प्रियंका गुप्ता

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एक होनहार बेटी जो अपने पिता का सपना पूरा करने के लिए मेहनत कर रही है

आज-कल के ज़माने में जहाँ बच्चे माता-पिता को बोझ समझते हैं, वहां दूसरी तरफ प्रियंका गुप्ता अपने पिता के देखे हुए सपने को पूरा करने के लिए दिन-रात मेहनत कर रही है।

एम.बी.ए. फाइनांस की पढ़ाई पूरी कर चुकी प्रियंका का बचपन पंजाब के नंगल में बीता। प्रियंका के पिता बदरीदास बंसल बिजली विभाग, भाखड़ा डैम में नियुक्त थे जो कि नौकरी के साथ-साथ अपने खेती के शौंक को भी पूरा कर रहे थे। उनके पास घर के पीछे थोड़ी सी ज़मीन थी, जिस पर वह सब्जियों की खेती करते थे। 12 साल नंगल में रहने के बाद प्रियंका के पिता का तबादला पटियाला में हो गया और उनका पूरा परिवार पटियाला में आकर रहने लगा। यहाँ इनके पास बहुत ज़मीन खाली थी जिस पर वह खेती करने लग गए। इसके साथ ही उन्होंने अपना घर बनाने के लिए संगरूर में अपना प्लाट खरीद लिया।

बदरीदास जी बिजली विभाग में से चीफ इंजीनियर रिटायर हुए। इसके साथ ही उनके परिवार को पता लगा कि प्रियंका के माता जी (वीना बंसल) कैंसर की बीमारी से पीड़ित हैं और इस बीमारी से लड़ते-लड़ते वह दुनिया को अलविदा कह गए।

वीना बंसल जी के देहांत के बाद बदरीदास जी ने इस सदमे से उभरने के लिए अपना पूरा ध्यान खेती पर केंद्रित किया। उन्होंने संगरूर में जो ज़मीन घर बनाने के लिए खरीदी थी उसके आस-पास कोई घर नहीं और बाजार भी काफी दूर था तो उनके पिता ने उस जगह की सफाई करवाकर वहां पर सब्जियों की खेती करनी शुरू की। 10 साल तक उनके पिता जी ने सब्जियों की खेती में काफी तजुर्बा हासिल किया। रिश्तेदार भी उनसे ही सब्जियां लेकर जाते हैं। पर अब बदरीदास जी ने खेती को अपने व्यवसाय के तौरपर अपनाने के मन बना लिया।

पर बदरीदास जी की सेहत ज़्यादा ठीक नहीं रहती थी तो प्रियंका ने अपने पिता की मदद करने का मन बना लिया और इस तरह प्रियंका का खेती में रुझान और बढ़ गया।

वह पहले पंजाब एग्रो के साथ काम करते थे पर पिता की सेहत खराब होने के कारण उनका काम थोड़ा कम हो गया। इस बात का प्रियंका को दुख है क्योंकि पंजाब एग्रो के साथ मिलकर उनका काम बढ़िया चल रहा था और सामान भी बिक जाता था। इसके बाद संगरूर में 4-5 किसानों से मिलकर एक दुकान खोली पर कुछ कमियों के कारण उन्हें दुकान बंद करनी पड़ी।

अब उनका 4 एकड़ का फार्म संगरूर में है पर फार्म की ज़मीन ठेके पर ली होने के कारण वह अभी तक फार्म का रजिस्ट्रेशन नहीं करवा सके क्योंकि जिनकी ज़मीन है, वह इसके लिए तैयार नहीं है।

पहले-पहले उन्हें मार्केटिंग में समस्या आई पर उनकी पढ़ाई के कारण इसका समाधान भी हो गया। अब वह अपना ज़्यादा से ज़्यादा समय खेती को देने लगे। वह पूरी तरह जैविक खेती करते हैं।

ट्रेनिंग:

प्रियंका ने पंजाब एग्रीकल्चर यूनिवर्सिटी लुधियाना से बिस्कुट और स्कवैश बनाने की ट्रेनिंग के साथ-साथ मधुमक्खी पालन की ट्रेनिंग भी ली, जिससे उन्हें बहुत कुछ सीखने को मिला।

प्रियंका के पति कुलदीप गुप्ता जो एक आर्किटेक्ट हैं, के बहुत से दोस्त और पहचान वाले प्रियंका द्वारा तैयार किये उत्पाद ही खरीदते हैं।

“लोगों का सोचना है कि आर्गेनिक उत्पाद की कीमत ज़्यादा होती है पर कीमत का कोई ज़्यादा फर्क नहीं पड़ता। कीटनाशकों से तैयार किये गए उत्पाद खाकर सेहत खराब करने से अच्छा है कि आर्गेनिक उत्पादों का प्रयोग किया जाये, क्योंकि सेहत से बढ़कर कुछ नहीं”- प्रियंका गुप्ता
प्रियंका द्वारा तैयार किये कुछ उत्पाद:
  • बिस्कुट (बिना अमोनिया)
  • अचार
  • वड़ियाँ
  • काले छोले
  • साबुत मसर
  • हल्दी
  • अलसी के बीज
  • सोंफ
  • कलोंजी
  • सरसों
  • लहसुन
  • प्याज़
  • आलू
  • मूंगी
  • ज्वार
  • बाजरा
  • तिल
  • मक्की देसी
  • सभी सब्जियां
पेड़
  • ब्रह्मी
  • स्टीविया
  • हरड़
  • आम
  • मोरिंगा
  • अमरुद
  • करैनबेरी
  • पुदीना
  • तुलसी
  • नींबू
  • खस
  • शहतूत
  • आंवला
  • अशोका

यह सब उत्पाद बनाने के अलावा प्रियंका मधुमक्खी पालन और पोल्ट्री का काम भी करते हैं, जिसमें उनके पति भी उनका साथ देते हैं।

“हम मोनो क्रॉपिंग नहीं करते, अकेले धान और गेहूं की बिजाई नहीं करते, हम अलग-अलग फसलों जैसे ज्वार, बाजरा, मक्की इत्यादि की बिजाई भी करते हैं।” – प्रियंका गुप्ता
उपलब्धियां:
  • प्रियंका 2 बार वोमेन ऑफ़ इंडिया ऑर्गेनिक फेस्टिवल में हिस्सा ले चुकी है।
  • छोटे बच्चों को बिस्कुट बनाने की ट्रेनिंग दी।
  • जालंधर रेडियो स्टेशन AIR में भी हिस्सा ले चुके हैं।
भविष्य की योजना:

भविष्य में यदि कोई उनसे सामान लेकर बेचना चाहता है तो वह सामान ले सकते हैं ताकि प्रियंका अपना पूरा ध्यान क्वालिटी बढ़ाने में केंद्रित कर सकें और अपने पिता का सपना पूरा कर सकें।

किसानों को संदेश
“मेहनत तो हर काम में करनी पड़ती है। मेहनत के बाद तैयार खड़ी हुई फसल को देखकर और ग्राहकों द्वारा तारीफ सुनकर जो संतुष्टि मिलती है , उसकी शब्दों में व्याख्या नहीं की जा सकती।”

गुरराज सिंह विर्क

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एक किसान, जिसने अपने मुश्किल समय में अपने कौशल को अपनी ताकत बनाया और भविष्यवादी कृषक के रूप में उभरकर आए

यह देखा गया है की भारत में आम तौर पर ज्यादातर किसान अपनी घरेलू आर्थिक एवं और मुश्किलों का सामना सबर और मेहनत से करने की बजाए, हार मान लेते हैं। यहां तक कि कुछ किसान आत्महत्या का रास्ता भी अपनाते हैं। पर आज हम एक ऐसे किसान कि बात करने जा रहे हैं, जिसने न केवल अपनी घरेलू एवं आर्थिक मुश्किलों का सामना किया बल्कि अपनी मेहनत से बागबानी कि खेती में सफलता प्राप्त करके उच्च स्तरीय इनाम भी हांसिल किये और उस किसान का नाम है- गुरराज सिंह विर्क, जो पिछले 30 सालों से किन्नू कि खेती कर रहे हैं।

गुरराज सिंह का जन्म 1 अक्टूबर 1954 को एक आम परिवार में हुआ और वे मोहल्ला सुरगापुरी , कोटकपूरा, जिला फरीदकोट के निवासी हैं। उन्होंने खुद बाहरवीं तक ही पढ़ाई की है, पर उन्होंने अपनी हिम्मत व् आत्मविश्वास से न केवल बागबानी के क्षेत्र में सफल मुकाम हांसिल किया बल्कि अपने काम को आसान एवं प्रभावशाली बनाने के लिए देसी तरीके से कई मशीनों की खोज भी की।पर उनको यह मुकाम हांसिल करने के लिए बहुत संघर्ष करना पड़ा।

जीवन का प्राथमिक संघर्ष
शुरुआत में वे कपास की खेती करते थे पर 1990 में बीमारियों का हमला होने की वजह से उनको यह खेती बंद करनी पड़ी क्योंकि बैंको और बिचौलियों का कर्जा बढ़ता जा रहा था उन कुछ समय बाद गन्ने की खेती शुरू की लेकिन फरीदकोट में गन्ना मिल बंद हो जाने की वजह से उन्हें इससे भी ख़ास मुनाफा नहीं हुआ। इसके बाद उन्होंने धान की खेती करने का फैसला किया, पर इसमें भी ज्यादा मुनाफा नहीं था क्योंकि जमीन में पानी का स्तर समान्य नहीं था।

जीवन का अहम मोड़
आखिर उन्होंने 1983 में बागबानी विभाग फरीदकोट और पंजाब एग्रीकल्चर यूनिवर्सिटी के सहयोग से प्रशिक्षण हांसिल करके किन्नू का बाग़ लगाया। बाग़ लगाए को अभी 2 साल भी नहीं हुए थे कि उनके पिता जी सरदार सरवन सिंह का देहांत हो गया, जिससे पुरे परिवार को बहुत गहरा धक्का लगा। हालाँकि इसमें बहुत समय लगा पर वे सबर एवं मेहनत और विश्वास के साथ जिंदगी को सही रहते पर ले आये। अभी परिवार पिछले दुखों को भुला भी नहीं पाया था कि1999 में उनकी माता जी सरदारनी मोहिंदर कौर का भी देहांत हो गया और परिवार फिर से शोक में चला गया। पर इतना सब कुछ होने के बाद भी उन्होंने हौंसला नहीं हारा और अपने काम को जारी रखा।

मेहनत का फल
कहा जाता है कि सब्र का फल मीठा होता है इसी तरह किन्नू के पौधों ने भी फल देना शुरू किया और अच्छे दिन वापिस आने लगे। इस मुनाफे से हुए पैसों को व्यर्थ न करते हुए उन्होंने बड़ी सूझ-बूझ से बाग़ का क्षेत्र आगे बढ़ाया और एक ट्यूबवेल लगवाया। अब पानी सिंचाई योग्य होने कि वजह से धान से भी मुनाफा शुरू हो गया। उन्होंने २०५ एकड़ में अंगूर का बाग़ भी लगाया जो एक लाख प्रति एकड़ के हिसाब दे आमदन देता था।

पर सफलता का रास्ता इतना भी आसान नहीं होता बाग़ लगाने के 15 साल बाद दीमक के गंभीर हमले कि वजह से बाग़ उखाड़ना पड़ा, फिर भी उन्होंने हार नहीं मानी और किन्नू के साथ साथ धान कि खेती को आगे बढ़ाया।

स. विर्क मौजूदा समय कि आधुनिक तकनीकों के साथ अपडेट रहते हैं और जरूरत पड़ने पर उन्हें अपने खेतो में लागू भी करते हैं।आज उनके पास 41 एकड़ जमीन हैं जिसमे से 21 एकड़ पर किन्नू का बाग़ है 20 एकड़ पर वे गेहूं, धान की खेती कर रहे हैं। उनके बाग़ में किन्नू के पौधों के अलावा कहीं कहीं पर नींबू, ग्रेप फ्रूट, मौसमी, माल्टा रेड, माल्टा जाफ़ा, नागपुरी संगतरा, नारंगी, आलू-बुखारा, अनार, अंगूर, अमरुद, आंवला, जामुन, फालसा, चीकू आदि के भी हैं। वे पानी कि बचत के लिए बाग़ में तुपका सिंचाई और गर्मियों में मिट्टी कि नमी बनाये रखने के लिए मल्चिंग तकनीक का भी इस्तेमाल करते हैं। वे कुदरती स्त्रोतों के रख-रखाव में भी निपुण हैं। ज्यादातर किन्नू के नए पौधों वाली मिट्टी के उपजाऊपन को ठीक रखने के लिए वे हमेशा हरी खाद के पक्ष में रहते हैं। वे पारम्परिक ढंग के साथ साथ अधिक घनत्व वाले तरीके से भी खेती करते हैं।

खोजें एवं रचनाएँ
अपने काम को और आसान बनाने के लिए उन्होंने बहुत सारी खोजें भी की। उन्होंने कई तरह की मशीनें बनाई, जो ज्यादा उच्च स्तरीय यां महंगी नहीं हैं बल्कि साधारण एवं देसी तरीके से तैयार की गयी हैं। ये मशीनें पैसा और समय दोनों की बचत करती हैं। उन्होंने एक देसी स्प्रे पंप और पेड़ों की कटाई- छंटाई वाला यंत्र भी तैयार किया। इसके आलावा उन्होंने एक किन्नू की सफाई और ग्रेडिंग वाली मशीन भी बनाई, जो एक घंटे में २ टन तक किन्नू साफ़ करती है। २ टन फल साफ़ करने और छांटने में १२५ रूपये तक का खर्चा आता है जबकि हाथों से यही काम करने में १००० रूपये तक खर्चा आता है। मशीन से छंटे हुए फलों का मार्किट में अच्छा भाव मिलता है।

ऊपर लिखी हुई खोजों के आलावा गुरराज सिंह विर्क ने साहित्य कला में भी अपना योगदान दिया, उन्होंने किन्नू की खेती पर 7 मशहूर लेख एवं एक किताब भी लिखी।

उपलब्धियां
स. गुरराज सिंह विर्क को उनकी मेहनत एवं सफलता के लिए बहुत सारे समारोह में सम्मानित किया गया। उनमे से कुछ उपलब्धियां नीचे लिखी गयी हैं:

उनके किन्नुओं को राज्य और जिला स्तर पर बहुत सरे इनाम मिले हैं।उनको 2010-2011 और 2011-12 साल में सर्वोत्तम किन्नू लगाने वाले किसान के तौर पर राष्ट्रीय बागबानी बोर्ड की तरफ से सम्मानित किया गया।

मार्च 2012 में मासिक खेतीबाड़ी मैगज़ीन ” एडवाइजर” की तरफ से लगाए गए मेले में भी सम्मानित किया गया।

गुरराज सिंह विर्क जी ने कई उच्च स्तरीय समितियों जैसे की पी. ए. यू. की “फल और सब्जियां उगाऊ सलाहकार समिति” और मालवा फल और सब्जियां उगाऊ समिति” में भीअपनी ख़ास जगह बनाई है।

बहुत सारे विभागों की तरफ से किसानो को विर्क के खेतो में सफल ढंग से खेती करने की जानकारी देने के लिए ले जाया जाता है।

गुरराज सिंह विर्क ने जिले में लगभग १५० एकड़ पर किन्नू की खेती कर्म में किसानो की मदद की है।

वे किन्नू उत्पादन में सफल होने और अपनी सभी उपलब्धियों के लिए के. वी. के. फरीदकोट और राज्य बागबानी विभाग से मिले प्रशिक्षण के लिए आभार व्यक्त करते हैं।

पारिवारिक जीवन
स. विर्क ने बहुत सारी मुश्किलों और कम पढ़ाई होने के बावजूद भी बड़े स्तर पर उपलब्धियां हासिल की और आज यही सब उनके बच्चे भी करके दिखा रहे हैं। उनकी पत्नी जगमीत कौर एक घरेलू औरत हैं। उनके 5 बच्चों में से एक बेटा कनाडा में इंजिनियर, एक बेटा अमरीका में डॉक्टर, एक बेटी कनाडा और दूसरी बेटी पंजाब में डॉक्टर है और उनकी एक बेटी कनेडा में नर्स है। उनके सभी बच्चे अपने परिवारों के साथ ख़ुशी से जीवन व्यतीत कर रहे हैं और गुरराज सिंह विर्क उनसे मिलने के लिए कनेडा और अमरीका जाते रहते हैं।

किसानों के लिए सन्देश
“किसानो को छोटे-मोटे नुकसान और खेती में आने वाली मुश्किलों के कारन अपना आत्म विश्वास टूटने नहीं देना चाहिए और हार नहीं माननी चाहिए। किसानो को पारम्परिक खेती से अलग भी सोचना चाहिए। खेतीबाड़ी में आज भी बहुत सारे ऐसे क्षेत्र हैं जिनमे कम निवेश से भी बहुत मुनाफा कमाया जा सकता है। बागबानी भी एक ऐसा क्षेत्र है जिसमे किसान आसानी से लाखों का मुनाफा कमा सकते हैं, पर शुरुआती समय में बहुत सब्र रखने की जरूरत होती है। मै खुद भी बागबानी के क्षेत्र में मेहनत करके आज अच्छी आमदन ले रहा हूँ और भविष्य में यही चाहता हूँ कि किसान पारम्परिक खेती के साथ-साथ बागबानी को भी अपनाएं और आगे लेकर आएं। 

सतवीर सिंह

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एक सफल एग्रीप्रेन्योर की कहानी जो समाज में अन्य किसानों के लिए प्रेरणास्त्रोत बनें – सतवीर फार्म सधाना

यह कहा जाता है कि महान चीज़ें कभी भी आराम वाले क्षेत्र से नहीं आती और यदि एक व्यक्ति वास्तव में कुछ ऐसा करना चाहता है, जो उसने पहले कभी नहीं किया तो उसे अपना आराम क्षेत्र छोड़ना होगा। ऐसे एक व्यक्ति सतवीर सिंह हैं, जिन्होंने अपने आसान जीवनशैली को छोड़ दिया और वापिस पंजाब, भारत आकर अपने लक्ष्य का पीछा किया।

आज श्री सतवीर सिंह एक सफल एग्रीप्रेन्योर हैं और गेहूं और धान की तुलना में दो गुणा अधिक लाभ कमा रहे हैं। उन्होंने सधाना में सतवीर फार्म के नाम से अपना फार्म भी स्थापित किया है। वे मुख्य रूप से स्वंय की 7 एकड़ भूमि में सब्जियों की खेती करते हैं और उन्होंने अपनी 2 एकड़ ज़मीन किराये पर दी है।

सतवीर सिंह ने जीवन के इस स्तर पर पहुंचने के लिए जिस रास्ते को चुना वह आसान नहीं था। उन्हें कई उतार चढ़ाव का सामना किया, लेकिन फिर भी लगातार प्रयासों और संघर्षों के बाद उन्होंने अपनी रूचि को आगे बढ़ाया और इसमें सफलता हासिल की। यह सब शुरू हुआ जब उन्होंने अपनी स्कूल की पढ़ाई खत्म की और चार साल बाद वे नौकरी के लिए दुबई चले गए। लेकिन कुछ समय बाद वे भारत लौट आए और उन्होंने खेती शुरू करने का फैसला किया और वापिस दुबई जाने का विचार छोड़ दिया। शुरूआत में उन्होंने गेहूं और धान की खेती शुरू की, लेकिन अपने दोस्तों के साथ एक सब्जी के फार्म का दौरा करने के बाद वे बहुत प्रभावित हुए और सब्जी की खेती की तरफ आकर्षित हो गये।

करीब 7 साल पहले (2010 में) उन्होने सब्जी की खेती शुरू की और शुरूआत में कई समस्याओं का सामना किया। फूलगोभी पहली सब्जी थी जिसे उन्होंने अपने 1.5 एकड़ खेत में उगाया और एक गंभीर नुकसान का सामना किया। लेकिन फिर भी उन्होंने कभी हार नहीं मानी और सब्जी की खेती करते रहें। धीरे धीरे उन्होने अपने सब्जी क्षेत्र का विस्तार 7 एकड़ तक कर दिया और कद्दू, लौकी, बैंगन, प्याज और विभिन्न किस्मों की मिर्चें और करेले को उगाया और साथ ही उन्होंने नए पौधे तैयार करने शुरू किए और उन्हें बाज़ार में बेचना शुरू किया। धीरे धीरे उनके काम को गति मिलती रही और उन्होंने इससे अच्छा लाभ कमाया।

फूलगोभी के गंभीर नुकसान का सामना करने के बाद, भविष्य में ऐसी स्थितियों से बचने के लिए सतवीर सिंह ने सब्जी की खेती बहुत ही बुद्धिमानी और योजना बनाकर की। पहले वे ग्राहक और मंडी की मांग को समझते हैं और उसके अनुसार वे सब्जी की खेती करते हैं। वे एक एकड़ में सब्जी की एक किस्म को उगाते हैं फिर मंडीकरण की समस्याओं का समाधान करते हैं। उन्होंने पी ए यू के समारोह में भी हिस्सा लिया जहां उनहें विभिन्नि खेतों को देखने का मौका मिला और नेट हाउस फार्मिंग के ढंग को सीखा और वर्तमान में वे अपनी सब्जियों को संरक्षित वातावरण देने के लिए इस ढंग का प्रयोग करते हैं। उन्होंने थोड़े समय पहले टुटुमा चप्पन कद्दू की खेती की और दिसंबर में सही समय पर बाज़ार में उपलब्ध करवाया था। इससे पहले इसी सब्जी का स्टॉक गुजरात से बाज़ार में पहुंचा था। इस तरह उन्होंने अपने सब्जी उत्पाद को बाज़ार में अच्छी कीमत पर बेच दिया। इसके इलावा, वे हर बार अपने उत्पाद को बेचने के लिए मंडी में स्वंय जाते हैं और किसी पर भी निर्भर नहीं होते।

सर्दियों में वे पूरे 7 एकड़ भूमि में सब्जियों की खेती करते हैं और गर्मियों में इसे कम करके 3.5 एकड़ में खेती करते हैं और बाकी की भूमि धान और गेहूं की खेती के लिए प्रयोग करते हैं। पूरे गांव में सिर्फ उनका ही खेत सब्जियों की खेती से ढका होता है और बाकी का क्षेत्र धान और गेहूं से ढका होता है। अपनी कुशल कृषि तकनीकों और मंडीकरण नीतियों के लिए, उन्हें पंजाब एग्रीकल्चर यूनिवर्सिटी से चार पुरस्कार प्राप्त हुए हैं। उनकी अनेक उपलब्धियों में से एक उपलब्धि यह है कि उन्होंने कद्दू की एक नई किस्म को विकसित किया है और उसका नाम अपने बेटे के नाम पर कबीर पंपकीन रखा है।

वर्तमान में वे अपने परिवार (माता, पिता, पत्नी, दो बेटों और बड़े भाई और उनकी पत्नी सिंगापुर में बस गए हैं) के साथ सधाना गांव में रह रहे हैं जो कि पंजाब के बठिंडा जिले में स्थित है। उनके पिता उनकी मुख्य प्रेरणा थे जिन्होंने खेती की शुरूआत की, लेकिन अब उनके पिता खेत में ज्यादा काम नहीं करते। वे सिर्फ घर पर रहते हैं और बच्चों के साथ समय बिताते हैं। आज उनके सफलतापूर्वक खेती अनुभव के पीछे उनके परिवार का समर्थन है और वे पूरा श्रेय अपने परिवार को देते हैं।

सतवीर सिंह अपने खेत का प्रबंधन केवल एक स्थायी कर्मचारी की मदद से करते हैं और कभी कभी महिला श्रमिकों को सब्जियां चुनने के लिए नियुक्त कर लेते हैं। सब्जियों की कीमत के आधार पर वे एक एकड़ ज़मीन से एक मौसम में 1-2 लाख कमाते हैं।

भविष्य कि योजना
भविष्य में वे जैविक खेती करने की योजना बना रहे हैं और वर्मी कंपोस्ट बनाने के लिए उन्होंने 3 दिन की ट्रेनिंग भी ली है। वे लोगों को जैविक और गैर कार्बनिक सब्जियों और खाद्य उत्पादों के बीच के अंतर से अवगत करवाना चाहते हैं। वे ये भी चाहते हैं कि सब्जियों को अन्य किराने के सामान जैसे पैकेट में भी आना चाहिए ताकि लोग समझ सकें कि वे कौन से खेत और कौन से ब्रांड की सब्जी खरीद रहे हैं।

किसानों को संदेश
“मैंने अपने ज्ञान में कमी होने के कारण शुरू में बहुत कठिनाइयों का सामना किया। लेकिन अन्य किसान जो कि सब्जियों की खेती करने में दिलचस्पी रखते हैं उन्होंने मेरी तरह गल्ती नहीं करनी चाहिए और सब्जियों की खेती शुरू करने से पहले किसी माहिर से सलाह लेनी चाहिए और सब्जियों की मंडी का विश्लेषण करना चाहिए। इसके इलावा, जिन किसानों के पास पर्याप्त संसाधन है उन्हें अपनी प्राथमिक जरूरतों को बाज़ार से खरीदने की बजाय स्वंय पूरा करना चाहिए।”