गुरमेल सिंह

पूरी कहानी पढ़ें

कैसे इस किसान ने कृषि को स्थायी कृषि प्रथाओं के साथ वास्तव में लाभदायक व्यवसाय में बदल दिया

खैर, खेती के बारे में हर कोई सोचता है कि यह एक कठिन पेशा है, जहां किसानों को तेज धूप और बारिश में घंटों तक काम करना पड़ता है लेकिन आपको यह जानकर हैरानी होगी कि गुरमेल सिंह को जैविक खेती में शांति और जीवन की संतुष्टि मिलती है।

68 वर्षीय, गुरमेल सिंह ने 2000 मे खेती शुरू की और तब से वे उसी काम को आगे बढ़ा रहे हैं । लेकिन जैविक खेती से पहले उन्होनें मोटर मकैनिक, इलेक्ट्रीशियन जैसे कई व्यवसायों पर हाथ आज़माया और फेब्रिकेशन और वेल्डिंग का काम भी सीखा, लेकिन कोई भी नौकरी उन्हें उपयुक्त नहीं लगी क्योंकि इन्हें करने से ना उन्हें संतुष्टि मिल रही थी और ना ही खुशी ।

2000, में जब उनकी पुश्तैनी ज़मीन उनके और उनके भाई में बंटी, उस समय उन्हें भी 6 एकड़ भूमि यानि संपत्ति का 1 तिहाई हिस्सा मिला। खेती करने के बारे में सोचते हुए उन्होंने दोबारा अपनी इलेक्ट्रीशियन की नौकरी छोड़ दी और गेहूं और धान की रवायिती खेती करनी शुरू की। गुरमेल सिंह ने अपने क्षेत्र में पूरी निष्ठा के साथ हर वो चीज़ की जिसे करने में वे सक्षम थे, लेकिन उपज कभी संतोषजनक नहीं थी। 2007 तक, रवायिती खेती को करने के लिए जो निवेश चाहिए था उसे पूरा करने के कारण वे इतना कर्जे में डूब गए थे कि इससे बाहर आना उनके लिए लगभग असंभव था। अंतत: वे खेती के व्यवसाय से भी निराश हुए।

लेकिन 2007 में अमुत छकने (अमृत संचार-एक सिख अनुष्ठान प्रक्रिया) के बाद उन्हें आध्यात्मिक ज्ञान प्राप्त हुआ जिसकी वजह से उनकी खेती की धारणा पूरी तरह बदल गई उन्होंने 1 एकड़ ज़मीन पर जैविक खेती शुरू करने का फैसला किया और धीरे धीरे पूरे क्षेत्र में इसे बढ़ाने का फैसला किया। गुरमेल सिहं के जैविक खेती के इरादे को जानने के बाद उनके परिवार ने उनका साथ छोड़ दिया और उन्होंने अकेले रहना शुरू कर दिया।

एक ऐसी भूमि पर जैविक खेती करना जहां पर पहले से रासायनिक खेती की जा रही हो, एक बहुत मुश्किल काम है। परिणामस्वरूप उपज कम हुई, लेकिन जैविक खेती के लिए गुरमेल सिंह के इरादे एक शक्तिशाली पहाड़ की तरह मजबूत थे। शुरूआत में सुभाष पालेकर की वीडियो से उन्हें बहुत मदद मिली और उसके बाद 2009 में उन्होंने खेती विरासत मिशन, नाभा फाउंडेशन और NITTTR, जैसे कई संगठनों में शामिल हुए, जिन्होंने उन्हें जैविक खेती के सर्वोत्तम उपयुक्त परिणाम और मंडीकरण के विषयों के बारे में शिक्षित किया। गुरमेल सिंह ने राष्ट्रीय स्तर पर कई समारोह और कार्यक्रमों में हिस्सा लिया जिन्होंने उन्हें वैश्विक स्तर पर जैविक खेती के ढंगों से अवगत करवाया। धीरे धीरे समय के साथ उपज भी बेहतर हो गई और उन्हें अपने उत्पादन को एक अच्छे स्तर पर बेचने का अवसर भी मिला। 2014 में NITTTR की मदद से, गुरमेल सिंह को चंडीगढ़ सब्जी मंडी में अपना खुद का स्टॉल मिला, जहां वे हर शनिवार को अपना उत्पादन बेच सकते थे। 2015 में, मार्कफेड के सहयोग से उन्हें अपने उत्पादन को बेचने का एक और अवसर मिला।

“समय के साथ मैनें अपने परिवार का विश्वास जीत लिया और वे मेरे खेती करने के तरीके से खुश थे। 2010 में, मेरा बेटा भी मेरे उद्यम में शामिल हो गया और उस दिन से वह मेरे खेती जीवन के हर कदम पर मेरे साथ है।”

वे अपने फार्म की 20 से अधिक स्वंय की उगायी हुई फसलों को बेचते हैं, जिसमें मटर, गन्ना, बाजरा, ज्वार, सरसों, आलू, हरी मूंगी, अरहर,मक्की, लहसुन, प्याज, धनिया और बहुत कुछ शामिल हैं। खेती के अलावा, गुरमेल सिंह ने पंजाब एग्रीकल्चर यूनिवर्सिटी से 1 महीने की बेकरी की ट्रेनिंग लेने के बाद खाद्य प्रसंस्करण की प्रोसेसिंग शुरू की।

गुरमेल सिंह ना केवल स्वंय की उपज की प्रोसेसिंग करते हैं बल्कि नाभा फाउंडेशन के अन्य समूह सदस्यों को उनकी उपज की प्रोसेसिंग करने में भी मदद करते हैं। आटा, मल्टीग्रेन आटा, पिन्नियां, सरसों का साग और मक्की की रोटी उनके कुछ संसाधित खाद्य पदार्थ हैं जो वे सब्जियों के साथ बेचते हैं।

जब बात मंडीकरण की आती है तो अधिकारियों और संगठन के सदस्यों में, दृढ़ संकल्प, कड़ी मेहनत और प्रसिद्ध व्यक्तित्व के कारण यह हमेशा गुरमेल सिंह के लिए एक आसान बात रही। वर्तमान में, वे अपने परिवार के साथ नाभा के गांव में रह रहे हैं, जहां 4—5 श्रमिकों की मदद से, वे फार्म में सभी श्रमिकों के कामों का प्रबंधन करते हैं, और प्रोसेसिंग के लिए उन्हें आवश्यकतानुसार 1—2 श्रमिकों को नियुक्त करते हैं।

भविष्य की योजनाए:
भविष्य में, गुरमेल सिंह एक नया समूह बनाने की योजना बना रहे हैं, जहां सभी सदस्य जैविक खेती, प्रोसेसिंग और मंडीकरण करेंगे।
संदेश
“किसानों को समझना होगा कि किसी चीज़ की गुणवत्ता उसकी मात्रा से ज्यादा मायने रखती है, और जिस दिन वे इस बात को समझ जायेंगे उस दिन उपज, मंडीकरण और अन्य मसले भी सुलझ जायेंगे। और आज किसान को बिना किसी उदृदेश्य के रवायिती फसलें उगाने की बजाय मांग और सप्लाई पर ध्यान देना चाहिए।”
 

शुरूआत में, गुरमेल सिंह ने कई समस्याओं का सामना किया इसके अलावा उनके परिवार ने भी उनका साथ छोड़ दिया, लोग उन्हें जैविक खेती अपनाने के लिए पागल कहते थे, लेकिन कुछ अलग करने की इच्छा ने उन्हें अपने जीवन में सफलता प्राप्त करवायी। वे उन शालीन लोगों में से एक हैं जिनके लिए पुरस्कार या प्रशंसा कभी मायने नहीं रखती, उनके लिए उनके काम का परिणाम ही पुरस्कार हैं।

गुरमेल सिंह खुश हैं कि वे अपने जीवन की भूमिका को काफी अच्छे से निभा रहे हैं और वे चाहते हैं कि दूसरे किसान भी ऐसा करें।

भूपिंदर सिंह बरगाड़ी

पूरी कहानी पढ़ें

जानें कैसे एक बेटे ने अपने पिता के कदमों पर चलकर उनके गुड़ व्यापार को महान स्तर तक पहुंचाया

यह कहानी है- कैसे एक बेटे (भूपिंदर सिंह बरगाड़ी) ने अपने पिता (सुखदेव सिंह बरगारी) के व्यवसाय को समृद्ध तरीके से चलाया और वह पंजाब में गुड़ के प्रसिद्ध ब्रांड – BARGARI के नाम से आया।

एक समय था जब निकाले गए गन्ने के रस से गुड़ बनाने के लिए बैल का प्रयोग किया जाता था। लेकिन समय के साथ इस कार्य के लिए मशीनों का प्रयोग होने लगा। इसके अलावा गुड़ बनाने के लिए रासायनिक और रंग का प्रयोग होने के कारण इस स्वीटनर ने अपना सारा आकर्षण खो दिया और धीर धीरे लोग सफेद चीनी की तरफ आकर्षित होने लग गए।

लेकिन फिर भी कई परिवार चीनी की बजाय गुड़ को पसंद करते हैं और वे गन्ने के रस से गुड़ बनाने के लिए रवायिती ढंग का प्रयोग करते हैं। यह कहानी है सुखदेव सिंह बरगारी और उनके पुत्र भूपिंदर सिंह बरगाड़ी की। 1972 में सुखदेव सिंह औज़ारों और किसानों के उपकरणों को तीखा करने का काम करते थे और बदले में वे अनाज, सब्जियां या जो कुछ भी किसान उन्हें देते थे, वे मजदूरी के रूप में ले लेते थे। कुछ समय बाद उन्होंने ने एक इंजन खरीदा और इससे गुड़ बनाना शुरू किया। गुड़ निकालने के उनके शुद्ध पारंपरिक ढंग और बिना किसी रसायन का प्रयोग करके बनाए गुड़ ने उन्हें प्रसिद्ध कर दिया और कई गांव वालों ने उन्हें गुड़ बनाने के लिए गन्ने की फसल देनी शुरू कर दी। सुखदेव मुख्य रूप से इस काम को नवंबर से लेकर मार्च तक करते थे।

एक समय ऐसा आया जब सुखदेव की मेहनत रंग लायी और उनके गुड़ की मांग कई गुना बढ़ गई। यह 2011 की बात है जब उनकी बेटी की शादी थी। उस समय उन्होंने सभी रिश्तेदारों और मित्रों को शादी के निमंत्रण कार्डों के साथ गुड़, देसी घी और कई सारे मेवे से बनी हुई मिठाई वितरित की। हर किसी को वह मिठाई बहुत पसंद आई और उन्होंने इसे उनके लिए बनाने की मांग सुखदेव सिंह से की और उस समय उनके बेटे भूपिंदर सिंह ने अपने पिता के काम को करने और इसे एक उच्च स्तर तक विस्तृत करने का फैसला किया। इस घटना के बाद पिता पुत्र दोनों ने दो तरह के गुड बनाना शुरू किया एक मेवों के साथ और दूसरा बिना मेवे के।

बरगाड़ी परिवार के गन्ने के रस को साफ करने के लिए भिंडी की लेस के इस्तेमाल के पारंपरिक ढंग ने उनके गुड़ को, रसायनों और रंग का प्रयोग करके तैयार किए गए गुड़ से बेहतर बनाया। गुड़ बनाने के इस शुद्ध और साफ ढंग ने सुखदेव सिंह और भूपिंदर सिंह को प्रसिद्ध बना दिया और लोग उन्हें उनके काम से पहचानने लगे।

भूपिंदर सिंह सिर्फ अपने पिता के नक्शे कदम पर ही नहीं चले बल्कि उनके पास B.Ed. और MA की डिग्री थी और उसके बाद उन्होंने ETT Teacher Exam को भी पास किया और वे स्कूल टीचर के रूप में भी काम करते हैं और अपने पेशे से फ्री होने पर वे हर रोज गुड़ बनाने के लिए समय भी निकालते हैं।

इस पारंपरिक स्वीटनर को और अधिक लोकप्रिय बनाने के लिए, भूपिंदर ने 2 एकड़ क्षेत्र में गन्ने की C085 किस्म भी उगानी शुरू की और एक ग्रुप भी बनाया जिसमें वे ग्रुप के किसान सदस्यों को गन्ना उगाने के लिए प्रेरित भी करते हैं। भूपिंदर सिंह के इस कदम का परिणाम यह हुआ कि गन्ने की उतनी ही खेती की जाती थी जितनी की आवश्यक थी। जिसके परिणामस्वरूप किसानों को भी अधिक लाभ मिला और उसके साथ साथ बरगारी परिवार को भी फायदा हुआ।

पिछले 5 वर्षों से बरगारी परिवार द्वारा उत्पादित गुड़ ने PAU द्वारा आयोजित प्रतियोगिता में 4 बार पहला पुरस्कार जीता है और एक बार दूसरा पुरस्कार जीता है। 2014 में अच्छी गुणवत्ता वाले गुड़ के लिए उद्यमी किसान राज्य पुरस्कार (Udami Kisan State Award) भी जीता। भूपिंदर सिंह लखनऊ भी गए जहां उन्होंने अपनी मंडीकरण की तकनीकों के बारे में राष्ट्रीय गुड़ सम्मेलन (National Jaggery Sammelan) में चर्चा की। उन्होंने गुड़ की मार्किटिंग के लिए जागरूकता फैलाने का प्रयास ही नहीं किया बल्कि किसानों को मार्किटिंग की तकनीकों के बारे में जागरूक करवाने के लिए मार्च में आयोजित PAU सम्मेलन में भाग भी लिया।

अपना प्रोसेसिंग प्लांट स्थापित करना…

गुड़ प्रोसेसिंग प्लांट

वर्तमान में, कोटकपुरा – बठिंडा रोड पर उनका अपना गुड़ प्रोसेसिंग प्लांट है जहां पर वे अपने पारंपरिक ढंग से शुद्ध गुड़ बनाते हैं। गुड़ और शक्कर की मांग सर्दियों में ज्यादा बढ़ जाती है क्योंकि शुद्ध गुड़ से बनी चाय के सेहत पर कोई हानिकारक प्रभाव नहीं होते। यहां तक कि उस क्षेत्र के गैस्ट्रोएंटरोलॉजी (पेट के डॉक्टर) के विशेषज्ञ भी अपने मरीज़ों को बरगारी परिवार द्वारा बनाया गया गुड़ खाने की सलाह देते हैं।

अनाज की फसलों का प्रोसेसिंग प्लांट

इसके अलावा भूपिंदर सिंह के पास उसी स्थान पर अनाज का प्रोसेसिंग प्लांट भी है जहां पर वे सेल्फ हेल्प ग्रुप द्वारा उगाए गए गेहूं, मक्की, जौं, ज्वार और सरसों की प्रोसेसिंग करते हैं। प्रोसेसिंग प्लांट के साथ साथ उन्होंने एक स्टोर भी खोला है जहां पर वे अपने प्रोसेसिंग किए उत्पादों को बेचते हैं।

ब्रांड नाम कैसे दिया गया:

अपने गुड़ की डॉक्टरों द्वारा सिफारिश किए जाने के बारे में जानकर वे बहुत प्रभावित हुए और उन्होंने अपने ब्रांड का नाम “बरगाड़ी गुड़” रखने का फैसला किया।

भूपिंदर का “बरगाड़ी गुड़” के नाम से फेसबुक पेज भी है जिसके माध्यम से वे अपने आदर्श ग्राहकों के साथ विचार विमर्श करते हैं उन्होंने फेसबुक पेज के माध्यम से गुड़ बनाने की पूरी प्रक्रिया पर भी चर्चा की है।

वे हमेशा अपने व्यवसाय में सकारात्मक बदलाव लाने के लिए एग्रीकल्चर यूनिवर्सिटी के फूड टैक्नोलोजी और फूड प्रोसेसिंग और इंजीनियरिंग विभागों के साथ लगातार संपर्क बनाए रखते हैं।

आज, जो कुछ भी भूपिंदर सिंह ने अपने जीवन में हासिल किया है उसका सारा श्रेय वे अपने पिता श्री सुखदेव सिंह बरगाड़ी को देते हैं। सफल व्यवसाय चलाने के अलावा, भूपिंदर सिंह बरगाड़ी एक अच्छे शिक्षक भी हैं और फरीदकोट जिले के कोठे कहर सिंह गांव के लोगों और बच्चों की मदद कर रहे हैं। उनके अच्छे कार्यो के बारे में कई लेख, स्थानीय समाचार पत्रों में प्रकाशित किए गए हैं। वह ना केवल किसानों की मदद करना चाहते हैं बल्कि अपने काम और ज्ञान से लोगों को प्रेरित करना चाहते हैं और उनकी सहायता भी करना चाहते हैं।

खैर, पिता-पुत्र की यह जोड़ी सफलतापूर्वक काम कर रही है और सिर्फ दोनों के बीच की समझ के कारण ही इस स्तर तक पहुंची है। भविष्य में भी भूपिंदर सिंह बरगाड़ी अपने इस अच्छे काम को जारी रखेंगे और यूवा पीढ़ी के किसानों को अपने ज्ञान से प्रेरित करेंगे।

संदेश


मैं चाहता हूं कि किसान खेती के साथ फूड प्रोसेसिंग व्यवसाय में भी शामिल हों। इस तरीके से वे अपने व्यवसाय में अच्छा लाभ कमा सकते हैं। आज, किसानों को आधुनिक कृषि पद्धतियों के साथ अपडेट रहने की जरूरत है तभी वे आगे बढ़ सकते हैं और अपने क्षेत्रों में अच्छा प्रदर्शन कर सकते हैं।

 

मंजुला संदेश पदवी

पूरी कहानी पढ़ें

इस महिला ने अकेले ही साबित किया कि जैविक खेती समाज और उसके परिवार के लिए कैसे लाभदायक है

मंजुला संदेश पदवी दिखने में एक साधारण किसान हैं लेकिन जैविक खेती से संबंधित ज्ञान और उनके जीवन का संघर्ष इससे कहीं अधिक है। महाराष्ट्र के जिला नंदूरबार के एक छोटे से गांव वागसेपा में रहते हुए उन्होंने ना सिर्फ जैविक तरीके से खेती की, बल्कि अपने परिवार की ज़रूरतों को भी पूरा किया और अपने फार्म की आय से अपने बेटी को भी शिक्षित किया।

मंजुला के पति ने उन्हें 10 साल पहले ही छोड़ दिया था, उस समय उनके पास दो विकल्प थे, पहला उस समय की परिस्थितियों को लेकर बुरा महसूस करना, सहानुभूति हासिल करना और किसी अन्य व्यक्ति की तलाश करना। और दूसरा विकल्प था स्वंय अपने पैरों पर खड़े होना और खुद का सहारा बनना। उन्होंने दूसरा विकल्प चुना और आज वे एक आत्मनिर्भर जैविक किसान हैं।

उनके जीवन में एक समय ऐसा भी आया जब उनकी सेहत इतनी खराब हो गई कि उनके लिए चलना फिरना मुश्किल हो गया था। उस समय, उनके दिल का इलाज चल रहा था जिसमें उनके दिल का वाल्व बदला गया था। लेकिन उन्होंने कभी उम्मीद नहीं खोयी। सर्जरी के बाद ठीक होने पर उन्होंने बचत समूह (saving group) से लोन लिया और अपने खेत में एक मोटर पंप लगाया। मिट्टी को अधिक उपजाऊ बनाने के लिए, उन्होंने रासायनिक खादों और कीटनाशकों के स्थान पर जैविक खादों को चुना।

विभिन्न सरकारी नीतियों से मिली राशि उनके लिए अच्छी रकम थी और उन्होंने इसे बैलों की एक जोड़ी खरीदकर बुद्धिमानी से खर्च किया और अब वे अपने खेत की जोताई के लिए बैलों का प्रयोग करती हैं। उन्होंने मक्की और ज्वार की फसल उगायी और इससे उन्हें अच्छी उपज भी मिली।

मंजुला कहती हैं – “आस-पास के खेतों की पैदावार मेरे खेत से कम है पिछले वर्ष हमने मक्की की फसल उगायी लेकिन हमारी उपज अन्य खेतों की उपज के मुकाबले बहुत अच्छी थी क्योंकि मैं जैविक खादों का प्रयोग करती हूं और अन्य किसान रासायनिक खादों का प्रयोग करते हैं। इस वर्ष भी मैं मक्की और ज्वार उगा रही हूं। ”

नंदूरबार जिले में स्थित सार्वजनिक सेवा प्रणाली ने मंजुला की उसके खेती उद्यम में काफी सहायता की उन्होंने अपने क्षेत्र में 15 बचत समूह बनाए हैं और इन समूहों के माध्यम से वे पैसे इकट्ठा करते हैं और जरूरत के मुताबिक किसानों को ऋण प्रदान करते हैं। वे विशेष रूप से गैर रासायनिक और जैविक खेती को प्रोत्साहित करते हैं। एक और ग्रुप है जिससे मंजुला लाभ ले रही हैं वह स्वदेशी बीज बैंक है। वे इस समूह के माध्यम से बीज लेती हैं और सब्जियों, फलों और अनाजों की विविध खेती करती हैं। मंजुला की बेटी मनिका को अपनी मां पर गर्व है और वह हमेशा उनकी सहायता करती है।

आज, महिलायें खेतीबाड़ी के क्षेत्र में बीजों की बिजाई से लेकर फसलों के रख-रखाव और भंडारण में महत्तवपूर्ण भूमिका निभाती है। लेकिन जब खेती मशीनीकृत हो जाती है तो महिलायें इस श्रेणी से बाहर हो जाती हैं। लेकिन मंजुला संदेश पदवी ने खुद को कभी विकलांग नहीं बनाया और अपनी कमज़ोरी को ही अपनी ताकत में बदल दिया। उन्होंने अकेले ही अपने फार्म की देखभाल की और अपनी बेटी और अपने घर की ज़रूरतों को पूरा किया। आज उनकी बेटी ने उच्च शिक्षा हासिल की है और आज वह इतना कमा रही है कि अच्छा जीवन व्यतीत कर सके। वर्तमान में उनकी बेटी मनिका जलगांव में नर्स के रूप में काम कर रही है।

मंजुला संदेश पदवी जैसी महिलायें ग्रामीण भारत के लिए एक पावरहाउस के रूप में काम करती हैं, इनके जैसी महिलायें अन्य महिलाओं को भी मजबूत बनाती है और अपने बेहतर भविष्य के लिए टिकाऊ खेती का चुनाव करती हैं। यदि हम चाहते हैं कि हमारे भविष्य की पीढ़ी स्वस्थ जीवन जिये और उन्हें किसी चीज़ की कमी ना हो। तो आज हमें और मंजुला संदेश पदवी जैसी महिलाओं की जरूरत है।

समय को सतत खेती की जरूरत है क्योंकि रसायन भूमि की उपजाऊ शक्ति को कम करते हैं और भूमिगत जीवन को प्रदूषित करते हैं। इसके अलावा रसायन खेती के खर्चे को भी बढ़ाते हैं जिससे कि किसानों पर कर्ज़ा बढ़ता है और किसान आत्महत्या करने के लिए विवश हो जाते हैं।

हमें मंजुला से सीखना चाहिए कि जैविक खेती अपनाकर पानी, मिट्टी और वातावरण को कैसे बचाया जा सकता है।