सरबजीत सिंह गरेवाल

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मुश्किलों का सामना करके प्रगतिशील किसान बनने तक का सफर-सरबजीत सिंह गरेवाल

पटियाला शहर, जहां पर जितनी दूर तक आपकी निगाह जाती है आपको हरे और फैले हुए खेत दिखाई देते हैं, ऐसे शहर के निवासी है प्रगतिशील किसान सरबजीत सिंह गरेवाल। 6.5 एकड़ उपजाऊ जमीन का होना उनके बागवानी सफर की शुरुआत बनी और उन्होंने खेती की जानकारी प्राप्त की और साल 1985 में विभिन्न प्रकार के फलों की खेती करनी शुरू की।

खेती के प्रति उनके जुनून के अलावा सरबजीत का पारिवारिक इतिहास भी उनके खेती जीवन में एक प्रेरणा बना। उनके पिता, सरदार जगदयाल सिंह जी 1980 में पंजाब खेतीबाड़ी यूनिवर्सिटी के बागवानी विभाग से सेवामुक्त हुए थे और बठिंडा में फल अनुसंधान केंद्र (फ्रूट रिसर्च सेंटर) की स्थापना में भी शामिल थे। सरबजीत सिंह अपने पिता जी की विशेषज्ञता से प्रेरित होकर उनके मार्गदर्शन पर चले और 1983 में उन्होंने खेतीबाड़ी करने का फैसला किया।

असफलताओं से निराश न होकर, सरबजीत ने खेती के तरीकों के बारे में ओर जानना शुरू किया, पंजाबी यूनिवर्सिटी से जीव-विज्ञान में मास्टर और पी.एच.डी. के साथ, सरबजीत की एक मजबूत शैक्षणिक पृष्ठभूमि थी जिसने उनकी ज्ञान के प्रति प्यास को उत्साहित किया। उन्होंने बागवानी की किताबें पढ़ीं और इंटरनेट से जानकारी इकट्ठी की और अपने द्वारा की गयी रिसर्च के माध्यम से ज्ञान प्राप्त किया जिस ने भविष्य में खेती के फैसले लेने में सहायता की।

2018 में, अमरूद, भारतीय करौदा (Indian gooseberry) और अनार जैसी विभिन्न फसलों के साथ लगभग 15 वर्षों के प्रयोग के बाद, सरबजीत ने बेर, अमरूद और आड़ू की खेती पर ध्यान केंद्रित करने का निर्णय लिया। अपने पिछले अनुभवों से सीखकर उन्होंने आड़ू के पेड़ों की अनूठी आवश्यकताओं का अध्ययन किया, यह सुनिश्चित करते हुए कि मिट्टी, पानी और जलवायु की स्थिति उनके विकास के लिए आदर्श थी। उन्होंने पंजाब खेतीबाड़ी यूनिवर्सिटी (पी.ए.यू.) द्वारा सिफारिश पैकेज ऑफ़ प्रक्टिक्स को भी अपनाया और बागवानी अफसरों से सहायता ली।

सरबजीत जी के आड़ू का बाग फलने-फूलने लगा और उन्हें चुनौतियों का सामना भी करना पड़ा। बाग़ में आई चुनौतियों को समझकर सीख गए थे कि प्रत्येक पौधे को देखभाल और निगरानी की आवश्यकता होती है जिसमें उचित छंटाई, कीट नियंत्रण और रोग की रोकथाम आदि शामिल हैं। कड़ी मेहनत के साथ, उन्होंने अपने बाग़ की देखरेख में घंटों बिताए जिसके परिणामस्वरूप भरपूर फसल हुई।

अपनी उपज के लिए एक मार्किट स्थापित करने के लिए, सरबजीत एक बिचौलिये की सेवाओं पर निर्भर थे। उन्होंने खरीदारों से जुड़ने के लिए एक मजबूत नेटवर्क बनाने और फलों का उचित मूल्य सुनिश्चित करने के महत्व को पहचाना। इससे वह खेती की प्रक्रिया पर ध्यान केंद्रित करने लगे, उन्हें विश्वास था कि उनके फल उपभोक्ताओं तक पहुंचेंगे।

जैसे ही सरबजीत के आड़ू के बगीचे में सूरज ढलता है, उसके परिश्रम का फल उसके अटूट समर्पण के प्रमाण के रूप में सामने आता है। आड़ू की शान-ए-पंजाब प्रजाति के साथ-साथ सेब, आलूबुखारा और यहां तक कि ड्रैगन फ्रूट जैसे विदेशी फलों की खेती के लिए उनकी पसंद, फलों की खेती में नए तरीकों के बारे में तलाशने की उनकी अनुकूलन क्षमता और इच्छा को दर्शाती है। सरबजीत की सफलता की कहानी कृषि उत्कृष्टता प्राप्त करने में ज्ञान, मुश्किलों का सामना और भूमि के प्रति प्यार के महत्व के बारे में स्पष्ट करती है।

किसानों के लिए संदेश

सरबजीत सिंह जी अपने साथी किसानों को बागवानी में आने वाले निश्चित उतराव-चढ़ाव का डटकर सामना करने के लिए प्रोत्साहित करते हैं क्योंकि बागवानी को समर्पित जीवन अंत में आपको असीमित खुशी और संतुष्टि देता है। उनका मानना है कि बागवानी में आमदनी सिमित है लेकिन इससे मिलने वाली खुशी पैसों से बढ़कर है।

करमजीत सिंह भंगु

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मिलिए आधुनिक किसान से, जो समय की नज़ाकत को समझते हुए फसलें उगा रहा है

करमजीत सिंह के लिए किसान बनना एक धुंधला सपना था, पर हालात सब कुछ बदल देते हैं। पिछले सात वर्षों में, करमजीत सिंह की सोच खेती के प्रति पूरी तरह बदल गई है और अब वे जैविक खेती की तरफ पूरी तरह मुड़ गए हैं।

अन्य नौजवानों की तरह करमजीत सिंह भी आज़ाद पक्षी की तरह सारा दिन क्रिकेट खेलना पसंद करते थे, वे स्थानीय क्रिकेट टूर्नामेंट में भी हिस्सा लेते थे। उनका जीवन स्कूल और खेल के मैदान तक ही सीमित था। उन्होंने कभी सोचा भी नहीं था कि उनकी ज़िंदगी एक नया मोड़ लेगी। 2003 में जब वे स्कूल में ही थे उस दौरान उनके पिता जी का देहांत हो गया और कुछ समय बाद ही, 2005 में उनकी माता जी का भी देहांत हो गया। उसके बाद सिर्फ उनके दादा – दादी ही उनके परिवार में रह गए थे। उस समय हालात उनके नियंत्रण में नहीं थे, इसलिए उन्होंने 12वीं के बाद अपनी पढ़ाई छोड़ने का फैसला किया और अपने परिवार की मदद करने के बारे में सोचा।

उनका विवाह बहुत छोटी उम्र में हो गया और उनके पास विदेश जाने और अपने जीवन की एक नई शुरूआत करने का अवसर भी था पर उन्होंने अपने दादा – दादी के पास रहने का फैसला किया। वर्ष 2011 में उन्होंने खेती के क्षेत्र में कदम रखने का फैसला किया। उन्होंने छोटे रकबे में घरेलु प्रयोग के लिए अनाज, दालें, दाने और अन्य जैविक फसलों की काश्त करनी शुरू की। उन्होंने अपने क्षेत्र के दूसरे किसानों से प्रेरणा ली और धीरे धीरे खेती का विस्तार किया। समय और तज़ुर्बे से उनका विश्वास और दृढ़ हुआ और फिर करमजीत सिंह ने अपनी ज़मीन ठेके पर से वापिस ले ली।
उन्होंने टिंडे, गोभी, भिंडी, मटर, मिर्च, मक्की, लौकी और बैंगन आदि जैसी अन्य सब्जियों में वृद्धि की और उन्होंने मिर्च, टमाटर, शिमला मिर्च और अन्य सब्जियों की नर्सरी भी तैयार की।

खेतीबाड़ी में दिख रहे मुनाफे ने करमजीत सिंह की हिम्मत बढ़ाई और 2016 में उन्होंने 14 एकड़ ज़मीन ठेके पर लेने का फैसला किया और इस तरह उन्होंने अपने रोज़गार में ही खुशहाल ज़िंदगी हासिल कर ली।

आज भी करमजीत सिंह खेती के क्षेत्र में एक अनजान व्यक्ति की तरह और जानने और अन्य काम करने की दिलचस्पी रखने वाला जीवन जीना पसंद करते हैं। इस भावना से ही वे वर्ष 2017 में बागबानी की तरफ बढ़े और गेंदे के फूलों से ग्लैडियोलस के फूलों की अंतर-फसली शुरू की।

करमजीत सिंह जी को ज़िंदगी में अशोक कुमार जी जैसे इंसान भी मिले। अशोक कुमार जी ने उन्हें मित्र कीटों और दुश्मन कीटों के बारे में बताया और इस तरह करमजीत सिंह जी ने अपने खेतों में कीटनाशकों के प्रयोग पर प्रतिबंध लगाया।

करमजीत सिंह जी ने खेतीबाड़ी के बारे में कुछ नया सीखने के तौर पर हर अवसर का फायदा उठाया और इस तरह ही उन्होंने अपने सफलता की तरफ कदम बढ़ाए।

इस समय करमजीत सिंह जी के फार्म पर सब्जियों के लिए तुपका सिंचाई प्रणाली और पैक हाउस उपलब्ध है। वे हर संभव और कुदरती तरीकों से सब्जियों को प्रत्येक पौष्टिकता देते हैं। मार्किटिंग के लिए, वे खेत से घर वाले सिद्धांत पर ताजा-कीटनाशक-रहित-सब्जियां घर तक पहुंचाते हैं और वे ऑन फार्म मार्किट स्थापित करके भी अच्छी आय कमा रहे हैं।

ताजा कीटनाशक रहित सब्जियों के लिए उन्हें 1 फरवरी को पी ए यू किसान क्लब के द्वारा सम्मानित किया गया और उन्हें पटियाला बागबानी विभाग की तरफ से 2014 में बेहतरीन गुणवत्ता के मटर उत्पादन के लिए दूसरे दर्जे का सम्मान मिला।

करमजीत सिंह की पत्नी- प्रेमदीप कौर उनके सबसे बड़ी सहयोगी हैं, वे लेबर और कटाई के काम में उनकी मदद करती हैं और करमजीत सिंह खुद मार्किटिंग का काम संभालते हैं। शुरू में, मार्किटिंग में कुछ समस्याएं भी आई थी, पर धीरे धीरे उन्होने अपनी मेहनत और उत्साह से सभी रूकावटें पार कर ली। वे रसायनों और खादों के स्थान पर घर में ही जैविक खाद और स्प्रे तैयार करते हैं। हाल ही में करमजीत सिंह जी ने अपने फार्म पर किन्नू, अनार, अमरूद, सेब, लोकाठ, निंबू, जामुन, नाशपाति और आम के 200 पौधे लगाए हैं और भविष्य में वे अमरूद के बाग लगाना चाहते हैं।

संदेश

“आत्म हत्या करना कोई हल नहीं है। किसानों को खेतीबाड़ी के पारंपरिक चक्र में से बाहर आना पड़ेगा, केवल तभी वे लंबे समय तक सफलता प्राप्त कर सकते हैं। इसके अलावा किसानों को कुदरत के महत्तव को समझकर पानी और मिट्टी को बचाने के लिए काम करना चाहिए।”

 

इस समय 28 वर्ष की उम्र में, करमजीत सिंह ने जिला पटियाला की तहसील नाभा में अपने गांव कांसूहा कला में जैविक कारोबार की स्थापना की है और जिस भावना से वे जैविक खेती में सफलता प्राप्त कर रहे हैं, उससे पता लगता है कि भविष्य में उनके परिवार और आस पास का माहौल और भी बेहतर होगा। करमजीत सिंह एक प्रगतिशील किसान और उन नौजवानों के लिए एक मिसाल हैं, जो अपने रोज़गार के विकल्पों की उलझन में फंसे हुए हैं हमें करमजीत सिंह जैसे और किसानों की जरूरत है।

कैप्टन ललित

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कैसे एक व्यक्ति ने अपनी अंतरात्मा की आवाज़ को सुना और बागबानी को अपनी रिटायरमेंट योजना के रूप में चुना

राजस्थान की सूखी भूमि पर अनार उगाना, एक मज़ाकिया और असफल विचार लगता है लेकिन अपने मजबूत दृढ़ संकल्प, जिद और उच्च घनता वाली खेती तकनीक से कैप्टन ललित ने इसे संभव बनाया।

कई क्षेत्रों में माहिर होने और अपने जीवन में कई व्यवसायों का अनुभव करने के बाद, आखिर में कैप्टन ललित ने बागबानी को अपनी रिटायरमेंट योजना के रूप में चुना और राजस्थान के गंगानगर जिले में अपने मूल स्थान- 11 Eea में वापिस आ गए। खैर, कई शहरों में रह रहे लोगों के लिए, खेतीबाड़ी एक अच्छी रिटारमेंट योजना नहीं होती, लेकिन श्री ललित ने अपनी अंर्तात्मा की आवाज़ को सही में सुना और खेतीबाड़ी जैसे महान और मूल व्यवसाय को एक अवसर देने के बारे में सोचा।

शुरूआती जीवन-
श्री ललित शुरू से ही सक्रिय और उत्साही व्यक्ति थे, उन्होंने कॉलेज में पढ़ाई के साथ ही अपना पेशेवर व्यवसाय शुरू कर दिया था। अपनी ग्रेजुऐशन की पढ़ाई पूरी करने के बाद, उन्होंने व्यापारिक पायलेट का लाइसेंस भी प्राप्त किया और पायलेट का पेशा अपनाया। लेकिन यह सब कुछ नहीं था जो उन्होंने किया। एक समय था जब कंप्यूटर की शिक्षा भारत में हर जगह शुरू की गई थी, इसलिए इस अवसर को ना गंवाते हुए उन्होंने एक नया उद्यम शुरू किया और जयपुर शहर में एक कंप्यूटर शिक्षा केंद्र खोला। जल्दी ही कुछ समय के बाद उन्होंने ओरेकल टेस्ट पास किया और एक ओरेकल प्रमाणित कंप्यूटर ट्रेनर बन गए। उनका कंप्यूटर शिक्षा केंद्र कुछ वर्षों तक अच्छा चला लेकिन लोगों में कंप्यूटर की कम होती दिलचस्पी के कारण इस व्यवसाय से मिलने वाला मुनाफा कम होने के कारण उन्होंने अपने इस उद्यम को बंद कर दिया।

उनके कैरियर के विकल्पों को देखते हुए यह तो स्पष्ट है कि शुरूआत से ही वे एक अनोखा पेशा चुनने में दिलचस्पी रखते थे जिसमें कि कुछ नई चीज़ें शामिल थी फिर चाहे वह प्रवृत्ति, तकनीकी या अन्य चीज़ के बारे में हो और अगला काम जो षुरू किया, उन्होंने जयपुर शहर में किराये पर एक छोटी सी ज़मीन लेकर विदेशी सब्जियों और फूलों की खेती व्यापारिक उद्देश्य के लिए की और कई पांच सितारा होटलों ने उनसे उनके उत्पादन को खरीदा।

“जब मैंने विदेशी सब्जियां जैसे थाईम, बेबी कॉर्न, ब्रोकली, लेट्स आदि को उगाया उस समय इलाके के लोग मेरा मज़ाक बनाते थे क्योंकि उनके लिए ये विदेशी सब्जियां नई थी और वे मक्की के छोटे रूप और फूल गोभी के हरे रूप को देखकर हैरान होते थे। लेकिन आज वे पिज्ज़ा, बर्गर और सलाद में उन सब्जियों को खा रहे हैं।”

जब विचार अस्तित्व में आया-
जब वे विदेशी सब्जियों की खेती कर रहे थे उस समय के दौरान उन्होंने महसूस किया कि खेतीबाड़ी में निवेश करना सबसे अच्छा है और उन्हें इसे बड़े स्तर पर करना चाहिए। क्योंकि उनके पास पहले से ही अपने मूल स्थान में एक पैतृक संपत्ति (12 बीघा भूमि) थी इसलिए उन्होंने इस पर किन्नू की खेती शुरू करने का फैसला किया वे किन्नू की खेती शुरू करने के विचार को लेकर अपने गांव वापिस आ गए लेकिन कईं किसानों से बातचीत करने के बाद उन्हे लगा कि प्रत्येक व्यक्ति एक ही चीज़ कर रहा है और उन्हें कुछ अलग करना चाहिए।

और यह वह समय था जब उन्होंने विभिन्न फलों पर रिसर्च करना शुरू किया और विभिन्न शहरों में अलग -अलग खेतों का दौरा किया। अपनी रिसर्च से उन्होंने एक उत्कृष्ट और एक आम फल को उगाने का निष्कर्ष निकाला। उन्होंने (केंद्रीय उपोष्ण बागबानी लखनऊ) से परामर्श लिया और 2015 में अनार और अमरूद की खेती शुरू की। उन्होंने 6 बीघा क्षेत्र में अनार (सिंदूरी किस्म) और अन्य 6 बीघा क्षेत्र में अमरूद की खेती शुरू की। रिसर्च और सहायता के लिए उन्होंने मोबाइल और इंटरनेट को अपनी किताब और टीचर बनाया।

“शुरू में, मैंने राजस्थान एग्रीकल्चर यूनिवर्सिटी से भी परामर्श लिया लेकिन उन्होंने कहा कि राजस्थान में अनार की खेती संभव नहीं है और मेरा मज़ाक बनाया।”

खेती करने के ढंग और तकनीक-
उन्होंने अनार की उच्च गुणवत्ता और उच्च मात्रा का उत्पादन करने के लिए उच्च घनता वाली तकनीक को अपनाया। खेतीबाड़ी की इस तकनीक में उन्होंने कैनोपी प्रबंधन को अपनाया और 20 मीटर x 20 मीटर के क्षेत्र में अनार के 7 पौधे उगाए। ऐसा करने से, एक पौधा एक मौसम में 20 किलो फल देता है और 7 पौधे 140 किलो फल देते हैं। इस तरीके से उन्होंने कम क्षेत्र में अधिक वृक्ष लगाए हैं और इससे भविष्य में वे अच्छा कमायेंगे। इसके अलावा, उच्च घनता वाली खेती के कारण, वृक्षों का कद और चौड़ाई कम होती है जिसके कारण उन्हें पूरे फार्म के रख रखाव के लिए कम श्रमिकों की आवश्यकता होती है।

कैप्टन ललित ने अपनी खेती के तरीकों को बहुत मशीनीकृत किया है। बेहतर उपज और प्रभावी परिणाम के लिए उन्होंने स्वंय एक टैंक- कम- मशीन बनाई है और इसके साथ एक कीचड़ पंप को जोड़ा है इसके अंदर घूमने के लिए एक शाफ्ट लगाया है और फार्म में सलरी और जीवअमृत आसानी से फैला दी जाती है। फार्म के अंदर इसे चलाने के लिए वे एक छोटे ट्रैक्टर का उपयोग करते हैं। जब इसे किफायती बनाने की बात आती है तो वे बाज़ार से जैविक खाद की सिर्फ एक बोतल खरीदकर सभी खादों, फिश अमीनो एसिड खाद, जीवाणु और फंगस इन सभी को अपने फार्म पर स्वंय तैयार करते हैं।

उन्होंने राठी नसल की दो गायों को भी अपनाया जिनकी देख रेख करने वाला कोई नहीं था और अब वे उन गायों का उपयोग जीवअमृत और खाद बनाने के लिए करते हैं। एक अहम चीज़ – “अग्निहोत्र भभूति”, जिसका उपयोग वे खाद में करते हैं। यह वह राख होती है जो कि हवन से प्राप्त होती है।

“अग्निहोत्र भभूति का उपयोग करने का कारण यह है कि यह वातावरण को शुद्ध करने में मदद करती है और यह आध्यात्मिक खेती का एक तरीका है। आध्यात्मिक का अर्थ है खेती का वह तरीका जो भगवान से संबंधित है।”

उन्होंने 50 मीटर x 50 मीटर के क्षेत्र में बारिश का पानी बचाने के लिए और इससे खेत को सिंचित करने के लिए एक जलाशय भी बनाया है। शुरूआत में उनका फार्म पूरी तरह पर्यावरण के अनुकूल था क्योंकि वे सब कुछ प्रबंधित करने के लिए सोलर ऊर्जा का प्रयोग करते थे लेकिन अब उन्हें सरकार से बिजली मिल रही है।

सरकार की भूमिका-
उनका अनार और अमरूद की खेती का पूरा प्रोजेक्ट राष्ट्रीय बागबानी बोर्ड द्वारा प्रमाणित किया गया है और उन्हें उनसे सब्सिडी मिलती है।

उपलब्धियां-
उनके खेती के प्रयास की सराहना कई लोगों द्वारा की जाती है।
जिस यूनिवर्सिटी ने उनका मज़ाक बनाया था वह अब उन्हें अपने समारोह में अतिथि के रूप में आमंत्रित करती है और उनसे उच्च घनता वाली खेती और कांट-छांट की तकनीकों के लिए परामर्श भी लेती है।

वर्तमान स्थिति-
आज उन्होंने 12 बीघा क्षेत्र में 5000 पौधे लगाए हैं और पौधों की उम्र 2 वर्ष 4 महीने है। उच्च घनता वाली खेती के द्वारा अनार के पौधों ने फल देना शुरू भी कर दिया है, लेकिन वे अगले वर्ष वास्तविक व्यापारिक उपज की उम्मीद कर रहे हैं।

“अपनी रिसर्च के दौरान मैंने कुछ दक्षिण भारतीय राज्यों का भी दौरा किया और वहां पर पहले से ही उच्च घनता वाली खेती की जा रही है। उत्तर भारत के किसानों को भी इस तकनीक का पालन करना चाहिए क्योंकि यह सभी पहलुओं में फायदेमंद हैं।”

यह सब शुरू करने से पहले, उन्हें उच्च घनता वाली खेती के बारे में सैद्धांतिक ज्ञान था, लेकिन उनके पास व्यावहारिक अनुभव नहीं था, लेकिन धीरे धीरे समय के साथ वह इसे भी प्राप्त कर रहे हैं उनके पास 2 श्रमिक हैं और उनकी सहायता से वे अपने फार्म का प्रबंधन करते हैं।

उनके विचार-
जब एक किसान खेती करना शुरू करता है तो उसे उद्योग की तरह निवेश करना शुरू कर देना चाहिए तभी वे लाभ प्राप्त कर सकते हैं। इसके अलावा आज हर किसान को मशीनीकृत होने की ज़रूरत है यदि वे खेती में कुशल होना चाहते हैं।

किसानों को संदेश-
“जब तक किसान पारंपरिक खेती करना नहीं छोड़ते तब तक वे सशक्त और स्वतंत्र नहीं हो सकते। विशेषकर वे किसान जिनके पास कम भूमि है उन्हें स्वंय पहल करनी पड़ेगी और उनहें बागबानी में निवेश करना चाहिए। उन्हें सिर्फ सही दिशा का पालन करना चाहिए।”

गुरराज सिंह विर्क

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एक किसान, जिसने अपने मुश्किल समय में अपने कौशल को अपनी ताकत बनाया और भविष्यवादी कृषक के रूप में उभरकर आए

यह देखा गया है की भारत में आम तौर पर ज्यादातर किसान अपनी घरेलू आर्थिक एवं और मुश्किलों का सामना सबर और मेहनत से करने की बजाए, हार मान लेते हैं। यहां तक कि कुछ किसान आत्महत्या का रास्ता भी अपनाते हैं। पर आज हम एक ऐसे किसान कि बात करने जा रहे हैं, जिसने न केवल अपनी घरेलू एवं आर्थिक मुश्किलों का सामना किया बल्कि अपनी मेहनत से बागबानी कि खेती में सफलता प्राप्त करके उच्च स्तरीय इनाम भी हांसिल किये और उस किसान का नाम है- गुरराज सिंह विर्क, जो पिछले 30 सालों से किन्नू कि खेती कर रहे हैं।

गुरराज सिंह का जन्म 1 अक्टूबर 1954 को एक आम परिवार में हुआ और वे मोहल्ला सुरगापुरी , कोटकपूरा, जिला फरीदकोट के निवासी हैं। उन्होंने खुद बाहरवीं तक ही पढ़ाई की है, पर उन्होंने अपनी हिम्मत व् आत्मविश्वास से न केवल बागबानी के क्षेत्र में सफल मुकाम हांसिल किया बल्कि अपने काम को आसान एवं प्रभावशाली बनाने के लिए देसी तरीके से कई मशीनों की खोज भी की।पर उनको यह मुकाम हांसिल करने के लिए बहुत संघर्ष करना पड़ा।

जीवन का प्राथमिक संघर्ष
शुरुआत में वे कपास की खेती करते थे पर 1990 में बीमारियों का हमला होने की वजह से उनको यह खेती बंद करनी पड़ी क्योंकि बैंको और बिचौलियों का कर्जा बढ़ता जा रहा था उन कुछ समय बाद गन्ने की खेती शुरू की लेकिन फरीदकोट में गन्ना मिल बंद हो जाने की वजह से उन्हें इससे भी ख़ास मुनाफा नहीं हुआ। इसके बाद उन्होंने धान की खेती करने का फैसला किया, पर इसमें भी ज्यादा मुनाफा नहीं था क्योंकि जमीन में पानी का स्तर समान्य नहीं था।

जीवन का अहम मोड़
आखिर उन्होंने 1983 में बागबानी विभाग फरीदकोट और पंजाब एग्रीकल्चर यूनिवर्सिटी के सहयोग से प्रशिक्षण हांसिल करके किन्नू का बाग़ लगाया। बाग़ लगाए को अभी 2 साल भी नहीं हुए थे कि उनके पिता जी सरदार सरवन सिंह का देहांत हो गया, जिससे पुरे परिवार को बहुत गहरा धक्का लगा। हालाँकि इसमें बहुत समय लगा पर वे सबर एवं मेहनत और विश्वास के साथ जिंदगी को सही रहते पर ले आये। अभी परिवार पिछले दुखों को भुला भी नहीं पाया था कि1999 में उनकी माता जी सरदारनी मोहिंदर कौर का भी देहांत हो गया और परिवार फिर से शोक में चला गया। पर इतना सब कुछ होने के बाद भी उन्होंने हौंसला नहीं हारा और अपने काम को जारी रखा।

मेहनत का फल
कहा जाता है कि सब्र का फल मीठा होता है इसी तरह किन्नू के पौधों ने भी फल देना शुरू किया और अच्छे दिन वापिस आने लगे। इस मुनाफे से हुए पैसों को व्यर्थ न करते हुए उन्होंने बड़ी सूझ-बूझ से बाग़ का क्षेत्र आगे बढ़ाया और एक ट्यूबवेल लगवाया। अब पानी सिंचाई योग्य होने कि वजह से धान से भी मुनाफा शुरू हो गया। उन्होंने २०५ एकड़ में अंगूर का बाग़ भी लगाया जो एक लाख प्रति एकड़ के हिसाब दे आमदन देता था।

पर सफलता का रास्ता इतना भी आसान नहीं होता बाग़ लगाने के 15 साल बाद दीमक के गंभीर हमले कि वजह से बाग़ उखाड़ना पड़ा, फिर भी उन्होंने हार नहीं मानी और किन्नू के साथ साथ धान कि खेती को आगे बढ़ाया।

स. विर्क मौजूदा समय कि आधुनिक तकनीकों के साथ अपडेट रहते हैं और जरूरत पड़ने पर उन्हें अपने खेतो में लागू भी करते हैं।आज उनके पास 41 एकड़ जमीन हैं जिसमे से 21 एकड़ पर किन्नू का बाग़ है 20 एकड़ पर वे गेहूं, धान की खेती कर रहे हैं। उनके बाग़ में किन्नू के पौधों के अलावा कहीं कहीं पर नींबू, ग्रेप फ्रूट, मौसमी, माल्टा रेड, माल्टा जाफ़ा, नागपुरी संगतरा, नारंगी, आलू-बुखारा, अनार, अंगूर, अमरुद, आंवला, जामुन, फालसा, चीकू आदि के भी हैं। वे पानी कि बचत के लिए बाग़ में तुपका सिंचाई और गर्मियों में मिट्टी कि नमी बनाये रखने के लिए मल्चिंग तकनीक का भी इस्तेमाल करते हैं। वे कुदरती स्त्रोतों के रख-रखाव में भी निपुण हैं। ज्यादातर किन्नू के नए पौधों वाली मिट्टी के उपजाऊपन को ठीक रखने के लिए वे हमेशा हरी खाद के पक्ष में रहते हैं। वे पारम्परिक ढंग के साथ साथ अधिक घनत्व वाले तरीके से भी खेती करते हैं।

खोजें एवं रचनाएँ
अपने काम को और आसान बनाने के लिए उन्होंने बहुत सारी खोजें भी की। उन्होंने कई तरह की मशीनें बनाई, जो ज्यादा उच्च स्तरीय यां महंगी नहीं हैं बल्कि साधारण एवं देसी तरीके से तैयार की गयी हैं। ये मशीनें पैसा और समय दोनों की बचत करती हैं। उन्होंने एक देसी स्प्रे पंप और पेड़ों की कटाई- छंटाई वाला यंत्र भी तैयार किया। इसके आलावा उन्होंने एक किन्नू की सफाई और ग्रेडिंग वाली मशीन भी बनाई, जो एक घंटे में २ टन तक किन्नू साफ़ करती है। २ टन फल साफ़ करने और छांटने में १२५ रूपये तक का खर्चा आता है जबकि हाथों से यही काम करने में १००० रूपये तक खर्चा आता है। मशीन से छंटे हुए फलों का मार्किट में अच्छा भाव मिलता है।

ऊपर लिखी हुई खोजों के आलावा गुरराज सिंह विर्क ने साहित्य कला में भी अपना योगदान दिया, उन्होंने किन्नू की खेती पर 7 मशहूर लेख एवं एक किताब भी लिखी।

उपलब्धियां
स. गुरराज सिंह विर्क को उनकी मेहनत एवं सफलता के लिए बहुत सारे समारोह में सम्मानित किया गया। उनमे से कुछ उपलब्धियां नीचे लिखी गयी हैं:

उनके किन्नुओं को राज्य और जिला स्तर पर बहुत सरे इनाम मिले हैं।उनको 2010-2011 और 2011-12 साल में सर्वोत्तम किन्नू लगाने वाले किसान के तौर पर राष्ट्रीय बागबानी बोर्ड की तरफ से सम्मानित किया गया।

मार्च 2012 में मासिक खेतीबाड़ी मैगज़ीन ” एडवाइजर” की तरफ से लगाए गए मेले में भी सम्मानित किया गया।

गुरराज सिंह विर्क जी ने कई उच्च स्तरीय समितियों जैसे की पी. ए. यू. की “फल और सब्जियां उगाऊ सलाहकार समिति” और मालवा फल और सब्जियां उगाऊ समिति” में भीअपनी ख़ास जगह बनाई है।

बहुत सारे विभागों की तरफ से किसानो को विर्क के खेतो में सफल ढंग से खेती करने की जानकारी देने के लिए ले जाया जाता है।

गुरराज सिंह विर्क ने जिले में लगभग १५० एकड़ पर किन्नू की खेती कर्म में किसानो की मदद की है।

वे किन्नू उत्पादन में सफल होने और अपनी सभी उपलब्धियों के लिए के. वी. के. फरीदकोट और राज्य बागबानी विभाग से मिले प्रशिक्षण के लिए आभार व्यक्त करते हैं।

पारिवारिक जीवन
स. विर्क ने बहुत सारी मुश्किलों और कम पढ़ाई होने के बावजूद भी बड़े स्तर पर उपलब्धियां हासिल की और आज यही सब उनके बच्चे भी करके दिखा रहे हैं। उनकी पत्नी जगमीत कौर एक घरेलू औरत हैं। उनके 5 बच्चों में से एक बेटा कनाडा में इंजिनियर, एक बेटा अमरीका में डॉक्टर, एक बेटी कनाडा और दूसरी बेटी पंजाब में डॉक्टर है और उनकी एक बेटी कनेडा में नर्स है। उनके सभी बच्चे अपने परिवारों के साथ ख़ुशी से जीवन व्यतीत कर रहे हैं और गुरराज सिंह विर्क उनसे मिलने के लिए कनेडा और अमरीका जाते रहते हैं।

किसानों के लिए सन्देश
“किसानो को छोटे-मोटे नुकसान और खेती में आने वाली मुश्किलों के कारन अपना आत्म विश्वास टूटने नहीं देना चाहिए और हार नहीं माननी चाहिए। किसानो को पारम्परिक खेती से अलग भी सोचना चाहिए। खेतीबाड़ी में आज भी बहुत सारे ऐसे क्षेत्र हैं जिनमे कम निवेश से भी बहुत मुनाफा कमाया जा सकता है। बागबानी भी एक ऐसा क्षेत्र है जिसमे किसान आसानी से लाखों का मुनाफा कमा सकते हैं, पर शुरुआती समय में बहुत सब्र रखने की जरूरत होती है। मै खुद भी बागबानी के क्षेत्र में मेहनत करके आज अच्छी आमदन ले रहा हूँ और भविष्य में यही चाहता हूँ कि किसान पारम्परिक खेती के साथ-साथ बागबानी को भी अपनाएं और आगे लेकर आएं। 

रजनीश लांबा

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एक इंसान, जिसने अपने दादा जी के नक्शे कदम पर चल कर जैविक खेती के क्षेत्र में सफलता हासिल की

बहुत कम बच्चे होते हैं जो अपने पुरखों के कारोबार को अपने जीवन में इस प्रेरणा से अपनाते हैं ताकि उनके पिता और दादा को उन पर गर्व हो। एक ऐसे ही इंसान हैं रजनीश लांबा, जिसने अपने दादा जी से प्रेरित होकर जैविक खेती शुरू की।

रजनीश लांबा राजस्थान के जिला झुनझुनु में स्थित गांव चेलासी के रहने वाले एक सफल बागबानी विशेषज्ञ हैं। उनके पास 4 एकड़ का बाग है, जिसका नाम उन्होंने अपने दादा जी के नाम पर रखा हुआ है -हरदेव बाग और उद्यान नर्सरी और इसमें नींबू, आम, अनार, बेल पत्र, किन्नू, मौसमी आदि के 3000 से ज्यादा वृक्ष फलों के हैं।

खेती को पेशे के रूप में चुनना रजनीश लांबा की अपनी दिलचस्पी थी। रजनीश लांबा के पिता श्री हरी सिंह लांबा एक पटवारी थे और उनके पास अलग पेशा चुनने के लिए पूरे मौके थे और डबल एम.ए. करने के बाद वे अपने ही क्षेत्र में अच्छी जॉब कर सकते थे पर उन्होंने खेती को चुना। जैविक खेती से पहले वे पारंपरिक खेती करते थे और बाजरा, गेहूं, ज्वार, चने, सरसों, मेथी, प्याज और लहसुन फसलें उगाते थे, पर जब उन्होंने अपने दादा जी के जैविक खेती के अनुभव के बारे में जाना तो उन्होंने अपने पैतृक व्यवसाय को आगे ले जाने और उस काम को और अधिक लाभदायक बनाने के बारे में सोचा।

यह सब 1996 में शुरू हुआ, जब 1 बीघा क्षेत्र में बेल के 25 वृक्ष लगाए गए और बिना रसायनों के प्रयोग के जैविक खेती को लागू किया गया। इसके साथ ही उन्होंने नर्सरी की तैयारी शुरू कर दी। 8 वर्षों की कड़ी मेहनत और प्रयासों के बाद 2004-2005 में अंतत: बेल पत्र के वृक्षों ने फल देना शुरू किया और उन्होंने 50,000 का भारी लाभ कमाया।

लाभ में इस वृद्धि ने उनके विश्वास को और मजबूत बनाया कि बाग के व्यवसाय से अच्छी उपज और अच्छा लाभ मिलता है इसलिए उन्होंने अपने पूरे क्षेत्र में बाग के विस्तार का निर्णय लिया। 2004 में उन्होंने बेल पत्र के 600 अन्य वृक्ष लगाए और 2005 में बेल पत्र के साथ, किन्नू और मौसमी के 150-150 वृक्ष लगाए। जैसे कि कहा जाता है कि मेहनत का फल मीठा होता है, ऐसे ही परिणाम समान थे । 2013 में उन्होंने मौसमी और किन्नू के उत्पादन से लाभ कमाया और इनसे प्रेरित होकर सिंदूरी किस्म के 600 वृक्ष और लैमन के 250 वृक्ष लगाए। 2012 में उन्होंने आम और अमरूद के 5-5 वृक्ष भी लगाए थे।

वर्तमान में उनके बाग में कुल 3000 वृक्ष फलों के हैं और अब तक सभी वृक्षों से वे अच्छा लाभ कमा रहे हैं। अब उनके छोटे भाई विक्रात लांबा और उनके पिता हरि सिंह लांबा, भी उनके बाग के कारोबार में मदद कर रहे हैं। बागबानी के अलावा उन्होंने 2006 में 25 गायों के साथ डेयरी फार्मिंग की कोशिश भी की, लेकिन इससे उन्हें ज्यादा लाभ नहीं मिला और 2013 में इसे बंद कर दिया। अब उनके पास घरेलू उद्देश्य के लिए सिर्फ 4 गायें हैं।

स्वस्थ उपज और गुणवत्ता को बनाए रखने के लिए, वे गाय का गोबर, गऊ मूत्र, नीम का पानी, धतूरा और गंडोया खाद का प्रयोग करके स्वंय खाद तैयार करते हैं और यदि आवश्यकता हो तो कभी-कभी बाजार से भी गाय का गोबर खरीद लेते हैं।

बागबानी को मुख्य व्यवसाय के रूप में अपनाने के पीछे रजनीश लांबा का मुख्य उद्देश्य यह है कि पारंपरिक खेती की तुलना में यह 10 गुना अधिक लाभ प्रदान करती है और इसे आसानी से पर्यावरण के अनुकूल तरीके से किया जा सकता है। इसके अलावा इसमें बहुत कम श्रम की आवश्यकता होती है, वे श्रमिकों को केवल तब नियुक्त करते हैं जब उन्हें फल तोड़ने की आवश्यकता होती है। अन्यथा उनके पास 2 स्थायी श्रमिक हैं जो हर समय उनके लिए काम करते हैं। अब उन्होंने नर्सरी की तैयारी व्यावसायिक उद्देश्य के लिए शुरू कर दी है और इससे लाभ कमा रहे हैं और जब भी उन्हें बागबानी के बारे में जानकारी की जरूरत होती है तो वे कृषि से संबंधित पत्रिकाओं, प्रिंट मीडिया और इंटरनेट आदि से संपर्क करते हैं।

अपनी जैविक खेती को और अधिक अपडेट और उन्नत बनाने के लिए 2009 में उन्होंने मोरारका फाउंडेशन में प्रवेश किया। कई किसान रजनीश लांबा से कुछ नया सीखने के लिए नियमित तौर पर उनके फार्म का दौरा करते हैं और वे भी बिना किसी लागत के उन्हें जानकारी और ट्रेनिंग उपलब्ध करवाते हैं। यहां तक कि कभी-कभी खेतीबाड़ी अफसर भी सम्मेलन और ट्रेनिंग सैशन के लिए किसानों के ग्रुप के साथ उनके फार्म का दौरा करते हैं।

शुरूआत से ही उनका सपना हमेशा उनके दादा (हरदेव लांबा) को गर्व कराना था, लेकिन वे अपनी शिक्षाओं को आगे ले जाना चाहते हैं और अन्य किसानों को नर्सरी तैयार करने और उनकी तरह बागबानी शुरू करने के लिए प्रेरित करना चाहते हैं। बागबानी के क्षेत्र में उनके महान प्रयासों के लिए 2011 में उन्हें कृषि मंत्री हरजी राम बुरड़क द्वारा पुरस्कृत किया गया और राजस्थान के राज्यपाल कल्यान सिंह द्वारा भी उनकी सराहना की गई। इसके अलावा उनके कई लेख (आर्टिकल) अखबारों और मैगज़ीनों में प्रकाशित किए जा चुके हैं।

किसानों को संदेश-
“वे चाहते हैं कि अन्य किसान भी जैविक खेती को अपनायें क्योंकि यह पर्यावरण अनुकूल होने के साथ-साथ इसके कई स्वास्थ्य लाभ भी हैं। किसानों को रसायनों के प्रयोग को भी कम करना चाहिए। एक चीज़ जो उन्हें हमेशा याद रखनी चाहिए। वो ये है कि वे चाहे जितना भी लाभ कमा रहे हों, लाभ सिर्फ कुछ नया करके ही जैसे बागबानी की खेती करके अर्जित किया जा सकता है।”

हरिमन शर्मा

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एक किसान की कहानी जिसने अपना कर्म करते हुए, अपनी मेहनत से सफलता का स्वाद चखा

ऐसा कहा जाता है कि मानव इच्छा शक्ति के आगे कोई भी चीज़ टिकी नहीं रह सकती। ऐसी ही इच्छा और शक्ति के साथ एक ऐसे व्यक्ति आये जिन्होंने अपने निरंतर प्रयास के साथ उस ज़मीन पर सेब की एक नई किस्म का विकास किया, जहां पर यह लगभग असंभव था।

श्री हरिमन शर्मा एक सफल किसान हैं जिनके पास  सेब, आम, आडू, कॉफी, लीची और अनार के बगीचे हैं। एक उष्णकटिबंधीय स्थान (गांव पनीला कोठी, जिला बिलासपुर, हिमाचल प्रदेश), जहां तापमान 45 डिग्री तक बढ़ जाता है और भूमि में 80 %चट्टानें हैं और 20% मिट्टी है। यहां पर सेब उगाना लगभग असंभव था लेकिन हरिमन शार्मा की लगातार कोशिशों ने इसे संभव किया।

इससे पहले हरिमन शर्मा एक किसान नहीं थे और जो सफलता उन्होंने आज हासिल की है उसके लिए उन्हें अपने जीवन में कई चुनौतियों और कठिनाइयों का सामना करना पड़ा। 1971 से 1982 तक वे मजदूर थे, 1983 से 1990 तक उन्होंने पत्थर तोड़ने का और सब्जियों की खेती का काम किया। 1991 से 1998 तक उन्होंने सब्जी की खेती के साथ-साथ आम के बाग भी लगाए।

1999 में एक मोड़ ऐसा आया जब उन्होंने अपने आंगन में एक सेब का बीज अंकुरित होते देखा।उन्होंने उस अंकुर को संरक्षित किया और अपने खेती के अनुभव के दौरान प्राप्त ज्ञान से इसका पोषन करना शुरू कर दिया। क्वालिटी को सुधारने के लिए उन्होंने आलूबुखारा के वृक्ष के तने पर सेब के वृक्ष की शाखा की ग्राफ्टिंग कर दी और इसका परिणाम असाधारण था। दो वर्ष बाद सेब के पेड़ ने फल देना शुरू कर दिया। आखिरकार उन्होंने एक अलग प्रकार का सेब विकसित किया, जो कि गर्म जलवायु के साथ बहुत कम पहाड़ियों पर व्यापारिक रूप से उगाया जा सकता है।

धीरे-धीरे समय के साथ हरिमन शर्मा के द्वारा खोजी गई सेब की नई किस्म की बात फैल गई। अधिकांश लोगों ने इन रिपोर्टों को खारिज कर दिया और कुछ आश्चर्यचकित हुए। लेकिन 7 जुलाई 2008 को हरिमन शर्मा शिमला गए और उन्होंने उनके द्वारा विकसित किए गए सेब की एक टोकरी की पेशकश की, जो हिमाचल के मुख्यमंत्री के लिए थी। मुख्यमंत्री ने तुरंत अपने मंत्रीमंडल के सहयोगियों को इकट्ठा किया और उन सभी ने उन सेबों को चखा और जल्द ही मुख्यमंत्री ने इस सेब को हरिमन नाम दिया। बागबानी विश्वविद्यालय और विभाग के कई विशेषज्ञ विशेष रूप से उनके बगीचे में गए और वास्तव में आश्चर्यचकित और उनके काम से आश्वस्त हुए।

उन्होंने एक ही किस्म के सेब के 8 वृक्ष विकसित किए हैं जो कि बाग में आम के वृक्ष के साथ बढ़ रहे हैं और अब तक अच्छी उपज दे रहे हैं। हरिमन शर्मा द्वारा विकसित की गई किस्म का नाम उन्हीं के नाम पर HRMN-99  है। उन्होंने देश भर में किसानों, माली, उद्यमियों और सरकारी संगठनों को 3 लाख से अधिक पौधों को विकसित और वितरित किया है और HRMN-99  किस्म के 55 सेब के पौधे राष्ट्रपति भवन में लगाए हैं। उन्होंने आम, लीची, अनार, कॉफी और आड़ू फलों के बाग भी बनाए हैं।

हरिमन शर्मा द्वारा विकसित सेब की किस्म को कम  तापमान की जरूरत होती है और उप उष्णकटिबंधीय मैदानों में फूलों और फलों का उत्पादन होता है। उनकी उपलब्धि बागबानी के क्षेत्र में बहुत महत्तव रखती है, आज समाज में हरिमन शर्मा का योगदान केवल महान ही नहीं बल्कि दूसरे किसानों के लिए प्रेरणास्त्रोत भी है।

आज हरिमन एप्पल को भारत के लगभग प्रत्येक राज्य में उगाया और पोषित किया जाता है। उनकी कड़ी मेहनत ने साबित कर दिया है कि गर्म जलवायु के साथ बहुत कम पहाड़ियों पर सेब को व्यापारिक तौर पर उगाया जा सकता है।  श्री शर्मा अपनी बेहतर तकनीकों को अपने किसान साथियों के साथ शेयर कर रहे हैं और फैला रहे हैं।

कृषि के क्षेत्र में हरिमन शर्मा को उनके काम के लिए कई पुरस्कार और प्रशंसा मिली है उनमें से कुछ निम्नलिखित हैं:

• भारतीय कृशि अनुसंधान संस्थान, दिल्ली में प्रगतिशील किसान के रूप में सम्मानित किया गया।

• राष्ट्रपति भवन में नेशनल इनोवेशन फाउंडेशन के प्रोग्राम में अपनी नई खोज के लिए राष्ट्रपति से पुरस्कार प्राप्त किया।

• 2010 के सर्वश्रेष्ठ हिमाचली किसान शीर्षक से सम्मानित।

• 15 अगस्त 2009 में प्रेरणा स्त्रोत सम्मान पुरस्कार।

• 15 अगस्त 2008 में राज्य स्तरीय सर्वश्रेष्ठ किसान पुरस्कार।

• ऊना (2011 में) सेब का सफलतापूर्वक उत्पादन पुरस्कार।

• 19 जनवरी 2017 को कृषि पंडित पुरस्कार।

• इफको की जयंति के शुभ अवसर पर 29.4.2017 को उत्कृष्ट कृषक पुरस्कार।

• पूसा भवन दिल्ली केंद्रीय कृषि राज्य मंत्री द्वारा 17.3.2-10 में IARI Fellow Award

• 21 मार्च 2016 में केंद्रीय कृषि एवं किसान कल्याण मंत्री भारत सरकार – राधा मोहन सिंह द्वारा राष्ट्रीय नवोन्मेषी कृषक सम्मान।

• सेब उत्पादन के लिए 3 फरवरी 2016 को हिमाचल प्रदेश के महामहिम राज्यपाल द्वारा।

• नेशनल इनोवेशन फाउंडेशन द्वारा आयोजित, 4 मार्च 2017 को राष्ट्रीय द्वितीय अवार्ड।

• 9 मार्च 2017 को राजस्थान यूनिवर्सिटी ऑफ वैटर्नरी एंड एनीमल साइंसिज़ बीकानेर द्वारा फार्मर साइंटिस्ट अवार्ड।

हरिमन शर्मा द्वारा दिया गया संदेश
कर्म मनुष्य का अधिकार है फल को प्राप्त करने के लिए कर्म नहीं किया जाता। एक खेत में किसान का काम बीज बोना है, लेकिन अनाज का बढ़ना किसान के हाथों में नहीं है। किसान को अपना काम कभी भी अधूरा नहीं छोड़ना चाहिए और उसे अपना सर्वश्रेष्ठ प्रयास करना चाहिए। मैंने उस सेब के अंकुर को विकसित करने और उसके साथ कुछ नया करने की कोशिश की। यही कारण है कि मैं यहां हूं और यही कारण है कि सेब की किस्म का नाम मेरे नाम पर है। हर किसान को अपना सर्वश्रेष्ठ प्रयास करना चाहिए और कर्म करते रहना चाहिए।

गुरजतिंदर सिंह विर्क

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एक ऐसे व्यक्ति की कहानी जिसने मज़बूरी में मछली पालन शुरू किया, लेकिन आज वह दूसरे किसानो के लिए एक मिसाल बन चुके हैं

कभी किसी ने सोचा भी नहीं होगा कि जो ज़मीन पिछले 100 वर्षों से खाली पड़ी थी, वह आज उपजाऊ और उपयोगी होगी। इसके पीछे का कारण है कि किसी ने वहां कुछ भी करने की कोशिश नहीं की क्योंकि वहां साल के 11 महीने पानी खड़ा रहता था, लेकिन हर आने वाली नई पीढ़ी के साथ नई सोच आती है। हम सभी जानते हैं कि हमारे आस-पास और वातावरण में थोड़ा बदलाव करने के लिए एक बड़ी कोशिश की आवश्यकता होती है। यह कोशिश सिर्फ केवल मजबूत इच्छाशक्ति और जुनून के साथ प्रयोग में आ सकती है और इस तरह एक अलग नज़रिए, बुद्धि और उत्साह के साथ अपनी मातृ भूमि और अपने समुदाय के लिए कुछ करने के लिए गुरजतिंदर सिंह विर्क आए।

गुरजतिंदर सिंह विर्क गांव कंडोला, जिला रूपनगर के रहने वाले हैं, उन्होंने वर्ष 1985 में 5 एकड़ की जल जमाव वाली ज़मीन पर मछली पालन का काम शुरू किया, यह ज़मीन उन्हें पैतिृक संपत्ति से मिली थी। चूंकि उनके पास कोई विकल्प नहीं था, इसलिए उन्होंने गुरदासपुर का दौरा किया और वहां से 5 दिन की ट्रेनिंग लेकर मछली पालन का काम शुरू कर दिया। उन्होंने तकरीबन 30 साल पहले मछली पालन का काम शुरू किया और अब तक अपनी मेहनत और लगन से इस कार्य को 5 एकड़ से 30 एकड़ तक फैलाया है। मछली पालन के इस कार्य की दिशा में उनके इस क्रांतिकारी कदम ने कई अन्य किसानों को प्रेरित किया और अंतत: इससे कई अनुकूल प्रभाव दिखे जिन्होंने एक बंजर भूमि को मछली पालन के क्षेत्र में विकसित किया। उसी क्षेत्र में आज लगभग 300-400 एकड़ बंजर भूमि को मछली पालन के लिए उपयोग किया जाता है।

यह सब काफी वर्ष पहले एक बंजर ज़मीन और एक इंसान की मेहनत द्वारा शुरू हुआ और आज इससे काफी लोग प्रेरित हैं। आखिरकार यह छोटा कदम किसानों और कई अन्य इलाकों की जीविका को सुधारने में मदद कर रहा है ताकि उनके जीवन स्तर को उन्नत किया जा सके। अब उस क्षेत्र में आवेशपूर्ण मछली पकड़ने वाले किसानों का एक समुदाय बनाया गया है और इनके प्रयासों से अंतत: उस क्षेत्र का आर्थिक विकास हो रहा है जो राज्य और राष्ट्र के आर्थिक विकास को जोड़ रहा है।

अब विर्क जी की खेती पद्धति और आर्थिक प्रगति पर आते हैं। गुरजतिंदर सिंह विर्क के फार्म पर सामान्य कार्प मछलियां जैसे कतला और रोहू की किस्में हैं। एक एकड़ तालाब के लिए 2000 मछली के बच्चों की आवश्यकता होती है, इसीलिए वे 2000 मछली के बच्चों को पानी में छोड़ते हैं। मछलियों की वृद्धि, पानी की गुणवत्ता, आहार की गुणवत्ता और पानी में मौजूद शिकारियों के आधार पर निर्भर होती है। आमतौर पर वे तालाब में मछली की दो किस्मों को डालते हैं और उनकी अच्छी पैदावार के लिए उचित हालात बनाकर रखते हैं। वे मछलियों को 80 रू प्रति किलो के हिसाब से बेचते हैं जबकि बाज़ार में वह मछली 120 रू प्रति किलो के हिसाब से बिकती है और कम कीमतों पर मछलियों को बेचने के बावजूद भी वे लाखों कमा रहे हैं और पर्याप्त लाभ कमा रहे हैं।

गुरजतिंदर सिंह विर्क ने वातावरण के संरक्षण के लिए काफी कदम उठाए हैं, उनमें से एक महत्तवपूर्ण कार्य यह है कि उन्होंने अपने रसोई उद्यान की सिंचाई और तालाब को भरने के लिए सौर पंप सेटों का उपयोग करके कार्बन को कम किया है। श्री विर्क द्वारा किए गए अच्छे कार्य के लिए उन्हें कई पुरस्कार और उपलब्धियां मिली हैं। जिनमें से कुछ निम्नलिखित हैं।

उन्हें Agriculture Technology Management के लिए जिला स्तरीय पुरस्कार मिला है और सर्वोत्तम कृषि प्रणाली के लिए उन्हें Roopnagar Administration द्वारा प्रशंसा पत्र मिला है। उन्हें क्षेत्र को विकसित करने के लिए Zee Networks द्वारा पुरस्कृत भी किया गया। 2011 में उन्हें Best Citizen India Award से नवाज़ा गया। उसके बाद उन्हें Bharat Jyoti Award और Fish Farmer Award भी मिला।

खेती के क्षेत्र में उनके अच्छे काम से उन्हें कई प्रतिष्ठित समितियों और समाज में मैंबरशिप मिली। आज वे Advisory Committee (ATMA) और Board of Management at GADVASU के मैंबर हैं। वे किसान विकास चैंबर के 11 मैंबरों की सूचि में भी शामिल हैं जिन्होंने भारत की मुख्य उद्योग संघ को स्थापित किया जैसे CII, FICCI और ASSOCHAM और इस संघ का कार्य, राज्य की बिगड़ती कृषि अर्थव्यवस्था को अपग्रेड करना और खेती से संबंधित तकनीकों का प्रयोग करना जो किसान पहले से ही प्रयोग कर रहे थे। वे रूपनगर और मोहाली जिलों के लिए NABARD के तहत गांव Cooperative Society की तरफ से (वन विभाग) में भूतपूर्व वार्डन भी थे।

गुरजतिंदर सिंह विर्क द्वारा लिया गया एक महत्तवपूर्ण कदम था कि भूतपूर्व मंत्री प्रकाश सिंह बादल के साथ देखे गए चीन में मछली पालन के ढंग के बारे में ओर जानने के लिए चीने के मछली पालन के तरीके को अपनाया।

उनकी इन उपलब्धियों के इलावा उन्होंने हरियाली से भरी एक सुंदर जगह बनाने में बहुत मेहनत की है। उन्होंने तालाब के मध्य में अपना घर बनाया है और उस भूमि के टुकड़े पर जहां उनका घर है, उन्होंने सभी प्रकार की सब्जियां और फलों को विकसित किया है। उनके खेत में आडू, बादाम, किन्नू, मैड्रिन, आम, अनार, सेब, अनानास और 17 से अधिक सब्जियां और दालें हैं। उन्होंने अपने घर के आस-पास की ज़मीन को इस तरह विकसित किया है कि बाज़, किंगफिशर, fork tail, geese, तोते और मोर की कई दुर्लभ और आम प्रजातियां को उनके फार्म पर चहचहाते हुए आसानी से देखा जा सकता है। संक्षेप में उनके अपने देश के विकास कार्यों ने पक्षियों की विभिन्न प्रजातियों की एक विविधता बनाई है।

आज वे जो कुछ भी हैं उसके पीछे उनकी प्रेरणा और साथी उनकी पत्नी रूपिंदर कौर विर्क हैं जिन्होने ज़िंदगी के हर कदम पर उनका साथ दिया और उनके प्रत्येक काम में उनकी मदद की। वे उनकी ज़िंदगी में एक पेशेवर भूमिका भी निभाती हैं और उनके फार्म के सभी लेखों का रिकार्ड बनाकर रखती हैं। खाली समय में वे अपने खेत में उगाए फलों का बेचने के उद्देश्य से आचार और कैडिज़ बनाना पसंद करती हैं। गुरजतिंदर सिंह विर्क अपनी पत्नी और सिर्फ दो नौकरों की सहायता से फार्म के सभी कार्यों को संभालते हैं और भविष्य के विकास के लिए वे अपने फार्म को पर्यटन स्थल बनाने की योजना पर काम कर रहे हैं।

चीन की यात्रा के बाद गुरजतिंदर सिंह विर्क ने निष्कर्ष निकाला कि बेहतर तकनीकों का उपयोग करके बेहतर उत्पादन प्राप्त किया जा सकता है इसलिए वे चाहते हैं कि किसान बेहतर उत्पादन के लिए नई तकनीकों को अपनायें। उन्होंने ये भी कहा कि उनके गांव में 24 घंटे बिजली नहीं रहती जिसके कारण खेती का उत्पादन कम होता है और भविष्य में, यदि उन्हें 24 घंटे बिजली सुविधा उपलब्ध की जाती है तो वे खेती क्षेत्र में बेहतर परिणाम दे सकते हैं। वे सोचते हैं कि कड़ी मेहतन से आप ज़मीन के किसी भी टुकड़े से कुछ भी प्राप्त कर सकते हैं, अंतर बस फल और सब्जी के आकार में होगा।

कृष्ण दत्त शर्मा

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जानें कैसे जैविक खेती ने कृष्ण दत्त शर्मा को कृषि के क्षेत्र में सफल बनाने में मदद की

जीवन में ऐसी परिस्थितियां आती हैं, जो लोगों को अपने जीवन के खोये हुए उद्देश्य का एहसास करवाती हैं और इसे प्राप्त करने के लिए प्रेरित करती हैं। यही चीज़ चिखड़ गांव, (शिमला) के साधारण किसान कृष्ण दत्त शर्मा, के साथ हुई और उन्हें जैविक खेती को अपनाने के लिए प्रेरित किया।

जैविक खेती में कृष्ण दत्त शर्मा की उपलब्धियों ने उन्हें इतना लोकप्रिय बना दिया है कि आज उनका नाम कृषि के क्षेत्र में महत्तवपूर्ण लोगों की सूची में गिना जाता है।

यह सब शुरू हुआ जब कृष्ण दत्त शर्मा को कृषि विभाग की तरफ से हैदराबाद (11 नवंबर, 2002) का दौरा करने का मौका मिला। इस दौरे के दौरान उन्होंने जैविक खेती के बारे में काफी कुछ सीखा। वे जैविक खेती के बारे में और अधिक जानने के लिए उत्सुक थे और इसे अपनाना भी चाहते थे।

मोरारका फाउंडेशन (2004 में) के संपर्क में आने के बाद उनका जुनून और विचार अमल में आया। उस समय तक वे कृषि क्षेत्र में रसायनों के बढ़ते उपयोग के प्रतिकूल प्रभावों के बारे में अच्छी तरह से जान चुके थे और इससे वे बहुत परेशान और चिंतित थे। जैसे कि वे जानते थे कि आने वाले भविष्य में उन्हें खाद और कीटनाशकों के परिणाम का सामना करना पड़ेगा इसलिए उन्होंने जैविक खेती को पूरी तरह से अपनाने का फैसला किया।

उनके पास कुल 20 बीघा ज़मीन है, जिसमें से 5 बीघा सिंचित क्षेत्र हैं और 15 बीघा बारानी क्षेत्र हैं। शुरूआत में उन्होंने बागबानी विभाग से सेब का एक मुख्य पौधा खरीदा और उस पौधे से उन्होंने अपने पूरे बाग में सेब के 400 पौधे लगाए। उन्होंने नाशपाती के 20 वृक्ष, चैरी के 20 वृक्ष, आड़ू के 10 वृक्ष और अनार के 15 वृक्ष भी उगाए। फलों के साथ साथ उन्होंने सब्जियां जैसे फूल गोभी, मटर, फलियां, शिमला मिर्च और ब्रोकली भी उगायी।

आमतौर पर कीटनाशकों और रसायनों से उगायी जाने वाले ब्रोकली की फसल आसानी से खराब हो जाती है, लेकिन कृष्ण दत्त शर्मा द्वारा जैविक तरीके से उगाई गई ब्रोकली का जीवन काफी ज्यादा है। इस कारण किसान अब ब्रोकली को जैविक तरीके से उगाते हैं और उसे बिक्री के लिए दिल्ली की मंडी में ले जाते हैं। इसके अलावा जैविक तरीके से उगाई गई ब्रोकली की बिक्री 100-150 रूपये प्रति किलो के हिसाब से होती है और इसी को अगर किसानों की आय में जोड़ दिया जाये तो उनकी आय 500000 तक पहुंच जाती है, और इस छ अंकों की आमदनी में आधा हिस्सा ब्रोकली की बिक्री से आता है।

जैविक खेती की तरफ अन्य किसानों को प्रेरित करने के लिए कृष्ण दत्त शर्मा ने अपने नेतृत्व में अपने गांव में एक ग्रुप बनाया है। उनकी इस पहल ने कई किसानों को जैविक खेती अपनाने के लिए प्रेरित किया है।

जैविक खेती के क्षेत्र में कृष्ण दत्त शर्मा की उपलब्धियां काफी बड़ी हैं और यहां तक कि हिमाचल सरकार ने उन्हें जून 2013 में, “Organic Fair and Food Festival” में सर्वश्रेष्ठ किसान पुरस्कार से सम्मानित भी किया है। लेकिन अपनी नम्रता के कारण वे अपनी सफलता का सारा श्रेय मोरारका फाउंडेशन और कृषि विभाग को देते हैं।

वे अपने खेत और बगीचे में गाय (3), बैल (1) और बछड़े (2) के गोबर का उपयोग करते हैं और वे अच्छी उपज के लिए वर्मी कंपोस्ट भी खुद तैयार करते हैं। उन्होंने अपने खेत में 30 x 8 x 10 के बैड तैयार किए हैं जहां पर वे प्रति वर्ष 250 केंचुओं की वर्मी कंपोस्ट तैयार करते हैं। कीटनाशकों के स्थान पर वे हर्बल स्प्रे, एपर्चर वॉश, जीवामृत और NSDL का उपयोग करते हैं। इस तरह रासायनिक कीटनाशकों के स्थान पर कुदरती कीटनाशकों ने प्रयोग से उनकी ज़मीन की स्थितियों में सुधार हुआ और उनके खर्चे भी कम हुए।

संदेश:
बेहतर भविष्य और अच्छी आय के लिए वे अन्य किसानों को जैविक खेती अपनाने के लिए प्रेरित करना चाहते हैं।