उडीकवान सिंह

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कम उम्र में मुश्किलों को पार कर सफलता की सीढ़ियां चढ़ने वाला 20 वर्षीय युवा किसान

“छोटी उम्र बड़ी छलांग” मुहावरा तो सभी ने सुना होगा पर किसी ने भी मुहावरे का पालन करने की कोशिश नहीं की, लेकिन बहुत कम ही लोग ऐसे होते हैं जो कि ढूंढ़ने से भी नहीं मिलते।

लेकिन यहां इस मुहावरे की बात एक ऐसे युवक पर बिल्कुल फिट बैठती है जिसने इस मुहावरे को सच साबित कर दिया है और बाकि लोगों के लिए भी एक मिसाल कायम की है। इन्होंने ठेके पर जमीन ली और कम उम्र में सब्जी की खेती की और बुलंदियों को हासिल कर परिवार और गांव का नाम रोशन किया है।

जैसा कि सभी जानते हैं कि हर इंसान का कुछ न कुछ करने का लक्ष्य होता है और उस लक्ष्य को हासिल करने के लिए हर संभव प्रयास करता है। आज हम जिस युवक की हम बात करने वाले हैं, शुरू से ही उनकी दिलचस्पी खेती में थी और पढ़ाई में उनका ज़रा भी मन नहीं लगता था। इनका नाम उडीकवान सिंह है जो ज़िला फरीदकोट के गांव लालेयाणा के रहने वाले है। स्कूल में भी उनके मन में यही बात घूमती रहती थी कि कब वह घर जाकर अपने पिता जी के साथ खेत का दौरा करके आएंगे, मतलब कि उनका सारा ध्यान खेतों में ही रहता था।

उनके पिता मनजीत सिंह जी, जो मॉडर्न क्रॉप केयर केमिकल्स में कृषि सलाहकार के रूप में काम करते हैं, उनको हमेशा इस बात की चिंता रहती थी कि उनका एकलौता बेटा पढ़ाई को छोड़कर खेती के कामों में ज्यादा दिलचस्पी दिखा रहा है लेकिन वह इसे बुरा नहीं कह रहे थे। उनका मानना था कि “बच्चे को खेत से जुड़ा रहना चाहिए पर अपनी शिक्षा पर ध्यान केंद्रित करना चाहिए और पढ़ाई छोड़नी नहीं चाहिए।”

लेकिन उनके पिता को क्या पता था कि एक दिन यह बेटा अपना नाम मशहूर करेगा, उडीकवान जी को बचपन से ही खेतों से लगाव था लेकिन इस प्यार के पीछे उनकी विशाल सोच थी जो हमेशा सवाल पूछती थी और फिर वह यह सवाल दूसरे किसानों से पूछते थे। जब उनके पिता खुद खेती करते थे और फसल बेचने के लिए बाजार जाते थे तो उडीकवान जी दूसरे किसनों से सवाल पूछने लग जाते थे कि अगर हम इस फसल को इस विधि से उगाएं तो इससे कम लागत में ज्यादा मुनाफ़ा कमाया जा सकता है, जिस पर किसान हंसने लगते थे जो कि उडीकवान जी की सफलता का कारण बना।

इसके बाद उडीकवान जी के पिता मनजीत सिंह जी हमेशा काम के सिलसिले में दिन भर बाहर रहने लगे जिससे उनका ध्यान खेतों की तरफ कम होने लगा। तब उडीकवान जी ने खेती के कार्यों की तरफ ज़्यादा ध्यान देना शुरू कर दिया और वह रोज़ाना खेतों में जाकर काम करने लगे। उस समय उडीकवान जी को लगा कि अब कुछ ऐसा करने का समय आ गया है जिसका उनको काफी लंबे समय से इंतज़ार था।

उस समय उनकी उम्र मात्र 17 वर्ष थी। फिर उन्होंने खेती से जुड़े बड़े काम करने भी शुरू कर दिए और अपने पिता के कहने अनुसार पढ़ाई भी नहीं छोड़ी। लंबे समय तक उन्होंने पारम्परिक खेती की और महसूस किया कि कुछ अलग करना होगा।

उन्होंने इस मामले पर अपने पिता से चर्चा की और सब्जियों की खेती शुरू कर दी जिसमें मूल रूप से खाने वाली सब्ज़ियां ही हैं। वह अपने मन में आने वाले सवाल पूछते रहते थे और जब भी उडीकवान जी को खेती के कार्यों में कोई समस्या आती थी तो उनके पिता जी उनकी मदद करते थे और खेती के कई अन्य तरीकों से भी अवगत करवाते थे। वह हमेशा खेतों में अपने तरीकों का इस्तेमाल करते थे लेकिन परिणाम उन्हें थोड़े समय बाद मिला जब सब्जियां पककर तैयार हुईं। जिसमें से उनकी कद्दू की फसल काफी मशहूर हुई जिसमें से एक कद्दू 18 से 20 किलो का हुआ। अभी तक उडीकवान जी के सभी तरीके सब्ज़ियों की खेती में खरे उतरते आ रहे हैं जिनसे उनके पिता जी काफ़ी खुश हैं। इसके बाद उडीकवान जी ने खुद ही सब्ज़ियों को मंडी में बेचा। वह जिन सब्ज़ियों की मूल रूप से खेती करते थे उनके पकने पर वह सुबह उन्हें ले जाते थे और उन्होंने मंडी में उनकी मार्केटिंग करनी शुरू कर दी। उन्हें इस काम में काफ़ी मुश्किलों का सामना करना पड़ा क्योंकि उन्हें पता नहीं था कि मार्केटिंग करनी कैसे है।

लंबे समय तक सब्जियों की मार्केटिंग नहीं होने से उडीकवान जी काफ़ी निराश रहने लगे और उन्होंने बाजार में सब्जियां न बेचने का मन बनाकर मार्केटिंग बंद करने का फैसला किया। इस दौरान उनकी मुलाकात डॉ. अमनदीप केशव जी से हुई जो कि आत्मा में प्रोजेक्ट निर्देशक के रूप में कार्यरत हैं और कृषि के बारे में किसानों को बहुत जागरूक करते हैं और उनकी काफी मदद भी करते हैं। इसलिए उन्होंने उडीकवान जी से पहले सब कुछ पूछा और खुश भी हुए क्योंकि कोई ही होगा जो इतनी छोटी उम्र में खेती के प्रति यह बातें सोच सकता है।

पूरी बात सुनने के बाद डॉ.अमनदीप ने उडीकवान जी को मार्केटिंग के कुछ तरीके बताये और उडीकवान जी के सोशल मीडिया और ग्रुप्स के ज़रिये खुद मदद की। जिससे उडीकवान जी की मार्केटिंग का सिलसिला शुरू हो गया जिससे उडीकवान जी काफ़ी खुश हुए।

इस बीच आत्मा किसान कल्याण विभाग ने आत्मा किसान बाजार खोला और उडीकवान जी को सूचित किया और उन्हें फरीदकोट में हर गुरुवार और रविवार को होने वाली सब्जियों को बाजार में बेचने के लिए कहा। तब उडीकवान जी हर गुरुवार और रविवार को सब्जी लेकर जाने लगे जिससे उन्हें अच्छा मुनाफा होने लगा और हर कोई उन्हें अच्छी तरह से जानने लगा और इस मंडी में उनकी मार्केटिंग भी अच्छे से होने लगी और 2020 तक आते-आते उनका सब्ज़ियों की मार्केटिंग में काफ़ी ज्यादा प्रसार हो गया और अभी वह इससे काफ़ी ज्यादा मुनाफा कमा रहे हैं और उनकी सफलता का राज उनके पिता मनजीत सिंह और आत्मा किसान कल्याण विभाग के प्रोजेक्ट डायरेक्टर डॉ.अमनदीप केशव जी हैं।

उडीकवान सिंह जी जिन्होंने 20 साल की उम्र में साबित कर दिया था कि सफलता के लिए उम्र जरूरी नहीं, इसके लिए केवल समर्पण और कड़ी मेहनत ज़रूरी है, भले ही उम्र छोटी ही क्यों न हो। 20 साल की उम्र में वह सोचते हैं कि आगे क्या करना है।

उडीकवान जी अब घरेलू उपयोग के लिए सब्ज़ियों की खेती कर रहे हैं जिसमें वह मल्चिंग विधि द्वारा भी सब्ज़ियां उगा रहे हैं।

भविष्य की योजनाएं

वह सब्जियों की संख्या बढ़ाकर और अंतरफसल पद्धति अपनाकर और अधिक प्रयोग करना चाहते हैं।

संदेश

यदि कोई व्यक्ति सब्जियों की खेती करना चाहता है, तो उसे सबसे पहले उन सब्जियों की खेती और विपणन करना चाहिए जो बुनियादी स्तर पर खाई जाती हैं, जिससे खेती के साथ-साथ आय भी होगी।

प्रदीप नत्त

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छोटी उम्र में ही कन्धों पर पड़ी जिम्मेवारियों को अपनाकर उन ऊपर जीत हांसिल करने वाला नौजवान

जिंदगी का सफर बहुत ही लंबा है जोकि पूरी जिंदगी काम करते हुए भी कभी खत्म नहीं होता, इस जिंदगी के सफर में हर एक इंसान का कोई न कोई मुसाफिर या साथी ऐसा होता है जोकि उसके साथ हमेशा रहता है, जैसे किसी के लिए दफ्तर में सहायता करने वाला कोई कर्मचारी, जैसे किसी पक्षी की थकावट दूर करने वाली पौधे की टहनी, इस तरह हर एक इंसान की जिंदगी में कोई न कोई महत्वपूर्ण भूमिका निभा रहा है।

आज जिनके बारे में बात करने जा रहे हैं उनकी जिंदगी की पूरी कहानी इस कथन के साथ मिलती सी है, क्योंकि यदि एक साथ देने वाला इंसान जो आपके अच्छे या बुरे समय में आपके साथ रहता था, तो यदि वह अचानक से आपका साथ छोड़ दे तो हर एक काम जो पहले आसान लगता था वह बाद में अकेले करना मुश्किल हो जाता है, दूसरा आपको उस काम के बारे में कोई जानकारी नहीं होती।

ऐसे ही एक प्रगतिशील किसान प्रदीप नत्त, जोकि गांव नत्त का रहने वाला है, जिसने छोटी आयु में अकेले ही कामयाबी की मंजिलों पर जीत पाई और अपने ज़िले बठिंडे में ऑर्गनिक तरीके के साथ सब्जियों की खेत और खुद ही मार्केटिंग करके नाम चमकाया।

साल 2018 की बात है जब प्रदीप अपनी पढ़ाई पूरी करने के बाद अपने पिता के साथ खेती करने लगा और उन्होंने शुरू से ही किसी के नीचे काम करने की बजाए खुद का काम करने के बारे में सोच रखा था, इसलिए वह खेती करने लगे और धीरे धीरे अपने पिता जी के बताएं अनुसार खेती करने लगे और लोग उन्हें खेतों का बेटा कहने लगे।

जब प्रदीप को फसल और खाद के बारे में जानकारी होने लगी उस समय 2018 में प्रदीप के पिता का देहांत हो गया जो उनके हर काम में उनके साथ रहते थे। जिससे घर की पूरी जिम्मेदारी प्रदीप जी पर आ गई और दूसरा उनकी आयु भी कम थी। प्रदीप ने हिम्मत नहीं हारी और खेती करने के जैविक तरीकों को अपनाया।

2018 में उन्‍होंने एक एकड़ में जैविक तरीके के साथ खेती करनी शुरू कर दी, बहुत से लोगों ने उसे इस काम को करने से रोका, पर उन्होनें किसी की न सुनी, उन्‍होंने सोचा कि अभी तक रसायनिक ही खा रहे हैं और पता नहीं कितनी बीमारियों को अपने साथ लगा लिया है, तो अभी शुद्ध और जैविक खाए जिससे कई बीमारियों से बचाव किया जा सके।

जैविक तरीके के साथ खेती करना 2018 से शुरू कर दिया था और जब जैविक खेती के बारे में पूरी जानकारी हो गई तो प्रदीप ने सोचा कि क्यों न कुछ अलग किया जाए और उनका ख्याल पारंपरिक खेती से हट कर सब्जियों की खेती करने का विचार आया। सितम्बर महीने की शुरुआत में उनहोंने कुछ मात्रा में भिंडी, शिमला मिर्च, गोभी आदि लगा दी और जैविक तरीके के साथ उनकी देखरेख करने लगे और जब समय पर सब्जियां पक कर तैयार हो जाए तो सबसे पहले प्रदीप ने घर में बना कर देखी और जब खाई तो स्वाद बहुत अलग था क्योंकि जैविक और रसायनिक तरीके के साथ उगाई गई फसल में जमीन आसमान का फर्क होता है।

फिर प्रदीप ने सब्जी बेचने के बारे में सोचा पर ख्याल आया कि लोग रसायनिक देख कर जैविक सब्जी को कैसे खरीदेंगे। फिर प्रदीप ने खुद मार्किट करने के बारे में सोचा और गांव गांव जाकर सब्जियां बेचने लगे और लोगों को जैविक के फायदे के बारे में बताने लगे जिससे लोगों को उस पर विश्वास होने लगा।

फिर रोजाना प्रदीप सब्जी बेचने मोटरसाइकिल पर जाता और शाम को घर वापिस आ जाता।एक बार वह अपने साथ नर्सरी के कार्ड छपवा कर ले गए और सब्जी के साथ देने लगे

फिर प्रदीप ने सोचा कि क्यों न बठिंडा शहर जाकर सब्जी बेचीं जाए और उसने इस तरह ही किया और शहर में लोगो की प्रतिक्रिया अच्छी थी जिसे देखकर वह खुद हुए और साथ साथ मुनाफा भी कमाने लगे।

इस तरह से 1 साल निकल गया और 2020 आते प्रदीप को पूरी तरह से सफलता मिल गई। जो प्रदीप ने 1 एकड़ से काम शुरू किया था उसे धीरे धीरे 5 एकड़ में फैला रहे थे जिसमें उनहोंने सब्जियों की खेती में विकास तो किया उसके साथ ही नरमे की खेती भी जैविक तरीके के साथ करनी शुरू की।

आज प्रदीप को घर बैठे ही सब्जियां खरीदने के लिए फ़ोन आते हैं और प्रदीप अपने ठेले पर सब्जी बेचने चले जाते हैं जिसमें सबसे अधिक फोन बठिंडे शहर से आते हैं जहां पर उनकी मार्केटिंग बहुत होती है और बहुत अधिक मुनाफा कमा रहे हैं।

छोटी आयु में ही प्रदीप ने बड़ा मुकाम पा लिया था, किसी को भी मुश्किलों से भागना नहीं चाहिए, बल्कि उसका मुकाबला करना चाहिए, जिसमें आयु कभी भी मायने नहीं रखती, जिसने मंजिलों को पाना होता है वह छोटी आयु में ही पा लेते हैं।

भविष्य की योजना

वह अपनी पूरी जमीन को जैविक में बदलना चाहते हैं और खेती जो रसायनिक खादों में बर्बाद की है उसे जैविक खादों द्वारा शक्तिशाली बनाना चाहते हैं।

संदेश

किसान चाहे बड़ा हो या छोटा हो हमेशा पहल जैविक खेती को देनी चाहिए, क्योंकि अपनी सेहत से अच्छा कुछ भी नहीं है और मुनाफा न देखकर अपने और दूसरों के बारे में सोच कर शुरू करें, आप भी शुद्ध चीजें खाएं और दूसरों को भी खिलाएं।

सिकंदर सिंह बराड़

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कृषि विभिन्ता को अपनाकर एक सफल किसान बनने वाले व्यक्ति की कहानी

कुछ अलग करने की इच्छा इंसान को धरती से आसमान तक ले जाती है। पर उसके मन में हमेश आगे बढ़ाने के इच्छा होनी चाहिए। आप चाहे किसी भी क्षेत्र में काम कर रहे हो, अपनी इच्छा और सोचा को हमेशा जागृत रखना चाहिए।

इस सोच के साथ चलने वाले सरदार सिकंदर सिंह बराड़, जोकि बलिहार महिमा, बठिंडा में रहते हैं और जिनका जन्म एक किसान परिवार में हुआ। उनके पिता सरदार बूटा सिंह पारंपरिक तरीके के साथ खेतीबाड़ी कर रहे हैं, जैसे गेहूं,धान आदि। क्या इस तरह नहीं हो सकता कि खेतीबाड़ी में कुछ नया या विभिन्ता लेकर आई जाए।

मेरे कहने का मतलब यह है कि हम खेती करते हैं पर हर बार हर साल वही फसलें उगाने की बजाए कुछ नया क्यों नहीं करते- सिकंदर सिंह बराड़

वह हमेशा खेतीबाड़ी में कुछ अलग करने के बारे में सोचा करते थे, जिसकी प्रेरणा उन्हें अपने नानके गांव से मिली। उनके नानके गांव वाले लोग आलू की खेती बहुत अलग तरीके के साथ करते थे, जिससे उनकी फसल की पैदावार बहुत अच्छी होती थी।

जब मैं मामा के गांव की खेती के तरीकों को देखता था तो मैं बहुत ज्यादा प्रभवित होता था – सिकंदर सिंह बराड़

जब सिकंदर सिंह ने 1983 में सिरसा में डी. फार्मेसी की पढ़ाई शुरू की उस समय एस. शमशेर सिंह जो कि उनके बड़े भाई हैं, पशु चिकित्सा निरीक्षक थे और अपने पिता के बाद खेती का काम संभालते थे। उस समय जब दोनों भाइयों ने पहली बार खेतीबाड़ी में एक अलग ढंग को अपनाया और उनके द्वारा अपनाये गए इस तकनिकी हुनर के कारण उनके परिवार को काफी अच्छा मुनाफ़ा हुआ।

जब अलग तरीके अपनाने के साथ मुनाफा हुआ तो मैंने 1984 में D फार्मेसी छोड़ने का फैसला कर लिया और खेतबाड़ी की तरह रुख किया- सिकंदर सिंह बराड़

1984 में D फार्मेसी छोड़ने के बाद उन्होंने खेतीबाड़ी करनी शुरू कर दी। उन्होंने सबसे पहले नरमे की अधिक उपज वाली किस्म की खेती करनी शुरू की।

इस तरह छोटे छोटे कदमों के साथ आगे बढ़ते हुए वह सब्जियों की खेती ही करते रहे, जहां पर उन्होंने 1987 में टमाटर की खेती आधे एकड़ में की और फिर बहुत सी कंपनी के साथ कॉन्ट्रैक्ट किए और अपने इस व्यवसाय को आगे से आगे बढ़ाते रहे।

1990 में विवाह के बाद उन्होंने आलू की खेती बड़े स्तर पर करनी शुरू की और विभिन्ता अपनाने के लिए 1997 में 5000 लेयर मुर्गियों के साथ पोल्ट्री फार्मिंग की शुरुआत की, जिसमें काफी सफलता हासिल हुई। इसके बाद उन्होंने अपने गांव के 5 ओर किसानों को पोल्ट्री फार्म के व्यवसाय को सहायक व्यवसाय के रूप में स्थापित करने के लिए उत्साहित किया, जिसके साथ उन किसानों को स्व निर्भर बनने में सहायता मिली। 2005 में उन्होंने 5 रकबे में किन्नू का बाग लगाया। इसके इलावा उन्होंने नैशनल सीड कारपोरेशन लिमिटेड के लिए 15 एकड़ जमीन में 50 एकड़ रकबे के लिए गेहूं के बीज तैयार किया।

मुझे हमेशा कीटनाशकों और नुकसानदेह रसायन के प्रयोग से नफरत थी, क्योंकि इसका प्रयोग करने के साथ शरीर को बहुत नुक्सान पहुंचता है- सिकंदर सिंह बराड़

सिकंदर सिंह बराड़ अपनी फसलों के लिए अधिकतर जैविक खाद का प्रयोग करते हैं। वह अब 20 एकड़ में आलू, 5 एकड़ में किन्नू और 30 एकड़ में गेहूं के बीजों का उत्पादन करते हैं। इसके साथ ही 2 एकड़ में 35000 पक्षियों वाला पोल्ट्री फार्म चलाते हैं।

बड़ी बड़ी कंपनी जिसमें पेप्सिको,नेशनल सीड कारपोरेशन आदि शामिल है, के साथ साथ काम कर सकते हैं, उन्हें पंजाब एग्रीकल्चर यूनिवर्सिटी, लुधियाना की तरफ से प्रमुख पोल्ट्री फार्मर के तौर पर सम्मानित किया गया। उन्हें बहुत से टेलीविज़न और रेडियो चैनल में आमंत्रित किया गया, ताकि खेती समाज में बदलाव, खोज, मंडीकरण और प्रबंधन संबंधी जानकारी ओर किसानों तक भी पहुँच सके।

वे राज्य, राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय स्तर पर कई खेती मेले और संस्था का दौरा कर चुके हैं।

भविष्य की योजना

सिकंदर सिंह बराड़ भविष्य में भी अपने परिवार के साथ साथ अपने काम को ओर आगे लेकर जाना चाहते हैं, जिसमें नए नए बदलाव आते रहेंगे।

संदेश

जो भी नए किसान खेतीबाड़ी में कुछ नया करना चाहते हैं, उन्हें चाहिए कि कुछ भी शुरू करने से पहले उससे संबंधित माहिर या संस्था से ट्रेनिंग ओर सलाह ली जाए। उसके बाद ही काम शुरू किया जाए। इसके इलावा जितना हो सके कीटनाशकों और रसायन से बचना चाहिए और जैविक खेती को अपनाने की कोशिश करनी चाहिए।

मलविंदर सिंह

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खेती के तरीकों को बदलकर क्रांति लेकर आने वाला यह प्रगतिशील युवा किसान

ज्यादातर इस दुनिया में कोई भी किसी का कहना नहीं मानता बेशक वह बात हमारी भलाई के लिए ही क्यों ना की जाए पर उसका अहसास बहुत समय बाद जाकर होता है, पर किसी द्वारा एक छोटी सी हंसी में ही बोली गई बात पर अमल करके अपने खेती के तरीके को बदल लेना, किसी ने सोचा नहीं था और क्या पता था कि एक दिन वह उसकी कामयाबी का ताज बनकर सिर पर सज जाएगा।

इस स्टोरी के द्वारा जिनकी बात करने जा रहे हैं उन्होंने आर्गेनिक तरीके को अपनाकर और फूड प्रोसेसिंग करके मंडीकरण में ऐसी क्रांति लेकर आए कि ग्राहकों द्वारा हमेशा ही उनके उत्पादों की प्रशंसा की गई, जो कि तब मलविंदर सिंह जो पटियाला जिले के रहने वाले हैं, उनकी तरफ से एक छोटे स्तर पर शुरू किया कारोबार था जो आज पूरे पंजाब, चंडीगढ़, हरियाणा और दिल्ली में बड़े स्तर पर फैल गया है।

आज कल की इस भागदौड़ की दुनिया में बीमार होना एक आम बात हो गई है इसी दौरान ही मलविंदर जी जब छोटे होते बीमार हुए जिसका कारण एलर्जी था तो उनके पिता दवाई लेने के लिए डॉक्टर के पास गए तो डॉक्टर ने दवाई देकर आगे से कहा कि भाई, कीटनाशक स्प्रे के उपयोग को घटाएं, यदि बीमारियों से छुटकारा पाना चाहते है। यह बात सुनकर मलविंदर के पिता जी के मन में बात इस तरह बैठ गई कि उन्होंने स्प्रेओं का उपयोग करना ही बंद कर दिया।

उसके बाद वे बिना स्प्रे से खेती करने लगे जिसमें गेहूं, बासमती, सरसों और दालें जो कि एक एकड़ में करते थे, जो 2014 में पूरी तरह जैविक हो गई और इस तरह खेती करते-करते बहुत समय हो गया था और वर्ष 2014 में ही मलविंदर के पिता जी स्वर्ग सिधार गए जिसका मलविंदर और उनके परिवार को बहुत ही ज्यादा दुख हुआ क्योंकि हर समय परछाई बनकर साथ रहने वाला हाथ सिर से सदा के लिए उठ गया था और घर की ज़िम्मेवारी संभालने वाले उनके पिता जी थे, उस समय मलविंदर अपने पढ़ाई कर रहे थे।

जब यह घटना घटी तो मलविंदर जी को कोई ख्याल नहीं था कि घर की पूरी ज़िम्मेवारी उन्हें ही संभालनी पड़नी है, जब थोड़े समय बाद घर में माहौल सही हुआ तो मलविंदर ने महसूस किया और पढ़ाई के साथ-साथ खेती में आ गए और कम समय में ही खेती को अच्छी तरह जानकर काम करने लगे जो कि बहुत हिम्मत वाली बात है, इस दौरान वे खेती संबंधी रिसर्च करते रहते थे क्योंकि एक पढ़ा लिखा नौजवान जब खेती में आता है तो वह कुछ ना कुछ परिवर्तन लेकर ही आएगा। मलविंदर ने वैसे तो पढ़ाई में बी ए, एम ए, एम फिल की हुई है।

मलविंदर जी जब रिसर्च कर रहे थे उस दौरान उन्हें फूड प्रोसेसिंग और मार्केटिंग करने का ख्याल आया, पर उसे वास्तविक रूप में लेकर नहीं आ रहे थे। उनके पास कुल 30 एकड़ ज़मीन हैऔर वे 2 भाई हैं, उस समय जब उन्होंने खेती को संभाला था तब वे एक एकड़ में ही स्प्रे रहित खेती करते थे जिसमें वे सिर्फ अपने घर के लिए ही उगा रहे थे पर कभी भी मार्केटिंग करने के बारे में सोचा नहीं था।

इस तरह खेती करते उन्हें 5 साल हो गए थे और उसके बाद सोचा कि अब की हुई रिसर्च को वास्तविक रूप में लेकर आने का समय आ गया है क्योंकि 2014 में वे पूरी तरह आर्गेनिक खेती करने लग गए थे, बेशक वे पहले भी स्प्रे रहित खेती करते थे पर अब पूरी तरह आर्गेनिक तरीकों से ही खेती कर रहे थे। मलविंदर ने सोचा कि यदि आर्गेनिक दालें, हल्दी, गेहूं और बासमती की प्रोसेसिंग करके बेचा जाए तो इस संबंधित देरी ना करते हुए सभी उत्पाद तैयार कर लिए क्योंकि आज कल बीमारियों ने घर-घर में राज़ कर लिया है जिस कारण हर कोई साफ, शुद्ध और देसी खाना चाहता है ताकि बीमारियों से बचा जा सके। यह ही मलविंदर की सबसे महत्तवपूर्ण धारणा थी पर इसलिए उस तरह के इंसान भी जरूरी थे जिन्हें इन सब उत्पादों की अहमियत के बारे में पता हो।

फिर मलविंदर ने अपने उत्पादों की मार्केटिंग करने के लिए एक ऐसा ही रास्ता सोचा कि जिससे उसके बारे में सभी को पता चल सके जो सोशल मीडिया थी वहां उन्होंने नीलोवालिया नैचुरल फार्म नाम से पेज बनाया और उत्पाद की फोटो खींच कर डालने लग गए और बहुत लोग उनसे जुड़ने लग गए पर किसी ने भी पहल नहीं की। इस संबंधी उन्होंने अपने रिश्तेदारों और दोस्तों से बात की जो शहर में रहते थे उनके साथ और भी बहुत लोग जुड़े हुए थे जो कि हमेशा अच्छे उत्पादों की मांग करते थे जो कि मलविंदर के लिए बहुत बड़ी सफलता थी। इसमें सभी जान पहचान वालों ने पूरा साथ दिया जिस तरह धीरे-धीरे करके उनके एक-एक उत्पाद की मार्केटिंग होने लग गई, जिससे बेशक उनके मार्केटिंग का काम चल पड़ा था और इस दौरान वे पढ़ाई भी साथ-साथ कर रहे थे और जब कॉलेज जाते थे वहां हमेशा ही उनके प्रोफेसर मलविंदर से बातचीत करते और फिर वे अपने आर्गेनिक उत्पादों के बारे में उन्हें बताने लग जाते जिससे उनके उत्पाद प्रोफेसर भी लेने लगे और मार्केटिंग में प्रसार होने लग गया।

इससे मलविंदर ने सोचा कि क्यों ना शहर के लोगों के साथ मीटिंग करके अपने उत्पादों के बारे में अवगत करवाया जाए जिसमें उनके प्रोफेसर, रिश्तेदारों और दोस्तों के द्वारा जो अच्छे तरीके से उन्हें जानते थे मीटिंग बुला ली। जब उन्होंने अपने उत्पादों के बारे में लोगों को अवगत करवाया तो एक-एक उत्पाद करके लेकर जाना शुरू कर दिया।

इस तरह करते हुए साल 2016 के अंत तक मलविंदर ने अपने साथ पक्के ग्राहक जोड़ लिए जो कि तकरीबन 80 के करीब हैं और हमेशा ही उनसे सामान लेते हैं और साथ ही उन्होंने अपने खेती में भी वृद्धि कर दी एक एकड़ से शुरू की खेती को 3 एकड़ में करना शुरू कर दिया जिससे उनका मार्केटिंग में इतनी जल्दी प्रसार हुआ कि जहां वे एक उत्पाद खरीदते थे वहीं उनके और उत्पाद की भी बिक्री होने लग गई।

2016 में मलविंदर जी कामयाब हुए और उस समय उन्होंने 2018 में सब्जियों की काश्त करनी भी शुरू कर दी, जिसकी बहुत ज्यादा मांग है साल 2021 तक आते आते उन्होंने 3 एकड़ की खेती को 8 एकड़ में फैला दिया जिसमें घर में हर एक उपयोग में आने वाली वस्तुएं उगाने लगे और उनकी प्रोसेसिंग करते हैं। इस दौरान एक ट्रॉली भी तैयार की हुई है जो कि पूरी तरह पोस्टर लगाकर सजाई हुई है और इसके साथ एक किसान हट भी खोली हुई है जहां सारा शुद्ध, साफ और आर्गेनिक सामान रखा हुआ है, उन्होंने प्रोसेसिंग करने के लिए मशीनें रखी हुई हैं और उत्पाद की बढ़िया तरीके से पैकिंग करके नीलोवालिया नैचुरल फार्म नाम से बेच रहे हैं।

जिससे जो काम उन्होंने पहले छोटे स्तर पर शुरू किया था उसके चर्चे अब पूरे पंजाब में है और पढ़े लिखे इस नौजवान ने साबित किया कि खेती केवल खेतों में मिट्टी से मिट्टी होना ही नहीं, बल्कि मिट्टी में से निकलकर लोगों के सामने निखर कर सामने लेकर आना और उसे रोजगार बनाना ही खेती है।

भविष्य की योजना

वे खेती में हर एक चीज़ का तज़ुर्बा करना चाहते हैं और मार्केटिंग चैनल बनाना चाहते हैं जिससे वे अपने और साथ के किसानों की सारी उपज स्वयं मंडीकरण करके बेच सकें और किसानों को अपनी मेहनत का मुल्य मिल सके।

संदेश

खेती बेशक करो पर वह करो जिससे किसी की सेहत के साथ खिलवाड़ ना हो और यदि हो सके तो ओरगैनिक खेती को ही पहल दें यदि खुशहाल इस दुनिया को देखना चाहते हैं और कोशिश करते रहें कि अपनी फसल स्वंय मंडीकरण करके बेच सकें।

तरनजीत संधू

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एक किसान जिसने अपने जीवन के 25 साल संघर्ष करते हुए और बागवानी के साथ-साथ अन्य सहायक व्यवसायों में कामयाब हुए- तरनजीत संधू

जीवन का संघर्ष बहुत विशाल है, हर मोड़ पर ऐसी कठिनाइयाँ आती हैं कि उन कठिनाइयों का सामना करते हुए चाहे कितने भी वर्ष बीत जाएँ,पता नहीं चलता। उनमें से कुछ ऐसे इंसान हैं जो मुश्किलों का सामना करते हैं लेकिन मन ही मन में हारने का डर बैठा होता है, लेकिन फिर भी साहस के साथ जीवन की गति के साथ पानी की तरह चलते रहते हैं, कभी न कभी मेहनत के समुद्र से निकल कर बुलबुले बन कर किसी के लिए एक उदाहरण बनेंगे।

जिंदगी के मुकाम तक पहुँचने के लिए ऐसे ही एक किसान तरनजीत संधू, गांव गंधड़, जिला श्री मुक्तसर के रहने वाले हैं, जो लगातार चलते पानी की तरह मुश्किलों से लड़ रहे हैं, पर साहस नहीं कम हुआ और पूरे 25 सालों बाद कामयाब हुए और आज तरनजीत सिंह संधू ओर किसानों और लोगों को मुश्किलों से लड़ने के लिए प्रेरित कर रहे हैं।

साल 1992 की बार है तरनजीत की आयु जब छोटी थी और दसवीं कक्षा में पड़ते थे, उस दौरान उनके परिवार में एक ऐसी घटना घटी जिससे तरनजीत को छोटी आयु में ही घर की पूरी जिम्मेवारी संभालने के लिए मजबूर कर दिया, जोकि एक 17-18 साल के बच्चे के लिए बहुत मुश्किल था क्योंकि उस समय उनके पिता जी का निधन हो गया था और उनके बाद घर संभालने वाला कोई नहीं था। जिससे तरनजीत पर बहुत सी मुश्किलें आ खड़ी हुई।

वैसे तरनजीत के पिता शुरू से ही पारंपरिक खेती करते थे पर जब तरनजीत को समझ आई तो कुछ अलग करने के बारे में सोचा कि पारंपरिक खेती से हट कर कुछ अलग किया जाए और कुछ अलग पहचान बनाई जाए। उन्होंने सोच रखा था कि जिंदगी में कुछ ऐसा करना है जिससे अलग पहचान बने।

तरनजीत के पास कुल 50 एकड़ जमीन है पर अलग क्या उगाया जाए कुछ समझ नहीं आ रहा था, कुछ दिन सोचने के बाद ख्याल आया कि क्यों न बागवानी में ही कामयाबी हासिल की जाए। फिर तरनजीत जी ने बेर के पौधे मंगवा कर 16 एकड़ में उसकी खेती तो कर दी, पर उसके लाभ हानि के बारे में नहीं जानते थे, बेशक समझ तो थी पर जल्दबाजी ने अपना असर थोड़े समय बाद दिखा दिया।

उन्होंने न कोई ट्रेनिंग ली थी और न ही पौधों के बारे में जानकारी थी, जिस तरह से आये थे उसी तरह लगा दिए, उन्हें न पानी, न खाद किसी चीज के बारे में जानकारी नहीं थी। जिसका नुक्सान बाद में उठाना पड़ा क्योंकि कोई भी समझाने वाला नहीं था। चाहे नुक्सान हुआ और दुःख भी बहुत सहा पर हार नहीं मानी।

बेर में असफलता हासिल करने के बाद फिर किन्नू के पौधे लाकर बाग़ में लगा दिए, पर इस बार हर बात का ध्यान रखा और जब पौधे को फल लगना शुरू हुआ तो वह बहुत खुश हुए।

पर यह ख़ुशी कुछ समय के लिए ही थी क्योंकि उन्हें इस तरह लगा कि अब सब कुछ सही चल रहा है क्यों न एक बार में पूरी जमीन को बाग़ में बदल दिया जाए और यह चीज उनकी जिंदगी में ऐसा बदलाव लेकर आई जिससे उन्हें बहुत मुश्किल समय में से गुजरना पड़ा।

बात यह थी कि उन्होंने सोचा इस तरह यदि एक-एक फल के पौधे लगाने लगा तो बहुत समय निकल जाएगा। फिर उन्होंने हर तरह के फल के पौधे जिसमें अमरुद, मौसमी फल, अर्ली गोल्ड माल्टा, बेर, कागजी नींबू, जामुन के पौधे भरपूर मात्रा में लगा दिए। इसमें उनका बहुत खर्चा हुआ क्योंकि पौधे लगा तो लिए थे पर उनकी देख-रेख उस तरीके से करने लिए बैंक से काफी कर्जा लेना पड़ा। एक समय ऐसा आया कि उनके पास खर्चे के लिए भी पैसे नहीं थे। ऊपर से बच्चे की स्कूल की फीस, घर संभालना उन्हीं पर था।

कुछ समय ऐसा ही चलता रहा और समय निकलने पर फल लगने शुरू हुए तो उन्हें वह संतुष्ट हुए पर जब उन्होंने अपने किन्नू के बाग़ ठेके पर दे दिए तो बस एक फल के पीछे 2 से 3 रुपए मिल रहे थे।

16 साल तक ऐसे ही चलता रहा और आर्थिक तौर पर उन्हें मुनाफा नहीं हो रहा था। साल 2011 में जब समय अनुसार फल पक रहे तो उनके दिमाग में आया इस बार बाग़ ठेके पर न देकर खुद मार्किट में बेच कर आना है। जब वह जिला मुक्तसर साहिब की मार्किट में बेचने गए तो उन्हें बहुत मुनाफा हुआ और वह बहुत खुश हुए।

तरनजीत ने जब इस तरह से पहली बार मार्किट की तो उन्हें यह तरीका बहुत बढ़िया लगा, इसके बाद उन्होंने ठेके पर दिया बाग़ वापिस ले लिया और खुद निश्चित रूप से मार्केटिंग करने के बारे में सोचा। फिर सोचा मार्केटिंग आसानी से कैसे हो सकती है, फिर सोचा क्यों न एक गाडी इसी के लिए रखी जाए जिसमें फल रख कर मार्किट जाया जाए। फिर साल 2011 से वह गाडी में फल रख कर मार्किट में लेकर जाने लगे, जिससे उन्हें दिन प्रतिदिन मुनाफा होने लगा, जब यह सब सही चलने लगा तो उन्होंने इसे बड़े स्तर पर करने के लिए अपने साथ पक्के बंदे रख लिए, जो फल की तुड़ाई और मार्किट में पहुंचाते भी है।

जो फल की मार्केटिंग श्री मुक्तसर साहिब से शुरू हुई थी आज वह चंडीगढ़, लुधियाना, बीकानेर, दिल्ली आदि बड़े बड़े शहरों में अपना प्रचार कर चुकी है जिससे फल बिकते ही पैसे अकाउंट में आ जाते हैं और आज वह बाग़ की देख रेखन करते हैं और घर बैठे ही मुनाफा कमा रहे हैं जो उनके रोजाना आमदन का साधन बन चुकी है।

तरनजीत ने सिर्फ बागवानी के क्षेत्र में ही कामयाबी हासिल नहीं की, बल्कि साथ-साथ ओर सहायक व्यवसाय जैसे बकरी पालन, मुर्गी पालन में भी कामयाब हुए हैं और मीट के अचार बना कर बेच रहे हैं। इसके इलावा सब्जियों की खेती भी कर रहे हैं जोकि जैविक तरीके के साथ कर रहे हैं। उनके फार्म पर 30 से 35 आदमी काम करते हैं, जो उनके परिवार के लिए रोजगार का जरिया भी बने हैं। उसके साथ वह टूरिस्ट पॉइंट प्लेस भी चला रहे हैं।

इस काम के लिए उन्हें PAU, KVK और कई संस्था की तरफ से उन्हें बहुत से अवार्ड द्वारा सम्मानित किया जा चूका है।

यदि तरनजीत आज कामयाब हुए हैं तो उसके पीछे उनकी 25 साल की मेहनत है और किसी भी समय उन्होंने कभी हार नहीं मानी और मन में एक इच्छा थी कि कभी न कभी कामयाबी मिलेगी।

भविष्य की योजना

वह बागवानी को पूरी जमीन में फैलाना चाहते हैं और मार्केटिंग को ओर बड़े स्तर पर करना चाहते हैं, जहां भारत के कुछ भाग में फल बिक रहा है, वह भारत के हर एक भाग में फल पहुंचना चाहते हैं।

संदेश

यदि मुश्किलें आती है तो कुछ अच्छे के लिए आती है, खेती में सिर्फ पारंपरिक खेती नहीं है, इसके इलावा ओर भी कई सहायक व्यवसाय है जिसे कर कामयाब हुआ जा सकता है।

अमरजीत सिंह ढिल्लों

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आखिर क्यों एम.टैक की पढ़ाई बीच में छोड़कर यह नौजवान करने लगा खेती?

हर माता-पिता का सपना होता है उनके बच्चे पढ़-लिखकर किसी अच्छी नौकरी पर लग जाएं ताकि उनका भविष्य सुरक्षित हो जाये। ऐसा ही सपना अमरजीत सिंह ढिल्लों के माता-पिता का था। इसलिए उन्होंने ने अपने बेटे के बढ़िया भविष्य के लिए उसे बढ़िया स्कूल में पढ़ाया और उच्च शिक्षा के लिए उन्होंने दाखिला बी.टेक मैकेनिकल में करवाया। मैकेनिकल इंजीनियर में ग्रेजुएशन करने के बाद अमरजीत ने एम.टेक करने का फैसला किया और अपना दाखिला भी करवा लिया। पर एम.टेक की पढ़ाई में उनकी कोई ख़ास दिलचस्पी नहीं थी, इसलिए उन्होंने पढ़ाई बीच ही छोड़ने का फैसला किया।

अमरजीत जी के परिवार के पास 24 एकड़ ज़मीन थी, जिस पर उनके पिता जी और भाई पारंपरिक खेती करते हैं। एक साल तक अमरजीत जी भी अपने पिता के साथ खेती करते रहे, पर नौजवान होने के कारण अमरजीत पारंपरिक खेती के चक्र में नहीं फसना चाहते थे। कृषि के बारे में अपने ज्ञान को अधिक बढ़ाने के लिए उन्होंने पंजाब एग्रीकल्चर यूनिवर्सिटी, लुधियाना जाना शुरू कर दिया।

उन्होंने ने पीएयू में यंग फार्मर कोर्स दाखिला लिया। कोर्स पूरा होने के बाद उन्होंने बागवानी फसल करने का फैसला किया। सबसे पहले उन्होंने अपने फार्म जिसका नाम “ग्रीन एनर्जी फार्म” है,  में फलों की खेती शुरू की।। वह बाद में साथ-साथ सब्जियां, फूलों की खेती और मधु मक्खी पालन का काम भी करने लगे।

“मैंने एक साल के अंदर-अंदर यह सब छोड़कर केवल फलों और सब्जियों की खेती करने का फैसला किया, क्योंकि फलों और सब्जियों का मंडीकरण आसानी से एक ही मंडी में हो जाता है। इसमें दुकानदारी की तरह रोज़ाना कमाई हो जाती है” – अमरजीत सिंह ढिल्लों

अमरजीत जी ने पूरे साल के लिए एक टाइम-टेबल बनाया, जिसके अनुसार वह अलग-अलग महीने बोई हुई फसलों की कटाई करते हैं।

अमरजीत जी जैविक खेती नहीं करते, पर वह सबसे पहले जैविक तरीकों से कीड़ों और बिमारियों पर नियंत्रण करने की कोशिश करते हैं और ज़रूरत पड़ने पर पीएयू की तरफ से सिफारिश की गई स्प्रे का प्रयोग सिफारिश मात्रा में ही करते हैं। आज भी अमरजीत के.वी.के. और यूनिवर्सिटी और जिला स्तर ट्रेनिंग में भी हिस्सा लेते हैं। आज भी यहाँ अमरजीत जी कोई भी समस्या आती है तो वह पीएयू के माहिरों की सलाह लेते हैं।

“मेरे अनुसार, फल तोड़ने के बाद पौधों पर स्प्रे करनी चाहिए ताकि तोड़ाई और स्प्रे के समय में 24 से 48 घंटे का फासला हो “– अमरजीत सिंह ढिल्लों
उपलब्धियां
अमरजीत जी ने राज्य स्तर और राष्ट्रीय स्तर पर बहुत से सन्मान हासिल किये हैं, जिनमें से कुछ नीचे दिए गए हैं:
  • पीएयू की तरफ से मुख्य मंत्री पुरस्कार (2006)
  • आत्मा की तरफ से राज्य स्तरीय पुरस्कार (2009)
  • एग्रीकल्चर समिट चप्पड़चिड़ी में स्टेट पुरस्कार
  • इंटरनेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ़ वेजिटेबल रिसर्च की तरफ से ज़ोनल पुरस्कार (2018)
  • IARI की तरफ से इनोवेटिव फार्मर पुरस्कार (नेशनल अवार्ड 2018)
भविष्य की योजना

भविष्य में अमरजीत सिंह ढिल्लों अपना पूरा ध्यान फलों और सब्जियों की सेल्फ मार्केटिंग और प्रोसेसिंग पर केंद्र करना चाहते हैं।

संदेश
“बागवानी क्षेत्र में आने के चाहवान नौजवानों को अच्छी तरह पढ़ाई करके और ट्रेनिंग लेकर खेती की तरफ अपना ध्यान केंद्रित करना चाहिए। छोटे स्तर पर खेती करनी शुरू करनी चाहिए, किसी की बातों में आकर शुरू में ही ज़्यादा पैसे का निवेश नहीं करना चाहिए। खेतीबाड़ी से संबंधित किताबें पड़नी चाहिए और हमेशा सीखते रहना चाहिए।”

कुलविंदर सिंह नागरा

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अच्छे वर्तमान और भविष्य की उम्मीद से कुलविंदर सिंह नागरा मुड़े कुदरती खेती के तरीकों की ओर

उम्मीद एकमात्र सकारात्मक भावना है जो किसी व्यक्ति को भविष्य के बारे में सोचने की ताकत देती है, भले ही इसके बारे में सुनिश्चित न हो। और हम जानते हैं कि जब हम बेहतर भविष्य के बारे में सोचते है तो कुछ नकारात्मक परिणामों को जानने के बावजूद भी हमारे कार्य स्वचालित रूप से जल्दी हो जाते हैं। ऐसा ही कुछ जिंला संगरूर के गांव नागरा के एक प्रगतिशील किसान कुलविंदर सिंह नागरा के साथ हुआ जिनकी उम्मीद ने उन्हें कुदरती खेती की तरफ बढ़ाया।

“जैविक खेती में करने से पहले, मुझे पता था कि मुझे लगातार दो साल तक नुकसान का सामना करना पड़ेगा। इस स्थिति से अवगत होने के बाद भी मैंने कुदरती ढंगों को अपनाने का फैसला किया। क्योंकि मेरे लिए मेरा परिवार और आसपास का वातावरण पैसे कमाने से ज्यादा महत्वपूर्ण हैं। इसके अलावा, मैं अपने परिवार और खुद के लिए कमा रहा हूं, क्या होगा यदि इतने पैसे कमाने के बाद भी मैं अपने परिवार को स्वस्थ रखने में योग्य नहीं… तब सब कुछ व्यर्थ है।”

खेती की पृष्ठभूमि से आने पर कुलविंदर सिंह नागरा ने अपने पिता के नक्शेकदम पर चलने का का फैसला किया। 1997 में, अपनी मैट्रिक की पढ़ाई पूरी करने के बाद, उन्होंने अपने परिवार की पुरानी तकनीकों को अपनाकर धान और गेहूं की खेती करनी शुरू की। 2000 तक, उन्होंने 10 एकड़ भूमि में गेहूं और धान की खेती जारी रखी और एक एकड़ में मटर, प्याज, लहसुन और लौकी जैसी कुछ सब्ज़ियां उगायी । लेकिन वह गेहूं और धान से संतुष्ट नहीं थे। इसलिए धीरे-धीरे उन्होंने सब्जी की खेती के क्षेत्र को एक एकड़ से 7 एकड़ तक और किन्नू और अमरूद को 1½ एकड़ में उगाना शुरू किया।

“किन्नू कम सफल था लेकिन अमरूद ने अच्छा मुनाफा दिया और मैं इसे भविष्य में भी जारी रखूगा।”

बागवानी में सफलता के अनुभव ने कुलविंदर सिंह नागरा के आत्मविश्वास को बढ़ाया और तेजी से उन्होंने अपनी कृषि गतिविधियों को, और अधिक लाभ कमाने के लिए विस्तारित किया। उन्होंने सब्जी की खेती से लेकर नर्सरी की तैयारी तक सब कुछ करना शुरू कर दिया। 2008-2009 में उन्होंने शाहबाद मारकंडा , सिरसा और पंजाब के बाहर विभिन्न किसान मेलों में मिर्च, प्याज, हलवा कद्दू, करेला, लौकी, टमाटर और बेल की नर्सरी बेचना शुरू कर दिया।

2009 में उन्होंने अपनी खेती तकनीकों को जैविक में बदलने का विचार किया, इसलिए उन्होंने कुदरती खेती की ट्रेनिंग पिंगलवाड़ा से ली, जहां पर किसानों को ज़ीरो बजट पर कुदरती खेती की मूल बातें सिखाई गईं। एक सुरक्षित और स्थिर शुरुआत को ध्यान में रखते हुए कुलविंदर सिंह नागरा ने 5 एकड़ के साथ कुदरती खेती शुरू की।

वह इस तथ्य से अच्छी तरह से अवगत थे कि कीटनाशक और रासायनिक उपचार भूमि को जैविक में परिवर्तित करने में काफी समय लग सकता है और वह शुरुआत में कोई लाभ नहीं कमाएंगे। लेकिन उन्होंने कभी भी शुरुआत करने से कदम पीछे नहीं उठाया, उन्होंने अपने खेती कौशल को बढ़ाने का फैसला किया और उन्होंने फूड प्रोसेसिंग, मिर्च और खीरे के हाइब्रिड बीज उत्पादन, सब्जियों की नैट हाउस में खेती और ग्रीन हाउस प्रबंधन के लिए विभिन्न क्षेत्रों में ट्रेनिंग ली । लगभग दो वर्षों के बाद, उन्होंने न्यूनतम लाभ प्राप्त करना शुरू किया।

“मंडीकरण मुख्य समस्या थी जिस का मैंने सबसे ज्यादा सामना किया था चूंकि मैं नौसिखिया था इसलिए मंडीकरण तकनीकों को समझने में कुछ समय लगा। 2012 में, मैंने सही मंडीकरण तकनीकों को अपनाया और फिर सब्जियों को बेचना मेरे लिए आसान हो गया।”

कुलविंदर सिंह नागरा ने प्रकृति के लिए एक और कदम उठाया वह था पराली जलाना बंद करना। आज पराली को जलाना प्रमुख समस्याओ में से एक है जिस का पंजाब सामना कर रहा है और यह विश्व स्तर का प्रमुख मुद्दा भी है। पंजाब और हरियाणा में किसान धन बचाने के लिए पराली जला रहे है, पर कुलविंदर सिंह नागरा ने पराली जलाने की बजाय इस की मल्चिंग और खाद बनाने के लिए इस्लेमाल किया।

कुलविंदर सिंह नागरा खेती के क्षेत्र में आगे बढ़ने के लिए हैप्पी सीडर, किसान, बैड्ड, हल, रीपर और रोटावेटर जैसे आधुनिक और नवीनतम पर्यावरण-अनुकूल उपकरणों को पहल देते हैं।

वर्तमान में, वे 3 एकड़ पर गेहूं, 2 एकड़ पर चारे वाली फसलें, सब्जियां (मिर्च, शिमला मिर्च, खीरा, पेठा, तरबूज, लौकी, प्याज, बैंगन और लहसुन) 6 एकड़ पर और और फल जैसे आड़ू, आंवला और 1 एकड़ पर किन्नू की खेती करते हैं। वह अपने खेत पर पानी का सही उपयोग करने के लिए ड्रिप सिंचाई का उपयोग करते हैं।

वे अपनी कृषि गतिविधियों का समर्थन करने के लिए डेयरी फार्मिंग भी कर रहे है। उनके पास उनके बाड़े में 12 पशू हैं, जिनमें मुर्रा भैंस, नीली रावी और साहीवाल शामिल है। इनका दूध उत्पादन प्रति दिन 90 से 100 किलो है, जिससे वह बाजार में 70-75 किलोग्राम दूध बेचते हैं और शेष घर पर इस्तेमाल करते हैं । अब, मंडीकरण एक बड़ी समस्या नहीं है, वे संगरूर, सुनाम और समाना मंडी में सभी जैविक सब्जियां बेचते हैं। व्यापारी फल खरीदने के लिए उनके फार्म पर आते हैं और इस प्रकार वे अपने फसल उत्पादों की अच्छी कीमत कमा रहे हैं।

वे अपनी सभी उपलब्धियों का श्रेय पंजाब खेतीबाड़ी यूनिवर्सिटी और अपने परिवार को देते हैं। आज, वे एक ऐसे व्यक्ति हैं जो दूसरों को अपनी कुदरती सब्जियों की खेती के कौशल के साथ प्रेरित करते है और उन्हें इस पर गर्व है। सब्जियों की कुदरती खेती के क्षेत्र में उनके काम के लिए, उन्हें कई पुरस्कार और प्रशंसा मिली, और उनमें से कुछ है…

• 19 फरवरी 2015 को सूरतगढ़ (राजस्थान) में भारत के माननीय प्रधान मंत्री नरेंद्र मोदी द्वारा प्रगतिशील किसान का कृषि कर्मण पुरस्कार प्राप्त किया।

• संगरूर के डिप्टी कमिश्नर श्री कुमार राहुल द्वारा ब्लॉक लेवल अवॉर्ड प्राप्त किया।

• पंजाब एग्रीकल्चर यूनिवर्सिटी, लुधियाना से पुरस्कार प्राप्त किया।

• कृषि निदेशक, पंजाब से पुरस्कार प्राप्त किया।

• सर्वोत्तम सब्जी की किस्म की खेती में कई बार पहला और दूसरा स्थान हासिल किया।

खैर, ये पुरस्कार उनकी उपलब्धियों को उल्लेख करने के लिए कुछ ही हैं। कृषि समाज में उन्हें मुख्य रूप से उनके काम के लिए जाना जाता है।

कृषि के क्षेत्र में किसानों को मार्गदर्शन करने के लिए अक्सर उनके फार्म हाउस पर वे के वी के और पी ए यू के माहिरों को आमंत्रित करते हैं कि वे फार्म पर आये और कृषि संबंधित उपयोगी जानकारी सांझा करें, साथ ही साथ किसानों के बीच में वार्तालाप भी करवाते हैं ताकि किसान एक दूसरे से सीख सकें। उन्होंने वर्मीकंपोस्ट प्लांट भी स्थापित किया है वे अंतर फसली और लो टन्नल तकनीक अपनाते हैं, मधुमक्खीपालन करते हैं। कुछ क्षेत्रों में गेहूं की बिजाई बैड पर करते हैं। नो टिल ड्रिल हैपी सीडर का इस्तेमाल करके गेहूं की खेती करते हैं, धान की रोपाई से पहले ज़मीन को लेज़र लेवलर से समतल करते हैं, मशीनीकृत रोपाई करते हैं। एकीकृत कीट प्रबंधन और एकीकृत निमाटोड प्रबंधन करते हैं।

कृषि तकनीकों को अपनाने का प्रभाव:

विभिन्न कृषि तकनीकों को लागू करने के बाद, उनके गेहूं उत्पादन ने देश भर में उच्चतम गेहूं उत्पादन का रिकॉर्ड बनाया जो कुदरती खेती के तरीकों से 2014 में प्रति हेक्टेयर 6456 किलोग्राम था और इस उपलब्धि के लिए उन्हें कृषि कर्मण अवार्ड से सम्मानित किया गया। उनके आस पास रहने वाले किसानों के लिए वे प्रेरक हैं और वातावरण अनुकूलन तकनीकों को अपनाने के लिए किसान अक्सर उनकी सलाह लेते है।

भविष्य की योजना:
भविष्य में, कुलविंदर सिंह नागरा सब्जियों को विदेशों निर्यात करने की बना रहे हैं।
संदेश
“जो किसान अपने कर्ज और जिम्मेदारियों के बोझ से राहत पाने के लिए आत्मघाती पथ लेने का विकल्प चुनते हैं उन्हें ऐसा करने से रोकना चाहिए। भगवान ने हमारे जीवन के लक्ष्यों को प्राप्त करने के लिए कई अवसर और क्षमताओं को दिया है और हमें इस अवसर को कभी भी छोड़ना चाहिए।”

अंग्रेज सिंह भुल्लर

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कैसे इस किसान के बिगड़ते स्वास्थ्य ने उसे अपनी गल्ती सुधारने और जैविक खेती को अपनाने के लिए उकसाया

गिदड़बाहा के इस 53 वर्षीय किसान- अंग्रेज सिंह भुल्लर ने अपनी गल्तियों को पहचानने के बाद कि उसने क्या बनाया और कैसे यह उसके स्वास्थ्य को प्रभावित कर रहा है, अपने जीवन का सबसे प्रबुद्ध फैसला लिया।

4 वर्ष की युवा उम्र में अंग्रेज सिंह भुल्लर ने अपने पिता को खो दिया। उसके परिवार की स्थितियां दिन प्रतिदिन बिगड़ती जा रही थी क्योंकि उनके परिवार में कोई रोटी कमाने वाला नहीं था। उन्हें पैसे भी रिश्तेदारों को अपनी ज़मीन किराये पर देकर मिल रहे थे। परिवार में उनकी दो बड़ी बहनें थी और अपने परिवार की जरूरतों को पूरा करना उनकी मां के लिए दिन प्रतिदिन बहुत मुश्किल हो रहा था। बिगड़ती वित्तीय परिस्थितियों के कारण, अंग्रेज सिंह को 9वीं कक्षा तक शैक्षिक योग्यता प्राप्त हुई और उनकी बहनें कभी स्कूल नहीं गई।

स्कूल छोड़ने के बाद अंग्रेज सिंह ने कुछ समय अपने अंकल के फार्म पर बिताया और उनसे खेती की कुछ तकनीकें सीखीं। 1989 तक ज़मीन रिश्तेदारों के पास किराये पर थी। लेकिन उसके बाद अंग्रेज सिंह ने परिवार की ज़िम्मेदारी लेने का बड़ा फैसला लिया। इसलिए उन्होंने अपनी ज़मीन वापिस लेने का निर्णय लिया और इस पर खेती शुरू की।

अपने अंकल से उन्होंने जो कुछ सीखा और गांव के अन्य किसानों को देखकर उन्होंने रासायनिक खेती शुरू की। उन्होंने अच्छी कमाई करनी शुरू की और अपने परिवार की वित्तीय स्थिति में सुधार हुआ। जल्दी ही कुछ समय बाद उन्होंने शादी की और एक सुखी परिवार का जीवन जी रहे थे।

लेकिन 2006 में वे बीमार पड़ गये और प्रमुख स्वास्थ्य समस्याओं से पीड़ित हो गए। इससे पहले वे इस समस्या को हल्के ढंग से लेते थे लेकिन डॉक्टर की जांच के बाद उन्हें पता चला कि उनकी आंत में सोजिश आ गई है जो कि भविष्य में गंभीर समस्या बन सकती है। उस समय बहुत से लोग उनके स्वास्थ्य के बारे में पूछने के लिए आते थे और किसी ने उन्हें बताया कि स्वास्थ्य बिगड़ने का कारण खेती में रसायन का उपयोग करना है और आपको जैविक खेती शुरू करनी चाहिए।

हालांकि कई लोगों ने उन्हें इलाज के लिए काफी चीज़ें करने को कहा लेकिन एक बात जिसने मजबूती से उनके दिमाग में दस्तक दी वह थी जैविक खेती शुरू करना। उन्होंने इस मसले को काफी गंभीरता से लिया और 2006 में 2.5 एकड़ की भूमि पर जैविक खेती शुरू की उन्होंने गेहूं, सब्जियां, फल, नींबू, अमरूद, गन्ना और धान उगाना शुरू किया और इससे अच्छा लाभ प्राप्त किया। अपने लाभ को दोगुना करने के लिए उन्होंने स्वंय ही उत्पादों की प्रोसेसिंग शुरू की और बाद में उन्होंने गन्ने से गुड़ बनाना शुरू किया । उन्होंने हाथों से ही गुड़ बनाने की विधि को अपनाया क्योंकि वह इस उद्यम को अपने दम पर शुरू कर रहे थे। शुरूआत में वे अनिश्चित थे कि उन्हें इसका कैसा फायदा होगा लेकिन धीरे धीरे गांव के लोगों ने गुड़ को पसंद करना शुरू कर दिया। धीरे धीरे गुड़ की मांग एक स्तर तक बढ़ी जिससे उन्होंने एडवांस बुकिंग पर गुड़ बनाना शुरू किया। कुछ समय बाद उन्होंने अपने खेत में वर्मीकंपोस्टिंग प्लांट लगाया ताकि वे घर पर बनी खाद से अच्छी उपज ले सकें।

उन्होंने कई पुरस्कार, उपलब्धियां प्राप्त की और कई ट्रेनिंग कैंप में हिस्सा लिया| उनमें से कुछ निम्नलिखित हैं।
• 1979 में 15 से 18 नवंबर के बीच उन्होंने जिला मुक्तसर विज्ञान मेले में भाग लिया।
• 1985 में वेरका प्लांट बठिंडा द्वारा आयोजित Artificial Insemination के 90 दिनों की ट्रेनिंग में भाग लिया।
• 1988 में पी.ए.यू, लुधियाना द्वारा आयोजित हाइब्रिड बीजों की तैयारी के 3 दिनों की ट्रेनिंग में भाग लिया।
• पतंजली योग समिती में 9 जुलाई से 14 जुलाई 2009 में भाग लेने के लिए योग शिक्षक की ट्रेनिंग के लिए प्रमाण पत्र मिला।
• 28 सितंबर 2012 में खेतीबाड़ी विभाग, पंजाब के निदेशक से प्रशंसा पत्र मिला।
• 9 से 10 सितंबर 2013 को आयोजित Vibrant Gujarat Global Agricultural सम्मेलन में भाग लिया।
• कुदरती खेती और पर्यावरण मेले के लिए प्रशंसा पत्र मिला जिसमें 26 जुलाई 2013 को खेती विरासत मिशन द्वारा मदद की गई थी।
• खेतीबाड़ी विभाग जिला श्री मुक्तसर साहिब पंजाब द्वारा आयोजित Rabi Crops Farmer Training Camp में भाग लेने के लिए 21 सितंबर 2014 को Agricultural Technology Management Agency (ATMA) द्वारा राज्य स्तर पर प्रशंसा पत्र प्राप्त किया।
• 21 सितंबर 2014 को खेतीबाड़ी विभाग, श्री मुक्तसर साहिब द्वारा State Level Farmer Training Camp के लिए प्रशंसा पत्र मिला।
• 12 -14 अक्तूबर 2014 को पी ए यू द्वारा आयोजित Advance training course of Bee Breeding 7 Mass Bee Rearing Technique में भाग लिया।
• Sarkari Murgi Sewa Kendra, Kotkapura में पशु पालन विभाग, पंजाब द्वारा आयोजित 2 सप्ताह की पोल्टरी फार्मिंग ट्रेनिंग में भाग लिया।
• National Bee Board द्वारा मक्खीपालक के तौर पर पंजीकृत हुए।
• CRI पुरस्कार मिला|
• KVK, गोनिआना द्वारा आयोजित Kharif Crop Farming के 1 दिन की ट्रेनिंग कैंप में भाग लिया।
• PAU Ludhiana द्वारा आयोजित 10 दिनों की मक्खी पालन की ट्रेनिंग में भाग लिया।
• KVK, गोनिआना द्वारा आयोजित 1 दिन की Pest Control in Grains stored in Storehouse की ट्रेनिंग में भाग लिया।
• Department of Rural Development, NITTTR, Chandigarh द्वारा आयोजित Organic & Herbal Products Mela में भाग लिया।
• PAMETI (Punjab Agriculture Management & Extension Training Institute), PAU द्वारा आयोजित workshop training programme- “MARKET LED EXTENSION” में भाग लिया।
अंग्रेज सिंह भुल्लर पंजाब के वे भविष्यवादी किसान है जो जैविक खेती की महत्तता को समझते हैं। आज खराब पर्यावरण परिस्थितियों से निपटने के लिए हमें उनके जैसे अधिक किसानों की जरूरत है।

किसानों को संदेश

यदि हम अब जैविक खेती शुरू नहीं करते है तो यह हमारी भविष्य की पीढ़ी के लिए बड़ी समस्या होगी।

हरतेज सिंह मेहता

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जैविक खेती के लिए दूसरों को प्रोत्साहित करके बेहतर भविष्य के लिए एक आधार स्थापित कर रहे हैं

पहले जैविक एक ऐसा शब्द था जिसका प्रयोग बहुत कम किया जाता था। बहुत कम किसान थे जो जैविक खेती करते थे और वह भी घरेलु उद्देश्य के लिए। लेकिन समय के साथ लोगों को पता चला कि हर चमकीली सब्जी या फल अच्छा दिखता है लेकिन वह स्वास्थ्य के लिए अच्छा नहीं होता।

यह कहानी है – हरतेज सिंह मेहता की जिन्होंने 10 वर्ष पहले एक बुद्धिमानी वाला निर्णय लिया और वे इसके लिए बहुत आभारी भी हैं। हरतेज सिंह मेहता के लिए, जैविक खेती को जारी रखने का निर्णय उनके द्वारा लिया गया एक सर्वश्रेष्ठ निर्णय था और आज वे अपने क्षेत्र (मेहता गांव – बठिंडा) में जैविक खेती करने वाले एक प्रसिद्ध किसान हैं।

पंजाब के मालवा क्षेत्र, जहां पर किसान अच्छी उत्पादकता प्राप्त करने के लिए कीटनाशक और रसायनों का प्रयोग बहुत उच्च मात्रा में करते हैं। वहीं, हरतेज सिंह मेहता ने प्रकृति के साथ तालमेल बनाकर रखने को चुना। वे बचपन से ही अपने पैतृक व्यवसायों के प्रति समर्पित है और उनके लिए अपनी उपलब्धियों के बारे में फुसफुसाने से अच्छा, एक साधारण जीवन व्यतीत करना है।

उच्च योग्यता (एम.ए. पंजाबी, एम.ए. पॉलिटिकल साइंस) होने के बावजूद, उन्होंने शहरी जीवन और सरकारी नौकरी की बजाय जैविक खेती करने को चुना। वर्तमान में उनके पास 11 एकड़ ज़मीन है जिसमें वे कपास, गेहूं, सरसों, गन्ना, मसूर, पालक , मेथी, गाजर, मूली, प्याज, लहसुन और लगभग सभी सब्जियां उगाते हैं। वे हमेशा अपने खेतों को कुदरती तरीकों से तैयार करना पसंद करते हैं जिसमें कपास (F 1378), गेहूं (1482) और बंसी नाम के बीज अच्छे परिणाम देते हैं।

“अंसतोष, निरक्षरता और किसानों की उच्च उत्पादकता की इच्छा रासायनिक खादों और कीटनाशकों का उपयोग करने के लिए प्रेरित करती है, जिसके कारण किसान जो कि उद्धारकर्त्ता के रूप में जाने जाते हैं वे अब समाज को विष दे रहे हैं। आजकल किसान कीट प्रबंधन के लिए कीटनाशकों और रसायनों का इस्तेमाल करते हैं जो मिट्टी के मित्र कीटों और उपजाऊपन को नुकसान पहुंचाते हैं। वे इस बात से अवगत नहीं हैं कि वे अपने खेत में रसायनों को उपयोग करके पूरी खाद्य श्रंख्ला को विषाक्त बना रहे हैं। इसके अलावा, रसायनों और कीटनाशकों का उपयोग करके वे ना केवल पर्यावरण की स्थिति को बिगाड़ रहे हैं बल्कि कर्ज में बढ़ोतरी के कारण प्रमुख आर्थिक नुकसान का भी सामना कर रहे हैं।”– हरतेज सिंह ने कहा।

मेहता जी हमेशा खेती के लिए कुदरती ढंग को अपनाते हैं और जब भी उन्हें कुदरती खेती के बारे में जानकारी की आवश्यकता होती है तो वे अमृतसर के पिंगलवाड़ा सोसाइटी और एग्रीकल्चर हेरीटेज़ मिशन से संपर्क करते हैं। वे आमतौर पर गाय के मूत्र और पशुओं के गोबर का प्रयोग खाद बनाने के लिए करते हैं और यह मिट्टी के लिए भी अच्छा है और पर्यावरण अनुकूलन भी है।

मेहता जी के अनुसार कुदरती तरीके से उगाए गए भोजन के उपभोग ने उन्हें और उनके परिवार को पूरी तरह से स्वस्थ और रोगों से दूर रखा है। इसी कारण श्री मेहता का मानना है कि वे जैविक खेती के प्रति प्रेरित हैं और भविष्य में भी इसे जारी रखेंगे।

संदेश
“मैं देश भर के किसानों को एक ही संदेश देना चाहता हूं कि हमें निजी कंपनियों के बंधनों से बाहर आना चाहिए और समाज को स्वस्थ बनाने के लिए स्वस्थ भोजन प्रदान करने का वचन देना चाहिए।”

कांता देष्टा

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एक किसान महिला जिसे यह अहसास हुआ कि किस तरह वह रासायनिक खेती से दूसरों में बीमारी फैला रही है और फिर उसने जैविक खेती का चयन करके एक अच्छा फैसला लिया

यह कहा जाता है, कि यदि हम कुछ भी खा रहे हैं और हमें किसानों का हमेशा धन्यवादी रहना चाहिए, क्योंकि यह सब एक किसान की मेहनत और खून पसीने का नतीजा है, जो वह खेतों में बहाता है, पर यदि वही किसान बीमारियां फैलाने का एक कारण बन जाए तो क्या होगा।

आज के दौर में रासायनिक खेती पैदावार बढ़ाने के लिए एक रूझान बन चुकी है। बुनियादी भोजन की जरूरत को पूरा करने की बजाय खेतीबाड़ी एक व्यापार बन गई है। उत्पादक और भोजन के खप्तकार दोनों ही खेतीबाड़ी के उद्देश्य को भूल गए हैं।

इस स्थिति को, एक मशहूर खेतीबाड़ी विज्ञानी मासानुबो फुकुओका ने अच्छी तरह जाना और लिखते हैं।

“खेती का अंतिम लक्ष्य फसलों को बढ़ाना नहीं है, बल्कि मानवता के लिए खेती और पूर्णता है।”

इस स्थिति से गुज़रते हुए, एक महिला- कांता देष्टा ने इसे अच्छी तरह समझा और जाना कि वह भी रासायनिक खेती कर बीमारियां फैलाने का एक साधन बन चुकी है और उसने जैविक खेती करने का एक फैसला किया।

कांता देष्टा समाला गांव की एक आम किसान थी जो कि सब्जियों और फलों की खेती करके कई बार उसे अपने रिश्तेदारों, पड़ोसियों और दोस्तों में बांटती थी। पर एक दिन उसे रासायनिक खादों के प्रयोग से पैदा हुए फसलों के हानिकारक प्रभावों के बारे में पता लगा तो उसे बहुत बुरा महसूस हुआ। उस दिन से उसने फैसला किया कि वह रसायनों का प्रयोग बंद करके जैविक खेती को अपनाएगी।

जैविक खेती के प्रति उसके कदम को और प्रभावशाली बनाने के लिए वह 2004 में मोरारका फाउंडेशन और खेतीबाड़ी विभाग द्वारा चलाए जा रहे एक प्रोग्राम में शामिल हो गई। उसने कई तरह के फल, सब्जियां, अनाज और मसाले जैसे कि सेब, नाशपाति, बेर, आड़ू, जापानी खुबानी, कीवी, गिरीदार, मटर, फलियां, बैंगन, गोभी, मूली, काली मिर्च, प्याज, गेहूं, उड़द, मक्की और जौं आदि को उगाना शुरू किया।

जैविक खेती को अपनाने पर उसकी आय पर सकारात्मक प्रभाव पड़ा और यह बढ़कर वार्षिक 4 से 5 लाख रूपये हुई। केवल यही नहीं, मोरारका फाउंडेशन की मदद से कांता देष्टा ने अपने गांव में महिलाओं का एक ग्रुप बनाया और उन्हें जैविक खेती के बारे में जानकारी प्रदान की, और उन्हें उसी फाउंडेशन के तहत रजिस्टर भी करवाया।

“मैं मानती हूं कि एक ग्रुप में लोगों को ज्ञान प्रदान करना बेहतर है क्योंकि इसकी कीमत कम है और हम एक समय में ज्यादा लोगों को ध्यान दे सकते हैं।”

आज उसका नाम सफल जैविक किसानों की सूची में आता है उसके पास 31 बीघा सिंचित ज़मीन है जिस पर वह खेती कर रही है और लाखों में लाभ कमा रही है। बाद में वह NONI यूनिवर्सिटी , दिल्ली, जयपुर और बैंगलोर में भी गई, ताकि जैविक खेती के बारे में अधिक जानकारी प्राप्त की जा सके और हिमाचल प्रदेश सरकार के द्वारा उसे उसके प्रयत्नों के लिए दो बार सरकारी पुरस्कारों से सम्मानित किया गया। शिमला में बेस्ट फार्मर अवार्ड के तौर पर सम्मानित किया गया और 13 जून 2013 को उसे जैविक खेती के क्षेत्र में योगदान के लिए प्रशंसा और सम्मान भी मिला।

एक बड़े स्तर पर इतनी प्रशंसा मिलने के बावजूद यह महिला अपने आप पूरा श्रेय नहीं लेती और यह मानती है कि उनकी सफलता का सारा श्रेय मोरारका फाउंडेशन और खेतीबाड़ी विभाग को जाता है। जिसने उसे सही रास्ता दिखाया और नेतृत्व किया।

खेती के अलावा, कांता के पास दो गायें और 3 भैंसें भी हैं और उसके खेतों में 30x8x10 का एक वर्मीकंपोस्टिंग प्लांट भी है जिस में वह पशुओं के गोबर और खेती के बचे कुचे को खाद के तौर पर प्रयोग करती है। वह भूमि की स्थितियों में सुधार लाने के लिए और खर्चों को कम करने के लिए कीटनाशकों के स्थान पर हर्बल स्प्रे, एप्रेचर वॉश, जीव अमृत और NSDL का प्रयोग करती है।

अब, कांता अपने रिश्तेदारों और दोस्तों में सब्जियां और फल बांटने के दौरान खुशी महसूस करती है क्योंकि वह जानती है कि जो वह बांट रही है वह नुकसानदायक रसायनों से मुक्त है और इसे खाकर उसके रिश्तेदार और दोस्त सेहतमंद रहेंगे।

कांता देष्टा की तरफ से संदेश –
“यदि हम अपने पर्यावरण को साफ रखना चाहते हैं तो जैविक खेती बहुत महत्तवपूर्ण है।”

 

कृष्ण दत्त शर्मा

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जानें कैसे जैविक खेती ने कृष्ण दत्त शर्मा को कृषि के क्षेत्र में सफल बनाने में मदद की

जीवन में ऐसी परिस्थितियां आती हैं, जो लोगों को अपने जीवन के खोये हुए उद्देश्य का एहसास करवाती हैं और इसे प्राप्त करने के लिए प्रेरित करती हैं। यही चीज़ चिखड़ गांव, (शिमला) के साधारण किसान कृष्ण दत्त शर्मा, के साथ हुई और उन्हें जैविक खेती को अपनाने के लिए प्रेरित किया।

जैविक खेती में कृष्ण दत्त शर्मा की उपलब्धियों ने उन्हें इतना लोकप्रिय बना दिया है कि आज उनका नाम कृषि के क्षेत्र में महत्तवपूर्ण लोगों की सूची में गिना जाता है।

यह सब शुरू हुआ जब कृष्ण दत्त शर्मा को कृषि विभाग की तरफ से हैदराबाद (11 नवंबर, 2002) का दौरा करने का मौका मिला। इस दौरे के दौरान उन्होंने जैविक खेती के बारे में काफी कुछ सीखा। वे जैविक खेती के बारे में और अधिक जानने के लिए उत्सुक थे और इसे अपनाना भी चाहते थे।

मोरारका फाउंडेशन (2004 में) के संपर्क में आने के बाद उनका जुनून और विचार अमल में आया। उस समय तक वे कृषि क्षेत्र में रसायनों के बढ़ते उपयोग के प्रतिकूल प्रभावों के बारे में अच्छी तरह से जान चुके थे और इससे वे बहुत परेशान और चिंतित थे। जैसे कि वे जानते थे कि आने वाले भविष्य में उन्हें खाद और कीटनाशकों के परिणाम का सामना करना पड़ेगा इसलिए उन्होंने जैविक खेती को पूरी तरह से अपनाने का फैसला किया।

उनके पास कुल 20 बीघा ज़मीन है, जिसमें से 5 बीघा सिंचित क्षेत्र हैं और 15 बीघा बारानी क्षेत्र हैं। शुरूआत में उन्होंने बागबानी विभाग से सेब का एक मुख्य पौधा खरीदा और उस पौधे से उन्होंने अपने पूरे बाग में सेब के 400 पौधे लगाए। उन्होंने नाशपाती के 20 वृक्ष, चैरी के 20 वृक्ष, आड़ू के 10 वृक्ष और अनार के 15 वृक्ष भी उगाए। फलों के साथ साथ उन्होंने सब्जियां जैसे फूल गोभी, मटर, फलियां, शिमला मिर्च और ब्रोकली भी उगायी।

आमतौर पर कीटनाशकों और रसायनों से उगायी जाने वाले ब्रोकली की फसल आसानी से खराब हो जाती है, लेकिन कृष्ण दत्त शर्मा द्वारा जैविक तरीके से उगाई गई ब्रोकली का जीवन काफी ज्यादा है। इस कारण किसान अब ब्रोकली को जैविक तरीके से उगाते हैं और उसे बिक्री के लिए दिल्ली की मंडी में ले जाते हैं। इसके अलावा जैविक तरीके से उगाई गई ब्रोकली की बिक्री 100-150 रूपये प्रति किलो के हिसाब से होती है और इसी को अगर किसानों की आय में जोड़ दिया जाये तो उनकी आय 500000 तक पहुंच जाती है, और इस छ अंकों की आमदनी में आधा हिस्सा ब्रोकली की बिक्री से आता है।

जैविक खेती की तरफ अन्य किसानों को प्रेरित करने के लिए कृष्ण दत्त शर्मा ने अपने नेतृत्व में अपने गांव में एक ग्रुप बनाया है। उनकी इस पहल ने कई किसानों को जैविक खेती अपनाने के लिए प्रेरित किया है।

जैविक खेती के क्षेत्र में कृष्ण दत्त शर्मा की उपलब्धियां काफी बड़ी हैं और यहां तक कि हिमाचल सरकार ने उन्हें जून 2013 में, “Organic Fair and Food Festival” में सर्वश्रेष्ठ किसान पुरस्कार से सम्मानित भी किया है। लेकिन अपनी नम्रता के कारण वे अपनी सफलता का सारा श्रेय मोरारका फाउंडेशन और कृषि विभाग को देते हैं।

वे अपने खेत और बगीचे में गाय (3), बैल (1) और बछड़े (2) के गोबर का उपयोग करते हैं और वे अच्छी उपज के लिए वर्मी कंपोस्ट भी खुद तैयार करते हैं। उन्होंने अपने खेत में 30 x 8 x 10 के बैड तैयार किए हैं जहां पर वे प्रति वर्ष 250 केंचुओं की वर्मी कंपोस्ट तैयार करते हैं। कीटनाशकों के स्थान पर वे हर्बल स्प्रे, एपर्चर वॉश, जीवामृत और NSDL का उपयोग करते हैं। इस तरह रासायनिक कीटनाशकों के स्थान पर कुदरती कीटनाशकों ने प्रयोग से उनकी ज़मीन की स्थितियों में सुधार हुआ और उनके खर्चे भी कम हुए।

संदेश:
बेहतर भविष्य और अच्छी आय के लिए वे अन्य किसानों को जैविक खेती अपनाने के लिए प्रेरित करना चाहते हैं।

यादविंदर सिंह

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पंजाब के इस किसान ने गेहूं-धान की पारंपरिक खेती के स्थान पर एक सर्वश्रेष्ठ विकल्प चुना और इससे दोहरा लाभ कमा रहे हैं

पंजाब में जहां आज भी धान और गेहूं की खेती जारी है वहीं कुछ किसानों के पास अभी भी विकल्पों की कमी है। किसानों के पास भूमि का एक छोटा टुकड़ा होता है और कम जागरूकता वाले किसान अभी भी गेहूं और धान के पारंपरिक चक्र में फंसे हुए हैं। लेकिन बठिंडा जिले के चक बख्तू गांव के यादविंदर सिंह ने खेतीबाड़ी की पुरानी पद्धति को छोड़कर नर्सरी की तैयारी और सब्जियों की जैविक खेती शुरू की।

अपने लाखों सपनों को पूरा करने की इच्छा रखने वाले एक युवा यादविंदर सिंह ने अपनी ग्रेजुएशन के बाद होटल मैनेजमेंट में अपना डिप्लोमा पूरा किया और उसके बाद दो साल के लिए सिंगापुर में एक प्रतिष्ठित शेफ रहे। लेकिन वे अपने काम से खुश नहीं थे और सब कुछ होने के बावजूद भी अपने जीवन में कुछ कमी महसूस करते थे। इसलिए वे वापिस पंजाब आ गए और पूरे निश्चय के साथ खेतीबाड़ी के क्षेत्र में प्रवेश करने का फैसला किया।

2015 में उन्होंने अपना जैविक उद्यम शुरू किया लेकिन इससे पहले उन्होंने भविष्य के नुकसान से बचने के लिए बुद्धिमानी से काम लिया। अपनी चतुराई का प्रयोग करते हुए उन्होंने इंटरनेट की मदद ली और किसान मेलों में भाग लिया और जैविक सब्जियों को नर्सरी में तैयार करना शुरू किया। अपने ब्रांड को बढ़ावा देने के लिए यादविंदर ने अपने व्यापार का लोगो (LOGO) भी डिज़ाइन किया।

अपने खेतीबाड़ी उद्यम के पहले वर्ष उन्होंने 1 लाख कमाया और आज वे सिर्फ 2 कनाल (5 एकड़) से 2.5 लाख से भी ज्यादा कमा रहे हैं। खेतीबाड़ी के साथ उन्होंने नर्सरी प्रबंधन भी शुरू किया जिसमें कि बीज की तैयारी, मिट्टी प्रबंधन शामिल है। यहां तक कि उन्हें नए पौधे बेचने के लिए मार्किट जाने की भी जरूरत नहीं पड़ती क्योंकि पौधे खरीदने के लिए किसान स्वंय उनके फार्म का दौरा करते हैं।

आज यादविंदर सिंह अपने व्यवसाय और अपनी आमदन से बहुत खुश हैं। भविष्य में वे अपनी खेतीबाड़ी के व्यवसाय को बढ़ाना चाहते हैं और अच्छा मुनाफा कमाने के लिए कुछ और फसलें उगाना चाहते हैं।

संदेश:
“हम जानते हैं कि सरकार साधारण किसानों के समर्थन के लिए पर्याप्त प्रयास नहीं करती। लेकिन किसानों को निराश नहीं होना चाहिए क्योंकि मजबूत दृढ़ संकल्प और सही दृष्टिकोण से वे जो चाहें प्राप्त कर सकते हैं।”