जगमोहन सिंह नागी

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पंजाब का मक्की की फसल का राजा

जगमोहन सिंह नागी, जो पंजाब के बटाला से हैं, उनकी हमेशा से ही कृषि और खाद्य उद्योग में बहुत रुचि रही है। उनके पिता आटा चक्कियों की मुरम्मत करते थे और चाहते थे कि उनका बेटा खाद्य उद्योग में काम करे।

जगमोहन (63), जो 300 एकड़ ज़मीन पर एक कॉन्ट्रैक्ट फार्मर के रूप में काम करते हैं, जिसमें मक्की, सरसों, गेहूं जैसी फसलें और गाजर, फूलगोभी, टमाटर और चुकंदर जैसी सब्जियां उगाते हैं।

वह पंजाब और हिमाचल प्रदेश में 300 किसानों के साथ मिलकर काम करते हैं और पेप्सिको, केलॉग्स (Kellogg’s) और डोमिनोज़ पिज़्ज़ा को उत्पाद की आपूर्ति करते हैं। वह उपज को इंग्लैंड, न्यूजीलैंड, दुबई और हांगकांग को भी भेजते हैं।

बँटवारा से पहले उनका परिवार कराची में रहता था। जगमोहन जी के पिता नागी, पंजाब में रहने से पहले मुंबई आ गए। अधिक मांग के बावजूद, उस समय आटा चक्की की मुरम्मत का काम करने वाले बहुत कम लोग थे। इसलिए, उनके पिता ने इस मौके का लाभ उठाया।

जगमोहन जी के पिता की इच्छा थी कि वह फूड इंडस्ट्री में काम करें। हालाँकि, उस समय पंजाब में कोई कोर्स उपलब्ध न होने के कारण, उन्होंने यूनाइटेड किंगडम, बर्मिंघम विश्वविद्यालय में फ़ूड और अनाज मिलिंग और इंजीनियरिंग की पढ़ाई की।

भारत लौटने के बाद, उन्होंने एक कृषि व्यवसाय, कुलवंत न्यूट्रीशन की स्थापना की। उनकी शुरुआत खराब रही क्योंकि उन्हें मक्के की अच्छी फसल लेने के लिए मदद की ज़रूरत थी। कुलवंत न्यूट्रीशन, जिसकी शुरुआत 1989 में एक पौधे और मक्के की फसल से हुई थी, अब यह कंपनी साल का 7 करोड़ रुपये से अधिक कमाने वाली कंपनी बन गई है।

जगमोहन ने एक प्लांट शुरू किया, लेकिन पंजाब में तब मक्का की फसल अच्छी नहीं थी। इसलिए, उन्होंने हिमाचल प्रदेश से मक्का मंगवाना शुरू किया, लेकिन लाने के लिए आवाजाई लागत बहुत अधिक थी। बाद में, उन्होंने अच्छी फसल सुनिश्चित करने के लिए विश्वविद्यालय-उद्योग लिंक के माध्यम से पंजाब कृषि विश्वविद्यालय, लुधियाना के साथ सहयोग किया। श्री नागी ने कहा “विश्वविद्यालय किसानों को उच्च गुणवत्ता वाले बीज देगा, और मैं उनके उत्पाद खरीदूंगा”।

जैसा कि वे कहते हैं, मेहनत कभी बेकार नहीं जाती। उनका पहला क्लाइंट केलॉग्स था।

जगमोहन ने 1991 में ठेके पर खेती करनी शुरू की, वह खुद फसल उगाना चाहते थे, और धीरे-धीरे खुद से ही उत्पादन करना शुरू कर दिया।

1992 में, उन्होंने पेप्सिको के लिए काम करना शुरू किया, उनके स्नैक, कुरकुरे के लिए मक्की की सप्प्लाई की। उनका दावा है कि हर महीने करीब 1000 मीट्रिक टन मक्की की मांग होती है। 1994 में, उन्होंने डोमिनोज पिज़्ज़ा की भी आपूर्ति शुरू की। 2013 में, उन्होंने डिब्बाबंद खाद्य व्यवसाय में प्रवेश किया और अन्य सब्जियां भी उगाना शुरू किया।

जब उनका व्यवसाय बहुत फलता-फूलता नज़र आ रहा था, तब महामारी इस कृषि उद्यमी के लिए कई चुनौतियां लेकर आई।

दुनिया भर में महामारी की चपेट में आने के बाद, COVID का इस पर महत्वपूर्ण प्रभाव पड़ा। जबकि कई कारखाने और व्यवसाय बंद हो गए, किराना स्टोर खुले रहे क्योंकि उन चीजों की सभी को ज़रुरत होती है। परिणामस्वरूप, जगमोहन सिंह ने जैविक गेहूं और मक्की के आटे जैसी किराना वस्तुओं पर ध्यान केंद्रित करना शुरू कर दिया। जगमोहन कहते हैं, ”मेरी योजना सरसों के तेल की प्रोसेसिंग शुरू करने और इसे बढ़ाने के लिए चावल और चिया के बीज उगाने की है।

अपनी कंपनी के माध्यम से, वह 70 लोगों को रोजगार देते हैं और कृषि छात्रों और किसानों को मुफ्त में ट्रेनिंग प्रदान करते हैं। वह किसानों को उन्नत कृषि तकनीक सिखाते हैं और उन्हें अपनी उपज को लाभकारी तरीके से बेचने के तरीके भी बताते हैं। फलस्वरूप दूध को घी या दही में परिवर्तित करना अधिक लाभदायक होगा।

जगनमोहन कहते हैं, ”युवाओं को खेती के लिए प्रेरित करने के लिए सरकार को स्थानीय स्तर पर प्रोत्साहन देना चाहिए और कृषि आधारित व्यवसायों को बढ़ावा देना चाहिए। “उन्हें खाद्य सुरक्षा और कृषि तकनीक को भी बढ़ावा देना चाहिए।”

वह किसानों को अच्छे परिणाम प्राप्त करने और नुकसान से बचने के लिए दिशा-निर्देश का सख्ती से पालन करने के लिए भी प्रोत्साहित करते हैं।

वे कहते हैं “किसानों को उन फसलों का चयन करना चाहिए जो उनके क्षेत्र में अच्छी तरह से विकसित होती हैं”, “इससे उन्हें पैसा बनाने में मदद मिलेगी”।

संदेश

श्री नेगी किसानों को खेती के अलग-अलग पहलुओं के बारे में प्रयोग करने और खुद को शिक्षित करने के लिए प्रोत्साहित करते हैं। किसानों को नकदी फसलों पर ध्यान देना चाहिए। उदाहरण के लिए बाजरा, सब्जियां और फलदार पौधों को अपने खेतों के चारों ओर रखना चाहिए। वह किसानों को कच्चा दूध बेचने के बजाए दूध वाले उत्पाद बनाने की सलाह देते हैं; बल्कि उन्हें दूध से बनी बर्फी और अन्य भारतीय मिठाइयों को बेचना चाहिए।

इंदर सिंह

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जानिये कैसे आलू और पुदीने की खेती से इस किसान को कृषि के क्षेत्र में सफलता के साथ आगे बढ़ने में मदद मिल रही है

पंजाब के जालंधर शहर के 67 वर्षीय इंदर सिंह एक ऐसे किसान है जिन्होंने आलू और पुदीने की खेती को अपनाकर अपना कृषि व्यवसाय शुरू किया।

19 वर्ष की कम उम्र में, इंदर सिंह ने खेती में अपना कदम रखा और तब से वे खेती कर रहे हैं। 8वीं के बाद अपनी पढ़ाई छोड़ने के बाद, उन्होंने आलू, गेहूं और धान उगाने का फैसला किया। लेकिन गेहूं और धान की खेती वर्षों से करने के बाद भी लाभ ज्यादा नहीं मिला।

इसलिए समय के साथ लाभ में वृद्धि के लिए वे रवायती फसलों से जुड़े रहने की बजाय लाभपूर्ण फसलों की खेती करने लगे। एक अमेरिकी कंपनी—इंडोमिट की सिफारिश पर, उन्होंने आलू की खेती करने के साथ तेल निष्कर्षण के लिए पुदीना उगाना शुरू कर दिया।

“1980 में, इंडोमिट कंपनी (अमेरिकी) के कुछ श्रमिकों ने हमारे गांव का दौरा किया और मुझे तेल निकालने के लिए पुदीना उगाने की सलाह दी।”

1986 में, जब इंडोमिट कंपनी के प्रमुख ने भारत का दौरा किया, वे इंदर सिंह द्वारा पुदीने का उत्पादन देखकर बहुत खुश हुए। इंदर सिंह ने एक एकड़ की फसल से लगभग 71 लाख टन पुदीने का तेल निकालने में दूसरा स्थान हासिल किया और वे प्रमाणपत्र और नकद पुरस्कार से सम्मानित हुए। इससे श्री इंदर सिंह के प्रयासों को बढ़ावा मिला और उन्होंने 13 एकड़ में पुदीने की खेती का विस्तार किया।

पुदीने के साथ, वे अभी भी आलू की खेती करते हैं। दो बुद्धिमान व्यक्तियों डॉ. परमजीत सिंह और डॉ. मिन्हस की सिफारिश पर उन्होंने विभिन्न तरीकों से आलू के बीज तैयार करना शुरू कर दिया है। उनके द्वारा तैयार किए गए बीज, गुणवत्ता में इतने अच्छे थे कि ये गुजरात, बंगाल, इंदौर और भारत के कई अन्य शहरों में बेचे जाते हैं।

“डॉ. परमजीत ने मुझे आलू के बीज तैयार करने का सुझाव दिया जब वे पूरी तरह से पक जाये और इस तकनीक से मुझे बहुत मदद मिली।”

2016 में इंदर सिंह को आलू के बीज की तैयारी के लिए पंजाब सरकार से लाइसेंस प्राप्त हुआ।

वर्तमान में इंदर सिंह पुदीना (पिपरमिंट और कोसी किस्म), आलू (सरकारी किस्में: ज्योती, पुखराज, प्राइवेट किस्म:1533 ), मक्की, तरबूज और धान की खेती करते हैं। अपने लगातार वर्षों से कमाये पैसों को उन्होंने मशीनरी और सर्वोत्तम कृषि तकनीकों में निवेश किया। आज, इंदर सिंह के पास उनकी फार्म पर सभी आधुनिक कृषि उपकरण हैं और इसके लिए वे सारा श्रेय पुदीने और आलू की खेती को अपनाने को देते हैं।

इंदर सिंह को अपने सभी उत्पादों के लिए अच्छी कीमत मिल रही है क्योंकि मंडीकरण में कोई समस्या नहीं है क्योंकि तरबूज फार्म पर बेचा जाता है और पुदीने को तेल निकालने के लिए प्रयोग किया जाता है जो उन्हें 500 प्रति लीटर औसतन रिटर्न देता है। उनके तैयार किए आलू के बीज भारत के विभिन्न शहरों में बेचे जाते हैं।

कृषि के क्षेत्र में उनके जबरदस्त प्रयासों के लिए, उन्हें 1 फरवरी 2018 को पंजाब कृषि विश्वद्यिालय द्वारा सम्मानित किया गया है।

भविष्य की योजना
भविष्य में इंदर सिंह आलू के चिप्स का अपना प्रोसेसिंग प्लांट खोलने की योजना बना रहे हैं।

संदेश
“खादों, कीटनाशकों और अन्य कृषि इनपुट के बढ़ते रेट की वजह से कृषि दिन प्रतिदिन महंगी हो रही है इसलिए किसान को सर्वोत्तम उपज लेने के लिए स्थायी कृषि तकनीकों और तरीकों पर ध्यान देना चाहिए।”

गुरप्रीत सिंह अटवाल

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जानिये कैसे ये किसान जैविक खेती को सरल तरीके से करके सफलता हासिल कर रहे हैं

35 वर्षीय गुरप्रीत सिंह अटवाल एक प्रगतिशील जैविक किसान है जो जिला जालंधर (पंजाब) के एक छोटे से नम्र और मेहनती परिवार से आये हैं। लेकिन सफलता के इस स्तर पर पहुंचने से पहले और अपने समाज के अन्य किसानों को प्रेरणा देने से पहले, श्री अटवाल भी अपने पिता और आसपास के अन्य किसानों की तरह रासायनिक खेती करते थे।

12वीं के बाद श्री गुरप्रीत सिंह अटवाल ने कॉलेज की पढ़ाई करने का फैसला किया, उन्होंने स्वंय जालंधर के खालसा कॉलेज में बी. ए. में दाखिला लिया। लेकिन जल्दी ही दिमाग में कुछ अन्य विचारों के कारण उन्होंने पहले वर्ष में ही कॉलेज छोड़ दिया और अपने चाचा और पिता के साथ खेतीबाड़ी करने लगे। खेती के साथ साथ वे 2006 में युवा अकाली दल के प्रधान के चुनाव में भी खड़े हुए और इसे जीत भी लिया। समय के साथ श्री अटवाल, 2015 में जिला स्तर पर उसी संगठन के प्रधान से वरिष्ठ प्रधान बन गए।

लेकिन शायद खेती में,किस्मत उनके साथ नहीं थी और उन्हें लगातार नुकसान और कठिनाइयों का सामना करना पड़ा। धान और ग्वार की खेती में उन्हें कोई फायदा नहीं हो रहा था इसलिए 2014 में उन्होंने हल्दी की खेती करने का फैसला किया लेकिन वह भी उनके लिए घाटे का सौदा साबित हुआ। क्योंकि वे बाज़ार में उचित तरीके से अपनी फसल को बेचने में सक्षम नहीं थे। अंत में, उन्होंने हल्दी से हल्दी पाउडर बनाया और गुरूद्वारों और मंदिरों में मुफ्त में बांट दिया। इस तरह की स्थिति का सामना करने के बाद, गुरप्रीत सिंह अटवाल ने फैसला किया कि वे खुद सभी उत्पादों का मंडीकरण करेंगे और बिचौलिये पर निर्भर नहीं रहेंगे।

उसी वर्ष, गुरप्रीत सिंह अटवाल को अपने पड़ोसी गांव के भंगु फार्म के बारे में पता चला। भंगु फार्म का दौरा श्री अटवाल के लिए इतना प्रेरणादायक था कि उन्होंने जैविक खेती करने का फैसला किया। हालांकि भंगु फार्म में गन्ने की खेती और प्रोसेसिंग होती थी लेकिन वहां से जैविक कृषि तकनीकों के बारे में पर्याप्त जानकारी प्राप्त हुई और उसी आधार पर, उन्होंने अपने परिवार के लिए 2.5 एकड़ भूमि पर सब्जियों की जैविक खेती शुरू की।

अब गुरप्रीत सिंह अटवाल ने अपने फार्म पर लगभग जैविक खेती शुरू कर दी है और उपज भी पहले से बेहतर है। वे मक्की, गेहूं, धान, गन्ना और मौसमी सब्जियां उगा रहे हैं और भविष्य में वे गेहूं का आटा और मक्की का आटा प्रोसेस करने की योजना बना रहे हैं। इसी बीच, श्री अटवाल ने भोगपुर शहर में 2 किलोमीटर के क्षेत्र में फार्म में उत्पादित ताजा सब्जियों की होम डिलीवरी शुरू की है।

जैविक खेती के अलावा, गुरप्रीत सिंह अटवाल डेयरी फार्मिंग में भी सक्रिय रूप से शामिल है। उन्होंने घरेलु उपयोग के लिए गायें और भैंसों की स्वदेशी नस्लें रखी हुई है और अधिक दूध गांव में बेच देते हैं।

भविष्य की योजना
गुरप्रीत सिंह अटवाल पंजाब स्तर पर और फिर भारत स्तर पर एक जैविक स्टोर खोलने की योजना बना रहे हैं।

संदेश
प्रत्येक किसान को जैविक खेती करनी चाहिए यदि बड़े स्तर तक संभव ना हो तो इसे कम से कम घर के उद्देश्य के लिए छोटे क्षेत्र में करने की कोशिश करनी चाहिए। इस तरह, वे अपनी ज़िंदगी में एक अंतर बना सकते हैं और इसे बेहतर बना सकते हैं।

गुरप्रीत सिंह अटवाल एक प्रगतिशील किसान है जो ना केवल अपने फार्म पर जैविक खेती कर रहे हैं बल्कि अपने गांव के अन्य किसानों को इसे अपनाने की प्रेरणा भी दे रहे हैं। वे डीकंपोज़र की सहायता से कुदरती कीटनाशक और खादें तैयार करते हैं और इसे किसानों में भी बांटते हैं अपने कार्यों से गुरप्रीत अटवाल ने यह साबित कर दिया है कि वे दूर की सोच रखते हैं और वर्तमान और कठिन समय का डट कर सामना करते हैं और सफलता हासिल करते हैं।

गुरमेल सिंह

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कैसे इस किसान ने कृषि को स्थायी कृषि प्रथाओं के साथ वास्तव में लाभदायक व्यवसाय में बदल दिया

खैर, खेती के बारे में हर कोई सोचता है कि यह एक कठिन पेशा है, जहां किसानों को तेज धूप और बारिश में घंटों तक काम करना पड़ता है लेकिन आपको यह जानकर हैरानी होगी कि गुरमेल सिंह को जैविक खेती में शांति और जीवन की संतुष्टि मिलती है।

68 वर्षीय, गुरमेल सिंह ने 2000 मे खेती शुरू की और तब से वे उसी काम को आगे बढ़ा रहे हैं । लेकिन जैविक खेती से पहले उन्होनें मोटर मकैनिक, इलेक्ट्रीशियन जैसे कई व्यवसायों पर हाथ आज़माया और फेब्रिकेशन और वेल्डिंग का काम भी सीखा, लेकिन कोई भी नौकरी उन्हें उपयुक्त नहीं लगी क्योंकि इन्हें करने से ना उन्हें संतुष्टि मिल रही थी और ना ही खुशी ।

2000, में जब उनकी पुश्तैनी ज़मीन उनके और उनके भाई में बंटी, उस समय उन्हें भी 6 एकड़ भूमि यानि संपत्ति का 1 तिहाई हिस्सा मिला। खेती करने के बारे में सोचते हुए उन्होंने दोबारा अपनी इलेक्ट्रीशियन की नौकरी छोड़ दी और गेहूं और धान की रवायिती खेती करनी शुरू की। गुरमेल सिंह ने अपने क्षेत्र में पूरी निष्ठा के साथ हर वो चीज़ की जिसे करने में वे सक्षम थे, लेकिन उपज कभी संतोषजनक नहीं थी। 2007 तक, रवायिती खेती को करने के लिए जो निवेश चाहिए था उसे पूरा करने के कारण वे इतना कर्जे में डूब गए थे कि इससे बाहर आना उनके लिए लगभग असंभव था। अंतत: वे खेती के व्यवसाय से भी निराश हुए।

लेकिन 2007 में अमुत छकने (अमृत संचार-एक सिख अनुष्ठान प्रक्रिया) के बाद उन्हें आध्यात्मिक ज्ञान प्राप्त हुआ जिसकी वजह से उनकी खेती की धारणा पूरी तरह बदल गई उन्होंने 1 एकड़ ज़मीन पर जैविक खेती शुरू करने का फैसला किया और धीरे धीरे पूरे क्षेत्र में इसे बढ़ाने का फैसला किया। गुरमेल सिहं के जैविक खेती के इरादे को जानने के बाद उनके परिवार ने उनका साथ छोड़ दिया और उन्होंने अकेले रहना शुरू कर दिया।

एक ऐसी भूमि पर जैविक खेती करना जहां पर पहले से रासायनिक खेती की जा रही हो, एक बहुत मुश्किल काम है। परिणामस्वरूप उपज कम हुई, लेकिन जैविक खेती के लिए गुरमेल सिंह के इरादे एक शक्तिशाली पहाड़ की तरह मजबूत थे। शुरूआत में सुभाष पालेकर की वीडियो से उन्हें बहुत मदद मिली और उसके बाद 2009 में उन्होंने खेती विरासत मिशन, नाभा फाउंडेशन और NITTTR, जैसे कई संगठनों में शामिल हुए, जिन्होंने उन्हें जैविक खेती के सर्वोत्तम उपयुक्त परिणाम और मंडीकरण के विषयों के बारे में शिक्षित किया। गुरमेल सिंह ने राष्ट्रीय स्तर पर कई समारोह और कार्यक्रमों में हिस्सा लिया जिन्होंने उन्हें वैश्विक स्तर पर जैविक खेती के ढंगों से अवगत करवाया। धीरे धीरे समय के साथ उपज भी बेहतर हो गई और उन्हें अपने उत्पादन को एक अच्छे स्तर पर बेचने का अवसर भी मिला। 2014 में NITTTR की मदद से, गुरमेल सिंह को चंडीगढ़ सब्जी मंडी में अपना खुद का स्टॉल मिला, जहां वे हर शनिवार को अपना उत्पादन बेच सकते थे। 2015 में, मार्कफेड के सहयोग से उन्हें अपने उत्पादन को बेचने का एक और अवसर मिला।

“समय के साथ मैनें अपने परिवार का विश्वास जीत लिया और वे मेरे खेती करने के तरीके से खुश थे। 2010 में, मेरा बेटा भी मेरे उद्यम में शामिल हो गया और उस दिन से वह मेरे खेती जीवन के हर कदम पर मेरे साथ है।”

वे अपने फार्म की 20 से अधिक स्वंय की उगायी हुई फसलों को बेचते हैं, जिसमें मटर, गन्ना, बाजरा, ज्वार, सरसों, आलू, हरी मूंगी, अरहर,मक्की, लहसुन, प्याज, धनिया और बहुत कुछ शामिल हैं। खेती के अलावा, गुरमेल सिंह ने पंजाब एग्रीकल्चर यूनिवर्सिटी से 1 महीने की बेकरी की ट्रेनिंग लेने के बाद खाद्य प्रसंस्करण की प्रोसेसिंग शुरू की।

गुरमेल सिंह ना केवल स्वंय की उपज की प्रोसेसिंग करते हैं बल्कि नाभा फाउंडेशन के अन्य समूह सदस्यों को उनकी उपज की प्रोसेसिंग करने में भी मदद करते हैं। आटा, मल्टीग्रेन आटा, पिन्नियां, सरसों का साग और मक्की की रोटी उनके कुछ संसाधित खाद्य पदार्थ हैं जो वे सब्जियों के साथ बेचते हैं।

जब बात मंडीकरण की आती है तो अधिकारियों और संगठन के सदस्यों में, दृढ़ संकल्प, कड़ी मेहनत और प्रसिद्ध व्यक्तित्व के कारण यह हमेशा गुरमेल सिंह के लिए एक आसान बात रही। वर्तमान में, वे अपने परिवार के साथ नाभा के गांव में रह रहे हैं, जहां 4—5 श्रमिकों की मदद से, वे फार्म में सभी श्रमिकों के कामों का प्रबंधन करते हैं, और प्रोसेसिंग के लिए उन्हें आवश्यकतानुसार 1—2 श्रमिकों को नियुक्त करते हैं।

भविष्य की योजनाए:
भविष्य में, गुरमेल सिंह एक नया समूह बनाने की योजना बना रहे हैं, जहां सभी सदस्य जैविक खेती, प्रोसेसिंग और मंडीकरण करेंगे।
संदेश
“किसानों को समझना होगा कि किसी चीज़ की गुणवत्ता उसकी मात्रा से ज्यादा मायने रखती है, और जिस दिन वे इस बात को समझ जायेंगे उस दिन उपज, मंडीकरण और अन्य मसले भी सुलझ जायेंगे। और आज किसान को बिना किसी उदृदेश्य के रवायिती फसलें उगाने की बजाय मांग और सप्लाई पर ध्यान देना चाहिए।”
 

शुरूआत में, गुरमेल सिंह ने कई समस्याओं का सामना किया इसके अलावा उनके परिवार ने भी उनका साथ छोड़ दिया, लोग उन्हें जैविक खेती अपनाने के लिए पागल कहते थे, लेकिन कुछ अलग करने की इच्छा ने उन्हें अपने जीवन में सफलता प्राप्त करवायी। वे उन शालीन लोगों में से एक हैं जिनके लिए पुरस्कार या प्रशंसा कभी मायने नहीं रखती, उनके लिए उनके काम का परिणाम ही पुरस्कार हैं।

गुरमेल सिंह खुश हैं कि वे अपने जीवन की भूमिका को काफी अच्छे से निभा रहे हैं और वे चाहते हैं कि दूसरे किसान भी ऐसा करें।

करमजीत सिंह भंगु

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मिलिए आधुनिक किसान से, जो समय की नज़ाकत को समझते हुए फसलें उगा रहा है

करमजीत सिंह के लिए किसान बनना एक धुंधला सपना था, पर हालात सब कुछ बदल देते हैं। पिछले सात वर्षों में, करमजीत सिंह की सोच खेती के प्रति पूरी तरह बदल गई है और अब वे जैविक खेती की तरफ पूरी तरह मुड़ गए हैं।

अन्य नौजवानों की तरह करमजीत सिंह भी आज़ाद पक्षी की तरह सारा दिन क्रिकेट खेलना पसंद करते थे, वे स्थानीय क्रिकेट टूर्नामेंट में भी हिस्सा लेते थे। उनका जीवन स्कूल और खेल के मैदान तक ही सीमित था। उन्होंने कभी सोचा भी नहीं था कि उनकी ज़िंदगी एक नया मोड़ लेगी। 2003 में जब वे स्कूल में ही थे उस दौरान उनके पिता जी का देहांत हो गया और कुछ समय बाद ही, 2005 में उनकी माता जी का भी देहांत हो गया। उसके बाद सिर्फ उनके दादा – दादी ही उनके परिवार में रह गए थे। उस समय हालात उनके नियंत्रण में नहीं थे, इसलिए उन्होंने 12वीं के बाद अपनी पढ़ाई छोड़ने का फैसला किया और अपने परिवार की मदद करने के बारे में सोचा।

उनका विवाह बहुत छोटी उम्र में हो गया और उनके पास विदेश जाने और अपने जीवन की एक नई शुरूआत करने का अवसर भी था पर उन्होंने अपने दादा – दादी के पास रहने का फैसला किया। वर्ष 2011 में उन्होंने खेती के क्षेत्र में कदम रखने का फैसला किया। उन्होंने छोटे रकबे में घरेलु प्रयोग के लिए अनाज, दालें, दाने और अन्य जैविक फसलों की काश्त करनी शुरू की। उन्होंने अपने क्षेत्र के दूसरे किसानों से प्रेरणा ली और धीरे धीरे खेती का विस्तार किया। समय और तज़ुर्बे से उनका विश्वास और दृढ़ हुआ और फिर करमजीत सिंह ने अपनी ज़मीन ठेके पर से वापिस ले ली।
उन्होंने टिंडे, गोभी, भिंडी, मटर, मिर्च, मक्की, लौकी और बैंगन आदि जैसी अन्य सब्जियों में वृद्धि की और उन्होंने मिर्च, टमाटर, शिमला मिर्च और अन्य सब्जियों की नर्सरी भी तैयार की।

खेतीबाड़ी में दिख रहे मुनाफे ने करमजीत सिंह की हिम्मत बढ़ाई और 2016 में उन्होंने 14 एकड़ ज़मीन ठेके पर लेने का फैसला किया और इस तरह उन्होंने अपने रोज़गार में ही खुशहाल ज़िंदगी हासिल कर ली।

आज भी करमजीत सिंह खेती के क्षेत्र में एक अनजान व्यक्ति की तरह और जानने और अन्य काम करने की दिलचस्पी रखने वाला जीवन जीना पसंद करते हैं। इस भावना से ही वे वर्ष 2017 में बागबानी की तरफ बढ़े और गेंदे के फूलों से ग्लैडियोलस के फूलों की अंतर-फसली शुरू की।

करमजीत सिंह जी को ज़िंदगी में अशोक कुमार जी जैसे इंसान भी मिले। अशोक कुमार जी ने उन्हें मित्र कीटों और दुश्मन कीटों के बारे में बताया और इस तरह करमजीत सिंह जी ने अपने खेतों में कीटनाशकों के प्रयोग पर प्रतिबंध लगाया।

करमजीत सिंह जी ने खेतीबाड़ी के बारे में कुछ नया सीखने के तौर पर हर अवसर का फायदा उठाया और इस तरह ही उन्होंने अपने सफलता की तरफ कदम बढ़ाए।

इस समय करमजीत सिंह जी के फार्म पर सब्जियों के लिए तुपका सिंचाई प्रणाली और पैक हाउस उपलब्ध है। वे हर संभव और कुदरती तरीकों से सब्जियों को प्रत्येक पौष्टिकता देते हैं। मार्किटिंग के लिए, वे खेत से घर वाले सिद्धांत पर ताजा-कीटनाशक-रहित-सब्जियां घर तक पहुंचाते हैं और वे ऑन फार्म मार्किट स्थापित करके भी अच्छी आय कमा रहे हैं।

ताजा कीटनाशक रहित सब्जियों के लिए उन्हें 1 फरवरी को पी ए यू किसान क्लब के द्वारा सम्मानित किया गया और उन्हें पटियाला बागबानी विभाग की तरफ से 2014 में बेहतरीन गुणवत्ता के मटर उत्पादन के लिए दूसरे दर्जे का सम्मान मिला।

करमजीत सिंह की पत्नी- प्रेमदीप कौर उनके सबसे बड़ी सहयोगी हैं, वे लेबर और कटाई के काम में उनकी मदद करती हैं और करमजीत सिंह खुद मार्किटिंग का काम संभालते हैं। शुरू में, मार्किटिंग में कुछ समस्याएं भी आई थी, पर धीरे धीरे उन्होने अपनी मेहनत और उत्साह से सभी रूकावटें पार कर ली। वे रसायनों और खादों के स्थान पर घर में ही जैविक खाद और स्प्रे तैयार करते हैं। हाल ही में करमजीत सिंह जी ने अपने फार्म पर किन्नू, अनार, अमरूद, सेब, लोकाठ, निंबू, जामुन, नाशपाति और आम के 200 पौधे लगाए हैं और भविष्य में वे अमरूद के बाग लगाना चाहते हैं।

संदेश

“आत्म हत्या करना कोई हल नहीं है। किसानों को खेतीबाड़ी के पारंपरिक चक्र में से बाहर आना पड़ेगा, केवल तभी वे लंबे समय तक सफलता प्राप्त कर सकते हैं। इसके अलावा किसानों को कुदरत के महत्तव को समझकर पानी और मिट्टी को बचाने के लिए काम करना चाहिए।”

 

इस समय 28 वर्ष की उम्र में, करमजीत सिंह ने जिला पटियाला की तहसील नाभा में अपने गांव कांसूहा कला में जैविक कारोबार की स्थापना की है और जिस भावना से वे जैविक खेती में सफलता प्राप्त कर रहे हैं, उससे पता लगता है कि भविष्य में उनके परिवार और आस पास का माहौल और भी बेहतर होगा। करमजीत सिंह एक प्रगतिशील किसान और उन नौजवानों के लिए एक मिसाल हैं, जो अपने रोज़गार के विकल्पों की उलझन में फंसे हुए हैं हमें करमजीत सिंह जैसे और किसानों की जरूरत है।

लवप्रीत सिंह

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कैसे इस B.Tech ग्रेजुएट युवा की बढ़ती हुई दिलचस्पी ने उसे कृषि को अपना फुल टाइम रोज़गार चुनने के लिए प्रेरित किया

मिलिए लवप्रीत सिंह से, एक युवा जिसके हाथ में B.Tech. की डिग्री के बावजूद उसने डेस्क जॉब और आरामदायक शहरी जीवन जीने की बजाय गांव में रहकर कृषि से समृद्धि हासिल करने को चुना।

संगरूर के जिला हैडक्वार्टर से 20 किलोमीटर की दूरी पर भवानीगढ़ तहसील में स्थित गांव कपियाल जहां लवप्रीत सिंह अपने पिता, दादा जी, माता और बहन के साथ रहते हैं।

2008-09 में लवप्रीत ने कृषि क्षेत्र में अपनी बढ़ती दिलचस्पी के कारण केवल 1 एकड़ की भूमि पर गेहूं की जैविक खेती शुरू कर दी थी, बाकी की भूमि अन्य किसानों को दे दी थी। क्योंकि लवप्रीत के परिवार के लिए खेतीबाड़ी आय का प्राथमिक स्त्रोत कभी नहीं था। इसके अलावा लवप्रीत के पिता जी, संत पाल सिंह दुबई में बसे हुए थे और उनके पास परिवार की जरूरतों को पूरा करने के लिए अच्छी नौकरी और आय दोनों ही थी।

जैसे ही समय बीतता गया, लवप्रीत की दिलचस्पी और बढ़ी और उनकी मातृभूमि ने उन्हें वापिस बुला लिया। जल्दी ही अपनी डिग्री पूरी करने के बाद उन्होंने खेती की तरफ बड़ा कदम उठाने के बारे में सोचा। उन्होंने पंजाब एग्रो (Punjab Agro) द्वारा अपनी भूमि की मिट्टी की जांच करवायी और किसानों से अपनी सारी ज़मीन वापिस ली।

अगली फसल जिसकी लवप्रीत ने अपनी भूमि पर जैविक रूप से खेती की वह थी हल्दी और साथ में उन्होंने खुद ही इसकी प्रोसेसिंग भी शुरू की। एक एकड़ पर हल्दी और 4 एकड़ पर गेहूं-धान। लेकिन लवप्रीत के परिवार द्वारा पूरी तरह से जैविक खेती को अपनाना स्वीकार्य नहीं था। 2010 में जब उनके पिता दुबई से लौट आए तो वे जैविक खेती के खिलाफ थे क्योंकि उनके विचार में जैविक उपज की कम उत्पादकता थी लेकिन कई आलोचनाओं और बुरे शब्दों में लवप्रीत के दृढ़ संकल्प को हिलाने की शक्ति नहीं थी।

अपनी आय को बढ़ाने के लिए लवप्रीत ने गेहूं की बजाये बड़े स्तर पर हल्दी की खेती करने का फैसला किया। हल्दी की प्रोसेसिंग में उन्होंने कई मुश्किलों का सामना किया क्योंकि उनके पास इसका कोई ज्ञान और अनुभव नहीं था। लेकिन अपने प्रयासों और माहिर की सलाह के साथ वे कई मुश्किलों को हल करने के काबिल हुए। उन्होंने उत्पादकता और फसल की गुणवत्ता बढ़ाने के लिए गाय और भैंस के गोबर को खाद के रूप में प्रयोग करना शुरू किया।

परिणाम देखने के बाद उनके पिता ने भी उन्हें खेती में मदद करना शुरू कर दिया। यहां तक कि उन्होंने पंजाब एग्रो से भी हल्दी पाउडर को जैविक प्रमाण पत्र प्राप्त करने के लिए संपर्क किया और इस वर्ष के अंत तक उन्हें यह प्राप्त हो जाएगा। वर्तमान में वे सक्रिय रूप से हल्दी की खेती और प्रोसेसिंग में शामिल हैं। जब भी उन्हें समय मिलता है, वे PAU का दौरा करते हैं और यूनीवर्सिटी के माहिरों द्वारा सुझाई गई पुस्तकों को पढ़ते हैं ताकि उनकी खेती में सकारात्मक परिणाम आये। पंजाब एग्रो उन्हें आवश्यक जानकारी देकर भी उनकी मदद करता है और उन्हें अन्य प्रगतिशील किसानों के साथ भी मिलाता है जो जैविक खेती में सक्रिय रूप से शामिल हैं। हल्दी के अलावा वे गेहूं, धान, तिपतिया घास (दूब), मक्की, बाजरा की खेती भी करते हैं लेकिन छोटे स्तर पर।

भविष्य की योजनाएं:
वे भविष्य में हल्दी की खेती और प्रोसेसिंग के काम का विस्तार करना चाहते हैं और जैविक खेती कर रहे किसानों का एक ग्रुप बनाना चाहते हैं। ग्रुप के प्रयोग के लिए सामान्य मशीनें खरीदना चाहते हैं और जैविक खेती करने वाले किसानों का समर्थन करना चाहते हैं।

संदेश

एक संदेश जो मैं किसानों को देना चाहता हूं वह है पर्यावरण को बचाने के लिए जैविक खेती बहुत महत्तवपूर्ण है। सभी को जैविक खेती करनी चाहिए और जैविक खाना चाहिए, इस प्रकार प्रदूषण को भी कम किया जा सकता है।

भूपिंदर सिंह बरगाड़ी

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जानें कैसे एक बेटे ने अपने पिता के कदमों पर चलकर उनके गुड़ व्यापार को महान स्तर तक पहुंचाया

यह कहानी है- कैसे एक बेटे (भूपिंदर सिंह बरगाड़ी) ने अपने पिता (सुखदेव सिंह बरगारी) के व्यवसाय को समृद्ध तरीके से चलाया और वह पंजाब में गुड़ के प्रसिद्ध ब्रांड – BARGARI के नाम से आया।

एक समय था जब निकाले गए गन्ने के रस से गुड़ बनाने के लिए बैल का प्रयोग किया जाता था। लेकिन समय के साथ इस कार्य के लिए मशीनों का प्रयोग होने लगा। इसके अलावा गुड़ बनाने के लिए रासायनिक और रंग का प्रयोग होने के कारण इस स्वीटनर ने अपना सारा आकर्षण खो दिया और धीर धीरे लोग सफेद चीनी की तरफ आकर्षित होने लग गए।

लेकिन फिर भी कई परिवार चीनी की बजाय गुड़ को पसंद करते हैं और वे गन्ने के रस से गुड़ बनाने के लिए रवायिती ढंग का प्रयोग करते हैं। यह कहानी है सुखदेव सिंह बरगारी और उनके पुत्र भूपिंदर सिंह बरगाड़ी की। 1972 में सुखदेव सिंह औज़ारों और किसानों के उपकरणों को तीखा करने का काम करते थे और बदले में वे अनाज, सब्जियां या जो कुछ भी किसान उन्हें देते थे, वे मजदूरी के रूप में ले लेते थे। कुछ समय बाद उन्होंने ने एक इंजन खरीदा और इससे गुड़ बनाना शुरू किया। गुड़ निकालने के उनके शुद्ध पारंपरिक ढंग और बिना किसी रसायन का प्रयोग करके बनाए गुड़ ने उन्हें प्रसिद्ध कर दिया और कई गांव वालों ने उन्हें गुड़ बनाने के लिए गन्ने की फसल देनी शुरू कर दी। सुखदेव मुख्य रूप से इस काम को नवंबर से लेकर मार्च तक करते थे।

एक समय ऐसा आया जब सुखदेव की मेहनत रंग लायी और उनके गुड़ की मांग कई गुना बढ़ गई। यह 2011 की बात है जब उनकी बेटी की शादी थी। उस समय उन्होंने सभी रिश्तेदारों और मित्रों को शादी के निमंत्रण कार्डों के साथ गुड़, देसी घी और कई सारे मेवे से बनी हुई मिठाई वितरित की। हर किसी को वह मिठाई बहुत पसंद आई और उन्होंने इसे उनके लिए बनाने की मांग सुखदेव सिंह से की और उस समय उनके बेटे भूपिंदर सिंह ने अपने पिता के काम को करने और इसे एक उच्च स्तर तक विस्तृत करने का फैसला किया। इस घटना के बाद पिता पुत्र दोनों ने दो तरह के गुड बनाना शुरू किया एक मेवों के साथ और दूसरा बिना मेवे के।

बरगाड़ी परिवार के गन्ने के रस को साफ करने के लिए भिंडी की लेस के इस्तेमाल के पारंपरिक ढंग ने उनके गुड़ को, रसायनों और रंग का प्रयोग करके तैयार किए गए गुड़ से बेहतर बनाया। गुड़ बनाने के इस शुद्ध और साफ ढंग ने सुखदेव सिंह और भूपिंदर सिंह को प्रसिद्ध बना दिया और लोग उन्हें उनके काम से पहचानने लगे।

भूपिंदर सिंह सिर्फ अपने पिता के नक्शे कदम पर ही नहीं चले बल्कि उनके पास B.Ed. और MA की डिग्री थी और उसके बाद उन्होंने ETT Teacher Exam को भी पास किया और वे स्कूल टीचर के रूप में भी काम करते हैं और अपने पेशे से फ्री होने पर वे हर रोज गुड़ बनाने के लिए समय भी निकालते हैं।

इस पारंपरिक स्वीटनर को और अधिक लोकप्रिय बनाने के लिए, भूपिंदर ने 2 एकड़ क्षेत्र में गन्ने की C085 किस्म भी उगानी शुरू की और एक ग्रुप भी बनाया जिसमें वे ग्रुप के किसान सदस्यों को गन्ना उगाने के लिए प्रेरित भी करते हैं। भूपिंदर सिंह के इस कदम का परिणाम यह हुआ कि गन्ने की उतनी ही खेती की जाती थी जितनी की आवश्यक थी। जिसके परिणामस्वरूप किसानों को भी अधिक लाभ मिला और उसके साथ साथ बरगारी परिवार को भी फायदा हुआ।

पिछले 5 वर्षों से बरगारी परिवार द्वारा उत्पादित गुड़ ने PAU द्वारा आयोजित प्रतियोगिता में 4 बार पहला पुरस्कार जीता है और एक बार दूसरा पुरस्कार जीता है। 2014 में अच्छी गुणवत्ता वाले गुड़ के लिए उद्यमी किसान राज्य पुरस्कार (Udami Kisan State Award) भी जीता। भूपिंदर सिंह लखनऊ भी गए जहां उन्होंने अपनी मंडीकरण की तकनीकों के बारे में राष्ट्रीय गुड़ सम्मेलन (National Jaggery Sammelan) में चर्चा की। उन्होंने गुड़ की मार्किटिंग के लिए जागरूकता फैलाने का प्रयास ही नहीं किया बल्कि किसानों को मार्किटिंग की तकनीकों के बारे में जागरूक करवाने के लिए मार्च में आयोजित PAU सम्मेलन में भाग भी लिया।

अपना प्रोसेसिंग प्लांट स्थापित करना…

गुड़ प्रोसेसिंग प्लांट

वर्तमान में, कोटकपुरा – बठिंडा रोड पर उनका अपना गुड़ प्रोसेसिंग प्लांट है जहां पर वे अपने पारंपरिक ढंग से शुद्ध गुड़ बनाते हैं। गुड़ और शक्कर की मांग सर्दियों में ज्यादा बढ़ जाती है क्योंकि शुद्ध गुड़ से बनी चाय के सेहत पर कोई हानिकारक प्रभाव नहीं होते। यहां तक कि उस क्षेत्र के गैस्ट्रोएंटरोलॉजी (पेट के डॉक्टर) के विशेषज्ञ भी अपने मरीज़ों को बरगारी परिवार द्वारा बनाया गया गुड़ खाने की सलाह देते हैं।

अनाज की फसलों का प्रोसेसिंग प्लांट

इसके अलावा भूपिंदर सिंह के पास उसी स्थान पर अनाज का प्रोसेसिंग प्लांट भी है जहां पर वे सेल्फ हेल्प ग्रुप द्वारा उगाए गए गेहूं, मक्की, जौं, ज्वार और सरसों की प्रोसेसिंग करते हैं। प्रोसेसिंग प्लांट के साथ साथ उन्होंने एक स्टोर भी खोला है जहां पर वे अपने प्रोसेसिंग किए उत्पादों को बेचते हैं।

ब्रांड नाम कैसे दिया गया:

अपने गुड़ की डॉक्टरों द्वारा सिफारिश किए जाने के बारे में जानकर वे बहुत प्रभावित हुए और उन्होंने अपने ब्रांड का नाम “बरगाड़ी गुड़” रखने का फैसला किया।

भूपिंदर का “बरगाड़ी गुड़” के नाम से फेसबुक पेज भी है जिसके माध्यम से वे अपने आदर्श ग्राहकों के साथ विचार विमर्श करते हैं उन्होंने फेसबुक पेज के माध्यम से गुड़ बनाने की पूरी प्रक्रिया पर भी चर्चा की है।

वे हमेशा अपने व्यवसाय में सकारात्मक बदलाव लाने के लिए एग्रीकल्चर यूनिवर्सिटी के फूड टैक्नोलोजी और फूड प्रोसेसिंग और इंजीनियरिंग विभागों के साथ लगातार संपर्क बनाए रखते हैं।

आज, जो कुछ भी भूपिंदर सिंह ने अपने जीवन में हासिल किया है उसका सारा श्रेय वे अपने पिता श्री सुखदेव सिंह बरगाड़ी को देते हैं। सफल व्यवसाय चलाने के अलावा, भूपिंदर सिंह बरगाड़ी एक अच्छे शिक्षक भी हैं और फरीदकोट जिले के कोठे कहर सिंह गांव के लोगों और बच्चों की मदद कर रहे हैं। उनके अच्छे कार्यो के बारे में कई लेख, स्थानीय समाचार पत्रों में प्रकाशित किए गए हैं। वह ना केवल किसानों की मदद करना चाहते हैं बल्कि अपने काम और ज्ञान से लोगों को प्रेरित करना चाहते हैं और उनकी सहायता भी करना चाहते हैं।

खैर, पिता-पुत्र की यह जोड़ी सफलतापूर्वक काम कर रही है और सिर्फ दोनों के बीच की समझ के कारण ही इस स्तर तक पहुंची है। भविष्य में भी भूपिंदर सिंह बरगाड़ी अपने इस अच्छे काम को जारी रखेंगे और यूवा पीढ़ी के किसानों को अपने ज्ञान से प्रेरित करेंगे।

संदेश


मैं चाहता हूं कि किसान खेती के साथ फूड प्रोसेसिंग व्यवसाय में भी शामिल हों। इस तरीके से वे अपने व्यवसाय में अच्छा लाभ कमा सकते हैं। आज, किसानों को आधुनिक कृषि पद्धतियों के साथ अपडेट रहने की जरूरत है तभी वे आगे बढ़ सकते हैं और अपने क्षेत्रों में अच्छा प्रदर्शन कर सकते हैं।

 

पूजा शर्मा

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एक दृढ़ इच्छा शक्ति वाली महिला की कहानी जिसने अपने परिवार की जरूरतों को पूरा करने के लिए खेती के माध्यम से अपने पति का साथ दिया

हमारे भारतीय समाज में एक धारणा को जड़ दिया गया है कि महिला को घर पर होना चाहिए और पुरूषों को कमाना चाहिए। लेकिन फिर भी ऐसी कई महिलाएं हैं जो रोटी अर्जित के टैग को बहुत ही आत्मविश्वास से सकारात्मक तरीके से पेश करती हैं और अपने पतियों की घर चलाने और घर की जरूरतों को पूरा करने में मदद करती हैं। ऐसी ही एक महिला हैं – पूजा शर्मा, जो अपने घर की जरूरतों को पूरा करने में अपने पति की सहायता कर रही हैं।

श्री मती पूजा शर्मा जाटों की धरती- हरियाणा की एक उभरती हुई एग्रीप्रेन्योर हैं और वर्तमान में वे क्षितिज सेल्फ हेल्प ग्रुप की अध्यक्ष भी हैं और उनके गांव (चंदू) की प्रगतिशील महिलाएं उनके अधीन काम करती हैं। अभिनव खेती की तकनीकों का प्रयोग करके वे सोयाबीन, गेहूं, मक्का, बाजरा और मक्की से 11 किस्मों का खाना तैयार करती हैं, जिन्हें आसानी से बनाया जा सकता है और सीधे तौर पर खाया जा सकता है।

खेती के क्षेत्र में जाने का निर्णय 2012 में तब लिया गया, जब श्री मती पूजा शर्मा (तीन बच्चों की मां) को एहसास हुआ कि उनके घर की जरूरतें उनके पति (सरकारी अनुबंध कर्मचारी) की कमाई से पूरी नहीं हो रही हैं और अब ये उनकी जिम्मेदारी है कि वे अपने पति को सहारा दें।

वे KVK शिकोपूर में शामिल हुई और उन्हें उन चीज़ों को सीखने के लिए कहा गया जो उनकी आजीविका कमाने में मदद करेंगे। उन्होंने वहां से ट्रेनिंग ली और खेती की नई तकनीकें सीखीं। उन्होंने वहां सोयाबीन और अन्य अनाज की प्रक्रिया को सीखा ताकि इसे सीधा खाने के लिए इस्तेमाल किया जा सके और यह ट्रेनिंग लेने के बाद उन्होंने अपने पड़ोस और गांव की अन्य महिलाओं को ट्रेनिंग लेने के लिए प्रोत्साहित किया।

2013 में उन्होंने अपने घर पर भुनी हुई सोयाबीन की अपनी एक छोटी निर्माण यूनिट स्थापित की और अपने उद्यम में अपने गांव की अन्य महिलाओं को भी शामिल किया और धीरे-धीरे अपने व्यवसाय का विस्तार किया। उन्होंने एक क्षितिज SHG के नाम से एक सेल्फ हेल्प ग्रुप भी बनाया और अपने गांव की और महिलाओं को इसमें शामिल होने के लिए प्रोत्साहित किया। ग्रुप की सभी महिलाओं की बचत को इकट्ठा करके उन्होंने और तीन भुनाई की मशीने खरीदीं और कुछ समय बाद उन्होंने और पैसा इकट्ठा किया और दो और मशीने खरीदीं। वर्तमान में उनके ग्रुप के पास निर्माण के लिए 7 मशीनें हैं। ये मशीनें उनके बजट के मुताबिक काफी महंगी हैं। लेकिन फिर भी उन्होंने सब प्रबंध किया और इन मशीनों की लागत 16000 और 20000 के लगभग प्रति मशीन है। उनके पास 1.25 एकड़ की भूमि है और वे सक्रिय रूप से खेती में भी शामिल हैं। वे ज्यादातर दालों और अनाज की उन फसलों की खेती करती हैं जिन्हें प्रोसेस किया जा सके और बाद में बेचने के लिए प्रयोग किया जा सके। वे अपने गांव की अन्य महिलाओं को भी यही सिखाती हैं कि उन्हें अपनी भूमि का प्रभावी ढंग से प्रयोग करना चाहिए क्योंकि इससे उन्हें भविष्य में फायदा हो सकता है।

11 महिलाओं की टीम के साथ आज वे प्रोसेसिंग कर रही है और 11 से ज्यादा किस्मों के उत्पादों (बाजरे की खिचड़ी, बाजरे के लड्डू, भुने हुए गेहूं के दाने, भुनी हुई ज्वार, भुनी हुई सोयाबीन, भुने हुए काले चने) जो कि खाने और बनाने के लिए तैयार हैं, को राज्यों और देश में बेच रही हैं। पूजा शर्मा की इच्छा शक्ति ने गांव की अन्य महिलाओं को आत्म निर्भरता और आत्म विश्वास हासिल करने में मदद की है।

उनके लिए यह काफी लंबी यात्रा थी जहां वे आज पहुंची हैं और उन्होंने कई चुनौतियों का सामना भी किया। अब उन्होंने अपने घर पर ही मशीनों को स्थापित किया है ताकि महिलाएं इन्हें चला सकें जब भी वे खाली हों और उनके गांव में बिजली की कटौती भी काफी होती हैं इसलिए उन्होंने उनके काम को उसी के अनुसार बांटा हुआ है। कुछ महिलायें बीन्स को सुखाती हैं, कुछ साफ करती है और बाकी की महिलायें उन्हें भूनती और पीसती हैं।

वर्तमान में कई बार पूजा शर्मा और उनका ग्रुप अंग्रेजी भाषा की समस्या का सामना करता है क्योंकि जब बड़ी कंपनियों के साथ संवाद करने की बात आती है तो उन्हें पता है कि किस कौशल में उनकी सबसे ज्यादा कमी है और वह है शिक्षा। लेकिन वे इससे निराश नहीं हैं और इस पर काम करने की कोशिश कर रही हैं। खाद्य वस्तुओं के निर्माण के अलावा वे सिलाई, खेती और अन्य गतिविधियों में ट्रेनिंग लेने में भी महिलाओं की मदद कर रही हैं, जिसमें वे रूचि रखती हैं।

उनके भविष्य की योजनाएं अपने व्यवसाय का विस्तार करना और अधिक महिलाओं को प्रेरित करना और उन्हें आत्म निर्भर बनाना ताकि उन्हें पैसों के लिए दूसरों पर निर्भर ना रहना पड़े। ज़ोन 2 के अंतर्गत राजस्थान, हरियाणा और दिल्ली राज्यों से उन्हें उनके उत्साही काम और प्रयासों के लिए और अभिनव खेती की तकनीकों के लिए पंडित दीनदयाल उपध्याय कृषि पुरस्कार के साथ 50000 रूपये की नकद राशि और प्रमाण पत्र भी मिला। वे ATMA SCHEME की मैंबर भी हैं और उन्हें गवर्नर कप्तान सिंह सोलंकी द्वारा उच्च प्रोटीन युक्त भोजन बनाने के लिए प्रशंसा पत्र भी मिला।

किसानों को संदेश
जहां भी किसान अनाज, दालों और किसी भी फसल की खेती करते हैं वहां उन्हें उन महिलाओं का एक समूह बनाना चाहिए जो सिर्फ घरेलू काम कर रही हैं और उन्हें उत्पादित फसलों से प्रोसेसिंग द्वारा अच्छी चीजें बनाने के लिए ट्रेनिंग देनी चाहिए, ताकि वे उन चीज़ों को मार्किट में बेच सकें और इसके लिए अच्छी कीमत प्राप्त कर सकें।”

 

गुरविंदर सिंह सोही

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एक युवा खेतीप्रेन्योर की कहानी, जो हॉलैंड ग्लैडियोलस की खेती से पंजाब में फूलों के व्यापार में आगे बढ़ा

यह कहा जाता है कि सफलता आसानी से प्राप्त नहीं होती। आपको असफलता का स्वाद काफी बार चखना पड़ता है तभी आप सफलता के असली स्वाद का मज़ा ले सकते हो। ऐसा ही गुरविंदर सिंह सोही के साथ हुआ। वे एक सामान्य विद्यार्थी, जिसने खेतीबाड़ी का चयन उस समय किया जब वे पंजाब जे ई टी की परीक्षा में सफल नहीं हो पाये।

उन्होंने शुरू से ही निर्धारित किया था कि वे भेड़ की तरह काम नहीं करेंगे, ना ही अपने परिवार के व्यवसाय की तरह गेहूं-धान की खेती करेंगे। इसलिए उन्होंने मशरूम की खेती शुरू की लेकिन इसमें सफल नहीं हो सके। जल्दी ही उन्होंने नज़दीक के शहर खमानो में अपनी मिठाई की दुकान स्थापित की। लेकिन वे शायद इसके लिए भी नहीं बने थे। इसलिए उन्होंने घोड़े के प्रजनन का व्यवसाय शुरू किया और बाद में उन्होंने अपना व्यवसाय बदलकर जीप का काम शुरू किया।

इन सभी नौकरियों को छोड़ने के बाद 2008 में उन्हें एक खबर के बारे में पता चला कि पंजाब बागबानी विभाग हॉलैंड ग्लैडियोलस के बीजों पर सब्सिडी दे रहा है और फिर गुरविंदर सिंह सोही का वास्तविक खेल शुरू हुआ। उन्होंने 2 कनाल में ग्लैडियोलस को उगाया शुरू किया और धीरे धीरे एक ही फूल की खेती कई एकड़ में करनी शुरू की। फूल की स्थानीय किस्मों की तुलना में उन्हें उच्च मुल्य प्राप्त होना शुरू हो गया और अनकी आमदन में वृद्धि हुई।

एरिया बढ़कर 8 एकड़ से 18 एकड़ हो गया जिनमें से 9 उनके अपने थे और 9 ठेके पर थे। उन्होंने ग्लैडियोलस के लिए 10 एकड़, गेंदे के फूल के लिए 1 एकड़ और बाकी का क्षेत्र दालों, धान (मुख्यत: बासमती), गेंहू, मक्का और हरा चारा के लिए प्रयोग किया। ग्लैडियोलस की खेती में 7-8 महीने का समय लगता है इसकी बिजाई (सितंबर-अक्तूबर) और कटाई (जनवरी-फरवरी) में की जाती है। जबकि धान और गेहूं की बिजाई और कटाई इसके विपरीत होती है। इसलिए एक वर्ष में एक ही भूमि से आमदन होती है। इसके अलावा शादी के दिनों में ग्लैडियोलस की एक डंडी 7 रूपये मे बिकती है और 3 रूपये औसतन होता है। इस तरीके से वे एक वर्ष में अपनी आमदन बचा लेते हैं।

ग्लैडियोलस की फसल खजाना लूटने की तरह है क्योंकि हॉलैंड के बीजों का एक समय में 1.6 लाख प्रति एकड़ निवेश होता है जो कि बाद में 2 रूपये के हिसाब से एक फूल (बल्ब) बिकता है और उसी फसल से अगले वर्ष पौधे भी तैयार किए जा सकते हैं। हालांकि यह एक समय का निवेश होता है, पर बिजाई से लेकर बीज निकालने के लिए अप्रैल से मई महीने में ज्यादा श्रमिकों की आवश्यकता होती है। जिनका खर्चा लगभग 40000 रूपये एक एकड़ में आता है।

गेंदे की फसल भी ज्यादा लाभ देने वाली फसल है और इससे प्रत्येक मौसम में लगभग 1.25 लाख से 1.3 लाख रूपये लाभ होता है और यह लाभ गेंहू और धान से कहीं ज्यादा अच्छा है। इसके अलावा भूमि ठेके पर लेने, श्रमिक और अन्य निवेश लागत का खर्चा कुल लाभ में से निकालकर जो उनके पास बचता है वो भी उनके लिए काफी होता है।

उनका स्टार्टअप RTS फूलों के नाम से हुआ और यह कई शहरों जैसे पंजाब, चंडीगढ़, लुधियाना और पटियाला में तेजी से बढ़ गया। हालांकि उन्होंने उच्च शिक्षा नहीं ली, लेकिन वे समय समय पर अपने आपको अपडेट करते रहते हैं ताकि मंडीकरण में निपुण हो सकें और आज वे अपने ग्लैडियोलस के उत्पादन को अपने फर्म के फेसबुक पेज और अन्य ऑनलाइन वैबसाइट जैसे इंडियामार्ट के माध्यम से पूरे देश में बेच रहे हैं।

नए आधुनिक मार्किटिंग कौशल और प्रगति के साथ, गुरविंदर ने खुद को एग्री मार्किटिंग के बारे में भी अपडेट किया है और उनका काम फार्म टू फॉर्क के सिद्धांत पर प्रगति पर है। उन्होने और उनके 12 दोस्तों ने सरकारी विभागों की मदद से ड्रिप सिंचाई, सोलर पंप और अन्य कृषि यंत्र स्थापित किए हैं और किसान वेलफेयर कल्ब भी स्थापित किया है जिसकी मैंबरशिप 5000 रूपये प्रत्येक के लिए है ताकि भविष्य में अन्य मशीनरी जैसे रोटावेटर, पावर स्प्रे, और सीड ड्रिल खरीद सकें और जैविक खेती को बढ़ावा देने के लिए ग्रुप के सदस्यों ने हल्दी, दालें, मक्की और बासमती जैविक रूप से उगानी शुरू की है और अपने जैविक खाद्य उद्योग की मार्किट को बढ़ाने के लिए, उन्होंने व्हाट्स एप ग्रुप के माध्यम से ग्राहकों को सीधे उत्पादों का मंडीकरण शुरू कर दिया है और यह सुनिश्चित करने के लिए कि ग्राहक और किसान दोनों को उचित उत्पाद मिल जाए, वे मोहाली में सीधे 30 घरों में अपने उत्पाद बेचते हैं और जल्द ही वे वेबसाइट के माध्यम से अपनी सेवा शुरू करेंगे।

गुरविंदर सिंह सोही के युवा दिमाग ने सपने देखना बंद नहीं किया और जल्दी ही वे अपने उज्जवल विचारों के साथ आगे आएंगे।

किसानों को संदेश
किसानों को छोटे समूह बनाकर एकता में काम करना चाहिए, क्योंकि इस तरीके से कृषि मशीनरी को खरीदना और प्रयोग करना आसान होता हैं एक समूह में मशीनों का प्रयोग करने से खर्चा भी कम होता है जिसके परिणामस्वरूप एक लाभदायक उद्यम होता है। मैं भी ऐसे ही करता हूं। मैंने भी एक समूह बनाया है जिसमें समूह के नाम से मशीनों को खरीदा जाता है और समूह के सभी मैंबर इसका उपयोग कर सकते हैं।”

राजिंदर पाल सिंह

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एक इंसान की कहानी जिसने अपनी गल्तियों से सीखकर बुद्धिमता के रास्ते को चुना – जैविक खेती

प्राकृति हमारे सबसे महान शिक्षकों में से एक है और वह कभी भी हमें सिखाने से रूकी नहीं है, जिसकी हमें जानने की जरूरत होती है। आज हम धरती पर इस तरीके से रह रहे हैं कि जैसे हमारे पास एक और ग्रह भी है। हम इस बात से अवगत नहीं है कि हम प्राकृति के संतुलन को कैसे परेशान कर रहे हैं और यह हमें कैसे प्रतिकूल प्रभाव दे सकती है। आजकल हम मनुष्यों और जानवरों में बीमारियों, असमानताओं और कमियों के कई मामलों को देख रहे हैं। लेकिन फिर भी ज्यादातर लोग गल्तियों की पहचान करने में सक्षम नहीं हैं वे आंखों पर पट्टी बांधकर बैठे हैं। जैसे कि कुछ गलत हो ही नहीं रहा। पर इनमें से कुछ व्यक्ति ऐसे हैं जो कि अपनी गल्तियों से सीखते हैं और समाज में एक बड़ा बदलाव लाने की कोशिश कर रहे हैं।

ऐसा कहा जाता है कि गल्तियों में आपको पहले से अच्छा बनाने की शक्ति होती है और एक ऐसे व्यक्ति हैं राजिंदर पाल सिंह जो कि बेहतर दिशा में अपना रास्ता बना रहे हैं और आज वे जैविक खेती के क्षेत्र में एक सफल शख्सियत हैं। उनके उत्पादों की प्रशंसा और अधिक मांग केवल भारत में ही नहीं बल्कि अमेरिका, कैनेडा और यहां तक कि लंदन के शाही परिवार में भी है।

खैर, एक सफल यात्रा के पीछे हमेशा एक कहानी होती है।राजिंदरपाल सिंह जिला बठिंडा के गांव कलालवाला के वसनीक; एक समय में ऐसे किसान थे जो कि पारंपरिक खेती करते थे लेकिन रसायनों और कीटनाशकों के प्रतिकूल प्रभावों का सामना करने के बाद उन्हें एहसास हुआ कि वे रसायनों का प्रयोग करके अपने पर्यावरण और अपनी सेहत को प्रभावित कर रहे हैं। वे फसलों पर कीटनाशकों का प्रयोग करते थे, लेकिन एक दिन उस स्प्रे ने उनके नर्वस सिस्टम को प्रभावित किया और ऐसा ही उनके एक रिश्तेदार के साथ हुआ। उस दिन से उन्होंने रसायनों के प्रयोग को छोड़कर कृषि के लिए जैविक तरीका अपनाया।

शुरूआत में उन्होंने और उनके चाचा जी ने 4 एकड़ भूमि में जैविक खेती करनी शुरू की और धीरे धीरे इस क्षेत्र को बढ़ाया 2001 में वे उत्तर प्रदेश से गुलाब के पौधे खरीद कर लाये और तब से वे अन्य फसलों के साथ गुलाब की खेती भी कर रहे हैं। उन्होंने जैविक खेती के लिए कोई ट्रेनिंग नहीं ली। उनके चाचा जी ने किताबों से सभी जानकारी इकट्ठा करके जैविक खेती करने में उनकी मदद की। वर्तमान में वे अपने संयुक्त परिवार अपनी पत्नी, बच्चे, चाचा, चाची और भाइयों के साथ रह रहे हैं और अपनी सफलता के पीछे का पूरा श्रेय अपने परिवार को देते हैं।

वे बठिंडा के मालवा क्षेत्र के पहले किसान हैं जिन्होंने पारंपरिक खेती को छोड़कर जैविक खेती को चुना। जब उन्होंने जैविक खेती शुरू की, उस समय उन्होंने कई मुश्किलों का सामना किया और कई लोगों ने उन्हें यह कहते हुए भी निराश किया कि वे सिर्फ पैसा बर्बाद कर रहे हैं, लेकिन आज उनके उत्पाद एडवांस बुकिंग में बिक रहे हैं और वे पंजाब के पहले किसान भी हैं जिन्होंने अपने फार्म पर गुलाब का तेल बनाया और 2010 में फतेहगढ़ साहिब के समारोह में प्रिंस चार्ल्स और उनकी पत्नी को दिया था।

वे जो काम कर रहे हैं उसके लिए उन्हें फूलों का राजा नामक टाइटल भी दिया गया है। उनके पास गुलाब की सबसे अच्छी किस्म है जिसे Damascus कहा जाता है और आप गुलाबों की सुगंध उनके गुलाब के खेतों की कुछ ही दूरी पर से ले सकते हैं जो कि 6 एकड़ की भूमि पर फैला हुआ है। उन्होंने अपने फार्म में तेल निकालने का प्रोजैक्ट भी स्थापित किया है जहां पर वे अपने फार्म के गुलाबों का प्रयोग करके गुलाब का तेल बनाते हैं। गुलाब की खेती के अलावा वे मूंग दाल, मसूर, मक्की, सोयाबीन, मूंगफली, चने, गेहूं, बासमती, ग्वार और अन्य मौसमी सब्जियां उगाते हैं। 12 एकड़ में वे बासमती उगाते हैं और बाकी की भूमि में वे उपरोक्त फसलें उगाते हैं।

राजिंदरपाल सिंह जिन गुलाबों की खेती करते हैं वे वर्ष में एक बार दिसंबर महीने में खिलते हैं और इनकी कटाई मार्च और अप्रैल तक पूरी कर ली जाती है। एक एकड़ खेत में वे 12 से 18 क्विंटल गुलाब उगाते हैं और आज एक एकड़ गुलाब के खेतों से उनका वार्षिक मुनाफा 1.25 लाख रूपये है। उनके उत्पादों की मांग अमेरिका, कैनेडा और अन्य देशों में है। यहां तक कि उनके द्वारा बनाये गये गुलाब के तेल को भी निर्यातकों द्वारा अच्छी कीमत पर खरीदा जाता हैं सिर्फ इसलिए क्योंकि वे तेल, शुद्ध जैविक गुलाबों से बनाते हैं। बेमौसम में वे गुलाब की अन्य किस्में उगाते हैं और उनसे गुलकंद बनाते हैं और उसे नज़दीक के ग्रोसरी स्टोर में बेचते हैं। गुलाब का तेल, रॉज़ वॉटर और गुलकंद के इलावा अन्य फसलें जैविक मसूर, गेहूं, मक्की, धान को भी बेचते हैं। सभी उत्पाद उनके द्वारा बनाये जाते है और उनके ब्रांड नाम भाकर जैविक फार्म के नाम से बेचे जाते हैं।

आज राजिंदर पाल सिंह जैविक खेती से बहुत संतुष्ट हैं। हां उनके उत्पादों की उपज कम होती है लेकिन उनके उत्पादों की कीमत, पारंपरिक खेती का प्रयोग करके उगाई अन्य फसलों की कीमत से ज्यादा होती है। वे अपने खेतों में सिर्फ गाय की खाद और नदी के पानी का प्रयोग करते हैं और बाज़ार से किसी भी तरह की खाद या कंपोस्ट नहीं खरीदते। जैविक खेती करके वे मिट्टी के पोषक तत्व और उपजाऊ शक्ति को बनाए रखने में सक्षम हैं। शुरूआत में उन्होंने अपने उत्पादों के मंडीकरण में छोटी सी समस्या का सामना किया लेकिन जल्दी ही लोगों ने उनके उन्पादों की क्वालिटी को मान्यता दी, फिर उन्होंने अपने काम में गति प्राप्त करनी शुरू की और वे जैविक खेती करके अपनी फसलों में बहुत ही कम बीमारियों का सामना कर रहे हैं।

अब उनके पुरस्कार और प्राप्तियों पर आते हैं। ATMA स्कीम के तहत केंद्र सरकार द्वारा उनकी सराहना की गई और देश के अन्य किसानों को प्रोत्साहित करने के लिए एक प्रेरणास्त्रोत के रूप में प्रस्तुत किया गया। वे भूमि वरदान फाउंडेशन के मैंबर भी हैं जो कि रोयल प्रिंस ऑफ वेलस के नेतृत्व में होता है और उनके सभी उत्पाद इस फाउंउेशन के द्वारा प्रमाणित हैं। उन्होंने पटियाला के पंजाब एग्रीकल्चर विभाग से प्रशंसा पत्र भी प्राप्त किया और यहां तक कि पंजाब के पूर्व कृषि मंत्री श्री तोता सिंह ने उन्हें प्रगतिशील किसान के तौर पर पुरस्कृत किया।

भविष्य की योजना
भविष्य में वे जैविक खेती के क्षेत्र में अपने काम को जारी रखना चाहते हैं और जैविक खेती के बारे में ज्यादा से ज्यादा किसानों को जागरूक करना चाहते हैं ताकि वे जैविक खेती करने के लिए प्रेरित हो सकें।

राजिंदर पाल सिंह द्वारा दिया गया संदेश-
आज हमारी धरती को हमारी जरूरत है और किसान के तौर पर धरती को प्रदूषन से बचाने के लिए हम सबस अधिक जिम्मेदार व्यक्ति हैं। हां, जैविक खेती करने से कम उपज होती है लेकिन आने वाले समय में जैविक उत्पादों की मांग बहुत अधिक होगी, सिर्फ इसलिए नहीं कि ये स्वास्थ्यवर्धक हैं अपितु इसलिए क्योंकि यह समय की आवश्यकता बन जाएगी। इसके अलावा जैविक खेती स्थायी है और इसे कम वित्तीय की आवश्यकता होती है। इसे सिर्फ श्रमिकों की आवश्यकता होती है और यदि एक किसान जैविक खेती करने में रूचि रखता है तो वह इसे बहुत आसानी से कर सकता है।

 

मंजुला संदेश पदवी

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इस महिला ने अकेले ही साबित किया कि जैविक खेती समाज और उसके परिवार के लिए कैसे लाभदायक है

मंजुला संदेश पदवी दिखने में एक साधारण किसान हैं लेकिन जैविक खेती से संबंधित ज्ञान और उनके जीवन का संघर्ष इससे कहीं अधिक है। महाराष्ट्र के जिला नंदूरबार के एक छोटे से गांव वागसेपा में रहते हुए उन्होंने ना सिर्फ जैविक तरीके से खेती की, बल्कि अपने परिवार की ज़रूरतों को भी पूरा किया और अपने फार्म की आय से अपने बेटी को भी शिक्षित किया।

मंजुला के पति ने उन्हें 10 साल पहले ही छोड़ दिया था, उस समय उनके पास दो विकल्प थे, पहला उस समय की परिस्थितियों को लेकर बुरा महसूस करना, सहानुभूति हासिल करना और किसी अन्य व्यक्ति की तलाश करना। और दूसरा विकल्प था स्वंय अपने पैरों पर खड़े होना और खुद का सहारा बनना। उन्होंने दूसरा विकल्प चुना और आज वे एक आत्मनिर्भर जैविक किसान हैं।

उनके जीवन में एक समय ऐसा भी आया जब उनकी सेहत इतनी खराब हो गई कि उनके लिए चलना फिरना मुश्किल हो गया था। उस समय, उनके दिल का इलाज चल रहा था जिसमें उनके दिल का वाल्व बदला गया था। लेकिन उन्होंने कभी उम्मीद नहीं खोयी। सर्जरी के बाद ठीक होने पर उन्होंने बचत समूह (saving group) से लोन लिया और अपने खेत में एक मोटर पंप लगाया। मिट्टी को अधिक उपजाऊ बनाने के लिए, उन्होंने रासायनिक खादों और कीटनाशकों के स्थान पर जैविक खादों को चुना।

विभिन्न सरकारी नीतियों से मिली राशि उनके लिए अच्छी रकम थी और उन्होंने इसे बैलों की एक जोड़ी खरीदकर बुद्धिमानी से खर्च किया और अब वे अपने खेत की जोताई के लिए बैलों का प्रयोग करती हैं। उन्होंने मक्की और ज्वार की फसल उगायी और इससे उन्हें अच्छी उपज भी मिली।

मंजुला कहती हैं – “आस-पास के खेतों की पैदावार मेरे खेत से कम है पिछले वर्ष हमने मक्की की फसल उगायी लेकिन हमारी उपज अन्य खेतों की उपज के मुकाबले बहुत अच्छी थी क्योंकि मैं जैविक खादों का प्रयोग करती हूं और अन्य किसान रासायनिक खादों का प्रयोग करते हैं। इस वर्ष भी मैं मक्की और ज्वार उगा रही हूं। ”

नंदूरबार जिले में स्थित सार्वजनिक सेवा प्रणाली ने मंजुला की उसके खेती उद्यम में काफी सहायता की उन्होंने अपने क्षेत्र में 15 बचत समूह बनाए हैं और इन समूहों के माध्यम से वे पैसे इकट्ठा करते हैं और जरूरत के मुताबिक किसानों को ऋण प्रदान करते हैं। वे विशेष रूप से गैर रासायनिक और जैविक खेती को प्रोत्साहित करते हैं। एक और ग्रुप है जिससे मंजुला लाभ ले रही हैं वह स्वदेशी बीज बैंक है। वे इस समूह के माध्यम से बीज लेती हैं और सब्जियों, फलों और अनाजों की विविध खेती करती हैं। मंजुला की बेटी मनिका को अपनी मां पर गर्व है और वह हमेशा उनकी सहायता करती है।

आज, महिलायें खेतीबाड़ी के क्षेत्र में बीजों की बिजाई से लेकर फसलों के रख-रखाव और भंडारण में महत्तवपूर्ण भूमिका निभाती है। लेकिन जब खेती मशीनीकृत हो जाती है तो महिलायें इस श्रेणी से बाहर हो जाती हैं। लेकिन मंजुला संदेश पदवी ने खुद को कभी विकलांग नहीं बनाया और अपनी कमज़ोरी को ही अपनी ताकत में बदल दिया। उन्होंने अकेले ही अपने फार्म की देखभाल की और अपनी बेटी और अपने घर की ज़रूरतों को पूरा किया। आज उनकी बेटी ने उच्च शिक्षा हासिल की है और आज वह इतना कमा रही है कि अच्छा जीवन व्यतीत कर सके। वर्तमान में उनकी बेटी मनिका जलगांव में नर्स के रूप में काम कर रही है।

मंजुला संदेश पदवी जैसी महिलायें ग्रामीण भारत के लिए एक पावरहाउस के रूप में काम करती हैं, इनके जैसी महिलायें अन्य महिलाओं को भी मजबूत बनाती है और अपने बेहतर भविष्य के लिए टिकाऊ खेती का चुनाव करती हैं। यदि हम चाहते हैं कि हमारे भविष्य की पीढ़ी स्वस्थ जीवन जिये और उन्हें किसी चीज़ की कमी ना हो। तो आज हमें और मंजुला संदेश पदवी जैसी महिलाओं की जरूरत है।

समय को सतत खेती की जरूरत है क्योंकि रसायन भूमि की उपजाऊ शक्ति को कम करते हैं और भूमिगत जीवन को प्रदूषित करते हैं। इसके अलावा रसायन खेती के खर्चे को भी बढ़ाते हैं जिससे कि किसानों पर कर्ज़ा बढ़ता है और किसान आत्महत्या करने के लिए विवश हो जाते हैं।

हमें मंजुला से सीखना चाहिए कि जैविक खेती अपनाकर पानी, मिट्टी और वातावरण को कैसे बचाया जा सकता है।