिंह अपने फार्म को सफलतापूर्वक चला रहे हैं और जब भी उन्हें मौका मिलता है तो वे किसानों को उचित कृषि ज्ञान हासिल करने के लिए द्वारा आयोजित के वी के ट्रेनिंग कैंप में शामिल होने के लिए प्रोत्साहित करने की कोशिश करते हैं।

अपनी तीव्र जिज्ञासा के साथ वे हमेशा एक कदम आगे रहना चाहते हैं सपिंदर सिंह ये भी जानते है। कि उन्नति के लिए उनका अगला कदम क्या होना चाहिए और यही कारण है कि वे सुअर — मछली युनिट के प्रोसेसिंग प्लांट में निवेश करने की योजना बना रहे हैं।

सपिंदर सिंह एक आधुनिक प्रगतिशील किसान हैं जिन्होंने आधुनिक पद्धति के अनुसार अपने खेती करने के तरीकों को बदला और प्रत्येक अवसर का लाभ उठाया। अन्य किसान यदि कृषि क्षेत्र में प्रगति करना चाहते हैं तो उन्हें सपिंदर सिंह के दृष्टिकोण को समझना होगा।

संदेश

यदि किसान अच्छी कमाई करना चाहते हैं और आर्थिक रूप से घरेलु स्थिति में सुधार करना चाहते हैं तो उन्हें फसल की खेती के साथ कृषि संबंधी व्यवसायों को अपनाना चाहिए।

ननिल चौधरी

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मिलिये अगली पीढ़ी के समृद्ध किसान से जो उत्तर प्रदेश में स्थानीय रोज़गार को बढ़ावा दे रहा है

ननिल चौधरी के फार्म का दृश्य सपनों वाली सुगंधित दुनिया में किसी को भी उड़ा देगा। खैर आप सोच रहे होंगे कि वहां फसल, गायें, भैंसों, धूल और गोबर के अलावा और क्या हो सकता है? तो आप गलत हैं क्योंकि ननिल चौधरी उत्तर प्रदेश के अलीगढ़ जिले के एक ऐसे उभरते किसान हैं जो फूलों की खेती करते हैं और उनके फार्म में आपको केवल जरबेरा, रजनीगंधा, ग्लेडियोलस और कई अन्य रंग बिरंगे फूल देखने को मिलेंगे।

पारंपरिक खेती की पृष्ठभूमि से आने से, ननिल चौधरी की कृषि यात्रा अन्य किसानों की तरह गेहूं, बाजरा, आलू, जौं और सरसों की खेती के साथ शुरू हुई जो कि 2014-15 तक रही । यद्यपि उन्होंने एक पारंपरिक किसान की तरह शुरूआत की, लेकिन उन्होंने कभी भी अपने मन में उस रूढ़िवादी सोच को सीमित नहीं रखा और वर्ष 2015—16 में उन्होंने फूलों की खेती के क्षेत्र में प्रवेश किया।

ननिल चौधरी को अलीगढ़ जिले में इग्लास तहसील के पास पॉलीहाउस में जरबेरा के बागान के बारे में पता चला। कुछ पूछताछ करने के बाद उन्हें पता चला कि इसे स्थापित करने के लिए बड़ी भूमि की आवश्यकता है। चूंकि उनकी मां श्रीमती कृष्णा कुमारी के पास काफी ज़मीन थी इसलिए उनके नाम पर परियोजना मंजूर की गई और इसी तरह कृष्णा बायोटेक की स्थापना हुई।

“जलवायु नियंत्रित पॉलीहाउस की स्थापना के लिए मैंने लगभग 1.10 करोड़ का निवेश किया जिनमें से 75 लाख रूपये RBL बैंक लिमिटेड द्वारा दिए गए और यह मेरे लिए एक बहुत बड़ी मदद थी।”

ग्रामीण अर्थव्यवस्था में सुधार के लिए रोज़गार पैदा करने के उद्देश्य से वे फूलों की खेती की तरफ बढ़े और आज उनके अपने दो जलवायु नियंत्रित पॉलीहाउस हैं जहां पर उन्होंने 2 एकड़ में जरबेरा के 40000 पौधे लगाए हैं। पॉलीहाउस के बाहर 6 एकड़ में उन्होंने ग्लेडियोलस, 6 एकड़ में रजनीगंधा, 1 एकड़ में ब्रासिका और 3 एकड़ में गुलदाउदी के पौधे लगाए हैं।

और कैसे ये फूल ननिल चौधरी के कारोबार को मुनाफे में बदल रहे हैं:
एक जरबेरा का पौधा एक वर्ष में 25 फूल देता है जिसके फलस्वरूप 1000000 फूलों की उत्पादन संख्या में बदल जाती है और जब यह फूलों की संख्या 2.50 रूपये के हिसाब से बेची जाती है तो एक वर्ष में 20लाख की आमदन होती है। सब खर्चों की कटौती करने के बाद ननिल चौधरी को प्रति वर्ष 6—7 लाख का शुद्ध लाभ मिलता है। यह लाभ केवल जरबेरा फूल से है। इसके अलावा रजनिगंधा प्रति एकड़ 2 लाख के लगभग मुनाफा देता है। ग्लेडियोलस 1.50 लाख प्रति एकड़ के लगभग और गुलदाउदी प्रति वर्ष 3 लाख प्रति एकड़ के लगभग मुनाफा देता है।

“श्रम शुल्कों, बैंक किश्तों और अन्य इनपुट लागतों के व्यय को छोड़कर, यह फूल उत्पादन का उद्योग मुझे प्रति वर्ष लगभग 14 लाख का लाभ प्रदान कर रहा है।”

ननिल चौधरी के लिए, शुरूआत में मंडीकरण थोड़ा मुश्किल था, क्योंकि दिल्ली को फूलों की डिलीवरी करना मुश्किल था, लेकिन बाद में 2017—18 में, उत्तर प्रदेश राज्य रोडवेज़ बसें फूलों के मंडीकरण का सबसे अच्छा माध्यम थी।

कुछ लोग जो ननिल चौधरी के लिए उनकी फूलों की कृषि यात्रा के दौरान खंभे की तरह उनके साथ खड़े थे उनकी मां, डॉ. माम चंद सिंह (वैज्ञानित और आई.ए आर.आई, पूसा, नई दिल्ली में संरक्षित खेती विभाग प्रमुख) और श्री कौशल कुमार (जिला बागबानी अधिकारी, अलीगढ़)।

ज्ञान प्रसार सबसे महत्तवपूर्ण बात है जिसे ननिल चौधरी हमेशा मानते हैं और उत्तर प्रदेश के इटाह, हाथरस, मेरठ और गाज़ियाबाद जिलों के विभिन्न किसानों को फूलों की खेती के बारे में बताया है।

वर्तमान में, ननिल चौधरी के फार्म में 20—22 कुशल श्रमिक हैं जो विशेष रूप से डिज़ाइन किए गए प्लांटर, ड्रिप सिंचाई प्रणाली, सौर ऊर्जा सिंचाई पंप जैसे आधुनिक उपकरणों की मदद से पूरी तरह मशीनीकृत फार्म का काम करते हैं।

भविष्य के लिए ननिल चौधरी के पास कुछ योजनाएं हैं:
• रजनीगंधा से आवश्यक तेल निकालने की संभावना का पता लगाने की योजना
• उत्तरांचल में बड़े पैमाने पर फूलों की खेती का विस्तार करना।
• व्यापारिक खेती के लिए ग्लेडियोलस कंद,रजनिगंधा कंद और गुलदाउदी नर्सरी का बड़े पैमाने पर उत्पादन।

फूल उत्पादन के उद्यम द्वारा ननिल चौधरी ने अपने क्षेत्र में एक बड़ा बदलाव देखा है, लोगों को खेती, कटाई, पैकिंग और फूलों के परिवहन के कारण नियमित आय मिलती है, उन लोगों की आय उनके चेहरे पर वास्तविक खुशी दिखाती है … ननिल चौधरी

फूलों की खेती के क्षेत्र में जबरदस्त प्रयास करने के लिए ननिल चौधरी को सम्मानित किया गया है-
• 2016—17 में विभागीय कमिश्नर, अलीगढ़ द्वारा प्रगतिशील किसान पुरस्कार प्राप्त हुआ।
• दूरदर्शन, दिल्ली द्वारा कृष्णा बायोटेक फार्म पर एक डॉक्यूमेंट्री तैयार की गई थी और 22 नवंबर 2016 को कृषि दर्शन कार्यक्रम में प्रसारित की गई थी।
• बाद में वर्ष 2017—18 में, दूरदर्शन ने एक और डॉक्यूमेंट्री तैयार की और 27 दिसंबर 2017 को डी डी कृषि दर्शन पर प्रसारित की गई।
ननिल चौधरी के दृढ़ संकल्प और कड़ी मेहनत से कृष्णा बायोटेक ने फूलों की खेती का विसतार किया जिससे उनके परिवार और फार्म में काम करने वाले लोगों के लिए एक गुणवत्ता मानिक निर्धारित हुआ।

इंदर सिंह सिद्धू

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पंजाब में स्थित एक फार्म की सफलता की कहानी जो हरी क्रांति के प्रभाव से अछूता रह गया

एक किसान, जिसका पूरा जीवन चक्र फसल की पैदावार पर ही निर्भर करता है, उसके लिए एक बार भी फसल की पैदावार में हानि का सामना करना तबाही वाली स्थिति हो सकती है। इस स्थिति से निकलने के लिए हर किसान ने अपनी क्षमता के अनुसार बचाव के उपाय किए हैं, ताकि नुकसान से बचा जा सके। और इसी तरह ही कृषि क्षेत्र अधिक पैदावार लेने की दौड़ में हरी क्रांति को अपनाकर नवीनीकरण की तरफ आगे बढ़ा। पर पंजाब में स्थित एक फार्म ऐसा है जो हरी क्रांति के प्रभाव से बिल्कुल ही अछूता रह गया।

यह एक व्यक्ति — इंदर सिंह सिद्धू की कहानी है जिनकी उम्र 89 वर्ष है और उनका परिवार – बंगला नैचुरल फूड फार्म चला रहा है। यह कहानी तब शुरू हुई जब हरी क्रांति भारत में आई। यह उस समय की बात है जब कीटनाशकों और खादों के रूप में किसानों के हाथों में हानिकारक रसायन पकड़ा दिए गए। इंदर सिंह सिद्धू भी उन किसानों में से एक थे जिन्होंने कुछ असाधारण घटनाओं का सामना किया, जिस कारण उन्हें कीटनाशकों के प्रयोग से नफरत हो गई।

“गन्ने के खेत में कीड़े मारने के लिए एक स्प्रे की गई थी और उस समय किसानों को चेतावनी दी गई थी कि उस जगह से अपने पशुओं के लिए चारा इक्ट्ठा ना करें। इस किस्म की प्रक्रिया ज्वार के खेत में भी की गई और यह स्प्रे बहुत ज्यादा ज़हरीली थी, जिससे चूहे और अन्य कई छोटे कीट भी मर गए।”

इन दोनों घटनाओं को देखने के बाद, इंदर सिंह सिद्धू ने सोचा कि यदि ये स्प्रे पशुओं और कीटों के लिए हानिकारक है, तो ये हमें भी नुकसान पहुंचा सकती हैं। स. सिद्धू ने फैसला किया कि कुछ भी हो जाए, वे इन ज़हरीली चीज़ों को अपने खेतों में नहीं आने देंगे और इस तरह उन्होंने पारम्परिक खेती के अभ्यासों, फार्म में तैयार खाद और वातावरण अनुकूल विधियों के प्रयोग से बंगला नैचुरल फूड फार्म को मौत देने वाली स्प्रे से बचाया।

खैर,इंदर सिंह सिद्धू अकले नहीं थे, उनके पुत्र हरजिंदर पाल सिंह सिद्धू और बहू — मधुमीत कौर दोनों उनकी मदद करते हैं। रसोई से लेकर बगीची तक और बगीची से खेत तक, मधुमीत कौर हर काम में दिलचस्पी लेती हैं और अपने पति और ससुर के साथ कदम से कदम मिलाकर चलती हैं ।

पहले, जब अंग्रेजों ने भारत पर हुकूमत की थी, उस समय फाज़िलका को बंगलोअ (बंगला) कहते थे, इस कारण मेरे ससुर जी ने फार्म का नाम बंगला नैचुरल फूड्स रखा। – मधुमीत कौर ने मुस्कुराते हुए कहा।

इंदर सिंह सिद्धू पारंपरिक खेती के अभ्यास में विश्वास रखते हैं पर वे कभी भी आधुनिक पर्यावरण अनुकूल खेती तकनीकें अपनाने से झिझके नहीं। वे अपने फार्म पर सभी आधुनिक मशीनरी को किराये पर लेकर प्रयोग करते हैं और खाद तैयार करने के लिए अपनी बहू की सिफारिश पर वे वेस्ट डीकंपोज़र का भी प्रयोग करते हैं। वे कीटनाशकों के स्थान पर खट्टी लस्सी, नीम और अन्य पदार्थों का प्रयोग करते हैं जो हानिकारक कीटों को फसलों से दूर रखते हैं।

वे मुख्य फसल जिसके लिए बंगला नैचुरल फूड फार्म को जाना जाता है, वह है गेहूं की सबसे पुरानी किस्म बंसी। बंसी गेहूं भारत की 2500 वर्ष पुरानी देसी किस्म है, जिसमें विटामिनों की अधिक मात्रा होती है और यह भोजन के लिए भी अच्छी मानी जाती है।

“जब हम कुदरती तौर पर उगाए जाने वाले और प्रोसेस किए बंसी के आटे को गूंधते हैं तो यह अगले दिन भी सफेद और ताजा दिखाई देता है, पर जब हम बाज़ार से खरीदा गेहूं का आटा देखें तो यह कुछ घंटों के बाद काला हो जाता है— मधुमीत कौर ने कहा।”

गेहूं के अलावा स. सिद्धू गन्ना, लहसुन, प्याज, हल्दी, दालें, मौसमी सब्जियां पैदा करते हैं और उन्होंने 7 एकड़ में मिश्रित फलों का बाग भी लगाया है। स. सिद्धू 89 वर्ष की उम्र में भी बिल्कुल तंदरूस्त हैं, वे कभी भी फार्म से छुट्टी नहीं करते और कुछ कर्मचारियों की मदद से फार्म के सभी कामों की निगरानी करते हैं। गांव के बहुत सारे लोग इंदर सिंह सिद्धू के प्रयत्नों की आलोचना करते थे और कहते थे “यह बुज़ुर्ग आदमी क्या कर रहा है…” पर अब बहुत सारे आलोचक ग्राहकों में बदल गए हैं। और बंगला नैचुरल फूड फार्म से सब्जियां और तैयार किए उत्पाद खरीदना पसंद करते हैं।

इंदर सिंह सिद्धू की बहू खेती करने के अलावा खेती उत्पादों जैसे सेवियां, दलियां, चावल से तैयाार सेवियां, अमरूद का जूस और लहसुन पाउडर आदि उत्पाद भी तैयार करती हैं। ज्यादातर तैयार किए उत्पाद और फसलें घरेलु उद्देश्य के लिए प्रयोग की जाती हैं या दोस्तों और रिश्तेदारों के बांट दी जाती हैं।

उनकी 50 एकड़ ज़मीन को 3 प्लाट में बांटा गया है, जिसमें से इंदर सिंह सिद्धू के पास 1 प्लाट है, जिसमें पिछले 30 वर्षों से कुदरती तौर पर खेती की जा रही है और 36 एकड़ ज़मीन अन्य किसानों को ठेके पर दी है। कुदरती खेती करने के लिए खेती विरासत मिशन की तरफ से उन्हें प्रमाण पत्र भी मिला है।

यह परिवार पारंपरिक और विरासती ढंग के जीवन को संभाल कर रखने में यकीन रखता है। वे भोजन पकाने के लिए मिट्टी के बर्तनों (मटकी, घड़ा आदि) का प्रयोग करते हैं। इसके अलावा वे घर में दरियां, संदूक और मंजी आदि का ही प्रयोग करते हैं।

हर वर्ष उनके फार्म पर बहुत लोग घूमने और देखने के लिए आते हैं, जिनमें कृषि छात्र, विदेशी आविष्कारी और कुछ वे लोग होते हैं जो विरासत और कृषि जीवन को कुछ दिनों के लिए जीना चाहते हैं।

भविष्य की योजना
फसल और तैयार किए उत्पाद बेचने के लिए वे अपने फार्म पर कुछ अन्य किसानों के साथ मिलकर एक छोटा सी दुकान खोलने की योजना बना रहे हैं और अपने फार्म को एक पर्यटक स्थान में बदलना चाहते हैं।
संदेश

“जैसे कि हम जानते हैं कि यदि कीटों के लिए रसायन जानलेवा हैं तो ये कुदरत के लिए भी हानिकारक सिद्ध हो सकते हैं, इसलिए हमें इस बात का ध्यान रखना चाहिए कि हम ऐसी चीज़ों का प्रयोग करने से बचें जो भविष्य में नुकसान दे सकती हैं। इसके अलावा, ज्यादातर कीड़े — मकौड़े हमारे लिए सहायक होते हैं और उन्हें कीटनाशक दवाइयों के प्रयोग से मारना फसलों के साथ साथ वातावरण के लिए भी बुरा सिद्ध होता है। किसान को मित्र कीटों और दुश्मन कीटों की जानकारी होनी चाहिए और सबसे महत्तवपूर्ण बात यह है कि यदि आप अपने काम से संतुष्ट हैं तो आप कुछ भी कर सकते हैं।”

 

खैर, अच्छी सेहत और जीवन ढंग दिखाता है कि सख्त मेहनत और कुदरती खेती के प्रति समर्पण ने इंदर सिंह सिद्धू जी को अच्छा मुनाफा दिया है और उनकी शख्सियत और खेती के अभ्यासों ने उन्हें नज़दीक के इलाकों में पहले से ही प्रसिद्ध कर दिया है।

किसान को लोगों की आलोचनाओं से प्रभावित नहीं होनी चाहिए और वही करना चाहिए जो कुदरती खेती के लिए अच्छा है और आज हमें ऐसे लोगों की ज़रूरत है। इंदर सिंह सिद्धू और उन जैसे प्रगतिशील किसानों को हमारा सलाम है।

अमरजीत सिंह धम्मी

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एक ऐसे उद्यमी जो अपने हर्बल उत्पादों से मधुमेह की दुनिया में क्रांति ला रहे हैं

आज भारत में 65.1 मिलियन से अधिक मधुमेह के मरीज़ हैं और इस तथ्य से, यह बिल्कुल स्पष्ट है कि मधुमेह एक महामारी की तरह फैल रहा है जो हमारे लिए खतरे की स्थिति है। मधुमेह के मरीज़ों की संख्या में वृद्धि के लिए जिम्मेदार ना केवल अस्वस्थ जीवनशैली और अस्वस्थ भोजन है बल्कि मुख्य कारण यह है कि उपभोक्ता अपने घर पर जो मूल उत्पाद खा रहे हैं वे उसके बारे में अनजान हैं। इस परेशान करने वाली स्थिति को समझते हुए और समाज में स्वस्थ परिवर्तन लाने के उद्देश्य से अमरजीत सिंह धम्मी ने अपने कम जी. आई. (GI) हर्बल उत्पादों के साथ इस व्यापक बीमारी को पराजित करने की पहल की।

ग्लाईसेमिक इन्डेक्स या जी. आई. (GI)
जी .आई . (GI) मापता है कि कैसे कार्बोहाइड्रेट युक्त भोजन आपके रक्त में ग्लूकोज़ स्तर को बढ़ाता है। उच्च जी. आई. (GI) युक्त भोजन, मध्यम और कम जी. आई . (GI) युक्त भोजन से अधिक आपके रक्त में ग्लूकोज़ की मात्रा को बढ़ाता है।

2007 में B.Tech एग्रीकल्चर में ग्रेजुएट होने के बाद और फिर अमेरिकी आधारित कंपनी में 3 वर्षों तक एक सिंचाई डिज़ाइनर के रूप में नौकरी करने के बाद, अमरजीत सिंह धम्मी ने अपना स्वंय का व्यवसाय शुरू करने का फैसला किया जिससे वे समाज के प्रमुख स्वास्थ्य मुद्दों का व्याख्यान कर सकें। अपने शोध के अनुसार, उन्होंने पाया कि डायबिटीज़ प्रमुख स्वास्थ्य समस्या है और यही वह समय था जब उन्होंने डायबिटीज़ के मरीज़ों के लिए हर्बल उत्पादों को लॉन्च करने का फैसला किया।

एग्रीनीर फूड (Agrineer Food) ब्रांड का नाम था जिसके साथ वे 2011 में आए और बाद में इसे ओवेर्रा हर्बल्स (Overra Herbals) में बदल दिया। पंजाब एग्रीकल्चर यूनिवर्सिटी, फूड प्रोसेसिंग विभाग से खाद्य प्रसंस्करण की ट्रेनिंग लेने के बाद उन्होंने अपना पहला उत्पाद लॉन्च किया जो मधुमेह के मरीज़ों के लिए डायबिटिक उपयुक्त आटा (Diabetic Friendly Flour) है और अन्य लोग इसे स्वस्थ जीवनशैली के लिए भी उपयोग कर सकते हैं।

अमरजीत सिंह धम्मी इस तथ्य से अच्छी तरह से अवगत थे कि एक नए ब्रांड उत्पाद की स्थापना करने के लिए बहुत सारा निवेश और प्रयास चाहिए। उन्होंने लुधियाना में प्रोसेसिंग प्लांट की स्थापना की, फिर मार्किट रीटेल चेन और इसके विस्तार की स्थापना द्वारा बाजार से व्यवस्थित रूप से संपर्क किया। उन्होंने अपने उद्यम में आयुर्वेद डॉक्टरों, मार्किटिंग विशेषज्ञ और पी एच डी माहिरों को शामिल करके एक कुशल टीम बनाई। इसके अलावा सामग्री की शुद्धता सुनिश्चित करने के लिए, उन्होंने जैविक खेती करने वाले किसानों का एक समूह बनाया और अपने ब्रांड के तहत जैविक दालों को बेचना शुरू कर दिया।

खैर, मुख्य बात यह है कि जिसके साथ मधुमेह के मरीज़ों को लड़ना है वह है मिठास। और इस बात को ध्यान में रखते हुए, अमरजीत सिंह धम्मी ने मधुमेह के मरीज़ों के लिए अपना मुख्य उत्पाद लॉन्च करने से लगभग 4—5 वर्ष पहले अपना शोध कार्य शुरू किया था। अपने शोध कार्य के बाद, श्री धम्मी ने डायबीट शूगर को मार्किट में लेकर आये।

आमतौर पर चीनी में 70 ग्लाइसेमिक इंडेक्स होता है लेकिन डायबीट शूगर में 43 ग्लाइसेमिक इंडेक्स है। यह विश्व में पहली बार है कि चीनी ग्लाइसेमिक इंडेक्स के आधार पर बनाई गई है।

डायबीट शूगर का मुख्य सक्रिय तत्व, जो इसे बाजार में उपलब्ध सामान्य चीनी से विशेष बनाते हैं वे हैं जामुन, अदरक, लहसुन,काली मिर्च, करेला और नीम। और यह ओवेर्रा फूड्स की विकसित की गई (पेटेंट)तकनीक है।

हल्दीराम, लवली स्टीवट्स, गोपाल स्वीट्स कुछ ब्रांड हैं जिनके साथ वर्तमान में ओवेर्रा फूड डायबीटिक फ्रेंडली मिठाई बनाने के लिए अपने डायबीट शूगरऔर डायफ्लोर का लेन देन और सप्लाई कर रही है।

शुरूआत में, अमरजीत सिंह धम्मी ने जिस समस्या का सामना किया वह थी उत्पादों का मंडीकरण और उनकी शेल्फ लाइफ। लेकिन जल्दी ही मार्किटिंग मांगों के मुताबिक उत्पादन करके इसे सुलझा लिया गया। वर्तमान में, ओवेर्रा फूड की मुख्य उत्पादन संयंत्र मैसूर और लुधियाना में स्थित हैं और इसके उत्पादों की सूची में कम जी आई (GI) युक्त डायबीट शूगर से बने जूस, चॉकलेट, स्क्वैश, कुकीज़ शामिल हैं और ये उत्पाद पूरे भारत में आसानी से उपलब्ध हैं।

स्वास्थ्य मुद्दे को संबोधित करने के साथ साथ, श्री धम्मी ने डॉ. रमनदीप के साथ सहयोग करके कॉर्पोरेट सामाजिक जिम्मेदारी की ओर सकारात्मक भूमिका निभाई है, उन्होंने एक कार्यकलाप शुरू की है जिसके माध्यम से वे उद्यमियों को अपनी ट्रेनिंग और मार्गदर्शन के तहत करियर को सही दिशा में ले जाने के लिए मदद की है।

भविष्य की योजनाएं:
अमरजीत सिंह धम्मी अपने उत्पादों को संयुक्त राज्य अमेरिका, केनेडा,फिलीपीन्स और अन्य खाड़ी देशों में निर्यात करने की योजना बना रहे हैं।
संदेश:
“यही समय शिक्षित युवा पीढ़ी के लिए सबसे ज्यादा सही है क्योंकि उनके पास कई अवसर हैं, जिसमें वे स्वंय का व्यवसाय शुरू कर सकते हैं, बजाय कि किसी ऐसी नौकरी के पीछे भागे जिनसे उनकी मौलिक आवश्यकताएं भी पूरी नहीं हो सकी, पर हर काम के लिए धैर्य रखना ज़रूरी है।”
यदि आप दवा की तरह खाना खाएंगे, तो आप स्वस्थ जीवन जियेंगे..
अमरजीत सिंह धम्मी 

गुरमेल सिंह

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कैसे इस किसान ने कृषि को स्थायी कृषि प्रथाओं के साथ वास्तव में लाभदायक व्यवसाय में बदल दिया

खैर, खेती के बारे में हर कोई सोचता है कि यह एक कठिन पेशा है, जहां किसानों को तेज धूप और बारिश में घंटों तक काम करना पड़ता है लेकिन आपको यह जानकर हैरानी होगी कि गुरमेल सिंह को जैविक खेती में शांति और जीवन की संतुष्टि मिलती है।

68 वर्षीय, गुरमेल सिंह ने 2000 मे खेती शुरू की और तब से वे उसी काम को आगे बढ़ा रहे हैं । लेकिन जैविक खेती से पहले उन्होनें मोटर मकैनिक, इलेक्ट्रीशियन जैसे कई व्यवसायों पर हाथ आज़माया और फेब्रिकेशन और वेल्डिंग का काम भी सीखा, लेकिन कोई भी नौकरी उन्हें उपयुक्त नहीं लगी क्योंकि इन्हें करने से ना उन्हें संतुष्टि मिल रही थी और ना ही खुशी ।

2000, में जब उनकी पुश्तैनी ज़मीन उनके और उनके भाई में बंटी, उस समय उन्हें भी 6 एकड़ भूमि यानि संपत्ति का 1 तिहाई हिस्सा मिला। खेती करने के बारे में सोचते हुए उन्होंने दोबारा अपनी इलेक्ट्रीशियन की नौकरी छोड़ दी और गेहूं और धान की रवायिती खेती करनी शुरू की। गुरमेल सिंह ने अपने क्षेत्र में पूरी निष्ठा के साथ हर वो चीज़ की जिसे करने में वे सक्षम थे, लेकिन उपज कभी संतोषजनक नहीं थी। 2007 तक, रवायिती खेती को करने के लिए जो निवेश चाहिए था उसे पूरा करने के कारण वे इतना कर्जे में डूब गए थे कि इससे बाहर आना उनके लिए लगभग असंभव था। अंतत: वे खेती के व्यवसाय से भी निराश हुए।

लेकिन 2007 में अमुत छकने (अमृत संचार-एक सिख अनुष्ठान प्रक्रिया) के बाद उन्हें आध्यात्मिक ज्ञान प्राप्त हुआ जिसकी वजह से उनकी खेती की धारणा पूरी तरह बदल गई उन्होंने 1 एकड़ ज़मीन पर जैविक खेती शुरू करने का फैसला किया और धीरे धीरे पूरे क्षेत्र में इसे बढ़ाने का फैसला किया। गुरमेल सिहं के जैविक खेती के इरादे को जानने के बाद उनके परिवार ने उनका साथ छोड़ दिया और उन्होंने अकेले रहना शुरू कर दिया।

एक ऐसी भूमि पर जैविक खेती करना जहां पर पहले से रासायनिक खेती की जा रही हो, एक बहुत मुश्किल काम है। परिणामस्वरूप उपज कम हुई, लेकिन जैविक खेती के लिए गुरमेल सिंह के इरादे एक शक्तिशाली पहाड़ की तरह मजबूत थे। शुरूआत में सुभाष पालेकर की वीडियो से उन्हें बहुत मदद मिली और उसके बाद 2009 में उन्होंने खेती विरासत मिशन, नाभा फाउंडेशन और NITTTR, जैसे कई संगठनों में शामिल हुए, जिन्होंने उन्हें जैविक खेती के सर्वोत्तम उपयुक्त परिणाम और मंडीकरण के विषयों के बारे में शिक्षित किया। गुरमेल सिंह ने राष्ट्रीय स्तर पर कई समारोह और कार्यक्रमों में हिस्सा लिया जिन्होंने उन्हें वैश्विक स्तर पर जैविक खेती के ढंगों से अवगत करवाया। धीरे धीरे समय के साथ उपज भी बेहतर हो गई और उन्हें अपने उत्पादन को एक अच्छे स्तर पर बेचने का अवसर भी मिला। 2014 में NITTTR की मदद से, गुरमेल सिंह को चंडीगढ़ सब्जी मंडी में अपना खुद का स्टॉल मिला, जहां वे हर शनिवार को अपना उत्पादन बेच सकते थे। 2015 में, मार्कफेड के सहयोग से उन्हें अपने उत्पादन को बेचने का एक और अवसर मिला।

“समय के साथ मैनें अपने परिवार का विश्वास जीत लिया और वे मेरे खेती करने के तरीके से खुश थे। 2010 में, मेरा बेटा भी मेरे उद्यम में शामिल हो गया और उस दिन से वह मेरे खेती जीवन के हर कदम पर मेरे साथ है।”

वे अपने फार्म की 20 से अधिक स्वंय की उगायी हुई फसलों को बेचते हैं, जिसमें मटर, गन्ना, बाजरा, ज्वार, सरसों, आलू, हरी मूंगी, अरहर,मक्की, लहसुन, प्याज, धनिया और बहुत कुछ शामिल हैं। खेती के अलावा, गुरमेल सिंह ने पंजाब एग्रीकल्चर यूनिवर्सिटी से 1 महीने की बेकरी की ट्रेनिंग लेने के बाद खाद्य प्रसंस्करण की प्रोसेसिंग शुरू की।

गुरमेल सिंह ना केवल स्वंय की उपज की प्रोसेसिंग करते हैं बल्कि नाभा फाउंडेशन के अन्य समूह सदस्यों को उनकी उपज की प्रोसेसिंग करने में भी मदद करते हैं। आटा, मल्टीग्रेन आटा, पिन्नियां, सरसों का साग और मक्की की रोटी उनके कुछ संसाधित खाद्य पदार्थ हैं जो वे सब्जियों के साथ बेचते हैं।

जब बात मंडीकरण की आती है तो अधिकारियों और संगठन के सदस्यों में, दृढ़ संकल्प, कड़ी मेहनत और प्रसिद्ध व्यक्तित्व के कारण यह हमेशा गुरमेल सिंह के लिए एक आसान बात रही। वर्तमान में, वे अपने परिवार के साथ नाभा के गांव में रह रहे हैं, जहां 4—5 श्रमिकों की मदद से, वे फार्म में सभी श्रमिकों के कामों का प्रबंधन करते हैं, और प्रोसेसिंग के लिए उन्हें आवश्यकतानुसार 1—2 श्रमिकों को नियुक्त करते हैं।

भविष्य की योजनाए:
भविष्य में, गुरमेल सिंह एक नया समूह बनाने की योजना बना रहे हैं, जहां सभी सदस्य जैविक खेती, प्रोसेसिंग और मंडीकरण करेंगे।
संदेश
“किसानों को समझना होगा कि किसी चीज़ की गुणवत्ता उसकी मात्रा से ज्यादा मायने रखती है, और जिस दिन वे इस बात को समझ जायेंगे उस दिन उपज, मंडीकरण और अन्य मसले भी सुलझ जायेंगे। और आज किसान को बिना किसी उदृदेश्य के रवायिती फसलें उगाने की बजाय मांग और सप्लाई पर ध्यान देना चाहिए।”
 

शुरूआत में, गुरमेल सिंह ने कई समस्याओं का सामना किया इसके अलावा उनके परिवार ने भी उनका साथ छोड़ दिया, लोग उन्हें जैविक खेती अपनाने के लिए पागल कहते थे, लेकिन कुछ अलग करने की इच्छा ने उन्हें अपने जीवन में सफलता प्राप्त करवायी। वे उन शालीन लोगों में से एक हैं जिनके लिए पुरस्कार या प्रशंसा कभी मायने नहीं रखती, उनके लिए उनके काम का परिणाम ही पुरस्कार हैं।

गुरमेल सिंह खुश हैं कि वे अपने जीवन की भूमिका को काफी अच्छे से निभा रहे हैं और वे चाहते हैं कि दूसरे किसान भी ऐसा करें।

करमजीत सिंह भंगु

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मिलिए आधुनिक किसान से, जो समय की नज़ाकत को समझते हुए फसलें उगा रहा है

करमजीत सिंह के लिए किसान बनना एक धुंधला सपना था, पर हालात सब कुछ बदल देते हैं। पिछले सात वर्षों में, करमजीत सिंह की सोच खेती के प्रति पूरी तरह बदल गई है और अब वे जैविक खेती की तरफ पूरी तरह मुड़ गए हैं।

अन्य नौजवानों की तरह करमजीत सिंह भी आज़ाद पक्षी की तरह सारा दिन क्रिकेट खेलना पसंद करते थे, वे स्थानीय क्रिकेट टूर्नामेंट में भी हिस्सा लेते थे। उनका जीवन स्कूल और खेल के मैदान तक ही सीमित था। उन्होंने कभी सोचा भी नहीं था कि उनकी ज़िंदगी एक नया मोड़ लेगी। 2003 में जब वे स्कूल में ही थे उस दौरान उनके पिता जी का देहांत हो गया और कुछ समय बाद ही, 2005 में उनकी माता जी का भी देहांत हो गया। उसके बाद सिर्फ उनके दादा – दादी ही उनके परिवार में रह गए थे। उस समय हालात उनके नियंत्रण में नहीं थे, इसलिए उन्होंने 12वीं के बाद अपनी पढ़ाई छोड़ने का फैसला किया और अपने परिवार की मदद करने के बारे में सोचा।

उनका विवाह बहुत छोटी उम्र में हो गया और उनके पास विदेश जाने और अपने जीवन की एक नई शुरूआत करने का अवसर भी था पर उन्होंने अपने दादा – दादी के पास रहने का फैसला किया। वर्ष 2011 में उन्होंने खेती के क्षेत्र में कदम रखने का फैसला किया। उन्होंने छोटे रकबे में घरेलु प्रयोग के लिए अनाज, दालें, दाने और अन्य जैविक फसलों की काश्त करनी शुरू की। उन्होंने अपने क्षेत्र के दूसरे किसानों से प्रेरणा ली और धीरे धीरे खेती का विस्तार किया। समय और तज़ुर्बे से उनका विश्वास और दृढ़ हुआ और फिर करमजीत सिंह ने अपनी ज़मीन ठेके पर से वापिस ले ली।
उन्होंने टिंडे, गोभी, भिंडी, मटर, मिर्च, मक्की, लौकी और बैंगन आदि जैसी अन्य सब्जियों में वृद्धि की और उन्होंने मिर्च, टमाटर, शिमला मिर्च और अन्य सब्जियों की नर्सरी भी तैयार की।

खेतीबाड़ी में दिख रहे मुनाफे ने करमजीत सिंह की हिम्मत बढ़ाई और 2016 में उन्होंने 14 एकड़ ज़मीन ठेके पर लेने का फैसला किया और इस तरह उन्होंने अपने रोज़गार में ही खुशहाल ज़िंदगी हासिल कर ली।

आज भी करमजीत सिंह खेती के क्षेत्र में एक अनजान व्यक्ति की तरह और जानने और अन्य काम करने की दिलचस्पी रखने वाला जीवन जीना पसंद करते हैं। इस भावना से ही वे वर्ष 2017 में बागबानी की तरफ बढ़े और गेंदे के फूलों से ग्लैडियोलस के फूलों की अंतर-फसली शुरू की।

करमजीत सिंह जी को ज़िंदगी में अशोक कुमार जी जैसे इंसान भी मिले। अशोक कुमार जी ने उन्हें मित्र कीटों और दुश्मन कीटों के बारे में बताया और इस तरह करमजीत सिंह जी ने अपने खेतों में कीटनाशकों के प्रयोग पर प्रतिबंध लगाया।

करमजीत सिंह जी ने खेतीबाड़ी के बारे में कुछ नया सीखने के तौर पर हर अवसर का फायदा उठाया और इस तरह ही उन्होंने अपने सफलता की तरफ कदम बढ़ाए।

इस समय करमजीत सिंह जी के फार्म पर सब्जियों के लिए तुपका सिंचाई प्रणाली और पैक हाउस उपलब्ध है। वे हर संभव और कुदरती तरीकों से सब्जियों को प्रत्येक पौष्टिकता देते हैं। मार्किटिंग के लिए, वे खेत से घर वाले सिद्धांत पर ताजा-कीटनाशक-रहित-सब्जियां घर तक पहुंचाते हैं और वे ऑन फार्म मार्किट स्थापित करके भी अच्छी आय कमा रहे हैं।

ताजा कीटनाशक रहित सब्जियों के लिए उन्हें 1 फरवरी को पी ए यू किसान क्लब के द्वारा सम्मानित किया गया और उन्हें पटियाला बागबानी विभाग की तरफ से 2014 में बेहतरीन गुणवत्ता के मटर उत्पादन के लिए दूसरे दर्जे का सम्मान मिला।

करमजीत सिंह की पत्नी- प्रेमदीप कौर उनके सबसे बड़ी सहयोगी हैं, वे लेबर और कटाई के काम में उनकी मदद करती हैं और करमजीत सिंह खुद मार्किटिंग का काम संभालते हैं। शुरू में, मार्किटिंग में कुछ समस्याएं भी आई थी, पर धीरे धीरे उन्होने अपनी मेहनत और उत्साह से सभी रूकावटें पार कर ली। वे रसायनों और खादों के स्थान पर घर में ही जैविक खाद और स्प्रे तैयार करते हैं। हाल ही में करमजीत सिंह जी ने अपने फार्म पर किन्नू, अनार, अमरूद, सेब, लोकाठ, निंबू, जामुन, नाशपाति और आम के 200 पौधे लगाए हैं और भविष्य में वे अमरूद के बाग लगाना चाहते हैं।

संदेश

“आत्म हत्या करना कोई हल नहीं है। किसानों को खेतीबाड़ी के पारंपरिक चक्र में से बाहर आना पड़ेगा, केवल तभी वे लंबे समय तक सफलता प्राप्त कर सकते हैं। इसके अलावा किसानों को कुदरत के महत्तव को समझकर पानी और मिट्टी को बचाने के लिए काम करना चाहिए।”

 

इस समय 28 वर्ष की उम्र में, करमजीत सिंह ने जिला पटियाला की तहसील नाभा में अपने गांव कांसूहा कला में जैविक कारोबार की स्थापना की है और जिस भावना से वे जैविक खेती में सफलता प्राप्त कर रहे हैं, उससे पता लगता है कि भविष्य में उनके परिवार और आस पास का माहौल और भी बेहतर होगा। करमजीत सिंह एक प्रगतिशील किसान और उन नौजवानों के लिए एक मिसाल हैं, जो अपने रोज़गार के विकल्पों की उलझन में फंसे हुए हैं हमें करमजीत सिंह जैसे और किसानों की जरूरत है।

बलविंदर सिंह संधु

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एक किसान की कहानी जिसने खेतीबाड़ी के पुरानी ढंगों को छोड़कर कुदरती तरीकों को अपनाया

आज, किसान ही सिर्फ वे व्यक्ति हैं जो अन्य किसानों को खेतीबाड़ी के जैविक ढंगों की तरफ प्रेरित कर सकते हैं और बलविंदर सिंह उन किसानों में से एक हैं जिन्होंने प्रगतिशील किसान से प्रेरित होकर पर्यावरण में सकारात्मक बदलाव लाने के लिए हाल ही के वर्षों में जैविक खेती को अपनाया।

खैर, जैविक की तरफ मुड़ना उन किसानों के लिए आसान नहीं होता जो रवायती ढंग से खेती करते हैं और अच्छी उपज प्राप्त करते हैं। लेकिन बलविंदर सिंह संधु ने अपनी दृढ़ संकल्प और कड़ी मेहनत से इस बाधा को पार किया।

इससे पहले, 1982 से 1983 में, वे कपास, सरसों और ग्वार फसलों की खेती करते थे लेकिन 1997 से उन्होंने कपास की फसल पर बॉलवार्म कीट के हमले का सामना किया जिस कारण उन्हें आगे चल कर बार बार बड़ी हानि का सामना करना पड़ा। इसलिए उसके बाद उन्होंने धान की खेती शुरू करने का फैसला किया लेकिन फिर भी वे पहले जितना मुनाफा नहीं कमा पाये। जैविक खेती की तरफ उन्होंने अपना पहला कदम 2011 में उठाया। जब उन्होंने मनमोहन सिंह के जैविक सब्जी फार्म का दौरा किया।

इस दौरे के बाद, बलविंदर सिंह का नज़रिया काफी विस्तृत हुआ और उन्होंने सब्जियों की खेती शुरू करने का फैसला किया। उन्होंने मिर्च से शुरूआत की। पहली गल्तियों को सुधारने के लिए वे कपास के अच्छी किस्म के बीजों को खरीदने के लिए गुजरात तक गए और वहां उन्होंने बीजरहित खीरे, स्ट्रॉबेरी और तरबूज की खेती के बारे में जानकारी प्राप्त हुई। लगातार 3 वर्षों से वे अपनी भूमि पर कीटनाशकों के प्रयोग को कम कर रहे हैं।

उस वर्ष, मिर्च की फसल की उपज बहुत अच्छी हुई अैर उन्होंने 2 एकड़ से 500000 रूपये का लाभ कमाया। बलविंदर सिंह ने अपने फार्म की जगह का भी लाभ उठाया। उनका फार्म रोड पर था इसलिए उन्होंने सड़क के किनारे एक छोटी सी दुकान खोल ली जहां पर उन्होंने सब्जियां बेचना शुरू कर दिया। उन्होंने मिर्च की प्रोसेसिंग करके मिर्च पाउडर बनाना भी शुरू कर दिया।

“जब मैंने मिर्च पाउडर की प्रोसेसिंग शुरू की तो बहुत से लोग शिकायत करते थे कि आपका मिर्च पाउडर का रंग लाल नहीं है। तब मैंने उन्हें समझाया कि मिर्च पाउडर कभी भी लाल रंग का नहीं होता। आमतौर पर बाजार से खरीदे जाने वाले पाउडर में अशुद्धता और रंग की मिलावट होती है।”

2013 में, बलविंदर सिंह ने खीरे, टमाटर, कद्दू और शिमला मिर्च जैसी सब्जियों की खेती शुरू कर दी।

“ज्यादा फसलों को ज्यादा क्षेत्र की आवश्यकता होती है इसलिए खेती के क्षेत्र को बढ़ाने के लिए मैंने अपने चचेरे और सगे भाइयों से ठेके पर 40 एकड़ ज़मीन ली। शुरूआत में सब्जियों का मंडीकरण करना एक बड़ी समस्या थी लेकिन समय के साथ इस समस्या का भी हल हो गया।”

वर्तमान में, बलविंदर सिंह 8-9 एकड़ में सब्जियों की और एक एकड़ में स्ट्रॉबेरी की और बाकी की ज़मीन पर धान और गेहूं की खेती कर रहे हैं। इसके अलावा उत्पादकता बढ़ाने के लिए उन्होंने सभी आधुनिक कृषि उपकरणों और पर्यावरणीय अनुकूल तकनीकों जैसे ट्रैक्टर, बैड प्लांटर, रोटावेटर, कल्टीवेटर, लेवलर, सीडर, तुपका सिंचाई, मलचिंग, कीटनाशकों के स्थान पर घर पर तैयार जैविक खाद और खट्टी लस्सी  स्प्रे को अपनाया है।

पिछले चार वर्षों से वे 2 एकड़ भूमि पर पूरी तरह से जैविक खेती कर रहे हैं और शेष भूमि पर कीटनाशक और फंगसनाशी का प्रयोग कम कर रहे हैं। बलविंदर सिंह की कड़ी मेहनत ने कई लोगों को प्रभावित किया, यहां तक कि उनके क्षेत्र के डी. सी. (DC) ने भी उनके फार्म का दौरा किया। विभिन्न प्रिंट मीडिया में उनके काम के बारे में कई लेख प्रकाशित किए गए हैं और जिस गति से वे प्रगति कर रहे ऐसा प्रतीत होता है कि भविष्य में भी उनकी अलग ही पहचान साबित होगी ।

संदेश
“अब किसानों को लाभ कमाने के लिए अपने उत्पादन बेचने के लिए तराजू को अपने हाथों में लेना होगा, क्योंकि यदि वे अपनी फसल बेचने के लिए बिचौलियों या डीलरों पर निर्भर रहेंगे तो वे प्रगति नहीं कर पायेंगे और बार बार ठगों से धोखा खाएंगे। बिचौलिये उन सभी लाभों को दूर कर देते हैं जिन पर किसान का अधिकार होता है।”

मोहन सिंह

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एक व्यक्ति की कहानी जिसने अपने बचपन के जुनून खेतीबाड़ी को अपनी रिटायरमेंट के बाद पूरा किया

जुनून एक अद्भुत भावना है या फिर ये कह सकते हैं कि ऐसा जज्बा है जो कि इंसान को कुछ भी करने के लिए प्रेरित कर सकता है और मोहन सिंह जी के बारे में पता चलने पर जुनून से जुड़ी हर सकारात्मक सोच सच्ची प्रतीत होती है। पिछले दो वर्षों से ये रिटायर्ड व्यक्ति – मोहन सिंह, अपना हर एक पल बचपन के जुनून या फिर कह सकते हैं कि शौंक को पूरा करने में जुटे हुए हैं आगे कहानी पढ़िए और जानिये कैसे..

तीन दशकों से भी अधिक समय से BCAM की सेवा करने के बाद मोहन सिंह आखिर में 2015 में संस्था से जनरल मेनेजर के तौर से रिटायर हुए और फिर उन सपनों को पूरा करने के लिए खेती के क्षेत्र में कदम रखने का फैसला किया जिसे करने की इच्छा बरसों पहले उनके दिल में रह गई थी ।

एक शिक्षित पृष्ठभूमि से आने पर, जहां उनके पिता मिलिटरी में थे मोहन सिंह कभी व्यवसाय विकल्पों के लिए सीमित नहीं थे उनके पास उनके सपनों को पूरा करने की पूरी स्वतंत्रता थी। अपने बचपन के वर्षों में मोहन सिंह को खेती ने इतना ज्यादा प्रभावित किया कि इसके बारे में वे खुद ही नहीं जानते थे।

बड़े होने पर मोहन सिंह अक्सर अपने परिवार के छोटे से 5 एकड़ के फार्म में जाते थे जिसे उनका परिवार घरेलू उद्देश्य के लिए गेहूं, धान और कुछ मौसमी सब्जियां उगाने के लिए प्रयोग करता था। लेकिन जैसे ही वे बड़े हुए उनकी ज़िंदगी अधिक जटिल हो गई पहले शिक्षा प्रणाली, नौकरी की जिम्मेदारी और बाद में परिवार की ज़िम्मेदारी।

2015 में रिटायर होने के बाद मोहन सिंह ने प्रकाश आयरन फाउंडरी, आगरा में एक सलाहकार के तौर पर पार्ट टाइम जॉब की। वे एक महीने में एक या दो बार यहां आते हैं 2015 में ही उन्होंने अपने बचपन की इच्छा की तरफ अपना पहला कदम रखा और उन्होंने काले प्याज और मिर्च की नर्सरी तैयार करनी शुरू कर दी।

उन्होंने 100 मिट्टी के क्यारियों से शुरूआत की और धीरे धीरे इस क्षेत्र को 200 मिट्टी के क्यारियों तक बढ़ा दिया और फिर उन्होंने इसे 1 एकड़ में 1000 मिट्टी के क्यारियों में विस्तारित किया। उन्होंने ऑन रॉड स्टॉल लगाकर अपने उत्पादों की मार्किटिंग शुरू की। उन्हें इससे अच्छा रिटर्न मिला जिससे प्रेरित होकर उन्होंने सब्जियों की नर्सरी भी तैयार करनी शुरू कर दी। अपने उद्यम को अगले स्तर तक ले जाने के लिए एक व्यक्ति के साथ कॉन्ट्रेक्ट फार्मिंग शुरू की जिसमें उन्होंने मिर्च की पिछेती किस्म उगानी शुरू की जिससे उन्हें अधिक लाभ हुआ।

काले प्याज की फसल मुख्य फसल है जो प्याज की पुरानी किस्मों की तुलना में उन्हें अधिक मुनाफा दे रही है। क्योंकि इसके गलने की अवधि कम है और इसकी भंडारण क्षमता काफी अधिक है। कुछ मज़दूरों की सहायता से वे अपने पूरे फार्म को संभालते हैं और इसके साथ ही प्रकाश आयरन फाउंडरी में सलाहकार के तौर पर काम भी करते हैं। उनके पास सभी आधुनिक तकनीकें हैं जो उन्होने अपने फार्म पर लागू की हुई हैं जैसे ट्रैक्टर, हैरो, टिल्लर और लेवलर।

वैसे तो मोहन सिंह का सफर खेती के क्षेत्र में कुछ समय पहले ही शुरू हुआ है पर अच्छी गुणवत्ता वाले बीज और जैविक खाद का सही ढंग से इस्तेमाल करके उन्होंने सफलता और संतुष्टि दोनों ही प्राप्त की है।

वर्तमान में, मोहन सिंह, मोहाली के अपने गांव देवीनगर अबरावन में एक सुखी किसानी जीवन जी रहे हैं और भविष्य में स्थाई खेतीबाड़ी करने के लिए खेतीबाड़ी क्षेत्र में अपनी पहुंच को बढ़ा रहे हैं।

मोहन सिंह के लिए, अपनी पत्नी, अच्छे से व्यवस्थित दो पुत्र (एक वैटनरी डॉक्टर है और दूसरा इलैक्ट्रोनिक्स के क्षेत्र में सफलतापूर्वक काम कर रहा है), उनकी पत्नियां और बच्चों के साथ रहते हुए खेती कभी बोझ नहीं बनीं, वे खेतीबाड़ी को खुशी से करना पसंद करते हैं।उनके पास 3 मुर्रा भैंसे है जो उन्होंने घर के उद्देश्य के लिए रखी हुई है और उनका पुत्र जो कि वैटनरी डॉक्टर है उनकी देखभाल करने में उनकी मदद करता है।

संदेश

“किसानों को नई पर्यावरण अनुकूलित तकनीकें अपनानी चाहिए और सब्सिडी पर निर्भर होने की बजाये उन ग्रुपों में शामिल होना चाहिए जो उनकी एग्रीकल्चर क्षेत्र में मदद कर सकें। यदि किसान दोहरा लाभ कमाना चाहते हैं और फसल हानि के समय अपने वित्त का प्रबंधन करना चाहते हैं तो उन्हें फसलों की खेती के साथ साथ आधुनिक खेती गतीविधियों को भी अपनाना चाहिए।”

 

यह बुज़ुर्ग रिटायर्ड व्यक्ति लाखों नौजवानों के लिए एक मिसाल है, जो शहर की चकाचौंध को देखकर उलझे हुए हैं।

विपिन यादव

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एक किसान और एक कंप्यूटर इंजीनियर विपिन यादव की कहानी, जिसने क्रांति लाने के लिए पारंपरिक खेती के तरीके को छोड़कर हाइड्रोपोनिक खेती को चुना

आज का युग ऐसा युग है जहां किसानों के पास उपजाऊ भूमि या ज़मीन ही नहीं है, फिर भी वे खेती कर सकते हैं और इसलिए भारतीय किसानों को अपनी पहल को वापिस लागू करना पड़ेगा और पारंपरिक खेती को छोड़ना पड़ेगा।

टैक्नोलोजी खेतीबाड़ी को आधुनिक स्तर पर ले आई है। ताकि कीट या बीमारी जैसी रूकावटें फसलों की पैदावार पर असर ना कर सके और यह खेतीबाड़ी क्षेत्र में सकारात्मक विकास है। किसान को तरक्की से दूर रखने वाली एक ही चीज़ है और वह है उनका डर – टैक्नोलोजी में निवेश डूब जाने का डर और यदि इस काम में कामयाबी ना मिले और बड़े नुकसान का डर।

पर इस 20 वर्ष के किसान ने खेतीबाड़ी के क्षेत्र में तरक्की की, समय की मांग को समझा और अब पारंपरिक खेती से अलग कुछ और कर रहे हैं।

“हाइड्रोपोनिक्स विधि खेतीबाड़ी की अच्छी विधि है क्योंकि इसमें कोई भी बीमारी पौधों को प्रभावित नहीं कर सकती, क्योंकि इस विधि में मिट्टी का प्रयोग नहीं किया जाता। इसके अलावा, हम पॉलीहाउस में पौधे तैयार करते हैं, इसलिए कोई वातावरण की बीमारी भी पौधों को किसी भी तरह प्रभावित नहीं कर सकती। मैं खेती की इस विधि से खुश हूं और मैं चाहता हूं कि दूसरे किसान भी हाइड्रोपोनिक तकनीक अपनाएं।”विपिन यादव

कंप्यूटर साइंस में अपनी इंजीनियरिंग डिग्री पूरी करने के बाद नौकरी औरवेतन से असंतुष्टी के कारण विपिन ने खेती शुरू करने का फैसला किया, पर निश्चित तौर पर अपने पिता की तरह नहीं, जो परंपरागत खेती तरीकों से खेती कर रहे थे।

एक जिम्मेवार और जागरूक नौजवान की तरह, उन्होंने गुरूग्राम से ऑनलाइन ट्रेनिंग ली। शुरूआती ऑनलाइन योग्यता टेस्ट पास करने के बाद वे गुरूग्राम के मुख्य सिखलाई केंद्र में गए।

20 उम्मीदवारों में से सिर्फ 16 ही हाइड्रोपोनिक्स की प्रैक्टीकल सिखलाई हासिल करने के लिए पास हुए और विपिन यादव भी उनमें से एक थे। उन्होंने अपने हुनर को और सुधारने के लिए के.वी.के. शिकोहपुर से भी सुरक्षित खेती की सिखलाई ली।

“2015 में, मैंने अपने पिता को मिट्टी रहित खेती की नई तकनीक के बारे में बताया, जबकि खेती के लिए मिट्टी ही एकमात्र आधार थी। विपिन यादव

सिखलाई के दौरान उन्होंने जो सीखा उसे लागू करने के लिए उन्होंने 5000 से 7000 रूपये के निवेश से सिर्फ दो मुख्य किस्मों के छोटे पौधों वाली केवल 50 ट्रे से शुरूआत की।

“मैंने हार्डनिंग यूनिट के लिए 800 वर्ग फुट क्षेत्र निर्धारित किया और 1000 वर्ग फुट पौधे तैयार करने के लिए गुरूग्राम में किराये पर जगह ली और इसमें पॉलीहाउस भी बनाया। – विपिन यादव

हाइड्रोपोनिक्स की 50 ट्रे के प्रयोग से उन्हें बड़ी सफलता मिली, जिसने बड़े स्तर पर इस विधि को शुरू करने के लिए प्रेरित किया। हाइड्रोपोनिक खेती शुरू करने के लिए उन्होंने दोस्तों, रिश्तेदारों की सहायता से अगला बड़ा निवेश 25000 रूपये का किया।

“इस समय मैं ऑर्डर के मुताबिक 250000 या अधिक पौधे तैयार कर सकता हूं।”

गर्म मौसमी स्थितियों के कारण अप्रैल से मध्य जुलाई तक हाइड्रोपोनिक खेती नहीं की जाती, पर इसमें होने वाला मुनाफा इस अंतराल की पूर्ती के लिए काफी है। विपिन यादव अपने हाइड्रोपोनिक फार्म में हर तरह की फसलें उगाते हैं – अनाज, तेल बीज फसलें, सब्जियां और फूल। खेती को आसान बनाने के लिए स्प्रिंकलर और फोगर जैसी मशीनरी प्रयोग की जाती है। इनके फूलों की क्वालिटी अच्छी है और इनकी पैदावार भी काफी है, जिस कारण ये राष्ट्रपति सेक्ट्रीएट को भी भेजे गए हैं।

मिट्टी रहित खेती के लिए, वे 3:1:1 के अनुपात में तीन चीज़ों का प्रयोग करते हैं कोकोपिट, परलाइट और वर्मीक्लाइट। 35-40 दिनों में पौधे तैयार हो जाते हैं और फिर इन्हें 1 हफ्ते के लिए हार्डनिंग यूनिट में रखा जाता है। NPK, जिंक, मैगनीशियम और कैलशियम जैसे तत्व पौधों को पानी के ज़रिये दिए जाते हैं। हाइड्रोपोनिक्स में कीटनाशक दवाइयों का कोई प्रयोग नहीं क्योंकि खेती के लिए मिट्टी का प्रयोग नहीं किया जाता, जो आसानी से घर में तैयार की जा सकती है।

भविष्य की योजना:
मेरी भविष्य की योजना है कि कैकटस, चिकित्सक और सजावटी पौधों की और किस्में, हाइड्रोपोनिक फार्म में बेहतर आय के लिए उगायी जायें।

विपिन यादव एक उदाहरण है कि कैसे भारत के नौजवान आधुनिक तकनीक का प्रयोग करके खेतीबाड़ी के भविष्य को बचा रहे हैं।

संदेश

“खेतीबाड़ी के क्षेत्र में कुछ भी नया शुरू करने से पहले, किसानों को अपने हुनर को बढ़ाने के लिए के.वी.के. से सिखलाई लेनी चाहिए और अपने आप को शिक्षित बनाना चाहिए।”

देश को बेहतर आर्थिक विकास के लिए खेतीबाड़ी के क्षेत्र में मेहनत करने वाले और नौजवानों एवं रचनात्मक दिमाग की जरूरत है और यदि हम विपिन यादव जैसे नौजवानों को मिलना जारी रखते हैं तो यह भविष्य के लिए एक सकारात्मक संकेत है।

दीपकभाई भवनभाई पटेल

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गुजरात के एक किसान ने आम की विभिन्न किस्मों की खेती करके अच्छा लाभ कमाया

आज, यदि हम प्रगतिशील खेती और किसानों के तथ्यों को देखें तो, तो टेक्नोलोजी की तरफ एक स्पष्ट इशारा दिखाई देता है। किसान की सफलता और उसके फार्म को अच्छा बनाने के लिए टेक्नोलोजी की प्रमुख भूमिका है। यह कहानी है गुजरात के एक किसान – दीपकभाई भवनभाई पटेल की, जिन्होंने कृषि से अच्छी उत्पादकता लेने के लिए अपने आशावादी व्यवहार के साथ कृषि की आधुनिक तकनीकों को अपनाया और अपने प्रयत्नों के साथ उन्होंने उन सभी मुश्किलों का सामना किया जो उनके पिता और दादा-पड़दादा को खेती करते समय आती थी।

आम वह फल है, जिसने गुजरात में नवसारी जिले के काचियावाड़ी गांव में दीपकभाई को बागों का बादशाह बना दिया। दीपकभाई को 1991 में, अपने पिता से 20 एकड़ ज़मीन विरासत में मिली थी, वे अलग-अलग तरह के आम जैसे कि जंबो केसर, लंगड़ा, राजापुरी, एलफोन्ज़ो, दशहरी और तोतापुरी उगाते हैं। समय के साथ धीरे-धीरे उन्होंने खेती के क्षेत्र को बढ़ा लिया और आज उनके आम के बगीचे में 125 एकड़ ज़मीन पर 3000 से 3200 आम के वृक्ष हैं, जिसमें से 65 एकड़ ज़मीन उनकी अपनी है और 70 एकड़ ज़मीन ठेके पर है।

शुरूआती खेती की पद्धती और लागूकरन:

खैर, शुरूआत में दीपक भाई के लिए रास्ता थोड़ा मुश्किल था। उन्होंने सब्जियों और आम का अंतरफसली करके अपना खेताबड़ी उद्यम शुरू किया लेकिन मज़दूरों की कमी और आय कम होने के कारण उन्होने सिर्फ आम की खेती की तरफ पूरा ध्यान देने का फैसला किया।

दीपकभाई कहते हैं – खेती करते हुए मुझे जहां भी एहसास होता है अपनी गल्तियों का, मैं उन्हें सुधारने की पूरी कोशिश करता हूं। ज्ञान और अनुभव की कमी के कारण, मैंने आम के वृक्षों में पानी और खाद की ज्यादा मात्रा प्रयोग की और बागों में कीटनाशकों का प्रयोग नहीं किया। लेकिन एक बार जब मैं रिसर्च और एग्रीकल्चर सेंटर के संपर्क में आया तब मुझे ज्ञान और खेती करने के सही तरीकों के बारे में पता चल गया।”

सही कृषि पद्धतियों का पालन करने के परिणाम प्राप्त करने के बाद, दीपक भाई ने काफी मेहनत करके अपने आप को आम का माहिर बना लिया है, और यही वो वक्त था जब उन्होंने आम की खेती करने को अपनी आय का मुख्य स्त्रोत बनाने का फैसला किया। और उसके बाद उन्होंने किताबें पढ़नी शुरू कर दी, और उन निर्देशों और सलाहों का पालन किया जो खेतीबाड़ी संस्थाओं द्वारा दी जाती थी।

“मैंने अपने ज्ञान को बढ़ाने के लिए अलग अलग समारोह में हिस्सा लिया, जिनमें से कुछ को औरंगाबाद के गन्ना रिसर्च केंद्र, दिल्ली कृषि रिसर्च केंद्र, जयपुर कृषि यूनिवर्सिटी आदि द्वारा आयोजित किया गया था। इन प्रोग्रामों से मैंने अलग-अलग फलों, सब्जियों और अन्य फसलों जैसे कि केला, अनार, आम, चीकू, अमरूद, आंवला, अनाज, गेहूं और सब्जियां उगाने की अधिक जानकारी प्राप्त की।”

दीपक ने ना केवल खेती की आधुनिक तकनीकों के बारे में ज्ञान प्राप्त किया बल्कि पैसों का प्रबंधन करना भी सीखा जो कि एक किसान के लिए बहुत महत्तवपूर्ण होता है। उन्होंने अपनी आमदन और खर्चों का रिकॉर्ड रखना शुरू कर दिया। जो भी दीपक भाई बचत करते थे वे उसे नई ज़मीन खरीदने के लिए प्रयोग कर लेते थे।

मंडीकरण:

शुरूआत में मंडीकरण एक छोटी सी समस्या थी क्योंकि दीपकभाई के पास आमों के कारोबार का कोई बाज़ार नहीं थी। बिचोलिये और व्यापारी आम के उत्पादन के लिए बहुत कम कीमत देते थे, जो दीपकभाई को स्वीकार नहीं थी। लेकिन कुछ समय बाद, दीपक साहाकारी मंडली के संपर्क में आये और फिर उन्होंने आम के जूस की पैकिंग के लिए सहकारी फैडरेशन के साथ जुड़ने का फैसला किया। उन्होंने उत्पाद की सही कीमत दीपक भाई को पेश की, जिससे दीपकभाई की आमदन में बहुत अधिक वृद्धि हुई।

आम के साथ, दीपकभाई ने फार्म के किनारों पर केला, 250 कालीपट्टी चीकू और नारियल के वृक्ष भी लगाये जिससे उनकी आमदन में काफी वृद्धि हुई।

“आम के वृक्ष को बहुत देखभाल की जरूरत होती है जिसमें सही मात्रा में पानी, खाद और कीटनाशक शामिल करने होते हैं। इसके अलावा, इस बार मैंने अच्छा उत्पादन प्राप्त करने के लिए यूनिवर्सिटी द्वारा सिफारिश की गई बढ़िया पैदावार वाले वृक्ष लगाए हैं। बीमारियों को नियंत्रण करने के लिए, यूनिवर्सिटियों द्वारा सिफारिश की गई दवाइयों का प्रयोग करता हूं। मैं समय समय पर वृक्षों को अच्छा आकार देने के लिए वृक्ष की शाखाओं की कांट छांट भी करता हूं। मैं पानी की जांच भी करता हूं और सभी कमियों को सुधारता भी हूं।”

दीपकभाई की सफलता को देखने के बाद, बहुत सारे किसान यह जानने के लिए उनके फार्म का दौरा करने के लिए आते हैं कि उन्होंने किस आधुनिक तकनीक या ढंग को अपने फार्म पर लागू किया है। कई किसान दीपकभाई से सलाह भी लेते हैं।

दीपकभाई ने नवसारी खेतीबाड़ी विभाग और आत्मा प्रोजेक्ट को उनके समर्थन और मार्गदर्शन के लिए प्रमुख श्रेय दिया है। उनकी सहायता से दीपकभाई ने आधुनिक और वैज्ञानिक तकनीकों को अपने फार्म पर लागू किया। उन्होंने खेती के ज्ञान को इक्ट्ठा करने के लिए जानकारी का एक भी स्त्रोत नहीं छोड़ा।

“तुपका सिंचाई जल बचत करने की एक ऐसी खेती विधि है जिसे मैंने अपने फार्म पर स्थापित किया और यह पानी को बड़े स्तर पर बचाने में मदद करती है। अब अनावश्यक खर्चे कम हो गए हैं और ज़मीन अधिक उपजाऊ और नम हो गई है।”

इस पूरे समय के दौरान दीपकभाई पटेल के जीवन में बुरा समय भी आया। 2013 में दीपक भाई को पता चला कि वे जीभ के कैंसर से ग्रस्त हैं। इसे ठीक करने के लिए उन्होंने ऑप्रेशन करवाया और सर्जरी के दौरान उनका ज़ुबानी भाग हटा दिया गया। उन्होंने अपनी बोलने की क्षमता को खो दिया।

“पर उन्होंने कभी भी अपनी विकलांगता को अपने जीवन की अक्षमता में परिवर्तित नहीं होने दिया।”

2017 में, उन्होंने दूसरा ऑप्रेशन करवाया जिसमें कैंसर को उनके शरीर से पूरी तरह से हटा दिया गया था और आज वे अपने सपनों को हासिल करने के लिए मजबूत दृढ़ संकल्प के साथ स्वस्थ व्यक्ति हैं।

पुरस्कार और उपलब्धियां:
वर्ष 2014-15 में दीपकभाई को “ATMA Best Farmer of Gujarat” के तौर पर सम्मानित किया गया।

खैर, उल्लेख करने के लिए यह सिर्फ एक पुरस्कार है, बागबानी के क्षेत्र में उनकी सफलता ने उन्हें 19 पुरस्कार, प्रमाण पत्र, नकद पुरस्कार और राज्य स्तरीय ट्रॉफी जिताये हैं।

संदेश
“यूनिवर्सिटियों द्वारा दिए गए सही ढंगों का पालन करके बागबानी करना आय का एक अच्छा स्त्रोत है। यदि किसान अपना भविष्य अच्छा बनाना चाहते हैं तो उन्हें बागबानी में निवेश करना चाहिए।”

मनजिंदर सिंह और स्वर्ण सिंह

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सफल पोल्टरी फार्मिंग उद्यम जो कि पिता द्वारा स्थापित किया गया और बेटे द्वारा नई ऊंचाइयों तक पहुंचाया गया

भारत में हर कोई वर्ष 1984 के इतिहास को जानता है, यह पूरे पंजाब में मनहूस समय था जब सिख नरसंहार का प्रमुख लक्ष्य थे। यह कहानी है एक साधारण किसान स्वर्ण सिंह की, जो अपने पुराने हालातों को सुधारने के लिए और उन्हीं हालातों से उभरने के लिए, सिर्फ 2.5 एकड़ ज़मीन के साथ ही संघर्ष करके अपनी आगे की ज़िंदगी की तरफ बढ़ रहे थे । स्वर्ण सिंह के भी कुछ सपने थे जिन्हें वे पूरा करना चाहते थे और उसके लिए उन्होंने 12 वीं और बी.ए के बाद वे उच्च शिक्षा (मास्टर्स) के लिए गए। लेकिन उनकी नियति में कुछ और लिखा गया था। वर्ष 1983 में, जब पंजाब के युवावर्ग लोकतंत्र के खिलाफ क्रांति के मूड की चरम सीमा पर थे, उस समय हालात साधारण लोगों के लिए आसान नहीं थे और स्वर्ण सिंह ने अपनी उच्च शिक्षा (मास्टर्स) को बीच में ही छोड़ दिया और घर रहकर कुछ नया शुरू करने का फैसला किया।

जब दंगे फसाद शांत हो रहे थे उस समय स्वर्ण सिंह अपनी ज़िंदगी के व्यावसायकि करियर को स्थिरता देने के लिए हर तरह की जॉब हासिल करने की कोशिश की, लेकिन उनके हाथ कुछ नहीं लगा। आखिरकार उन्होंने अपने पडोस में अन्य पोल्टरी किसानों से प्रेरित होकर पोल्टरी फार्मिंग शुरू करने का फैसला किया और 1990 में लगभग 2 दशक पहले सहोता पोल्टरी ब्रीडिंग फार्म स्थापित हुआ। उन्होंने अपना उद्यम 1000 पक्षियों से शुरू किया और 50 फुट लंबाई और 35 फुट चौड़ाई का एक चार मंज़िला शैड बनाया। उन्होंने उस समय एक लोन लेकर 1000 पक्षियों पर 70000 रूपये का निवेश किया, जिस पर उन्हें सरकार की तरफ से 25 प्रतिशत की सब्सिडी मिली। उसके बाद आज तक उन्होंने सरकार से कोई लोन और कोई सब्सिडी नहीं ली।

1991 में उनकी शादी हुई और उनका पोल्टरी उद्यम अच्छे से शुरू हुआ। उन्होंने हैचरी में भी निवेश किया। धीरे-धीरे समय के साथ जब उनका पुत्र – मनजिंदर सिंह बड़ा हुआ तब उसने अपने पिता के व्यापार में हाथ बंटाने का फैसला किया। उसने अपनी 12वीं कक्षा की पढ़ाई बीच में ही छोड़ दी और अपने पिता के व्यापार को संभाला। पोल्टरी व्यापार में मनजिंदर के शामिल होने का मतलब ये नहीं था कि स्वर्ण सिंह ने रिटायरमेंट ले ली। स्वर्ण सिंह पोल्टरी फार्म का काम संभालने के लिए हमेशा अपने बेटे के साथ खड़े रहे और उसका मार्गदर्शन करते रहे।

स्वर्ण सिंह – “अपने परिवार के समर्थन के बिना मैं अपने जीवन में कभी इस मुकाम तक नहीं पहुंच पाता। पोल्टरी एक अच्छा अनुभव है और मैं पोल्टरी से महीने में पचास से साठ हज़ार तक का अच्छा मुनाफा कमा लेता हूं। एक किसान आसानी से पोल्टरी फार्मिंग को अपना सकता है और अच्छा लाभ कमा सकता है।”

वर्तमान में मनजिंदर सिंह (27वर्षीय) अपने पिता और 2 श्रमिकों के साथ पूरे फार्म को संभालते हैं। वे अपनी ज़मीन पर सब्जियां, गेहूं, मक्की, धान और चारा स्वंय उगाते हैं। चारे की फसल से वे चूज़ों के लिए फीड तैयार करते हैं और कई बार बाज़ार से चूज़ों के लिए “संपूर्ण” नाम का ब्रांड चिक फीड खरीदते हैं। उनके पास घर के प्रयोग के लिए 2 भैंसे भी हैं।

मनजिंदर – “हानि और कुदरती आफतों से बचने के लिए हम चूज़ों और शैड का उचित ध्यान रखते हैं। शैड में किसी भी किस्म की बीमारी से बचने के लिए हम समय-समय पर नए पक्षियों का टीकाकरण करवाते हैं। हम जैव सुरक्षा का भी ध्यान रखते हैं क्योंकि यही वह मुख्य कारण है जिसपर पोल्टरी फार्मिंग आधारित है।”

(मशीनरी) यंत्र:
वर्तमान में सहोता पोल्टरी फार्म के पास 3 चिक्स इनक्यूबेटर है। एक हाथों द्वारा निर्मित मशीनरी है जिसे स्वर्ण सिह ने शाहकोट से स्वंय डिज़ाइन किया है। वे चूज़ों के लिए प्रतिदिन 2.5 क्विंटल फीड तैयार करते हैं। उनके पास 2 जेनरेटर, फीड्रज़ और ड्रिंकर्ज़ भी हैं।

मार्किटिंग और बिज़नेस

मार्किटिंग उनके लिए मुश्किल नहीं है। वे प्रत्येक चार दिनों के बाद 4000 पक्षियों को बेचते हैं। एक पक्षी वार्षिक 200 अंडे देता है और वे एक साल बाद हर अंडा देने वाले पक्षी को स्थानांतरित करते हैं। प्रति चूज़े का बिक्री रेट 25 रूपये है जो कि उन्हें पर्याप्त लाभ देता है।

भविष्य की योजनाएं:

वे भविष्य में पशु पालन शुरू करने की योजना बना रहे हैं।

संदेश
“आप कृषि के क्षेत्र में जो भी कर रहे हैं उसे पूरे समर्पण के साथ करें क्योंकि मेहनत हमेशा अच्छा रंग लाती है।”

लवप्रीत सिंह

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कैसे इस B.Tech ग्रेजुएट युवा की बढ़ती हुई दिलचस्पी ने उसे कृषि को अपना फुल टाइम रोज़गार चुनने के लिए प्रेरित किया

मिलिए लवप्रीत सिंह से, एक युवा जिसके हाथ में B.Tech. की डिग्री के बावजूद उसने डेस्क जॉब और आरामदायक शहरी जीवन जीने की बजाय गांव में रहकर कृषि से समृद्धि हासिल करने को चुना।

संगरूर के जिला हैडक्वार्टर से 20 किलोमीटर की दूरी पर भवानीगढ़ तहसील में स्थित गांव कपियाल जहां लवप्रीत सिंह अपने पिता, दादा जी, माता और बहन के साथ रहते हैं।

2008-09 में लवप्रीत ने कृषि क्षेत्र में अपनी बढ़ती दिलचस्पी के कारण केवल 1 एकड़ की भूमि पर गेहूं की जैविक खेती शुरू कर दी थी, बाकी की भूमि अन्य किसानों को दे दी थी। क्योंकि लवप्रीत के परिवार के लिए खेतीबाड़ी आय का प्राथमिक स्त्रोत कभी नहीं था। इसके अलावा लवप्रीत के पिता जी, संत पाल सिंह दुबई में बसे हुए थे और उनके पास परिवार की जरूरतों को पूरा करने के लिए अच्छी नौकरी और आय दोनों ही थी।

जैसे ही समय बीतता गया, लवप्रीत की दिलचस्पी और बढ़ी और उनकी मातृभूमि ने उन्हें वापिस बुला लिया। जल्दी ही अपनी डिग्री पूरी करने के बाद उन्होंने खेती की तरफ बड़ा कदम उठाने के बारे में सोचा। उन्होंने पंजाब एग्रो (Punjab Agro) द्वारा अपनी भूमि की मिट्टी की जांच करवायी और किसानों से अपनी सारी ज़मीन वापिस ली।

अगली फसल जिसकी लवप्रीत ने अपनी भूमि पर जैविक रूप से खेती की वह थी हल्दी और साथ में उन्होंने खुद ही इसकी प्रोसेसिंग भी शुरू की। एक एकड़ पर हल्दी और 4 एकड़ पर गेहूं-धान। लेकिन लवप्रीत के परिवार द्वारा पूरी तरह से जैविक खेती को अपनाना स्वीकार्य नहीं था। 2010 में जब उनके पिता दुबई से लौट आए तो वे जैविक खेती के खिलाफ थे क्योंकि उनके विचार में जैविक उपज की कम उत्पादकता थी लेकिन कई आलोचनाओं और बुरे शब्दों में लवप्रीत के दृढ़ संकल्प को हिलाने की शक्ति नहीं थी।

अपनी आय को बढ़ाने के लिए लवप्रीत ने गेहूं की बजाये बड़े स्तर पर हल्दी की खेती करने का फैसला किया। हल्दी की प्रोसेसिंग में उन्होंने कई मुश्किलों का सामना किया क्योंकि उनके पास इसका कोई ज्ञान और अनुभव नहीं था। लेकिन अपने प्रयासों और माहिर की सलाह के साथ वे कई मुश्किलों को हल करने के काबिल हुए। उन्होंने उत्पादकता और फसल की गुणवत्ता बढ़ाने के लिए गाय और भैंस के गोबर को खाद के रूप में प्रयोग करना शुरू किया।

परिणाम देखने के बाद उनके पिता ने भी उन्हें खेती में मदद करना शुरू कर दिया। यहां तक कि उन्होंने पंजाब एग्रो से भी हल्दी पाउडर को जैविक प्रमाण पत्र प्राप्त करने के लिए संपर्क किया और इस वर्ष के अंत तक उन्हें यह प्राप्त हो जाएगा। वर्तमान में वे सक्रिय रूप से हल्दी की खेती और प्रोसेसिंग में शामिल हैं। जब भी उन्हें समय मिलता है, वे PAU का दौरा करते हैं और यूनीवर्सिटी के माहिरों द्वारा सुझाई गई पुस्तकों को पढ़ते हैं ताकि उनकी खेती में सकारात्मक परिणाम आये। पंजाब एग्रो उन्हें आवश्यक जानकारी देकर भी उनकी मदद करता है और उन्हें अन्य प्रगतिशील किसानों के साथ भी मिलाता है जो जैविक खेती में सक्रिय रूप से शामिल हैं। हल्दी के अलावा वे गेहूं, धान, तिपतिया घास (दूब), मक्की, बाजरा की खेती भी करते हैं लेकिन छोटे स्तर पर।

भविष्य की योजनाएं:
वे भविष्य में हल्दी की खेती और प्रोसेसिंग के काम का विस्तार करना चाहते हैं और जैविक खेती कर रहे किसानों का एक ग्रुप बनाना चाहते हैं। ग्रुप के प्रयोग के लिए सामान्य मशीनें खरीदना चाहते हैं और जैविक खेती करने वाले किसानों का समर्थन करना चाहते हैं।

संदेश

एक संदेश जो मैं किसानों को देना चाहता हूं वह है पर्यावरण को बचाने के लिए जैविक खेती बहुत महत्तवपूर्ण है। सभी को जैविक खेती करनी चाहिए और जैविक खाना चाहिए, इस प्रकार प्रदूषण को भी कम किया जा सकता है।

मनि कलेर

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कैसे फूलों की बिखर रही खुशबू ने पंजाब में संभावित फूलों की खेती के एक नए केंद्र को स्थापित किया

फूलों की खेती में निवेश एक बढ़िया तरक्की का विकल्प है जिसमें किसान अधिक रूचि ले रहे हैं। कई सफल पुष्पहारिक हैं जो ग्लैडियोलस, गुलाब, गेंदे और कई अन्य फूलों की सुगंध बिखेर रहे हैं और पंजाब में संभावित फूलों की खेती के एक नए केंद्र का निर्माण कर रहे हैं। एक पुष्पवादी जो फूलों और सब्जियों के व्यापार से अधिक लाभ कमा रहे हैं, वे हैं – मनि कलेर

अन्य ज़मींदारों की तरह, कलेर परिवार अपनी ज़मीन अन्य किसानों को किराये पर देने के लिए उपयोग करता था और एक छोटे से ज़मीन के टुकड़े पर वे घरेलु प्रयोजन के लिए गेहूं और धान का उत्पादन करते थे। लेकिन जब मनि कलेर ने अपनी शिक्षा पूरी की तो उन्होंने बागबानी के व्यवसाय में कदम रखने का फैसला किया। मनि ने भूमि का आधा हिस्सा (20 एकड़) वापिस ले लिया जो उन्होंने किराये पर दिया था और उस पर खेती करनी शुरू की।

कुछ समय बाद, एक रिश्तेदार की सहायता से, मनि को RTS Flower व्यापार के बारे में पता चला जो कि गुरविंदर सिंह सोही द्वारा सफलतापूर्वक चलाया जाता है। इसलिए RTS Flower के मालिक से प्रेरित होने के बाद मनि ने अंतत: अपना फूलों का उद्यम शुरू कर दिया और पेटुनिया, बारबिना ओर मेस्टेसियम आदि जैसे पांच से छ: प्रकार के फूलों को उगाना शुरू किया।

शुरूआत में उन्होंने कॉन्ट्रेक्ट फार्मिंग में भी कोशिश की लेकिन कॉन्ट्रेक्टड कंपनी के साथ एक कड़वे अनुभव के बाद उन्होंने उनसे अलग होने का फैसला किया।

फूलों की खेती के दूसरे वर्ष में उन्होंने गुरविंदर सिंह सोही से 1 लाख रूपये के बीज खरीदे। उन्होंने 2 कनाल में ग्लेडियोलस की खेती शुरू की और आज 2 वर्ष बाद उन्होंने 5 एकड़ में फार्म का विस्तार किया है।

वर्तमान में वे 20 एकड़ की भूमि पर खेती कर रहे हैं जिसमें से वे 4 एकड़ का प्रयोग सब्जियों की लो टन्नल फार्मिंग के लिए कर रहे हैं जिसमें वे करेला, कद्दू, बैंगन, खीरा, खरबूजा, लहसुन (1/2 एकड़) और प्याज (1/2 एकड़) उगाते हैं। घरेलु उद्देश्य के लिए वे धान और गेहूं उगाते हैं। कुछ समय से उन्होंने प्याज के बीज तैयार करना भी शुरू किया है।

कड़ी मेहनत और विविध खेती तकनीक के कारण उनकी आय में वृद्धि हुई है। अब तक उन्होंने सरकार से कोई सब्सिडी नहीं ली। वे संपूर्ण मार्किटिंग का अपने दम पर प्रबंधन करते हैं और फूलों को दिल्ली और कुरूक्षेत्र की मार्किट में बेचते हैं। हालांकि वे सब्जियों और फूलों की खेती के व्यवसाय से अच्छा लाभ कमा रहे हैं लेकिन फिर भी उन्हें फूलों की खेती में कुछ समस्याएं आती हैं लेकिन वे अपनी उम्मीद को कभी नहीं खोने देते और हमेशा मजबूत दृढ़ संकल्प के साथ अपना काम जारी रखते हैं।

मनि के परिवार ने हमेशा उनका समर्थन किया और कृषि क्षेत्र में जो वे करना चाहते हैं उसे करने से कभी नहीं रोका। वर्तमान में वे अपने पिता मदन सिंह और बड़े भाई राजू कलेर के साथ अपने गांव संगरूर जिले के राय धरियाना गांव में रह रहे हैं। दूध के प्रयोजन के लिए उन्होंने 7 गायें और 2 मुर्रा भैंसे रखी हैं। वे पशुओं की देखभाल और फीड के साथ कभी समझौता नहीं करते। वे जैविक रूप से उगाए धान, गेहूं और चारे की फसलों से स्वंय फीड तैयार करते हैं। अतिरिक्त समय में वे गन्ने के रस से गुड़ बनाते हैं और गांव वालों को बेचते हैं।

भविष्य की योजना:

भविष्य में वे अपने, फूलों की खेती के उद्यम का विस्तार करने की योजना बना रहे हैं।

संदेश

आजकल के किसान धान और गेहूं के पारंपरिक चक्र में फंसे हुए हैं। उन्हें सोचना शुरू करना चाहिए और इस चक्र से बाहर निकलकर काम करना चाहिए यदि वे अच्छा कमाना चाहते हैं।

शेर बाज सिंह संधु

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शेरबाज़ सिंह संधु, भैंस की सर्वश्रेष्ठ नसल – मुर्रा, के साथ पंजाब में सफेद क्रांति ला रहे हैं

यह कहानी है एक ऐसे व्यक्ति की जिसने पशु पालन में अपनी दिलचस्पी को जारी रखा और इसे एक सफल डेयरी बिज़नेस – लक्ष्मी डेयरी फार्म में बदला।

कई अन्य किसानों के विपरीत, शेर बाज सिंह संधु ने निजी और सार्वजनिक क्षेत्रों में नौकरी ढूंढने की बजाय अपना दिमाग काफी छोटी उम्र में ही पशु पालन की तरफ मोड़ लिया था। पशु पालन में उनकी दिलचस्पी का मुख्य कारण उनकी माता -हरपाल कौर संधु थी।

शेर बाज सिंह संधु को पशु पालन की तरफ झुकाव की प्रेरणा उनकी मां के परिवार की ओर से मिली। काफी समय पहले शेर बाज सिंह संधु जी के नाना जी को सर्वोत्तम नसल के पशु पालने का शौंक था और यही शौंक शादी के बाद उनकी बेटी ने भी अपनाया और इसी शौंक को देखते हुए शेर बाज सिंह संधु का झुकाव पशु पालन की तरफ हुआ।
2002 में श्रीमती हरपाल कौर का निधन हो गया। हां, यह श्री संधु के लिए बहुत दुखद क्षण था, लेकिन अपनी माता की मृत्यु के बाद उन्हें एक बेहतर तरीके से पशु पालन करने की प्रेरणा मिली और तब उन्होंने पशु पालन व्यापार में प्रवेश करने का फैसला किया। श्री संधु ने पुराने पशुओं को बेच दिया और हरियाणा के एक क्षेत्र से 52000 रूपये में मुर्रा नसल की एक नई भैंस को खरीदा। उस समय वह भैंस 15-16 किलो दूध प्रतिदिन देती थी।
2003 में उन्होंने उसी नसल की एक नई भैंस 80000 रूपये में खरीदी और यह भैंस उस समय 25 किलो दूध देती थी।

फिर 2004 में उन्होंने पूरे परिवार की जांच करते हुए 75000 रूपये में भैंस के एक कटड़े को खरीदा (उसकी मां 20 किलो दूध देती थी और उसने इसके लिए एक पुरस्कार भी जीता था)।

और इस तरह उन्होंने अपने फार्म में भैंसों की नसल को सुधारा और अपने फार्म पर अच्छी गुणवत्ता वाली भैंसो की संख्या में वृद्धि की।

एक बार, उनकी भैंस लक्ष्मी ने मुक्तसर मेले में सर्वश्रेष्ठ नस्ल चैंपियनशिप का खिताब जीता और उसके बाद से ही उन्होंने अपने फार्म का नाम – “लक्ष्मी डेयरी फार्म” रख दिया।

ना केवल लक्ष्मी बल्कि कई अन्य भैंस और सांड हैं जैसे धन्नो, रानी, सिकंदर जिन्होंने श्री शेर बाज सिंह को गर्व महसूस करवाया और किसान मेलों और दूध उत्पादन और नसल चैंपियनशिप में बार-बार पुरस्कार जीतकर सारे रिकॉर्ड भी तोड़ दिए।

उनके कुछ पुरस्कार और उपलब्धियों का उल्लेख नीचे दिया गया है:
• लक्ष्मी डेयरी फार्म में भैंस के दूध के लए राष्ट्रीय रिकॉर्ड हैं।
• शेर बाज सिंह को मुख्यमंत्री प्रकाश सिंह बादल द्वारा “State Award for excellent services in Dairy Farming” पुरस्कार से सम्मानित किया गया।
• उनकी भैंस आठवें राष्ट्रीय पशुधन चैंपियनशिप में पहले स्थान पर आई।
• माघी मेले में सरदार गुलज़ार सिंह द्वारा सम्मानित किया गया।
• उनकी भैंस ने 2008 में मुक्तसर में दूध उत्पादन प्रतियोगिता में पहला पुरस्कार जीता।
• 2008 में PDFA मेले में उनकी भैंस ने पहला पुरसकार जीता।
• 2015 में उनकी भैंस धन्नों ने 25 किलो दूध देकर सारे रिकॉर्ड तोड़ दिए।
• जनवरी 2016 में मुक्तसर मेले में उनकी मुर्रा भैंस ने सभी पुरस्कार जीते।
• उनके सांड सिकंदर ने मुक्तसर मेले में दूसरा पुरस्कार जीता।
• रानी भैंस ने 26 किलो 357 ग्राम दूध देकर एक नया रिकॉर्ड बनाया और पहला पुरस्कार जीता।
• धन्नो भैंस ने 26 किलो दूध दिया और उसी प्रतियोगिता में दूसरे स्थान पर आई।
• उनके कई लेख, अखबार में advisory magazine में प्रकाशित किए गए हैं।

आज, उनके पास 1 एकड़ में फैले उनके फार्म में कुल 50 भैंसे हैं और वे सारा दूध शहर के कई दुकानों में बेचते हैं। श्री संधु स्वंय चारा उगाना पसंद करते हैं, उनके पास कुल 40 एकड़ भूमि हैं जिसमें वे गेहूं, धान और चारा उगाते हैं।

श्री संधु का बेटा – बरिंदर सिंह संधु जो पेशे से वकील हैं और उनकी पत्नी कुलविंदर कौर संधु, लक्ष्मी डेयरी फार्म के प्रबंधन में बहुत सहायक हैं। उनके बेटे ने फार्म के नाम पर एक फेसबुक पेज बनाया है जिसमें कि उनके साथ 3.5 लाख के करीब लोग जुड़े हैं और वे 2022-23 तक इस संख्या को बढ़कार 10 लाख करना चाहते हैं क्योंकि उनके फार्म की लोकप्रियता इतनी है कि, कई लोग यहां तक कि विदेशों से भी आकर उनसे भैंसों को खरीदते हैं।

श्री संधु हमेशा किसानों की पशु पालन में सहायता करते हैं और इसमें प्रगति के लिए प्रेरित करते हैं। वे किसानों को अच्छी गुणवत्ता वाला सीमेन (वीर्य) और दूध भी प्रदान करते हैं।

भविष्य की योजनाएं: उनके भविष्य की योजना है कि फार्म के क्षेत्र को बढ़ाना और सिर्फ अच्छी गुणवत्ता वाली भैंसों को रखना और अच्छी गुणवत्ता वाला सीमेन और दूध किसानों को उपलब्ध करवाना।

संदेश:

आजकल के किसानों की स्थानीय नसलों की बजाय विदेशी नसलों के पालन में अधिक रूचि है। उन्हें लगता है कि विदेशी नसलें उन्हें अधिक लाभ दे सकती हैं पर यह सच नहीं है। क्योंकि विदेशों नसलों को एक अलग जलवायु और परिस्थितियों की जरूरत होती है जो कि भारत में संभव नहीं है। इसके अलावा, विदेशी नसल के पालन में स्थानीय नसल की तुलना में अधिक खर्चे की आवश्यकता होती है। जिसके लिए साधारण किसान प्रबंधन करने में सक्षम नहीं होते। जिसके कारण कुछ समय बाद किसान स्थानीय नसलों को पालने लग जाते हैं या फिर वे पूरी तरह से पशु पालन के कार्य को बंद कर देते हैं।
किसानों को यह समझना चाहिए कि अब भारत में अच्छी नसलें उपलब्ध हैं जो प्रतिदिन 20-25 किलो दूध का उत्पादन कर सकती हैं। किसानों को खेती के साथ-साथ पशु पालन व्यवसाय का चयन करना चाहिए क्योंकि यह आय बढ़ाने में मदद करता है। इस तरह किसान बेरोजगारी की समस्या से निपट सकते हैं और भारत पशु पालन में प्रगति कर सकता है।

करमजीत कौर दानेवालिया

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कैसे एक महिला ने शादी के बाद अपने खेती के प्रति जुनून को पूरा किया और आज सफलतापूर्वक इस व्यवसाय को चला रही है

आमतौर पर भारत में जब बेटियों की शादी कर दी जाती है और उन्हें अपने पति के घर भेज दिया जाता है तो वे शादी के बाद अपनी ज़िंदगी में इतनी व्यस्त हो जाती हैं कि वे अपनी रूचि और अपने शौंक के बारे में भूल ही जाती हैं। वे घर की चारदिवारी में बंध कर रह जाती हैं। लेकिन एक ऐसी महिला हैं – श्री मती करमजीत कौर दानेवालिया । जिसने शादी के बाद भी अपने जुनून को आगे बढ़ाया । घर में रहने की बजाय उन्होंने घर के बाहर कदम रखा और बागबानी के अपने शौंक को पूरा किया।

श्री मती करमजीत कौर दानेवालिया एक ऐसी महिला है जिन्होंने एक छोटे से गांव के एक ठेठ पंजाबी किसान के परिवार में जन्म लिया। खेती की पृष्ठभूमि से होने पर श्री मती करमजीत हमेशा खेती के प्रति आकर्षित थी और खेतों में अपने पिता की मदद करने में भी रूचि रखती थी। लेकिन शादी से पहले उन्हें कभी खेती में अपने पिता की मदद करने का मौका नहीं मिला।

जल्दी ही उनकी शादी एक बिजनेस क्लास परिवार के श्री जसबीर सिंह से हो गई। उन्होंने कभी नहीं सोचा था कि शादी के बाद उन्हें अपने सपनों को पूरा करने और इन्हें अपने व्यवसाय के रूप में करने का अवसर मिलेगा। शादी के कुछ वर्ष बाद 1975 में अपने पति के समर्थन से उन्होंने फलों का बाग लगाने का फैसला किया और अपनी दिलचस्पी को एक मौका दिया। लेवलर मशीन और मजदूरों की सहायता से, उन्होंने 45 एकड़ की भूमि को समतल किया और इसे बागबानी करने के लिए तैयार किया। उन्होंने 20 एकड़ की भूमि पर किन्नू उगाए और 10 एकड़ की भूमि पर आलूबुखारा, नाशपाति, आड़ू, अमरूद, केला आदि उगाए और बाकी की 5 एकड़ भूमि पर वे सर्दियों में गेहूं और गर्मियों में कपास उगाती हैं।

उनका शौंक जुनून में बदल गया और उन्होंने इसे जारी रखने का फैसला किया। 1990 में उन्होंने एक तालाब बनाया और इसमें बारिश के पानी को स्टोर किया। वे इससे बाग की सिंचाई करती थी। लेकिन उसके बाद उन्होंने इसमें मछली पालन शुरू किया और इसे दोनों मंतवों मछली पालन और सिंचाई के लिए प्रयोग किया। अपने व्यापार को एक कदम और बढ़ाने के लिए उन्होंने नए पौधे स्वंय तैयार करने का फैसला किया।

2001 में उन्होंने भारत में किन्नू के उत्पादन का एक रिकॉर्ड बनाया और किन्नू के बाग के व्यापार को और सफल बनाने के लिए, किन्नू की पैकेजिंग और प्रोसेसिंग की ट्रेनिंग के लिए वे विशेष तौर पर 2003 में कैलीफॉर्निया गई। वापिस आने के बाद उन्होंने उस ट्रेनिंग को लागू किया और इससे काफी लाभ कमाया। जिस वर्ष से उन्होने किन्नू की खेती शुरू की तब से उनके किन्नुओं की गुणवत्ता प्रतिवर्ष जिला स्तर और राज्य स्तर पर नंबर 1 पर रही है और किन्नू उत्पादन में बढ़ती लोकप्रियता के कारण 2004 में पंजाब के पूर्व मुख्यमंत्री प्रकाश सिंह बादल ने उन्हें ‘किन्नुओं की रानी’ के नाम से नवाज़ा।

खेती के उद्देश्य के लिए, आधुनिक तकनीक के हर प्रकार के खेतीबाड़ी यंत्र और मशीनरी उनके फार्म पर मौजूद है। बागबानी के क्षेत्र में उनकी प्रसिद्धि ने उन्हें कई प्रतिष्ठित समुदायों का सदस्य बनाया और कई पुरस्कार दिलवाए। उनमें से कुछ निम्नलिखित हैं।

• 2001-02 में कृषि मंत्री श्री गुलज़ार रानीका द्वारा राज्य स्तरीय सिटरस शो में पहला पुरस्कार मिला।
• 2004 में शाही मेमोरियल इंटरनेशनल सेवा सोसाइटी, लुधियाना में रवी चोपड़ा द्वारा देश सेवा रत्व पुरस्कार से पुरस्कृत हुईं।
• 2004 में पंजाब के पूर्व मुख्य मंत्री प्रकाश सिंह बादल द्वारा ‘किन्नुओं की रानी’ का शीर्षक मिला।
• 2005 में कृषि मंत्री श्री जगजीत सिंह रंधावा द्वारा सर्वश्रेष्ठ किन्नू उत्पादक पुरस्कार मिला।
• 2012 में राज्य स्तरीय सिटरस शो में दूसरा पुरस्कार मिला।
• 2012 में जिला स्तरीय सिटरस शो में पहला पुरस्कार मिला।
• 2010-11 में जिला स्तरीय सिटरस शो में दूसरा पुरस्कार मिला।
• 2010-11 में राज्य स्तरीय सिटरस शो में दूसरा पुरस्कार मिला।
• 2010 में कृषि मंत्री श्री सुचा सिंह लंगाह द्वारा सर्वश्रेष्ठ किन्नू उत्पादक महिला का पुरस्कार मिला।
• 2012 में श्री शरनजीत सिंह ढिल्लों और वी.सी पी ए यू, लुधियाना द्वारा किसान मेले में अभिनव महिला किसान के रूप में राज्य स्तरीय पुरस्कार मिला।
• 2012 में कृषि मंत्री श्री शरद पवार -भारत सरकार द्वारा 7th National conference on KVK at PAU, लुधियाना में उत्कृष्टता के लिए चैंपियन महिला किसान पुरस्कार मिला।
• 2013 में पंजाब के मुख्यमंत्री श्री प्रकाश सिंह बादल द्वारा अमृतसर में 64वें गणतंत्र दिवस पर प्रगतिशील महिला किसान के सम्मान में पुरस्कार मिला।
• 2013 में कृषि मंत्री Dr. R.R Hanchinal, Chairperson PPUFRA- भारत सरकार द्वारा indian agriculture at global agri connect (NSFI) IARI, नई दिल्ली में भारतीय कृषि में अभिनव सहयोग के लिए प्रशंसा पत्र मिला।
• 2012 में में पंजाब की सर्वश्रेष्ठ किन्नू उत्पादक के तौर पर राष्ट्रीय पुरस्कार मिला।
• 2013 में तामिलनाडू और आसाम के गवर्नर डॉ. भीष्म नारायण सिंह द्वारा कृषि में सराहनीय सेवा, शानदार प्रदर्शन और उल्लेखनीय भूमिका के लिए भारत ज्योति पुरस्कार मिला।
• 2015 में नई दिल्ली में पंजाब के पूर्व गवर्नर जस्टिस ओ पी वर्मा द्वारा भारत का गौरव बढ़ाने के लिए उनके द्वारा प्राप्त की गई उपलब्धियों को देखते हुए भारत गौरव पुरस्कार मिला।
• कृषि मंत्री श्री तोता सिंह और कैबिनेट मंत्री श्री गुलज़ार सिह रानीका और ज़ी पंजाब, हरियाणा, हिमाचल के संपादक श्री दिनेश शर्मा द्वारा बागबानी के क्षेत्र में उनके उत्कृष्ट सहयोग और किन्नू की खेती को बढ़ावा देने के लिए Zee Punjab/Haryana/Himachal एग्री पुरस्कार मिला।
• श्रीमती करमजीत पी ए यू किसान क्लब की सदस्या हैं।
• वे पंजाब AGRO की स्दस्या हैं
• वे पंजाब बागबानी विभाग की सदस्या हैं।
• मंडी बोर्ड की सदस्या हैं।
• चंगी खेती की सदस्या हैं।
• किन्नू उत्पादक संस्था की सदस्या हैं।
• Co-operative Society की सदस्या हैं।
• किसान सलाहकार कमेटी की सदस्या हैं।
• PAU, Ludhiana Board of Management की सदस्या हैं।

इतने सारे पुरस्कार और प्रशंसा प्राप्त करने के बावजूद, वे हमेशा कुछ नया सीखने के लिए उत्सुक हैं और यही वजह है कि वे कभी भी किसी भी जिला स्तर के कृषि मेलों और मीटिंगों में भाग लेना नहीं छोड़ती । वे कुछ नया सीखने के लिए और ज्ञान प्राप्त करने के लिए नियमित रूप से उन किसानों के खेतों का दौरा करती हैं जो पी ए यू और हिसार कृषि विश्वविद्लाय से जुड़े हैं।

आज वे प्रति हेक्टेयर में 130 टन किन्नुओं की तुड़ाई कर रही हैं और इससे 1 लाख 65 हज़ार आय कमा रही हैं। अन्य फलों के बागों से और गेहूं और कपास की फसलों से वे प्रत्येक मौसम में 1 लाख आय कमा रही हैं।

अपनी सभी सफलताओं के पीछे का सारा श्रेय वे अपने पति को देती हैं जिन्होंने उनके सपनों का साथ दिया और इन सभी वर्षों में खेती करने में उनकी मदद की। खेती के अलावा वे समाज के लिए एक बहुत अच्छे कार्य में सहयोग दे रही हैं। वे गरीब लड़कियों को वित्तीय सहायता और शादी की अन्य सामग्री प्रदान कर उनकी शादी में मदद भी करती हैं उनकी भविष्य योजना है – खेतीबाड़ी को और लाभदायक व्यापारिक उद्यम बनाना है।

किसानों को संदेश –
किसानों को अपने खर्चों को अच्छी तरह बनाकर रखना शुरू करना होगा और जो उनके पास नहीं है, उन्हें उसका दिखावा बंद करना होगा। आज, कृषि क्षेत्र को अधिक ध्यान की आवश्यकता है इसलिए युवा बच्चों को जिनमें बेटियों को भी शामिल किया जाना चाहिए और इस क्षेत्र के बारे में पढ़ाया जाना चाहिए और हर किसी को एक बात का ध्यान रखना चाहिए कि कृषि के क्षेत्रा में हर इंसान पहले एक किसान है और फिर एक व्यापारी।

राजपाल सिंह गांधी

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जाने कैसे राजपाल सिंह गांधी स्टीविया की खेती करके प्रकृति के मीठे रहस्य को उजागर कर रहे हैं

क्या आपने कभी चीनी की तुलना में मीठा सफलता का स्वाद चखा है? आपने नहीं चखा होगा, लेकिन बंगा से आयकर सलाहकार (income tax consultant) ने शून्य कैलोरी के साथ सबसे आम स्वीटनर- चीनी से 400 गुना मीठे, सफलता का स्वाद चख लिया है। जी हां यहां स्टीविया की खेती के बारे में बात की जा रही है।

राजपाल सिंह गांधी ने भारत में एक लहर का नेतृत्व किया है और आने वाले समय में निश्चित रूप से ही दुनिया का स्वाद बदलने वाला है।

10 वर्ष के कार्यकाल में लोगों को बुद्धिमानी से अपना निवेश चुनने पर सलाह देने के बाद, अंत में राजपाल गांधी ने कृषि क्षेत्र में प्रवेश करने का फैसला किया। पंजाब के अन्य औसतन किसानों के विपरीत राजपाल गांधी ने पैसा कमाने के लिए ना केवल एक नये उद्यम के रूप में शिवालिक तलहटी के उप पहाड़ी इलाके में प्राकृतिक स्वीटनर उगाया बल्कि सख्त रिसर्च के साथ एक प्रोसेसिंग प्लांट भी खोल लिया।

कृषि क्षेत्र में प्रवेश करने की शुरूआत गांधी के लिए आसान नहीं थी। उन्होंने 2003 में 35 एकड़ किन्नू के बागों के साथ शुरूआत की लेकिन मार्किटिंग की सुविधाओं में कमी होने के कारण उन्हें 2008 तक फसल के उत्पादन को कम करने के लिए मजबूर कर दिया।

“मैनें ग्लेडियोलस, आलू और अन्य सब्जियों की रोपाई करने की कोशिश की लेकिन वहां भी मार्किटिंग की सुविधाओं में सुधार नहीं था इसलिए मैंने स्टीविया की खेती शुरू की और वह मेरा सबसे अच्छा फैसला था जो मैंने लिया।”

उन्होंने स्टीविया की खेती 6 एकड़ भूमि पर शुरू की लेकिन वहां पर कोई प्रोसेसिंग यूनिट नहीं था इसलिए उन्होंने अपने 10 वर्ष की कड़ी मेहनत का कोई फायदा नहीं हुआ। आखिरकार उन्होंने एक प्रोटोटाइप इकट्ठा करने के लिए इंडियन इंस्टीट्यूट ऑफ टैकनोलोजी मुंबई (Indian Institute of Technology, Mumbai) से संपर्क किया और लाखों निवेशों के बाद कई कमियों, अनुसंधान और कई वैज्ञानिकों, इंजीनियरों और नवप्रवर्तक की मीटिंग से वे एक अच्छे परिणाम के साथ आये।

आज गांधी के पास भारत में एकमात्र स्टीविया रिसर्च लैबोटरी (stevia research laboratory) है और यह Indian Department of Scientific and Industrial Research (DSIR) द्वारा प्रमाणित है। Ministry of Science and technology के अंतर्गत बायोटैक्नोलोजी के विभाग से एक छोटा सा लोन लेकर यह प्रोसेसिंग प्लांट और रिसर्च सैंटर स्थापित हुआ। प्रोसेसिंग यूनिट स्थापित करने के लिए पूरे तीन साल लगे। सपना देखना और फिर उस सपने को पूरा करना गांधी के लिए इसलिए आसान था क्योंकि मंत्रालय ने उनके अभिनव विचार को पसंद किया।

आज उनके 12 करोड़ सटीविया प्रोसेसिंग प्लांट में 8 घंटे की शिफ्ट में लगभग 5 टन स्टीविया के पत्ते प्रोसेस होते हैं जो कि 5 एकड़ की फसल के बराबर हैं।

शुरू में स्टीविया प्रोसेसिंग प्लांट एक चुनौती था और गांधी ने ना सिर्फ अपने लिए बल्कि कई उन अन्य लोगों के लिए भी इसे एक अवसर में बदल दिया जिनके पास अब रोज़गार हैं यह सिर्फ गांधी की पहल के कारण संभव हुआ। टिशु कल्चर लेबोरटरी और प्रोसेसिंग यूनिट स्थापित करने के बाद आज गांधी की कंपनी स्टीविया की कई उन्नत किस्में विकसित कर रही है और इसकी खेती और प्रोसेसिंग के बाद वे इन्हें पाउडर के रूप में छोटे छोटे पैकेट और कंटेनर बनाकर बेचते हैं। आज उनके द्वारा निर्मित स्टीविया ग्रीन टी मार्किट में तेजी से बढ़ रही है, लेकिन यह अंत नहीं हैं।

“एक एकड़ पर स्टीविया की खेती का खर्च लगभग 1 एकड़ पर किसी अन्य सामान्य फसल की खेती के बराबर होता है। अगर कोई भी स्टीविया की खेती करने में दिलचस्पी रखता है तो हम पौधे भी उपलब्ध करवाते हैं और यदि कोई इसे बड़े क्षेत्र में करना चाहता है तो हम क्षेत्र के अनुसार पौधों को गुणा करने की तकनीक भी प्रदान करते हैं।”

गांधी के काम ने गुजरात और उत्तर प्रदेश की राज्य सरकारों को भी उनके प्रति लुभाया है। गुजरात के मुख्य सचिव ने उन्हें बुलाया था और उसके बाद उन्होंने एक डील साइन की जिसमें अरावली और कपारगंज जिलों में 100 प्रतिशत buy-back clause के साथ 2500 एकड़ की भूमि पर स्टीविया उगाना था। उन्होंने उत्तर प्रदेश के साथ भी 4000 एकड़ में स्टीविया के पौधे उगाने के लिए डील साइन की। गांधी की बढ़ती सफलता एक छोटी सी चिंगारी नहीं थी जो कुछ समय में गायब हो जाती, अपितु यह एक विस्फोट था जिसने पंजाब के पूर्व मुख्यमंत्री प्रकाश सिंह बादल को भी अपने काम के प्रति आकर्षित किया। वर्तमान में गांधी, राज्य में stevia promotion bureau में सुरेश कुमार के साथ अतिरिक्त मुख्य सचिव (chief secretary) के रूप में हैं। अवसर को ना गंवाते हुए उन्होंने पहले से ही पंजाब के किसानों की मदद करना शुरू कर दिया| (वे गुरदासपुर, लुधियाना और फिरोज़पुर जिले में 25 एकड़ की भूमि पर स्टीविया की खेती में किसानों की मदद कर रहे हैं और धीरे-धीरे वे यह सुनिश्चित करेंगे कि इस मौसम में पंजाब में स्टीविया का खेती क्षेत्र बढ़े।

खैर, ये गांधी के काम के कुछ राष्ट्र के अंदर प्रभाव थे। प्रोसेसिंग प्लांट की स्थापना से पहले गांधी ने इस पौधे के बारे में जानने के लिए चीन और दक्षिण अमेरिका के देशों जैसे कोलंबिया और पैरागुए की यात्रा की। उनकी यात्रा ने उन्हें कैनेडा की कंपनी – Pixels Health के साथ एक अनुबंध साइन करवाया कि वे जितना चाहे स्टीविया प्रोसेस करके उन्हें बेच सकते हैं। यहां तक कि जर्मनी भी उनके बारे में जानने के बाद उनके फार्म का दौरा करने आते हैं।

गांधी पंजाब से Indian Council of Food and Agriculture के एकमात्र सदस्य हैं जिसका एम एस स्वामीनाथन-भारतीय हरित क्रांति का पिता (MS Swaminathan – “The father of Indian Green Revolution) भी हिस्सा हैं। पिछले सितंबर में उनके द्वारा गांधी को पुरस्कृत किया गया था और उन्होंने घोषणा की, कि स्टीविया उगाना स्वास्थ्य के लिए एक मीठी क्रांति है।

आने वाले समय में स्टीविया भविष्य में सबसे ज्यादा उगाई जाने वाली फसल होने वाली है। जापान की 70 प्रतिशत आबादी ने पहले ही स्टीविया की खेती शुरू कर दी है और गांधी वहां पर निवेश करने की प्रतीक्षा कर रहे हैं। यहां तक कि उनका स्टीविया उत्पाद भी नवंबर 2015 में भारत की Food and Safety Standards Authority द्वारा अनुमोदित किया गया है। यहां तक कि मल्टी नेशनल कंपनियां जैसे पेपसी और कोका कोला भी अपने नए उत्पादों – ज़ीरो- कैलोरी पेपसी और कोक लाइफ को लॉन्च कर रही है जिसमें वे स्वीटनर के रूप में स्टीविया का प्रयोग कर रहे हैं और गांधी इसमें निवेश करने के लिए उत्सुक हैं।

स्टीविया भविष्य की फसल है क्योंकि इसके पौधे को यदि एक बार रोपित किया जाये तो वह 5 वर्ष तक रहता है और प्रत्येक 4 महीने के बाद उसकी कटाई की जा सकती है। किसानों के साथ-साथ नागरिकों के लिए स्टीविया एक लाभदायक उपक्रम है क्योंकि इसका बाज़ार मूल्य भी अच्छा है और यह खाने के लिए भी स्वस्थ है।

“एक तथ्य से – भारत के सहस्त्राब्दी साल में अनुमानित 31,705,000 डायबिटीज़ के मरीज़ हैं जो कि 2030 तक 100 प्रतिशत की दर से बढ़कर लगभग 79,441,000 हो जाएंगे।”

 

गांधी कहते हैं –

“भारत में लगभग हर परिवार में एक शूगर का मरीज़ है और यह गंभीर स्थिति है। लेकिन यदि हम चीनी की जगह स्टीविया का प्रयोग करना शुरू कर दें तो शूगर के मरीज़ों की बढ़ती हुई संख्या को कम कर सकते हैं।”

गांधी नए अवसरों के साथ कृषि क्षेत्र के विकास में अपना योगदान दे रहे हैं। आप भी स्टीविया की खेती में निवेश करके इस उद्यम का हिस्सा बन सकते हैं।

संदेश :

हमारा मुख्य मिशन अमीर किसान और स्वस्थ समाज है। आज गिरती हुई आर्थिक स्थिति का मुख्य कारण गरीब किसानों का आत्महत्या करने के लिए मजबूर होना है और इस तरह की शर्मनाक परिस्थितियों के लिए सिर्फ हम ज़िम्मेदार हैं। नुकसानों को पूरा करने के लिए फसल विविधीकरण महत्तवपूर्ण है। किसानों को स्टीविया और अन्य चिकित्सक पौधे जैसी फसलें उगानी चाहिए और राज्य सरकार और केंद्र सरकार को अपनी योजनाओं को और अधिक प्रभावी बनाने के लिए कार्य करना चाहिए।

शहनाज़ कुरेशी

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जानें कैसे इस महिला ने फूड प्रोसेसिंग और एग्रीबिज़नेस के माध्यम से स्वस्थ भोजन के रहस्यों को प्रत्यक्ष किया

बहुत कम परोपकारी लोग होते हैं जो समाज के कल्याण के बारे में सोचते हैं और कृषि के रास्ते पर अपने भविष्य को निर्देशित करते हैं क्योंकि कृषि से संबंधित रास्ते पर मुनाफा कमाना आसान नहीं है। लेकिन हमारे आस -पास कई अवसर हैं जिनका लाभ उठाना हमें सीखना होगा। ऐसी ही एक महिला है श्री मती शहनाज कुरेशी जो कि अपने अभिनव सपनों और कृषि के क्षेत्र में अपना जीवन समर्पित करने की सोच रही थी।
बहुत कम उम्र में शादी करने के बावजूद शहनाज़ कुरेशी ने कभी सपने देखना नहीं छोड़ा। शादी के बाद उन्होंने अपनी पढ़ाई जारी रखी और अपनी ग्रेजुएशन पूरी की और फैशन डिज़ाइनिंग में M.Sc भी की। उन्हें विदेशों से नौकरी के कई प्रस्ताव मिले लेकिन उन्होंने अपने देश में रह कर, समाज के लिए कुछ अच्छा करने का फैसला किया।

इन सभी चीज़ों के दौरान उनके माता पिता के स्वास्थ्य ने खाद्य उत्पादों की गुणवत्ता की ओर उनका नज़रिया बदल दिया। उनके माता-पिता दोनों ही गठिया, डायबिटिज़ और किडनी की समस्या से पीड़ित थे। उन्होंने सोचा कि यदि भोजन इन समस्याओं के पीछे का कारण है तो भोजन ही इनका एकमात्र इलाज होगा। उन्होंने अपने परिवार की खाने की आदतों को बदल दिया और केवल अच्छी और ताजी सब्जियां चीज़ें खानी शुरू कर दीं। इस आदत ने उनके माता-पिता के स्वास्थ्य में काफी सुधार हुआ। इसी बड़े सुधार को देखते हुए उन्होंने फूड प्रोसेसिंग व्यापार में दाखिल होने का फैसला लिया। इसके अलावा वे खाली बैठने के लिए नहीं बनी थी इसलिए उन्होंने एग्रीबिज़नेस के क्षेत्र में अपने कदम रखे और जरूरतमंद किसानों की मदद करने का फैसला किया।

एग्रीबिज़नेस के क्षेत्र में कदम रखने का उनका फैसला सिर्फ सफलता का पहला चरण था और पूरा बठिंडा उनके बारे में जानने लगा। उन्होंने और उनके परिवार ने, के वी के बठिंडा से मधु मक्खी पालन की ट्रेनिंग ली और 200 मधुमक्खी बक्सों के साथ व्यवसाय शुरू किया। उन्होंने मार्किटिंग की और उनके पति ने प्रोसेसिंग का काम संभाला। व्यवसाय से अधिक लाभ लेने के लिए उन्होंने शहद के फेस वॉश, साबुन और बॉडी सक्रब बनाना शुरू किया। ग्राहकों ने इन्हें पसंद करना शुरू किया और उनकी सिफारिश और होने लगी। कुछ समय के बाद उन्होंने सब्जियों और फलों की खेती की ट्रेनिंग ली और इसे चटनी, मुरबा और आचार बनाकर लागू करना शुरू किया।
एक समय था जब उनके पति ने काम के लिए उनकी आलोचना की क्योंकि वे व्यवसाय से होने वाले लाभों को लेकर अनिश्चित थे। इसके अलावा उन्होंने यह भी सोचा कि ये उत्पाद पहले से ही बाज़ार में उपलब्ध हैं जो इन उत्पादों को लोग क्यों खरीदेंगे। लेकिन वे कभी भी इन बातों से वंचित नहीं हुई क्योंकि उनके पास उनके बच्चों का समर्थन हमेशा था। कुछ महान शख्सियतों जैसे ए पी जे अब्दुल कलाम, बिल गेट्स, अकबर और स्वामी विवेकानंद से वे प्रेरित हुई। खाली समय में वे उनके बारे में किताबें पढ़ना पसंद करती थी।

समय के साथ-साथ उन्होंने अपने उत्पादों को बढ़ाया और इनसे काफी लाभ कमाना शुरू किया। जल्दी ही उन्होंने फल के स्क्वैश, चने के आटे की बड़ियां और पकौड़े और भी काफी चीज़े बनानी शुरू की। अंकुरित मेथी का आचार उनके प्रसिद्ध उत्पादों मे से एक है क्योंकि अदभुत स्वास्थ्य लाभों के कारण इसकी मांग फरीदकोट, लुधियाना और अन्य जगहों में पी ए यू द्वारा करवाये जाते मेलों और समारोह में हमेशा रहती है। उन्होंने मार्किट में अपने उत्पादों की एक अलग जगह बनाई है जिसके चलते उन्होंने व्यापक स्तर पर अच्छे ग्राहकों को अपने साथ जोड़ा है।

2014 में उन्होंने बठिंडा के नज़दीक महमा सरजा गांव में किसान सैल्फ हैल्प ग्रुप बनाया और इस ग्रुप के द्वारा उन्होंने अन्य किसानों के उत्पादों को बढ़ावा दिया। कभी कभी वे उन किसानों की मदद और समर्थन करने के लिए अपने मुनाफे की अनदेखी कर देती थीं, जिनके पास आत्मविश्वास और संसाधन नहीं थे। 2015 में उन्होंने FRESH HUB नाम की एक फर्म बनायी और वहां अपने उत्पादों को बेचना शुरू किया। आज उनके कलेक्शन में कुल 40-45 उत्पाद हैं जिसका कच्चा माल वे खुद खरीदती हैं, प्रोसेस करती हैं, पैक करती हैं और मंडीकरण करती हैं। ये सब वे उत्पादों की शुद्धता और स्वस्थता सुनिश्चित करने के लिए करती हैं ताकि ग्राहक के स्वास्थ्य पर कोई दुष्प्रभाव ना हो। यहां तक कि जब वे आचार तैयार करती हैं तब भी वे घटिया सिरके का इस्तेमाल नहीं करती और अच्छी गुणवत्ता के लिए हमेशा सेब के सिरके का प्रयोग करती हैं।

2016 में उन्होंने सिरके की भी ट्रेनिंग ली और बहुत जल्द इसे लागू भी करेंगी। वर्तमान में वे प्रतिवर्ष 10 लाख लाभ कमा रही हैं। एक चीज़ जो उन्होंने बहुत जल्दी समझी और उसे लागू किया। वह थी उन्होने हमेशा मात्रा या स्वाद को ध्यान ना देकर गुणवत्ता की ओर ध्यान दिया। मंडीकरण के लिए वे आधुनिक तकनीकों जैसे व्हाट्स एप द्वारा किसानों और अन्य आवश्यक विवरणों के साथ जुड़ती हैं। खरीदने से पहले वे हमेशा सुनिश्चित करती हैं कि रासायनिक मुक्त सब्जियां ही खरीदें और किसानों को वे जैविक खेती शुरू करने के लिए प्रोत्साहित भी करती हैं। उनके काम में सिर्फ प्रोसेसिंग और मंडीकरण ही शामिल नहीं हैं बल्कि वे अन्य महिलाओं को अपनी तकनीक के बारे में जानकारी भी देती हैं। क्योंकि वे चाहती हैं कि अन्य लोग भी प्रगति करें और समाज के लिए कुछ अच्छा करें।

शुरू से ही शहनाज़ कुरेशी की मानसिकता उनके काम के लिए बहुत सपष्ट थी। वे चाहती हैं कि समाज में प्रत्येक इंसान आत्म निर्भर और आत्मविश्वासी बनें। उन्होंने अपने बच्चों को ऐसी परवरिश दी कि उन्हें किसी के सामने हाथ नहीं फैलाना पड़ता, सभी को अपनी मूल जरूरतों को पूरा करने के लिए आत्म निर्भर होना चाहिए। वर्तमान में उनका मुख्य ध्यान युवाओं, विशेष रूप से लड़कियों पर है। उन्होंने अपनी सोच और कौशल को अखबार और रेडियो के माध्यम से अधिक लोगों तक पहुंचाती हैं वे इनके माध्यम से ट्रेनिंग और जानकारी भी देती हैं। वे व्यक्तिगत तौर पर किसान ट्रेनिंग कार्यक्रमों और मीटिंग का दौरा करती हैं, विशेषकर कौशल प्रदान करती हैं। 2016 में उन्होंने कॉलेज के छात्रों के लिए टिफिन सेवा भी शुरू की। आज उनके काम ने उन्हें इतना लोकप्रिय बना दिया है कि उनका अपना रेडियो शो है जो हर शुक्रवार को दोपहर के 1 से 2 तक प्रसारित होता है, जहां पर वे लोगों को पानी के प्रबंधन, हेल्थ फूड रेसिपी और भी बहुत कुछ, के बारे में सुझाव देती हैं।

जन्म से कश्मीरी होने के कारण शहनाज़ हमेशा अपने काम और उत्पादों में अपने मूल स्थान का एक सार लाने की कोशिश करती हैं। उन्होंने “शाह के कश्मीरी और मुगलई चिकन” नाम से बठिंडा में एक रेस्टोरेंट भी खोला है और वहीं पर एक ग्रामीण कश्मीरी इंटीरियर देने और अपने रेस्टोरेंट में कश्मीरी क्रॉकरी सेट का उपयोग करने की भी योजना बना रही है। यहां तक कि उनका एक प्रसिद्ध उत्पाद है, कश्मीरी चाय जो कि कश्मीरी परंपरा और व्यंजनों के मूल को दर्शाता है। वे हर स्वस्थ, फायदेमंद और पारंपरिक नुस्खा सांझा करना चाहती हैं जो उन्होंने अपने उत्पादों, रेस्टोरेंट और ट्रेनिंग के माध्यम से जाना है। कश्मीर में उनके बाग भी है जो उनकी गैर मौजूदगी में उनके चचेरे भाई की देख रेख में है। बाग में मिट्टी की उपजाऊ शक्ति को बनाए रखने और अच्छी उपज प्राप्त करने के लिए वे जैविक तरीकों का पालन करती हैं।

शहनाज़ कुरेशी की ये सिर्फ कुछ ही उपलब्धियां थी। आने वाले समय में वे समाज के हित में और ज्यादा काम करेंगी। उनके प्रयासों को कई संगठनों द्वारा प्रशंसा मिली है और उन्हें मुक्तसर साहिब के फूड प्रोसेसिंग विभाग द्वारा सम्मानित भी किया गया है। इसके अलावा 2015 में उन्हें पी ए यू द्वारा जगबीर कौर मेमोरियल पुरस्कार से सम्मानित भी किया गया।

किसानों को संदेश

हर समय सरकार को दोष नहीं देना चाहिए क्योंकि जिन समस्याओं का आज हम सामना कर रहे हैं उनके लिए सिर्फ हम ही जिम्मेदार हैं। आजकल किसानों को पता ही नहीं है कि अवसरों का लाभ कैसे उठाया जाए, क्योंकि यदि किसान आगे बढ़ना चाहते हैं तो उन्हें अपनी सोच को बदलना होगा। इसके अलावा इसका पालन करना आवश्यक नहीं है। आप दूसरे किसानों के लिए प्रेरणा हो सकते हैं। किसानों को यह समझना होगा कि कच्चे माल की तुलना में फूड प्रोसेसिंग में अधिक मुनाफा है।

निर्मल सिंह

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कैसे सुअर पालन ने निर्मल सिंह की ज़िंदगी को बदल दिया और कैसे यह उन्हें सफलता की दिशा में आगे बढ़ा रहा है

भारत में, बड़े पैमाने पर सुअर पालतु जानवर नहीं होते लेकिन जब सुअर पालन की बात आती है तो ये पैसा कमाने का अच्छा स्त्रोत होते हैंऔर इस व्यवसाय की सबसे अच्छी बात यह है कि इसे बहुत ही कम पूंजी से शुरू किया जा सकता है।

पंजाब में सुअर पालन किसानों के बीच एक लोकप्रिय व्यवसाय के रूप में उभर रहा है और कई लोग इसमें दिलचस्पी दिखा रहे हैं। हालांकि कई लोग सुअर पालन को बहुत नीचे के स्तर के व्यवसाय के रूप में देखते हैं। लेकिन यह सबके लिए मायने नहीं रखता। क्योंकि सुअर पालन ने पंजाब के किसानों की ज़िंदगी और नज़रिये को बिल्कुल ही बदल कर रख दिया है। एक ऐसे ही किसान हैं – निर्मल सिंह, जो कि सफलतापूर्वक इस व्यवसाय को कर रहे हैं और इससे अच्छी आमदन कमा रहे हैं।

अपने दादा-पड़दादा के समय से निर्मल सिंह का परिवार खेतीबाड़ी में शामिल है। उनके लिए पैसा कमाने के लिए खेतीबाड़ी के अतिरिक्त कोई अन्य विकल्प नहीं है। लेकिन जब निर्मल सिंह बड़े हुए और अपनी पढ़ाई पूरी करने के बाद उन्होंने सब कुछ अपने हाथ में लिया तब उन्होंने गेहूं और धान की खेती के साथ डेयरी फार्मिंग का काम भी शुरू किया। लगभग डेढ़ साल तक उन्होंने व्यापारिक स्तर पर डेयरी फार्मिंग की लेकिन 2015 में जब वे अपने एक दोस्त की शादी में बठिंडा गए तब उन्होंने सुअर पालन के बारे में जाना। वे इसके बारे में जानकर बहुत उत्साहित हुए इसलिए शादी के बाद अगले दिन वे संघेड़ा में स्थित एक BT फार्म पर गए। इस फार्म का दौरा करने के बाद उनकी इस व्यवसाय को करने में दिलचस्पी पैदा हुई।

सुअर पालन का उद्यम शुरू करने से पहले उन्होंने माहिरों से सलाह और किसी माहिर व्यक्ति से ट्रेनिंग लेने के बारे में सोचा तो इसलिए उन्होने विशेष तौर पर GADVASU (Guru Angad Dev Veterinary and Animal Sciences University), लुधियाना से 5 दिनों की ट्रेनिंग ली। ट्रेनिंग लेने के बाद उन्होंने 10 मादा सुअर और 1 नर सुअर से सुअर पालन की शुरूआत की। उन्होंने 2 कनाल क्षेत्र में पिग्गरी फार्म को व्यवस्थित किया।

सुअर पालन की मांग बढ़ने के कारण उनका उद्यम अच्छा चल रहा है और आज उनके पास लगभग 90 सुअर हैं। जिनमें से 10 मादा और 1 नर सुअर है जो उन्होंने प्रजनन के लिए शुरू में खरीदा था। एक महीने में वे, 150 रूपये प्रति किलो मादा सुअर और 85 रूपये प्रति किलो नर सुअर के हिसाब से 10-12 सुअर बेचते हैं। उनके भाई और बेटा उनके इस उद्यम में उनकी सहायता करते हैं और उन्होंने सहायता के लिए किसी अन्य श्रमिक को नहीं रखा है। सुअरों के स्वास्थ्य को बनाए रखने के लिए वे स्वंय सुअरों की फीड बनाना पसंद करते हैं। वे बाज़ार से कच्चा माल खरीदते हैं और खुद ही उनकी फीड बनाते हैं।

आज निर्मल सिंह को Progressive Pig Farmers Association, GADVASU के सदस्यों में गिना जाता है। उन्हें श्री मुक्तसर साहिब में आयोजित जिला स्तरीय पशुधन चैंपियनशिप में पहला पुरस्कार, प्रमाण पत्र और नकद पुरस्कार भी मिला।

वर्तमान में वे अपनी पत्नी, एक बेटा और एक बेटी के साथ मुक्तसर के लुबानियां वाली गांव में रह रहे हैं। भविष्य में वे अपने सुअर पालन के व्यवसाय का विस्तार करना चाहते हैं और इसके उत्पादों की प्रोसेसिंग करना चाहते हैं। वे अन्य किसानों की मदद करना चाहते हैं और उन्हें अच्छी आय कमाने के लिए इस व्यवसाय को करने की सिफारिश करते हैं।

संदेश:
कोई भी काम शुरू करने से पहले ट्रेनिंग बहुत महत्तवपूर्ण है। प्रत्येक किसान को अपने कौशल को सुधारने के लिए ट्रेनिंग जरूर लेनी चाहिए नहीं तो, एक सरल सा काम करने में भी बहुत बड़ा खतरा रहता है।

यदि आप भी पंजाब में सुअर पालन व्यवयाय को शुरू करने के बारे में सोच रहे हैं तो यह आपके लिए सही समय है। सुअर पालन की ट्रेनिंग, सुअर प्रजनन या सुअर पालन की जानकारी के लिए अपनी खेती से संपर्क करें।

प्रेम राज सैनी

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कैसे उत्तर प्रदेश के एक किसान ने फूलों की खेती से अपने व्यापार को बढ़ाया

फूलों की खेती एक लाभदायक आजीविका पसंद व्यवसाय है और यह देश के कई किसानों की आजीविका को बढ़ा रहा है। ऐसे ही उत्तर प्रदेश के पीर नगर गांव के श्री प्रेम राज सैनी एक उभरते हुए पुष्पविज्ञानी हैं और हमारे समाज के अन्य किसानों के लिए एक आदर्श उदाहरण हैं।

प्रेम राज के पुष्पविज्ञानी होने के पीछे उनकी सबसे बड़ी प्रेरणा उनके पिता है। यह 70 के दशक की बात है जब उनके पिता दिल्ली से फूलों के विभिन्न प्रकार के बीज अपने खेत में उगाने के लिए लाये थे। वे अपने पिता को बहुत बारीकी से देखते थे और उस समय से ही वे फूलों की खेती से संबंधित कुछ करना चाहते थे। हालांकि प्रेम राज सैनी B.Sc ग्रेजुएट हैं और वे खेती के अलावा विभिन्न व्यवसाय का चयन कर सकते थे लेकिन उन्होंने अपने सपने के पीछे जाने को चुना।

20 मई 2007 को उनके पिता का देहांत हो गया और उसके बाद ही प्रेम राज ने उस कार्य को शुरू करने का फैसला किया जो उनके पिता बीच में छोड़ गये थे। उस समय उनका परिवार आर्थिक रूप से स्थायी था और उनके भाई भी स्थापित हो चुके थे। उन्होंने खेती करनी शुरू की और उनके बड़े भाई ने एक थोक फूलों की दुकान खोली जिसके माध्यम से वे अपनी खेती के उत्पाद बेचेंगे। अन्य दो छोटे भाई नौकरी कर रहे थे लेकिन बाद में वे भी प्रेम राज और बड़े भाई के उद्यम में शामिल हो गए।

प्रेम राज द्वारा की गई एक पहल ने पूरे परिवार को एक धागे में जोड़ दिया। सबसे बड़े भाई कांजीपुर फूल मंडी में फूलों की दो दुकानों को संभालते हैं। प्रेम राज स्वंय पूरे फार्म का काम संभालते हैं और दो छोटे भाई नोयडा की संब्जी मंडी में अपनी दुकान संभाल रहे हैं। इस तरह उन्होंने अपने सभी कामों को बांट दिया है जिसके फलस्वरूप उनकी आय में वृद्धि हुई है। उन्होंने केवल एक स्थायी मजदूर रखा है और कटाई के मौसम में वे अन्य श्रमिकों को भी नियुक्त कर लेते हैं।

प्रेम राज के फार्म में मौसम के अनुसार हर तरह के फूल और सब्जियां हैं। अच्छी उपज के लिए वे नेटहाउस और बेड फार्मिंग के ढंगों को अपनाते हैं। दूसरे शब्दों में वे अच्छी गुणवत्ता वाली उपज के लिए रसायनों का उपयोग नहीं करते हैं और आवश्यकतानुसार ही बहुत कम नदीननाशक का प्रयोग करते हैं। इस तरह उनके खर्चे भी आधे रह जाते हैं। वे अपने फार्म में आधुनिक खेती यंत्रों जैसे ट्रैक्टर और रोटावेटर का प्रयोग करते हैं।

भविष्य की योजनाएं-
सैनी भाई अच्छी आमदन के लिए विभिन्न स्थानों पर और अधिक दुकानें खोलने की योजनाएं बना रहे हैं। वे भविष्य में अपने खेती के क्षेत्र और व्यापार को बढ़ाना चाहते हैं।

परिवार-
वर्तमान में वे अपने संपूर्ण परिवार (माता, पत्नी, दो पुत्र और एक बेटी) के साथ अपने गांव में रह रहे हैं। वे काफी खुले विचारों वाले इंसान हैं और अपने बच्चों पर कभी भी अपनी सोच नहीं डालते। फूलों की खेती के व्यापार और आमदन के साथ आज प्रेम राज सैनी और उनके भाई अपने परिवार की हर जरूरत को पूरा कर रहे हैं।

संदेश-
वर्तमान में नौकरियों की बहुत कमी है, क्योंकि अगर एक जॉब वेकेंसी है तो वहीं आवेदन भरने के लिए कई आवेदक हैं। इसलिए यदि आपके पास ज़मीन है तो इससे अच्छा है कि आप खेती शुरू करें और इससे लाभ कमायें। खेतीबाड़ी को निचले स्तर का व्यवसाय के बजाय अपनी जॉब के तौर पर लें।

हरबीर सिंह पंडेर

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कैसे एक पिता ने मक्खी पालन में निवेश करके भविष्य में अपने पुत्र को ज्यादा मुनाफा कमाने में मदद की

पंडेर परिवार के युवा पीढ़ी हरबीर सिंह पंडेर ने ना सिर्फ अपने पिता के मक्खीपालन के व्यापार को आगे बढ़ाया, बल्कि अपने विचारों और प्रयासों से इसे लाभदायक उद्यम भी बनाया।

हरबीर सिंह, कुहली खुर्द, लुधियाना के निवासी हैं। जिनके पास सिविल में इंजीनियर की डिग्री होते हुए भी, उन्होंने अपने पिता के व्यवसाय को आगे बढ़ाने का फैसला किया और अपने नए विचारों से उसे आगे बढ़ाया।

जब पंडेर परिवार ने मक्खी पालन शुरू किया….
गुरमेल सिंह पंडेर – हरबीर सिंह के पिता ने तकरीबन 35 वर्ष पहले बिना किसी ट्रेनिंग के मक्खी पालन का व्यापार शुरू किया था। 80 के दशक में जब किसी ने भी नहीं सोचा होगा कि मक्खी पालन भी एक लाभदायक स्त्रोत हो सकता है, गुरमेल सिंह का भविष्यवादी दिमाग एक अलग दिशा में चला गया। उस समय उसने मधु मक्खियों के दो बक्सों के साथ मक्खी पालन शुरू किया और आज उसके पुत्र ने उसके काम को मधु मक्खी के 700 बक्सों के साथ एक उत्कृष्ट प्रयास में बदल दिया।

हालांकि, हरबीर के पिता मधुमक्खी पालन के काम से अच्छा मुनाफा कमा रहे थे लेकिन यह मार्किटिंग के दृष्टिकोण से कम था। जिसके कारण वे उचित मार्किट को कवर नहीं कर पा रहे थे। इसलिए हरबीर सिंह ने सोचा कि वे अपनी योजना और सोच के साथ इस स्थानीय व्यापार को आगे बढ़ाएंगे। हरबीर ने अपनी पढ़ाई पूरी करने के तुरंत बाद ही अपने पिता के व्यापार को संभाल लिया। अपनी पिता के व्यापार का चयन करना हरबीर के लिए मजबूरी नहीं था यह उनका काम को जारी रखने का जुनून था जिसे उन्होंने अपने पूरे बचपन में अपने पिता को करते देखा था।

अपने पिता के काम को संभालते ही हरबीर ने अपने पिता के व्यापार को ‘रॉयल हनी’ ब्रांड का नाम दिया। हरबीर अच्छी तरह से जानते थे कि व्यापार को बड़े स्तर पर बढ़ावा देने के लिए ब्रांडिंग बहुत महत्तवपूर्ण है। इसलिए उन्होंने अपने व्यवसाय को ब्रांड नाम के तहत पंजीकृत करवाया। अपने काम को अधिक व्यवसायी बनाने के लिए हरबीर विशेष रूप से मक्खी पालन की ट्रेनिंग के लिए 2011 में पी ए यू गए।

वर्ष 2013 में उन्होंने अपने उत्पादों को AGMARK के तहत भी पंजीकृत किया और आज वे पैकेजिंग से लेकर मार्किटिंग का काम सब कुछ स्वंय करते हैं। वे मुख्य तौर पर दो उत्पादों शहद और बी वैक्स पर ध्यान देते हैं।

हरबीर के पास उनके फार्म पर मुख्यत: इटेलियन मक्खियां हैं और शहद की उच्च गुणवत्ता बनाए रखने के लिए वे मौसम से मौसम, पंजाब के आस पास के राज्यों में एक स्थान से दूसरे स्थान पर ले जाते हैं। उन्होंने इस काम के लिए 7 श्रमिकों को रोज़गार दिया है। मुख्यत: वे अपने बक्सों को चितौड़गढ़ (कैरम के बीजों के खेत में), कोटा (सरसों के खेत में), हिमाचल प्रदेश (विभिन्न फूलों), मलोट (सूरजमुखी के खेत) और राजस्थान (बाजरा और तुआर के खेत) में क्षेत्र किराये पर लेकर छोड़ देते हैं। शहद को हाथों से निकालने की प्रक्रिया द्वारा वे शहद निकालते हैं और फिर अपने उत्पादों की पेकेजिंग और मार्किटिंग करते हैं।

मक्खी पालन के अलावा हरबीर और उसका परिवार खेती और डेयरी फार्मिंग भी करता है। उनके पास 7 एकड़ भूमि है जिस पर वे घर के लिए धान और गेहूं उगाते हैं और उनके पास 15 भैंसे हैं जिनका दूध वे गांव में बेचते हैं और इसमें से कुछ अपने लिए भी रखते हैं।

वर्तमान में हरबीर अपने पारिवारिक व्यवसाय से अच्छा लाभ कमा रहे हैं और अपने अतिरिक्त समय में वे मक्खी पालन के व्यवसाय के बारे में अन्य लोगों को गाइड भी करते हैं। हरबीर भविष्य में अपने व्यापार को और बढ़ाना चाहते हैं और मार्किटिंग के लिए पूरी तरह से आत्म निर्भर होना चाहते हैं।

किसानों को संदेश

आजकल के दिनों में किसानों को सिर्फ खेती पर ही निर्भर नहीं होना चाहिए। उन्हें खेती के साथ साथ अन्य एग्रीबिज़नेस को भी अपनाना चाहिए ताकि अगर एक विकल्प फेल हो जाए तो आखिर में आपके पास दूसरा विकल्प हो। मक्खीपालन एक बहुत ही लाभदायक व्यापार है और किसानों को इसके लाभों के बारे में जानने का प्रयास करना चाहिए।

अंग्रेज सिंह भुल्लर

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कैसे इस किसान के बिगड़ते स्वास्थ्य ने उसे अपनी गल्ती सुधारने और जैविक खेती को अपनाने के लिए उकसाया

गिदड़बाहा के इस 53 वर्षीय किसान- अंग्रेज सिंह भुल्लर ने अपनी गल्तियों को पहचानने के बाद कि उसने क्या बनाया और कैसे यह उसके स्वास्थ्य को प्रभावित कर रहा है, अपने जीवन का सबसे प्रबुद्ध फैसला लिया।

4 वर्ष की युवा उम्र में अंग्रेज सिंह भुल्लर ने अपने पिता को खो दिया। उसके परिवार की स्थितियां दिन प्रतिदिन बिगड़ती जा रही थी क्योंकि उनके परिवार में कोई रोटी कमाने वाला नहीं था। उन्हें पैसे भी रिश्तेदारों को अपनी ज़मीन किराये पर देकर मिल रहे थे। परिवार में उनकी दो बड़ी बहनें थी और अपने परिवार की जरूरतों को पूरा करना उनकी मां के लिए दिन प्रतिदिन बहुत मुश्किल हो रहा था। बिगड़ती वित्तीय परिस्थितियों के कारण, अंग्रेज सिंह को 9वीं कक्षा तक शैक्षिक योग्यता प्राप्त हुई और उनकी बहनें कभी स्कूल नहीं गई।

स्कूल छोड़ने के बाद अंग्रेज सिंह ने कुछ समय अपने अंकल के फार्म पर बिताया और उनसे खेती की कुछ तकनीकें सीखीं। 1989 तक ज़मीन रिश्तेदारों के पास किराये पर थी। लेकिन उसके बाद अंग्रेज सिंह ने परिवार की ज़िम्मेदारी लेने का बड़ा फैसला लिया। इसलिए उन्होंने अपनी ज़मीन वापिस लेने का निर्णय लिया और इस पर खेती शुरू की।

अपने अंकल से उन्होंने जो कुछ सीखा और गांव के अन्य किसानों को देखकर उन्होंने रासायनिक खेती शुरू की। उन्होंने अच्छी कमाई करनी शुरू की और अपने परिवार की वित्तीय स्थिति में सुधार हुआ। जल्दी ही कुछ समय बाद उन्होंने शादी की और एक सुखी परिवार का जीवन जी रहे थे।

लेकिन 2006 में वे बीमार पड़ गये और प्रमुख स्वास्थ्य समस्याओं से पीड़ित हो गए। इससे पहले वे इस समस्या को हल्के ढंग से लेते थे लेकिन डॉक्टर की जांच के बाद उन्हें पता चला कि उनकी आंत में सोजिश आ गई है जो कि भविष्य में गंभीर समस्या बन सकती है। उस समय बहुत से लोग उनके स्वास्थ्य के बारे में पूछने के लिए आते थे और किसी ने उन्हें बताया कि स्वास्थ्य बिगड़ने का कारण खेती में रसायन का उपयोग करना है और आपको जैविक खेती शुरू करनी चाहिए।

हालांकि कई लोगों ने उन्हें इलाज के लिए काफी चीज़ें करने को कहा लेकिन एक बात जिसने मजबूती से उनके दिमाग में दस्तक दी वह थी जैविक खेती शुरू करना। उन्होंने इस मसले को काफी गंभीरता से लिया और 2006 में 2.5 एकड़ की भूमि पर जैविक खेती शुरू की उन्होंने गेहूं, सब्जियां, फल, नींबू, अमरूद, गन्ना और धान उगाना शुरू किया और इससे अच्छा लाभ प्राप्त किया। अपने लाभ को दोगुना करने के लिए उन्होंने स्वंय ही उत्पादों की प्रोसेसिंग शुरू की और बाद में उन्होंने गन्ने से गुड़ बनाना शुरू किया । उन्होंने हाथों से ही गुड़ बनाने की विधि को अपनाया क्योंकि वह इस उद्यम को अपने दम पर शुरू कर रहे थे। शुरूआत में वे अनिश्चित थे कि उन्हें इसका कैसा फायदा होगा लेकिन धीरे धीरे गांव के लोगों ने गुड़ को पसंद करना शुरू कर दिया। धीरे धीरे गुड़ की मांग एक स्तर तक बढ़ी जिससे उन्होंने एडवांस बुकिंग पर गुड़ बनाना शुरू किया। कुछ समय बाद उन्होंने अपने खेत में वर्मीकंपोस्टिंग प्लांट लगाया ताकि वे घर पर बनी खाद से अच्छी उपज ले सकें।

उन्होंने कई पुरस्कार, उपलब्धियां प्राप्त की और कई ट्रेनिंग कैंप में हिस्सा लिया| उनमें से कुछ निम्नलिखित हैं।
• 1979 में 15 से 18 नवंबर के बीच उन्होंने जिला मुक्तसर विज्ञान मेले में भाग लिया।
• 1985 में वेरका प्लांट बठिंडा द्वारा आयोजित Artificial Insemination के 90 दिनों की ट्रेनिंग में भाग लिया।
• 1988 में पी.ए.यू, लुधियाना द्वारा आयोजित हाइब्रिड बीजों की तैयारी के 3 दिनों की ट्रेनिंग में भाग लिया।
• पतंजली योग समिती में 9 जुलाई से 14 जुलाई 2009 में भाग लेने के लिए योग शिक्षक की ट्रेनिंग के लिए प्रमाण पत्र मिला।
• 28 सितंबर 2012 में खेतीबाड़ी विभाग, पंजाब के निदेशक से प्रशंसा पत्र मिला।
• 9 से 10 सितंबर 2013 को आयोजित Vibrant Gujarat Global Agricultural सम्मेलन में भाग लिया।
• कुदरती खेती और पर्यावरण मेले के लिए प्रशंसा पत्र मिला जिसमें 26 जुलाई 2013 को खेती विरासत मिशन द्वारा मदद की गई थी।
• खेतीबाड़ी विभाग जिला श्री मुक्तसर साहिब पंजाब द्वारा आयोजित Rabi Crops Farmer Training Camp में भाग लेने के लिए 21 सितंबर 2014 को Agricultural Technology Management Agency (ATMA) द्वारा राज्य स्तर पर प्रशंसा पत्र प्राप्त किया।
• 21 सितंबर 2014 को खेतीबाड़ी विभाग, श्री मुक्तसर साहिब द्वारा State Level Farmer Training Camp के लिए प्रशंसा पत्र मिला।
• 12 -14 अक्तूबर 2014 को पी ए यू द्वारा आयोजित Advance training course of Bee Breeding 7 Mass Bee Rearing Technique में भाग लिया।
• Sarkari Murgi Sewa Kendra, Kotkapura में पशु पालन विभाग, पंजाब द्वारा आयोजित 2 सप्ताह की पोल्टरी फार्मिंग ट्रेनिंग में भाग लिया।
• National Bee Board द्वारा मक्खीपालक के तौर पर पंजीकृत हुए।
• CRI पुरस्कार मिला|
• KVK, गोनिआना द्वारा आयोजित Kharif Crop Farming के 1 दिन की ट्रेनिंग कैंप में भाग लिया।
• PAU Ludhiana द्वारा आयोजित 10 दिनों की मक्खी पालन की ट्रेनिंग में भाग लिया।
• KVK, गोनिआना द्वारा आयोजित 1 दिन की Pest Control in Grains stored in Storehouse की ट्रेनिंग में भाग लिया।
• Department of Rural Development, NITTTR, Chandigarh द्वारा आयोजित Organic & Herbal Products Mela में भाग लिया।
• PAMETI (Punjab Agriculture Management & Extension Training Institute), PAU द्वारा आयोजित workshop training programme- “MARKET LED EXTENSION” में भाग लिया।
अंग्रेज सिंह भुल्लर पंजाब के वे भविष्यवादी किसान है जो जैविक खेती की महत्तता को समझते हैं। आज खराब पर्यावरण परिस्थितियों से निपटने के लिए हमें उनके जैसे अधिक किसानों की जरूरत है।

किसानों को संदेश

यदि हम अब जैविक खेती शुरू नहीं करते है तो यह हमारी भविष्य की पीढ़ी के लिए बड़ी समस्या होगी।

गुरदीप सिंह बराड़

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एक व्यक्ति का जागृत परिवर्तन- रासायनिक खेती से जैविक खेती की तरफ

लोगों की जागृति का मुख्य कारण यह है कि जो चीज़ें उन्हें संतुष्ट नहीं करती हैं उन पर उन्होंने सहमति देना बंद कर दिया है। यह कहा जाता है कि जब व्यक्ति सही रास्ता चुनता है तो उसे उस पर अकेले ही चलना पड़ता है वह बहुत अकेला महसूस करता है और इसके साथ ही उसे उन चीज़ों और आदतों को छोड़ना पड़ता है जिसकी उसे आवश्यकता नहीं होती। ऐसे ही एक व्यक्ति गुरदीप सिंह बराड़ हैं, जिन्होंने सामाजिक प्रवृत्ति के विपरीत जाकर, जागृत होकर रासायनिक खेती को छोड़ जैविक खेती को अपनाया।

गुरदीप सिंह बराड़ गांव मेहमा सवाई जिला बठिंडा के निवासी हैं। 17 वर्ष पहले श्री गुरदीप सिंह के जीवन में एक बड़ा बदलाव आया जिसने उनके विचारों और खेती करने के ढंगों को पूरी तरह बदल दिया। आज गुरदीप सिंह एक सफल किसान हैं और बठिंडा में जैविक किसान के नाम से जाने जाते हैं और उनकी कमायी भी अन्य किसानों के मुकाबले ज्यादा हैं जो पारंपरिक या रासायनिक खेती करते हैं।

जैविक खेती करने से पहले गुरदीप सिंह बराड़ एक साधारण किसान थे जो कि वही काम करते थे जो वे बचपन से देखते आ रहे थे। उनके पास केवल 2 एकड़ की भूमि थी जिस पर वे खेती करते थे और उनकी आय सिर्फ गुज़ारा करने योग्य थी।

1995 में वे किसान सलाहकार सेवा केंद्र के माहिरों के संपर्क में आये। वहां वे अपने खेती संबंधित समस्याओं के बारे में बातचीत करते थे और उनका समाधान और जवाब पाते थे। वे के वी के बठिंडा ब्रांच के माहिरों से भी जुड़े थे। कुछ समय बाद किसान सलाहकार केंद्र ने उन्हें सब्जियों के बीजों की किट उपलब्ध करवाकर क्षेत्र के 1 कनाल में एक छोटी सी घरेलु बगीची लगाने के लिए प्रेरित किया। जब घरेलु बगीची का विचार सफल हुआ तो उन्होंने 1 कनाल क्षेत्र को 2 कनाल में फैला दिया और सब्जियों का अच्छा उत्पादन करना शुरू किया।

सिर्फ चार वर्ष बाद 1999 में वे अंबुजा सीमेंट फाउंडेशन के संपर्क में आये। उन्होने उनके साथ मिलकर काम किया और कई विभिन्न खेतों का दौरा भी किया।

उनमें से कुछ हैं
• नाभा ऑरगैनिक फार्म
• गंगानगर में भगत पूर्ण सिंह फार्म
• ऑरगैनिक फार्म

इन सभी विभिन्न खेतों का दौरा करने के बाद वे जैविक खेती की तरफ प्रेरित हुए और उसके बाद उन्होंने सब्जियों के साथ मौसमी फल उगाने शुरू किए। वे बीज उपचार, कीटों के नियंत्रण और जैविक खाद तक तैयार करने के लिए जैविक तरीकों का प्रयोग करते थे। बीज उपचार के लिए वे नीम का पानी, गाय का मूत्र, चूने के पानी का मिश्रण और हींग के पानी के मिश्रण का प्रयोग करते हैं। वे सब्जियों की उपज को स्वस्थ और रसायन मुक्त बनाने के लिए घर पर तैयार जीव अमृत का प्रयोग करते हैं। कीटों के हमले के नियंत्रण के लिए वे खेतों में लस्सी का प्रयोग करते हैं। वे पानी के प्रबंधन की तरफ भी बहुत ध्यान देते हैं। इसलिए वे सिंचाई के लिए तुपका सिंचाई प्रणाली का प्रयोग करते हैं।

गुरदीप सिंह ने अपने फार्म पर वर्मी कंपोस्ट यूनिट भी लगाई है ताकि वे सब्जियों और फलों के लिए शुद्ध जैविक खाद उपलब्ध कर सकें। उन्होंने प्रत्येक कनाल में दो गड्ढे बनाये हैं जहां पर वे गाय का गोबर, भैंस का गोबर और पोल्टरी खाद डालते हैं।

खेती के साथ साथ वे कद्दू, करेले और काली तोरी के बीज घर पर ही तैयार करते हैं। जिससे उन्हें बाज़ार जाकर सब्जियों के बीज खरीदने की आवश्यकता नहीं पड़ती। कद्दू की मात्रा और गुणवत्ता को बढ़ाने के लिए वे विशेष तौर पर कद्दू की बेलों को उचित सहारा देने के लिए रस्सी का प्रयोग करते हैं।

आज उनकी सब्जियां इतनी प्रसिद्ध हैं कि बठिंडा, गोनियाना मंडी और अन्य नज़दीक के लोग विशेष तौर पर सब्जियों खरीदने के लिए उनके फार्म का दौरा करने आते हैं। जब बात सब्जियों के मंडीकरण की आती है तो वे कभी तीसरे व्यक्ति पर निर्भर नहीं होते। वे 500 ग्राम के पैकेट बनाकर उत्पादों को स्वंय बेचते हैं और आज की तारीख में वे इससे अच्छा लाभ कमा रहे हैं।

खेती की तकनीकों और ढंगों के लिए उन्हें कई स्थानीय पुरस्कार मिले हैं और वे कई खेती संस्थाओं और संगठनों के सदस्य भी हैं। 2015 में उन्होंने पी ए यू से सुरजीत सिंह ढिल्लों पुरस्कार प्राप्त किया। उस इंसान के लिए इस स्तर पर पहुंचना जो कभी स्कूल नहीं गया बहुत महत्तव रखता है। वर्तमान में वे अपनी माता, पत्नी और पुत्र के साथ अपने गांव में रह रहे है। भविष्य में वे जैविक खेती को जारी रखना चाहते हैं और समाज को स्वस्थ और रासायन मुक्त भोजन उपलब्ध करवाना चाहते हैं।

किसानों को संदेश
किसानों द्वारा प्रयोग किए जाने वाले रसायनों के कारण आज लोगों में कैंसर जैसी बीमारियां फैल रही हैं। मैं ये नहीं कहता कि किसानों को खादों और कीटनाशकों का प्रयोग नहीं करना चाहिए लेकिन उन्हें इनका प्रयोग कम कर देना चाहिए और जैविक खेती का अपनाना चाहिए। इस तरह वे मिट्टी और जल प्रदूषण को बचा सकते हैं और कैंसर जैसी अन्य बीमारियों को रोक सकते हैं।

पूजा शर्मा

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एक दृढ़ इच्छा शक्ति वाली महिला की कहानी जिसने अपने परिवार की जरूरतों को पूरा करने के लिए खेती के माध्यम से अपने पति का साथ दिया

हमारे भारतीय समाज में एक धारणा को जड़ दिया गया है कि महिला को घर पर होना चाहिए और पुरूषों को कमाना चाहिए। लेकिन फिर भी ऐसी कई महिलाएं हैं जो रोटी अर्जित के टैग को बहुत ही आत्मविश्वास से सकारात्मक तरीके से पेश करती हैं और अपने पतियों की घर चलाने और घर की जरूरतों को पूरा करने में मदद करती हैं। ऐसी ही एक महिला हैं – पूजा शर्मा, जो अपने घर की जरूरतों को पूरा करने में अपने पति की सहायता कर रही हैं।

श्री मती पूजा शर्मा जाटों की धरती- हरियाणा की एक उभरती हुई एग्रीप्रेन्योर हैं और वर्तमान में वे क्षितिज सेल्फ हेल्प ग्रुप की अध्यक्ष भी हैं और उनके गांव (चंदू) की प्रगतिशील महिलाएं उनके अधीन काम करती हैं। अभिनव खेती की तकनीकों का प्रयोग करके वे सोयाबीन, गेहूं, मक्का, बाजरा और मक्की से 11 किस्मों का खाना तैयार करती हैं, जिन्हें आसानी से बनाया जा सकता है और सीधे तौर पर खाया जा सकता है।

खेती के क्षेत्र में जाने का निर्णय 2012 में तब लिया गया, जब श्री मती पूजा शर्मा (तीन बच्चों की मां) को एहसास हुआ कि उनके घर की जरूरतें उनके पति (सरकारी अनुबंध कर्मचारी) की कमाई से पूरी नहीं हो रही हैं और अब ये उनकी जिम्मेदारी है कि वे अपने पति को सहारा दें।

वे KVK शिकोपूर में शामिल हुई और उन्हें उन चीज़ों को सीखने के लिए कहा गया जो उनकी आजीविका कमाने में मदद करेंगे। उन्होंने वहां से ट्रेनिंग ली और खेती की नई तकनीकें सीखीं। उन्होंने वहां सोयाबीन और अन्य अनाज की प्रक्रिया को सीखा ताकि इसे सीधा खाने के लिए इस्तेमाल किया जा सके और यह ट्रेनिंग लेने के बाद उन्होंने अपने पड़ोस और गांव की अन्य महिलाओं को ट्रेनिंग लेने के लिए प्रोत्साहित किया।

2013 में उन्होंने अपने घर पर भुनी हुई सोयाबीन की अपनी एक छोटी निर्माण यूनिट स्थापित की और अपने उद्यम में अपने गांव की अन्य महिलाओं को भी शामिल किया और धीरे-धीरे अपने व्यवसाय का विस्तार किया। उन्होंने एक क्षितिज SHG के नाम से एक सेल्फ हेल्प ग्रुप भी बनाया और अपने गांव की और महिलाओं को इसमें शामिल होने के लिए प्रोत्साहित किया। ग्रुप की सभी महिलाओं की बचत को इकट्ठा करके उन्होंने और तीन भुनाई की मशीने खरीदीं और कुछ समय बाद उन्होंने और पैसा इकट्ठा किया और दो और मशीने खरीदीं। वर्तमान में उनके ग्रुप के पास निर्माण के लिए 7 मशीनें हैं। ये मशीनें उनके बजट के मुताबिक काफी महंगी हैं। लेकिन फिर भी उन्होंने सब प्रबंध किया और इन मशीनों की लागत 16000 और 20000 के लगभग प्रति मशीन है। उनके पास 1.25 एकड़ की भूमि है और वे सक्रिय रूप से खेती में भी शामिल हैं। वे ज्यादातर दालों और अनाज की उन फसलों की खेती करती हैं जिन्हें प्रोसेस किया जा सके और बाद में बेचने के लिए प्रयोग किया जा सके। वे अपने गांव की अन्य महिलाओं को भी यही सिखाती हैं कि उन्हें अपनी भूमि का प्रभावी ढंग से प्रयोग करना चाहिए क्योंकि इससे उन्हें भविष्य में फायदा हो सकता है।

11 महिलाओं की टीम के साथ आज वे प्रोसेसिंग कर रही है और 11 से ज्यादा किस्मों के उत्पादों (बाजरे की खिचड़ी, बाजरे के लड्डू, भुने हुए गेहूं के दाने, भुनी हुई ज्वार, भुनी हुई सोयाबीन, भुने हुए काले चने) जो कि खाने और बनाने के लिए तैयार हैं, को राज्यों और देश में बेच रही हैं। पूजा शर्मा की इच्छा शक्ति ने गांव की अन्य महिलाओं को आत्म निर्भरता और आत्म विश्वास हासिल करने में मदद की है।

उनके लिए यह काफी लंबी यात्रा थी जहां वे आज पहुंची हैं और उन्होंने कई चुनौतियों का सामना भी किया। अब उन्होंने अपने घर पर ही मशीनों को स्थापित किया है ताकि महिलाएं इन्हें चला सकें जब भी वे खाली हों और उनके गांव में बिजली की कटौती भी काफी होती हैं इसलिए उन्होंने उनके काम को उसी के अनुसार बांटा हुआ है। कुछ महिलायें बीन्स को सुखाती हैं, कुछ साफ करती है और बाकी की महिलायें उन्हें भूनती और पीसती हैं।

वर्तमान में कई बार पूजा शर्मा और उनका ग्रुप अंग्रेजी भाषा की समस्या का सामना करता है क्योंकि जब बड़ी कंपनियों के साथ संवाद करने की बात आती है तो उन्हें पता है कि किस कौशल में उनकी सबसे ज्यादा कमी है और वह है शिक्षा। लेकिन वे इससे निराश नहीं हैं और इस पर काम करने की कोशिश कर रही हैं। खाद्य वस्तुओं के निर्माण के अलावा वे सिलाई, खेती और अन्य गतिविधियों में ट्रेनिंग लेने में भी महिलाओं की मदद कर रही हैं, जिसमें वे रूचि रखती हैं।

उनके भविष्य की योजनाएं अपने व्यवसाय का विस्तार करना और अधिक महिलाओं को प्रेरित करना और उन्हें आत्म निर्भर बनाना ताकि उन्हें पैसों के लिए दूसरों पर निर्भर ना रहना पड़े। ज़ोन 2 के अंतर्गत राजस्थान, हरियाणा और दिल्ली राज्यों से उन्हें उनके उत्साही काम और प्रयासों के लिए और अभिनव खेती की तकनीकों के लिए पंडित दीनदयाल उपध्याय कृषि पुरस्कार के साथ 50000 रूपये की नकद राशि और प्रमाण पत्र भी मिला। वे ATMA SCHEME की मैंबर भी हैं और उन्हें गवर्नर कप्तान सिंह सोलंकी द्वारा उच्च प्रोटीन युक्त भोजन बनाने के लिए प्रशंसा पत्र भी मिला।

किसानों को संदेश
जहां भी किसान अनाज, दालों और किसी भी फसल की खेती करते हैं वहां उन्हें उन महिलाओं का एक समूह बनाना चाहिए जो सिर्फ घरेलू काम कर रही हैं और उन्हें उत्पादित फसलों से प्रोसेसिंग द्वारा अच्छी चीजें बनाने के लिए ट्रेनिंग देनी चाहिए, ताकि वे उन चीज़ों को मार्किट में बेच सकें और इसके लिए अच्छी कीमत प्राप्त कर सकें।”

 

सत्या रानी

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सत्या रानी: अपनी मेहनत से सफल एक महिला, जो फूड प्रोसेसिंड उदयोग में सूर्य की तरह उभर रही हैं

जब बात विकास की आती है तो इसमें कोई शक नहीं है कि महिलाएं भारत के युवा दिमागों को आकार देने और मार्गदर्शन करने में प्रमुख भूमिका निभा रही हैं। यहां तक कि खेतीबाड़ी के क्षेत्र में भी महिलायें पीछे नहीं हैं वे टिकाऊ और जैविक खेती के मार्ग का नेतृत्व कर रही हैं। आज, कई ग्रामीण और शहरी महिलायें खेतीबाड़ी में प्रयोग होने वाले रसायनों के प्रति जागरूक हैं और वे इस कारण इस क्षेत्र में काम भी कर रही हैं। सत्या रानी उन महिलाओं में से एक हैं जो जैविक खेती कर रही हैं और फूड प्रोसेसिंग के व्यापार में भी क्रियाशील हैं।

बढ़ते स्वास्थ्य मुद्दों और जलवायु परिर्वतन के साथ, खाद्य सुरक्षा से निपटना एक बड़ी चुनौती बन गई है और सत्या रानी एक उभरती हुई एग्रीप्रेन्योर हैं जो इस मुद्दे पर काम कर रही हैं। कृषि के क्षेत्र में योगदान करना और प्राकृति को उसका दिया वापिस देना सत्या का बचपन का सपना था। शुरू से ही उसके माता पिता ने उसे हमेशा इसकी तरफ निर्देशित और प्रेरित किया और अंतत: एक छोटी लड़की का सपना एक महिला का दृष्टिगोचर बन गया।

सत्या के जीवन में एक बुरा समय भी आया जिसमें अगर कोई अन्य लड़की होती तो वह अपना आत्म विश्वास और उम्मीद आसानी से खो देती। सत्या के माता पिता ने उन्हें वित्तीय समस्याओं के कारण 12वीं के बाद अपनी पढ़ाई रोकने के लिए कहा। लेकिन उसका अपने भविष्य के प्रति इतना दृढ़ संकल्प था कि उसने अपने माता-पिता से कहा कि वह अपनी उच्च शिक्षा का प्रबंधन खुद करेगी। उसने खाद्य उत्पाद जैसे आचार और चटनी बनाने का और इसे बेचने का काम शुरू किया।

इस समय के दौरान उसने कई नई चीज़ें सीखीं और उसकी रूचि फूड प्रोसेसिंग व्यापार में बढ़ गई। हिंदू गर्ल्स कॉलेज, जगाधरी से अपनी बी ए की पढ़ाई पूरी करने के बाद उसे उसी कॉलेज में होम साइंस ट्रेनर की जॉब मिल गई। इसके तुरंत बाद उसने 2004 में राजिंदर कुमार कंबोज से शादी की, लेकिन शादी के बाद भी उसने अपना काम नहीं छोड़ा। उसने अपने फूड प्रोसेसिंग के काम को जारी रखा और कई नये उत्पाद जैसे आम के लड्डू, नारियल के लड्डू, आचार, फ्रूट जैम, मुरब्बा और भी लड्डुओं की कई किस्में विकसित की। उसकी निपुणता समय के साथ बढ़ गई जिसके परिणाम स्वरूप उसके उत्पादों की गुणवत्ता अच्छी हुई और बड़ी संख्या में उसका ग्राहक आधार बना।

खैर, फूड प्रोसेसिंग ही ऐसा एकमात्र क्षेत्र नहीं है जिसमें उसने उत्कृष्टा हासिल की। अपने स्कूल के समय से वह खेल में बहुत सक्रिय थीं और कबड्डी टीम की कप्तान थी। वह अपने पेशे और काम के प्रति बहुत उत्साही थी। यहां तक कि उसने हिंदू गर्ल्स कॉलेज से सर्वश्रेष्ठ ट्रेनिंग पुरस्कार भी प्राप्त किया। वर्तमान में वह एक एकड़ ज़मीन पर जैविक खेती कर रही है और डेयरी फार्मिंग में भी सक्रिय रूप से शामिल है। वह अपने पति की सहायता से हर तरह की मौसमी सब्जियां उगाती है। सत्या ऑरगैनिक ब्रांड नाम है जिसके तहत वह अपने प्रोसेस किए उत्पादों (विभिन्न तरह के लड्डू, आचार, जैम और मुरब्बा ) को बेच रही है।

आने वाले समय में वह अपने काम को बढ़ाने और इससे अधिक आमदन कमाने की योजना बना रही है वह समाज में अन्य लड़कियों और महिलाओं को फूड प्रोसेसिंग और जैविक खेती के प्रति प्रेरित करना चाहती है ताकि वे आत्म निर्भर हो सकें।

किसानों को संदेश
यदि आपको भगवान ने सब कुछ दिया है अच्छा स्वास्थ्य और मानसिक रूप से तंदरूस्त दिमाग तो आपको एक रचनात्मक दिशा में काम करना चाहिए और एक सकारात्मक तरीके से शक्ति का उपयोग करना चाहिए। प्रत्येक व्यक्ति को स्वंय में छिपी प्रतिभा को पहचानना चाहिए ताकि वे उस दिशा में काम कर सके जो समाज के लिए लाभदायक हो।

कुलवंत कौर

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“हर सफल औरत के पीछे वह स्वंय होती हैं।”
-कैसे कुलवंत कौर ने इस उद्धरण को सही साबित किया

भारत में ऐसी कई महिलाएं हैं, जो असाधारण व्यक्तित्व रखती हैं, जिनका दिखने का उद्धरण नहीं, लेकिन उनका कौशल और आत्म विश्वास उन्हें दूसरों से अद्भुत बनाता है। कोई भी चीज़ उन्हें उनके उद्देश्य को पूरा करने से रोक नहीं सकती और उनके इस अद्वितीय व्यक्तित्व के पीछे उनकी स्वंय की प्रेरणा होती है।

ऐसी ही एक महिला – कुलवंत कौर, जिन्होंने अपने अंदर की पुकार को सुना और एग्रीव्यापार को अपने भविष्य की योजना के तौर पर चुना। खेती की पृष्ठभूमि से आने के कारण कुलवंत कौर और उनके पति जसविंदर सिंह, धान और गेहूं की खेती करते थे और डेयरी फार्मिंग में भी निष्क्रिय रूप से शामिल थे। शुरू से ही परिवार का ध्यान मुख्य तौर पर डेयरी बिज़नेस पर था क्योंकि वे 2.5 एकड़ भूमि के मालिक थे और जरूरत पड़ने पर भूमि को किराये पर दे सकते थे। डेयरी फार्म में 30 भैंसों के साथ, उनका दूध व्यवसाय बहुत अच्छे से विकास कर रहा था और खेती की तुलना में बहुत अधिक लाभदायक था।

कुलवंत कौर की खेतीबाड़ी में बहुत रूचि थी और इससे संबंधित व्यापार भी करते थे और एक दिन उन्होंने के वी के फतेहगढ़ साहिब के बारे में पढ़ा और इसमें शामिल होने का फैसला किया। उन्होंने 2011 में वहां से फलों और सब्जियों के प्रबंधन की 5 दिन की ट्रेनिंग ली। ट्रेनिंग के आखिरी दिन उन्होंने एक प्रतियोगिता में भाग लिया और सेब की जैम और हल्दी का आचार बनाने में पहला पुरस्कार जीता। उनकी ज़िंदगी में यह पहला पुरस्कार था, जो उन्होंने जीता और इस उपलब्धि ने उन्हें इतना दृढ़ और प्रेरित किया कि उन्होंने यह काम अपने आप शुरू करने का फैसला किया। उनके उत्पाद इतने अच्छे थे कि जल्द ही उन्हें एक अच्छा ग्राहक आधार मिला।

धीरे-धीरे उनके काम की गति, निपुणता और उत्पाद की गुणवत्ता समय के साथ बेहतर हो गई और हल्दी का आचार उनके उत्पादों में सबसे अधिक मांग वाला उत्पाद बन गया। उसके बाद अपने कौशल को बढ़ाने के लिए फिनाइल, साबुन, आंवला जूस, चटनी और आचार की ट्रेनिंग के लिए वे के वी के समराला में शामिल हो गए। अपनी ली गई ट्रेनिंग का प्रयोग करने के लिए वे विशेष तौर पर आंवला जूस की मशीन खरीदने के लिए दिल्ली गई। बहुत ही जल्दी उन्होंने एक ही मशीन से एलोवेरा जूस, शैंपू, जैल और हैंड वॉश बनाने की तकनीक को समझा और उत्पादों की प्रक्रिया देखने के बाद वे बहुत उत्साहित हुई और उन्होंने आत्मविश्वास हासिल किया।

ये उनका आत्मविश्वास और उपलब्धियां ही थी, जिन्होंने कुलवंत कौर को और ज्यादा काम करने के लिए प्रेरित किया। आखिर में उन्होंने उत्पादों का विनिर्माण घर पर ही शुरू किया और उनकी मंडीकरण भी स्वंय किया। एग्रीबिज़नेस की तरफ उनकी रूचि ने उन्हें इस क्षेत्र की तरफ और बढ़ावा दिया। 2012 में वे पी ए यू किसान क्लब की मैंबर बनी। उन्होंने उनके द्वारा दी जाने वाली हर ट्रेनिंग ली। खेतीबाड़ी की तरफ उनकी रूचि बढ़ती चली गई और धीरे धीरे उन्होंने डेयरी फार्म का काम कम कर दिया।

धान और गेहूं के अलावा, अब कुलवंत कौर और उनके पति ने मूंग, गन्ना, चारे की फसल, हल्दी, एलोवेरा, तुलसी और स्टीविया भी उगाने शुरू किए। हल्दी से वे , हल्दी का पाउडर, हल्दी का आचार और पंजीरी (चना पाउडर, आटा, घी से बना मीठा सूखा पाउडर) पंजीरी और हल्दी के आचार उनके सबसे ज्यादा मांग वाले उत्पाद हैं।

खैर, उनकी यात्रा आसान नहीं थी, उन्होंने कई समस्याओं का भी सामना किया। उन्होंने स्टीविया के 1000 पौधे उगाए जिनमें से केवल आधे ही बचे। हालांकि वे जानती थीं कि स्टीविया की कीमत बहुत ही ज्यादा है (1500 रूपये प्रति किलो), जो कि आम लोगों की पहुंच से दूर है। इसलिए उन्होंने इसे बेचने का एक अलग तरीका खोजा। उन्होंने मार्किट से ग्रीन टी खरीदी और स्टीविया को इसमें मिक्स कर दिया और इसे 150 रूपये प्रति ग्राम के हिसाब से बेचना शुरू किया क्योंकि शूगर के मरीजों के लिए स्टीविया के काफी स्वास्थ्य लाभ हैं इसलिए कई स्थानीय लोगों और अन्य ग्राहकों द्वारा भी टी को खरीदा गया।

वर्तमान में वे 40 उत्पादों का निर्माण कर रही है और नज़दीक की मार्किट और पी ए यू के मेलों में बेच रही हैं। उनका एक और उत्पाद है जिसे सत्र कहा जाता है (तुलसी, सेब का सिरका, शहद, अदरक, लहसुन, एलोवेरा और आंवला से बनता है) विशेषकर दिल के रोगियों के लिए है और बहुत प्रभावशाली है।

कौशल के साथ, कुलवंत कौर सभी नवीनतम कृषि मशीनरी और उपकरणों से अपडेट रहती हैं। उनके पास सभी खेती मशीनरी हैं और वे खेतों में लेज़र लेवलर का प्रयोग करती हैं। उनका पूरा परिवार उनकी मदद कर रहा है विशेषकर उनके पति उनके साथ काम कर रहे हैं। उनकी बेटी सरकारी नौकरी कर रही है और उनका बेटा उनके व्यापार में उनकी मदद कर रहा है। वर्तमान में उनके परिवार का मुख्य ध्यान मार्किटिंग पर है और उसके बाद कृषि पर है। कृषि व्यवसाय क्षेत्र में अपने प्रयासों से उन्होंने हल्दी उत्पादों के लिए पटियाला में किसान मेले में पहला पुरस्कार जीता है। इसके अलावा उन्होंने (2013 में पंजाब एग्रीकल्चर लुधियाना द्वारा आयोजित) किसान मेले में सरदारनी जगबीर कौर गरेवाल मेमोरियल अवार्ड भी प्राप्त किया।

आज कुलवंत कौर ने जो भी हासिल किया है वह सिर्फ अपने विश्वास पर किया है। भविष्य में वे अपने सभी उत्पादों की मार्किटिंग स्वंय करना चाहती हैं। वे समाज में अन्य महिलाओं को भी ट्रेनिंग प्रदान करना चाहती हैं ताकि वे अपने दम पर खड़े हो सकें और आत्मनिर्भर हो सकें।

किसानों को संदेश
महिलाओं को अपने व्यर्थ के समय में उत्पादक होना चाहिए क्योंकि यह घर की आर्थिक स्थिति को प्रभावी रूप से प्रबंध करने में मदद करता है। उन्हें फूड प्रोसेसिंग का लाभ लेना चाहिए और कृषि व्यवसाय के क्षेत्र में आगे बढ़ना चाहिए। कृषि क्षेत्र बहुत ही लाभदायक उद्यम है, जिसमें लोग बिना किसी बड़े निवेश के पैसे कमा सकते हैं।

महक सिंह

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खेतीबाड़ी के प्रेम के लिए कैसे यह व्यक्ति किसानों को आधुनिक खेती तकनीकों से अपडेट करके उनकी मदद कर रहा है।

आजकल बहुत कम लोग होते हैं जो जन हितैशी के वास्तविक अर्थ को साबित कर पाते हैं उनमें से एक हैं- महक सिंह

महक सिंह मुजफ्फरनगर (उत्तर प्रदेश) के एक सामान्य खेतीबाड़ी के माहिर हैं। अपनी रिटायरमैंट को दूसरों के लिए एक सकारात्मक अनुभव बनाने के लिए इस व्यक्ति ने खेती के अच्छे ढंगों से अपडेट कर किसानों की मदद करने का चयन किया।

शुरूआत में महक सिंह खेतीबाड़ी करने में रूचि रखते थे क्योंकि वे खेतीबाड़ी की पारिवारिक पृष्ठभूमि से थे। वे हमेशा खुद को भूमि की तरफ खींचा हुआ महसूस करते थे, उस भूमि के प्रति जिसने उन्हें सब कुछ दिया और इसी वजह से खेतीबाड़ी अभी भी उनकी ज़िंदगी में मौजूद है और एक महत्तवपूर्ण भूमिका निभा रही है।

खैर, कई किसानों के परिवारों में अपने बच्चों को उच्च शिक्षा देने की प्रवृत्ति है। ताकि उन्हें खेतीबाड़ी के व्यवसाय पर निर्भर ना होना पड़े और अपने कैरियर के रूप में वे किसी अन्य जॉब प्रोफाइल को चुन सकें। लेकिन महक सिंह के परिवार में, स्थिति बिल्कुल विपरीत थी। उनके माता पिता ने उन्हें हमेशा कृषि की तरफ प्रेरित किया और इसीलिए उन्होंने अपने कॉलेज के समय के दौरान बी एस सी एग्रीकल्चर को चुना। कॉलेज की पढ़ाई पूरी करने के लिए उन्हें मुज्जफरनगर के क्षेत्र कृषि विभाग में विषय वस्तु विशेषज्ञ (Subject Matter Expert) के रूप में एक सरकारी नौकरी मिली।

“बी एस सी एग्रीकल्चर को चुनने का एक और कारण था कि मैं दलित किसानों की मदद करना चाहता था जो खेती की बेहतर तकनीकों और ढंगों से अवगत नहीं थे और कृषि विशेषज्ञ के रूप में जॉब मिलने के बाद मुझे उनकी मदद करने का मौका मिला।”

एक किसान का पुत्र होने के नाते वे हमेशा किसानों की आम समस्याओं को समझते थे। कृषि विभाग में काम करने के दौरान उनकी पोस्टिंग हमेशा उत्तर प्रदेश के पिछड़े क्षेत्रों जैसे सोनभादरा, लखमीरपुर, मिर्ज़ापुर और फैज़ाबाद में होती थी। उस समय के दौरान वे गरीब किसानों के लिए काम करते थे और उन्होने उनके गांव के नज़दीक एक क्वार्टर भी किराये पर लिया था ताकि वे उन्हें बहुत नज़दीक से देख सकें। और उनकी खेती में मदद कर सकें। उन्होंने अपने पेशे को 40 वर्ष दिए और जुलाई 2016 में रिटायर हो गये।

खेती के प्रति उनका जुनून इतना था कि रिटायरमेंट के बाद भी उन्होंने कृषि के लिए अपना पूरा जीवन समर्पित करने का फैसला किया। आज भी अगर किसी किसान को किसी भी समय मदद की जरूरत पड़ती हैं तो वे हमेशा मदद के लिए तैयार रहते हैं।

“मैं अपने जीवन का बहुत बड़ा धन्यवादी हूं कि मुझे किसानों की मदद करने का अवसर मिला।”

किसानों की मदद करने के लिए उन्होंने विशेष तौर पर व्हॉट्स एप पर “हेलो किसान” के नाम से एक ग्रुप बनाया है और किसानों तक पहुंचने के लिए वे माध्यम के रूप में फेसबुक का उपयोग कर रहे हैं और किसानों की मदद कर रहे हैं। राज्य सेवा (state service) की सेवा और इस तरह के बड़े स्तर पर किसानों की मदद करने के बाद उन्होनें कभी किसी प्रकार के पुरस्कारों में किसी भी प्रकार की रूचि नहीं दिखाई।

भविष्य की योजना:
भविष्य में वे अपने काम को जारी रखना चाहते हैं और किसानों की मदद करना चाहते हैं। 

किसानों को संदेश
प्रत्येक किसान को माहिरों से अपनी भूमि की जांच करवानी चाहिए कि उसमें कौन से खनिज किस मात्रा में मौजूद हैं। ताकि वे उसी अनुसार फसलों को उगा सकें और आवश्यकतानुसार जैविक खादों का प्रयोग कर सकें।

कौशल सिंह

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जानें कैसे इस युवा छात्र ने खेती के क्षेत्र में अन्य नौजवानों के लिए लक्ष्य स्थापित किए

गुरदासपुर का यह युवा छात्र दूसरे छात्रों से विपरीत नहीं है वह अकेला नहीं है जिसने खेती का चयन किया क्योंकि उसके पिता खेती करते थे और उसके पास कोई अन्य विकल्प नहीं था। लेकिन कौशल ने खेतीबाड़ी को चुना, क्योंकि वह अपनी पढ़ाई के साथ खेतीबाड़ी में कुछ नया सीखना चाहता था।

मिलिए कौशल सिंह – एक आकांक्षी छात्र से, जिसने 22 वर्ष की उज्जवल युवा उम्र में अपना एग्री बिज़नेस स्थापित किया। जी, सिर्फ 22 की उम्र में। इस विकसित होने वाली उम्र में जहां ज्यादातर युवा अपने करियर विकल्प को लेकर दुविधा में रहते हैं, वहीं कौशल सिंह ने अपने उत्पादों को ब्रांड नाम बनाया और बाज़ार में उत्पादों की मार्किटिंग भी शुरू की।

कौशल ज़मीदारों के परिवार से हैं और वे अन्य किसानों को अपनी ज़मीन किराये पर देते हैं। इससे पहले इन पर उनके पूर्वज खेती करते थे। लेकिन वर्तमान पीढ़ी खेती से दूर जाना पसंद करती है पर कौन जानता था कि परिवार की सबसे छोटी पीढ़ी अपनी यात्रा खेती के साथ शुरू करेगी।

“CANE FARMS” तक कौशल सिंह की यात्रा स्पष्ट और आसान नहीं थी। पंजाब के अन्य युवाओं की तरह कौशल सिंह अपनी 12वीं की पढ़ाई पूरी करने के बाद अपने बड़े भाई के पास विदेश जाने की योजना बना रहे थे। यहां तक कि उनका ऑस्ट्रेलिया का वीज़ा भी तैयार था। लेकिन अंत में उनके पूरे परिवार को एक बहुत ही दुखी खबर से धक्का लगा। कौशल सिंह की मां को कैंसर था जिसके कारण कौशल सिंह ने अपने विदेश जाने की योजना रद्द कर दी थी।

यद्पि कौशल की मां कैंसर का मुकाबला नहीं कर सकीं। लेकिन फिर कौशल ने भारत में रहकर अपने गांव में ही कुछ नया करने का फैसला किया। सभी मुश्किल समय में कौशल ने अपनी उम्मीद नहीं खोयी और पढ़ाई से जुड़े रहे। उन्होंने B.Sc. एग्रीकल्चर में दाखिला लिया और सोचा –

“मैंने सोचा कि हमारे पास पर्याप्त पैसा है और यहां पंजाब में 12 एकड़ ज़मीन है तो क्यों ना इसका उचित प्रयोग किया जाये।”

इसलिए उन्होनें किरायेदारों से अपनी ज़मीन वापिस ली और जैविक तरीके से गन्ने की खेती शुरू की। 2015 में उन्होंने गन्ने से गुड़ और शक्कर का उत्पादन किया। हालांकि शुरू में उन्हें मार्किटिंग का कोई ज्ञान नहीं था इसलिए उन्होंने बिना पैकिंग और ब्रांडिंग के इसे खुला ही बेचना शुरू किया लेकिन कौशल को उनके उद्यम में बहुत बड़ा नुकसान हुआ।

लेकिन कहते हैं ना कि उड़ने वाले को कोई नहीं रोक सकता। इसलिए कौशल ने अपने दोस्त हरिंदर सिंह से पार्टनरशिप करने का फैसला किया। उसके साथ कौशल ने अपने 10 एकड़ की भूमि और हरिंदर की 20 एकड़ की भूमि पर गन्ने की खेती की। इस बार कौशल बहुत सतर्क था और उसने डॉ रमनदीप सिंह- पंजाब एग्रीकल्चर युनिवर्सिटी में माहिर, से सलाह ली।

डॉ रमनदीप सिंह ने कौशल को प्रेरित किया और कौशल से कहा कि वह अपने उत्पादों को मार्किट में बेचने से पहले उनकी पैकिंग करें और उन्हें ब्रांड नाम दे। कौशल ने ऐसा ही किया। उसने अपने उत्पादों को गांव के नज़दीक की मार्किट में बेचना शुरू किया। उसने सफलता और असफलता दोनों का सामना किया । कुछ दुकानदार बहुत प्रसन्नता से उसके उत्पादों को स्वीकार कर लेते थे लेकिन कुछ नहीं। लेकिन धीरे धीरे कौशल ने अपने पांव मार्किट में जमा लिए और उसने अच्छे परिणाम पाने शुरू किए। कौशल ने पंजीकृत करने से पहले SWEET GOLD ब्रांड नाम दिया लेकिन बाद में उसने इसे बदलकर CANE FARMS कर दिया क्योंकि इस नाम की उपलब्धता नहीं थी।

आज कौशल और उसके दोस्त ने फार्मिंग से लेकर मार्किटिंग तक का सब काम स्वंय संभाला हुआ है और वे पूरे पंजाब में अपने उत्पादों को बेच रहे हैं। उन्होंने अपने ब्रांड का लोगो (logo) भी डिज़ाइन किया है। पहले वे मार्किट से बक्से और स्टिकर खरीदते थे लेकिन अब कौशल ने अपने स्तर पर सब चीज़ें करनी शुरू की हैं।

भविष्य की योजना
भविष्य में हम उत्पाद बेचने के लिए अपने उद्यम में हर जैविक किसान को जोड़ने की योजना बना रहे हैं। ताकि अन्य किसान जो हमारे ब्रांड के बारे में अनजान हैं वे आधुनिक एग्रीबिज़नेस के रूझान के बारे में जानें और इससे लाभ ले सकें।

कौशल के लिए यह सिर्फ शुरूआत है और भविष्य में वह एग्रीकल्चर से अधिक लाभ लेने के लिए और उज्जवल विचारों के साथ आएंगे।

किसानों को संदेश :
यह संदेश उन किसानों के लिए है जो 18-20 वर्ष की आयु में सोचते हैं कि खेती एक सब कुछ खो देने वाला व्यापार है। उन्हें यह समझने की जरूरत है कि खेती क्या है क्योंकि यदि वे हमारी तरह कुछ नया करने का सोचना शुरू कर देंगे तो वे हमारे साथ एकजुट होकर काम कर सकते हैं।

इकबाल सिंह

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भविष्यवादी किसान ने समाज की खाद्य प्रणाली में बदलाव करने के लिए खेती का एक अनोखा तरीका अपनाया

आमतौर पर लोग जानते हैं कि उनके काम में क्या गल्तियां हैं, लेकिन वे उसी तरह से काम करते रहते हैं क्योंकि दूसरे  भी ऐसा करते हैं और फिर भी वे समाज में बदलाव चाहते हैं लेकिन जैसे कि अल्बर्ट आइंस्टीन ने कहा है –

हम किसी भी मुश्किल को उसी सोच से ठीक नहीं कर सकते जिस सोच से वह शुरू हुई थी।

इसलिए यदि हम समाज में बदलाव लाना चाहते हैं तो हमें कुछ अलग सोचना है और कुछ अलग करना है। इकबाल सिंह बासरका गांव (जिला तरनतारन) के एक किसान हैं, जिन्होंने अपनी पढ़ाई पूरी करने के बाद खाद्य उत्पादों और इसके लोगों पर पड़ते बुरे प्रभावों में सुधार लाने के लिए जैविक खेती का चयन किया।

इकबाल सिंह के पिता शुरू से ही पारंपरिक खेती करते थे और पी यू से बी कॉम की पढ़ाई पूरी करने के बाद इकबाल ने भी अपने पिता के साथ खेतीबाड़ी शुरू करने का फैसला किया लेकिन जब उन्होंने अपने एक रिश्तेदार के बिगड़ते स्वास्थ्य पर ध्यान दिया तो उन्होंने महसूस किया कि उपयोग किए जाने वाले, रसायनों और कीटनाशकों द्वारा हमारी खाद्य प्रणाली को कितनी बुरी तरह प्रभावित किया गया है। उस समय उन्होंने समझा कि हमारे भोजन चक्र और जल चक्र को जहर दिया गया है और यदि हम अपने पर्यावरण के प्रति आवश्यक कदम नहीं उठाते, तो हमारी आने वाली नई पीढ़ी इसके द्वारा बुरी तरह प्रभावित हो जायेगी।

इकबाल ने एक अलग तरीके से खेती शुरू करने का फैसला किया। उन्होंने रसायनों और कीटनाशकों का प्रयोग बंद कर दिया और अपनी 16 एकड़ की भूमि पर धीरे-धीरे जैविक खेती कर विस्तार किया। आज वे सभी प्रकार की मौसमी सब्जियों की पूरी तरह से जैविक खेती करके अच्छा लाभ कमा रहे हैं। वे हर प्रकार के ट्रैक्टर, ट्रॉली, हल, डिस्क और रोटावेटर को लागू करते हैं। आने वाले समय में वे खाद्य प्रसंस्करण और इसकी मार्किटिंग शुरू करना चाहते हैं ताकि वे इससे बेहतर लाभ ले सकें और अधिक लाभ कमा सकें।

किसानों को संदेश
यदि हम चाहते हैं कि हमारी आने पीढ़ी त्वचा की समस्याओं और बीमारियों जैसे- कैंसर, त्वचा की एर्ल्जी  आदि का सामना ना करे, तो हमें जैविक खेती को अपनाना होगा। यह सही समय है, हम अपने पर्यावरण पर किए गए नुकसान को भर सकते हैं क्योंकि किसी भी तरह की देरी से मानव के स्वास्थ्य पर गंभीर प्रभाव पड़ता है।”

गुरविंदर सिंह सोही

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एक युवा खेतीप्रेन्योर की कहानी, जो हॉलैंड ग्लैडियोलस की खेती से पंजाब में फूलों के व्यापार में आगे बढ़ा

यह कहा जाता है कि सफलता आसानी से प्राप्त नहीं होती। आपको असफलता का स्वाद काफी बार चखना पड़ता है तभी आप सफलता के असली स्वाद का मज़ा ले सकते हो। ऐसा ही गुरविंदर सिंह सोही के साथ हुआ। वे एक सामान्य विद्यार्थी, जिसने खेतीबाड़ी का चयन उस समय किया जब वे पंजाब जे ई टी की परीक्षा में सफल नहीं हो पाये।

उन्होंने शुरू से ही निर्धारित किया था कि वे भेड़ की तरह काम नहीं करेंगे, ना ही अपने परिवार के व्यवसाय की तरह गेहूं-धान की खेती करेंगे। इसलिए उन्होंने मशरूम की खेती शुरू की लेकिन इसमें सफल नहीं हो सके। जल्दी ही उन्होंने नज़दीक के शहर खमानो में अपनी मिठाई की दुकान स्थापित की। लेकिन वे शायद इसके लिए भी नहीं बने थे। इसलिए उन्होंने घोड़े के प्रजनन का व्यवसाय शुरू किया और बाद में उन्होंने अपना व्यवसाय बदलकर जीप का काम शुरू किया।

इन सभी नौकरियों को छोड़ने के बाद 2008 में उन्हें एक खबर के बारे में पता चला कि पंजाब बागबानी विभाग हॉलैंड ग्लैडियोलस के बीजों पर सब्सिडी दे रहा है और फिर गुरविंदर सिंह सोही का वास्तविक खेल शुरू हुआ। उन्होंने 2 कनाल में ग्लैडियोलस को उगाया शुरू किया और धीरे धीरे एक ही फूल की खेती कई एकड़ में करनी शुरू की। फूल की स्थानीय किस्मों की तुलना में उन्हें उच्च मुल्य प्राप्त होना शुरू हो गया और अनकी आमदन में वृद्धि हुई।

एरिया बढ़कर 8 एकड़ से 18 एकड़ हो गया जिनमें से 9 उनके अपने थे और 9 ठेके पर थे। उन्होंने ग्लैडियोलस के लिए 10 एकड़, गेंदे के फूल के लिए 1 एकड़ और बाकी का क्षेत्र दालों, धान (मुख्यत: बासमती), गेंहू, मक्का और हरा चारा के लिए प्रयोग किया। ग्लैडियोलस की खेती में 7-8 महीने का समय लगता है इसकी बिजाई (सितंबर-अक्तूबर) और कटाई (जनवरी-फरवरी) में की जाती है। जबकि धान और गेहूं की बिजाई और कटाई इसके विपरीत होती है। इसलिए एक वर्ष में एक ही भूमि से आमदन होती है। इसके अलावा शादी के दिनों में ग्लैडियोलस की एक डंडी 7 रूपये मे बिकती है और 3 रूपये औसतन होता है। इस तरीके से वे एक वर्ष में अपनी आमदन बचा लेते हैं।

ग्लैडियोलस की फसल खजाना लूटने की तरह है क्योंकि हॉलैंड के बीजों का एक समय में 1.6 लाख प्रति एकड़ निवेश होता है जो कि बाद में 2 रूपये के हिसाब से एक फूल (बल्ब) बिकता है और उसी फसल से अगले वर्ष पौधे भी तैयार किए जा सकते हैं। हालांकि यह एक समय का निवेश होता है, पर बिजाई से लेकर बीज निकालने के लिए अप्रैल से मई महीने में ज्यादा श्रमिकों की आवश्यकता होती है। जिनका खर्चा लगभग 40000 रूपये एक एकड़ में आता है।

गेंदे की फसल भी ज्यादा लाभ देने वाली फसल है और इससे प्रत्येक मौसम में लगभग 1.25 लाख से 1.3 लाख रूपये लाभ होता है और यह लाभ गेंहू और धान से कहीं ज्यादा अच्छा है। इसके अलावा भूमि ठेके पर लेने, श्रमिक और अन्य निवेश लागत का खर्चा कुल लाभ में से निकालकर जो उनके पास बचता है वो भी उनके लिए काफी होता है।

उनका स्टार्टअप RTS फूलों के नाम से हुआ और यह कई शहरों जैसे पंजाब, चंडीगढ़, लुधियाना और पटियाला में तेजी से बढ़ गया। हालांकि उन्होंने उच्च शिक्षा नहीं ली, लेकिन वे समय समय पर अपने आपको अपडेट करते रहते हैं ताकि मंडीकरण में निपुण हो सकें और आज वे अपने ग्लैडियोलस के उत्पादन को अपने फर्म के फेसबुक पेज और अन्य ऑनलाइन वैबसाइट जैसे इंडियामार्ट के माध्यम से पूरे देश में बेच रहे हैं।

नए आधुनिक मार्किटिंग कौशल और प्रगति के साथ, गुरविंदर ने खुद को एग्री मार्किटिंग के बारे में भी अपडेट किया है और उनका काम फार्म टू फॉर्क के सिद्धांत पर प्रगति पर है। उन्होने और उनके 12 दोस्तों ने सरकारी विभागों की मदद से ड्रिप सिंचाई, सोलर पंप और अन्य कृषि यंत्र स्थापित किए हैं और किसान वेलफेयर कल्ब भी स्थापित किया है जिसकी मैंबरशिप 5000 रूपये प्रत्येक के लिए है ताकि भविष्य में अन्य मशीनरी जैसे रोटावेटर, पावर स्प्रे, और सीड ड्रिल खरीद सकें और जैविक खेती को बढ़ावा देने के लिए ग्रुप के सदस्यों ने हल्दी, दालें, मक्की और बासमती जैविक रूप से उगानी शुरू की है और अपने जैविक खाद्य उद्योग की मार्किट को बढ़ाने के लिए, उन्होंने व्हाट्स एप ग्रुप के माध्यम से ग्राहकों को सीधे उत्पादों का मंडीकरण शुरू कर दिया है और यह सुनिश्चित करने के लिए कि ग्राहक और किसान दोनों को उचित उत्पाद मिल जाए, वे मोहाली में सीधे 30 घरों में अपने उत्पाद बेचते हैं और जल्द ही वे वेबसाइट के माध्यम से अपनी सेवा शुरू करेंगे।

गुरविंदर सिंह सोही के युवा दिमाग ने सपने देखना बंद नहीं किया और जल्दी ही वे अपने उज्जवल विचारों के साथ आगे आएंगे।

किसानों को संदेश
किसानों को छोटे समूह बनाकर एकता में काम करना चाहिए, क्योंकि इस तरीके से कृषि मशीनरी को खरीदना और प्रयोग करना आसान होता हैं एक समूह में मशीनों का प्रयोग करने से खर्चा भी कम होता है जिसके परिणामस्वरूप एक लाभदायक उद्यम होता है। मैं भी ऐसे ही करता हूं। मैंने भी एक समूह बनाया है जिसमें समूह के नाम से मशीनों को खरीदा जाता है और समूह के सभी मैंबर इसका उपयोग कर सकते हैं।”

हिंदपाल सिंह

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राजस्थान के जोजोबा की खेती करने वाले किसान से मिलें, जिसने आई एच एम पूसा दिल्ली से होटल मैनजमेंट की डिगरी हासिल की, पर अपने पिता के नक्शेकदम पर चले

खेतीबाड़ी ना कभी आसान थी और ना ही आसान होगी। लेकिन कई लोगों के लिए जिनके पास कोई विकल्प नहीं होता, उनके लिए खेती ही एकमात्र विकल्प होता है। इसलिए आज के कई किसान अपने बच्चों को स्कूल और कॉलेज में भेजते हैं ताकि वे जो चाहते हैं उसे चुने और जो बनना चाहते हैं वे बनें। लेकिन एक ऐसे इंसान हिंद पाल सिंह औलख जिनके पास अच्छा व्यवसाय चुनने का मौका था, लेकिन उन्होंने खेती को चुना।

हिंद पाल सिंह का जन्म राजस्थान के गंगानगर जिले में एक विशिष्ट कृषि परिवार में हुआ, लेकिन वे एक बहुत ही अलग आधुनिक वातावरण में पले बढ़े। अपने पिता से अलग पेशा चुनने के उद्देश्य से उन्होंने आई एच एम पूसा, दिल्ली से होटल मैनेजमेंट में बैचलर की डिग्री ली।

“लेकिन शायद हिंद पाल सिंह की किस्मत में, इसी क्षेत्र में अपना व्यवसाय जारी रखना नहीं था। उनके पिता किसान थे और कृषि में उनकी अत्याधिक रूचि थी। उनके पिता ने उन्हें खेतीबाड़ी शुरू करने के लिए प्रेरित किया।”

अपने पिता का खेती की तरफ इतना रूझान देखकर उन्होंने उनकी सहायता करने का फैसला किया। उन्होंने खेतीबाड़ी से संबंधित मैगज़ीन जैसे चंगी खेती आदि पढ़ना शुरू किया। उनमें से एक मैगज़ीन में उन्होंने जोजोबा की खेती के बारे में पढ़ा और इसे शुरू करने के बारे में सोचा। उन्होंने जयपुर का दौरा किया और वहां जोजोबा की खेती की ट्रेनिंग ली। श्री सैनी ट्रेनिंग स्टाफ के एक मैंबर थे, जिन्होंने जोजोबा की खेती में उनकी मदद की और निर्देशित किया और विशेष रूप से अपने शहर में स्थित अपने फार्म का दौरा भी करवाया।

शुरू में हिंद पाल सिंह जोजोबा की खेती शुरू करने के लिए थोड़ा घबराये हुए थे लेकिन अब 12 वर्ष से वे जोजोबा की खेती कर रहे हैं और उपज और लाभ से काफी खुश हैं। वे जोजोबा के पौधे राजस्थान एग्रीकल्चर यूनिवर्सिटी से खरीदते हैं क्योंकि जोजोबा के पौधे को 10:1 रेशो में उगाया जाता है जहां 10 पौधे मादा जोजोबा के होते हैं और 1 पौधा नर जोजोबा का होता है और एक उचित एग्रीकल्चर यूनिवर्सिटी या माहिर ही सही जोजोबा के पौधे उपलब्ध करवा सकते हैं क्योंकि आम लोग फूल निकलने से पहले (तीन वर्ष के हो जाने पर) नर और मादा पौधों की पहचान नहीं कर सकते।

“नर पौधों के प्रजनन द्वारा मादा पौधे फूलों से बीजों का उत्पादन करते हैं, बीज उत्पादन के लिए मादा पौधे नर पौधों पर निर्भर होते हैं।”

हिंद पाल सिंह के लिए जोजोबा की खेती और बिजाई आसान नहीं थी। उन्होंने दीमक और फंगस जैसी कई समस्याओं का सामना किया, लेकिन उन्होंने बहुत अच्छे तरीके से इनका सामना किया। वे हमेशा माहिर से सलाह लेते हैं और खेती के लिए माइक्रो फूड और प्राथमिक खादों का प्रयोग करते हैं। बिजाई के बाद 6 से 7 वर्ष तक जोजोबा का पौधा फल देना शुरू करता है।

“एक समय निवेश – राजस्थान जैसे क्षेत्र जहां पानी की हमेशा कमी रहती है, में जोजोबा की खेती करने की सबसे अच्छी बात यह है कि इसे सिंचाई के लिए बहुत कम पानी की आवश्यकता होती है (2 वर्षों तक बिना पानी के यह पौधा रह सकता है) इसके अलावा पौधे की उम्र 100 वर्ष तक होती है।”

शुरूआत में, जब जोजोबा के पौधे छोटे होते हैं, अंतरफसली भी किया जा सकता है क्योंकि 6 से 7 वर्ष तक ये बीज पैदा नहीं करते। उन्होंने उपज के मंडीकरण में भी कुछ समस्याओं का सामना किया, लेकिन सरकार से कोई सहायता नहीं ली। कॉस्मेटिक कंपनियों को फेस क्रीम, तेल, फेस वॉश और कई सौंदर्य उत्पाद बनाने के लिए जोजोबा के बीजों की आवश्यकता होती है। इसलिए उन्होंने उपभोक्ताओं को जल्दी ही ढूंढा और लाभ कमाना शुरू किया।

“जोजोबा के तेल में विस्कोसिटी इंडेक्स के कारण इसका ईंधन तेल के रूप में वैकल्पिक उपयोग होता है। इसे हाई स्पीड मशीनरी या उच्च तापमान पर चलने वाली मशीनों के लिए ट्रांसफार्मर तेल या लुबरीकेंट के रूप में प्रयोग किया जा सकता है।”

इसके अलावा वे जोजोबा की खेती लगभग 5 एकड़ में करते हैं। बाकी की 65 एकड़ भूमि में वे कपास, गेहूं, मौसमी सब्जियां, सरसों, किन्नू और अन्य फसलें उगाते हैं। वे अच्छी खेती के लिए सभी आधुनिक खेती मशीनरी जैसे ट्रैक्टर, ट्रॉली, कल्टीवेटर, लेवलर, डिस्क हैरो और तुपका सिंचाई का प्रयोग करते हैं। वे भविष्य में इस काम को बढ़ाना चाहते हैं, जो वे अभी कर रहे हैं और जोजोबा के बीजों के वफादार और मुनाफे वाले उपभोक्ताओं को आकर्षित करना चाहते हैं। 45 हज़ार के निवेश के साथ आज वे लाखों कमा रहे हैं। इसके अलावा जोजोबा एक बीमारी रहित और आग के प्रतिरोधक पौधा है, जिसे एक बार विकसित हो जाने के बाद बहुत कम देखभाल की जरूरत पड़ती है।

किसानों को संदेश
किसानों को आत्मनिर्भर होना चाहिए और यदि खेतीबाड़ी से लाभ कमाना चाहते हैं तो कुछ अलग सोचना शुरू करना चाहिए। एक और बात किसानों को अपने लाभों को जो भी वे कमाते हैं उसका हिसाब रखना चाहिए और यदि वे कुछ अलग शुरू करते हैं तो उसमें अपना 100 प्रतिशत देना चाहिए।

रजनीश लांबा

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एक इंसान, जिसने अपने दादा जी के नक्शे कदम पर चल कर जैविक खेती के क्षेत्र में सफलता हासिल की

बहुत कम बच्चे होते हैं जो अपने पुरखों के कारोबार को अपने जीवन में इस प्रेरणा से अपनाते हैं ताकि उनके पिता और दादा को उन पर गर्व हो। एक ऐसे ही इंसान हैं रजनीश लांबा, जिसने अपने दादा जी से प्रेरित होकर जैविक खेती शुरू की।

रजनीश लांबा राजस्थान के जिला झुनझुनु में स्थित गांव चेलासी के रहने वाले एक सफल बागबानी विशेषज्ञ हैं। उनके पास 4 एकड़ का बाग है, जिसका नाम उन्होंने अपने दादा जी के नाम पर रखा हुआ है -हरदेव बाग और उद्यान नर्सरी और इसमें नींबू, आम, अनार, बेल पत्र, किन्नू, मौसमी आदि के 3000 से ज्यादा वृक्ष फलों के हैं।

खेती को पेशे के रूप में चुनना रजनीश लांबा की अपनी दिलचस्पी थी। रजनीश लांबा के पिता श्री हरी सिंह लांबा एक पटवारी थे और उनके पास अलग पेशा चुनने के लिए पूरे मौके थे और डबल एम.ए. करने के बाद वे अपने ही क्षेत्र में अच्छी जॉब कर सकते थे पर उन्होंने खेती को चुना। जैविक खेती से पहले वे पारंपरिक खेती करते थे और बाजरा, गेहूं, ज्वार, चने, सरसों, मेथी, प्याज और लहसुन फसलें उगाते थे, पर जब उन्होंने अपने दादा जी के जैविक खेती के अनुभव के बारे में जाना तो उन्होंने अपने पैतृक व्यवसाय को आगे ले जाने और उस काम को और अधिक लाभदायक बनाने के बारे में सोचा।

यह सब 1996 में शुरू हुआ, जब 1 बीघा क्षेत्र में बेल के 25 वृक्ष लगाए गए और बिना रसायनों के प्रयोग के जैविक खेती को लागू किया गया। इसके साथ ही उन्होंने नर्सरी की तैयारी शुरू कर दी। 8 वर्षों की कड़ी मेहनत और प्रयासों के बाद 2004-2005 में अंतत: बेल पत्र के वृक्षों ने फल देना शुरू किया और उन्होंने 50,000 का भारी लाभ कमाया।

लाभ में इस वृद्धि ने उनके विश्वास को और मजबूत बनाया कि बाग के व्यवसाय से अच्छी उपज और अच्छा लाभ मिलता है इसलिए उन्होंने अपने पूरे क्षेत्र में बाग के विस्तार का निर्णय लिया। 2004 में उन्होंने बेल पत्र के 600 अन्य वृक्ष लगाए और 2005 में बेल पत्र के साथ, किन्नू और मौसमी के 150-150 वृक्ष लगाए। जैसे कि कहा जाता है कि मेहनत का फल मीठा होता है, ऐसे ही परिणाम समान थे । 2013 में उन्होंने मौसमी और किन्नू के उत्पादन से लाभ कमाया और इनसे प्रेरित होकर सिंदूरी किस्म के 600 वृक्ष और लैमन के 250 वृक्ष लगाए। 2012 में उन्होंने आम और अमरूद के 5-5 वृक्ष भी लगाए थे।

वर्तमान में उनके बाग में कुल 3000 वृक्ष फलों के हैं और अब तक सभी वृक्षों से वे अच्छा लाभ कमा रहे हैं। अब उनके छोटे भाई विक्रात लांबा और उनके पिता हरि सिंह लांबा, भी उनके बाग के कारोबार में मदद कर रहे हैं। बागबानी के अलावा उन्होंने 2006 में 25 गायों के साथ डेयरी फार्मिंग की कोशिश भी की, लेकिन इससे उन्हें ज्यादा लाभ नहीं मिला और 2013 में इसे बंद कर दिया। अब उनके पास घरेलू उद्देश्य के लिए सिर्फ 4 गायें हैं।

स्वस्थ उपज और गुणवत्ता को बनाए रखने के लिए, वे गाय का गोबर, गऊ मूत्र, नीम का पानी, धतूरा और गंडोया खाद का प्रयोग करके स्वंय खाद तैयार करते हैं और यदि आवश्यकता हो तो कभी-कभी बाजार से भी गाय का गोबर खरीद लेते हैं।

बागबानी को मुख्य व्यवसाय के रूप में अपनाने के पीछे रजनीश लांबा का मुख्य उद्देश्य यह है कि पारंपरिक खेती की तुलना में यह 10 गुना अधिक लाभ प्रदान करती है और इसे आसानी से पर्यावरण के अनुकूल तरीके से किया जा सकता है। इसके अलावा इसमें बहुत कम श्रम की आवश्यकता होती है, वे श्रमिकों को केवल तब नियुक्त करते हैं जब उन्हें फल तोड़ने की आवश्यकता होती है। अन्यथा उनके पास 2 स्थायी श्रमिक हैं जो हर समय उनके लिए काम करते हैं। अब उन्होंने नर्सरी की तैयारी व्यावसायिक उद्देश्य के लिए शुरू कर दी है और इससे लाभ कमा रहे हैं और जब भी उन्हें बागबानी के बारे में जानकारी की जरूरत होती है तो वे कृषि से संबंधित पत्रिकाओं, प्रिंट मीडिया और इंटरनेट आदि से संपर्क करते हैं।

अपनी जैविक खेती को और अधिक अपडेट और उन्नत बनाने के लिए 2009 में उन्होंने मोरारका फाउंडेशन में प्रवेश किया। कई किसान रजनीश लांबा से कुछ नया सीखने के लिए नियमित तौर पर उनके फार्म का दौरा करते हैं और वे भी बिना किसी लागत के उन्हें जानकारी और ट्रेनिंग उपलब्ध करवाते हैं। यहां तक कि कभी-कभी खेतीबाड़ी अफसर भी सम्मेलन और ट्रेनिंग सैशन के लिए किसानों के ग्रुप के साथ उनके फार्म का दौरा करते हैं।

शुरूआत से ही उनका सपना हमेशा उनके दादा (हरदेव लांबा) को गर्व कराना था, लेकिन वे अपनी शिक्षाओं को आगे ले जाना चाहते हैं और अन्य किसानों को नर्सरी तैयार करने और उनकी तरह बागबानी शुरू करने के लिए प्रेरित करना चाहते हैं। बागबानी के क्षेत्र में उनके महान प्रयासों के लिए 2011 में उन्हें कृषि मंत्री हरजी राम बुरड़क द्वारा पुरस्कृत किया गया और राजस्थान के राज्यपाल कल्यान सिंह द्वारा भी उनकी सराहना की गई। इसके अलावा उनके कई लेख (आर्टिकल) अखबारों और मैगज़ीनों में प्रकाशित किए जा चुके हैं।

किसानों को संदेश-
“वे चाहते हैं कि अन्य किसान भी जैविक खेती को अपनायें क्योंकि यह पर्यावरण अनुकूल होने के साथ-साथ इसके कई स्वास्थ्य लाभ भी हैं। किसानों को रसायनों के प्रयोग को भी कम करना चाहिए। एक चीज़ जो उन्हें हमेशा याद रखनी चाहिए। वो ये है कि वे चाहे जितना भी लाभ कमा रहे हों, लाभ सिर्फ कुछ नया करके ही जैसे बागबानी की खेती करके अर्जित किया जा सकता है।”

सतवीर सिंह

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एक सफल एग्रीप्रेन्योर की कहानी जो समाज में अन्य किसानों के लिए प्रेरणास्त्रोत बनें – सतवीर फार्म सधाना

यह कहा जाता है कि महान चीज़ें कभी भी आराम वाले क्षेत्र से नहीं आती और यदि एक व्यक्ति वास्तव में कुछ ऐसा करना चाहता है, जो उसने पहले कभी नहीं किया तो उसे अपना आराम क्षेत्र छोड़ना होगा। ऐसे एक व्यक्ति सतवीर सिंह हैं, जिन्होंने अपने आसान जीवनशैली को छोड़ दिया और वापिस पंजाब, भारत आकर अपने लक्ष्य का पीछा किया।

आज श्री सतवीर सिंह एक सफल एग्रीप्रेन्योर हैं और गेहूं और धान की तुलना में दो गुणा अधिक लाभ कमा रहे हैं। उन्होंने सधाना में सतवीर फार्म के नाम से अपना फार्म भी स्थापित किया है। वे मुख्य रूप से स्वंय की 7 एकड़ भूमि में सब्जियों की खेती करते हैं और उन्होंने अपनी 2 एकड़ ज़मीन किराये पर दी है।

सतवीर सिंह ने जीवन के इस स्तर पर पहुंचने के लिए जिस रास्ते को चुना वह आसान नहीं था। उन्हें कई उतार चढ़ाव का सामना किया, लेकिन फिर भी लगातार प्रयासों और संघर्षों के बाद उन्होंने अपनी रूचि को आगे बढ़ाया और इसमें सफलता हासिल की। यह सब शुरू हुआ जब उन्होंने अपनी स्कूल की पढ़ाई खत्म की और चार साल बाद वे नौकरी के लिए दुबई चले गए। लेकिन कुछ समय बाद वे भारत लौट आए और उन्होंने खेती शुरू करने का फैसला किया और वापिस दुबई जाने का विचार छोड़ दिया। शुरूआत में उन्होंने गेहूं और धान की खेती शुरू की, लेकिन अपने दोस्तों के साथ एक सब्जी के फार्म का दौरा करने के बाद वे बहुत प्रभावित हुए और सब्जी की खेती की तरफ आकर्षित हो गये।

करीब 7 साल पहले (2010 में) उन्होने सब्जी की खेती शुरू की और शुरूआत में कई समस्याओं का सामना किया। फूलगोभी पहली सब्जी थी जिसे उन्होंने अपने 1.5 एकड़ खेत में उगाया और एक गंभीर नुकसान का सामना किया। लेकिन फिर भी उन्होंने कभी हार नहीं मानी और सब्जी की खेती करते रहें। धीरे धीरे उन्होने अपने सब्जी क्षेत्र का विस्तार 7 एकड़ तक कर दिया और कद्दू, लौकी, बैंगन, प्याज और विभिन्न किस्मों की मिर्चें और करेले को उगाया और साथ ही उन्होंने नए पौधे तैयार करने शुरू किए और उन्हें बाज़ार में बेचना शुरू किया। धीरे धीरे उनके काम को गति मिलती रही और उन्होंने इससे अच्छा लाभ कमाया।

फूलगोभी के गंभीर नुकसान का सामना करने के बाद, भविष्य में ऐसी स्थितियों से बचने के लिए सतवीर सिंह ने सब्जी की खेती बहुत ही बुद्धिमानी और योजना बनाकर की। पहले वे ग्राहक और मंडी की मांग को समझते हैं और उसके अनुसार वे सब्जी की खेती करते हैं। वे एक एकड़ में सब्जी की एक किस्म को उगाते हैं फिर मंडीकरण की समस्याओं का समाधान करते हैं। उन्होंने पी ए यू के समारोह में भी हिस्सा लिया जहां उनहें विभिन्नि खेतों को देखने का मौका मिला और नेट हाउस फार्मिंग के ढंग को सीखा और वर्तमान में वे अपनी सब्जियों को संरक्षित वातावरण देने के लिए इस ढंग का प्रयोग करते हैं। उन्होंने थोड़े समय पहले टुटुमा चप्पन कद्दू की खेती की और दिसंबर में सही समय पर बाज़ार में उपलब्ध करवाया था। इससे पहले इसी सब्जी का स्टॉक गुजरात से बाज़ार में पहुंचा था। इस तरह उन्होंने अपने सब्जी उत्पाद को बाज़ार में अच्छी कीमत पर बेच दिया। इसके इलावा, वे हर बार अपने उत्पाद को बेचने के लिए मंडी में स्वंय जाते हैं और किसी पर भी निर्भर नहीं होते।

सर्दियों में वे पूरे 7 एकड़ भूमि में सब्जियों की खेती करते हैं और गर्मियों में इसे कम करके 3.5 एकड़ में खेती करते हैं और बाकी की भूमि धान और गेहूं की खेती के लिए प्रयोग करते हैं। पूरे गांव में सिर्फ उनका ही खेत सब्जियों की खेती से ढका होता है और बाकी का क्षेत्र धान और गेहूं से ढका होता है। अपनी कुशल कृषि तकनीकों और मंडीकरण नीतियों के लिए, उन्हें पंजाब एग्रीकल्चर यूनिवर्सिटी से चार पुरस्कार प्राप्त हुए हैं। उनकी अनेक उपलब्धियों में से एक उपलब्धि यह है कि उन्होंने कद्दू की एक नई किस्म को विकसित किया है और उसका नाम अपने बेटे के नाम पर कबीर पंपकीन रखा है।

वर्तमान में वे अपने परिवार (माता, पिता, पत्नी, दो बेटों और बड़े भाई और उनकी पत्नी सिंगापुर में बस गए हैं) के साथ सधाना गांव में रह रहे हैं जो कि पंजाब के बठिंडा जिले में स्थित है। उनके पिता उनकी मुख्य प्रेरणा थे जिन्होंने खेती की शुरूआत की, लेकिन अब उनके पिता खेत में ज्यादा काम नहीं करते। वे सिर्फ घर पर रहते हैं और बच्चों के साथ समय बिताते हैं। आज उनके सफलतापूर्वक खेती अनुभव के पीछे उनके परिवार का समर्थन है और वे पूरा श्रेय अपने परिवार को देते हैं।

सतवीर सिंह अपने खेत का प्रबंधन केवल एक स्थायी कर्मचारी की मदद से करते हैं और कभी कभी महिला श्रमिकों को सब्जियां चुनने के लिए नियुक्त कर लेते हैं। सब्जियों की कीमत के आधार पर वे एक एकड़ ज़मीन से एक मौसम में 1-2 लाख कमाते हैं।

भविष्य कि योजना
भविष्य में वे जैविक खेती करने की योजना बना रहे हैं और वर्मी कंपोस्ट बनाने के लिए उन्होंने 3 दिन की ट्रेनिंग भी ली है। वे लोगों को जैविक और गैर कार्बनिक सब्जियों और खाद्य उत्पादों के बीच के अंतर से अवगत करवाना चाहते हैं। वे ये भी चाहते हैं कि सब्जियों को अन्य किराने के सामान जैसे पैकेट में भी आना चाहिए ताकि लोग समझ सकें कि वे कौन से खेत और कौन से ब्रांड की सब्जी खरीद रहे हैं।

किसानों को संदेश
“मैंने अपने ज्ञान में कमी होने के कारण शुरू में बहुत कठिनाइयों का सामना किया। लेकिन अन्य किसान जो कि सब्जियों की खेती करने में दिलचस्पी रखते हैं उन्होंने मेरी तरह गल्ती नहीं करनी चाहिए और सब्जियों की खेती शुरू करने से पहले किसी माहिर से सलाह लेनी चाहिए और सब्जियों की मंडी का विश्लेषण करना चाहिए। इसके इलावा, जिन किसानों के पास पर्याप्त संसाधन है उन्हें अपनी प्राथमिक जरूरतों को बाज़ार से खरीदने की बजाय स्वंय पूरा करना चाहिए।”

सुनीता देवी

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जानिए, कैसे एक गतिशील माँ-बेटी की जोड़ी अपने दस्तकारी फुलकारी उत्पादों की ओर लोगों को आकर्षित कर रही है

हमारे भारतीय समाज में, शुरू से ही पुरूषों को परिवार के लिए आजीविका कमाने वाले और परिवार के लिए मुख्य सदस्य के रूप में माना जाता है। दूसरी ओर, महिलाओं को गृहणी माना जाता है जो परिवार की सभी कामों जैसे (कपड़े साफ करने, भोजन, घर की सफाई आदि) को समय पर परिवार के सदस्यों को उपलब्ध करवाने की जिम्मेदार है। खैर, इन प्रवृत्तियों को पहले निभाया जाता था लेकिन वर्तमान में नहीं। आज कई महिलायें समाज के लिए प्रेरणा के रूप में सामने आई हैं और अपने परिवार के लिए पुरूष और महिला दोनों की भूमिका निभा रही हैं और दुनिया को पलट रही हैं।

पंजाब के फतेहगढ़ साहिब के एक छोटे से गांव (चनारथल खुरद) से दो ऐसी महिलायें अपने गांव से 10 महिलाओं का नेतृत्व करके स्वंय के सफल फुलकारी व्यवसाय को चला रही हैं। महिलाओं की यह जोड़ी मां-बेटी की है। जो व्यापार के हर काम को बहुत ही आसानी से प्रबंधित करती हैं। इस ग्रुप की मुखिया सुनीता देवी (मां) और बेअंत शर्मा (बेटी) हैं। बेअंत एक सक्रिय, युवा और संवादक सदस्य के रूप में है, जो हर मंच पर ग्रुप का प्रतिनिधित्व करती है।

1996 में सुनीता जी के पति की मृत्यु हो गई और परिवार के लिए यह बहुत दुखद स्थिति थी, तब से परिवार के सदस्यों को जीवित रहना मुश्किल हो गया, लेकिन धीरे-धीरे सुनीता जी और उनके बच्चे इस सदमे से बाहर हुए और धीरे-धीरे अपनी ज़िंदगी को सुचारू रूप से आसान बनाया। उन्होंने कई मुश्किलों का सामना किया और आज इस अवस्था तक पहुंचने के लिए कई बाधाएं पार की।

आंगनवाड़ी ने स्थानीय स्तर पर उस गांव की महिलाओं की मदद करने के लिए 2012 में सैल्फ हैल्प ग्रुप बनाया और सुनीता जी की बेटियां इस सैल्फ हैल्प ग्रुप की मैंबर थीं। वे फुलकारी, सूट, दुपट्टा, शॉल और जैकेट के हर टुकड़े पर इतनी मेहनत से काम करती थीं लेकिन वे अपने द्वारा बनाये गये उत्पादों की सही कीमत नहीं पा रही थीं। कुछ भी ठीक से प्रबंधित नहीं था। इसलिए एक मीटिंग में बेअंत शर्मा ने अपनी और अन्य महिलाओं की समस्याओं को व्यक्त किया, उसके बाद 2017 में दो ग्रुप बनाए गए – श्री गुरू अर्जन देव सैल्फ हैल्प ग्रुप और देवी अन्नपूर्णा ग्रुप। सुनीता जी को श्री गुरू अर्जन देव सैल्फ हैल्प ग्रुप की मुखिया बनाया गया और बेअंत ग्रुप की प्रतिनिधि थीं। वैसे यह एक ग्रुप का प्रयास था लेकिन ग्रुप को बनाने में बेअंत की इच्छा शक्ति और सुनीता जी की अपनी बेटी को समर्थन की ताकत है और जब प्यार और कौशल एक साथ काम करते हैं तो एक उत्तम रचना के होने की उम्मीद होती है।

इससे पहले आर्थिक संकट के कारण बेअंत और अन्य बच्चों को अपनी पढ़ाई बीच में ही छोड़नी पड़ी लेकिन अब चीज़ें अच्छी हो रही हैं। बेअंत और अन्य लड़कियां अपनी पढ़ाई जारी रखने की योजना बना रही हैं। बेअंत ने पंजाबी यूनिवर्सिटी से BA प्राइवेट करने की योजना बनाई है।

सुनीता जी के परिवार में कुल छ: सदस्य हैं, चार बेटियां, एक बेटा और वे स्वंय। पुत्र कांट्रेक्ट के आधार पर गुजरात में होंडा सिटी में काम कर रहा है और बेटियां ग्रुप को चलाने में अपनी माता का साथ दे रही हैं। बेअंत इनमें से काफी सक्रिय है और विभिन्न सम्मेलन और प्रदर्शनियों में अपने ग्रुप का प्रतिनिधित्व करती हैं। अब, सुनीता जी और बेअंत ग्राहकों से जुड़े हुए हैं और वे अपने उत्पादों को ग्राहकों को बेचते हैं और उत्पादिन वस्तुओं का सही मूल्य प्राप्त करते हैं। बेअंत एक युवा लड़की है और वर्तमान के मंडीकरण प्रवृत्तियों के बारे में अच्छे से जानती हैं और उनका अनुसरण करती हैं। उसने ग्रुप के नाम पर विज़िटिंग कार्ड बनाया है और व्हाट्स एप् के माध्यम से सभी ग्राहकों से जुड़ी हुई हैं। इस समूह द्वारा बनाए गए दस्तकारी उत्पाद वास्तव में बहुत ही सुंदर, अनूठे और गुणवत्ता में बेहतरीन हैं। वे कच्चे माल को सरहिंद से खरीदते हैं और फुलकारी सूट, दुपट्टा, की-रिंगज़, बुक मारकर्ज़, शॉल, जैकेट और अन्य घर के सजावटी उत्पादों को निर्माण करते हैं। भविष्य में वे रचनात्मक डिज़ाइनों के साथ अधिक फुलकारी उत्पादों का निर्माण करने की योजना बना रहे हैं।

मां बेटी दोनों द्वारा संदेश
एक औरत में सब कुछ करने की क्षमता होती है, यह सब अंदरूनी शक्ति और दृढ़ संकल्प पर है। तो कभी भी खुद को कम मत समझें और हमेशा अपने कौशल को स्वंय के लिए उपयोगी बनाने की कोशिश करें। एक चीज़ जो महिला को मजबूत करती है वह है शिक्षा। दुनिया की वर्तमान स्थिति से अपडेट और जागरूक होने के लिए हर महिला को अपनी शिक्षा का पूरा अध्ययन करना चाहिए।

कमला शौकीन

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एक महिला की प्रेरणास्त्रोत कहानी, जिसने अपनी सेवा-मुक्ति के बाद खुद का व्यवसाय शुरू किया और आज उस कारोबार में सफल है

भारत में जब एक मनुष्य सेवा मुक्ति वाली उम्र पर पहुंचता है, तो उसकी उम्र लगभग 60 वर्ष होती है और भारतीय लोगों की मानसिकता है कि सेवा मुक्ति के बाद कोई काम नहीं करना क्योंकि हर किसी के अपनी सेवा-मुक्ति के समय के लिए अलग-अलग सपने होते हैं। कुछ लोग छुट्टियां मनाने जाना चाहते हैं, कुछ लोग आराम और शांति भरी ज़िंदगी जीना चाहते हैं और कुछ लोग परमात्मा की भक्ति का रास्ता चुनते हैं, पर कुछ लोग ऐसे भी होते हैं, जो सेवा मुक्ति के बाद अपने शौंक और दिलचस्पी को चुनते हैं और उन्हें अपनी दूसरी नौकरी की तरह पूरा करते हैं। कमला शौकीन जी भी ऐसी एक महिला हैं, जिन्होंने सेवा मुक्ति के बाद खुद का कारोबार शुरू किया।

कमला शौकीन जी आत्मिक तौर पर आज भी जवान हैं और उन्होंने रिटायरमैंट के बाद स्वंय का कारोबार शुरू किया, पर रिटायरमैंट होने से पहले वे 39 वर्षों तक सरकारी स्कूल में शारीरिक शिक्षा के अध्यापक थे। उन्होंने आचार बनाने का शुरू से ही बहुत शौंक था, इसलिए रिटायरमैंट के बाद उन्होंने इस शौंक को कारोबार में बदलने के बारे में सोचा और वे आज कल कमल आचार के ब्रांड से अपना सफल आचार का कारोबार चला रहे हैं। कमला शौकीन जी ने अपना आचार का कारोबार 7 वर्ष पहले 2010 में अध्यापक के पेशे से रिटायर्ड होने के बाद शुरू किया। अपने आचार के कारोबार को और व्यावहारिक बनाने के लिए उन्होंने कामकाजी महिला कुटीर उद्योग के अधीन पूसा की शाखा- के वी के उजवा से आचार बनाने की ट्रेनिंग हासिल की। वहां से प्रमाण पत्र हासिल करने के बाद उन्होंने गांव डिचाओं कला जो कि नज़फगढ़ जिले में स्थित है, की जरूरतमंद और गरीब महिलाओं को आचार बनाने और बेचने के कारोबार को शुरू करने के लिए इक्ट्ठा किया। आज उनके फलों का फार्म 2.75 एकड़ की ज़मीन तक फैल चुका है, जिसमें वे आचार बनाने के लिए बेर, करौंदा, आंवला, जामुन और अमरूद आदि उगाते हैं। वे खेत का सारा काम कुछ श्रमिकों की सहायता से स्वंय ही संभालते हैं। पौधों से अच्छी पैदावार लेने के लिए वे रासायनिक खादों का प्रयोग नहीं करते। वे केवल गंडोया खाद का ही प्रयोग करते हैं।

कमला शौकीन जी ने राजनीतिक शास्त्र में एम ए की है, पर जब उन्होंने रिटायरमैंट के बाद आचार बनाने का कारोबार शुरू किया, तो उन्हें उस समय यह बिल्कुल महसूस नहीं किया कि वे जो काम शुरू करने जा रही हैं वे उनके दर्जे या अहुदे से निम्न का है। यहां तक कि उनके पति श्री मूलचंद शौकीन जी डी ए से रिटायर्ड निर्देशक हैं, दो बेटे हैं- जिनमें से एक पायलट है और दूसरा इंजीनियर है, एक बेटी पेशे से डॉक्टर है और दोनों बहुएं पेशे से शिक्षक हैं, जो कि उनके व्यापार में उन्हें सहयोग देती हैं।

आज वे 69 वर्ष की हो गई हैं, लेकिन अपने शौंक के प्रति उनका उत्साह रिटायरमैंट के बाद के पहले दिन की तरह ही है। कमला शौकीन ने हमेशा अपने अध्यापन काल और अपने आचार के व्यवसाय में अपना सर्वश्रेष्ठ प्रयास किया है। स्कूल से उन्हें उनके शिक्षण के लिए बेस्ट टीचर अवार्ड प्राप्त हुआ और आचार व्यापार शुरू करने के बाद उन्हें पूसा द्वारा सर्वश्रेष्ठ आचार की गुणवत्ता के लिए भी सम्मानित किया गया।

आमतौर पर वे अपने हाथों से बने आचार को बेचने के लिए सम्मेलनों, प्रदर्शनियों और मेलों में जाती हैं, लेकिन अपने उत्पाद को अधिक लागों तक पहुंचाने के लिए उन्होंने अपने घर में एक छोटी सी दुकान खोली है। वे सबसे ज्यादा प्रगति मैदान और पूसा मेलों में जाती हैं जहां पर वे अपने उत्पादों को बेचकर सबसे ज्यादा लाभ कमाती हैं। एक वर्ष में वह अपने आचार के कारोबार से 60000-70000 रूपये से अधिक कमा लेती हैं और भविष्य में वे अपने आचार के व्यापार में अधिक किस्मों को शामिल करने की योजना बना रही हैं-जैसे आम और नींबू। जब भी कोई व्यक्ति आचार बनाने के संबंधित सलाह लेने आता है वह उन्हें कभी मना नहीं करती। हमेशा अच्छा और सही सुझाव देती हैं। अब तक उन्होंने पूसा से ट्रेनिंग ले रहे कई लोगों को सुझाव दिया है ताकि वे अपना कारोबार शुरू कर सकें।

कमला शौकीन द्वारा संदेश
“पूरा दिन कुर्सी पर बैठकर कुछ ना करने से बेहतर है खुद को उपयोगी बनाना। मैंने अपनी रिटायरमैंट के बाद काम करना शुरू कर दिया क्योंकि मुझे आचार बनाने का शौंक था और मैं ऊबना नहीं होना चाहती थी। अपने आचार के कारोबार से मैं अपने गांव के गरीब लोगों को समर्थन करने में सक्षम हूं। मेरे अनुसार, हर महिला को अपने कौशल और शौंक का इस्तेमाल शादी के बाद भी खुद को आत्मनिर्भर बनाने के लिए करना चाहिए, लेकिन इससे पहले उन्हें अपनी शिक्षा पूरी करनी चाहिए।”

अनीता गोयल

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एक ऐसी महिला की कहानी जो अपनी मेहनत से एक आम गृहणी से एक जानी मानी हस्ती बन गयी और ज़ायका मैंम के नाम से जानी जाने लगी

पुराने समय में, भारत में पहले विवाह के बाद महिलाओं में इतना विश्वास नहीं होता था कि वे अपने शौंक और रूचि को अपना व्यवसाय बना सकें। इसके पीछे काफी कारण हैं जैसे कि सामाजिक दबाव, पारिवारिक दबाव, रूढ़िवादी समाज, वित्तीय संकट, पारिवारिक जिम्मेदारियां और बहुत कुछ शामिल थे। लेकिन कुछ महिलाओं को आगे बढ़ने से रोका नहीं जा सकता। यह पंक्ति इन महिलाओं के लिए ही बनी है – जो रोशनी अंदर से प्रकाशित होती है, उसे कोई मध्यम नहीं कर सकता।

ऐसी महिला जो हमेशा महिला समाज के लिए प्रेरणा रही है वे हैं अनीता गोयल। अनीता गोयल लुधियाना शहर के एक कस्बे जगरांव की एक सफल उद्यमी हैं। वे अपने हॉमटाउन में कुकिंग क्लासिज़ के लिए बहुत प्रसिद्ध हैं और ज़ायका कुकिंग क्लासिज़ नामक ब्रांड के तहत अपने व्यवसाय को चलाती हैं। वह अपने छात्रों को पेंटिंग और कढ़ाई भी सिखाती हैं और उनके सभी छात्र छोटी उम्र की लड़कियों से लेकर बड़ी उम्र की महिलायें हैं। अपने काम के प्रति जुनून के कारण उन्हें “ज़ायका मैम” के नाम से जाना जाता है। वे 2009 में पी ए यू में किसान क्लब की मैंबर भी बनीं और अब तक वे पी ए यू में नियमित रूप से कुकिंग क्लासिज़ दे रही हैं। उनके सभी विद्यार्थी बड़ी लग्न से उनसे कुकिंग क्लासिज़ लेते हैं और उन्हें बहुत शांति से और ध्यान से सुनते हैं।

यह सब सफलता, समृद्धि और नाम इतनी आसानी से हासिल नहीं हुआ है। यह सब उनकी शादी के बाद 1986 में शुरू हुआ। उन्होंने एक ऐसे परिवार में शादी की, जहां किसी भी औरत ने घर से बाहर कभी कदम नहीं रखा। वे उनमें से पहली थी। उसके पति पेशे से वकील थे इसीलिए उनके परिवार की आर्थिक अवस्था अच्छी थी और उन्हें कभी काम करने की जरूरत नहीं पड़ी। लेकिन ये उनका जुनून ही था जिसने उन्हें उपलब्धि के इस स्तर तक पहुंचाया, जहां वे आज हैं। वे जगरांव में अपने संपूर्ण परिवार (पति, दो पुत्र, एक बेटी, दो बहुएं और दो पोतों) के साथ रहती हैं और साथ-साथ में अपने दैनिक व्यवसाय और शिक्षण कार्य को भी संभालती हैं। उनके लिए, उनका परिवार ही उनकी सबसे बड़ी ताकत है जिसने हमेशा उनका साथ दिया और वे जो भी कार्य करती हैं उसमें उन्हें उत्साहित करते हैं।

यह कहा जाता है कि कुछ भी बड़ा करने के लिए आपको कम से शुरूआत करनी पड़ती है और वही श्री मती अनीता गोयल ने किया। अपनी पहली नौकरी से उन्होनें 750 रूपये प्रति माह कमाये जिस पर शुरूआत में उनके पति को आपत्ति थी। कम राशि में सभी खर्चों जैसे खाना पकाने की सामग्री, सहूलतें, निजी उपयोग आदि का प्रबंध करना बहुत मुश्किल था। उन्होंने अपने व्यवसाय को शुरू करने के लिए बहुत मुश्किलों का सामना किया। हालांकि उन्होंने अपने जीवन में बहुत कुछ खोया लेकिन वह कभी भी निराश नहीं हुई और हमेशा खुद को उत्साहित रखा। बहुत काम करने के बाद अंत में उन्हें सफलता मिल ही गई और अधिकारिक तौर पर कुकिंग क्लासिज़ शुरू की और आज वे सफलतापूर्वक अपना व्यवसाय चला रही हैं।

उनके लिए खाना बनाना खुशी फैलाने की तरह है और उनके द्वारा बनाए गए खाद्य पदार्थों का स्वास्थ्यवर्धक होना उनके खाना बनाने के गुण को अलग और विशेष बनाता है। वे हर किस्म के बेकरी उत्पाद, आचार, चटनी, 17 किस्म के मसाले, 3 किस्म के इंस्टैंट मसाले और 3 किस्मों के इंस्टैंट पकवान (ठंडाई, फिरनी और खीर) बनाती हैं। वे ब्रैड, मफिनस, पिज्जा बेस, विभिन्न स्वाद के केक, नारियल कैस्टल, कपकेक, बिस्कुट और अन्य बेकरी उत्पाद बनाने के लिए मैदे की जगह गेंहूं के आटे का प्रयोग करती हैं और आचार में वे नमक, चीनी और तेल को छोड़कर किसी संरक्षित पदार्थ का प्रयोग नहीं करती क्योंकि उनके अनुसार नमक, चीनी और तेल आचार के लिए कुदरती संरक्षित पदार्थ हैं। उनके द्वारा बनाया गया हर उत्पाद स्वास्थ्यवर्धक और कुदरती होता है। वे बहुत स्वादिष्ट आचार बनाती हैं और उनके आचार की मांग विदेशों में भी है। वे कहती हैं कि यदि आप कुछ अच्छा देते हो तो आप भीड़ से निकलकर जरूर आगे आओगे।

उन्होंने अपने घर के पीछे एक छोटी बगीची लगाई हुई है जहां पर उन्होंने अपने घर में प्रयोग होने के लिए हल्दी, हरी मिर्च और अन्य मौसमी सब्जियां उगाई है। वे साठ साल की हैं लेकिन अलग अलग इवेंटस, प्रदर्शनियों और व्यवसायों में सक्रिय भागीदारी से ऐसा लगता है कि वे भविष्य में और बहुत कुछ हासिल करेंगी। श्रीमती अनीता गोयल के कुकिंग के प्रति शौंक और जुनून ने उनकी समाज में अपनी पहचान और अच्छा कमाने में बहुत मदद की है। वर्तमान में, वे अपने व्यवसाय को अगले स्तर तक ले जाने की योजना बना रही हैं और एक अधिकारिक दुकान खोलने की योजना बना रही हैं जहां वे सभी उत्पादों को आसानी से बेच सकें।

श्रीमती अनीता गोयल द्वारा दिया गया संदेश
“उनके अनुसार कोई भी काम छोटा या बड़ा नहीं होता, यदि आप वास्तव में परिवर्तन करना चाहते हैं तो आपको दृढ़ संकल्प और इच्छा शक्ति के माध्यम से आगे बढ़ना है। आप में दृढ़ इच्छा शक्ति होनी चाहिए तभी आप जो चाहें प्राप्त कर सकते हैं। एक महिला अपनी शक्ति के साथ ही अपने जीवन में आगे बढ़ सकती है। महिलाओं को समाज में अपनी पहचान बनानी चाहिए। महिला की पहचान उसके गुणों और प्रतिभा से होती है ना कि सिर्फ उसके पति के नाम से। जब आपका परिवार आपके नाम से जाना जाता है यह बहुत गर्व महसूस करवाता है।”

भगत सिंह

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दो भाइयों की मिलकर की गई कोशिश ने उनके पिता के छोटे से पोल्टरी फार्म को लाखों के कारोबार में बदल दिय: जगजीत पोल्टरी ब्रीडिंग फार्म

एक व्यक्ति द्वारा 15000 रूपये से एक कारोबार शुरू हुआ उन्होंने कभी नहीं सोचा था कि भविष्य में उनके बेटे इस कारोबार को लाखों का बना देंगे। ऐसा कहा जाता है कि हर बड़ी चीज़ की छोटे से ही शुरूआत होती है। ये दो बेटों की कहानी है जो शिक्षा के बाद अपने पिता के नक्शे कदम पर चले और कारोबार को अधिक मात्रा में विस्तारित किया।

सरदार भगत सिंह पंजाब के तरनतारन शहर के पट्टी शहर के एक छोटे से किसान थे, उन्होंने 1962 में केवल 400 मुर्गियों के साथ एक पोल्टरी फार्म का कारोबार शुरू किया। उन्होंने यह कारोबार उस समय शुरू किया जब इस कारोबार के बारे में कोई कुछ नहीं जानता था। उन्होंने अपने पोल्टरी फार्म को जगजीत पोल्टरी फार्म का नाम दिया, ‘जग’ उनकी पत्नी का नाम (जगदीश) से लिया गया और ‘जीत’ उनका अपना उपनाम था। भगत सिंह ने पोल्टरी व्यवसाय शुरू किया क्योंकि यह उनका सपना भी था और उनकी ऐसा करने में रूचि भी थी, लेकिन उन्होंने अपने शब्दों और व्यवसायों को कभी अपने बच्चों पर थोपा नहीं। उनके दो बेटे हैं- मनदीप सिंह और रमनदीप सिंह । दोनों को अपनी प्राथमिक और उच्च शिक्षा के लिए स्कूल और कॉलेज भेज दिया गया ताकि वे अपने करयिर में जो करना चाहें, करें। लेकिन दोनों बेटों ने अपने पिता के व्यवसाय में शामिल होने और इसे ओर बढ़ाने का फैसला किया।

दोनों भाइयों, मनदीप सिंह और रमनदीप सिंह ने 2012 में अपने पिता की मौत के तुरंत बाद कारोबार को संभाल लिया और धीरे धीरे समय पर अपने फार्म को 3.5 एकड़ क्षेत्र में बढ़ा दिया। पहले सिर्फ पोल्टरी फार्म था, लेकिन कुछ समय बाद उन्होंने प्रजनन (ब्रीडिंग) का काम भी शुरू किया और उन्होने अपने फार्म को जगजीत पोल्ट्री प्रजनन फार्म का नाम दिया, लेकिन गांव के सभी लोग उस समय से अब तक भगत सिंह के नाम पर ही पोल्टरी फार्म को जानते थे। फार्म के नाम में ज्यादा अंतर नहीं है यह दोनों भाइयों का प्रयास है जिन्होंने पूरे पोल्टरी व्यवसाय का नक्शा ही बदल दिया।

उनके पास प्रजनन के लिए 1.5 एकड़ ज़मीन और व्यापारिक उद्देश्य के लिए 2 एकड़ ज़मीन है। आज उनके प्रजनन फार्म में 12000 मुर्गे और व्यापारिक फार्म में 18-20,000 मुर्गियां हैं।

अपने फार्म के कामकाज को आसान और स्वचालित बनाने के लिए धीरे-धीरे उन्होंने 8 मशीनों को स्थापित किया और प्रत्येक मशीन की लागत लगभग 3 लाख थी। उन्होंने लगभग 25 मज़दूरों को अपने फार्म और मशीनों का प्रबंधन करने के लिए काम पर लगाया। मनदीप सिंह और रमनदीप, विशेष रूप से पोल्टरी फार्म की सफाई का ध्यान रखते हैं। यहां तक कि मनदीप सिंह के बेटे डॉ. जसदीप सिंह भी पोल्टरी फार्म कारोबार से जुड़े हैं। पशु चिकित्सक के रूप में, जसदीप सिंह चिकन के स्वास्थ्य की व्यक्तिगत देखभाल करते हैं, वे ये सुनिश्चित करते हैं कि मुर्गी उत्पादों की अच्छी गुणवत्ता बनाए रखने के लिए हर चिकन स्वस्थ और बीमारी रहित हो। वे आवश्यकतानुसार टीकाकरण देते हैं और बीमार या बीमारी के लक्षण वाले चिकन को अलग करते हैं।

7 साल पहले दो भाइयों द्वारा किए गए संयुक्त प्रयास ने छोटे पोल्टरी खेत के व्यवसाय मुल्य को लाखों में बदल दिया। आज वे अपने पोल्टरी उत्पादों को पंजाब और उत्तर प्रदेश के आस पास सप्लाई करते हैं। जो लोग अपना स्वंय का पोल्टरी फार्म खोलना चाहते हैं वे उन लोगों को ट्रेनिंग और निर्देशित भी करते हैं और डॉ. जसदीप सिंह मुर्गियों के खाद्य और टीकाकरण के बारे में बताकर लोगों की मदद भी करते हैं ताकि वे मुर्गी उत्पादों की गुणवत्ता को बनाए रख सकें। भविष्य में दोनों भाई पुत्र अपने कारोबार में वृद्धि करने और अपने पोल्टरी फार्म उत्पादों को आगे के क्षेत्रों में उपलब्ध करवाने की योजना बना रहे हैं।

भगत सिंह व् उनके पुत्रों द्वारा दिया गया संदेश
आजकल किसान आत्महत्या कर रहे हैं, उन्हें ऐसा नहीं करना चाहिए। उन्हें यह सोचना चाहिए कि उनके बाद उनके परिवार का क्या होगा, उनका परिवार उन पर निर्भर है और यह अपनी जिम्मेदारियों से छुटकारा पाने का कोई तरीका नहीं है। किसानों को यह सोचना चाहिए कि कैसे वे अपने कौशल का उपयोग करें और अपने कामों की प्रक्रिया कैसे करें ताकि वो आने वाले समय में मुनाफा दे सकें। अब, किसानों को बुद्धिमानी से खेती शुरू करनी चाहिए और अपनी फसलों का सही मूल्य प्राप्त करने के लिए उत्पादों को स्वंय बेचना चाहिए।”

 

अमरजीत सिंह भट्ठल

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जानें एक रिटायर्ड फौजी के बारे में, जो एग्रीप्रेन्योर बन गए और एग्री बिज़नेस के क्षेत्र में क्रांति ला रहे हैं

आज कल बहुत कम लोग अपने भविष्य में खेतीबाड़ी के क्षेत्र में जाने के बारे में सोचते हैं। जिस दौर में हम रह रहे हैं, इसमें ज्यादातर लोग बड़े शहरों का हिस्सा बनना चाहते हैं और सेवा मुक्ति के बाद की ज़िंदगी को लोग आमतौर पर आसान और आरामदायक तरीके से जीना चाहते हैं, जिसमें उनके पास कोई काम ना होना, घर में खाली बैठना, अखबार पढ़ना, बच्चों के साथ समय बिताना और थोड़ी बहुत कसरत करना आदि शामिल हो। बहुत कम लोग होते हैं, जो कुदरत की चिंता करते हैं और अपनी जिम्मेदारियां निभाते हैं और अपने जीवन में उन्होंने मिट्टी से जो कुछ हासिल किया, उसे वापिस देने की कोशिश करते हैं।

स. अमरजीत सिंह भट्ठल एक रिटायर्ड फौजी हैं, जो कुदरत के प्रति अपनी जिम्मेदारी निभा रहे हैं और इस जिम्मेदारी को उन्होंने अपना शौंक और आराम का तरीका बना लिया। वे आराम वाली ज़िंदगी को छोड़कर लुधियाना में स्थित अपने गांव में अपने पिता और पत्नी सहित रह रहे हैं और जट्ट सौदा के नाम से एक दुकान चला रहे हैं।

सड़क के साथ लगती और भी दुकानें और रिटेल स्टोर हैं, पर जट्ट सौदे में खास क्या है दुकान के पीछे स्वंय के खेत में उगाई जैविक सब्जियां, दालें, फल और मसाले आदि जट्ट सौदे को दूसरों से अलग और विलक्षण बनाते हैं। वास्तव में उनकी ऑन रोड फार्म मार्किट है, जहां पर आप सब कुछ ताजा और जैविक खरीद सकते हैं। इसके अलावा उनके पास एक छोटा पॉल्टरी फार्म भी है, जहां उनके पास लगभग 100 देसी मुर्गियां हैं। मुर्गियों की गिनती कम ज्यादा होती रहती है, पर देसी अंडों की मांग कभी भी नहीं घटती और स्टोर में पहुंचने के साथ-साथ ही सारे अंडे बिक जाते हैं।

उन्होंने विरासत मिशन से ट्रेनिंग लेने के बाद दिसंबर 2012 में जैविक खेती शुरू की। उस दिन से लेकर आज तक वे खेती का काम पूरी लगन से कर रहे हैं। वे सुबह से शाम तक का समय अपने फार्म स्टोर पर ही व्यतीत करते हैं, जहां उनके पिता भी उनका साथ देते हैं। ये पिता-पुत्र अपनी ज़मीन के छोटे से हिस्से को अपने पुत्र की तरह पालते हैं।

उन्होंने अपनी दुकान की दिखावट ग्रामीण तरीके से तैयार की है, जिसके एक ओर आप ताज़ी मौसमी सब्जियां डिस्पले पर लगी देख सकते हैं और छत से नीचे लटकती लहसुन की गांठे देख सकते हैं। दुकान के बीच में से एक रास्ता पीछे बने फार्म की तरफ जाता है, जहां आपको भिंडी, टमाटर, करेले, अरहर अलग अलग तरह के लैट्टस (सलाद पत्ता) की किस्में और अन्य बहुत तरह की सब्जियां मिलती हैं। उनके अनुसार फार्म देखने के लिए सबसे उचित समय जल्दी सुबह से शाम तक का होता है क्योंकि उस समय आप बहुत अच्छे कुदरत के रंगों को फार्म की खूबसूरती से मिलते देख सकते हैं। फार्म के एक कोने पर पोल्टरी फार्म बना है जहां आप किल्ली से बंधा कुत्ता देख सकते हैं। सब कुछ मिलाकर यह फार्म एक संपूर्ण फार्म का दीदार करवाता है। उनके पास खेती के कामों के लिए 2-3 मजदूर हैं।

अमरजीत सिंह जी ने पंजाब यूनिवर्सिटी, चंडीगढ़ से एम एस सी की डिग्री पूरी की और देश की सेवा करना उनके द्वारा चुना गया पेशा था। खेती से पहले, स. अमरजीत सिंह एक इमीग्रेशन कंपनी में सलाहकार के तौर पर भी काम करते थे, जहां वे बच्चों के साथ बात करके भविष्य की ज़िंदगी के लक्ष्यों और उद्देश्यों के बारे में चर्चा करते थे और उन्हें सलाह देते थे। इसके अलावा वे पंजाब के मुख्य मंत्री अमरिंदर सिंह जी के भी प्रसिद्ध सलाहकार रहे हैं। अपनी ज़िंदगी में इतने मशहूर पद हासिल करने के बाद भी आज वे किसी भी चीज़ का घमंड नहीं करते। वे सादा जीवन व्यतीत करने में यकीन रखते हैं और कुदरत की इज्ज़त भी करते हैं। वे जैविक खेती के द्वारा कुदरत को बचाने और समाज को तंदरूस्त भोजन देने की कोशिश कर रहे हैं। अमरजीत सिंह जी का एक छिपा हुआ गुण भी है। उनके कॉलेज के समय से ही वे साहित्य में रूचि रखते थे और उन्हें लियो टॉलस्टॉये को पढ़ने का बहुत शौंक था। वे बहुत बढ़िया लेखक भी हैं और अब भी जब खेती के कामों से समय मिलता है तो अपने विचारों और सोच को शब्दों में लिखते हैं।

उनसे बातचीत करने के बाद उन्होंने ग्राहकों की मांग बारे में चर्चा की और उनके अनुसार आज कल ग्राहकों की मांग स्वास्थ्य के हित में नहीं है। आधुनिक तकनीकों और नए तरीकों से खाना बचाकर आज आप गर्मियों में मटर और गाजर और सर्दियों में लौकी खा सकते हैं। जैसे कि हम सब जानते हैं कि सब्जियां मानवी पाचन क्रिया में मुख्य हिस्सा है और प्रत्येक मौसम हमें बहुत सारी ताजी उपज प्रदान करता है। इसलिए यदि आप अपने भोजन में अन्य जैविक, मौसमी फल और सब्जियों को शामिल करते हैं, तो यह और भी ज्यादा लाभदायक होगा, क्योंकि खुराक में मौसमी फल शामिल करने से आप अधिक तत्वों वाली सब्जियां, जो कि बिना किसी रसायनों से होती हैं, उनका अच्छा स्वाद ले सकते हैं। यह भोजन आपके शरीर के लिए भी मौसम के अनुसार सहायक होगा। उन्होंने यह भी कहा कि जिस दिन ग्राहकों को जैविक भोजन के फायदों के बारे में पता लगेगा, उस दिन से जैविक सब्जियों और फलों की मांग अपने आप बढ़ जायेगी और जागरूकता बढ़ाने के लिए किसानों और ग्राहकों में संपर्क होना बहुत जरूरी है।

वे स्वंय लोगों को जैविक खेती के बारे में जागरूक करने की कोशिश करते हैं और उन्होंने स्कूल के बच्चों को जैविक खेती और भोजन की महत्वत्ता पर प्रैज़ैनटेशन भी दी। इस समय वे जैविक खेती को जारी रखने और अन्य लोगों को जैविक खेती के फायदों से जागरूक करवाने की योजना बना रहे हैं।

भविष्य में उनकी योजनाएं इस प्रकार हैं:

• अपनी ऑन रोड मार्किट के ढांचे को अपग्रेड करना

• 2000 गज में नैट हाउस बनाना

• अपने फार्म में फसलों को संरक्षित वातावरण प्रदान करना

• सिंचाई का हाइब्रिड सिस्टम लगाना

• पानी की स्टोरेज बढ़ाना

अमरजीत सिंह भट्ठल जी के द्वारा दिया गया संदेश
“उन्होंने आज के किसानों को बड़ी समझदारी वाला संदेश दिया कि आप उत्पाद का मुल्य नियंत्रण नहीं कर सकते, क्योंकि वह सरकार पर निर्भर करता है, आपको वह करना चाहिए, जो आप कर सकते हैं। किसानों को लागत मुल्य पर नियंत्रण करना चाहिए और जैविक खेती करनी चाहिए, क्योंकि इससे ज्यादा खर्चा नहीं आता। एक समय आयेगा, जब लोगों को अहसास होगा कि पारंपरिक खेती उनकी मांगों को पूरा नहीं कर रही है। इसलिए अच्छा होगा, यदि हम समय की जरूरत को समझ लें और इसके अनुसार ही काम करें।”

मनिंदरजीत कौर

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कैसे एक महिला की प्रतिभा ने उसे एक सफल उद्यमी एवं सफल उद्योगपति बना दिया

यह कहा जाता है कि यदि आप में कुछ करने का जुनून हो तो वह ज़रूर संभव होता है। ऐसी एक महिला है जिन्होंने अपने जुनून का पीछा किया और आज वे सफलतापूर्वक अपना व्यवसाय चला रही हैं।

मनिंदरजीत कौर- एक साधारण महिला है जो कि अपने बचपन में कलात्मक हैंडवर्क को देखकर प्रभावित होती थी और बाद में किशोरावस्था में सिलाई, कढ़ाई उनके शौंक बन गए। रचनात्मकता के लिए उनका जुनून और शौंक इतना बढ़ गया, उन्हें लगा कि अपने इस शौंक को पेशेवर ढंग से सीखना चाहिए। अंतत: उन्होंने 10वीं कक्षा के बाद सिलाई में डिप्लोमा किया।

शादी के बाद आमतौर पर महिलायें अपने जीवनसाथी के साथ समय बिताने, पारिवारिक जिम्मेदारियों को संभालने और अपने बच्चों के साथ समय बिताने के बारे में सोचती हैं, लेकिन मनिंदरजीत कौर ऐसी नहीं थी। ऐसा नहीं है कि उन्होंने अपनी जिम्मेदारियों को पूरा नहीं किया अपितु उसके साथ अपने शौंक को भी समान महत्तव दिया। वर्तमान में वे जीरकपुर में अपने परिवार के साथ खुशी से रह रही हैं और अपने व्यवसाय को चला रही हैं।

बीस साल पहले मनिंदरजीत कौर ने मनिंदर सिलाई केंद्र की शुरूआत की और बाद में अपने व्यवसाय को कोहिनूर नामक लेबल दिया जो आज कल बहुत ही व्यवसाय कम वर्क शॉप के नाम से जाना जाता है और कुछ बड़ा करने के लिए छोटे से ही शुरूआत करनी पड़ती है। मनिंदरजीत कौर ने अपने घर में कुछ लड़कियों को सिलाई और कढ़ाई सिखाना शुरू किया। जल्द ही उन्हें अपने इलाके में प्रसिद्धि मिली और कई महिलाएं और लड़कियां उनके पास सिलाई, कढ़ाई सीखने आने लगी। आखिरकार उनकी डिग्री प्रयोग में आई। उन्होंने एक जगह किराये पर ली जहां पर सिलाई क्लासिज़ शुरू की। वे अपने छात्रों को डिज़ाइनर सूट, चादरें, तकिया कवर, रसोई के कपड़े बैग, ग्रोसरी शॉपिंग बैग, मैट्स और कई अन्य चीजें सिखाते हैं। आज उनके पास कुल 60 लड़कियां है, उनमें से कुछ शिक्षक हैं और बाकी छात्र अभी सीख रहे हैं।

उनके सिलाई केंद्र में 15 सिलाई मशीन हैं। वे 10 विषयों को सिखाती हैं- जैसे सिलाई, फैशन सिलाई, रजाई बनाना, बेड शीट बनाना, पेंटिंग, कढ़ाई (मशीन/हस्तनिर्मित दोनों), खाना पकाना और विभिन्न प्रकार के बैगों की सिलाई सिखाती हैं। उनका सिलाई केंद्र और क्लासिज़ इतनी लोकप्रिय हैं कि जो महिलायें शिक्षित, डॉक्टर, इंजीनियर और नर्स हैं वे भी अपने व्यस्त कामों से समय निकालकर उनसे सीखने आती हैं। आमतौर पर वे सिलाई विषय के लिए 500 रूपये और पेंटिंग विषय के लिए 1000 रूपये लेती हैं लेकिन कई बार वे लड़कियों और महिलायें जिनकी आर्थिक स्थिति अच्छी नहीं होती और कोर्स की फीस देने के लिए उनके पर्याप्त धन नहीं होता, उनसे फीस नहीं लेती। इसके अलावा वे अपनी ओर से सिलाई की सामग्री प्रदान करती हैं ताकि वे इस विषय को सीख सकें और स्वंय के लिए कमा सकें।

शुरूआत में जब उन्होंने अपना व्यवसाय शुरू किया तब उनके काम की गुणवत्ता ने अच्छे ग्राहकों को अपनी तरफ आकर्षित किया। चंडीगढ़ में एक दुकान है VIVCO जिससे उन्होंने भागीदारी की। वे VIVCO से थोक में कपड़े खरीदती थी, उन्हें धो लेती थी, बैड शीट, तकिये के कवर, बैग, सूट जैसे चीज़ें वे अपनी वर्कशॉप में बनाती थी और उन सभी उत्पादों को VIVCO में भेजती थी ताकि वे इसे बाज़ार में आगे बेच सकें। इस पूरी प्रक्रिया से उन्हें अपने व्यवसाय में बहुत अच्छा लाभ होता था लेकिन लगभग 3 साल पहले 2014 में VIVCO ने व्यवसाय बंद कर दिया, जिससे मनिंदरजीत कौर का व्यवसाय गंभीर रूप से प्रभावित हुआ, तब से वे अपने कारोबार को सुचारू रूप से चलाने में बाधाओं का सामना कर रही हैं क्योंकि उनके पास अपनी वर्कशॉप में बनाए गए उत्पादों को बेचने के लिए उचित मंच नहीं है। इन सभी बाधाओं के बावजूद उन्होंने कभी खुद को निरउत्साहित नहीं किया और आज जब भी उन्हें कोई मौका मिलता है वे सक्रिय रूप में उसमें भाग लेती हैं और अपना 100 प्रतिशत देती हैं।

इस समय उनकी उम्र 65 वर्ष है लेकिन फिर भी उनके अंदर का जुनून अभी तक कम नहीं हुआ है। वह अभी भी पूरे जोश और उत्साह से अपने छात्रों को सिखाती हैं। उनके अनुसार वे अभी भी आगे बढ़ रही हैं और सीख रही हैं जो उन्हें व्यवसाय में ओर अधिक उत्पाद जोड़ने में मदद करता है। वे अपने ब्रांड को लोकप्रिय बनाने और अधिक ग्राहकों को जोड़ने के लिए हर प्रकार की प्रदर्शनी और इवेंट में जाती हैं।

मनिंदरजीत कौर किशोरावस्था से ही सिलाई और कढ़ाई कर रही हैं लेकिन उन्होंने कभी नहीं सोचा था कि यह उनके लिए किसी दिन पूर्ण व्यापार में बदल जाएगा। वे सफलता के लिए अपने तरीके से काम कर रही हैं और उन्होंने जो भी अपनी पहचान कमाई है इसका कारण उनका अपने काम के प्रति रूचि को जारी रखना है। अब वे सिर्फ अपनी आमदनी को सुधारने में ध्यान दे रही हैं ताकि ज्यादा से ज्यादा लाभ कमा सके और अपने व्यवसाय को अधिक ऊंचाइयों तक लेकर जा सके।

मनिंदरजीत कौर द्वारा दिया गया संदेश
एक महिला को अन्य कारणों से अपने गुणों और रूचि को दबाना नहीं चाहिए क्योंकि इन गुणों और रूचि के कारण ही उन्हें मुश्किल समय में आजीविका प्राप्त करने में मदद मिलती है। इसके अलावा अगर आप कोई अतिरिक्त गुण सीखते हैं तो उसकी कोई हानि नहीं होती बल्कि भविष्य में कभी ना कभी वो गुण हमारे लिए काम आ ही जाता है और कभी भी आपको कोई अवसर मिले तो उसे गवाना नहीं चाहिए, बल्कि हमेशा उसका लाभ उठाना चाहिए।”

 

 

परमजीत कौर

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कैसे एक उद्यमी सिख महिला ने अपनी हठ के एक सफल उद्योगपति बनने के लिए मील पत्थर रखा – माई भागो सैल्फ हैल्प ग्रुप

पुराने समय से ही समाज में पुरूषों के साथ-साथ महिलाओं ने अपना बहुत योगदान दिया है, पर अक्सर ही महिलाओं के योगदान को अन- देखा कर दिया जाता है। भारत में ऐसी बहुत महिलाएं हैं, जिन्होंने पुराने समय में अपने देश, समाज और लोगों पर राज किया, उन्हें सिखाया और उनकी सेवा की। उन्होंने संस्थाओं का प्रबंधन किया, समाज का नेतृत्व किया और शत्रुओं के विरूद्ध विद्रोह किया। यह सभी उपलब्धियां प्रशंसायोग हैं। ये सभी शूरवीर महिलाएं पुराने और आज के समय में भी उन्य महिलाओं के लिए प्रेरणा हैं। एक ऐसी महिला परमजीत कौर, जो महान सिख शूरवीर महिला माई भागो से प्रेरित हैं और एक उभरती हुई उद्यमकर्त्ता हैं।

परमजीत कौर जी ताकत और विश्वास वाली महिला हैं जिन्होंने अपने गांव लोहारा (लुधियाना) में माई भागो ग्रुप स्थापित करने के लिए पहला कदम उठाया। उन्होंने यह ग्रुप 2008 में शुरू किया था और आज भी वे अपना सबसे अधिक समय इस कारोबार को बढ़ाने और उत्पादों को सुधारने में लगाती हैं। खैर, इसमें कोई शक नहीं कि एक महिला होते हुए इस पुरूष जगत में अपना कारोबार स्थापित करना आसान नहीं होता है।

यह परमजीत कौर जी की इच्छा शक्ति और पारिवारिक सहयोग ही था जिस कारण उन्हें यह ग्रुप बनाने में बहुत सहायता मिली। जैसे कि हर काम की शुरूआत के लिए एक अच्छे मार्गदर्शक की जरूरत होती है, इसी तरह स्वंय ग्रुप तैयार करने के लिए परमजीत कौर जी के उत्साह के पीछे समाज सेविका सुमन बंसल जी का बहुत बड़ा योगदान है, जिन्होंने परमजीत कौर जी की पंजाब खेतीबाड़ी यूनिवर्सिटी, लुधियाना में घरेलू भोजन उत्पाद की एक महीने की मुफ्त ट्रेनिंग में बहुत मदद की। उसके बाद उन्होंने पीछे मुड़ कर नहीं देखा। आज उनके ग्रुप में 16 मैंबर हैं और वे प्रत्येक व्यक्ति को निजी तौर पर समझाती हैं।

माई भागो ग्रुप द्वारा सात तरह के स्कवैश (शरबत), इत्र, जल जीरा, फिनाइल, बॉडी मॉइश्चराइज़िंग बाम, सब्जी तड़का, शहद, हर्बल शैंपू और आम की चटनी आदि। परमजीत कौर जी स्वंय बाज़ार से जाकर सभी उत्पादों का कच्चा माल खरीद कर लाती हैं। माई भागो ग्रुप द्वारा बनाये गये सभी उत्पाद हाथों से तैयार किए जाते हैं और फलों का जूस निकालने, पैकिंग और सील लगाने के लिए मशीनों का प्रयोग किया जाता है।

• सभी स्कवैश (शरबत) फलों से कुदरती ढंग द्वारा तैयार किए जाते हैं और इनका स्वाद वास्तविक फलों के जैसा ही होता है।

• इत्र विभिन्न विभिन्न तरह के गुलाबों से तैयार किए जाते हैं, जिनमें गुलाबों की कुदरती खुशबू महसूस की जा सकती है।

• जल जीरा पाउडर ताजगी का स्वाद देता है।

• शुद्ध शहद कुदरती प्रक्रिया से निकाला जाता है।

• हर्बल शैंपू में किसी भी तरह के रसायनों का प्रयोग नहीं किया जाता।

• इनके कुछ ही उत्पाद ऊपर बताए गए हैं, पर भविष्य में ये अन्य भी बहुत सारे कुदरती और हर्बल उत्पाद लेकर आ रहे हैं।

परमजीत कौर जी केवल 10 वीं पास हैं, पर उनकी प्राप्तियां और कुछ हासिल करने के पक्के इरादों से ही कॉपरेटिव सोसाइटी की 55वीं समारोह पर उन्होंने कैप्टन कंवलजीत सिंह से पुरस्कार और 50000 की नकद राशि हासिल की। पंजाब खेतीबाड़ी यूनिवर्सिटी, लुधियाना से प्रशंसायोग काम के लिए पुरस्कार से सम्मानित किया गया। इसके इलावा वे समारोह, प्रदर्शनियों और किसानों, सैल्फ हैल्प ग्रुप और उद्यमकर्त्ता की वैल्फेयर कमेटियों में हिस्सा लेते हैं। वे और उनके पति कॉपरेटिव सोसाइटी के सैक्टरी हैं और वे जरूरतमंद लोगों की सहायता के लिए फैसले भी लेते हैं। वे किसान क्लब के भी मैंबर हैं और वे महीनेवार मीटिंगों और किसान मेलों में भी नियमित तौर पर पहुंचते हैं, ताकि खेतीबाड़ी के क्षेत्र से संबंधित नई चीज़ें और तकनीकों की जानकारी हासिल कर सकें।

इतने काम और अपने कारोबार में व्यस्त होने के बावजूद भी परमजीत कौर जी अपने बच्चों और पारिवारिक जिम्मेवारियों के प्रति लापरवाही नहीं दिखाते। वे अपने बच्चों की पढ़ाई के प्रति पूरा ध्यान देते हैं और उनकी उच्च शिक्षा के लिए कॉलेज भेजना चाहते हैं, ताकि वे अपनी आने वाली ज़िंदगी को ओर अच्छा बना सकें। इस समय उनका बेटा इलैक्ट्रीकल में डिप्लोमा कर रहा है और उनकी बेटी बी ए कर चुकी है और अब एम ए कर रही है। उनके बच्चे भविष्य में उनके कारोबार में योगदान देने के लिए दिलचस्पी रखते हैं और उन्हें जब भी अपनी पढ़ाई और कॉलेज से समय मिलता है, तो वे उनकी मदद के लिए समारोह और प्रदर्शनियों में भी जाते हैं।

इस व्यस्त दुनिया के इलावा, उनके कुछ शौंक हैं, जिनके लिए वे बहुत उत्सुक रहते हैं। उनका शौंक घरेलू बगीची तैयार करना और बच्चों को धार्मिक संगीत सिखाना है। चाहे वे जितने मर्ज़ी काम में व्यस्त हों, पर वे अपने व्यस्त कारोबार में अपने शौंक के लिए समय निकाल ही लेते हैं। उन्हें घरेलू बगीची का बहुत शौंक है और उनके घर छोटी सी घरेलू बगीची भी है, जहां उन्होंने मौसमी सब्जियां (भिंडी, सफेद बैंगन, करेले, मिर्च) आदि और हर्बल पौधे (घीकवार, तुलसी, सेज, अजवायन, पुदीना आदि) उगाये हैं। उनमें बच्चों को धार्मिक संगीत, संगीतक साज़ और गुरू ग्रंथ साहिब पढ़ने के तरीके सिखाने का बहुत जुनून है। शाम के समय नज़दीक के इलाकों से बच्चे बड़े जोश से हारमोनियम, सितार और तबला बजाना सीखने के लिए उनके पास आते हैं। वे बच्चों को ये सब कुछ मुफ्त में सिखाते हैं।

परमजीत कौर जी अपने गांव की महिलाओं के लिए प्रेरणास्त्रोत हैं। वे हमेशा स्वंय से कुछ करने की कोशिश करते हैं, क्योंकि उनका मानना है कि स्वंय कुछ करने से महिलाओं में विश्वास आता है और वे आत्म निर्भर बनती हैं। यहां तक कि उन्होंने अपनी बेटी को भी कुछ करने से नहीं रोका, ताकि वह भविष्य में आत्म निर्भर बन सके। आज कल वे अपने ग्रुप की प्रमोशन अलग अलग तरह के प्लेटफॉर्म पर कर रहे हैं और इसे ओर बड़े स्तर पर ले जाने की योजना बना रहे हैं।


परमजीत कौर की तरफ से सन्देश

“परमजीत कौर जी अपने गांव की महिलाओं के लिए प्रेरणास्त्रोत हैं। वे हमेशा स्वंय से कुछ करने की कोशिश करते हैं, क्योंकि उनका मानना है कि स्वंय कुछ करने से महिलाओं में विश्वास आता है और वे आत्म निर्भर बनती हैं। यहां तक कि उन्होंने अपनी बेटी को भी कुछ करने से नहीं रोका, ताकि वह भविष्य में आत्म निर्भर बन सके। आज कल वे अपने ग्रुप की प्रमोशन अलग अलग तरह के प्लेटफॉर्म पर कर रहे हैं और इसे ओर बड़े स्तर पर ले जाने की योजना बना रहे हैं।”

रक्षा ढंड

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एक ऐसी महिला की कहानी जो फुलकारी पर काम करने वाले लोगों की कला को उजागर करके उन्हें अपना कल्चर दिखाने में मदद कर रही है

वे दिन चले गए जब महिलाएं केवल रसोई में काम करने के लिए बंधी थी और आर्थिक रूप से असहाय थी। पुराने समय में बहुत कम लोग थे जो इस बात को स्वीकार करते थे कि मेहनत, दिमाग और नेतृत्व के तौर पर महिलाएं पुरूषों के समान हैं।

आज भी कई महिलाएं ऐसी हैं जो खुद पर विश्वास करती हैं। उनका अपने काम के प्रति जुनून है और उनमें इतनी दिमागी शक्ति है, जिसका प्रयोग करके वे अपनी ज़िंदगी और व्यवसाय को अच्छे से संभाल सकती हैं। ऐसे ही रक्षा ढंड नाम की महिला हैं जो कि कर्मचारियों के साथ रचनात्मक फुलकारी के कौशल का प्रयोग करके एक सैल्फ हैल्प ग्रुप कम व्यवसाय का नेतृत्व कर रही हैं। वे नए डिज़ाइनों और नवीनता के साथ फुलकारी की कला को ज़िंदा रखने की कोशिश कर रही हैं।

रक्षा ढंड चमकौर साहिब के रहने वाली हैं और गेंदा सैल्फ हैल्प ग्रुप की अध्यक्ष हैं। उन्होंने यह ग्रुप 2010 में 16 फुलकारी कर्मचारियों के साथ बनाया और जब उनके द्वारा बनाया गया फुलकारी हैंडीक्राफ्ट कलस्टर, विकास कमिश्नर हैंडीक्राफ्ट नई दिल्ली द्वारा मंज़ूर हो गया, फिर उसके बाद उन्होंने कभी पीछे मुड़ कर नहीं देखा। उन्होंने पंजाब की पारंपरिक हस्तकला को ऊपर उठाने में तेजी से शुरूआत की। मंजूरी मिलने के बाद NIFD के फैशन डिज़ाइनरों को विशेष तौर पर इस ग्रुप के कर्मचारियों को ट्रेनिंग देने के लिए भेजा गया। इन कर्मचारियों को कुल 25 दिन की ट्रेनिंग दी गई और धीरे-धीरे उनके काम को प्रशंसा मिलने लगी। धीरे-धीरे ग्रुप के ग्राहक बढ़े और उन्होंने अच्छा लाभ कमाया। आज रक्षा ढंड की चमकौर साहिब फुलकारी हाउस के नाम से दुकान उसी शहर में हैं जहां वे रहती हैं और दुकान में गेंदा सैल्फ हैल्प ग्रुप द्वारा के तैयार किए गए उत्पाद बेचती हैं। उनका बेटा उनके काम, प्रदर्शनियों और सभी सम्मेलनों में उनका साथ देता है।

रक्षा ढंड की कोई मजबूरी, पारिवारिक दबाव या आर्थिक समस्या नहीं थी, जिसके कारण उन्होंने ये ग्रुप बनाया और उत्पाद बेचने शुरू किए। यह रक्षा ढंड का जुनून था कि वे फुलकारी के इतिहास और कल्चर को लोगों के सामने पेश करे और खुद आत्मनिर्भर हो सके। उन्होंने हमेशा अपने ग्रुप मैंबरों को प्रेरित किया और कर्मचारियों की मदद से फुलकारी की तकनीकों से सुंदर और आकर्षक डिज़ाइनों का प्रयोग करते हुए फुलकारी सूट, दुपट्टा, शॉल, जैकेट और अन्य उत्पाद बनाए।

वर्तमान में, रक्षा ढंड अपने संपूर्ण परिवार पति, दो बेटों और बहू सहित खुश रह रही हैं। दो बेटों में से छोटा बेटा ऑस्ट्रेलिया रहता है और बड़ा-हर्ष ढंड कारोबार में अपनी मां की मदद करता है। अपने गेंदा सैल्फ हैल्प ग्रुप के तहत वे अन्य महिलाओं को भी फुलकारी की कला सिखाती हैं ताकि वे फुलकारी बना सकें और आत्मनिर्भर हो सकें। वे लुधियाना से कच्चा माल खरीदती हैं और कर्मचारियों को देती हैं, जो दिन, रात आकर्षक फुलकारी उत्पाद बनाते हैं। रक्षा ढंड मौके पर उनका भुगतान करती हैं। वे ग्राहकों को उत्पादों के लिए इंतज़ार नहीं करवाती क्योंकि उनके तहत काम कर रहे कर्मचारी सभी महिलाएं हैं जो अच्छे परिवारों में से हैं और अपनी आजीविका भी चलाती हैं। वे अपने अधीन काम कर रही महिलाओं की स्थिति को समझती हैं और इसीलिए हमेशा उनके काम की सही कीमत देती हैं।

भविष्य की योजना:
भविष्य में वे अपने कारोबार को ओर बड़ा करने की योजना बना रही हैं और अपने दस्तकारी का काम लोगों के लिए बड़े स्तर पर उपलब्ध करवाती हैं। हाल ही में उन्होंने इंडिया मार्ट से संपर्क किया है ताकि वे उनके साथ डील कर सके और अपने उत्पादों को वैबसाइट के माध्यम से बेच सके।

रक्षा ढंड द्वारा संदेश
“हर महिला को आत्मनिर्भर होना चाहिए और वही करना चाहिए जो उसे पसंद है क्योंकि यदि आप अपने भविष्य को बनाना चाहते हैं तो आपको कोई रोक नहीं सकता। मैं अपने समाज में महिलाओं का भविष्य बनाने की कोशिश कर रही हूं। यदि आप भी ऐसा करने में सक्षम है तो उन गरीब महिलाओं की मदद करने में एक कदम आगे बढाएं जो गरीब वर्ग से आती हैं और उन्हें सिखाएं कि कैसे वे अपने कौशल का उपयोग करें और आत्म निर्भर बन सकें।”

 

श्री कट्टा रामकृष्ण

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जानिये कैसे कट्टा रामकृष्ण ने उच्च घनत्व में रोपाई की तकनीक से कपास की खेती को और दिलचस्प बनाया

कट्टा रामकृष्ण आंध्र प्रदेश राज्य के प्रकाशम जिले में नागुलूप्पलडु के नज़दीक ओबन्न पलेम गांव के एक प्रगतिशील किसान हैं। उन्होंने वैज्ञानिकों के सुझाव अनुसार अपने कपास के खेत में उच्च घनत्व रोपाई तकनीक को सफलतापूर्वक लागू किया जिसके परिणामस्वरूप बेहतर उत्पादकता के साथ उच्च पैदावार प्राप्त की।

कट्टा रामकृष्ण की एक छोटे से क्षेत्र में अधिक पौधों को लगाने के लिए इस अभिनव पहल ने अंतत: उपज में वृद्धि की। इस कदम से उन्होंने 10 क्विंटल प्रति एकड़ का उत्पादन किया जिसने उन्हें भारतीय कृषि परिषद से राष्ट्रीय मान्यता प्राप्त करवाई और उन्हें 2013 में “बाबू जगजीवन राम अभिनव किसान पुरस्कार” से सम्मानित किया गया।

बाद में, जिला कृषि सलाहकार और ट्रांसफर ऑफ टेक्नोलोजी सेंटर के मार्गदर्शन से, कट्टा रामकृष्ण ने एक एकड़ में 12500 पौधे लगाए और इसे अपने 5 एकड़ प्लॉट में लागू किया और एक एकड़ से 22 क्विंटल उपज प्राप्त की।

“मेरे द्वारा निवेश की गई हर राशि के लिए, मुझे बदले में लाभ के बराबर राशि मिली”

— कट्टा रामकृष्ण ने गर्व से अपना पुरस्कार दिखाकर कहा जो उन्हें नई दिल्ली में केंद्रीय कृषि मंत्री राधा मोहन से प्राप्त किया।

“सामान्यत: एक किसान एक एकड़ में 8000 कपास के पौधे लगाता है और 10 से 15 क्विंटल उपज प्राप्त करता है लेकिन वे नहीं जानते कि पौधे की घनता में वृद्धि कपास की उपज में वृद्धि कर सकती है”

— डी ओ टी सेंटर के वरिष्ठ वैज्ञानिक वरप्रसाद राव ने कहा।

सफेद सोने की अच्छी उत्पादकता से उत्साहित होकर कट्टा रामकृष्ण ने कहा कि

– “आने वाले समय में मैं 16000 पौधे प्रति एकड़ में लगाकर 25 से 20 क्विंटल उपज प्राप्त कर सकता हूं।”

उपलब्धियां

• उन्हें विभिन्न राज्यों और राष्ट्रीय संगठनों द्वारा सम्मानित किया गया है।

• श्री रामकृष्ण ने कपास की सघन रोपाई अपनाई जिसमें 90 सैं.मी. x 30 सैं.मी. का फासला रखा (90 सैं.मी. x 45 सैं.मी. के स्थान पर), जिसके फलस्वरूप बारानी परिस्थितियों में अच्छी उपज (45.10 क्विंटल प्रति हैक्टेयर) प्राप्त हुई है।

• कपास के खेत में अधिकतम जल संरक्षण के लिए हाइड्रोजैल तकनीक कोअपनाया, जिसके फलस्वरूप उपज में 15 प्रतिशत की वृद्धि हुई।

• उन्होंने अपने खेतों में चना, उड़द, मूंग के प्रक्षेत्र परीक्षण लगाए, जिसके परिणामस्वरूप प्रकाशम जिले में किसानों के खेतों के लिए उपयुक्त प्रजातियों की पहचान करने में मदद मिली।

• चने की फसल में जैविक खादों जैसे राइजोबियम और फॉस्फोबैक्टीरिया का प्रयोग किया जिससे उपज में बढ़ोत्तरी हुई।

• वे खेती के लिए जैविक खादों और हरी खाद को पहल देते हैं।

• कीटों की नियंत्रण के लिए वे नीम के बीजों का प्रयोग करते हैं।

• उन्होंने सी.टी.आर.आई कंडुकर प्रकाशम जिले के सहयोग से तंबाकू के व्यर्थ पदार्थ को अपने खेतों में खाद के रूप में प्रयोग करके नई तकनीक विकसित की।

• उन्होंने सीड कम फर्टिलाइजर को मॉडीफाई किया, ताकि बीज और खाद को मिट्टी की विभिन्न गहराई पर एक समय में बोया जा सके। यह मॉडीफाइड सीड कम फर्टीलाइज़र ड्रिल स्थानीय किसानों के लिए सभी प्रकार की दालों की बिजाई के लिए उपयुक्त है।

• उनके द्वारा तैयार की गई आविष्कारी तकनीकें और संशोधित पैकेज प्रैक्टिसिज़ स्थानीय भाषाओं में प्रकाशित हैं। इसके अलावा, उनके फार्म पर होने वाले अनुभवों की अलग अलग रेडियो और सार्वजनिक मीटिंगों में चर्चा की जाती है।

• वे अपने क्षेत्र में दूसरे किसानों के लिए आदर्श मॉडल और प्रेरणा बन गए हैं।

संदेश
“फसल के बेहतर विकास के लिए किसानों को मिट्टी में सूक्ष्म पोषक तत्वों का प्रबंधन करने के लिए विशेषज्ञों से अपने खेत की मिट्टी का परीक्षण करवाना चाहिए और इसी तरीके से वे कम रसायनों और कीटनाशकों का उपयोग करके कीट प्रबंधन के सर्वोत्तम परिणाम प्राप्त कर सकते हैं।”

 

कुनाल गहलोट

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जानें कैसे एक ग्रामीण किसान सब्जियों की विविध खेती से लाखों कमा रहा है

जैसे कि हम जानते हैं कि समय सभी के लिए एक सीमित वस्तु है, और कड़ी मेहनत से किसी व्यक्ति को करोड़पति प्रतियोगियों से मुकाबला करने में मदद नहीं मिलेगी क्योंकि यदि कड़ी मेहनत करके भाग्य प्राप्त करना संभव है तो आज के किसान इस देश के सबसे बड़े करोड़पति होंगे।

जो चीज़ आपके काम को अधिक प्रभावकारी और उत्पादक बनाती है वह है होशियारी। यह कहानी है दिल्ली के बाहरी गांव – टिगी पुर के एक साधारण किसान की, जो कि खेतीबाड़ी की आधुनिक तकनीक से सब्जियों की खेती में लाखों कमा रहे हैं। ऐसा नहीं है कि उनके पास कोई उच्च तकनीक वाली मशीनरी या उपकरण है या वे खाद की जगह सोने का प्रयोग करते हैं, यह सिर्फ उनका बुद्धिमत्तापूर्ण नज़रिया है जो वे अपने खेतों में लागू कर रहे हैं।

कुनाल गहलोट द्वारा अपनाई गई तकनीक….

कुनाल गहलोट 2004 से फसल विवधीकरण और खेती विविधीकरण से जुड़े हुए हैं, जिसके परिणामस्वरूप 10 वर्षों में उनके खेत की आमदन में 500 प्रतिशत की वृद्धि हुई है। जी हां, आप सही पढ़ रहे हैं! 2004 में उनके खेत की आय 5 लाख थी और 2015 में यह 3500000 लाख हो गई।

6 अंको की आय को 7 अंको में बदलना सिर्फ कुनाल गहलोट के लिए ही संभव था क्योंकि वे नई और आधुनिक तकनीकों को लागू करते हैं। अन्य किसानों के विपरीत उन्होंने फसलों, पौधों और बागबानी उत्पादों जैसे मशरूम की खेती और सब्जी की गहन खेती के उत्पादन में वैज्ञानिक तकनीकों को अपनाया। इस पहल से, उन्होंने सिर्फ 4 महीनों में 3.60 लाख प्रति हेक्टेयर अर्जित किया।

कैसे मार्किटिंग ने उनकी खेतीबाड़ी को अगले स्तर तक पहुंचाया….

मंडी की मांगों के मुताबिक,कृषि उत्पादों की बिक्री में बढ़ोतरी हुई और कई नए प्रभावी लिंक मंडीकरण के लिए बनाए गए, जिससे कुनाल गहलोट को जरूरतों के मुताबिक संभावित बाजारों की पहचान करने में मदद मिली।

कृषि उत्पाद की उत्पादकता बढ़ाने के लिए उन्होंने बड़े पैमाने पर वर्मीकंपोस्ट प्लांट की स्थापना की और बेहतर खेती और कटाई प्रक्रिया के लिए खेत में मशीनों का इस्तेमाल किया। वर्तमान में वे गेहूं (HD-2967 and PB-1509), धान, मूली, पालक, सरसों, शलगम, फूल गोभी, टमाटर, गाजर आदि उगा रहे हैंऔर इसके साथ ही वे सब्जी के बीजों को भी तैयार करते हैं। ये थी कुनाल गहलोट की कुछ उपलब्धियां उल्लेख करने के लिए।

उन्होंने खीरे की खेती, बंद गोभी की रोपाई, गेंदे का मूली के साथ अंतरीफसली में भी सुधार किया।

अपने काम के लिए, उन्हें विभिन्न सरकारी और गैर सरकारी संगठनों से कई पुरस्कार और मान्यता मिली है। वे हमेशा अपने क्षेत्र के साथी किसानों के बीच अपने ज्ञान और आविष्कारों को सांझा करने की कोशिश करते हैं और कृषि क्षेत्र के सुधार में भी योगदान करते हैं।

खैर, अच्छी तरह से किया गया होशियारी वाला काम एक आदमी को कहीं भी ले जा सकता है। यह उसके ऊपर है कि वह किस दिशा में जाना चाहता है। यदि आप कृषि विविधीकरण या सब्जियों की गहन खेती करना चाहते हैं तो ‘अपनी खेती’ मोबाइल एप डाउनलोड करें और स्वंय को खेतीबाड़ी की सभी आधुनिक तकनीकों से अपडेट रखें और इसे लागू करें।

अशोक वशिष्ट

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मशरूम की जैविक खेती और मशरूम के उत्पादों से पैसा बनाने वाले एक किसान की उत्साहजनक कहानी

बढ़ती आबादी की मांग को पूरा करने के लिए कृषि का विज्ञान परिष्कृत और अधिक समय तक सिद्ध हुआ है और उन्नति के साथ कृषि की तकनीकों में भी बदलाव आया है। वर्तमान में ज्यादातर किसान अपनी फसलों के ज्यादा उत्पादन के लिए परंपरागत / औद्योगिक कृषि तकनीकों, रासायनिक खादों, कीटनाशकों, जी एम ओ और अन्य औद्योगिक उत्पादों पर आधारित हैं। इनमें से कुछ ही किसान रसायनों का प्रयोग किए बिना खेती करते हैं। आज हम आपकी ऐसी शख्सीयत से पहचान करवाएंगे जो पहले परंपरागत खेती करते थे लेकिन बाद में कुदरती खेती के तरीकों के लाभ जानकर, उन्होंने कुदरती खेती के ढंगो से खेती करनी शुरू की।

अशोक वशिष्ट हरियाणा गांव के साधारण किसान हैं जिन्होंने परंपरागत खेती तकनीकों को उपयोग करने की रूढ़ी सोच को छोड़कर, मशरूम की खेती के लिए जैविक ढंगो का उपयोग करना शुरू किया। मशरूम के रिसर्च सेंटर के दौरे के बाद अशोक वशिष्ट को कुदरती ढंग से मशरूम की खेती करने की प्रेरणा मिली, जहां उन्हें मुख्य वैज्ञानिक डॉ. अजय सिंह यादव ने मशरूम के फायदेमंद गुणों से अवगत कराया और इसकी खेती शुरू करने के लिए प्रेरित किया।

शुरूआत में जब उन्होंने मशरूम की खेती शुरू की, तब वैज्ञानिक अजय सिंह यादव के अलावा उन्हें खेती के लिए प्रोत्साहन और सहायता करने वाली उनकी पत्नी थी। उनके परिवार के अन्य छ: सदस्यों ने भी उनकी मदद की और उनका साथ दिया।

अशोक वशिष्ट मशरूम की खेती करने के लिए महत्तवपूर्ण तीन कार्य करते हैं:

पहला कार्य: पहले वे धान की पराली, गेहूं की पराली, बाजरे की पराली आदि का उपयोग करके खाद तैयार करते हैं। वे पराली को 3 से 4 सैं.मी. काट लेते हैं और उसे पानी में भिगो देते हैं।

दूसरा  कार्य: वे घर में खाद तैयार करने के लिए पराली को 28 दिनों के लिए छोड़ देते हैं।

तीसरा कार्य: जब खाद तैयार हो जाती है, तब उनमें मशरूम के बीजों को बोया जाता है जो विशेषकर लैब में तैयार होते हैं।

मशरूम की खेती करने के लिए वे हमेशा ये तीन कार्य करते हैं और मशरूम की खेती के इलावा वे अपने खेत में गेहूं और धान की भी खेती करते हैं। योग्यता से वे सिर्फ 10वीं पास है लेकिन इस चीज़ ने उन्हें नई चीज़ों को सीखने और तलाशने में कभी भी उजागर नहीं किया। अपनी नई सोच और उत्साह के साथ वे मशरूम से अलग उत्पाद बनाने की कोशिश करते हैं और अब तक उन्होंने शहद का मुरब्बा, मशरूम का आचार, मशरूम का मुरब्बा, मशरूम की भुजिया, मशरूम के बिस्कुट, मशरूम की जलेबी और लड्डू जैसे उत्पाद बनाये हैं। उन्होंने हमेशा विभिन्न उत्पाद बनाने के लिए एक बात का ध्यान रखा है वह है सेहत। इसीलिए वे मीठे व्यंजनों को मीठा बनाने के लिए स्टीविया पौधे की प्रजातियों से तैयार स्टीविया पाउडर का प्रयोग करते हैं। स्टीविया सेहत के लिए एक अच्छा मीठा पदार्थ होता है और इसमें पोषक तत्व भी होते हैं, शूगर के मरीज़ बिना किसी चिंता के स्टीविया युक्त मीठे उत्पादों का प्रयोग कर सकते हैं।

अशोक वशिष्ट की यात्रा बहुत छोटे स्तर से, लगभग शून्य से ही शुरू हुई और आज उन्होंने अपनी कड़ी मेहनत से अपना खुद का व्यवसाय स्थापित किया है जहां वे FSSAI द्वारा पारित घरेलू उत्पादों को बेचते हैं। महर्षि वशिष्ट मशरूम वह ब्रांड नाम है जिसके तहत वे अपने उत्पादों को बेच रहे हैं और कई विशेषज्ञ, अधिकारी, नेताओं और मीडिया उनके आविष्कार किए तरीकों और मशरूम की खेती के पीछे के विचार और स्वादिष्ट मशरूम उत्पादों के लिए समय-समय पर उनके फार्म पर जाते रहते हैं।

महर्षि वशिष्ट की उपलब्धियां इस प्रकार हैं:

• HAIC Agro Research and Development Centre की तरफ से मशरूम प्रोडक्शन टेक्नोलॉजी ट्रेनिंग प्रोग्राम के लिए र्स्टीफिकेट मिला।

• चौधरी चरण सिंह हरियाणा एग्रीकल्चर यूनिवर्सिटी हिसार की तरफ से ट्रेनिंग र्स्टीफिकेट मिला।

• 2nd Agri Leadership Summit 2017 का पुरस्कार और र्स्टीफिकेट मिला।

• आमना तरनीम, DC जींद की तरफ से प्रशंसा पुरस्कार मिला।

मशरुम का बीज:
हाल ही में अशोक जी ने मशरूम का बीज तैयार किया है, जिसे स्पान की जगह पर इस्तेमाल किया जा सकता है और ऐसा करने वाले वह देश के पहले किसान है।

खैर, अशोक वशिष्ट के बारे में उल्लेख करने के लिए ये सिर्फ कुछ पुरस्कार और उपलब्धियां ही हैं। यहां तक कि उनकी भैंस ने 23 किलो दूध देकर प्रतियोगिता जीती, जिससे उन्हें 21 हज़ार रूपये का नकद पुरस्कार मिला। उनके पास 4.5 एकड़ ज़मीन है और 6 मुर्रा भैंस हैं, जिनमें से वे सबसे अच्छी कमाई और लाभ कमाने की कोशिश करते हैं। वे विभिन्न प्रदर्शनियों और इवेंट्स में भी जाते हैं जो उनके उत्पादों को दिखाने और उनके खेती तकनीक के बारे में जागरूक करवाने में उनकी मदद करते हैं। अपनी कड़ी मेहनत और जुनून के साथ वे भविष्य में निश्चित ही खेती की क्षेत्र में अधिक सफलताएं और प्रशंसा प्राप्त करेंगे।

अशोक वशिष्ट का किसानों के लिए एक विशेष संदेश
मशरूम बेहद पौष्टिक और मानव स्वास्थ्य के लिए फायदेमंद होते हैं। मैंने कुदरती तरीके से मशरूम की खेती करके बहुत लाभ कमाया है। जैसे कि हम जानते हैं कि भविष्य में खाद्य उत्पाद तैयार करना एक बहुत बड़ी बात होगी, इसलिए इस अवसर का लाभ उठाएं। आने वाले समय में, मैं अपने मशरूम की खेती का विस्तार करने की योजना बना रहा हूं ताकि इनसे तैयार उत्पादों को बेचने के लिए भारी मात्रा में उत्पादों को उत्पादन किया जा सके। अन्य किसानों के लिए मेरा संदेश यह है कि उन्हें भी मशरूम की खेती करनी चाहिए और बाज़ार में मशरूम से बने विभिन्न उत्पाद बेचने चाहिए। भूमिहीन किसान भी मशरूम की खेती से बड़ी कमाई कर सकते हैं और उन्हें खेती के लिए इस क्षेत्र का चयन करना चाहिए।

गुरजतिंदर सिंह विर्क

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एक ऐसे व्यक्ति की कहानी जिसने मज़बूरी में मछली पालन शुरू किया, लेकिन आज वह दूसरे किसानो के लिए एक मिसाल बन चुके हैं

कभी किसी ने सोचा भी नहीं होगा कि जो ज़मीन पिछले 100 वर्षों से खाली पड़ी थी, वह आज उपजाऊ और उपयोगी होगी। इसके पीछे का कारण है कि किसी ने वहां कुछ भी करने की कोशिश नहीं की क्योंकि वहां साल के 11 महीने पानी खड़ा रहता था, लेकिन हर आने वाली नई पीढ़ी के साथ नई सोच आती है। हम सभी जानते हैं कि हमारे आस-पास और वातावरण में थोड़ा बदलाव करने के लिए एक बड़ी कोशिश की आवश्यकता होती है। यह कोशिश सिर्फ केवल मजबूत इच्छाशक्ति और जुनून के साथ प्रयोग में आ सकती है और इस तरह एक अलग नज़रिए, बुद्धि और उत्साह के साथ अपनी मातृ भूमि और अपने समुदाय के लिए कुछ करने के लिए गुरजतिंदर सिंह विर्क आए।

गुरजतिंदर सिंह विर्क गांव कंडोला, जिला रूपनगर के रहने वाले हैं, उन्होंने वर्ष 1985 में 5 एकड़ की जल जमाव वाली ज़मीन पर मछली पालन का काम शुरू किया, यह ज़मीन उन्हें पैतिृक संपत्ति से मिली थी। चूंकि उनके पास कोई विकल्प नहीं था, इसलिए उन्होंने गुरदासपुर का दौरा किया और वहां से 5 दिन की ट्रेनिंग लेकर मछली पालन का काम शुरू कर दिया। उन्होंने तकरीबन 30 साल पहले मछली पालन का काम शुरू किया और अब तक अपनी मेहनत और लगन से इस कार्य को 5 एकड़ से 30 एकड़ तक फैलाया है। मछली पालन के इस कार्य की दिशा में उनके इस क्रांतिकारी कदम ने कई अन्य किसानों को प्रेरित किया और अंतत: इससे कई अनुकूल प्रभाव दिखे जिन्होंने एक बंजर भूमि को मछली पालन के क्षेत्र में विकसित किया। उसी क्षेत्र में आज लगभग 300-400 एकड़ बंजर भूमि को मछली पालन के लिए उपयोग किया जाता है।

यह सब काफी वर्ष पहले एक बंजर ज़मीन और एक इंसान की मेहनत द्वारा शुरू हुआ और आज इससे काफी लोग प्रेरित हैं। आखिरकार यह छोटा कदम किसानों और कई अन्य इलाकों की जीविका को सुधारने में मदद कर रहा है ताकि उनके जीवन स्तर को उन्नत किया जा सके। अब उस क्षेत्र में आवेशपूर्ण मछली पकड़ने वाले किसानों का एक समुदाय बनाया गया है और इनके प्रयासों से अंतत: उस क्षेत्र का आर्थिक विकास हो रहा है जो राज्य और राष्ट्र के आर्थिक विकास को जोड़ रहा है।

अब विर्क जी की खेती पद्धति और आर्थिक प्रगति पर आते हैं। गुरजतिंदर सिंह विर्क के फार्म पर सामान्य कार्प मछलियां जैसे कतला और रोहू की किस्में हैं। एक एकड़ तालाब के लिए 2000 मछली के बच्चों की आवश्यकता होती है, इसीलिए वे 2000 मछली के बच्चों को पानी में छोड़ते हैं। मछलियों की वृद्धि, पानी की गुणवत्ता, आहार की गुणवत्ता और पानी में मौजूद शिकारियों के आधार पर निर्भर होती है। आमतौर पर वे तालाब में मछली की दो किस्मों को डालते हैं और उनकी अच्छी पैदावार के लिए उचित हालात बनाकर रखते हैं। वे मछलियों को 80 रू प्रति किलो के हिसाब से बेचते हैं जबकि बाज़ार में वह मछली 120 रू प्रति किलो के हिसाब से बिकती है और कम कीमतों पर मछलियों को बेचने के बावजूद भी वे लाखों कमा रहे हैं और पर्याप्त लाभ कमा रहे हैं।

गुरजतिंदर सिंह विर्क ने वातावरण के संरक्षण के लिए काफी कदम उठाए हैं, उनमें से एक महत्तवपूर्ण कार्य यह है कि उन्होंने अपने रसोई उद्यान की सिंचाई और तालाब को भरने के लिए सौर पंप सेटों का उपयोग करके कार्बन को कम किया है। श्री विर्क द्वारा किए गए अच्छे कार्य के लिए उन्हें कई पुरस्कार और उपलब्धियां मिली हैं। जिनमें से कुछ निम्नलिखित हैं।

उन्हें Agriculture Technology Management के लिए जिला स्तरीय पुरस्कार मिला है और सर्वोत्तम कृषि प्रणाली के लिए उन्हें Roopnagar Administration द्वारा प्रशंसा पत्र मिला है। उन्हें क्षेत्र को विकसित करने के लिए Zee Networks द्वारा पुरस्कृत भी किया गया। 2011 में उन्हें Best Citizen India Award से नवाज़ा गया। उसके बाद उन्हें Bharat Jyoti Award और Fish Farmer Award भी मिला।

खेती के क्षेत्र में उनके अच्छे काम से उन्हें कई प्रतिष्ठित समितियों और समाज में मैंबरशिप मिली। आज वे Advisory Committee (ATMA) और Board of Management at GADVASU के मैंबर हैं। वे किसान विकास चैंबर के 11 मैंबरों की सूचि में भी शामिल हैं जिन्होंने भारत की मुख्य उद्योग संघ को स्थापित किया जैसे CII, FICCI और ASSOCHAM और इस संघ का कार्य, राज्य की बिगड़ती कृषि अर्थव्यवस्था को अपग्रेड करना और खेती से संबंधित तकनीकों का प्रयोग करना जो किसान पहले से ही प्रयोग कर रहे थे। वे रूपनगर और मोहाली जिलों के लिए NABARD के तहत गांव Cooperative Society की तरफ से (वन विभाग) में भूतपूर्व वार्डन भी थे।

गुरजतिंदर सिंह विर्क द्वारा लिया गया एक महत्तवपूर्ण कदम था कि भूतपूर्व मंत्री प्रकाश सिंह बादल के साथ देखे गए चीन में मछली पालन के ढंग के बारे में ओर जानने के लिए चीने के मछली पालन के तरीके को अपनाया।

उनकी इन उपलब्धियों के इलावा उन्होंने हरियाली से भरी एक सुंदर जगह बनाने में बहुत मेहनत की है। उन्होंने तालाब के मध्य में अपना घर बनाया है और उस भूमि के टुकड़े पर जहां उनका घर है, उन्होंने सभी प्रकार की सब्जियां और फलों को विकसित किया है। उनके खेत में आडू, बादाम, किन्नू, मैड्रिन, आम, अनार, सेब, अनानास और 17 से अधिक सब्जियां और दालें हैं। उन्होंने अपने घर के आस-पास की ज़मीन को इस तरह विकसित किया है कि बाज़, किंगफिशर, fork tail, geese, तोते और मोर की कई दुर्लभ और आम प्रजातियां को उनके फार्म पर चहचहाते हुए आसानी से देखा जा सकता है। संक्षेप में उनके अपने देश के विकास कार्यों ने पक्षियों की विभिन्न प्रजातियों की एक विविधता बनाई है।

आज वे जो कुछ भी हैं उसके पीछे उनकी प्रेरणा और साथी उनकी पत्नी रूपिंदर कौर विर्क हैं जिन्होने ज़िंदगी के हर कदम पर उनका साथ दिया और उनके प्रत्येक काम में उनकी मदद की। वे उनकी ज़िंदगी में एक पेशेवर भूमिका भी निभाती हैं और उनके फार्म के सभी लेखों का रिकार्ड बनाकर रखती हैं। खाली समय में वे अपने खेत में उगाए फलों का बेचने के उद्देश्य से आचार और कैडिज़ बनाना पसंद करती हैं। गुरजतिंदर सिंह विर्क अपनी पत्नी और सिर्फ दो नौकरों की सहायता से फार्म के सभी कार्यों को संभालते हैं और भविष्य के विकास के लिए वे अपने फार्म को पर्यटन स्थल बनाने की योजना पर काम कर रहे हैं।

चीन की यात्रा के बाद गुरजतिंदर सिंह विर्क ने निष्कर्ष निकाला कि बेहतर तकनीकों का उपयोग करके बेहतर उत्पादन प्राप्त किया जा सकता है इसलिए वे चाहते हैं कि किसान बेहतर उत्पादन के लिए नई तकनीकों को अपनायें। उन्होंने ये भी कहा कि उनके गांव में 24 घंटे बिजली नहीं रहती जिसके कारण खेती का उत्पादन कम होता है और भविष्य में, यदि उन्हें 24 घंटे बिजली सुविधा उपलब्ध की जाती है तो वे खेती क्षेत्र में बेहतर परिणाम दे सकते हैं। वे सोचते हैं कि कड़ी मेहतन से आप ज़मीन के किसी भी टुकड़े से कुछ भी प्राप्त कर सकते हैं, अंतर बस फल और सब्जी के आकार में होगा।

स. राजमोहन सिंह कालेका

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एक व्यक्ति की कहानी जिसे पंजाब में विष रहित फसल उगाने के लिए जाना जाता है

एक कृषक परिवार में जन्मे, सरदार राजमोहन सिंह कालेका गांव बिशनपुर, पटियाला के एक सफल प्रगतिशील किसान हैं। किसी भी तरह के रसायनों और कीटनाशकों का उपयोग किए बिना वे 20 एकड़ की भूमि पर गेहूं और धान का उत्पादन करते हैं और इससे अच्छी उत्पादकता (35 क्विंटल धान और गेहूं 22 क्विंटल प्रति एकड़) प्राप्त कर रहे हैं।

वे पराली जलाने के विरूद्ध हैं और कभी भी फसल के बचे कुचे (पराली) को नहीं जलाते। उनके विष रहित खेती और पर्यावरण के अनुकूल कृषि पद्धतियों के ढंग ने उन्हें पंजाब के अन्य किसानों के रॉल मॉडल के रूप में मान्यता दी है।

इसके अलावा वे जिला पटियाला की प्रोडक्शन कमेटी के सदस्य भी हैं। वे हमेशा प्रगतिशील किसानों, वैज्ञानिकों, अधिकारियों और कृषि के माहिरों से जुड़े रहते हैं यह एक बड़ी प्राप्ति है जो उन्होंने हासिल की है। कई कृषि वैज्ञानिक और अधिकारी अक्सर उनके फार्म में रिसर्च और अन्वेषण के लिए आते हैं।

अपनी नौकरी और कृषि के साथ वे सक्रिय रूप से डेयरी फार्मिंग में भी शामिल है, उन्होंने साहिवाल नसल की कुछ गायों को रखा है इसके अलावा उन्होंने अपने खेत में बायो गैस प्लांट भी स्थापित किया है उनके अनुसार वे आज जहां तक पहुंचे हैं, उसके पीछे का कारण सिर्फ KVK और IARI के कृषि माहिरों द्वारा दिए गए परामर्श हैं।

अपने अतिरिक्त समय में, राजमोहन सिंह को कृषि से संबंधित किताबे पढ़ना पसंद है क्योंकि इससे उन्हें कुदरती खेती करने के लिए प्रोत्साहन मिलता है।

उनके पुरस्कार और उपलब्धियां…

उनके अच्छे काम और विष रहित खेतीबाड़ी करने की पहल के लिए उन्हें कई प्रसिद्ध लोगों से सम्मान और पुरस्कार मिले हैं:

• राज्य स्तरीय पुरस्कार

• राष्ट्रीय पुरस्कार

• पंजाब खेतीबाड़ी यूनिवर्सिटी, लुधियाना से धालीवाल पुरस्कार

• उन्हें माननीय सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीश द्वारा सम्मानित किया गया।

• उन्हें पंजाब और हरियाणा के राज्यपाल द्वारा सम्मानित किया गया।

• उन्हें कृषि मंत्री द्वारा सम्मानित किया गया।

श्री राजमोहन ने ना सिर्फ पुरस्कार प्राप्त किए, बल्कि विभिन्न सरकारी अधिकारियों से विशेष रूप से प्रशंसा पत्र भी प्राप्त किए हैं जो उन्हें गर्व महसूस करवाते हैं।

• मुख्य संसदीय सचिव, कृषि, पंजाब

• कृषि पंजाब के निदेशक

• डिप्टी कमिशनर पटियाला

• मुख्य कृषि अधिकारी, पटियाला

• मुख्य निदेशक, IARI

संदेश
“किसानों को विष रहित खेती करने की ओर कदम उठाने चाहिए क्योंकि यह बेहतर जीवन बनाए रखने का एकमात्र तरीका है। आज, किसान को वर्तमान ज़रूरतों को समझना चाहिए और अपनी मौद्रिक जरूरतों को पूरा करने की बजाये कृषि करने के सार्थक और टिकाऊ तरीके ढूंढने चाहिए।”

 

मोहिंदर सिंह गरेवाल

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एक ऐसे इंसान की कहानी जिसने कृषि विज्ञान में महारत हासिल की और खेती विभिन्नता के क्षेत्र में अपने कौशल दिखाए

हर कोई सोच सकता है और सपने देख सकता है, पर ऐसे लोग बहुत कम होते हैं, जो अपनी सोच पर खड़े रहते हैं और पूरी लग्न के साथ उसे पूरा करते हैं। ऐसे ही दृढ़ संकल्प वाले एक जल सेना के फौजी ने अपना पेशा बदलकर खेतीबाड़ी की तरफ आने का फैसला किया। उस इंसान के दिमाग में बहु उदेशी खेती का ख्याल आया और अपनी मेहनत और जोश से आज विश्व भर में वह किसान पूरे खेतीबाड़ी के क्षेत्र में बहुत प्रसिद्ध है।

मोहिंदर सिंह गरेवाल पंजाब एग्रीकल्चरल यूनिवर्सिटी के पहले सलाहकार किसान के तौर पर चुने गए, जिनके पास 42 अलग अलग तरह की फसलें उगाने का 53 वर्ष का तर्ज़ुबा है। उन्होंने इज़रायल जैसे देशों से हाइब्रिड बीज उत्पादन और खेती की आधुनिक तकनीकों की सिखलाई हासिल की। अब तक वे खेतीबाड़ी के क्षेत्र में अपने काम के लिए 5 अंतरराष्ट्रीय, 7 राष्ट्रीय और 16 राज्य स्तरीय पुरस्कार जीत चुके हैं।

स. गरेवाल जी का जन्म 1 दिसंबर 1937 में लायलपुर, जो अब पाकिस्तान में है, में हुआ। उनके पिता का नाम अर्जन सिंह और माता का नाम जागीर कौर है। यदि हम मोहिंदर सिंह गरेवाल की पूरी ज़िंदगी देखें तो उनकी पूरी ज़िंदगी संघर्षों से भरी थी और उन्होंने हर संघर्ष और मुश्किल को चुनौती के रूप में समझा। पूरी लग्न और मेहनत से उन्होंने अपने और अपने परिवार के सपने पूरे किये।

अपने स्कूल और कॉलेज के दिनों में, मोहिंदर सिंह गरेवाल बड़े उत्साह से फुटबॉल खेलते थे और बहुत सारे स्कूलों की टीमों के कप्तान भी रहे। वे एक अच्छे एथलीट भी थे, जिस कारण उन्हें भारतीय जल सेना में पक्के तौर पर नौकरी मिल गई। 1962 में INS नाम के समुंद्री जहाज पर मोहिंदर सिंह गरेवाल काले पानी अंडेमान निकोबार द्वीप समूह, मलेशिया, सिंगापुर और इंडोनेशिया की यात्रा की। इंडोनेशिया में मैच खेलते समय उनके दायीं जांघ पर गंभीर चोट लगी। इस चोट और परिवार के दबाव के कारण उन्होंने 1963 में भारतीय जल सेना की नौकरी छोड़ दी। इसके बाद कुछ देर के लिए उनकी ज़िंदगी में ठहराव आ गया।

नौकरी छोड़ने के बाद उनके पास अपने विरासती व्यवसाय खेतीबाड़ी के अलावा कोई ओर अन्य विकल्प नहीं था। उन्होंने शुरूआती 4 वर्षों में गेहूं और मक्की की खेती की। मोहिंदर सिंह जी ने अपनी पत्नी जसबीर कौर के साथ मिलकर खेतीबाड़ी में सफलता हासिल करने के लिए एक ठोस योजना बनाई और आज वे अपनी खेती क्रियाओं के कारण विश्व भर में प्रसिद्ध इंसान हैं। हालांकि उनके पास 12 एकड़ का एक छोटा सा खेत है, पर फसल चक्र के प्रयोग से वे इससे अधिक लाभ ले रहे हैं। मोहिंदर सिंह गरेवाल जी अपने खेतों में लगभग 42 तरह की फसलें उगाने में सक्षम हैं और अच्छी क्वालिटी की पैदावार प्राप्त कर रहे हैं। उनके कौशल अकेले पंजाब में ही नहीं बल्कि पूरे भारत में जाने जाते हैं।

बहुत सारी जानी पहचानी कमेटियों और कौंसल के साथ काम करके मोहिंदर सिंह गरेवाल जी के काम को और अधिक प्रसिद्धि मिली। राज्य स्तर पर उन्हें गवर्निंग बोर्ड के मैंबर, पंजाब राज्य बीज सर्टीफिकेशन अथॉरिटी, पी ए यू पब्लीकेशन कमेटी और पी ए यू फार्मज़ एडवाइज़री कमेटी के तौर पर काम किया। राष्ट्रीय स्तर पर उन्होंने कमिश्न फॉर एग्रीकल्चर कॉस्ट एंड पराइसिस के मैंबर, भारत सरकार, सीड एक्ट सब-कमेटी के मैंबर, भारत सरकार एडवाइज़री कमेटी के मैंबर, प्रसार भारतीय, जालंधर, पंजाब और इंडियन इंस्टीट्यूट ऑफ शूगरकेन रिसर्च लखनउ के मैंबर के तौर पर काम किया।

इस समय वे एग्रीकल्चर और हॉर्टीकल्चर कमेटी, पी ए यू, गवर्निंग बोर्ड, एग्रीकल्चर टैक्नोलोजी मैनेजमैंट एजंसी के मैंबर हैं। वे पंजाब फार्मरज़ कल्ब, पी ए यू के संस्थापक और चार्टर प्रधान भी हैं।

खेती के क्षेत्र में उनके काम के लिए उन्हें इंगलैंड, मैक्सिको, इथियोपिया और थाइलैंड जैसे देशों के द्वारा सम्मानित किया गया और वे अलग अलग स्तर पर 75 से ज्यादा पुरस्कार जीत चुके हैं। उन्हें 1996 में ऑटोबायोग्राफिकल इंस्टीट्यूट, यू एस ए की तरफ से मैन ऑफ द ईयर पुरस्कार के साथ और 15 अगस्त 1999 को श्री गुरू गोबिंद सिंह स्टेडियम, जालंधर में माननीय गवर्नर एस एस राय द्वारा गोल्ड मैडल और लोई से सम्मानित किया। उन्हें पश्चिमी पंजाब के लोगों को खेती में से ज्यादा लाभ लेने और पाकिस्तान में एग्रीकल्चर्ल यूनिवर्सिटी के कर्मचारियों को फसली विभिन्नता के बारे में सिखाने के लिए फार्मरज़ इंस्टीट्यूट, पाकिस्तान की तरफ से दो बार निमंत्रण भेजा गया। उनकी ज्यादा ज़िंदगी यात्रा में ही गुज़री और वे बहुत सारे देशों जैसे कि यू एस ए, कैनेडा, मैक्सिको, थाइलैंड, इंगलैंड और पाकिस्तान में वैज्ञानिक किसान और प्रतीनिधि मैंबर के तौर पर गये और जब भी वे गये उन्होंने स्थानीय किसानों को टैक्नीकल जानकारी दी।

स. मोहिंदर सिंह गरेवाल एक बढ़िया लेखक भी हैं और उन्होंने खेतीबाड़ी की सफलता की कुंजी, तेरे बगैर ज़िंदगी कविताएं, रंग ज़िंदगी के स्वै जीवनी, ज़िंदगी एक दरिया और सक्सेसफुल साइंटिफिक फार्मिंग आदि शीर्षक के अधीन पांच किताबें लिखीं। उनके लेखन विदेशी अखबारों, नैशनल डेली, राज्य स्तरीय अखबार, खेतीबाड़ी मैगनीज़ और रोटरी मैगनीज़ आदि में छप चुकी हैं। उन्होंने मुफ्त आंखों का चैकअप कैंप, रोड सेफ्टी, खून दान कैंप, वृक्ष लगाओ, फील्ड डेज़ और मिट्टी टैस्ट जैसे प्रोजैक्टों का हिस्सा बनकर उन्होंने समाज सेवा में भी अपना हिस्सा डाला।

खेतीबाड़ी के क्षेत्र में मोहिंदर सिंह गरेवाल जी ने बहुत सफलता हासिल की और खेती के लिए ऊंचे मियार बनाये। उनकी प्राप्तियां अन्य किसानों के लिए जानकारी और प्रेरणा का स्त्रोत हैं।

राजवीर सिंह

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करनाल के एक छोटे डेयरी फार्म की सफलता की कहानी जो प्रतिदिन 800 लीटर दूध का उत्पादन करते हैं

यह राजवीर सिंह के डेयरी फार्म की उपलब्धियों और उनकी सफलता की कहानी है। करनाल जिले (हरियाणा) के एक छोटे से गांव से होने के कारण राजवीर सिंह ने कभी सोचा नहीं कि उनकी एच.एफ नस्ल की गाय लक्ष्मी को उच्च दूध उत्पादन के लिए राष्ट्रीय पुरस्कार से सम्मानित किया जाएगा।

राजवीर सिंह की लक्ष्मी गाय होल्स्टीन फ्रिसियन नस्ल की है जिस के दूध उत्पादन की क्षमता प्रति दिन 60 लीटर है जो अन्य एच.एफ नस्ल की गायों की तुलना में अधिक है। लक्ष्मी ने न केवल अपने उच्च दूध उत्पादन क्षमता के लिए पुरस्कार जीते हैं, बल्कि राष्ट्रीय स्तर पर कई पशु मेलों में अपनी सुंदरता के लिए भी पुरस्कार प्राप्त किए हैं। वह पंजाब नेशनल डेयरी फार्मिंग समारोह में एक ब्यूट चैंपियन रही है।

खैर, श्री राजवीर के फार्म पर लक्ष्मी सिर्फ एक उच्च दूध उत्पादक गाय है। उनके फार्म में कुल मिलाकर 75 पशु हैं, जिनसे राजवीर सिंह वार्षिक लगभग 15 लाख का लाभ कमा रहे हैं। उनका पूरा फार्म 1.5 एकड़ भूमि में बनाया गया है और विस्तारित किया गया है, जिस में आप 60 एच.एफ गाय, 10 जर्सी गाय, 5 साहीवाल गाय के अद्भुत दृश्य देख सकते है।

राजवीर सिंह के डेयरी फार्म पर दूध उत्पादन की कुल क्षमता 800 लीटर प्रति दिन की है। जिनमें से वे कुछ दूध बाजार में बेचते हैं और शेष अमूल डेयरी को बेचते हैं । उन्हें 8 साल हो गए है डेयरी फार्मिंग में सक्रिय रूप से शामिल हुए और अपने सभी प्रयासों और विशेषज्ञता के साथ वह अपनी गायों का ख्याल रखने की कोशिश करते है।

कोई भी कीमत राजवीर सिंह और उनकी गायों के बंधन को कमज़ोर नहीं बना सकती…

राजवीर सिंह अपनी गायें और डेयरी काम से बहुत जुड़े हुए है। एक बार उन्होंने बैंगलोर से आए एक बड़े व्यवसायी को 5 लाख रुपये में अपनी गाय लक्ष्मी बेचने से इनकार कर दिया। व्यवसायी ने गाय खरीदने के लिए राजवीर सिंह के फार्म का दौरा किया और लक्ष्मी के बदले में वह कोई भी राशि की देने के लिए तैयार थे, लेकिन लेकिन वे अपने फैसले पर अडिग थे और उन्होने उनके प्रस्ताव को खारिज कर दिया था।

राजवीर सिंह द्वारा लक्ष्मी को प्रदान की जाने वाली फ़ीड और देखभाल…

लक्ष्मी का जन्म राजवीर सिंह के फार्म में हुआ था, जिसके कारण राजवीर उससे बहुत जुड़े थे। लक्ष्मी आम तौर पर प्रति दिन 50 किलो हरा चारा, 2 किलो सूखा चारा और 14 किलो अनाज खाती है। फार्म में लक्ष्मी और अन्य जानवरों की देखभाल में लगभग 6 कर्मचारी रखे हुए हैं।

संदेश
“गायों की देखभाल एक बच्चे की तरह की जानी चाहिए। गायों को जो प्यार और देखभाल दी जाती है उसके प्रति वे बहुत प्रतिक्रियाशील रहती हैं। डेयरी किसानों को गायों की हर जरूरत का ख्याल रखना चाहिए, फिर ही वे अच्छा दूध उत्पादन प्राप्त कर सकते है।”

 

राजविंदर पाल सिंह राणा

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कैसे एक किसान आधुनिक तकनीक से मछली पालन उद्योग का सश्क्तिकरण कर रहा है

कृषि पद्धतियां और कृषि की तकनीकें विश्व स्तर पर भिन्न हैं। दूसरी ओर नसल की विविधता और स्थान भी एक महत्तवपूर्ण भूमिका निभाते हैं और भारत जैसे देश में रहना जहां भूमि और जलवायु परिस्थितियां खेतीबाड़ी के पक्ष में है। यह किसानों के फायदे के लिए एक महत्तवपूर्ण मुद्दा है। लेकिन वह क्षेत्र जहां भारतीय किसान पीछे हैं वह है खेती करने की तकनीक। एक ऐसे किसान हैं – राजविंदर पाल सिंह राणा, जो विदेश से अपनी मातृभूमि में खेती की आधुनिक तकनीक लेकर आये। वे मंडियानी, लुधियाना, पंजाब के निवासी हैं।

श्री राणा के लिए 2000 में मछली पालन के क्षेत्र में कदम रखना पूरी तरह से नया था, लेकिन आज उनकी उपलब्धियों को देखकर कोई नहीं कह सकता कि उन्होंने मछली पालन 1.5 एकड़ की भूमि पर शुरू किया था। लेकिन इससे पहले उन्होंने एक मार्किटिंग व्यवसायी के तौर पर एक लंबा सफल रास्ता तय किया था। विज्ञापन और बिक्री प्रमोशन में ग्रेजुएट होने पर उन्होंने कोका कोला और जॉनसन एंड जॉनसन जैसी काफी अच्छी मान्यता प्राप्त ब्रांड के लिए कुछ वर्षों तक काम किया।

लेकिन संभवत: मार्किटिंग समर्थक के रूप में काम करना वह काम नहीं था जो वे अपनी ज़िंदगी में करना चाहते थे। उन्होनें अपनी ज़िंदगी में कुछ खोया हुआ महसूस किया और वापिस पंजाब लौटने का फैसला किया। पी ए यू के एक वरिष्ठ अधिकारी की सलाह लेने के बाद उन्होंने मछली पालन में अपना कैरियर बनाने का फैसला किया। उन्होंने अपने उद्याम को व्यापारिक मछली पालन उदयोग में बदलने से पहले पी ए यू और मछली पालन विभाग एजंसी लुधियाना में ट्रेनिंग ली।

16 वर्ष की अवधि में उनका कृषि उद्यम 70 एकड़ तक बढ़ा है और इन वर्षों में उन्होंने प्रत्येक वर्ष एक नए देश का दौरा किया ताकि मछली पालन में प्रयोग होने वाली आधुनिक और नई नकनीकों को सीख सकें।

“हॉलैंड और इज़रायल के लोग जानकारी शेयर करते हैं जबकि रूस के लोग थोड़े बहुत गोपनीय होते हैं। वे हंसते हुए कहते हैं।”

उनके आविष्कार :
शुरूआत से ही श्री राणा नई तकनीकों के बारे में जानने के लिए बहुत उत्सुक रहते थे। इसलिए अपने विदेशी खोजों के बाद श्री राणा ने नए अपनी तीव्र बुद्धि से मछली उत्पादों और मशीनरी का आविष्कार किया और उसे अपने खेत में लागू किया।

मशीन जो तालाब में मछली की वृद्धि ट्रैक करती है
हॉलैंड की यात्रा के अनुभव के बाद उन्होंने जिस पहली चीज़ का आविष्कार किया वह थी मछलियों के लिए एक टैग ट्रैकिंग मशीन। यह मशीन प्रत्येक मछली के टैगिंग और ट्रेसिंग में सहायता करती है। मूल रूप से यह एक डच मशीन है और एक साधारण किसान के लिए सस्ती नहीं है। इसलिए राजविंदर ने उस मशीन का भारतीय संस्करण का निर्माण किया। इस मशीन का उपयोग करके एक किसान मछली को ट्रैक कर सकता है और अन्य मछलियों को किसी भी जोखिम के मामले से बचा सकता

मछली की खाद
दूसरी चीज़ जिसका उन्होंने आवष्किार किया वह थी मछली की खाद। उन्होंने एक प्रक्रिया की खोज की जिसमें मछली के व्यर्थ पदार्थों को गुड़ और विघटित सामग्री के साथ एक गहरे गडढे में 45 दिनों के लिए रखा जाता है और फिर इसे सीधे इस्तेमाल किया जा सकता है और यह खाद बागबानी प्रयोजन के लिए काफी फायदेमंद है।

बाज़ार में बिक्री के लिए जीवित मछली रखने का उपकरण
जैसा कि हम सभी जानते हैं कि जीवित और ताजी मछलियों के अच्छे भाव मिलते हैं। इसलिए उन्होंने एक विशेष पानी की टंकी का निर्माण किया जिसे किसान आसानी से कहीं पर भी लेकर जा सकते हैं। इस टंकी में एक 12 वोल्ट डी सी की मोटर लगी है जो कि बाहर की हवा को पंप करती है जिससे मछलियां जीवित और ताजी रहती हैं।

मछली की त्वचा से बना फैशन सहायक उपकरण
मछली की त्वचा एक अम्ल जैसा पदार्थ छोड़ती है जिसके कारण मछली की त्वचा पानी में 24/7 चमकदार रहती है। इसलिए श्री राणा ने इसका उपयोग करने का फैसला किया और मछली की त्वचा को हटाने की बजाय उन्होंने इसे मोबाइल कवर बनाने का उपयोग किया। पी ए यू ने उनके इस प्रोजैक्ट को सफल बनाने में सहायता की। मछली की त्वचा से बने मोबाइल कवर बहुत फायदेमंद होते हैं क्योंकि वे मोबाइल विकिरण के उत्सर्जन को रोकते हैं और मनुष्यों को बुरे प्रभावों से बचाव करते हैं। उन्होंने यह भी समझा कि मछली की त्वचा का प्रयोग महिलाओं के बैग बनाने के लिए भी किया जा सकता है। इसके अलावा अंतर्राष्ट्रीय बाज़ार में मछली की त्वचा का मूल्य 600 यूरो प्रति इंच है। श्री राणा ने मोबाइल कवर पर पेटेंट के लिए आवेदन किया है और इस पर सरकार की स्वीकृति का इंतज़ार कर रहे हैं।

वे भारत के मछली उदयोग में होने वाली समस्याओं के बारे में भी बात करते हैं।-

“भारत के बैंक मछली प्रयोजन में कोई समर्थन नहीं करते। बिजली और पानी की उपलब्धता से संबंधित अन्य मुद्दे हैं। लेकिन किसानों के बीच साक्षरता का अभाव एक अन्य कारक है जो भारत में मछली पालन के क्षेत्र के विकास में बाधा पहुंचा रहा है।”

उनका मानना है कि इस विषय में भारत सरकार को ऐसे ट्रिप का आयोजन करना चाहिए जिसमें एक वैज्ञानिक और 9 किसानों के ग्रुप को ट्रेनिंग के लिए विदेशों में भेजा जाये।

वर्तमान में, राजविंदर अपने राज एक्वा वर्ल्ड फार्म (Raj Aqua World farm) पर व्यापारिक उद्देश्य के लिए रोहू, कतला और मुरक मछली की नस्लों को बढ़ा रहे हैं। कई अन्य साथी किसानों ने भी उनकी तकनीकों को अपनाकर लाभ प्राप्त किया है। उन्होंने अन्य किसानों के साथ मछली पालन में काफी अच्छी पार्टनरशिप की है और दूसरे राज्यों को बड़ी मात्रा में मछली बेच रहे हैं। सरकार उनसे सब्सिडी दरों पर मछलियां खरीद लेती है। यह सारी सफलता उनकी अपनायी गई नई तकनीकों, आविष्कारों और परीक्षण करने की योग्यता का नतीजा है।

भविष्य की योजना
वे भविष्य में एक्वापोनिक्स पर ध्यान केंद्रित करना चाहते हैं। उन्होंने इस बात पर ज़ोर दिया कि बेहतर परिणाम के लिए एक्वापोनिक्स में मछली की नस्ल का इस्तेमाल किया जाना चाहिए।


पुरस्कार और उपलब्धियां

• 2004-05 में मछली पालन में व्यर्थ पानी के सही उपयोग के लिए पी ए यू किसान क्लब की तरफ से Best Farmer of Punjab

• 2005-06 में श्री जगमोहन कंग की तरफ से पंजाब के सर्वश्रेष्ठ मछली पालक

• 2005-06 में Ministry of Animal Husbandry and Dairy Development and Fishery from Mr. Jagmohan Kang की तरफ से Best Fish Farmer of Punjab

• 2005 Fish Farmers Development Agency, Moga (35 qt.) द्वारा low level water harvesting technology में Best Production Award

• 2006-07 में water quality management के लिए सर्वश्रेष्ठ किसान पुरस्कार

• 2008-09 में मछलीपालन के पानी का भंडारण और एग्रीकल्चर के संसाधनों का दोबारा प्रयोग करने के लिए पुरस्कार

• 2010-2011 में मछली पालन में सीवेज़ पानी का सही उपयोग करने के लिए पुरस्कार

छेवांग नोर्फेल

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नक्ली ग्लेशियरों का निर्माण करके यह लद्दाखी व्यक्ति पहाड़ियों को कायम रख रहा है

छेवांग नोर्फेल— एक 83 वर्षीय व्यक्ति जिसे लखनऊ से सिविल इंजीनियरिंग में डिप्लोमा पूरा करने के बाद, जम्मू और कश्मीर में एक सिविल इंजीनियर के तौर पर सरकारी नौकरी में 36 वर्ष तक सेवा की। फिर वे सेहत खराब होने के कारण जल्दी सेवा मुक्त हो गए और अपने विरासती शहर लद्दाख में बस गए। पर समाज के लिए उनका काम अपनी रिटायरमैंट के बाद भी जारी रहा।

असाधारण नायक असल जीवन में भी होते हैं और जिस नायक के बारे में हम बात करने जा रहे हैं, उसके पास कोई भी शक्ति नहीं है, बल्कि उसके पास असाधारण हुनर, असाधारण ज्ञान, असाधारण समझदारी और असाधारण विद्वता है, जिससे उसने भारत के ठंडे मारूस्थल में खेतीबाड़ी को खत्म होने से बचा लिया।

एक ठंडी सुबह, श्री नोर्फेल अपने घर के बाहर बैठे हुए थे, जब उन्होंने देखा कि नदी में चलता पानी ठोस रूप से बदल रहा है और जैसे यह ज़मीन पर आकर गिरता है तो यह एक ठंडे बर्फीले बर्फ के गड्ढे के रूप में बदल जाता है।

लद्दाख में, आमतौर पर पानी के बहाव को रोकने के लिए टूटी को खुला रखा जाता है, ताकि पाइप को फटने से रोका जा सके।

यह उस समय हुआ जब श्री नोर्फेल जी को इसका अहसास हुआ और उन्होंने लद्दाख में पानी की समस्या को रोकने के लिए हल निकाला।

पिछले कुछ वर्षों से ग्लोबल वार्मिंग के प्रभाव को पिछले स्तर से 100 मीटर और उससे अधिक बर्फ की लाइन बना दी थी, जिस कारण बसंत ऋतु के शुरू में किसानों को अपनी ज़मीन की सिंचाई में बहुत मुश्किल हुई।

लद्दाख में सही बिजाई का समय अप्रैल से मई तक होता है, पर पिछले समय में पानी की कमी के कारण, किसान अपनी ज़मीन को सही ढंग से नम नहीं कर सकते और कोई बिजाई के समय में एक दिन भी देरी कैसे कर सकता है। इसके अलावा, जून में पहाड़ियों में ग्लेशियर का पानी आ जाता है, जिस से किसानों को बहुत देर होती है।

पर सिविल इंजीनियर, छेवांग नोर्फेल ने लद्दाख क्षेत्र के लोगों को राहत देने और मौसमी स्थिति को ठीक करने के लिए इस मुद्दे पर काम किया।

देर रात तक काम करके, उन्होंने हर चीज़ की योजना बनाई और अपने क्षेत्र के कुछ किसानों के साथ इस बारे में चर्चा की। इसके बाद 1994 में वे लेह पोषण प्रोजेक्ट में शामिल हो गए, जो सबसे पुराना है और 1978 से लद्दाख के वासियों की सेवा करता है।

छेवांग नोर्फेल — “जब मैं किसानों से अपने विचारों पर चर्चा की, उनमें से कुछ इस पर हस पड़े, पर उनमें से कई किसानों ने यह करने का विचार किया।”

अब तक, श्री नोर्फेल ने 10 ग्लेशियर बनाए, जिनमें से लद्दाख के सबसे छोटा उमला क्षेत्र में 500 फुट लंबा और सबसे बड़ा फुतसे इलाके में 2 किलोमीटर लंबा है।

नोर्फेल जी के नकली ग्लेशियर पहाड़ों से चलने वाले पानी को चलाने के लिए साधारण सिद्धांत पर आधारित है। पहाड़ी क्षेत्रों में पानी का प्रवाह बहुत तेज ढलानों वाला होता है, इसलिए नदियों में पानी जमता नहीं और इसे छांव वाले क्षेत्रों की तरफ मोड़ा जाता है। जहां सूर्य की किरणे सीधी नहीं पड़ती। जब पानी स्टोर करने वाली जगह पर पहुंचता है तो इसकी रफ्तार घटाने के लिए कम मात्रा में बांटा जाता है और फिर इसे बर्फ वाले पानी के रूप में बर्फ वाली दीवारों पर स्टोर कर लिया जाता है।

नकली ग्लेशियरों का निर्माण गांव के नज़दीक किया जाता है। ताकि जैसे ही बसंत ऋतु लद्दाख क्षेत्र से शुरू हो तो पानी खेतों तक जल्दी पहुंच सके। इस तरीके से एक महीने से अधिक समय के लिए बहुत सारा पानी खेतों तक पहुंचता है और गांव वासियों को चैन की सांस मिलती है।

पानी एक ऐसी ज़रूरत है जिसकी आवश्यकता हवा में पक्षियों और मिट्टी में कीड़े मकौड़ों को होती है। छेवांग नोर्फेल जी की इस पहल से, कुदरती तालाबों के निर्माण में 90000 रूपये का निवेश किया गया, जो आज गांव के 700 लोगों को पानी उपलब्ध करवाते हैं।

आज, लद्दाख में नोर्फेल जी के द्वारा कई सड़कों, सिंचाई प्रणालियों और अन्य बनतरें बनाई गई हैं। जिस कारण लद्दाख के लोगों के लिए वे एक सुपरहीरों हैं।

उनके काम के सम्मान में दिए गए कुछ शीर्षक और नाम हैं – वातावरण हीरो, आइसमैन और नकली ग्लेशियर बनाने वाला मनुष्य…

“पानी बचाने के बहुत सारे तरीके हैं, जैसे कि डैम, डाइवर्ज़न्स, चैक डैम आदि, पर नक्ली ग्लेशियम एक विलक्षण तरीका है …” इसलिए उन्होंने मुझे आइसमैन कहा — छेवांग नोर्फेन ने मुस्कुराते हुए बताया।

सबसे सुरक्षित स्वर्ग — लद्दाख को नोर्फेल जी की ऊंची सोच ने बचा लिया। कहा जाता है कि जब सोच ऊंची होती है तो मुसीबत और समस्याएं छोटी हो जाती हैं।

हरतेज सिंह मेहता

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जैविक खेती के लिए दूसरों को प्रोत्साहित करके बेहतर भविष्य के लिए एक आधार स्थापित कर रहे हैं

पहले जैविक एक ऐसा शब्द था जिसका प्रयोग बहुत कम किया जाता था। बहुत कम किसान थे जो जैविक खेती करते थे और वह भी घरेलु उद्देश्य के लिए। लेकिन समय के साथ लोगों को पता चला कि हर चमकीली सब्जी या फल अच्छा दिखता है लेकिन वह स्वास्थ्य के लिए अच्छा नहीं होता।

यह कहानी है – हरतेज सिंह मेहता की जिन्होंने 10 वर्ष पहले एक बुद्धिमानी वाला निर्णय लिया और वे इसके लिए बहुत आभारी भी हैं। हरतेज सिंह मेहता के लिए, जैविक खेती को जारी रखने का निर्णय उनके द्वारा लिया गया एक सर्वश्रेष्ठ निर्णय था और आज वे अपने क्षेत्र (मेहता गांव – बठिंडा) में जैविक खेती करने वाले एक प्रसिद्ध किसान हैं।

पंजाब के मालवा क्षेत्र, जहां पर किसान अच्छी उत्पादकता प्राप्त करने के लिए कीटनाशक और रसायनों का प्रयोग बहुत उच्च मात्रा में करते हैं। वहीं, हरतेज सिंह मेहता ने प्रकृति के साथ तालमेल बनाकर रखने को चुना। वे बचपन से ही अपने पैतृक व्यवसायों के प्रति समर्पित है और उनके लिए अपनी उपलब्धियों के बारे में फुसफुसाने से अच्छा, एक साधारण जीवन व्यतीत करना है।

उच्च योग्यता (एम.ए. पंजाबी, एम.ए. पॉलिटिकल साइंस) होने के बावजूद, उन्होंने शहरी जीवन और सरकारी नौकरी की बजाय जैविक खेती करने को चुना। वर्तमान में उनके पास 11 एकड़ ज़मीन है जिसमें वे कपास, गेहूं, सरसों, गन्ना, मसूर, पालक , मेथी, गाजर, मूली, प्याज, लहसुन और लगभग सभी सब्जियां उगाते हैं। वे हमेशा अपने खेतों को कुदरती तरीकों से तैयार करना पसंद करते हैं जिसमें कपास (F 1378), गेहूं (1482) और बंसी नाम के बीज अच्छे परिणाम देते हैं।

“अंसतोष, निरक्षरता और किसानों की उच्च उत्पादकता की इच्छा रासायनिक खादों और कीटनाशकों का उपयोग करने के लिए प्रेरित करती है, जिसके कारण किसान जो कि उद्धारकर्त्ता के रूप में जाने जाते हैं वे अब समाज को विष दे रहे हैं। आजकल किसान कीट प्रबंधन के लिए कीटनाशकों और रसायनों का इस्तेमाल करते हैं जो मिट्टी के मित्र कीटों और उपजाऊपन को नुकसान पहुंचाते हैं। वे इस बात से अवगत नहीं हैं कि वे अपने खेत में रसायनों को उपयोग करके पूरी खाद्य श्रंख्ला को विषाक्त बना रहे हैं। इसके अलावा, रसायनों और कीटनाशकों का उपयोग करके वे ना केवल पर्यावरण की स्थिति को बिगाड़ रहे हैं बल्कि कर्ज में बढ़ोतरी के कारण प्रमुख आर्थिक नुकसान का भी सामना कर रहे हैं।”– हरतेज सिंह ने कहा।

मेहता जी हमेशा खेती के लिए कुदरती ढंग को अपनाते हैं और जब भी उन्हें कुदरती खेती के बारे में जानकारी की आवश्यकता होती है तो वे अमृतसर के पिंगलवाड़ा सोसाइटी और एग्रीकल्चर हेरीटेज़ मिशन से संपर्क करते हैं। वे आमतौर पर गाय के मूत्र और पशुओं के गोबर का प्रयोग खाद बनाने के लिए करते हैं और यह मिट्टी के लिए भी अच्छा है और पर्यावरण अनुकूलन भी है।

मेहता जी के अनुसार कुदरती तरीके से उगाए गए भोजन के उपभोग ने उन्हें और उनके परिवार को पूरी तरह से स्वस्थ और रोगों से दूर रखा है। इसी कारण श्री मेहता का मानना है कि वे जैविक खेती के प्रति प्रेरित हैं और भविष्य में भी इसे जारी रखेंगे।

संदेश
“मैं देश भर के किसानों को एक ही संदेश देना चाहता हूं कि हमें निजी कंपनियों के बंधनों से बाहर आना चाहिए और समाज को स्वस्थ बनाने के लिए स्वस्थ भोजन प्रदान करने का वचन देना चाहिए।”

नवरूप सिंह गिल

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एक इंजीनियर की जीवन यात्रा जो किसान बन गया और कुदरत के तालमेल से मारूस्थल से भोजन प्राप्त कर रहा है

“खेती के गलत ढंगों से हम उपजाऊ भूमि को रेगिस्तान में बदल देते हैं। जब तक जैविक खेती की तरफ वापिस नहीं जाते और मिट्टी नहीं बचाते, तब तक तो हमारा कोई भविष्य नहीं” जग्गी वासुदेव

मिट्टी जीवों के लिए किसी जायदाद से कम नहीं है और सभी जीवों में से सिर्फ मनुष्य ही कुदरत की सबसे कीमती संपत्ति को प्रभावित करने या परिवर्तन करने में सक्षम है।

जग्गी वासुदेव के द्वारा बहुत सही कहा गया है कि हम खेती की गलत विधि का प्रयोग करके अपनी उपजाऊ ज़मीन को मारूस्थल में बदल रहे हैं। पर यहां हम एक व्यक्ति की कहानी को शेयर करने जा रहे हैं – नवरूप सिंह गिल, जो मिट्टी को अधिक उपजाऊ और कुदरती स्त्रोतों को कम जहरीला बनाकर मारूस्थल में से कुदरती तरीके से भोजन प्राप्त कर रहे हैं।

खेतीबाड़ी एक आशीर्वाद की तरह मनुष्य को प्राप्त हुई है, और इसे कुदरत के तालमेल से प्रयोग करके लोगों के कल्याण का खजाना हासिल किया जा सकता है। नवरूप सिंह गिल ने इस बात को बहुत अच्छी तरह समझा, बहुत समय पहले उन्होंने लोगों की तरक्की और कुदरत को बचाने के लिए कुदरती खेती की तरफ मुड़ने का फैसला किया।

नवरूप सिंह गिल विदेश में भी बहुत बढ़िया काम कर रहे थे, पर एक दिन उन्होंने भारत आकर अपने बड़े भाई के साथ खेतीबाड़ी में मदद करने का फैसला किया। जैसे ही उन्होंने जल्दी अपने आप को जीवन की समस्याओं के साथ जोड़ना शुरू किया। द्ढ़ता और आध्यात्मिक ज्ञान की लहर ने उन्हें एक नए रूप में बदल दिया।

“मेरा परिवार शुरू से ही खेतीबाड़ी के क्षेत्र में नहीं था। मेरे पिता जी कमलजीत सिंह गिल, एक बिज़नेसमैन थे और उन्होंने 1998 तक कपास की चिनाई और बुनाई की मिल चलायी। पर कुछ आर्थिक नुकसान और हालातों के कारण मिल बंद करनी पड़ी। उस समय हमने सोचा नहीं था कि यह बुरा अंत हमें एक अच्छी शुरूआत की तरफ ले जायेगा… उसके बाद मेरे पिता जी ने खेतीबाड़ी शुरू की और बड़े भाई की पढ़ाई पूरी होने के बाद, वह भी इस में शामिल हो गया। 2010 में मैं भी इस व्यवसाय में शामिल हो गया।”

पहले, नवदीप सिंह गिल कुदरती खेती करते थे, पर बड़े पैमाने पर नहीं। नवदीप ने छोटे भाई (नवरूप सिंह) की सहायता से धीरे-धीरे इसे बढ़ाना शुरू किया। एक-एक बचाया पैसा कुदरती खेती को बढ़ाने की तरफ कदम था।

एक और क्षेत्र, जिसमें नवरूप सिंह गिल जी का रूझान बना, वह था डेयरी फार्मिंग। यह उनका गायों के प्रति प्यार था। जिस कारण उन्होंने पशु पालन शुरू किया। उन्होंने शुरूआत में कुछ गायों से डेयरी फार्मिंग शुरू की और धीरे-धीरे फार्म में पशुओं की संख्या बढ़ायी।

2013 में “थार नैचुरल्ज़” का विचार दोनों भाइयों के मन में आया और फिर उन्होंने ज़मीन की तैयारी से कटाई करने तक के सभी व्यवसाय कुदरती तौर पर करने का फैसला किया। परिणामस्वरूप खेतों में रसायन और कीटनाशकों का प्रयोग करने वाले किसानों के मुकाबले उनकी फसल की पैदावार अधिक हुई। धीरे-धीरे “थार नैचुरल्ज़” प्रसिद्ध ब्रांड बन गया और गिल भाइयों ने अपने उत्पादों की सूची में और फसलें भी शामिल की।

यह नवरूप सिंह के सकारात्मक विचार और पारिवारिक सहयोग ही था, जिसने गिल परिवार को एक बार फिर शुरूआत करने में मदद की।

नवरूप सिंह और उनके परिवार के प्रयत्नों ने ही उनके कुदरती खेती के उद्यम को पहचान दिलाई और 2015 में कृषक सम्मान पुरस्कार मिला।

गिल परिवार को 2016 में भी कृषक सम्मान पुरस्कार के लिए नामांकित किया गया।

2016 में कमलजीत सिंह गिल के तीसरे और सबसे छोटे पुत्र (रमनदीप सिंह गिल) ने विदेश से वापिस आने का फैसला किया और अपने भाई के कारोबार में हाथ बंटाने का फैसला किया और इस तरह तिकड़ी पूरी हो गई।

नवरूप सिंह गिल – “गिल परिवार के लिए थार नैचुरल्ज़, कुदरती खेती को बड़े स्तर पर उत्साहित करने और राजस्थान के साथ-साथ अन्य राज्यों के किसानों को इससे जान पहचान करवाने का तरीका है कि कुदरती खेती के द्वारा उच्च पैदावार और अच्छी गुणवत्ता आसानी से प्राप्त की जा सकती है और थार नैचुरल्ज़ पूरे परिवार के प्रयत्नों के बिना संभव नहीं था।”

आज थार नैचुरल्ज़ में अनाज, दालें, बाजरा, फल और सब्जियों की अलग-अलग किस्में तैयार की जाती हैं। इसे चार श्रेणियों में बांटा जा सकता है खेतीबाड़ी, खाद, डेयरी और बागबानी। वे हरी मूंग, काले चने, मेथी के बीज, सफेद चने, एलोवेरा, सनई के बीज और कनौला तेल आदि का भी उत्पादन करते हैं। कुछ विशेष उत्पाद, जो कुदरती खेती को उत्साहित करने के लिए वे अपने खेतों में प्रयोग करते हैं जीव अमृत, जियान, वर्मीकंपोस्ट। वे डेयरी उत्पाद भी बेचते हैं जैसे कि साहिवाल गाय का दूध और देसी घी।

इस समय नवरूप सिंह गिल अपने परिवार के साथ राजस्थान के जिला श्री गंगानगर की तहसील राये सिंह में स्थित गांव 58 आर.बी. में रहते हैं। श्री मती संदीप कौर गिल (सुपत्नी नवदीप सिंह), श्री मती गुरप्रीत कौर गिल (सुपत्नी नवरूप सिंह) और श्री मती रमनदीप कौर गिल (सुपत्नी रमनदीप सिंह) थार नैचुरल के गुप्त सहायक मैंबर हैं और घर के मुख्य अधिकारी की भूमिका निभाते हैं।

फार्म के आंकड़े

खेती तकनीक – पानी के प्रबंधन के लिए मलचिंग
उपकरण – ट्रैक्टर, ट्रॉली, हैरो और डिस्क आदि जैसी सभी ज़रूरी मशीनरी उपलब्ध है।
फसलें – ग्वार, बाजरा, मूंगी काले चने , सफेद चने, मेथी, सनई।
बागबानी फसलें – किन्नू, मौसमी सब्जियां, कनौला

डेयरी फार्मिंग – गिल परिवार के पास डेयरी फार्म में 100 से अधिक साहिवाल नसल की गायें हैं। नवरूप सिंह जी कुछ श्रमिकों की मदद से स्वंय ही डेयरी फार्म की देख-रेख करते हैं।

संदेश

“कुदरती खेती किसानों के लिए लंबे समय तक सफलता हासिल करने का एकमात्र रास्ता है।”

नवरूप सिंह गिल उन किसानों के लिए एक प्रमुख उदाहरण हैं, जो भविष्य में स्वंय को खेतीबाड़ी के क्षेत्र में सफल बनाना चाहते हैं। थार नैचुरल्ज़ एक मिसाल है कि किस तरह रसायनों और उपचारित किए बीजों वाली खेती के मुकाबले कुदरती खेती से भी समान मुनाफा लिया जा सकता है।

कृष्ण दत्त शर्मा

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जानें कैसे जैविक खेती ने कृष्ण दत्त शर्मा को कृषि के क्षेत्र में सफल बनाने में मदद की

जीवन में ऐसी परिस्थितियां आती हैं, जो लोगों को अपने जीवन के खोये हुए उद्देश्य का एहसास करवाती हैं और इसे प्राप्त करने के लिए प्रेरित करती हैं। यही चीज़ चिखड़ गांव, (शिमला) के साधारण किसान कृष्ण दत्त शर्मा, के साथ हुई और उन्हें जैविक खेती को अपनाने के लिए प्रेरित किया।

जैविक खेती में कृष्ण दत्त शर्मा की उपलब्धियों ने उन्हें इतना लोकप्रिय बना दिया है कि आज उनका नाम कृषि के क्षेत्र में महत्तवपूर्ण लोगों की सूची में गिना जाता है।

यह सब शुरू हुआ जब कृष्ण दत्त शर्मा को कृषि विभाग की तरफ से हैदराबाद (11 नवंबर, 2002) का दौरा करने का मौका मिला। इस दौरे के दौरान उन्होंने जैविक खेती के बारे में काफी कुछ सीखा। वे जैविक खेती के बारे में और अधिक जानने के लिए उत्सुक थे और इसे अपनाना भी चाहते थे।

मोरारका फाउंडेशन (2004 में) के संपर्क में आने के बाद उनका जुनून और विचार अमल में आया। उस समय तक वे कृषि क्षेत्र में रसायनों के बढ़ते उपयोग के प्रतिकूल प्रभावों के बारे में अच्छी तरह से जान चुके थे और इससे वे बहुत परेशान और चिंतित थे। जैसे कि वे जानते थे कि आने वाले भविष्य में उन्हें खाद और कीटनाशकों के परिणाम का सामना करना पड़ेगा इसलिए उन्होंने जैविक खेती को पूरी तरह से अपनाने का फैसला किया।

उनके पास कुल 20 बीघा ज़मीन है, जिसमें से 5 बीघा सिंचित क्षेत्र हैं और 15 बीघा बारानी क्षेत्र हैं। शुरूआत में उन्होंने बागबानी विभाग से सेब का एक मुख्य पौधा खरीदा और उस पौधे से उन्होंने अपने पूरे बाग में सेब के 400 पौधे लगाए। उन्होंने नाशपाती के 20 वृक्ष, चैरी के 20 वृक्ष, आड़ू के 10 वृक्ष और अनार के 15 वृक्ष भी उगाए। फलों के साथ साथ उन्होंने सब्जियां जैसे फूल गोभी, मटर, फलियां, शिमला मिर्च और ब्रोकली भी उगायी।

आमतौर पर कीटनाशकों और रसायनों से उगायी जाने वाले ब्रोकली की फसल आसानी से खराब हो जाती है, लेकिन कृष्ण दत्त शर्मा द्वारा जैविक तरीके से उगाई गई ब्रोकली का जीवन काफी ज्यादा है। इस कारण किसान अब ब्रोकली को जैविक तरीके से उगाते हैं और उसे बिक्री के लिए दिल्ली की मंडी में ले जाते हैं। इसके अलावा जैविक तरीके से उगाई गई ब्रोकली की बिक्री 100-150 रूपये प्रति किलो के हिसाब से होती है और इसी को अगर किसानों की आय में जोड़ दिया जाये तो उनकी आय 500000 तक पहुंच जाती है, और इस छ अंकों की आमदनी में आधा हिस्सा ब्रोकली की बिक्री से आता है।

जैविक खेती की तरफ अन्य किसानों को प्रेरित करने के लिए कृष्ण दत्त शर्मा ने अपने नेतृत्व में अपने गांव में एक ग्रुप बनाया है। उनकी इस पहल ने कई किसानों को जैविक खेती अपनाने के लिए प्रेरित किया है।

जैविक खेती के क्षेत्र में कृष्ण दत्त शर्मा की उपलब्धियां काफी बड़ी हैं और यहां तक कि हिमाचल सरकार ने उन्हें जून 2013 में, “Organic Fair and Food Festival” में सर्वश्रेष्ठ किसान पुरस्कार से सम्मानित भी किया है। लेकिन अपनी नम्रता के कारण वे अपनी सफलता का सारा श्रेय मोरारका फाउंडेशन और कृषि विभाग को देते हैं।

वे अपने खेत और बगीचे में गाय (3), बैल (1) और बछड़े (2) के गोबर का उपयोग करते हैं और वे अच्छी उपज के लिए वर्मी कंपोस्ट भी खुद तैयार करते हैं। उन्होंने अपने खेत में 30 x 8 x 10 के बैड तैयार किए हैं जहां पर वे प्रति वर्ष 250 केंचुओं की वर्मी कंपोस्ट तैयार करते हैं। कीटनाशकों के स्थान पर वे हर्बल स्प्रे, एपर्चर वॉश, जीवामृत और NSDL का उपयोग करते हैं। इस तरह रासायनिक कीटनाशकों के स्थान पर कुदरती कीटनाशकों ने प्रयोग से उनकी ज़मीन की स्थितियों में सुधार हुआ और उनके खर्चे भी कम हुए।

संदेश:
बेहतर भविष्य और अच्छी आय के लिए वे अन्य किसानों को जैविक खेती अपनाने के लिए प्रेरित करना चाहते हैं।

गुरदीप सिंह नंबरदार

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मशरूम की खेती में गुरदीप सिंह जी की सफलता की कहानी

गांव गुराली, जिला फिरोजपुर (पंजाब) में स्थित पूरे परिवार की सांझी कोशिश और सहायता से, गुरदीप सिंह नंबरदार ने मशरूम के क्षेत्र में सफलता प्राप्त की। अपने सारे स्त्रोतों और दृढ़ता को एकत्र कर, उन्होंने 2003 में मशरूम की खेती शुरू की थी और अब तक इस सहायक व्यवसाय ने 60 परिवारों को रोज़गार दिया है।

वे इस व्यवसाय को छोटे स्तर पर शुरू करके धीरे धीरे उच्च स्तर की तरफ बढ़ा रहे हैं, आज गुरदीप सिंह जी ने एक सफल मशरूम उत्पादक की पहचान बना ली है और इसके साथ उन्होंने एक बड़ा मशरूम फार्म भी बनाया है। मशरूम के सफल किसान होने के अलावा वे 20 वर्ष तक अपने गांव के सरपंच भी रहे।

उन्होंने इस उद्यम की शुरूआत पी.ए.यू. द्वारा दिए गए सुझाव के अनुसार की और शुरू में उन्हें लगभग 20 क्विंटल तूड़ी का खर्चा आया। आज 2003 के मुकाबले उनका फार्म बहुत बड़ा है और अब उन्हें वार्षिक लगभग 7 हज़ार क्विंटल तूड़ी का खर्चा आता है।

उनके गांव के कई किसान उनकी पहलकदमी से प्रेरित हुए हैं। मशरूम की खेती में उनकी सफलता के लिए उन्हें जिला प्रशासन के सहयोग से खेतीबाड़ी विभाग, फिरोजपुर द्वारा उनके गांव में आयोजित प्रगतिशील किसान मेले में उच्च तकनीक खेती द्वारा मशरूम उत्पादन के लिए जिला स्तरीय पुरस्कार से भी सम्मानित किया गया।

संदेश
“मशरूम की खेती कम निवेश वाला लाभदायक उद्यम है। यदि किसान बढ़िया कमाई करना चाहते हैं तो उन्हें मशरूम की खेती में निवेश करना चाहिए।”

 

रत्ती राम

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एक उम्मीद की किरण जिसने रत्ती राम की खेतीबाड़ी को एक लाभदायक उद्यम में बदल दिया

रत्ती राम मध्य प्रदेश के हिनोतिया गांव के एक साधारण सब्जियां उगाने वाले किसान हैं। उन्नत तकनीकों और सरकारी स्कीमों का लाभ लेकर उन्होंने अपना सब्जियों का फार्म स्थापित किया जिससे कि आज वे करोड़ों में लाभ कमा रहे हैं। लेकिन यदि हम पहले की बात करें तो रत्ती राम एक हारे हुए किसान थे जिनके लिए जूते खरीदना भी मुश्किल काम था। आज उनके पास अपनी बाइक है जिसे वे गर्व से अपने गांव में चलाते हैं।

हालांकि रत्ती राम के पास खेती के लिए कम भूमि थी लेकिन जल संसाधनों की कमी ने उनके प्रयासों और भूमि के बीच प्रमुख हस्तक्षेप का काम किया। बारिश के मौसम में जब वे खेती करने की कोशिश करते थे तब अत्याधिक बारिश उनकी फसलों को खराब कर देती थी। ये सभी जलवायु परिस्थितियों और अन्य खमियां उनकी आर्थिक स्थिति खराब होने का मुख्य कारण थी।

कम आमदन जो उन्हें खेती से प्राप्त होती थी उसे वे परिवार की ज़रूरतों को पूरा करने में खर्च कर देते थे और ये स्थितियां कई वित्तीय समस्याओं को जन्म दे रही थीं लेकिन एक दिन रत्ती राम को बागबानी विभाग के बारे में पता चला और वे नंगे पांव अपने गांव हिनोतिया के कलेक्टर राजेश जैन के ऑफिस जिला मुख्यालय (Head Quarter) की तरफ चल दिए। जब कलेक्टर ने रत्ती राम को देखा तो उन्होंने उनके दर्द को महसूस किया और अगला कदम जो उन्होंने उठाया, उसने रत्ती राम की ज़िंदगी को बदल दिया।

कलेक्टर ने रत्ती राम को बागबानी विभाग के अधिकारी के पास भेजा, जहां श्री रत्ती को विभिन्न बागबानी योजनाओं के बारे में पता चला। उन्होंने अमरूद, आंवला, हाइब्रिड टमाटर, भिंडी, आलू, लहसुन, मिर्च आदि के बीज लिए और बागबानी योजनाओं और सब्सिडी की मदद से उन्होंने ड्रिप सिंचाई प्रणाली, स्प्रेयर, बिजली स्प्रे पंप, पावर ड्रिलर की भी स्थापना की। इसके अलावा, कलेक्टर ने उन्हें सब्सिडी दर के तहत एक पैक हाउस लगाने में मदद की।

रत्ती राम ने नई तकनीकों का इस्तेमाल करके सब्जियों की खेती शुरू कर दी और एक साल में रत्ती राम ने 1 करोड़ का शुद्ध लाभ कमाया जिससे उन्होंने मैटाडोर वैन, दो बाइक और दो ट्रैक्टर खरीदे। वाहनों में निवेश करने के अलावा उन्होंने अन्य संसाधनों में भी निवेश किया और 3 पानी के कुएं बनवाए, 12 ट्यूबवैल और 4 घर विभिन्न स्थानों पर खरीदे। उन्होंने खेती के लिए 20 एकड़ भूमि खरीदकर अपनी खेती के क्षेत्र का विस्तार किया और किराये पर 100 एकड़ ज़मीन ली। आज वे अपने परिवार के साथ खुशी से रह रहे हैं और कुछ समय पहले उन्होंने अपने दो बेटों और एक बेटी की शादी भी धूमधाम से की।

रत्ती राम भारत में उन सभी किसानों के लिए एक आदर्श हैं जो खुद को असहाय और अकेला महसूस करते हैं और उम्मीदों को खो बैठते हैं, क्योंकि रत्ती राम ने अपने मुश्किल समय में कभी भी अपनी उम्मीद को नहीं छोड़ा।

सरदार गुरमेल सिंह

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जानिये कैसे गुरमेल सिंह ने अपने आधुनिक तकनीकी उपकरणों का इस्तेमाल करके सब्जियों की खेती में लाभ कमाया

गुरमेल सिंह एक और प्रगतिशील किसान पंजाब के गाँव उच्चागाँव (लुधियाना),के रहने वाले हैं। कम जमीन होने के बावजूद भी वे पिछले 23 सालों से सब्जियों की खेती करके बहुत लाभ कमा रहे हैं। उनके पास 17.5 एकड़ जमीन है जिसमें 11 एकड़ जमीन अपनी है और 6 .5 एकड़ ठेके पर ली हुई है।

आधुनिक खेती तकनीकें ड्रिप सिंचाई, स्प्रे सिंचाई, और लेज़र लेवलर जैसे कई पावर टूल्स उनके पास हैं जो इन्हें कुशल खेती और पानी का संरक्षण करने में सहायता करते हैं। और जब बात कीटनाशक दवाइयों की आती है तो वे बहुत बुद्धिमानी से काम लेते हैं। वे सिर्फ पंजाब खेतीबाड़ी यूनिवर्सिटी की सिफारिश की गई कीटनाशकों का इस्तेमाल करते हैं। ज्यादातर वे अच्छी पैदावार के लिए अपने खेतों में हरी कुदरती खाद का इस्तेमाल करते हैं।

दूसरी आधुनिक तकनीक जो वह सब्जियों के विकास के लिए 6 एकड़ में हल्की सुरंग का सही उपयोग कर रहे हैं। कुछ फसलों जैसे धान, गेहूं, लौंग, गोभी, तरबूज, टमाटर, बैंगन, खीरा, मटर और करेला आदि की खेती वे विशेष रूप से करते हैं। अपने कृषि के व्यवसाय को और बेहतर बनाने के लिए उन्होंने सोया के हाइब्रिड बीज तैयार करने और अन्य सहायक गतिविधियां जैसे कि मधुमक्खी पालन और डेयरी फार्मिंग आदि की ट्रेनिंग कृषि विज्ञान केंद्र पटियाला से हासिल की।

मंडीकरण
उनके अनुभव के विशाल क्षेत्र में ना सिर्फ विभिन्न फसलों को लाभदायक रूप से उगाना शामिल है, बल्कि इसी दौरान उन्होंने अपने मंडीकरण के कौशल को भी बढ़ाया है और आज उनके पास “आत्मा किसान हट (पटियाला)” पर अपना स्वंय का बिक्री आउटलेट है। उनके प्रासेसड किए उत्पादों की गुणवत्ता उनकी बिक्री को दिन प्रति दिन बढ़ा रही है। उन्होंने 2012 में ब्रांड नाम “स्मार्ट” के तहत एक सोया प्लांट भी स्थापित किया है और प्लांट के तहत वे, सोया दूध, पनीर, आटा ओर गिरियों जैसे उत्पादों को तैयार करते और बेचते हैं।

उपलब्धियां
वे दूसरे किसानों के लिए प्रेरणा का स्त्रोत हैं और जल्दी ही उन्हें CRI पम्प अवार्ड से सम्मानित किया जाएगा

संदेश:
“यदि वह सेहतमंद ज़िंदगी जीना चाहते हैं तो किसानों को अपने खेत में कम कीटनाशक और रसायनों का उपयोग करना चाहिए और तभी वे भविष्य में धरती से अच्छी पैदावार ले सकते हैं।”

 

गुरदयाल सिंह

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कैसे एक किसान की मेहनत और जुनून से पंजाब के गुरदासपुर जिले में पीली क्रांति आई

पंजाब राज्य एक ऐसा क्षेत्र है, जहां गेहूं, और धान की खेती ज्यादा की जाती है, क्योंकि इससे किसानों को अधिक मुनाफा होता है। किसान गेहूं और धान की तरफ खास ध्यान इसलिए भी देते हैं, क्योंकि इसकी पैदावार से सही परिणाम प्राप्त होते हैं, पर एक किसान ऐसा भी है जो बाकी किसानों से अलग है। उसने खेतीबाड़ी में बदलाव लाने के बारे में सोचा और पीली क्रांति शुरू की।

स. गुरदयाल सिंह गांव सल्लोपुर जिला गुरदासपुर के रहने वाले हल्दी की खेती करने वाले इंसान किसान हैं। वे एक किसान, एक उदयोगपति और एक हल्दी की खेती के ट्रेनर के तौर पर काम कर रहे हैं। वे हल्दी की खेती से लेकर उत्पाद तैयार करने और मंडीकरन तक का काम स्वंय करते हैं। वे अपने उत्पाद बेचने के लिए किसी तीसरे बंदे पर निर्भर नहीं हैं। उन्होंने समाज में अपनी अलग पहचान बनाने के लिए अन्य किसानों से अलग रास्ता चुना। इस समय उनकी हल्दी की वार्षिक पैदावार 1500-2000 क्विंटल है और वे ग्रीन गोल्ड सपाइस ग्रुप के राजा हैं।

सफलता कभी भी आसानी से नहीं मिलती, इसके लिए इंसान को दृढ़ मेहनत करनी पड़ती है, मुश्किलों का सामना करना पड़ता है और कई बार नुकसान को भी सहना पड़ता है। मुश्किलों का सामना करने के बाद, हार ना मानने और आगे बढ़ते रहने की सोच ही इंसान को सफल बनाती है। गुरदयाल सिंह जी की कहानी भी कुछ इस तरह ही है। दसवीं की पढ़ाई खत्म करने के बाद उन्होंने सरकारी नौकरी हासिल करने के लिए बहुत कोशिश की, पर कामयाबी ना मिलने पर उन्होंने अपने पिता के साथ खेतीबाड़ी में मदद करने का फैसला किया। शुरू से ही वे पारंपरिक खेती से संतुष्ट नहीं थे, क्योंकि इस में किसानों को अपनी मेहनत का मुल्य नहीं मिलता था। इसलिए 2004 में उन्होंने बागबानी विभाग की मदद से थोड़ी सी ज़मीन पर हल्दी की खेती का एक प्रयोग करके देखा। इसके साथ ही उन्होंने हल्दी पाउडर बनाने का काम भी शुरू किया, वो भी बिना किसी मशीनरी का प्रयोग किए बिना।

हल्दी की गांठों से हल्दी पाउडर तैयार करना बहुत ही मुश्किल काम था। इसलिए वे बागबानी विभाग के सुझाव अनुसार हल्दी पाउडर तैयार करने वाली मशीन लेकर आये। फिर थोड़े समय बाद उन्होंने अन्य आधुनिक मशीनें जैसे कि ट्रैक्टर, ट्राली, लैवलर, हल आदि भी ले आये। ये सब करने से इस समय उनकी कच्ची हल्दी की पैदावार 60 क्विंटल से बढ़ कर 110 क्विंटल तक पहुंच गई है। ये सब करते ही उन्होंने 2007 में ग्रीन गोल्ड मसाले के नाम का हल्दी प्रोसैसिंग प्लांट लगाया, जिस के उत्पादों में ग्रीन गोल्ड हल्दी भी एक है। उनके परिवार में पत्नी, दो पुत्र, एक बेटी, सब हल्दी की प्रोसैसिंग जैसे कि धुलाई, उबालना, पॉलीशिंग और पीसना आदि क्रियाओं में मुख्य रोल अदा करते हैं। उनके प्रोसैसिंग प्लांट में 4-5 मज़दूर काम करते हैं और हल्दी की पैकिंग, सीलिंग, और स्टैपिंग क्रियाओं में पूरा परिवार बराबर योगदान देता है। सारा मशीनरी सिस्टम लगाने के बाद उन्हें कुछ छोटी-मोटी समस्याओं का सामना करना पड़ रहा है। इन समस्याओं में एक उबाली हल्दी को सुखाने के लिए कम जगह का होना है।

गुरदयाल सिंह जी ने हल्दी की खेती के बारे में ही क्यों सोचा:

• इसे सिंचाई की कम आवश्यकता होती है, बिजाई से लेकर पुटाई तक (8-10) महीने, कुल 10-12 सिंचाइयों की आवश्यकता होती है।

• हल्दी कुदरती तौर पर एक एंटी बायोटिक है, इसीलिए इस फसल पर किसी भी बीमारी आदि का हमला नहीं होता। इस कारण इस पर ज्यादा रसायनों और स्प्रे की जरूरत नहीं पड़ती।

• वे एक एकड़ में 35000 रूपये निवेश करते हैं और 5 क्विंटल बीज बीजते हैं और पुटाई के लिए आलू उखाड़ने वाली मशीन का भी प्रयोग करते हैं।

• वे कुल 6-7 एकड़ में हल्दी की खेती करते हैं और फिर कुछ समय के बाद फसल बदल कर बो दी जाती है, क्योंकि हल्दी की खेती के बाद मिट्टी का उपजाऊ-पन बढ़ जाता है।

इसलिए यदि कोई भी किसान हल्दी की खेती शुरू करना चाहता है तो बड़ी आसानी से कर सकता है। हल्दी के प्रोसैसिंग प्लांट में सारी मशीनरी के लिए गुरदयाल सिंह जी ने 4.5 लाख रूपये निवेश किए। उन्होंने पी ए यू से ट्रेनिंग और हल्दी के बीजों के बारे में जानकारी हासिल की और पंजाब बागबानी विभाग से की हदायतों के अनुसार ग्रीन गोल्ड प्रोसैसिंग यूनिट से 25 प्रतिशत सब्सिडी प्राप्त की। इस क्रांतिकारी काम और अलग रास्ता चुनने के लिए उन्हें बहुत सारे पुरस्कार और ईनाम मिले। उनमें से कुछ निम्नलिखित हैं:

• पंजाब के मुख्यमंत्री की तरफ से उद्यमी पुरस्कार 2014

• किसान पुरस्कार 2015

• पी ए यू लुधियाना और पंजाब बागबानी की तरफ से चपड़चिड़ी में सम्मान

जिस तरीके से वे अपनी खेती की तकनीकों को बढ़ा रहे हैं, उस हिसाब से यह सम्मान बहुत कम है। भविष्य में वे ओर भी बहुत सारे सम्मान हासिल करेंगे।

हल्दी की खेती और पाउडर बनाने के इलावा वे अपने गांव के अन्य किसानों को हल्दी खेती के बारे में सुझाव देते हैं। आज उनके साथ लगभग 60 किसान जुड़े हैं, जिन्हें वे मुफ्त ट्रेनिंग देते हैं। वे अन्य किसानों से सही मुल्य पर कच्ची हल्दी खरीद कर भी उनकी मदद करते हैं। वे अपने खेत में हल्दी की खेती के इलावा अपने मित्र की भी हल्दी की खेती करने में मदद करते हैं। उनके सारे उत्पादों का मंडीकरण और प्रमोशन के लिए NABARD उन्हें विभिन्न विभिन्न प्रदर्शनियों और मेलों में जगह लेकर देता है और किसान उत्पादक संस्थाओं के तरह किसान मेलों में भी भेजते हैं।

इन कामों के इलावा गुरदयाल सिंह जी ने मक्खी पालन के कारोबार में भी निवेश किया है। उन्होंने यह काम सन 2000 में 5 बक्सों से शुरू किया था और इस समय उनके पास 100 बक्से हैं। मक्खी पालन का अच्छी तरह प्रबंध करने के लिए उन्होंने मजदूर रखे हैं। बाकी की ज़मीन पर वे मसूर (हरी मूंग), सफेद बैंगन, भिंडी, गेहूं और धान आदि की खेती घरेलू उपयोग के लिए करते हैं। भविष्य में वे ग्रीन गोल्ड हल्दी प्रोसैसिंग प्लांट को ओर आधुनिक बनाने के लिए पैकिंग के लिए हाई-टैक मशीनें लगाने के लिए योजना बना रहे हैं।

उनकी सोच के अनुसार, यदि किसान खेतीबाड़ी से अच्छा मुनाफा लेना चाहता है और कटाई के बाद फसल में से लाभ उठाना चाहता है, तो उसे दलालों को बाहर निकालना पड़ेगा। किसानों को अपनी फसलों पर खुद प्रोसैसिंग करनी पड़ेगी और खुद ही मंडी तक ले जाना पड़ेगा। यह सब करने के लिए बहुत मेहनत,ताकत और जोश की ज़रूरत है। यदि किसान खुद के तैयार किए उत्पाद मंडी में ले जाने में शर्म महसूस करता है, तो वो कभी भी मुनाफा नहीं ले सकता और ना ही तरक्की कर सकता है। यदि कोई किसान हल्दी की खेती में दिलचस्पी ले रहा है तो वह पी ए यू के माहिरों और अन्य हल्दी वाले किसानों से जानकारी ले सकता है क्योंकि माहिर किस्मों, बीजों, ज़मीन की किस्मों और अन्य जरूरी बातों के बारे में ज्यादा जानकारी दे सकते हैं।

गुरदयाल सिंह जी का संदेश-
वर्तमान समय की जरूरतों के अनुसार पारंपरिक खेती किसानों के लिए सहायक नहीं है। यदि किसान फसल की कटाई के बाद अच्छा मुनाफा लेना चाहता है तो विभिन्नता लेकर आनी जरूरी है। आधुनिक खेती के तरीकों से एक छोटा किसान भी सफलता हासिल कर सकता है। आज कल के समय की ज़रूरत फूड प्रोसैसिंग है, सो किसानों को अलग तरीके से सोचना चाहिए। किसानों को समझना पड़ेगा कि मंडी में स्वंय उत्पाद बेचने के लिए दलालों की कोई जरूरत नहीं है। यह काम स्वंय किया जा सकता है।

हरजीत सिंह बराड़

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कई मुश्किलों का सामना करने के बावजूद भी इस नींबू वर्गीय संपदा के मालिक ने सर्वश्रेष्ठ किन्नुओं के उत्पादन में सफल बने रहने के लिए अपना एक नया तरीका खोजा

फसल खराब होना, कीड़े/मकौड़ों का हमला, बारानी भूमि, आर्थिक परिस्थितियां कुछ ऐसी समस्याएं हैं जो किसानों को कभी-कभी असहाय और अपंग बना देती हैं और यही परिस्थितियां किसानों को आत्महत्या, भुखमरी और निरक्षरता की तरफ ले जाती हैं। लेकिन कुछ किसान इतनी आसानी से अपनी असफलता को स्वीकार नहीं करते और अपनी इच्छा शक्ति और प्रयासों से अपनी परिस्थितियों पर काबू पाते हैं। डेलियांवाली गांव (फरीदकोट) से ऐसे ही एक किसान है जिनकी प्रसिद्धि किन्नू की खेती के क्षेत्र में सुप्रसिद्ध है।

श्री बराड़ को किन्नू की खेती करने की प्रेरणा अबुल खुराना गांव में स्थित सरदार बलविंदर सिंह टीका के बाग का दौरा करने से मिली। शुरूआत में उन्होंने कई समस्याओं जैसे सिटरस सिल्ला, पत्ते का सुरंगी कीट और बीमारियां जैसे फाइटोपथोरा, जड़ गलन आदि का सामना किया लेकिन उन्होंने कभी अपने कदम पीछे नहीं लिए और ना ही अपने किन्नू की खेती के फैसले से निराश हुए। बल्कि धीरे-धीरे समय के साथ उन्होंने सभी समस्याओं पर विजय प्राप्त की और अपने बाग का विस्तार 6 एकड़ से 70 एकड़ तक कर दिखाया।

बाग की उत्पादकता को बढ़ाने के लिए उन्होंने उच्च घनता वाली खेती की तकनीक को लागू किया। किन्नू की खेती के बारे में अधिक जानने के लिए पूरी निष्ठा और जिज्ञासा के साथ उन्होंने सभी समस्याओं को समाधान किया और अपने उद्यम से अधिक लाभ कमाना शुरू किया।

अपनी खेतीबाड़ी के कौशल में चमक लाने और इसे बेहतर पेशेवर स्पर्श देने के लिए उन्होंने पी.ए.यू., के.वी.के फरीदकोट और बागबानी के विभाग से ट्रेनिंग ली।

प्राकृतिक संसाधनों के संरक्षण के लिए जुनून:
वे प्राकृतिक संसाधनों के संरक्षण के प्रति बहुत ही उत्साही हैं वे हमेशा उन खेती तकनीकों को लागू करने की कोशिश करते हैं जिसके माध्यम से वे संसाधनों को बचा सकते हैं। पी.ए.यू के माहिरों के मार्गदर्शन के साथ उन्होंने तुपका सिंचाई प्रणाली (drip irrigation system) स्थापित किया और 42 लाख लीटर क्षमता वाले पानी का भंडारण टैंक बनाया, जहां वे नहर के पानी का भंडारण करते हैं। इसके साथ ही उन्होंने सौर ऊर्जा के संरक्षण के लिए सौर पैनल में भी निवेश किया ताकि इसके प्रयोग से वे भंडारित पानी को अपने बगीचों तक पहुंचा सके। उन्होंने अधिक गर्मी के महीनों के दौरान मिट्टी में नमी के संरक्षण के लिए मलचिंग भी की।

मिट्टी के स्वास्थ्य को सुधारने के लिए वे हरी खाद का उपयोग करते हैं और अन्य किसानों को भी इसका प्रयोग करने की सिफारिश करते हैं। उन्होंने किन्नू की खेती के लिए लगभग 20 मीटर x 10 मीटर और 20 मीटर x 15 मीटर के मिट्टी के बैड तैयार किए हैं।

कैसे करते हैं कीटों का नियंत्रण…
सिटरस सिल्ला, सफेद मक्खी और पत्तों के सुरंगी के हमले को रोकने के लिए उन्होंने विशेष रूप से स्वदेशी एरोब्लास्ट स्प्रे पंप लागू किया है जिसकी मदद से वे कीटनाशक और नदीननाशक की स्प्रे एकसमान कर सकते हैं।

अभिनव प्रवृत्तियों को अपनाना…
जब भी उन्हें कोई नई प्रवृत्ति या तकनीक अपनाने का अवसर मिलता है, तो वे कभी भी उसे नहीं गंवाते। एक बार उन्होंने गुरराज सिंह विर्क- एक प्रतिष्ठित बागबानी करने वाले किसान से, एक नया विचार लिया और कम लागत वाली किन्नू क्लीनिंग कम ग्रेडिंग मशीन (साफ करने वाली और छांटने वाली) (क्षमता 2 टन प्रति एकड़) डिज़ाइन की और अब 2 टन फलों की सफाई और छंटाई के लिए सिर्फ 125 रूपये खर्चा आता है जिसका एक बहुत बड़ा लाभ यह है कि वे इससे 1000 रूपये बचाते हैं। आज वे अपने बागबानी उद्यम से बहुत लाभ कमा रहे हैं। वे अन्य किसानों के लिए भी एक प्रेरणा हैं।

संदेश
“हर किसान, चाहे वे जैविक खेती कर रहे हों या परंपरागत खेती उन्हें मिट्टी का उपजाऊपन बनाए रखने के लिए तत्काल और दृढ़ उपाय करने चाहिए। किन्नू की खेती के लिए, किसानों को मिट्टी के स्वास्थ्य को सुधारने के लिए हरी खाद का प्रयोग करना चाहिए।” 

मंजुला संदेश पदवी

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इस महिला ने अकेले ही साबित किया कि जैविक खेती समाज और उसके परिवार के लिए कैसे लाभदायक है

मंजुला संदेश पदवी दिखने में एक साधारण किसान हैं लेकिन जैविक खेती से संबंधित ज्ञान और उनके जीवन का संघर्ष इससे कहीं अधिक है। महाराष्ट्र के जिला नंदूरबार के एक छोटे से गांव वागसेपा में रहते हुए उन्होंने ना सिर्फ जैविक तरीके से खेती की, बल्कि अपने परिवार की ज़रूरतों को भी पूरा किया और अपने फार्म की आय से अपने बेटी को भी शिक्षित किया।

मंजुला के पति ने उन्हें 10 साल पहले ही छोड़ दिया था, उस समय उनके पास दो विकल्प थे, पहला उस समय की परिस्थितियों को लेकर बुरा महसूस करना, सहानुभूति हासिल करना और किसी अन्य व्यक्ति की तलाश करना। और दूसरा विकल्प था स्वंय अपने पैरों पर खड़े होना और खुद का सहारा बनना। उन्होंने दूसरा विकल्प चुना और आज वे एक आत्मनिर्भर जैविक किसान हैं।

उनके जीवन में एक समय ऐसा भी आया जब उनकी सेहत इतनी खराब हो गई कि उनके लिए चलना फिरना मुश्किल हो गया था। उस समय, उनके दिल का इलाज चल रहा था जिसमें उनके दिल का वाल्व बदला गया था। लेकिन उन्होंने कभी उम्मीद नहीं खोयी। सर्जरी के बाद ठीक होने पर उन्होंने बचत समूह (saving group) से लोन लिया और अपने खेत में एक मोटर पंप लगाया। मिट्टी को अधिक उपजाऊ बनाने के लिए, उन्होंने रासायनिक खादों और कीटनाशकों के स्थान पर जैविक खादों को चुना।

विभिन्न सरकारी नीतियों से मिली राशि उनके लिए अच्छी रकम थी और उन्होंने इसे बैलों की एक जोड़ी खरीदकर बुद्धिमानी से खर्च किया और अब वे अपने खेत की जोताई के लिए बैलों का प्रयोग करती हैं। उन्होंने मक्की और ज्वार की फसल उगायी और इससे उन्हें अच्छी उपज भी मिली।

मंजुला कहती हैं – “आस-पास के खेतों की पैदावार मेरे खेत से कम है पिछले वर्ष हमने मक्की की फसल उगायी लेकिन हमारी उपज अन्य खेतों की उपज के मुकाबले बहुत अच्छी थी क्योंकि मैं जैविक खादों का प्रयोग करती हूं और अन्य किसान रासायनिक खादों का प्रयोग करते हैं। इस वर्ष भी मैं मक्की और ज्वार उगा रही हूं। ”

नंदूरबार जिले में स्थित सार्वजनिक सेवा प्रणाली ने मंजुला की उसके खेती उद्यम में काफी सहायता की उन्होंने अपने क्षेत्र में 15 बचत समूह बनाए हैं और इन समूहों के माध्यम से वे पैसे इकट्ठा करते हैं और जरूरत के मुताबिक किसानों को ऋण प्रदान करते हैं। वे विशेष रूप से गैर रासायनिक और जैविक खेती को प्रोत्साहित करते हैं। एक और ग्रुप है जिससे मंजुला लाभ ले रही हैं वह स्वदेशी बीज बैंक है। वे इस समूह के माध्यम से बीज लेती हैं और सब्जियों, फलों और अनाजों की विविध खेती करती हैं। मंजुला की बेटी मनिका को अपनी मां पर गर्व है और वह हमेशा उनकी सहायता करती है।

आज, महिलायें खेतीबाड़ी के क्षेत्र में बीजों की बिजाई से लेकर फसलों के रख-रखाव और भंडारण में महत्तवपूर्ण भूमिका निभाती है। लेकिन जब खेती मशीनीकृत हो जाती है तो महिलायें इस श्रेणी से बाहर हो जाती हैं। लेकिन मंजुला संदेश पदवी ने खुद को कभी विकलांग नहीं बनाया और अपनी कमज़ोरी को ही अपनी ताकत में बदल दिया। उन्होंने अकेले ही अपने फार्म की देखभाल की और अपनी बेटी और अपने घर की ज़रूरतों को पूरा किया। आज उनकी बेटी ने उच्च शिक्षा हासिल की है और आज वह इतना कमा रही है कि अच्छा जीवन व्यतीत कर सके। वर्तमान में उनकी बेटी मनिका जलगांव में नर्स के रूप में काम कर रही है।

मंजुला संदेश पदवी जैसी महिलायें ग्रामीण भारत के लिए एक पावरहाउस के रूप में काम करती हैं, इनके जैसी महिलायें अन्य महिलाओं को भी मजबूत बनाती है और अपने बेहतर भविष्य के लिए टिकाऊ खेती का चुनाव करती हैं। यदि हम चाहते हैं कि हमारे भविष्य की पीढ़ी स्वस्थ जीवन जिये और उन्हें किसी चीज़ की कमी ना हो। तो आज हमें और मंजुला संदेश पदवी जैसी महिलाओं की जरूरत है।

समय को सतत खेती की जरूरत है क्योंकि रसायन भूमि की उपजाऊ शक्ति को कम करते हैं और भूमिगत जीवन को प्रदूषित करते हैं। इसके अलावा रसायन खेती के खर्चे को भी बढ़ाते हैं जिससे कि किसानों पर कर्ज़ा बढ़ता है और किसान आत्महत्या करने के लिए विवश हो जाते हैं।

हमें मंजुला से सीखना चाहिए कि जैविक खेती अपनाकर पानी, मिट्टी और वातावरण को कैसे बचाया जा सकता है।