नवरीत कौर

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खाना बनाने के शौक को व्यवसाय में बदलने वाली एक सफल महिला किसान

जिन्होंने मंजिल तक पहुंचना होता है वह मुश्किलों की परवाह नहीं करते, क्योंकि मंजिल भी उन्हीं तक पहुंचती है जिन्होंने मेहनत की होती है। सभी को अपनी काबिलियत पहचानने की जरुरत होती है. जिसने अपनी काबिलियत और खुद पर भरोसा कर लिया, मंजिल खुद ही उनकी तरफ आ जाती है।

इस स्टोरी में हम बात करेंगे एक महिला के बारे में जो अपने आप में गर्व वाली बात है, क्योंकि आजकल ऐसा समय है जहाँ औरत आदमी के साथ मिलकर काम करती है। पहले से ही औरत पढ़ाई, डॉक्टर, विज्ञान आदि के क्षेत्र में काम करती है लेकिन आज के समय में कृषि के क्षेत्र में भी अपना नाम बना रही है।

एक ऐसी महिला किसान “नवरीत कौर” जो जिला संगरूर के “मिमसा” गांव के रहने वाले हैं। जिन्होंने MA, M.ED की पढ़ाई की है। जो कॉलेज में पढ़ाते थे, पर कहते हैं कि परमात्मा ने इंसान को धरती पर जिस काम के लिए भेजा होता है, वह उसके हाथों से ही होना होता है।

यह बात नवरीत कौर जी पर लागू होती है, जिनके मन में कृषि के क्षेत्र में कुछ अलग करने का इरादा था और इस इरादे को दृढ़ निश्चय बनाने वाले उनके पति परगट सिंह रंधावा जी ने उनका बहुत साथ था। उनके पति ने M.Tech की हुई हैं, जोकि हिन्दुस्तान यूनीलिवर लिमिटेड, नाभा में सीनियर मैनेजर हैं और PAU किसान क्लब के सदस्य भी हैं। उनके पति नौकरी के साथ साथ कृषि नहीं कर सकते हैं थे इसलिए उन्होंने खुद खेती करनी शुरू की जिसमें उनके पति ने उनका साथ दिया।

खेती करना मुख्य व्यवसाय तो था पर मैं सोचती थी कि परंपरागत खेती को छोड़ कर कुछ नया किया जाए- नवरीत कौर

उन्होंने 2007 में निश्चित रूप से जैविक खेती करना शुरू कर दिया और 4 एकड़ में दालें और देसी फसल के साथ शुरुआत की। कुछ समय बाद ही यह समस्या आई कि इतनी फसल की खेती कर तो ली है लेकिन इसका मंडीकरण कैसे किया जाए। उनके पति के इलावा इस काम में उनके साथ में कोई नहीं था, क्योंकि परिवार का मुख्य व्यवसाय परंपरागत खेती ही था, पर परंपरागत खेती से अलग कुछ ऐसा करना जिसका कोई अनुभव नहीं था। यदि परंपरागत खेती कामयाब नहीं हुई तो परिवार वाले क्या बोलेंगे।

मुझे जब भी कहीं खेती में मुश्किलें आईं वे हर समय मेरे साथ होते थे- नवरीत कौर

उन्होंने सबसे पहले घर में खाने वाली दालों से शुरुआत की, जो आसान था। इसके इलावा तेल बीज वाली फसलें और इसके साथ मंडीकरण की तरफ भी ध्यान देना शुरू किया।

मुझे खाना बनाने का शोक था, फिर मैंने सोचा क्यों न देसी गेहूं, चावल, तेल बीज, गन्ने की प्रोसेसिंग और मंडीकरण किया जाए- नवरीत कौर

जब उन्होंने ने अच्छे से खेती करना सीख लिया तो उनका अगला काम प्रोसेसिंग करना था, प्रोसेसिंग करने से पहले उन्होंने दिल्ली IARI, पंजाब एग्रीकल्चर यूनिवर्सिटी लुधियाना, सोलन के साथ साथ ओर बहुत सी जगह से ट्रेनिंग ली है। ट्रेनिंग करने से प्रोसेसिंग करना शुरू कर दिया। अब वह शोक और उत्साह से प्रोसेसिंग कर रहे हैं।

2015 में उन्होंने बहुत से उत्पाद बनाने शुरू कर दिए। इस समय वह घर की रसोई में ही उत्पाद तैयार करते हैं। इसके साथ गांव की महिलाओं को रोजगार भी मिल गया और प्रोसेसिंग की तरह भी ध्यान देने लगी।

उनकी तरफ से 15 तरह के उत्पादों को तैयार किया जाता है, वह सीधे तरह से बनाये गए उत्पाद को बेच रहे हैं जो इस तरह हैं:

  • देसी गेहूं की सेवइयां
  • गेहूं का दलिया
  • बिस्कुट
  • गाजर का केक
  • चावल के कुरकुरे
  • चावल के लड्डू की बड़ियां
  • मांह की बड़ियां
  • स्ट्रॉबेरी जैम
  • नींबू का अचार
  • आंवले का अचार
  • आम की चटनी
  • आम का अचार
  • मिर्च का आचार
  • च्यवनप्राश आदि।

पहले वह मंडीकरण अपने गांव और शहर में ही करते थे पर अब उनके उत्पाद कई जगह पर पहुँच गए हैं। जिसमें वह मुख्य तौर पर अपने द्वारा बनाये गए उत्पादों का मंडीकरण चंडीगढ़ आर्गेनिक मंडी में करते हैं। वह धीरे धीरे अपने उत्पादों को ऑनलइन बेचने के बारे में सोच रहे हैं।

मैं आज खुश हूं कि जिस काम को करने के बारे में सोचा था आज उसमे सफल हो गई हूं- नवरीत कौर

नवरीत कौर जी खाद भी खुद तैयार करते हैं जिसमें वर्मीकम्पोस्ट तैयार करके किसानों को दे भी रहे हैं क्योंकि उनका मानना है कि यदि इससे किसी का भला होता है तो बहुत बढ़िया होगा। इसके इलावा उन्हें हाथ से बनाई गई वस्तुओं के लिए MSME यूनिट्स की तरफ से इनाम भी प्राप्त है।

भविष्य की योजना

वह एक स्टोर बनाना चाहते हैं जहां पर वह अपने द्वारा तैयार किए गए उत्पाद का मंडीकरण खुद ही कर सकें। जिसमें किसी तीसरे की जरुरत न हो। किसान से उपभोक्ता तक का मंडीकरण सीधा हो। वह अपना फार्म बनाना चाहते हैं जहां पर वह प्रोसेसिंग के साथ साथ उसकी पैकिंग भी कर सकें।

संदेश

खेती कभी करते हैं, पर एक ही तरह की खेती नहीं करनी चाहिए। उसे बड़े स्तर पर ले जाने के बारे में सोचना चाहिए। जो भी फसल उगाई जाती है उसके बारे में सोच कर फिर आगे बढ़ना चाहिए, क्योंकि कृषि एक ऐसा व्यवसाय है जिसमें लाभ ही लाभ है। यदि हो सके तो खुद ही प्रोसेसिंग कर खुद ही उत्पादों को बेचना चाहिए।

तरनजीत संधू

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एक किसान जिसने अपने जीवन के 25 साल संघर्ष करते हुए और बागवानी के साथ-साथ अन्य सहायक व्यवसायों में कामयाब हुए- तरनजीत संधू

जीवन का संघर्ष बहुत विशाल है, हर मोड़ पर ऐसी कठिनाइयाँ आती हैं कि उन कठिनाइयों का सामना करते हुए चाहे कितने भी वर्ष बीत जाएँ,पता नहीं चलता। उनमें से कुछ ऐसे इंसान हैं जो मुश्किलों का सामना करते हैं लेकिन मन ही मन में हारने का डर बैठा होता है, लेकिन फिर भी साहस के साथ जीवन की गति के साथ पानी की तरह चलते रहते हैं, कभी न कभी मेहनत के समुद्र से निकल कर बुलबुले बन कर किसी के लिए एक उदाहरण बनेंगे।

जिंदगी के मुकाम तक पहुँचने के लिए ऐसे ही एक किसान तरनजीत संधू, गांव गंधड़, जिला श्री मुक्तसर के रहने वाले हैं, जो लगातार चलते पानी की तरह मुश्किलों से लड़ रहे हैं, पर साहस नहीं कम हुआ और पूरे 25 सालों बाद कामयाब हुए और आज तरनजीत सिंह संधू ओर किसानों और लोगों को मुश्किलों से लड़ने के लिए प्रेरित कर रहे हैं।

साल 1992 की बार है तरनजीत की आयु जब छोटी थी और दसवीं कक्षा में पड़ते थे, उस दौरान उनके परिवार में एक ऐसी घटना घटी जिससे तरनजीत को छोटी आयु में ही घर की पूरी जिम्मेवारी संभालने के लिए मजबूर कर दिया, जोकि एक 17-18 साल के बच्चे के लिए बहुत मुश्किल था क्योंकि उस समय उनके पिता जी का निधन हो गया था और उनके बाद घर संभालने वाला कोई नहीं था। जिससे तरनजीत पर बहुत सी मुश्किलें आ खड़ी हुई।

वैसे तरनजीत के पिता शुरू से ही पारंपरिक खेती करते थे पर जब तरनजीत को समझ आई तो कुछ अलग करने के बारे में सोचा कि पारंपरिक खेती से हट कर कुछ अलग किया जाए और कुछ अलग पहचान बनाई जाए। उन्होंने सोच रखा था कि जिंदगी में कुछ ऐसा करना है जिससे अलग पहचान बने।

तरनजीत के पास कुल 50 एकड़ जमीन है पर अलग क्या उगाया जाए कुछ समझ नहीं आ रहा था, कुछ दिन सोचने के बाद ख्याल आया कि क्यों न बागवानी में ही कामयाबी हासिल की जाए। फिर तरनजीत जी ने बेर के पौधे मंगवा कर 16 एकड़ में उसकी खेती तो कर दी, पर उसके लाभ हानि के बारे में नहीं जानते थे, बेशक समझ तो थी पर जल्दबाजी ने अपना असर थोड़े समय बाद दिखा दिया।

उन्होंने न कोई ट्रेनिंग ली थी और न ही पौधों के बारे में जानकारी थी, जिस तरह से आये थे उसी तरह लगा दिए, उन्हें न पानी, न खाद किसी चीज के बारे में जानकारी नहीं थी। जिसका नुक्सान बाद में उठाना पड़ा क्योंकि कोई भी समझाने वाला नहीं था। चाहे नुक्सान हुआ और दुःख भी बहुत सहा पर हार नहीं मानी।

बेर में असफलता हासिल करने के बाद फिर किन्नू के पौधे लाकर बाग़ में लगा दिए, पर इस बार हर बात का ध्यान रखा और जब पौधे को फल लगना शुरू हुआ तो वह बहुत खुश हुए।

पर यह ख़ुशी कुछ समय के लिए ही थी क्योंकि उन्हें इस तरह लगा कि अब सब कुछ सही चल रहा है क्यों न एक बार में पूरी जमीन को बाग़ में बदल दिया जाए और यह चीज उनकी जिंदगी में ऐसा बदलाव लेकर आई जिससे उन्हें बहुत मुश्किल समय में से गुजरना पड़ा।

बात यह थी कि उन्होंने सोचा इस तरह यदि एक-एक फल के पौधे लगाने लगा तो बहुत समय निकल जाएगा। फिर उन्होंने हर तरह के फल के पौधे जिसमें अमरुद, मौसमी फल, अर्ली गोल्ड माल्टा, बेर, कागजी नींबू, जामुन के पौधे भरपूर मात्रा में लगा दिए। इसमें उनका बहुत खर्चा हुआ क्योंकि पौधे लगा तो लिए थे पर उनकी देख-रेख उस तरीके से करने लिए बैंक से काफी कर्जा लेना पड़ा। एक समय ऐसा आया कि उनके पास खर्चे के लिए भी पैसे नहीं थे। ऊपर से बच्चे की स्कूल की फीस, घर संभालना उन्हीं पर था।

कुछ समय ऐसा ही चलता रहा और समय निकलने पर फल लगने शुरू हुए तो उन्हें वह संतुष्ट हुए पर जब उन्होंने अपने किन्नू के बाग़ ठेके पर दे दिए तो बस एक फल के पीछे 2 से 3 रुपए मिल रहे थे।

16 साल तक ऐसे ही चलता रहा और आर्थिक तौर पर उन्हें मुनाफा नहीं हो रहा था। साल 2011 में जब समय अनुसार फल पक रहे तो उनके दिमाग में आया इस बार बाग़ ठेके पर न देकर खुद मार्किट में बेच कर आना है। जब वह जिला मुक्तसर साहिब की मार्किट में बेचने गए तो उन्हें बहुत मुनाफा हुआ और वह बहुत खुश हुए।

तरनजीत ने जब इस तरह से पहली बार मार्किट की तो उन्हें यह तरीका बहुत बढ़िया लगा, इसके बाद उन्होंने ठेके पर दिया बाग़ वापिस ले लिया और खुद निश्चित रूप से मार्केटिंग करने के बारे में सोचा। फिर सोचा मार्केटिंग आसानी से कैसे हो सकती है, फिर सोचा क्यों न एक गाडी इसी के लिए रखी जाए जिसमें फल रख कर मार्किट जाया जाए। फिर साल 2011 से वह गाडी में फल रख कर मार्किट में लेकर जाने लगे, जिससे उन्हें दिन प्रतिदिन मुनाफा होने लगा, जब यह सब सही चलने लगा तो उन्होंने इसे बड़े स्तर पर करने के लिए अपने साथ पक्के बंदे रख लिए, जो फल की तुड़ाई और मार्किट में पहुंचाते भी है।

जो फल की मार्केटिंग श्री मुक्तसर साहिब से शुरू हुई थी आज वह चंडीगढ़, लुधियाना, बीकानेर, दिल्ली आदि बड़े बड़े शहरों में अपना प्रचार कर चुकी है जिससे फल बिकते ही पैसे अकाउंट में आ जाते हैं और आज वह बाग़ की देख रेखन करते हैं और घर बैठे ही मुनाफा कमा रहे हैं जो उनके रोजाना आमदन का साधन बन चुकी है।

तरनजीत ने सिर्फ बागवानी के क्षेत्र में ही कामयाबी हासिल नहीं की, बल्कि साथ-साथ ओर सहायक व्यवसाय जैसे बकरी पालन, मुर्गी पालन में भी कामयाब हुए हैं और मीट के अचार बना कर बेच रहे हैं। इसके इलावा सब्जियों की खेती भी कर रहे हैं जोकि जैविक तरीके के साथ कर रहे हैं। उनके फार्म पर 30 से 35 आदमी काम करते हैं, जो उनके परिवार के लिए रोजगार का जरिया भी बने हैं। उसके साथ वह टूरिस्ट पॉइंट प्लेस भी चला रहे हैं।

इस काम के लिए उन्हें PAU, KVK और कई संस्था की तरफ से उन्हें बहुत से अवार्ड द्वारा सम्मानित किया जा चूका है।

यदि तरनजीत आज कामयाब हुए हैं तो उसके पीछे उनकी 25 साल की मेहनत है और किसी भी समय उन्होंने कभी हार नहीं मानी और मन में एक इच्छा थी कि कभी न कभी कामयाबी मिलेगी।

भविष्य की योजना

वह बागवानी को पूरी जमीन में फैलाना चाहते हैं और मार्केटिंग को ओर बड़े स्तर पर करना चाहते हैं, जहां भारत के कुछ भाग में फल बिक रहा है, वह भारत के हर एक भाग में फल पहुंचना चाहते हैं।

संदेश

यदि मुश्किलें आती है तो कुछ अच्छे के लिए आती है, खेती में सिर्फ पारंपरिक खेती नहीं है, इसके इलावा ओर भी कई सहायक व्यवसाय है जिसे कर कामयाब हुआ जा सकता है।

अमरजीत शर्मा

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ऐसा उद्यमी किसान जो प्रकृति के हिसाब से चलकर एक खेत में से लेता है 40 फसलें

प्रकृति हमारे जीवन का वह अभिन्न अंग है, जिसके बिना कोई भी जीव चाहे वह इंसान है, चाहे पक्षी, चाहे जानवर है, हर कोई अपना पूरा जीवन प्रकृति के साथ ही बिताता है और प्रकृति के साथ उसका प्यार पड़ जाता है। पर कुछ लोग यह भूल जाते हैं और प्रकृति के साथ खिलवाड़ करने से नहीं कतराते और इस तरह से खिलवाड़ करते हैं जो सीधा सेहत पर असर करती है।

आज जिस इंसान की कहानी आप पढ़ेंगे यह सभी बातें उस इंसान के दिल और दिमाग में रह गई और फिर शुरू हुआ प्रकृति के साथ उसका प्यार। इस उद्यमी किसान का नाम है “अमरजीत शर्मा” जो गांव चैना, जैतो मंडी, ज़िला फरीदकोट के रहने वाले हैं। लगभग 50 साल के अमरजीत शर्मा का प्रकृति के साथ खेती का सफर 20 साल से ऊपर है। इतना अधिक अनुभव है कि ऐसा लगता है जैसे अपने खेतों से बातें करते हों। साल 1990 से पहले वह नरमे की खेती करते थे, उस समय उन्हें एक एकड़ में 15 से 17 क्विंटल के लगभग फसल प्राप्त हो जाती थी, पर थोड़े समय के बाद उन्हें नरमे की फसल में नुक्सान होना शुरू हो गया और 2 से 3 साल तक ऐसे ही चलता रहा जिसके कारण वह बहुत परेशान हो गए और नरमे की खेती न करने का निर्णय लिया क्योंकि एक तो उन्हें फसल का मूल्य नहीं मिल रहा दूसरा सरकार भी साथ नहीं दे रही थी जिसके कारण वह बहुत दुखी हुए थे।

वह थक कर फिर से परंपरागत खेती करने लग गए, पर उन्होंने शुरू से ही गेहूं की फसल को पहल दी और आजतक धान की फसल नहीं उगाई और ना ही वह उगाना चाहते हैं। उनके पास 4 एकड़ जमीन है जिसमें उन्होंने रासायनिक तरीके से गेहूं और सब्जियों की खेती करनी शुरू कर दी। जब वह रासायनिक खेती कर रहे थे तो उन्हें प्रकृति खेती करने के बारे में सुनने को मिला और उसके बारे में पूरी जानकारी लेने के लिए पता करने लगे।

धीरे-धीरे मुझे प्रकृति खेती के बारे में पता चला- अमरजीत शर्मा

वैसे तो वह बचपन से ही प्रकृति खेती के बारे में सुनते आए थे पर उन्हें यह नहीं पता था कि प्रकृति खेती कैसे की जाती है क्योंकि उस समय सोशल मीडिया नहीं होता था जिससे पता चल सके पर उन्होंने पूरी तरह से जाँच पड़ताल करनी शुरू की।

कहा जाता है कि हिम्मत कभी नहीं हारनी चाहिए क्योंकि यदि हम निराश होकर बैठ जाए तो भगवान भी साथ नहीं देता।

वह कोशिश करते रहे और एक दिन कामयाबी उनकी तरफ आ गई, जब अमरजीत सिंह प्रकृति खेती के बारे में जानकारी लेने के लिए जांच पड़ताल करने लगे तो उन्होंने कोई भी अखबार नहीं छोड़ा जो न पढ़ा हो ताकि कोई जानकारी रह न जाए और एक दिन जब वह अखबार पढ़ रहे थे तो उन्होंने खेती विरासत मिशन संस्था के बारे में छपे आर्टिकल को पढ़ना शुरू किया।

जब मैंने आर्टिकल पढ़ना शुरू किया तो मैं बहुत खुश हुआ- अमरजीत शर्मा

उस आर्टिकल को पढ़ते वक्त उन्होंने देखा कि खेती विरासत मिशन नाम की एक संस्था है, जो किसानों को प्रकृति खेती के बारे में जानकारी प्रदान और ट्रेनिंग भी करवाती है, फिर अमरजीत जी ने खेती विरासत मिशन द्वारा उमेन्द्र दत्त जी के साथ संम्पर्क किया।

उस समय खेती विरासत मिशन वाले गांव-गांव जाकर किसानों को प्रकृति खेती के बारे में ट्रेनिंग देते थे और अभी भी ट्रेनिंग देते हैं। इसका फायदा उठाते हुए अमरजीत ने ट्रेनिंग लेनी शुरू की। बहुत समय तक वह ट्रेनिंग लेते रहे, जब धीरे-धीरे समझ आने लगा तो अपने खेतों में आकर तरीके अपनाने लगे। फसल पर इसका फायदा कुछ समय बाद हुआ जिसे देखकर वह बहुत खुश हुए ।

धीरे-धीरे वह पूरी तरह से प्रकृति खेती करने लगे और प्रकृति खेती को पहल देने लगे। जब वह प्रकृति खेती करके फसल की बढ़िया पैदावार लेने लगे तो उन्होंने सोचा कि इसे ओर बड़े स्तर पर ले कर जाया जाए।

मैंने कुछ ओर नया करने के बारे में सोचा -अमरजीत शर्मा

फिर उन्होंने बहु-फसली विधि अपनाने के बारे में सोचा, पर उनकी यह विधि औरों से अलग थी क्योंकि जो उन्होंने किया वह किसी ने सोचा भी नहीं था।

जिस तरह कहा जाता है “एक पंथ दो काज” को सच साबित करके दिखाया। क्योंकि उन्होंने वृक्ष के नीचे उसे पानी हवा पहुंचाने वाली ओर फसलों की खेती करनी शुरू कर दी, जिसके चलते उन्होंने एक जगह पर कई फसलें उगाई और लाभ कमाया।

जब अमरजीत की तकनीकों के बारे में लोगों को पता चला तो लोग उन्हें मिलने के लिए आने लगे, जिसका फायदा यह हुआ कि एक तो उन्हें पहचान मिल गई, दूसरा वह ओर किसानों को प्रकृति खेती के बारे में जानकारी देने में सफल हुए।

अमरजीत जी ने बहुत मेहनत की, क्योंकि 1990 से अब तक का सफर चाहे मुश्किलों वाला था पर उन्होंने होंसला नहीं छोड़ा और आगे बढ़ते रहे।

जब उन्हें लगा कि वह पूरी तरह से सफल हो गए हैं तो फिर स्थायी रूप से 2005 में प्रकृति खेती के साथ देसी बीजों पर काम करना शुरू कर दिया और आज वह देसी बीज जैसे कद्दू, अल, तोरी, पेठा, भिंडी, खखड़ी, चिब्बड़ अदि भी बेच रहे हैं। किसानों तक इन्हे पहुंचाने लगे, जिससे बाहर से किसी भी किसान को कोई रासायनिक वस्तु न लेकर खानी पड़े, बल्कि खुद अपने खेतों में उगाए और खाएं।

आज अमरजीत शर्मा जी इस मुकाम पर पहुँच गए हैं कि हर कोई उनके गांव को उनके नाम “अमरजीत” के नाम से जानते हैं, उनकी इस कामयाबी के कारण खेती विरासत मिशन और ओर संस्था की तरफ से अमरजीत को कई पुरस्कारों से सम्मानित किया जा चुका है।

भविष्य की योजना

वह प्रकृति खेती के बारे में लोगों को जानकारी प्रदान करवाना चाहते हैं ताकि इस रस्ते पर चल कर खेती को बचाया जा सके।

संदेश

यदि आपके पास जमीन है तो आप रासायनिक नहीं प्रकृति खेती को पहल दें बेशक कम है, लेकिन जितना खाना है वे कम से कम साफ तो खाएं।

विवेक उनियाल

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देश की सेवा करने के बाद धरती मां की सेवा कर रहा देश का जवान और किसान

हम सभी अपने घरों में चैन की नींद सोते हैं, क्योंकि हमें पता है कि देश की सरहद पर हमारी सुरक्षा के लिए फौज और जवान तैनात हैं, जो कि पूरी रात जागते हैं। जैसे देश के जवान देश की सुरक्षा के लिए अपने सीने पर गोली खाते हैं, उसी तरह किसान धरती का सीना चीरकर अनाज पैदा करके सब के पेट की भूख मिटाते हैं। इसीलिए हमेशा कहा जाता है — “जय जवान जय किसान”

हमारे देश का ऐसा ही नौजवान है जिसने पहले अपने देश की सेवा की और अब धरती मां की सेवा कर रहा है। नसीब वालों को ही देश की सेवा करने का मौका मिलता है। देहरादून के विवेक उनियाल जी ने फौज में भर्ती होकर पूरी ईमानदारी से देश और देशवासियों की सेवा की।

एक अरसे तक देश की सेवा करने के बाद फौज से सेवा मुक्त होकर विवेक जी ने धरती मां की सेवा करने का फैसला किया। विवेक जी के पारिवारिक मैंबर खेती करते थे। इसलिए उनकी रूचि खेती में भी थी। फौज से सेवा मुक्त होने के बाद उन्होंने उत्तराखंड पुलिस में 2 वर्ष नौकरी की और साथ साथ अपने खाली समय में भी खेती करते थे। फिर अचानक उनकी मुलाकात मशरूम फार्मिंग करने वाले एक किसान दीपक उपाध्याय से हुई, जो जैविक खेती भी करते हैं। दीपक जी से विवेक को मशरूम की किस्मों  ओइस्टर, मिल्की और बटन के बारे में पता लगा।

“दीपक जी ने मशरूम फार्मिंग शुरू करने में मेरा बहुत सहयोग दिया। मुझे जहां भी कोई दिक्कत आई वहां दीपक जी ने अपने तजुर्बे से हल बताया” — विवेक उनियाल

इसके बाद मशरूम फार्मिंग में उनकी दिलचस्पी पैदा हुई। जब इसके बारे में उन्होंने अपने परिवार में बात की तो उनकी बहन कुसुम ने भी इसमें दिलचस्पी दिखाई। दोनों बहन — भाई ने पारिवारिक सदस्यों के साथ सलाह करके मशरूम की खेती करने के लिए सोलन, हिमाचल प्रदेश से ओइस्टर मशरूम का बीज खरीदा और एक कमरे में मशरूम उत्पादन शुरू किया।

मशरूम फार्मिंग शुरू करने के बाद उन्होंने अपने ज्ञान में वृद्धि और इस काम में महारत हासिल करने के लिए उन्होंने मशरूम फार्मिंग की ट्रेनिंग भी ली। एक कमरे में शुरू किए मशरूम उत्पादन से उन्होंने काफी बढ़िया परिणाम मिले और बाज़ार में लोगों को यह मशरूम बहुत पसंद आए। इसके बाद उन्होंने एक कमरे से 4 कमरों में बड़े स्तर पर मशरूम उत्पादन शुरू कर दिया और ओइस्टर  के साथ साथ मिल्की बटन मशरूम उत्पादन भी शुरू कर दिया। इसके साथ ही विवेक ने मशरूम के लिए कंपोस्टिंग प्लांट भी लगाया है जिसका उद्घाटन उत्तराखंड के कृषि मंत्री ने किया।

मशरूम फार्मिंग के साथ ही विवेक जैविक खेती की तरफ भी अपना ध्यान केंद्रित कर रहे हैं। पिछले 2 वर्षों से वे जैविक खेती कर रहे हैं।

“जैसे हम अपनी मां की देखभाल और सेवा करते हैं, ठीक उसी तरह हमें धरती मां के प्रति अपने फर्ज़ को भी समझना चाहिए। किसानों को रासायनिक खेती को छोड़कर जैविक खेती की तरफ अपना ध्यान केंद्रित करना चाहिए ” — विवेक उनियाल

विवेक अन्य किसानों को जैविक खेती और मशरूम उत्पादन के लिए उत्साहित करने के लिए अलग अलग गांवों में जाते रहते हैं और अब तक वे किसानों के साथ मिलकर लगभग 45 मशरूम प्लांट लगा चुके हैं। उनके पास कृषि यूनिवर्सिटी के विद्यार्थी  मशरूम उत्पादन के बारे में जानकारी लेने और किसान मशरूम उत्पादन प्लांट लगाने के लिए उनके पास सलाह लेने के लिए आते रहते हैं। विवेक भी उनकी मदद करके अपने आपको भाग्यशाली महसूस करते हैं।

“मशरूम उत्पादन एक ऐसा व्यवसाय है जिससे पूरे परिवार को रोज़गार मिलता है” — विवेक उनियाल

भविष्य की योजना
विवेक जी आने वाले समय में मशरूम से कई तरह के उत्पाद जैसे आचार, बिस्किट, पापड़ आदि तैयार करके इनकी मार्केटिंग करना चाहते हैं।

संदेश
“किसानों को अपनी आय को बढ़ाने के लिए खेती के साथ साथ कोई ना कोई सहायक व्यवसाय भी करना चाहिए। पर छोटे स्तर पर काम शुरू करना चाहिए ताकि इसके होने वाले फायदों और नुकसानों के बारे में पहले ही पता चल जाए और भविष्य में कोई मुश्किल ना आए।”

अमरजीत सिंह ढिल्लों

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आखिर क्यों एम.टैक की पढ़ाई बीच में छोड़कर यह नौजवान करने लगा खेती?

हर माता-पिता का सपना होता है उनके बच्चे पढ़-लिखकर किसी अच्छी नौकरी पर लग जाएं ताकि उनका भविष्य सुरक्षित हो जाये। ऐसा ही सपना अमरजीत सिंह ढिल्लों के माता-पिता का था। इसलिए उन्होंने ने अपने बेटे के बढ़िया भविष्य के लिए उसे बढ़िया स्कूल में पढ़ाया और उच्च शिक्षा के लिए उन्होंने दाखिला बी.टेक मैकेनिकल में करवाया। मैकेनिकल इंजीनियर में ग्रेजुएशन करने के बाद अमरजीत ने एम.टेक करने का फैसला किया और अपना दाखिला भी करवा लिया। पर एम.टेक की पढ़ाई में उनकी कोई ख़ास दिलचस्पी नहीं थी, इसलिए उन्होंने पढ़ाई बीच ही छोड़ने का फैसला किया।

अमरजीत जी के परिवार के पास 24 एकड़ ज़मीन थी, जिस पर उनके पिता जी और भाई पारंपरिक खेती करते हैं। एक साल तक अमरजीत जी भी अपने पिता के साथ खेती करते रहे, पर नौजवान होने के कारण अमरजीत पारंपरिक खेती के चक्र में नहीं फसना चाहते थे। कृषि के बारे में अपने ज्ञान को अधिक बढ़ाने के लिए उन्होंने पंजाब एग्रीकल्चर यूनिवर्सिटी, लुधियाना जाना शुरू कर दिया।

उन्होंने ने पीएयू में यंग फार्मर कोर्स दाखिला लिया। कोर्स पूरा होने के बाद उन्होंने बागवानी फसल करने का फैसला किया। सबसे पहले उन्होंने अपने फार्म जिसका नाम “ग्रीन एनर्जी फार्म” है,  में फलों की खेती शुरू की।। वह बाद में साथ-साथ सब्जियां, फूलों की खेती और मधु मक्खी पालन का काम भी करने लगे।

“मैंने एक साल के अंदर-अंदर यह सब छोड़कर केवल फलों और सब्जियों की खेती करने का फैसला किया, क्योंकि फलों और सब्जियों का मंडीकरण आसानी से एक ही मंडी में हो जाता है। इसमें दुकानदारी की तरह रोज़ाना कमाई हो जाती है” – अमरजीत सिंह ढिल्लों

अमरजीत जी ने पूरे साल के लिए एक टाइम-टेबल बनाया, जिसके अनुसार वह अलग-अलग महीने बोई हुई फसलों की कटाई करते हैं।

अमरजीत जी जैविक खेती नहीं करते, पर वह सबसे पहले जैविक तरीकों से कीड़ों और बिमारियों पर नियंत्रण करने की कोशिश करते हैं और ज़रूरत पड़ने पर पीएयू की तरफ से सिफारिश की गई स्प्रे का प्रयोग सिफारिश मात्रा में ही करते हैं। आज भी अमरजीत के.वी.के. और यूनिवर्सिटी और जिला स्तर ट्रेनिंग में भी हिस्सा लेते हैं। आज भी यहाँ अमरजीत जी कोई भी समस्या आती है तो वह पीएयू के माहिरों की सलाह लेते हैं।

“मेरे अनुसार, फल तोड़ने के बाद पौधों पर स्प्रे करनी चाहिए ताकि तोड़ाई और स्प्रे के समय में 24 से 48 घंटे का फासला हो “– अमरजीत सिंह ढिल्लों
उपलब्धियां
अमरजीत जी ने राज्य स्तर और राष्ट्रीय स्तर पर बहुत से सन्मान हासिल किये हैं, जिनमें से कुछ नीचे दिए गए हैं:
  • पीएयू की तरफ से मुख्य मंत्री पुरस्कार (2006)
  • आत्मा की तरफ से राज्य स्तरीय पुरस्कार (2009)
  • एग्रीकल्चर समिट चप्पड़चिड़ी में स्टेट पुरस्कार
  • इंटरनेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ़ वेजिटेबल रिसर्च की तरफ से ज़ोनल पुरस्कार (2018)
  • IARI की तरफ से इनोवेटिव फार्मर पुरस्कार (नेशनल अवार्ड 2018)
भविष्य की योजना

भविष्य में अमरजीत सिंह ढिल्लों अपना पूरा ध्यान फलों और सब्जियों की सेल्फ मार्केटिंग और प्रोसेसिंग पर केंद्र करना चाहते हैं।

संदेश
“बागवानी क्षेत्र में आने के चाहवान नौजवानों को अच्छी तरह पढ़ाई करके और ट्रेनिंग लेकर खेती की तरफ अपना ध्यान केंद्रित करना चाहिए। छोटे स्तर पर खेती करनी शुरू करनी चाहिए, किसी की बातों में आकर शुरू में ही ज़्यादा पैसे का निवेश नहीं करना चाहिए। खेतीबाड़ी से संबंधित किताबें पड़नी चाहिए और हमेशा सीखते रहना चाहिए।”

नवदीप बल्ली और गुरशरन सिंह

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 मालवा क्षेत्र के दो युवा किसान कृषि को फूड प्रोसेसिंग के साथ जोड़कर कमा रहे दोगुना लाभ

भोजन जीवन की मूल आवश्यकता है, लेकिन क्या होगा जब आपका भोजन उत्पादन के दौरान बहुत ही बुनियादी स्तर पर मिलावटी और दूषित हो जाये!

आज, भारत में भोजन में मिलावट एक प्रमुख मुद्दा है,जब गुणवत्ता की बात आती है तो उत्पादक/निर्माता अंधे हो जाते हैं और वे केवल मात्रा पर ध्यान केंद्रित करते हैं,जो ना केवल भोजन के स्वाद और पोषण को प्रभावित करता है बल्कि उपभोक्ता के स्वास्थ्य को भी प्रभावित करता है। लेकिन पंजाब के मालवा क्षेत्र के ऐसे दो युवा किसानों ने, समाज को केवल शुद्ध भोजन प्रदान करना अपना लक्ष्य बना लिया।

यह नवदीप बल्ली और गुरशरण सिंह की कहानी है जिन्होंने अपने अनूठे उत्पादन कच्ची हल्दी के आचार के साथ बाजार में प्रवेश किया और थोड़े समय में ही लोकप्रिय हो गए। एक अच्छी शिक्षित पृष्ठभूमि से आते हुए इन दो युवा पुरूषों ने समाज के लिए क्या, अच्छा प्रदान करने का फैसला किया। यह सब तब शुरू हुआ जब उन्होंने कच्ची हल्दी के कई लाभ और घरेलू नुस्खों की खोज की जो खराब कोलेस्ट्रोल को नियंत्रित करने में मदद करते हैं, त्वचा की बीमारियों, एलर्जी और घावों को ठीक करने में मदद करते हैं, कैंसर जैसी जानलेवा बीमारी और कई अन्य बीमारियों को रोकने में मदद करते हैं।

शुरू से ही दोनों दोस्तों ने कुछ अलग करने का फैसला किया था, इसलिए उन्होंने हल्दी की खेती शुरू की और 80-90 क्विंटल प्रति एकड़ की उपज प्राप्त की। उसके बाद उन्होंने अपनी फसल को स्वंय प्रोसेस करने और उसे कच्ची हल्दी के आचार के रूप में मार्किट में बेचने का फैसला किया।पहला स्थान जहां उनके उत्पाद को लोगों के बीच प्रसिद्धी मिली वह था बठिंडा की रविवार वाली मंडी और अब उन्होंने शहर के कई स्थानों पर इसे बेचना शुरू कर दिया है।

फूड प्रोसेसिंग व्यवसाय में प्रवेश करने से पहले नवदीप और गुरशरण ने जिले के वरिष्ठ कृषि विशेषज्ञ डॉ. परमेश्वर सिंह से खेती पर परामर्श लिया। आज, स्वंय डॉक्टर भी स्वयं पर गर्व महसूस करते हैं, कि उनकी सलाह का पालन करके ये युवा खाद्य प्रसंस्करण मार्किट में अच्छा कर रहे हैं और रसोई में प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष रूप से प्रयोग किए जाने वाले अधिक बुनियादी शुद्ध संसाधित खाद्य उत्पादों को बना रहे हैं।

कच्ची हल्दी के आचार की सफलता के बाद, नवदीप और गुरशरण को रामपुर में स्थापित प्रोसेसिंग प्लांट मिला और वर्तमान में उनकी उत्पाद सूची में 10 से अधिक वस्तुएं हैं, जिनमें कच्ची हल्दी, कच्ची हल्दी का आचार, हल्दी पाउडर, मिर्च पाउडर, सब्जी मसाला, धनिया पाउडर, लस्सी, दहीं, चाट मसाला, लहसुन का आचार, जीरा, बेसन, चाय का मसाला आदि।

ये दोनों ना केवल फूड प्रोसेसिंग को एक लाभदायक उद्यम बना रहे हैं। बल्कि अन्य किसानों को बेहतर राजस्व हासिल करने के लिए खेती के साथ फूड प्रोसेसिंग को अपनाने के लिए भी प्रोत्साहित कर रहे हैं।

भविष्य की योजनाएं: वे भविष्य में अपने उत्पादों को पोषक समृद्ध बनाने के लिए फसल विविधीकरण को अपनाने और अधिक किफायती खेती करने की योजना बना रहे हैं। अपने संसाधित उत्पादों को आगे के क्षेत्रों में बेचने और लोगों को मिलावटी भोजन और स्वास्थय की महत्तव के बारे में जागरूक करने की योजना बना रहे हैं।

संदेश
यदि किसान कृषि से बेहतर लाभ चाहते हैं तो उन्हें खेती के साथ फूड प्रोसेसिंग का कार्य शुरू करना चाहिए।

सपिंदर सिंह

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सपिंदर सिंह ने सुअर पालन के साथ मछली पालन को समेकित कर पंजाब में कृषि संबंधित गतिविधियो को अगले स्तर तक पहुंचाया

भारत के अधिकांश भागों में, किसान अपनी घरेलु आर्थिकता को समर्थन देने के लिए समेकित कृषि संबंधित गतिविधियों को अपना रहे हैं और अपनाये भी क्यों ना । समेकित कृषि प्रणाली ना सिर्फ ग्रामीण समुदाय को उचित आजीविका प्रदान करती है बल्कि एक व्यवसाय में किसी कारणवश हानि होने पर अतिरिक्त व्यवसाय के रूप में समर्थन प्रदान करती है। इस उदाहरण के साथ संगरूर के प्रगतिशील किसान सपिंदर सिंह ने सुअर पालन के साथ मछली पालन को अपनाकर पंजाब के अन्य किसानों के लिए उदाहरण स्थापित किया है।

यह कहानी एक रिटायर्ड व्यक्ति— सपिंदर सिंह की है, जिन्होंने अपने 18 वर्ष मिल्टिरी इंजीनियरिंग सर्विस को समर्पित करने के बाद वापिस पंजाब आने का फैसला किया और अपना बाकी का जीवन खेतीबाड़ी को समर्पित कर दिया। कृषि पृष्ठभूमि से आने के कारण, सपिंदर सिंह के लिए दोबारा खेतीबाड़ी शुरू करना कुछ मुश्किल नहीं था। लेकिन मुख्य फसलें गेहू और धान उगाना उनके लिए लाभदायक उद्यम नहीं था। जिसका एक कारण उनका संबंधित कृषि गतिविधियों की तरफ प्रभावित होना था।

इस समय के दौरान, एक बार सपिंदर सिंह कुछ व्यक्तिगत कामों के लिए संगरूर शहर गए और वहां पर उन्होंने एक मछली बीज फार्म में मछली बीज उत्पादन की प्रक्रिया के बारे में पता चला। मछली फार्म में श्रमिकों से बात करने पर उन्हें पता चला कि महीने में एक बार उन अभिलाषी किसानों की ट्रेनिंग के लिए 5 दिनों का ट्रेनिंग प्रोग्राम आयोजित किया जाता है। जो कि मछली पालन के व्यवसाय को अपने करियर के रूप में अपनाना चाहते हैं।

“और यह तब हुआ जब मैंने मछली पालन करने का फैसला किया। मेरी मां और मैंने अक्तूबर 2013 में पांच दिनों की ट्रेनिंग ली। वहां से मुझे पता चला कि मछली का बच्चा केवल मार्च से अगस्त तक ही प्रदान किया जाता है।”

ट्रेनिंग के बाद एक भी पल बिना गंवाए सपिंदर सिंह ने अपना स्वंय का प्री कल्चर टैंक (नर्सरी टैंक) तैयार करने और उसमें मछली के पूंग संग्रहित करने का फैसला किया। टैंक की तैयारी के लिए उन्होंने मिट्टी और पानी की जांच के तहत अपनी ज़मीन की जांच के बाद अपनी ज़मीन पर एक तालाब खोदा। मछली पालन विभाग ने उन्हें लोन एप्लेकेशन में भी मदद की और सपिंदर सिंह के लिए लोन की किश्तों की प्रक्रिया बहुत ही आसान थीं।

“मछली पालन के लिए मैंने 4.50 लाख रूपये के लोन के लिए आवेदन किया और कुछ समय बाद 1.50 लाख रूपये पहली लोन की किश्त प्राप्त हुई। समय पर लोन भी चुकाया गया था, जिसके कारण मुझे अपना मछली फार्म स्थापित करने के दौरान किसी भी प्रकार की वित्तीय समस्या का सामना नहीं करना पड़ा।”

मछली पालन के अधिकारियों ने सपिंदर सिंह को सही समय पर जानकारी देने में महत्तवपूर्ण भूमिका निभाई। उन्होंने श्री सिंह को एकीकृत खेती का सुझाव दिया ओर फिर सपिंदर सिंह ने सुअर पालन का व्यवसाय शुरू करने का फैसला किया। ट्रेनिंग लेने के बाद सपिंदर सिंह ने पिग्गरी शैड स्थापित करने के लिए 4.90 लाख रूपये के लोन के लिए आवेदन किया।

वर्तमान में, सपिंदर सिंह 200 सुअरों के साथ 3.25 एकड़ में मछली पालन कर रहे हैं। सुअर पालन के साथ मछली पालन की समेकित कृषि प्रणाली से उन्हें 8 लाख का शुद्ध लाभ मिलता है। मछली पालन और पशु पालन दोनों विभागों ने 1.95 लाख और 1.50 लाख की सब्सिडी दी। दोनों विभागों और जिला प्रशासन दोनों ने उन्हें अपना उद्यम बढ़ाने में पूरी सहयोग और सभी अवसर उन्हें प्रदान किए।

वर्तमान में, सपिंदर सिंह अपने फार्म को सफलतापूर्वक चला रहे हैं और जब भी उन्हें मौका मिलता है तो वे किसानों को उचित कृषि ज्ञान हासिल करने के लिए द्वारा आयोजित के वी के ट्रेनिंग कैंप में शामिल होने के लिए प्रोत्साहित करने की कोशिश करते हैं।

अपनी तीव्र जिज्ञासा के साथ वे हमेशा एक कदम आगे रहना चाहते हैं सपिंदर सिंह ये भी जानते है। कि उन्नति के लिए उनका अगला कदम क्या होना चाहिए और यही कारण है कि वे सुअर — मछली युनिट के प्रोसेसिंग प्लांट में निवेश करने की योजना बना रहे हैं।

सपिंदर सिंह एक आधुनिक प्रगतिशील किसान हैं जिन्होंने आधुनिक पद्धति के अनुसार अपने खेती करने के तरीकों को बदला और प्रत्येक अवसर का लाभ उठाया। अन्य किसान यदि कृषि क्षेत्र में प्रगति करना चाहते हैं तो उन्हें सपिंदर सिंह के दृष्टिकोण को समझना होगा।

संदेश

यदि किसान अच्छी कमाई करना चाहते हैं और आर्थिक रूप से घरेलु स्थिति में सुधार करना चाहते हैं तो उन्हें फसल की खेती के साथ कृषि संबंधी व्यवसायों को अपनाना चाहिए।

विनोद कुमार

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जानें इस नौजवान के बारे में जिसने मैकेनिकल इंजीनियर की नौकरी छोड़कर मोती उत्पादन शुरू किया, और अब है वार्षिक कमाई 5 लाख से भी ज्यादा

विनोद कुमार जो पेशे से मैकेनिकल इंजीनियर थे, वे अक्सर अपनी व्यस्त व्यवसायी ज़िंदगी से समय निकालकर खेती में अपनी दिलचस्पी तलाशने के लिए नई आधुनिक कृषि तकनीकों की खोज करते थे। एक दिन इंटरेनेट पर विनोद कुमार को मोती उत्पादन के बारे में पता चला और वे इसकी तरफ आकर्षित हुए और उन्होंने इसकी गहराई से जानकारी प्राप्त की जिससे उन्हें पता चला कि मोती उत्पादन कम पानी और कम क्षेत्र में किया जा सकता है।

जब उन्हें यह पता चला कि मोती उत्पादन की ट्रेनिंग देने वाला एकमात्र इंस्टीट्यूट सेंट्रल इंस्टीट्यूट ऑफ फ्रेश वॉटर एक्वाकल्चर भुवनेश्वर में स्थित है तो विनोद कुमार ने बिना समय गंवाए, अपने दिल की बात सुनी और अपनी नौकरी छोड़कर मई 2016 में एक सप्ताह की ट्रनिंग के लिए भुवनेश्वर चले गए।

उन्होंने मोती उत्पादन 20 x 10 फुट क्षेत्र में 1000 सीप से शुरू की थी और आज उन्होंने अपना मोती उत्पादन का व्यवसाय का विस्तार कर दिया है जिसमें वे 2000 सीप से, 5 लाख से भी ज्यादा का मुनाफा कमा रहे हैं। खैर, यह विनोद कुमार का कृषि की तरफ दृढ़ संकल्प और जुनून था जिसने उन्होंने सफलता का यह रास्ता दिखाया।

विनोद कुमार ने हमसे मोती उत्पादन शुरू करने वाले नए लोगों के लिए मोती उत्पादन की जानकारी सांझा की –

• न्यूनतम निवेश 40000 से 60000
• मोती उत्पादन के लिए आवश्यक पानी का तापमान — 35°सेल्सियस
• मोती उत्पादन के लिए एक पानी की टैंकी आवश्यक है।
• सीप मेरठ और अलीगढ़ से मछुआरों से 5—15 रूपये में खरीदे जा सकते हैं।
• इन सीपको पानी की टैंकी में 10—12 महीने के लिए रखा जाता है और जब शैल अपना रंग बदलकर सिल्वर रंग का हो जाता है तब मोती तैयार हो जाता है।
• खैर, यह अच्छा गोल आकार लेने में 2 —2.5 वर्ष लगाता है।
• शैल को इसकी आंतरिक चमक से पहचाना जाता है।
• आमतौर पर शैल का आकार 8—11 सैं.मी. होता है।
• मोती के लिए आदर्श बाजार राजकोट, दिल्ली, दिल्ली के नज़दीक के क्षेत्र और सूरत हैं।

मोती उत्पादन के मुख्य कार्य:
मुख्य कार्य सीप की सर्जरी है और इस काम के लिए संस्थान द्वारा विशेष ट्रेनिंग दी जाती है। मोती के अलावा सीप के अंदर विभिन्न तरह के आकार और डिज़ाइन बनाए जा सकते हैं।

विनोद ना केवल मोती उत्पादनकर रहे हैं बल्कि वे अन्य किसानों को भी ट्रेनिंग प्रदान कर रहे हैं। उन्हें उद्यमिता विकास के लिए ताजे पानी में मोती की खेती की ट्रेनिंग में ICAR- सेंट्रल इंस्टीट्यूट ऑफ फ्रेश वॉटर एक्वाकल्चर द्वारा प्रमाणित किया गया है। अब तक 30000 से अधिक लोगों ने उनके फार्म का दौरा किया है और उन्होंने कभी भी किसी को निराश नहीं किया है।

संदेश
“आज के किसान यदि अपने जीवन में आगे बढ़ना चाहते हैं तो उन्हें अलग सोचना चाहिए लेकिन यह भावना भी धैर्य की मांग करती है क्योंकि मेरे कई छात्र ट्रेनिंग के लिए मेरे पास आए और ट्रेनिंग के तुरंत बाद ही उन्होंने अपना व्यवसाय शुरू करने की कोशिश की लेकिन वे सफल नहीं हुए। लोगों को यह समझना चाहिए कि सफलता धैर्य और लगातार अभ्यास से मिलती है।”

फारूखनगर तहसील, गुरूग्राम के एक छोटे से गांव जमालपुर में रहने वाले श्री विनोद कुमार ने अपने अनुभव और दृढ़ संकल्प के साथ साबित कर दिया है कि फ्रैश वॉटर सीपकल्चर में विशाल क्षमता है।

उमा सैनी

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उमा सैनी – एक ऐसी महिला जो धरती को एक बेहतर जगह बनाने के लिए अपशिष्ट पदार्थ को सॉयल फूड में बदलने की क्रांति ला रही हैं

कई वर्षों से रसायनों, खादों और ज़हरीले अवशेष पदार्थों से हमारी धरती का उपजाऊपन खराब किया जा रहा है और उसे दूषित भी किया जा रहा है। इस स्थिति को समझते हुए लुधियाना की महिला उद्यमी और एग्रीकेयर ऑरगैनिक फार्मस की मेनेजिंग डायरेक्टर उमा सैनी ने सॉयल फूड तैयार करने की पहल करने का निर्णय लिया जो कि पिछले दशकों में खोए मिट्टी के सभी पोषक तत्वों को फिर से हासिल करने में मदद कर सकते हैं। प्रकृति में योगदान करने के अलावा, ये महिला सशिक्तकरण के क्षेत्र में भी एक सशक्त नायिका की भूमिका निभा रही हैं। अपनी गतिशीलता के साथ वे पृथ्वी को बेहतर स्थान बना रही हैं और इसे भविष्य में भी जारी रखेंगी…

क्या आपने कभी कल्पना की है कि धरती पर जीवन क्या होगा जब कोई भी व्यर्थ पदार्थ विघटित नहीं होगा और वह वहीं ज़मीन पर पड़ा रहेगा!

इसके बारे में सोचकर रूह ही कांप उठती है और इस स्थिति के बारे में सोचकर आपका ध्यान मिट्टी के स्वास्थ्य पर जायेगा। मिट्टी को एक महत्तवपूर्ण तत्व माना जाता है क्योंकि प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष रूप से लोग इस पर निर्भर रहते हैं। हरित क्रांति और शहरीकरण मिट्टी की गिरावट के दो प्रमुख कारक है और फिर भी किसान, बड़ी कीटनाशक कंपनियां और अन्य बहुराष्ट्रीय कंपनियां इसे समझने में असमर्थ हैं।

रसायनों के अंतहीन उपयोग ने उमा सैनी को जैविक पद्धतियों की तरफ खींचा। यह सब शुरू हुआ 2005 में जब उमा सैनी ने जैविक खेती शुरू करने का फैसला किया। खैर, जैविक खेती बहुत आसान लगती है लेकिन जब इसे करने की बात आती है तो कई विशेषज्ञों को यह भी नहीं पता होता कि कहां से शुरू करना है और इसे कैसे उपयोगी बनाना है।

“हालांकि, मैंने बड़े स्तर पर जैविक खेती शुरू करने का फैसला किया लेकिन अच्छी खाद अच्छी मात्रा में कहां से प्राप्त की जाये यह सबसे बड़ी बाधा थी। इसलिए मैंने अपना वर्मीकंपोस्ट प्लांट स्थापित करने का निर्णय लिया।”

शहर के मध्य में जैविक फार्म और वर्मीकंपोस्ट की स्थापना लगभग असंभव थी, इसलिए उमा सैनी ने गांवों में छोटी ज़मीनों में निवेश करना शुरू कर दिया और धीरे-धीरे एग्रीकेयर ब्रांड वास्तविकता में आया। आज, उत्तरी भारत के विभिन्न हिस्सों में एग्रीकेयर के वर्मीकंपोस्टिंग प्लांट और ऑरगैनिक फार्म की कई युनिट्स हैं।

“गांव के इलाके में ज़मीन खरीदना भी बहुत मुश्किल था लेकिन समय के साथ वे सारी मुश्किलें खत्म हो गई हैं। ग्रामीण लोग हमसे कई सवाल पूछते थे जैसे यहां ज़मीन खरीदने का आपका क्या मकसद है, क्या आप हमारे क्षेत्र को प्रदूषित कर देंगे आदि…”

एग्रीकेयर की उत्पादन युनिट्स में से एक , लुधियाना के छोटे से गांव सिधवां कलां में स्थापित है जहां उमा सैनी ने महिलाओं को कार्यकर्त्ता के रूप में रखा हुआ है।

“मेरा मानना है कि, एक महिला हमारे समाज में महत्तवपूर्ण भूमिका निभाती है, इसलिए महिला सशिक्तकरण के उद्देश्य से, मैंने सिधवां कलां गांव और अन्य फार्म में गांव की काफी महिलाओं को नियुक्त किया है।”

महिला सशिक्तकरण की हिमायती के अलावा, उमा सैनी एक महान सलाहकार भी हैं। वे कॉलेज के छात्रों, विशेष रूप से छात्राओं को जैविक खेती, वर्मीकंपोस्टिंग और कृषि व्यवसाय के इस विकसित क्षेत्र के बारे में जागरूक करने के लिए आमंत्रित करती हैं। युवा इच्छुक महिलाओं के लिए भी उमा सैनी फ्री ट्रेनिंग सैशन आयोजित करती हैं।

“छात्र जो एग्रीकल्चर में बी.एस सी. कर रहे हैं उनके लिए कृषि के क्षेत्र में बड़ा अवसर है और विशेष रूप से उन्हें जागरूक करने के लिए मैं और मेरे पति फ्री ट्रेनिंग प्रदान करते हैं। विभिन्न कॉलेजों में अतिथि के तौर पर लैक्चर देते हैं।”

उमा सैनी ने लुधियाना के वर्मीकंपोस्टिंग प्लांट में एक वर्मी हैचरी भी तैयार की है जहां वे केंचुएं के बीज तैयार करती हैं। वर्मी हैचरी एक ऐसा शब्द है जिसके बारे में बहुत कम लोग जानते हैं। हम सभी जानते हैं कि केंचुएं मिट्टी को खनिज और पोषक तत्वों से समृद्ध बनाने में असली कार्यकर्त्ता हैं। इसलिए इस युनिट में जिसे Eisenia fetida या लाल कृमि (धरती कृमि की प्रजाति) के रूप में जाना जाता है को जैविक पदार्थों को गलाने के लिए रखा जाता है और इसे आगे की बिक्री के लिए तैयार किया जाता है।

एग्रीकेयर की अधिकांश वर्मीकंपोस्टिंग युनिट्स पूरी तरह से स्वचालित है, जिससे उत्पादन में अच्छी बढ़ोतरी हो रही है और इससे अच्छी बिक्री हो सकती है। इसके अलावा, उमा सैनी ने भारत के विभिन्न हिस्सों में 700 से अधिक किसानों को जैविक खेती में बदलने के लिए कॉन्ट्रेक्टिंग खेती के अंदर अपने साथ जोड़ा है।

“जैविक खेती और वर्मीकंपोस्टिंग के कॉन्ट्रैक्ट से हमारा काम हो रहा है, लेकिन इसके साथ ही समाज के रोजगार और स्वस्थ स्वभाव के लाभ भी मिल रहे हैं।”

आज जैविक खाद के ब्रांड TATA जैसे प्रमुख ब्रांडों को पछाड़ कर, उत्तर भारत में एग्रीकेयर – सॉयल फूड वर्मीकंपोस्ट का सबसे बड़ा विक्रेता बन गया है। वर्तमान में हिमाचल और कश्मीर सॉयल फूड की प्रमुख मार्किट हैं। एग्रीकेयर वर्मीकंपोस्ट-सॉयल फूड के उत्पादन में नेस्ले, हिंदुस्तान लीवर, कैडबरी आदि जैसी बड़ी कंपनियों के खाद्यान अपशिष्ट प्रयोग किए जाते हैं। बड़ी-बड़ी मल्टी नेशनल कंपनियों के खाद्यान अपशिष्ट का इस्तेमाल करके एग्रीकेयर पर्यावरण को स्वस्थ बनाने में महत्तवपूर्ण भूमिका निभा रहा है।

जल्दी ही उमा सैनी और उनके पति श्री वी.के. सैनी लुधियाना में ताजी जैविक सब्जियों और फलों के लिए एक नया जैविक ब्रांड लॉन्च करने की योजना बना रहे हैं जहां वे अपने उत्पादों को सीधे ही घर घर जाकर ग्राहकों तक पहुंचाएगे।

“जैविक की तरफ जाना समय की आवश्यकता है, लोगों को अपने ज़मीनी स्तर से सीखना होगा सिर्फ तभी वे प्रकृति के साथ एकता बनाए रखते हुए कृषि के क्षेत्र में अच्छा कर सकते हैं।”

प्रकृति के लिए काम करने की उमा सैनी की अनन्त भावना यह दर्शाती है कि प्रकृति अनुरूप काम करने की कोई सीमा नहीं है। इसके अलावा, उमा सैनी के बच्चे – बेटी और बेटा दोनों ही अपने माता – पिता के नक्शेकदम पर चलने में रूचि रखते हैं और इस क्षेत्र में काम करने के लिए वे उत्सुकता से कृषि क्षेत्र की पढ़ाई कर रहे हैं।

संदेश
“आजकल, कई बच्चे कृषि क्षेत्र में बी.एस सी. का चयन कर रहे हैं लेकिन जब वे अपनी डिग्री पूरी कर लेते हैं, उस समय उन्हें केवल किताबी ज्ञान होता है और वे उससे संतुष्ट होते हैं। लेकिन कृषि क्षेत्र में सफल होने के लिए यह काफी नहीं है जब तक कि वे मिट्टी में अपने हाथ नहीं डालते। प्रायोगिक ज्ञान बहुत आवश्यक है और युवाओं को यह समझना होगा और उसके अनुसार ही प्रगति होगी।”

कैप्टन ललित

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कैसे एक व्यक्ति ने अपनी अंतरात्मा की आवाज़ को सुना और बागबानी को अपनी रिटायरमेंट योजना के रूप में चुना

राजस्थान की सूखी भूमि पर अनार उगाना, एक मज़ाकिया और असफल विचार लगता है लेकिन अपने मजबूत दृढ़ संकल्प, जिद और उच्च घनता वाली खेती तकनीक से कैप्टन ललित ने इसे संभव बनाया।

कई क्षेत्रों में माहिर होने और अपने जीवन में कई व्यवसायों का अनुभव करने के बाद, आखिर में कैप्टन ललित ने बागबानी को अपनी रिटायरमेंट योजना के रूप में चुना और राजस्थान के गंगानगर जिले में अपने मूल स्थान- 11 Eea में वापिस आ गए। खैर, कई शहरों में रह रहे लोगों के लिए, खेतीबाड़ी एक अच्छी रिटारमेंट योजना नहीं होती, लेकिन श्री ललित ने अपनी अंर्तात्मा की आवाज़ को सही में सुना और खेतीबाड़ी जैसे महान और मूल व्यवसाय को एक अवसर देने के बारे में सोचा।

शुरूआती जीवन-
श्री ललित शुरू से ही सक्रिय और उत्साही व्यक्ति थे, उन्होंने कॉलेज में पढ़ाई के साथ ही अपना पेशेवर व्यवसाय शुरू कर दिया था। अपनी ग्रेजुऐशन की पढ़ाई पूरी करने के बाद, उन्होंने व्यापारिक पायलेट का लाइसेंस भी प्राप्त किया और पायलेट का पेशा अपनाया। लेकिन यह सब कुछ नहीं था जो उन्होंने किया। एक समय था जब कंप्यूटर की शिक्षा भारत में हर जगह शुरू की गई थी, इसलिए इस अवसर को ना गंवाते हुए उन्होंने एक नया उद्यम शुरू किया और जयपुर शहर में एक कंप्यूटर शिक्षा केंद्र खोला। जल्दी ही कुछ समय के बाद उन्होंने ओरेकल टेस्ट पास किया और एक ओरेकल प्रमाणित कंप्यूटर ट्रेनर बन गए। उनका कंप्यूटर शिक्षा केंद्र कुछ वर्षों तक अच्छा चला लेकिन लोगों में कंप्यूटर की कम होती दिलचस्पी के कारण इस व्यवसाय से मिलने वाला मुनाफा कम होने के कारण उन्होंने अपने इस उद्यम को बंद कर दिया।

उनके कैरियर के विकल्पों को देखते हुए यह तो स्पष्ट है कि शुरूआत से ही वे एक अनोखा पेशा चुनने में दिलचस्पी रखते थे जिसमें कि कुछ नई चीज़ें शामिल थी फिर चाहे वह प्रवृत्ति, तकनीकी या अन्य चीज़ के बारे में हो और अगला काम जो षुरू किया, उन्होंने जयपुर शहर में किराये पर एक छोटी सी ज़मीन लेकर विदेशी सब्जियों और फूलों की खेती व्यापारिक उद्देश्य के लिए की और कई पांच सितारा होटलों ने उनसे उनके उत्पादन को खरीदा।

“जब मैंने विदेशी सब्जियां जैसे थाईम, बेबी कॉर्न, ब्रोकली, लेट्स आदि को उगाया उस समय इलाके के लोग मेरा मज़ाक बनाते थे क्योंकि उनके लिए ये विदेशी सब्जियां नई थी और वे मक्की के छोटे रूप और फूल गोभी के हरे रूप को देखकर हैरान होते थे। लेकिन आज वे पिज्ज़ा, बर्गर और सलाद में उन सब्जियों को खा रहे हैं।”

जब विचार अस्तित्व में आया-
जब वे विदेशी सब्जियों की खेती कर रहे थे उस समय के दौरान उन्होंने महसूस किया कि खेतीबाड़ी में निवेश करना सबसे अच्छा है और उन्हें इसे बड़े स्तर पर करना चाहिए। क्योंकि उनके पास पहले से ही अपने मूल स्थान में एक पैतृक संपत्ति (12 बीघा भूमि) थी इसलिए उन्होंने इस पर किन्नू की खेती शुरू करने का फैसला किया वे किन्नू की खेती शुरू करने के विचार को लेकर अपने गांव वापिस आ गए लेकिन कईं किसानों से बातचीत करने के बाद उन्हे लगा कि प्रत्येक व्यक्ति एक ही चीज़ कर रहा है और उन्हें कुछ अलग करना चाहिए।

और यह वह समय था जब उन्होंने विभिन्न फलों पर रिसर्च करना शुरू किया और विभिन्न शहरों में अलग -अलग खेतों का दौरा किया। अपनी रिसर्च से उन्होंने एक उत्कृष्ट और एक आम फल को उगाने का निष्कर्ष निकाला। उन्होंने (केंद्रीय उपोष्ण बागबानी लखनऊ) से परामर्श लिया और 2015 में अनार और अमरूद की खेती शुरू की। उन्होंने 6 बीघा क्षेत्र में अनार (सिंदूरी किस्म) और अन्य 6 बीघा क्षेत्र में अमरूद की खेती शुरू की। रिसर्च और सहायता के लिए उन्होंने मोबाइल और इंटरनेट को अपनी किताब और टीचर बनाया।

“शुरू में, मैंने राजस्थान एग्रीकल्चर यूनिवर्सिटी से भी परामर्श लिया लेकिन उन्होंने कहा कि राजस्थान में अनार की खेती संभव नहीं है और मेरा मज़ाक बनाया।”

खेती करने के ढंग और तकनीक-
उन्होंने अनार की उच्च गुणवत्ता और उच्च मात्रा का उत्पादन करने के लिए उच्च घनता वाली तकनीक को अपनाया। खेतीबाड़ी की इस तकनीक में उन्होंने कैनोपी प्रबंधन को अपनाया और 20 मीटर x 20 मीटर के क्षेत्र में अनार के 7 पौधे उगाए। ऐसा करने से, एक पौधा एक मौसम में 20 किलो फल देता है और 7 पौधे 140 किलो फल देते हैं। इस तरीके से उन्होंने कम क्षेत्र में अधिक वृक्ष लगाए हैं और इससे भविष्य में वे अच्छा कमायेंगे। इसके अलावा, उच्च घनता वाली खेती के कारण, वृक्षों का कद और चौड़ाई कम होती है जिसके कारण उन्हें पूरे फार्म के रख रखाव के लिए कम श्रमिकों की आवश्यकता होती है।

कैप्टन ललित ने अपनी खेती के तरीकों को बहुत मशीनीकृत किया है। बेहतर उपज और प्रभावी परिणाम के लिए उन्होंने स्वंय एक टैंक- कम- मशीन बनाई है और इसके साथ एक कीचड़ पंप को जोड़ा है इसके अंदर घूमने के लिए एक शाफ्ट लगाया है और फार्म में सलरी और जीवअमृत आसानी से फैला दी जाती है। फार्म के अंदर इसे चलाने के लिए वे एक छोटे ट्रैक्टर का उपयोग करते हैं। जब इसे किफायती बनाने की बात आती है तो वे बाज़ार से जैविक खाद की सिर्फ एक बोतल खरीदकर सभी खादों, फिश अमीनो एसिड खाद, जीवाणु और फंगस इन सभी को अपने फार्म पर स्वंय तैयार करते हैं।

उन्होंने राठी नसल की दो गायों को भी अपनाया जिनकी देख रेख करने वाला कोई नहीं था और अब वे उन गायों का उपयोग जीवअमृत और खाद बनाने के लिए करते हैं। एक अहम चीज़ – “अग्निहोत्र भभूति”, जिसका उपयोग वे खाद में करते हैं। यह वह राख होती है जो कि हवन से प्राप्त होती है।

“अग्निहोत्र भभूति का उपयोग करने का कारण यह है कि यह वातावरण को शुद्ध करने में मदद करती है और यह आध्यात्मिक खेती का एक तरीका है। आध्यात्मिक का अर्थ है खेती का वह तरीका जो भगवान से संबंधित है।”

उन्होंने 50 मीटर x 50 मीटर के क्षेत्र में बारिश का पानी बचाने के लिए और इससे खेत को सिंचित करने के लिए एक जलाशय भी बनाया है। शुरूआत में उनका फार्म पूरी तरह पर्यावरण के अनुकूल था क्योंकि वे सब कुछ प्रबंधित करने के लिए सोलर ऊर्जा का प्रयोग करते थे लेकिन अब उन्हें सरकार से बिजली मिल रही है।

सरकार की भूमिका-
उनका अनार और अमरूद की खेती का पूरा प्रोजेक्ट राष्ट्रीय बागबानी बोर्ड द्वारा प्रमाणित किया गया है और उन्हें उनसे सब्सिडी मिलती है।

उपलब्धियां-
उनके खेती के प्रयास की सराहना कई लोगों द्वारा की जाती है।
जिस यूनिवर्सिटी ने उनका मज़ाक बनाया था वह अब उन्हें अपने समारोह में अतिथि के रूप में आमंत्रित करती है और उनसे उच्च घनता वाली खेती और कांट-छांट की तकनीकों के लिए परामर्श भी लेती है।

वर्तमान स्थिति-
आज उन्होंने 12 बीघा क्षेत्र में 5000 पौधे लगाए हैं और पौधों की उम्र 2 वर्ष 4 महीने है। उच्च घनता वाली खेती के द्वारा अनार के पौधों ने फल देना शुरू भी कर दिया है, लेकिन वे अगले वर्ष वास्तविक व्यापारिक उपज की उम्मीद कर रहे हैं।

“अपनी रिसर्च के दौरान मैंने कुछ दक्षिण भारतीय राज्यों का भी दौरा किया और वहां पर पहले से ही उच्च घनता वाली खेती की जा रही है। उत्तर भारत के किसानों को भी इस तकनीक का पालन करना चाहिए क्योंकि यह सभी पहलुओं में फायदेमंद हैं।”

यह सब शुरू करने से पहले, उन्हें उच्च घनता वाली खेती के बारे में सैद्धांतिक ज्ञान था, लेकिन उनके पास व्यावहारिक अनुभव नहीं था, लेकिन धीरे धीरे समय के साथ वह इसे भी प्राप्त कर रहे हैं उनके पास 2 श्रमिक हैं और उनकी सहायता से वे अपने फार्म का प्रबंधन करते हैं।

उनके विचार-
जब एक किसान खेती करना शुरू करता है तो उसे उद्योग की तरह निवेश करना शुरू कर देना चाहिए तभी वे लाभ प्राप्त कर सकते हैं। इसके अलावा आज हर किसान को मशीनीकृत होने की ज़रूरत है यदि वे खेती में कुशल होना चाहते हैं।

किसानों को संदेश-
“जब तक किसान पारंपरिक खेती करना नहीं छोड़ते तब तक वे सशक्त और स्वतंत्र नहीं हो सकते। विशेषकर वे किसान जिनके पास कम भूमि है उन्हें स्वंय पहल करनी पड़ेगी और उनहें बागबानी में निवेश करना चाहिए। उन्हें सिर्फ सही दिशा का पालन करना चाहिए।”

जगदीप सिंह

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जानें कैसे इस किसान की व्यावहारिक पहल ने पंजाब को पराली जलाने के लिए ना कहने में मदद की

पराली जलाना और कीटनाशकों का प्रयोग करना पुरानी पद्धतियां हैं जिनका पर्यावरण पर हानिकारक प्रभाव आज हम देख रहे हैं। पंजाब और हरियाणा में पराली जलाने के कारण भारत के उत्तरी भागों को वायु प्रदूषण में भारी वृद्धि का सामना करना पड़ रहा है। पिछले कई वर्षों में वायु की गुणवत्ता खराब हो गई है और यह कई गंभीर श्वास और त्वचा की समस्याओं को जन्म दे रही है।

हालांकि सरकार ने पराली जलाने की समस्या को रोकने के लिए कई प्रमुख कदम उठाए हैं फिर भी वे किसानों को पराली जलाने से रोक नहीं पा रहे। किसानों में ज्ञान और जागरूकता की कमी के कारण पंजाब में पराली जलाना एक बड़ा मुद्दा बन रहा है। लेकिन एक ऐसे किसान जगदीप सिंह ने ना केवल अपने क्षेत्र में पराली जलाने से किसानों को रोका बल्कि उन्हें जैविक खेती की तरफ प्रोत्साहित किया।

जगदीप सिंह पंजाब के संगरूर जिले के एक उभरते हुए किसान हैं। अपनी मातृभूमि और मिट्टी के प्रति उनका स्नेह बचपन में ही बढ़ गया था। मिट्टी प्रेमी के रूप में उनकी यात्रा उनके बचपन से ही शुरू हुई। जन्म के तुरंत बाद उनके चाचा ने उन्हें गोद लिया जिनका व्यवसाय खेतीबाड़ी था। उनके चाचा उन्हें शुरू से ही फार्म पर ले जाते थे और इसी तरह खेती की दिशा में जगदीप की रूचि बढ़ गई।

बढ़ती उम्र के साथ उनका दिमाग भी विकासशील रहा और पढ़ाई पूरी करने के बाद उन्होंने प्राथमिकता खेती को ही दी। अपनी 10वीं कक्षा पूरी करने के बाद उन्होंने पढ़ाई छोड़ने का फैसला किया और खेती में अपने पिता मुख्तियार सिंह की मदद करनी शुरू की। खेती के प्रति उनकी जिज्ञासा दिन प्रतिदिन बढ़ रही थी, इसलिए अपनी जरूरतों को पूरी करने के लिए उन्होंने 1989 से 1990 के बीच उन्होंने पी ए यू का दौरा किया। पी ए यू का दौरा करने के बाद जगदीप सिंह को पता चला कि उनकी खेती की मिट्टी का बुनियादी स्तर बहुत अधिक है जो कई मिट्टी और फसलों के मुद्दे को जन्म दे रहा है और मिट्टी को अधिक उपजाऊ बनाने के लिए दो ही उपाय थे या तो रूड़ी की खाद का प्रयोग करना या खेतों में हरी खाद का प्रयोग करना।

इस समस्या का निपटारा करने के लिए जगदीप एक अच्छे समाधान के साथ आये क्योंकि रूड़ी की खाद में निवेश करना उनके लिए महंगा था। 1990 से 1991 के बीच उन्होंने पी ए यू के समर्थन से happy seeder का प्रयोग करना शुरू किया। happy seeder के प्रयोग से वे खेत में से धान की पराली को बिना निकाले मिट्टी में बीजों को रोपित करने के योग्य हुए। उन्होंने अपने खेत में मिट्टी की उपजाऊ शक्ति को बढ़ाने के लिए धान की पराली को खाद के रूप में प्रयोग करना शुरू किया। धीरे-धीरे जगदीप ने अपनी इस पहल में 37 किसानों को इकट्ठा किया और उन्हें happy seeder प्रयोग करने के लिए प्रोत्साहित किया और पराली जलाने से परहेज करने को कहा। उन्होंने इस अभियान को पूरे संगरूर में चलाया जिसके तहत उन्होंने 350 एकड़ से अधिक ज़मीन को कवर किया।

2014 में मैंने IARI (Indian Agricultural Research Institute) से पुरस्कार प्राप्त किया और उसके बाद मैनें अपने गांव में ‘Shaheed Baba Sidh Sweh Shaita Group’ नाम का ग्रुप बनाया। इस ग्रुप के तहत हम किसानों को हवा प्रदूषण की समस्याओं से निपटने के लिए, पराली ना जलाने के लिए प्रोत्साहित करते हैं।

इन दिनों वे 40 एकड़ की भूमि पर खेती कर रहे हैं जिसमें से 32 एकड़ भूमि उन्होंने किराये पर दी है और 4 एकड़ की भूमि पर वे जैविक खेती कर रहे हैं और बाकी की भूमि पर वे बहुत कम मात्रा में कीटनाशकों का प्रयोग करते हैं। उनका मुख्य मंतव जैविक की तरफ जाना है। वर्तमान में वे अपने पिता, माता, पत्नी और दो बेटों के साथ कनोई गांव में रह रहे हैं।

जगदीप सिंह के व्यक्तित्व के बारे में सबसे आकर्षक चीज़ यह है कि वे बहुत व्यावहारिक हैं और हमेशा खेतीबाड़ी के बारे में नई चीज़ें सीखने के लिए इच्छुक रहते हैं। वे पशु पालन में भी बहुत दिलचस्पी रखते हैं और घर के उद्देश्य के लिए उनके पास 8 भैंसे हैं। वे भैंस के दूध का प्रयोग सिर्फ घर के लिए करते हैं और कई बार इसे अपने पड़ोसियों या गांव वालों को भी बेचते हैं खेतीबाड़ी और दूध की बिक्री से वह अपने परिवार के खर्चों को काफी अच्छे से संभाल रहे हैं और भविष्य में वे अच्छे मुनाफे के लिए अपनी उत्पादकता की मार्किटिंग शुरू करना चाहते हैं।

संदेश
दूसरे किसानों के लिए जगदीप सिंह का संदेश यह है कि उन्हें अपने बच्चों को खेती के बारे में सिखाना चाहिए और उनके मन में खेती के बारे में नकारात्मक विचार ना डालें अन्यथा वे अपने जड़ों के बारे में भूल जाएंगे।

शेर बाज सिंह संधु

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शेरबाज़ सिंह संधु, भैंस की सर्वश्रेष्ठ नसल – मुर्रा, के साथ पंजाब में सफेद क्रांति ला रहे हैं

यह कहानी है एक ऐसे व्यक्ति की जिसने पशु पालन में अपनी दिलचस्पी को जारी रखा और इसे एक सफल डेयरी बिज़नेस – लक्ष्मी डेयरी फार्म में बदला।

कई अन्य किसानों के विपरीत, शेर बाज सिंह संधु ने निजी और सार्वजनिक क्षेत्रों में नौकरी ढूंढने की बजाय अपना दिमाग काफी छोटी उम्र में ही पशु पालन की तरफ मोड़ लिया था। पशु पालन में उनकी दिलचस्पी का मुख्य कारण उनकी माता -हरपाल कौर संधु थी।

शेर बाज सिंह संधु को पशु पालन की तरफ झुकाव की प्रेरणा उनकी मां के परिवार की ओर से मिली। काफी समय पहले शेर बाज सिंह संधु जी के नाना जी को सर्वोत्तम नसल के पशु पालने का शौंक था और यही शौंक शादी के बाद उनकी बेटी ने भी अपनाया और इसी शौंक को देखते हुए शेर बाज सिंह संधु का झुकाव पशु पालन की तरफ हुआ।
2002 में श्रीमती हरपाल कौर का निधन हो गया। हां, यह श्री संधु के लिए बहुत दुखद क्षण था, लेकिन अपनी माता की मृत्यु के बाद उन्हें एक बेहतर तरीके से पशु पालन करने की प्रेरणा मिली और तब उन्होंने पशु पालन व्यापार में प्रवेश करने का फैसला किया। श्री संधु ने पुराने पशुओं को बेच दिया और हरियाणा के एक क्षेत्र से 52000 रूपये में मुर्रा नसल की एक नई भैंस को खरीदा। उस समय वह भैंस 15-16 किलो दूध प्रतिदिन देती थी।
2003 में उन्होंने उसी नसल की एक नई भैंस 80000 रूपये में खरीदी और यह भैंस उस समय 25 किलो दूध देती थी।

फिर 2004 में उन्होंने पूरे परिवार की जांच करते हुए 75000 रूपये में भैंस के एक कटड़े को खरीदा (उसकी मां 20 किलो दूध देती थी और उसने इसके लिए एक पुरस्कार भी जीता था)।

और इस तरह उन्होंने अपने फार्म में भैंसों की नसल को सुधारा और अपने फार्म पर अच्छी गुणवत्ता वाली भैंसो की संख्या में वृद्धि की।

एक बार, उनकी भैंस लक्ष्मी ने मुक्तसर मेले में सर्वश्रेष्ठ नस्ल चैंपियनशिप का खिताब जीता और उसके बाद से ही उन्होंने अपने फार्म का नाम – “लक्ष्मी डेयरी फार्म” रख दिया।

ना केवल लक्ष्मी बल्कि कई अन्य भैंस और सांड हैं जैसे धन्नो, रानी, सिकंदर जिन्होंने श्री शेर बाज सिंह को गर्व महसूस करवाया और किसान मेलों और दूध उत्पादन और नसल चैंपियनशिप में बार-बार पुरस्कार जीतकर सारे रिकॉर्ड भी तोड़ दिए।

उनके कुछ पुरस्कार और उपलब्धियों का उल्लेख नीचे दिया गया है:
• लक्ष्मी डेयरी फार्म में भैंस के दूध के लए राष्ट्रीय रिकॉर्ड हैं।
• शेर बाज सिंह को मुख्यमंत्री प्रकाश सिंह बादल द्वारा “State Award for excellent services in Dairy Farming” पुरस्कार से सम्मानित किया गया।
• उनकी भैंस आठवें राष्ट्रीय पशुधन चैंपियनशिप में पहले स्थान पर आई।
• माघी मेले में सरदार गुलज़ार सिंह द्वारा सम्मानित किया गया।
• उनकी भैंस ने 2008 में मुक्तसर में दूध उत्पादन प्रतियोगिता में पहला पुरस्कार जीता।
• 2008 में PDFA मेले में उनकी भैंस ने पहला पुरसकार जीता।
• 2015 में उनकी भैंस धन्नों ने 25 किलो दूध देकर सारे रिकॉर्ड तोड़ दिए।
• जनवरी 2016 में मुक्तसर मेले में उनकी मुर्रा भैंस ने सभी पुरस्कार जीते।
• उनके सांड सिकंदर ने मुक्तसर मेले में दूसरा पुरस्कार जीता।
• रानी भैंस ने 26 किलो 357 ग्राम दूध देकर एक नया रिकॉर्ड बनाया और पहला पुरस्कार जीता।
• धन्नो भैंस ने 26 किलो दूध दिया और उसी प्रतियोगिता में दूसरे स्थान पर आई।
• उनके कई लेख, अखबार में advisory magazine में प्रकाशित किए गए हैं।

आज, उनके पास 1 एकड़ में फैले उनके फार्म में कुल 50 भैंसे हैं और वे सारा दूध शहर के कई दुकानों में बेचते हैं। श्री संधु स्वंय चारा उगाना पसंद करते हैं, उनके पास कुल 40 एकड़ भूमि हैं जिसमें वे गेहूं, धान और चारा उगाते हैं।

श्री संधु का बेटा – बरिंदर सिंह संधु जो पेशे से वकील हैं और उनकी पत्नी कुलविंदर कौर संधु, लक्ष्मी डेयरी फार्म के प्रबंधन में बहुत सहायक हैं। उनके बेटे ने फार्म के नाम पर एक फेसबुक पेज बनाया है जिसमें कि उनके साथ 3.5 लाख के करीब लोग जुड़े हैं और वे 2022-23 तक इस संख्या को बढ़कार 10 लाख करना चाहते हैं क्योंकि उनके फार्म की लोकप्रियता इतनी है कि, कई लोग यहां तक कि विदेशों से भी आकर उनसे भैंसों को खरीदते हैं।

श्री संधु हमेशा किसानों की पशु पालन में सहायता करते हैं और इसमें प्रगति के लिए प्रेरित करते हैं। वे किसानों को अच्छी गुणवत्ता वाला सीमेन (वीर्य) और दूध भी प्रदान करते हैं।

भविष्य की योजनाएं: उनके भविष्य की योजना है कि फार्म के क्षेत्र को बढ़ाना और सिर्फ अच्छी गुणवत्ता वाली भैंसों को रखना और अच्छी गुणवत्ता वाला सीमेन और दूध किसानों को उपलब्ध करवाना।

संदेश:

आजकल के किसानों की स्थानीय नसलों की बजाय विदेशी नसलों के पालन में अधिक रूचि है। उन्हें लगता है कि विदेशी नसलें उन्हें अधिक लाभ दे सकती हैं पर यह सच नहीं है। क्योंकि विदेशों नसलों को एक अलग जलवायु और परिस्थितियों की जरूरत होती है जो कि भारत में संभव नहीं है। इसके अलावा, विदेशी नसल के पालन में स्थानीय नसल की तुलना में अधिक खर्चे की आवश्यकता होती है। जिसके लिए साधारण किसान प्रबंधन करने में सक्षम नहीं होते। जिसके कारण कुछ समय बाद किसान स्थानीय नसलों को पालने लग जाते हैं या फिर वे पूरी तरह से पशु पालन के कार्य को बंद कर देते हैं।
किसानों को यह समझना चाहिए कि अब भारत में अच्छी नसलें उपलब्ध हैं जो प्रतिदिन 20-25 किलो दूध का उत्पादन कर सकती हैं। किसानों को खेती के साथ-साथ पशु पालन व्यवसाय का चयन करना चाहिए क्योंकि यह आय बढ़ाने में मदद करता है। इस तरह किसान बेरोजगारी की समस्या से निपट सकते हैं और भारत पशु पालन में प्रगति कर सकता है।

राजा राम जाखड़

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राजस्थान के भविष्यवादी किसान, जो घीकवार की खेती से पारंपरिक खेती में परिवर्तन ला रहे हैं

बेशक, राजस्थान आज भी पारंपरिक खेती वाले ढंगों के लिए जाना जाता है और यहां की मुख्यफसलें बाजरा, ग्वार और ज्वार हैं। बहुत सारे किसान तरक्की कर रहे हैं, पर आज भी बहुत किसान ऐसे हैं, जो अपनी पारंपरिक खेती की रूढ़ीवादी सोच से बाहर निकलकर कुछ करने की कोशिश कर रहे हैं और खेतीबाड़ी के क्षेत्र में बदलाव ला रहे हैं।

राजस्थान की धरती पर राजा राम सिंह जी जन्मे और पले बढ़े हैं। उन्होंने बी एस सी एग्रीकल्चर में ग्रेजुएशन की और उन्होंने सरकारी नौकरी छोड़ दी, ताकि वे खेती के प्रति अपने जुनून को पूरा कर सकें। उन्होंने मौके का फायदा लेना और उससे लाभ कमाना भी सीखा। आज वे राजस्थान में घीकवार के सफल किसान हैं, जो अपनी उपज के मंडीकरण के लिए किसी पर भी निर्भर नहीं हैं, क्योंकि उनकी उपज केवल खेत से ही खप्तकारों को बेची जाती है।

राजा राम जाखड़ जी का परिवार बचपन से ही खेतीबाड़ी से जुड़ा है और उन्होंने अपने बचपन से ही अपने परिवार के सभी सदस्यों को खेती करते देखा। पर 1980 में उन्होंने डी ए वी कॉलेज संघरिया (राजस्थान) से बी एस सी एग्रीकल्चर की डिग्री पूरी की और उन्हें एक अलग पेशे में नौकरी (सैंट्रल स्टेट फार्म, सूरतगढ़ में सुपरवाइज़र) का मौका मिला। पर वे 3-4 महीनों से ज्यादा, वहां काम नहीं कर सके क्योंकि उनकी इस काम में दिलचस्पी नहीं थी और उन्होंने घर वापिस आकर पिता प्रधान व्यवसाय -जो कि खेती था, इसे अपनाने का फैसला किया।

उन्होंने अपने बुज़ुर्गों वाले ढंग से ही खेती करनी शुरू की, पर इसमें कुछ विशेष लाभ नहीं मिल रहा था। धीरे-धीरे उनके परिवार की रोज़ी रोटी चलनी भी मुश्किल हो रही थी, क्योंकि उनका मुनाफा केवल गुज़ारे योग्य ही था। पर उस समय उन्होंने पतंजली ब्रांड और इसके एलोवेरा उत्पादों के बारे में सुना। उन्हें यह भी सुनने को मिला कि इन उत्पादों को बनाने के लिए पतंजली में एलोवेरा की बहुत मात्रा में उपज की जरूरत है। इसलिए इस मौके का फायदा उठाते हुए उन्होंने केवल 15000 रूपये के निवेश से 1 एकड़ एलोवेरा की खेती Babie Densis नाम की किस्म से शुरू की।

इन सब के चलते, एक बार तो उनका परिवार भी उनके विरूद्ध हो गया, क्योंकि वे जो भी काम कर रहे थे, उस पर परिवार को कोई यकीन नहीं था और उस समय अपने क्षेत्र (जिला गंगानगर) में एलोवेरा की खेती करने वाले वे पहले किसान थे। पर राजा राम जी ने अपना मन नहीं बदला, क्योंकि उन्हें खुद पर यकीन था। एक वर्ष बाद, आखिर जब एलोवेरा के पौधे पककर तैयार हो गए, कुछ खरीददारों ने उनकी उपज खरीदने के लिए संपर्क किया और तब से ही वे अपनी उपज फार्म से ही बेचते हैं, वो भी बिना कोई प्रयत्न किए। वे एक वर्ष में एक एकड़ से एक लाख रूपये तक का मुनाफा लेते हैं।

जैसे कि राजस्थान में एलोवेरा के उत्पाद तैयार करने वाली बहुत फैक्टरियां हैं, इसलिए हर 50 दिन बाद खरीददारों के द्वारा दो ट्रक उनके फार्म पर भेजे जाते हैं, और उनका काम केवल मजदूरों की मदद से ट्रकों को लोड करना होता है। अब उन्होंने अधिक मुनाफा लेने के लिए अंतर फसली विधि द्वारा एलोवेरा के खेतों में मोरिंगा पौधे भी लगाए हैं।

इस समय वे खुशी खुशी अपने परिवार (पत्नी, तीन बेटियां और एक पुत्र) के साथ रह रहे हैं और पूरे फार्म का काम काज खुद ही संभालते हैं। उनके पास खेती के लिए एक ट्यूबवैल और ट्रैक्टर है। वे अपने खेतों में एलोवेरा, मोरिंगा और कपास की खेती के लिए केवल जैविक खेती तकनीक ही अपनाते हैं। इन तीन फसलों के अलावा वे भिंडी, तोरी, खीरा, लौकी, ग्वार की फलियां और अन्य मौसमी सब्जियों की खेती घरेलू उपयोग के लिए करते हैं।

राजा राम जाखड़ जी ने अंतर फली के लिए मोरिंगा के पौधों को इस लिए चुना, क्योंकि इसमें बहुत सारे चिकित्सक गुण होते हैं और इसे बहुत कम देखभाल करके भी आसानी से उगाया जा सकता है। अब उन्होंने पौधे बेचने का काम भी शुरू किया है और जो किसान एलोवेरा की खेती के लिए ट्रेनिंग लेना चाहते हैं, उन्हें मुफ्त सिखलाई भी देते हैं। राजा राम जी अपने भविष्यवादी विचारों से खेतीबाड़ी के क्षेत्र में एक नई क्रांति लाना चाहते हैं। अभी तक कभी भी उन्होंने सरकार या किसी अन्य स्त्रोत से मदद नहीं ली और जो कुछ किया खुद से ही किया। वे भविष्य में अपने काम को और बढ़ाना चाहते हैं और अन्य किसानों को भी एलोवेरा की खेती के प्रति जागरूक करवाना चाहते हैं।


किसानों के लिए संदेश
“कुछ भी नया करने से पहले, किसानों को मंडीकरण के बारे में सोचना चाहिए ओर फिर खेती करनी चाहिए। किसानों को बहुत सारे मौके मिलते रहते हैं, बस उन्हें इन मौकों का फायदा उठाना चाहिए और इन्हें खोना नहीं चाहिए।”

 

हरबंत सिंह

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पिता पुत्र की जोड़ी जिसने इंटरनेट को अपना शोध हथियार बनाकर जैविक खेती की

खेतीबाड़ी मानवी सभ्यता का एक महत्तवपूर्ण भाग है। तकनीकों और जीवन में उन्नति के साथ साथ कई वर्षों में खेती में भी बदलाव आया है। लेकिन फिर भी, भारत में कई किसान परंपरागत तरीके से ही खेती करते हैं, लेकिन ऐसे ही एक किसान हैं या हम कह सकते हैं कि एक पिता पुत्र की जोड़ी-हरबंत सिंह (पिता) और सतनाम सिंह (पुत्र), जिन्होंने खेती के क्षेत्र में उन्नति के लिए इंटरनेट को अपना अनुसंधान हथियार बनाया।

जब तक उनका बेटा जैविक तरीके से बागबानी करने के विचार से पहले अन्य किसानों की तरह, हरबंत सिंह भी पहले परंपरागत खेती करते थे। हां, ये सतनाम सिंह ही थे जिन्होंने अपने 1 वर्ष की रिसर्च के बाद, अपने पिता से ड्रैगन फल की खेती करने की सिफारिश की।

यह सब 1 वर्ष पहले शुरू हुआ जब सतनाम सिंह अपने एक दोस्त के माध्यम से गुजरात के एक व्यकित विशाल डोडा के संपर्क में आए, विशाल डोडा 15 एकड़ के क्षेत्र में ड्रैगन फल की खेती करते हैं। सतनाम सिंह ने ड्रैगल फल पौधे के बारे में सब कुछ रिसर्च किया और अपने पिता से इसके बारे में चर्चा की और जब हरबंत सिंह ने ड्रैगन फल की खेती के बारे में और इसके फायदों के बारे में जाना, तो उन्होंने बहुत प्रसन्नता से अपने पुत्र को इसे शुरू करने के लिए प्रेरित किया, फिर चाहे इसमें कितना भी निवेश करना हो। जल्द ही उन्होंने गुजरात का दौरा किया और ड्रैगन फल के पौधों को खरीदा और विशाल डोडा से इसकी खेती के बारे में कुछ दिशा निर्देश लिये।

आज इस पिता पुत्र की जोड़ी पहली है जिसने पंजाब में ड्रैगन फल की खेती शुरू कर और अब इन पौधों ने फल देना भी शुरू कर दिया है। उन्होंने डेढ़ बीघा क्षेत्र में ड्रैगन फल के 500 नए पौधे लगाए हैं। एक पौधा 4 वर्ष में 4-20 किलो फल देता है। उन्होंने सीमेंट का एक स्तम्भ बनाया है जिसके ऊपर पहिये के आकार का ढांचा है जो कि पौधे को सहारा देता है। जब भी उन्हें ड्रैगन फल की खेती से संबंधित मदद की जरूरत होती है तो वे इंटरनेट पर उसकी खोज करते हैं या विशाल डोडा से सलाह लेते हैं।

वे सिर्फ ड्रैगन फल की ही खेती नहीं करते बल्कि उन्होंने अपने खेत में चंदन के भी पौधे लगाए हुए हैं। चंदन की खेती का विचार सतनाम सिंह के मन में उस समय आया जब वे एक न्यूज चैनल देख रहे थे जहां उन्होंने जाना कि एक मंत्री ने चंदन के पौधे का एक बड़ा हिस्सा मंदिर में दान किया जिसकी कीमत लाखों में थी। उस समय उनके दिमाग में अपने भविष्य को पर्यावरण की दृष्टि और वित्तीय रूप से सुरक्षित और लाभदायक बनाने का विचार आया। इसलिए उन्होंने जुलाई 2016 में चंदन की खेती में निवेश किया और 6 कनाल क्षेत्र में 200 पौधे लगाए।

हरबंत सिंह के अनुसार, वे जिस तकनीक का प्रयोग कर रहे हैं उसे भविष्य के लिए तैयार कर रहे हैं क्योंकि ड्रैगनफल और चंदन दोनों को कम पानी की आवश्यकता होती है (इसे केवल बारिश के पानी से ही सिंचित किया जा सकता है) और किसी विशेष प्रकार की खाद की जरूरत नहीं होती। इसके अलावा वे ये भी अच्छी तरह से जानते हैं कि आने वाले समय में धान और गेहूं की खेती पंजाब से गायब हो जाएगी क्योंकि भूजल की कमी के कारण और बागबानी आने वाले समय की आवश्यकता बन जाएगी।

हरबंत सिंह ड्रैगन फल और चंदन की खेती के लिए जैविक तरीकों का पालन करते हैं और धीरे धीरे समय के साथ वे अपनी अन्य फसलों में भी रसायनों का प्रयोग कम कर देंगे। हरबंत सिंह और उनके बेटे का रूझान जैविक खेती की तरफ इसलिए है क्योंकि समाज में बीमारियां बहुत ज्यादा बढ़ रही हैं। वे भविष्य की पीढ़ियों के लिए वातावरण को सेहतमंद और रहने योग्य बनाना चाहते हैं। जैसा उनके पूर्वज उनके लिए छोड़ गए थे। एक कारण यह भी है कि सतनाम सिंह ने अपनी इंजीनियरिंग की पढ़ाई पूरी करने के बाद जैविक खेती करने लगे थे और शुरूआत से ही उनकी रूचि खेती में थी।

आज सतनाम सिंह, अपने पिता की आधुनिक तरीके से खेती करने में पूरी मदद कर रहे हैं। वे गाय के गोबर और गऊ मूत्र का प्रयोग करके घर पर ही जीव अमृत और खाद तैयार करते हैं। वे कीटनाशकों और खादों का प्रयोग नहीं करते। हरबंत सिंह अपने गांव में पानी के प्रबंधन का भी काम कर रहे हैं और अन्य गांवों को भी इसके बारे में शिक्षा दे रहे हैं ताकि वे ट्यूबवैल का कम प्रयोग कर सकें। उनके खुद के पास 12 एकड़ खेत के लिए केवल एक ही ट्यूबवैल है। सामान्य फसलों के अलावा उनके पास अमरूद, केला, आम और आड़ू के पेड़ भी हैं।

सतनाम सिंह ने चंदन और ड्रैगन फल की खेती करने से पहले रिसर्च में एक वर्ष लगाया क्योंकि वे एक ऐसी फसल में निवेश करना चाहते थे। जिसमें कम सिंचाई की जरूरत हो और उसके स्वास्थ्य और वातावरणीय लाभ भी हो। वे चाहते हैं कि अन्य किसान भी ऐसे ही करें खेतीबाड़ी की ऐसी तकनीक अपनायें जो पर्यावरण के अनुकूल हो और जिसके विभिन्न लाभ हो।

भविष्य की योजना
वे भविष्य में लहसुन और महोगनी वृक्ष उगाने चाहते हैं। वे चाहते हैं कि अन्य किसान भी इसकी संभावना को पहचाने और अपने अच्छे भविष्य के लिए इसमें निवेश करें।

किसानों को संदेश
हरबंत सिंह और उनके बेटे दोनों ही चाहते हैं कि अन्य किसान जैविक खेती शुरू करें और भविष्य की पीढ़ियों के लिए पर्यावरण को बचाएं। तभी वे जीवित रह सकते हैं और धरती को बेहतर रहने की जगह बना सकते हैं।

स. राजमोहन सिंह कालेका

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एक व्यक्ति की कहानी जिसे पंजाब में विष रहित फसल उगाने के लिए जाना जाता है

एक कृषक परिवार में जन्मे, सरदार राजमोहन सिंह कालेका गांव बिशनपुर, पटियाला के एक सफल प्रगतिशील किसान हैं। किसी भी तरह के रसायनों और कीटनाशकों का उपयोग किए बिना वे 20 एकड़ की भूमि पर गेहूं और धान का उत्पादन करते हैं और इससे अच्छी उत्पादकता (35 क्विंटल धान और गेहूं 22 क्विंटल प्रति एकड़) प्राप्त कर रहे हैं।

वे पराली जलाने के विरूद्ध हैं और कभी भी फसल के बचे कुचे (पराली) को नहीं जलाते। उनके विष रहित खेती और पर्यावरण के अनुकूल कृषि पद्धतियों के ढंग ने उन्हें पंजाब के अन्य किसानों के रॉल मॉडल के रूप में मान्यता दी है।

इसके अलावा वे जिला पटियाला की प्रोडक्शन कमेटी के सदस्य भी हैं। वे हमेशा प्रगतिशील किसानों, वैज्ञानिकों, अधिकारियों और कृषि के माहिरों से जुड़े रहते हैं यह एक बड़ी प्राप्ति है जो उन्होंने हासिल की है। कई कृषि वैज्ञानिक और अधिकारी अक्सर उनके फार्म में रिसर्च और अन्वेषण के लिए आते हैं।

अपनी नौकरी और कृषि के साथ वे सक्रिय रूप से डेयरी फार्मिंग में भी शामिल है, उन्होंने साहिवाल नसल की कुछ गायों को रखा है इसके अलावा उन्होंने अपने खेत में बायो गैस प्लांट भी स्थापित किया है उनके अनुसार वे आज जहां तक पहुंचे हैं, उसके पीछे का कारण सिर्फ KVK और IARI के कृषि माहिरों द्वारा दिए गए परामर्श हैं।

अपने अतिरिक्त समय में, राजमोहन सिंह को कृषि से संबंधित किताबे पढ़ना पसंद है क्योंकि इससे उन्हें कुदरती खेती करने के लिए प्रोत्साहन मिलता है।

उनके पुरस्कार और उपलब्धियां…

उनके अच्छे काम और विष रहित खेतीबाड़ी करने की पहल के लिए उन्हें कई प्रसिद्ध लोगों से सम्मान और पुरस्कार मिले हैं:

• राज्य स्तरीय पुरस्कार

• राष्ट्रीय पुरस्कार

• पंजाब खेतीबाड़ी यूनिवर्सिटी, लुधियाना से धालीवाल पुरस्कार

• उन्हें माननीय सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीश द्वारा सम्मानित किया गया।

• उन्हें पंजाब और हरियाणा के राज्यपाल द्वारा सम्मानित किया गया।

• उन्हें कृषि मंत्री द्वारा सम्मानित किया गया।

श्री राजमोहन ने ना सिर्फ पुरस्कार प्राप्त किए, बल्कि विभिन्न सरकारी अधिकारियों से विशेष रूप से प्रशंसा पत्र भी प्राप्त किए हैं जो उन्हें गर्व महसूस करवाते हैं।

• मुख्य संसदीय सचिव, कृषि, पंजाब

• कृषि पंजाब के निदेशक

• डिप्टी कमिशनर पटियाला

• मुख्य कृषि अधिकारी, पटियाला

• मुख्य निदेशक, IARI

संदेश
“किसानों को विष रहित खेती करने की ओर कदम उठाने चाहिए क्योंकि यह बेहतर जीवन बनाए रखने का एकमात्र तरीका है। आज, किसान को वर्तमान ज़रूरतों को समझना चाहिए और अपनी मौद्रिक जरूरतों को पूरा करने की बजाये कृषि करने के सार्थक और टिकाऊ तरीके ढूंढने चाहिए।”

 

हरतेज सिंह मेहता

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जैविक खेती के लिए दूसरों को प्रोत्साहित करके बेहतर भविष्य के लिए एक आधार स्थापित कर रहे हैं

पहले जैविक एक ऐसा शब्द था जिसका प्रयोग बहुत कम किया जाता था। बहुत कम किसान थे जो जैविक खेती करते थे और वह भी घरेलु उद्देश्य के लिए। लेकिन समय के साथ लोगों को पता चला कि हर चमकीली सब्जी या फल अच्छा दिखता है लेकिन वह स्वास्थ्य के लिए अच्छा नहीं होता।

यह कहानी है – हरतेज सिंह मेहता की जिन्होंने 10 वर्ष पहले एक बुद्धिमानी वाला निर्णय लिया और वे इसके लिए बहुत आभारी भी हैं। हरतेज सिंह मेहता के लिए, जैविक खेती को जारी रखने का निर्णय उनके द्वारा लिया गया एक सर्वश्रेष्ठ निर्णय था और आज वे अपने क्षेत्र (मेहता गांव – बठिंडा) में जैविक खेती करने वाले एक प्रसिद्ध किसान हैं।

पंजाब के मालवा क्षेत्र, जहां पर किसान अच्छी उत्पादकता प्राप्त करने के लिए कीटनाशक और रसायनों का प्रयोग बहुत उच्च मात्रा में करते हैं। वहीं, हरतेज सिंह मेहता ने प्रकृति के साथ तालमेल बनाकर रखने को चुना। वे बचपन से ही अपने पैतृक व्यवसायों के प्रति समर्पित है और उनके लिए अपनी उपलब्धियों के बारे में फुसफुसाने से अच्छा, एक साधारण जीवन व्यतीत करना है।

उच्च योग्यता (एम.ए. पंजाबी, एम.ए. पॉलिटिकल साइंस) होने के बावजूद, उन्होंने शहरी जीवन और सरकारी नौकरी की बजाय जैविक खेती करने को चुना। वर्तमान में उनके पास 11 एकड़ ज़मीन है जिसमें वे कपास, गेहूं, सरसों, गन्ना, मसूर, पालक , मेथी, गाजर, मूली, प्याज, लहसुन और लगभग सभी सब्जियां उगाते हैं। वे हमेशा अपने खेतों को कुदरती तरीकों से तैयार करना पसंद करते हैं जिसमें कपास (F 1378), गेहूं (1482) और बंसी नाम के बीज अच्छे परिणाम देते हैं।

“अंसतोष, निरक्षरता और किसानों की उच्च उत्पादकता की इच्छा रासायनिक खादों और कीटनाशकों का उपयोग करने के लिए प्रेरित करती है, जिसके कारण किसान जो कि उद्धारकर्त्ता के रूप में जाने जाते हैं वे अब समाज को विष दे रहे हैं। आजकल किसान कीट प्रबंधन के लिए कीटनाशकों और रसायनों का इस्तेमाल करते हैं जो मिट्टी के मित्र कीटों और उपजाऊपन को नुकसान पहुंचाते हैं। वे इस बात से अवगत नहीं हैं कि वे अपने खेत में रसायनों को उपयोग करके पूरी खाद्य श्रंख्ला को विषाक्त बना रहे हैं। इसके अलावा, रसायनों और कीटनाशकों का उपयोग करके वे ना केवल पर्यावरण की स्थिति को बिगाड़ रहे हैं बल्कि कर्ज में बढ़ोतरी के कारण प्रमुख आर्थिक नुकसान का भी सामना कर रहे हैं।”– हरतेज सिंह ने कहा।

मेहता जी हमेशा खेती के लिए कुदरती ढंग को अपनाते हैं और जब भी उन्हें कुदरती खेती के बारे में जानकारी की आवश्यकता होती है तो वे अमृतसर के पिंगलवाड़ा सोसाइटी और एग्रीकल्चर हेरीटेज़ मिशन से संपर्क करते हैं। वे आमतौर पर गाय के मूत्र और पशुओं के गोबर का प्रयोग खाद बनाने के लिए करते हैं और यह मिट्टी के लिए भी अच्छा है और पर्यावरण अनुकूलन भी है।

मेहता जी के अनुसार कुदरती तरीके से उगाए गए भोजन के उपभोग ने उन्हें और उनके परिवार को पूरी तरह से स्वस्थ और रोगों से दूर रखा है। इसी कारण श्री मेहता का मानना है कि वे जैविक खेती के प्रति प्रेरित हैं और भविष्य में भी इसे जारी रखेंगे।

संदेश
“मैं देश भर के किसानों को एक ही संदेश देना चाहता हूं कि हमें निजी कंपनियों के बंधनों से बाहर आना चाहिए और समाज को स्वस्थ बनाने के लिए स्वस्थ भोजन प्रदान करने का वचन देना चाहिए।”

कांता देष्टा

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एक किसान महिला जिसे यह अहसास हुआ कि किस तरह वह रासायनिक खेती से दूसरों में बीमारी फैला रही है और फिर उसने जैविक खेती का चयन करके एक अच्छा फैसला लिया

यह कहा जाता है, कि यदि हम कुछ भी खा रहे हैं और हमें किसानों का हमेशा धन्यवादी रहना चाहिए, क्योंकि यह सब एक किसान की मेहनत और खून पसीने का नतीजा है, जो वह खेतों में बहाता है, पर यदि वही किसान बीमारियां फैलाने का एक कारण बन जाए तो क्या होगा।

आज के दौर में रासायनिक खेती पैदावार बढ़ाने के लिए एक रूझान बन चुकी है। बुनियादी भोजन की जरूरत को पूरा करने की बजाय खेतीबाड़ी एक व्यापार बन गई है। उत्पादक और भोजन के खप्तकार दोनों ही खेतीबाड़ी के उद्देश्य को भूल गए हैं।

इस स्थिति को, एक मशहूर खेतीबाड़ी विज्ञानी मासानुबो फुकुओका ने अच्छी तरह जाना और लिखते हैं।

“खेती का अंतिम लक्ष्य फसलों को बढ़ाना नहीं है, बल्कि मानवता के लिए खेती और पूर्णता है।”

इस स्थिति से गुज़रते हुए, एक महिला- कांता देष्टा ने इसे अच्छी तरह समझा और जाना कि वह भी रासायनिक खेती कर बीमारियां फैलाने का एक साधन बन चुकी है और उसने जैविक खेती करने का एक फैसला किया।

कांता देष्टा समाला गांव की एक आम किसान थी जो कि सब्जियों और फलों की खेती करके कई बार उसे अपने रिश्तेदारों, पड़ोसियों और दोस्तों में बांटती थी। पर एक दिन उसे रासायनिक खादों के प्रयोग से पैदा हुए फसलों के हानिकारक प्रभावों के बारे में पता लगा तो उसे बहुत बुरा महसूस हुआ। उस दिन से उसने फैसला किया कि वह रसायनों का प्रयोग बंद करके जैविक खेती को अपनाएगी।

जैविक खेती के प्रति उसके कदम को और प्रभावशाली बनाने के लिए वह 2004 में मोरारका फाउंडेशन और खेतीबाड़ी विभाग द्वारा चलाए जा रहे एक प्रोग्राम में शामिल हो गई। उसने कई तरह के फल, सब्जियां, अनाज और मसाले जैसे कि सेब, नाशपाति, बेर, आड़ू, जापानी खुबानी, कीवी, गिरीदार, मटर, फलियां, बैंगन, गोभी, मूली, काली मिर्च, प्याज, गेहूं, उड़द, मक्की और जौं आदि को उगाना शुरू किया।

जैविक खेती को अपनाने पर उसकी आय पर सकारात्मक प्रभाव पड़ा और यह बढ़कर वार्षिक 4 से 5 लाख रूपये हुई। केवल यही नहीं, मोरारका फाउंडेशन की मदद से कांता देष्टा ने अपने गांव में महिलाओं का एक ग्रुप बनाया और उन्हें जैविक खेती के बारे में जानकारी प्रदान की, और उन्हें उसी फाउंडेशन के तहत रजिस्टर भी करवाया।

“मैं मानती हूं कि एक ग्रुप में लोगों को ज्ञान प्रदान करना बेहतर है क्योंकि इसकी कीमत कम है और हम एक समय में ज्यादा लोगों को ध्यान दे सकते हैं।”

आज उसका नाम सफल जैविक किसानों की सूची में आता है उसके पास 31 बीघा सिंचित ज़मीन है जिस पर वह खेती कर रही है और लाखों में लाभ कमा रही है। बाद में वह NONI यूनिवर्सिटी , दिल्ली, जयपुर और बैंगलोर में भी गई, ताकि जैविक खेती के बारे में अधिक जानकारी प्राप्त की जा सके और हिमाचल प्रदेश सरकार के द्वारा उसे उसके प्रयत्नों के लिए दो बार सरकारी पुरस्कारों से सम्मानित किया गया। शिमला में बेस्ट फार्मर अवार्ड के तौर पर सम्मानित किया गया और 13 जून 2013 को उसे जैविक खेती के क्षेत्र में योगदान के लिए प्रशंसा और सम्मान भी मिला।

एक बड़े स्तर पर इतनी प्रशंसा मिलने के बावजूद यह महिला अपने आप पूरा श्रेय नहीं लेती और यह मानती है कि उनकी सफलता का सारा श्रेय मोरारका फाउंडेशन और खेतीबाड़ी विभाग को जाता है। जिसने उसे सही रास्ता दिखाया और नेतृत्व किया।

खेती के अलावा, कांता के पास दो गायें और 3 भैंसें भी हैं और उसके खेतों में 30x8x10 का एक वर्मीकंपोस्टिंग प्लांट भी है जिस में वह पशुओं के गोबर और खेती के बचे कुचे को खाद के तौर पर प्रयोग करती है। वह भूमि की स्थितियों में सुधार लाने के लिए और खर्चों को कम करने के लिए कीटनाशकों के स्थान पर हर्बल स्प्रे, एप्रेचर वॉश, जीव अमृत और NSDL का प्रयोग करती है।

अब, कांता अपने रिश्तेदारों और दोस्तों में सब्जियां और फल बांटने के दौरान खुशी महसूस करती है क्योंकि वह जानती है कि जो वह बांट रही है वह नुकसानदायक रसायनों से मुक्त है और इसे खाकर उसके रिश्तेदार और दोस्त सेहतमंद रहेंगे।

कांता देष्टा की तरफ से संदेश –
“यदि हम अपने पर्यावरण को साफ रखना चाहते हैं तो जैविक खेती बहुत महत्तवपूर्ण है।”

 

गुरदीप सिंह नंबरदार

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मशरूम की खेती में गुरदीप सिंह जी की सफलता की कहानी

गांव गुराली, जिला फिरोजपुर (पंजाब) में स्थित पूरे परिवार की सांझी कोशिश और सहायता से, गुरदीप सिंह नंबरदार ने मशरूम के क्षेत्र में सफलता प्राप्त की। अपने सारे स्त्रोतों और दृढ़ता को एकत्र कर, उन्होंने 2003 में मशरूम की खेती शुरू की थी और अब तक इस सहायक व्यवसाय ने 60 परिवारों को रोज़गार दिया है।

वे इस व्यवसाय को छोटे स्तर पर शुरू करके धीरे धीरे उच्च स्तर की तरफ बढ़ा रहे हैं, आज गुरदीप सिंह जी ने एक सफल मशरूम उत्पादक की पहचान बना ली है और इसके साथ उन्होंने एक बड़ा मशरूम फार्म भी बनाया है। मशरूम के सफल किसान होने के अलावा वे 20 वर्ष तक अपने गांव के सरपंच भी रहे।

उन्होंने इस उद्यम की शुरूआत पी.ए.यू. द्वारा दिए गए सुझाव के अनुसार की और शुरू में उन्हें लगभग 20 क्विंटल तूड़ी का खर्चा आया। आज 2003 के मुकाबले उनका फार्म बहुत बड़ा है और अब उन्हें वार्षिक लगभग 7 हज़ार क्विंटल तूड़ी का खर्चा आता है।

उनके गांव के कई किसान उनकी पहलकदमी से प्रेरित हुए हैं। मशरूम की खेती में उनकी सफलता के लिए उन्हें जिला प्रशासन के सहयोग से खेतीबाड़ी विभाग, फिरोजपुर द्वारा उनके गांव में आयोजित प्रगतिशील किसान मेले में उच्च तकनीक खेती द्वारा मशरूम उत्पादन के लिए जिला स्तरीय पुरस्कार से भी सम्मानित किया गया।

संदेश
“मशरूम की खेती कम निवेश वाला लाभदायक उद्यम है। यदि किसान बढ़िया कमाई करना चाहते हैं तो उन्हें मशरूम की खेती में निवेश करना चाहिए।”

 

सरदार गुरमेल सिंह

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जानिये कैसे गुरमेल सिंह ने अपने आधुनिक तकनीकी उपकरणों का इस्तेमाल करके सब्जियों की खेती में लाभ कमाया

गुरमेल सिंह एक और प्रगतिशील किसान पंजाब के गाँव उच्चागाँव (लुधियाना),के रहने वाले हैं। कम जमीन होने के बावजूद भी वे पिछले 23 सालों से सब्जियों की खेती करके बहुत लाभ कमा रहे हैं। उनके पास 17.5 एकड़ जमीन है जिसमें 11 एकड़ जमीन अपनी है और 6 .5 एकड़ ठेके पर ली हुई है।

आधुनिक खेती तकनीकें ड्रिप सिंचाई, स्प्रे सिंचाई, और लेज़र लेवलर जैसे कई पावर टूल्स उनके पास हैं जो इन्हें कुशल खेती और पानी का संरक्षण करने में सहायता करते हैं। और जब बात कीटनाशक दवाइयों की आती है तो वे बहुत बुद्धिमानी से काम लेते हैं। वे सिर्फ पंजाब खेतीबाड़ी यूनिवर्सिटी की सिफारिश की गई कीटनाशकों का इस्तेमाल करते हैं। ज्यादातर वे अच्छी पैदावार के लिए अपने खेतों में हरी कुदरती खाद का इस्तेमाल करते हैं।

दूसरी आधुनिक तकनीक जो वह सब्जियों के विकास के लिए 6 एकड़ में हल्की सुरंग का सही उपयोग कर रहे हैं। कुछ फसलों जैसे धान, गेहूं, लौंग, गोभी, तरबूज, टमाटर, बैंगन, खीरा, मटर और करेला आदि की खेती वे विशेष रूप से करते हैं। अपने कृषि के व्यवसाय को और बेहतर बनाने के लिए उन्होंने सोया के हाइब्रिड बीज तैयार करने और अन्य सहायक गतिविधियां जैसे कि मधुमक्खी पालन और डेयरी फार्मिंग आदि की ट्रेनिंग कृषि विज्ञान केंद्र पटियाला से हासिल की।

मंडीकरण
उनके अनुभव के विशाल क्षेत्र में ना सिर्फ विभिन्न फसलों को लाभदायक रूप से उगाना शामिल है, बल्कि इसी दौरान उन्होंने अपने मंडीकरण के कौशल को भी बढ़ाया है और आज उनके पास “आत्मा किसान हट (पटियाला)” पर अपना स्वंय का बिक्री आउटलेट है। उनके प्रासेसड किए उत्पादों की गुणवत्ता उनकी बिक्री को दिन प्रति दिन बढ़ा रही है। उन्होंने 2012 में ब्रांड नाम “स्मार्ट” के तहत एक सोया प्लांट भी स्थापित किया है और प्लांट के तहत वे, सोया दूध, पनीर, आटा ओर गिरियों जैसे उत्पादों को तैयार करते और बेचते हैं।

उपलब्धियां
वे दूसरे किसानों के लिए प्रेरणा का स्त्रोत हैं और जल्दी ही उन्हें CRI पम्प अवार्ड से सम्मानित किया जाएगा

संदेश:
“यदि वह सेहतमंद ज़िंदगी जीना चाहते हैं तो किसानों को अपने खेत में कम कीटनाशक और रसायनों का उपयोग करना चाहिए और तभी वे भविष्य में धरती से अच्छी पैदावार ले सकते हैं।”