चने फसल की जानकारी

आम जानकारी

चने को आमतौर पर छोलिया या बंगाल ग्राम भी कहा जाता है, जो कि भारत की एक महत्तवपूर्ण दालों वाली फसल है। यह मनुष्यों के खाने के लिए और पशुओं के चारे के तौर पर प्रयोग किया जाता है। चने सब्जी बनाने के काम आते हैं जबकि पौधे का बाकी बचा हिस्सा पशुओं के चारे के तौर पर प्रयोग किया जाता है।चने की पैदावार वाले मुख्य देश भारत, पाकिस्तान, इथियोपिया, बर्मा और टर्की आदि हैं। इसकी पैदावार पूरे विश्व में से भारत में सबसे ज्यादा हैं और इसके बाद पाकिस्तान है। भारत में मध्य प्रदेश, राज्यस्थान, उत्तर प्रदेश, हरियाणा, महाराष्ट्र और पंजाब आदि मुख्य चने उत्पादक राज्य हैं। इन्हे आकार, रंग और रूप के अनुसार  2 श्रेणियों में बांटा गया है: 1) देसी या भूरे चने, 2) काबुली या सफेद चने। काबुली चने की पैदावार देसी चनों से कम होती है।

जलवायु

  • Season

    Temperature

    24°C - 30°C
  • Season

    Rainfall

    60-90 cm
  • Season

    Sowing Temperature

    24°C - 28°C
  • Season

    Harvesting Temperature

    30°C - 32°C
  • Season

    Temperature

    24°C - 30°C
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    Rainfall

    60-90 cm
  • Season

    Sowing Temperature

    24°C - 28°C
  • Season

    Harvesting Temperature

    30°C - 32°C
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    Temperature

    24°C - 30°C
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    Rainfall

    60-90 cm
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    Sowing Temperature

    24°C - 28°C
  • Season

    Harvesting Temperature

    30°C - 32°C
  • Season

    Temperature

    24°C - 30°C
  • Season

    Rainfall

    60-90 cm
  • Season

    Sowing Temperature

    24°C - 28°C
  • Season

    Harvesting Temperature

    30°C - 32°C

मिट्टी

यह फसल काफी तरह की मिट्टी में उगाई जाती है। चने की खेती के लिए रेतली या चिकनी मिट्टी बहुत अनुकूल मानी जाती है। घटिया निकास वाली ज़मीन  इसकी बिजाई के लिए अनुकूल नहीं मानी जाती । खारी या नमक वाली ज़मीन भी इसके लिए अच्छी नहीं मानी जाती। इसके विकास के लिए 5.5 से 7 पी एच वाली मिट्टी अच्छी होती है।
 
हर साल एक खेत में एक ही फसल ना बोयें। अच्छा फसली चक्र अपनायें। अनाज वाली फसलों को फसल चक्र में प्रयोग करने से ज़मीन से लगने वाली बीमारियां रोकने में मदद मिलती है। आमतौर पर फसल चक्र में खरीफ के सफेद चने, खरीफ के काले चने + गेहूं /जौं/राया, चरी-चने, धान/मक्की-चने आदि फसलें आती हैं।
 

प्रसिद्ध किस्में और पैदावार

Gram 1137: यह किस्म पहाड़ी क्षेत्रों के लिए सिफारिश की जाती है। इसकी औसतन पैदावार 4.5 क्विंटल प्रति एकड़ होती है। यह किस्म वायरस के प्रतिरोधी होती है।
 
PBG 7: पूरे पंजाब में इसकी बिजाई की सिफारिश की जाती है। यह किस्म फली के ऊपर धब्बा रोग, सूखा और जड़ गलन रोग की प्रतिरोधक है। इसके दाने दरमियाने आकार के होते हैं और इसकी औसतन पैदावार 8 क्विंटल प्रति एकड़ होती है। यह किस्म तकरीबन 159 दिनों में पक जाती है।
 
CSJ 515: यह किस्म सिंचित इलाकों के लिए अनुकूल है। इसके दाने छोटे और भूरे रंग के होते हैं और भार 17 ग्राम प्रति 100 बीज होता है। यह जड़ गलन रोग की प्रतिरोधक है और फली के ऊपर धब्बों के रोग को सहनेयोग्य है। यह किस्म तकरीबन 135 दिनों में पक जाती है और इसकी औसतन पैदावार 7 क्विंटल प्रति एकड़ होती है। 
 
BG 1053: यह काबुली चने की किस्म है। इस किस्म के फूल जल्दी निकल आते हैं और यह 155 दिनों में पक जाती है। इसके दाने सफेद रंग के और मोटे होते हैं। इसकी औसतन पैदावार 8 क्विंटल प्रति एकड़ होती है। इनकी खेती पूरे प्रांत के सिंचित इलाकों में की जाती है।
 
L 550: यह काबुली चने की किस्म है। यह दरमियानी फैलने वाली और जल्दी फूल देने वाली किस्म है। यह 160 दिनों में पक जाती है। इसके दाने सफेद रंग के और औसतन पैदावार 6 क्विंटल प्रति एकड़ होती है।
 
L 551: यह काबुली चने की किस्म है। यह सूखा रोग की रोधक किस्म है। यह 135-140 दिनों में पककर तैयार हो जाती है और इसकी औसतन पैदावार 6-8 क्विंटल प्रति एकड़ होती है।
 
GNG 1958: यह सिंचित इलाकों और आम सिंचाई वाले क्षेत्रों के लिए अनुकूल है। यह किस्म 145 दिनों में पक जाती है। इसके बीज भूरे रंग के होते हैं। इसकी औसतन पैदावार 8-10 क्विंटल प्रति एकड़ होती है।
 
GNG 1969: यह सिंचित इलाकों और आम सिंचाई वाले क्षेत्रों के लिए अनुकूल है। इसका बीज सफेद रंग का होता है और फसल 146 दिनों में पक जाती है। इसकी औसतन पैदावार 9 क्विंटल प्रति एकड़ होती है।
 
GLK 28127: यह सिंचित इलाकों के लिए अनुकूल किस्म है इसके बीज हल्के पीले और सफेद रंग के और बड़े आकार के होते हैं, जो दिखने में उल्लू जैसे लगते हैं। यह किस्म 149 दिनों में पक जाती है। इसकी औसतन पैदावार 8 क्विंटल प्रति एकड़ होती है।
 
GPF2: इस किस्म के पौधे लंबे होते हैं जो कि ऊपर की ओर बढ़ते हैं। यह फली के ऊपर पड़ने वाले धब्बा रोग की रोधक किस्म है। यह किस्म तकरीबन 165 दिनों में पक जाती है। इसकी औसतन पैदावार 7.6 क्विंटल प्रति एकड़ होती है।
 
Aadhar (RSG-963): यह किस्म फली के धब्बा रोग, जड़ गलन, बी.जी. एम, तने से जड़ तक के मध्य हिस्से का गलना, फली का कीट और नीमाटोड आदि की रोधक है। यह किस्म तकरीबन 125-130 दिनों में पक जाती है। इसकी औसतन पैदावार 6 क्विंटल प्रति एकड़ होती है।
 
Anubhav (RSG 888): यह किस्म बारानी क्षेत्रों के लिए अनुकूल है। यह सूखा रोग और जड़ गलन की रोधक किस्म है। यह किस्म तकरीबन 130-135 दिनों में पक जाती है। इसकी औसतन पैदावार 9 क्विंटल प्रति एकड़ होती है।
 
Pusa Chamatkar: यह काबुली चने की किस्म है। यह किस्म तकरीबन 140-150 दिनों में पक जाती है। इसकी औसतन पैदावार 7.5 क्विंटल प्रति एकड़ होती है।
 
PBG 5: यह किस्म 2003 में जारी की गई है। यह 165 दिनों में पक जाती है और इसकी औसतन पैदावार 6.8 क्विंटल प्रति एकड़ होती है। इसके दाने मध्यम मोटे और गहरे भूरे रंग के होते हैं। यह किस्म सूखे और जड़ों की बीमारियों को सहनेयोग्य है।
 
PDG 4: यह किस्म 2000 में जारी की गई है। यह किस्म 160 दिनों में पक जाती है और इसकी औसतन पैदावार 7.8 क्विंटल प्रति एकड़ होती है। इसके किस्म उखेड़ा रोग, जड़ गलन और सूखे की बीमारियों को सहनेयोग्य है।

PDG 3: इसकी औसतन पैदावार 7.2 क्विंटल प्रति एकड़ होती है और यह किस्म 160 दिनों में पक जाती है।
 
L 552: यह किस्म 2011 में जारी की गई है। यह किस्म 157 दिनों में पक जाती है और इसकी औसतन पैदावार 7.3 क्विंटल प्रति एकड़ होती है। इसके दाने मोटे होते हैं और इसके 100 दानों का औसतन भार 33.6 ग्राम होता है।
 
दूसरे राज्यों की किस्में
 
C 235: यह किस्म तकरीबन 145-150 दिनों में पक जाती है। यह किस्म तना गलन और झुलस रोग को सहनेयोग्य है। इसके दाने दरमियाने आकार के और पीले-भूरे रंग के होते हैं। इसकी औसतन पैदावार 8.4-10 क्विंटल प्रति एकड़ होती है।
 
G 24: यह दरमियानी फैलने वाली किस्म है और बारानी क्षेत्रों के लिए अनुकूल है। यह किस्म तकरीबन 140-145 दिनों में पक जाती है। इसकी औसतन पैदावार 10-12 क्विंटल प्रति एकड़ होती है।
 
G 130: यह दरमियाने अंतराल की किस्म है। इसकी औसतन पैदावार 8-12 क्विंटल प्रति एकड़ होती है।
 
Pant G 114: यह किस्म तकरीबन 150 दिनों में पक जाती है। यह झुलस रोग की रोधक किस्म है। इसकी औसतन पैदावार 12-14 क्विंटल प्रति एकड़ होती है। 
 
C 104: यह काबुली चने की किस्म है, जो कि पंजाब और उत्तर प्रदेश के लिए अनुकूल है। इसकी औसतन पैदावार 6-8 क्विंटल प्रति एकड़ होती है।
 
Pusa 209: यह किस्म तकरीबन 140-165 दिनों में पक जाती है। इसकी औसतन पैदावार 10-12 क्विंटल प्रति एकड़ होती है।

ज़मीन की तैयारी

चने की फसल के लिए ज्यादा समतल बैडों की जरूरत नहीं होती। यदि इसे मिक्स फसल के तौर पर उगाया जाये तो खेत की अच्छी तरह से जोताई होनी चाहिए। यदि इस फसल को खरीफ की फसल के तौर पर बीजना हो, तो खेत की मॉनसून आने पर गहरी जोताई करें, जो बारिश के पानी को संभालने में मदद करेगा। बिजाई से पहले खेत की एक बार जोताई करें। यदि मिट्टी में नमी की कमी नज़र आये तो बिजाई से एक सप्ताह पहले सुहागा फेरें।

बिजाई

बिजाई का समय
बारानी हालातों के लिए 10 अक्तूबर से 25 अक्तूबर तक पूरी बिजाई करें। सिंचित हालातों के लिए 25 अक्तूबर से 10 नवंबर तक देसी और काबुली चने की किस्मों की बिजाई करें। सही समय पर बिजाई करनी जरूरी है क्योंकि अगेती बिजाई से अनआवश्यक विकास का खतरा बढ़ जाता है। पिछेती बिजाई से पौधों में सूखा रोग का खतरा बढ़ जाता है, पौधे का विकास घटिया और जड़ें भी उचित ढंग से नहीं बढ़ती।
 
फासला
बीजों के बीच की दूरी 10 सैं.मी. और पंक्तियों के बीच की दूरी 30-40 सैं.मी. होनी चाहिए।
 
बीज की गहराई
बीज को 10-12.5 सैं.मी. गहरा बीजना चाहिए।
 
बिजाई का ढंग
उत्तरी भारत में इसकी बिजाई पोरा ढंग से की जाती है।
 

बीज

बीज की मात्रा
देसी किस्मों के लिए 15-18 किलो बीज प्रति एकड़ डालें और 37 किलो बीज प्रति एकड़ काबुली किस्मों के लिए डालें। यदि बिजाई नवंबर के दूसरे पखवाड़े में की जाए तो 27 किलो बीज प्रति एकड़ डालें और यदि बिजाई दिसंबर के पहले पखवाड़े में की जाए तो 36 किलो बीज प्रति एकड़ डालें।
 
बीज का उपचार
ट्राइकोडरमा 2.5 किलो प्रति एकड़ + गला हुआ गोबर 50 किलो मिलाएं और फिर जूट की बोरियों से ढक दें। फिर इस घोल को नमी वाली ज़मीन पर बिजाई से पहले खिलार दें। इससे मिट्टी में पैदा होने वाली बीमारियों को रोका जा सकता है। बीजों को मिट्टी में पैदा होने वाली बीमारियों से बचाने के लिए फफूंदीनाशक जैसे कि कार्बेनडाज़िम 12 प्रतिशत + मैनकोज़ेब 63 प्रतिशत डब्लयू पी (साफ) 2 ग्राम से प्रति किलो बीजों को बिजाई से पहले उपचार करें। दीमक वाली ज़मीन पर बिजाई के लिए बीजों को क्लोरपाइरीफॉस 20 ई सी 10 मि.ली. से प्रति किलो बीजों का उपचार करें।
बीजों का मैसोराइज़ोबियम से टीकाकरण करें। इससे चने की पैदावार 7 प्रतिशत तक वृद्धि होती है । इस तरह करने के लिए बीजों को पानी में भिगोकर, उन पर मैसोराइज़ोबियम डालें। टीकाकरण से बीजों को छांव में सुखाएं।
 
निम्नलिखिम में से किसी एक का प्रयोग करें:
 
फंगसनाशी दवाई मात्रा (प्रति किलाग्राम बीज)

Carbendazim 12% + Mancozeb 63% WP

2gm
Thiram 3gm
 
 

खाद

खादें (किलोग्राम प्रति एकड़)

Crops UREA SSP MURIATE OF POTASH
Desi 13 50 As per soil test result
Kabuli 13 50 As per soil test result

 

तत्व (किलोग्राम प्रति एकड़)

Crops UREA SSP MURIATE OF POTASH
Desi 6 8 As per soil test result
Kabuli 6 16 As per soil test result

 

देसी किस्मों के लिए सिंचित और असिंचित इलाकों में नाइट्रोजन (यूरिया 13 किलो) और फासफोरस (सुपर फासफेट 50 किलो) प्रति एकड़ के हिसाब से बिजाई के समय डालें। जबकि काबुली चने की किस्मों के लिए, बिजाई के समय 13 किलो यूरिया और 100 किलो सुपर फासफेट प्रति एकड़ डालें। खादों की ज्यादा अच्छे प्रयोग के लिए खादों को खालियों में 7-10 सैं.मी. की गहराई पर बोयें।

 

 

खरपतवार नियंत्रण

नदीनों की रोकथाम के लिए पहली गोडाई हाथों से या घास निकालने वाली चरखड़ी से बिजाई के 25-30 दिन बाद करें और जरूरत पड़ने पर दूसरी गोडाई बिजाई के 60 दिनों के बाद करें।नदीनों की प्रभावशाली रोकथाम के लिए बिजाई से पहले पैंडीमैथालीन 1 लीटर प्रति 200 लीटर पानी में घोलकर बिजाई के 3 दिन बाद एक एकड़ में स्प्रे करें। कम नुकसान होने पर नदीन नाशक की बजाय हाथों से गोडाई करें या कही से घास निकालें। इस से मिट्टी हवादार बनी रहती है।
 

सिंचाई

सिंचित हालातों में बिजाई से पहले एक बार पानी दें। इससे बीज अच्छे ढंग से अंकुरित होते हैं और फसल की वृद्धि भी अच्छी होती है। दूसरी बार पानी फूल आने से पहले और तीसरा पानी फलियों के विकास के समय डालें। अगेती वर्षा होने पर सिंचाई देरी से और आवश्यकतानुसार करें। अनआवश्यक पानी देने से फसल का विकास और पैदावार कम हो जाती है। यह फसल पानी के ज्यादा खड़े रहने को सहन नहीं कर सकती, इसके लिए अच्छे निकास का भी प्रबंध करें।

पौधे की देखभाल

दीमक
  • हानिकारक कीट और रोकथाम
दीमक : यह फसल को जड़ और जड़ के नजदीक से खाती है। प्रभावित पौधा मुरझाने लग जाता है। दीमक फसल को उगने और पकने के समय बहुत नुकसान करती है। इसकी रोकथाम के लिए बिजाई से पहले बीज को 10 मि.ली. डर्सबान 20 ई.सी. प्रति किलो बीज के हिसाब से उपचार करें। खड़ी  फसल पर 4 मि.ली. इमीडाक्लोप्रिड या 5 मि.ली. डर्सबान प्रति 10 लीटर पानी से छिड़काव करें।
 
कुतरा सुंडी
कुतरा सुंडी : यह सुंडी मिट्टी में 2-4 इंच गहराई में छिप कर रहती है। यह पौधे के शुरूआती भाग, टहनियां और तने को काटती है। यह मिट्टी में ही अंडे देती है। सुंडी का रंग गहरा भूरा होता है और सिर पर से लाल होती है।
 
इसकी रोकथाम के लिए फसल चक्र अपनाएं। अच्छी रूड़ी की खाद का प्रयोग करें। शुरूआती समय में सुंडियों को हाथों से इक्ट्ठा करके नष्ट कर दें। चने की फसल के नजदीक टमाटर या भिंडियों की खेती ना करें। कम हमले की स्थिति में क्विनलफॉस 25 ई सी 400 मि.ली. को प्रति 200-240 लीटर पानी में डालकर प्रति एकड़ की स्प्रे करें। ज्यादा हमले की स्थिति में प्रोफैनोफॉस 50 ई सी 600 मि.ली. प्रति एकड़ को 200-240 लीटर पानी में मिलाकर स्प्रे करें।
 
फली छेदक
फली छेदक
यह चने की फसल का एक खतरनाक कीट है, जो फसल की पैदावार को 75 प्रतिशत तक कम कर देता है। यह पत्तों, फलों और हरी फलियों को खाता है। यह फलियों पर गोलाकार में छेद बना देता है और दानों को खाता है।
 
हैलीकोवरपा आर्मीगेरा फीरोमॉन कार्ड 5 प्रति एकड़ लगाएं। कम हमला होने पर सुंडी को हाथ से उठाकर बाहर निकाल दें। शुरूआती समय में एच एन पी वी या नीम का अर्क 50 ग्राम प्रति लीटर पानी का प्रयोग करें। ई टी एल स्तर के बाद रसायनों का प्रयोग जरूरी होता है। (ई टी एल : 5-8 अंडे प्रति पौधा)
 
जब फसल के 50 प्रतिशत फूल निकल आएं तो डैल्टामैथरीन 1 प्रतिशत + ट्राइज़ोफॉस 35 प्रतिशत 25 मि.ली. प्रति 10 लीटर पानी में मिलाकर स्प्रे करें। इस स्प्रे के बाद एमामैक्टिन बैनज़ोएट 5 प्रतिशत एस जी 3 ग्राम प्रति 10 लीटर पानी में मिलाकर स्प्रे करें। ज्यादा हमले की हालत में एमामैक्टिन बैंज़ोएट 5 प्रतिशत एस जी 7-8 ग्राम प्रति 15 लीटर या फलूबैंडीअमाइड 20 प्रतिशत डब्लयु जी 8 ग्राम प्रति 15 लीटर पानी की स्प्रे करें।
 
मुरझाना
  • बीमारियां और रोकथाम
मुरझाना : तने, टहनियां और फलियों पर गहरे भूरे रंग के धब्बे नज़र आते हैं अनआवश्यक और ज्यादा बारिश पड़ने से पौधा नष्ट हो जाता है।
 
इस बीमारी की रोधक किस्मों का प्रयोग करें। बिजाई से पहले बीजों को फफूंदीनाशक से उपचार करें। बीमारी का हमला दिखने पर इंडोफिल एम 45 या कप्तान 360 ग्राम प्रति 100 लीटर पानी की स्प्रे प्रति एक एकड़ पर करें। जरूरत पड़ने पर 15 दिनों के बाद दोबारा स्प्रे करें।
 
सलेटी फफूंदी
सलेटी फफूंदी : पत्तों और टहनियों पर छोटे पानी जैसे धब्बे दिखाई देते हैं। प्रभावित पत्तों पर धब्बे गहरे-भूरे रंग के हो जाते हैं। ज्यादा हमले की स्थिति में टहनियां, पत्तों की डंडियां, पत्तियां और फूलों पर भूरे धब्बे पूरी तरह फैल जाते हैं। प्रभावित तना टूट जाता है और पौधा मर जाता है।
 
इसकी रोकथाम के लिए बिजाई से पहले बीजों का उपचार जरूर करें। यदि हमला दिखे तो, कार्बेनडाज़िम 2 ग्राम प्रति लीटर पानी की स्प्रे करें।
 
कुंगी
कुंगी : इस बीमारी का ज्यादातर हमला पंजाब और उत्तर प्रदेश में होता है। पत्तों के निचले भाग पर छोटे, गोल और अंडाकार, हल्के या गहरे भूरे धब्बे दिखाई देते हैं। इसके बाद धब्बे काले हो जाते हैं और प्रभावित पत्ते झड़ जाते हैं।
 
इसकी रोकथाम के लिए रोधक किस्मों का प्रयोग करें। यदि खेत में इसके लक्षण दिखें तो मैनकोज़ेब 75 डब्लयु पी 2 ग्राम प्रति लीटर पानी की स्प्रे करें। फिर 10 दिनों के फासले पर दो ओर स्प्रे करें।
 
सूखा
सूखा : इस बीमारी से पैदावार में काफी कमी आती है। यह बीमारी नए पौधे के तैयार होने के समय और पौधे के विकास के समय हमला कर सकती है। शुरू में प्रभावित पौधे के पत्तों की डंडियां झड़ने लग जाती हैं और हल्की हरी दिखाई देती हैं। फिर सारे पत्ते पीले पड़ने शुरू हो जाते हैं।
 
इसकी रोकथाम के लिए रोधक किस्मों का प्रयोग करें। इस बीमारी के शुरूआती समय में रोकथाम के लिए 1 किलो ट्राइकोडरमा को 200 किलो अच्छी रूड़ी की खाद में मिलाएं और 3 दिन के लिए रखें। फिर इसे बीमारी से प्रभावित हुई जगह पर डालें। यदि खेतों में इसका हमला दिखे तो प्रॉपीकोनाज़ोल 300 मि.ली. करे 200 लीटर पानी में मिलाकर प्रति एकड़ स्प्रे करें।
 

फसल की कटाई

जब पौधा सूख जाता है और पत्ते लाल-भूरे दिखते हैं और झड़ने शुरू हो जाते हैं, उस समय पौधा कटाई के लिए तैयार हो जाता है। पौधे को द्राती की सहायता से काटें। कटाई के बाद फसल को 5-6 दिनों के लिए धूप में सुखाएं। फसल को अच्छी तरह सुखाने के बाद पौधों को छड़ियों से पीटें या फिर बैलों के पैरों के नीचे छंटाई के लिए बिछा दें।

कटाई के बाद

फसल के दानों को स्टोर करने से पहले अच्छी तरह सुखाएं। स्टोर किए दानों को दालों की मक्खी के नुकसान से बचाएं।
 

रेफरेन्स

1.Punjab Agricultural University Ludhiana

2.Department of Agriculture

3.Indian Agricultural Research Instittute, New Delhi

4.Indian Institute of Wheat and Barley Research

5.Ministry of Agriculture & Farmers Welfare