पंजाब में राजमांह की खेती का विवरण

आम जानकारी

राजमांह को इसके लाल रंग की वजह से और किडनी के आकार जैसा होने पर किडनी बीन्स भी कहा जाता है। यह प्रोटीन का मुख्य स्त्रोत है और मोलीबडेनम तत्व भी देता है। इसमें कोलैस्ट्रोल को कम करने वाले तत्व भी हैं। उत्तरी भारत में इसकी दाल भी बनाई जाती है। भारत में, महाराष्ट्र, जम्मू कश्मीर, हिमाचल प्रदेश,  उत्तराखंड, बंगाल,  तामिलनाडू,  केरल,  कर्नाटक मुख्य राजमांह उत्पादक राज्य हैं।

जलवायु

  • Season

    Temperature

    15-25°C
  • Season

    Rainfall

    60-150mm
  • Season

    Sowing Temperature

    22-25°C
  • Season

    Harvesting Temperature

    28-30°C
  • Season

    Temperature

    15-25°C
  • Season

    Rainfall

    60-150mm
  • Season

    Sowing Temperature

    22-25°C
  • Season

    Harvesting Temperature

    28-30°C
  • Season

    Temperature

    15-25°C
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    Rainfall

    60-150mm
  • Season

    Sowing Temperature

    22-25°C
  • Season

    Harvesting Temperature

    28-30°C
  • Season

    Temperature

    15-25°C
  • Season

    Rainfall

    60-150mm
  • Season

    Sowing Temperature

    22-25°C
  • Season

    Harvesting Temperature

    28-30°C

मिट्टी

इसे मिट्टी की व्यापक किस्मों जैसे हल्की रेतली से भारी चिकनी मिट्टी में उगाया जा सकता है। जल निकास वाली दोमट ज़मीनों में इसकी पैदावार बहुत अच्छी होती है। यह नमक वाली मिट्टी के प्रति बहुत संवेदनशील है। लगभग 5.5-6 पी एच वाली ज़मीनों में इसकी पैदावार अधिक होती है।

प्रसिद्ध किस्में और पैदावार

VL Rajma 125: यह किस्म उत्तराखंड के पहाड़ी इलाकों में समय से बोयी जाती है। इसकी फली में 4-5 बीज होते हैं और 100 बीज का भार लगभग 41.38 ग्राम होता है।
 
RBL 6: यह किस्म पंजाब में बोयी जाती है। इसके बीज हल्के हरे रंग के होते हैं और फली में 6-8 बीज होते हैं।
 
दूसरे राज्यों की किस्में
 
इसके इलावा भारत में उगाई जाने वाली प्रसिद्ध किस्में: HUR 15, HUR-137, Amber, Arun, Arka Komal, Arka Suvidha, Pusa Parvathi, Pusa Himalatha, VL Boni 1, Ooty 1आदि।
 

 

ज़मीन की तैयारी

मिट्टी के भुरभुरा होने तक खेत की 2-3 बार जोताई करें, खेत को समतल रखें ताकि उसमें पानी ना खड़ा रहे यह फसल जल जमाव के प्रति काफी संवेदनशील होती है। आखिरी जोताई के समय, 60-80 क्विंटल प्रति एकड़ रूड़ी की खाद डालें ताकि अच्छी पैदावार मिल सके।

बिजाई

बिजाई का समय
बसंत की ऋतु में राजमांह की बिजाई फरवरी से मार्च और खरीफ की ऋतु में इसकी बिजाई मई से जून के महीने की जाती है। पंजाब में कुछ किसान राजमांह की बिजाई जनवरी के आखिरी सप्ताह करते हैं।
 
फासला
अगेती किस्मों के लिए कतारों में 45-60 सैं.मी. और पौधों में फासला 10-15 सैं.मी. रखें। पॉल जैसी किस्मों के लिए पहाड़ी क्षेत्रों में पौधे का फासला 3-4 मीटर प्रति पहाड़ी होना चाहिए।
 
बीज की गहराई
बीज को 6-7 सैं.मी. गहरा बोयें।
 
बिजाई की विधि
इसकी बिजाई गड्ढा खोदकर की जाती है। समतल क्षेत्रों में बीज पंक्तियों में बोयें जाते हैं और पहाड़ी क्षेत्रों में इसकी खेती बैड बनाकर की  जाती है।
 

बीज

बीज की मात्रा
अगेती किस्मों के लिए 30-35 किलोग्राम बीज प्रति एकड़ का प्रयोग करें। पॉल किस्मों की बिजाई पहाड़ी क्षेत्रों में 1 मीटर के फासले पर 3-4 पौधे प्रति पहाड़ी पर लगाए जाते हैं। बीज की मात्रा 10-12 किलोग्राम प्रति एकड़ प्रयोग की जाती है।
 
बीज का उपचार
बिजाई से पहले थीरम 4 ग्राम से प्रति किलो बीज का उपचार करें। बीजों का छांव में सुखाएं और तुरंत बो दें।   
 
 

खाद

खादें (किलोग्राम प्रति एकड़)

UREA SSP MURIATE OF POTASH
87 150 On soil test results

 

तत्व (किलोग्राम प्रति एकड़)

NITROGEN PHOSPHORUS POTASH
40 25 #

 

नाइट्रोजन 40 किलो (87 किलो यूरिया), फासफोरस 25 किलो (150 किलो एस एस पी) की मात्रा प्रति एकड़ में प्रयोग करें। खाद डालने से पहले मिट्टी की जांच करवाएं।

 

 

खरपतवार नियंत्रण

फसल के शुरू में नदीनों की रोकथाम जरूरी है। इस अवस्था में नदीनों का हमला ना होने दें। खादें डालने और सिंचाई करने के साथ ही गोडाई कर दें। नदीनों के अंकुरन से पहले फ्लूक्लोरालिन 800 मि.ली. प्रति एकड़ या पैंडीमैथालीन 1 लीटर प्रति एकड़ का प्रयोग करें।

सिंचाई

बीजों के अच्छे अंकुरण के लिए बिजाई से पहले सिंचाई करें। फसल की वृद्धि के दौरान 6-7 सिंचाइयों की आवश्यकता होती है। बिजाई के बाद 25वें दिन सिंचाई करें और अच्छी उपज प्राप्त करने के लिए 25 दिनों के अंतराल पर 3 सिंचाइयां जरूरी होती हैं। फसल के खिलने, फूल निकलने के दौरान और फलियां विकसित होने की अवस्था में सिंचाई करें। इन अवस्थाओं पर पानी की कमी ना होने दें।    
 

पौधे की देखभाल

थ्रिप्स
  • हानिकारक कीट और रोकथाम
थ्रिप्स : यह आम पाया जाने वाला कीट है। यह कीड़ा शुष्क मौसम में सबसे ज्यादा नुकसान करता है। यह पत्तों का रस चूसता है। जिस कारण पत्ते के किनारे मुड़ जाते हैं। फूल भी गिर पड़ते हैं। थ्रिप्स की जनसंख्या को जानने के लिए नीले रंग के 6-8 कार्ड प्रति एकड़ प्रयोग करें। इसके इलावा वर्टीसिलियम लेकानी 5 ग्राम को प्रति लीटर पानी में मिलाकर स्प्रे करें। 
ज्यादा नुकसान के समय इमीडाक्लोप्रिड 17.8 एस एल या फिप्रोनिल 1 मि.ली.  या एसीफेट 75 प्रतिशत डब्लयु पी 1 ग्राम को प्रति लीटर पानी में डालकर स्प्रे करें।
 

 

चेपा
चेपा: यह कीट पत्ते का रस चूसता है। जिस कारण पत्तों पर फफूंद लग जाती है और काले हो जाते हैं। यह फलियों को भी खराब कर देता है। इसकी रोकथाम के लिए एसीफेट 75 डब्लयु पी 1 ग्राम प्रति लीटर पानी या मिथाइल डेमेटन 25 ई.सी. 2 मि.ली. प्रति पानी में प्रयोग करें। कीटनाशक जैसे कि कार्बोफ्यूरॉन, फोरेट 4-8 किलो प्रति एकड़ मिट्टी में डालकर फसल बीजने से 15 और 60 दिनों के बाद छिड़कने चाहिए।
 
जूं
जूं : यह कीड़ा पूरे संसार में पाया जाता है। इसके नवजात शिशु पत्तों के नीचे की तरफ अपना भोजन बनाते हैं। प्रभावित पत्ते कप के आकार की तरह बन जाते हैं। ज्यादा नुकसान होने पर पत्ते गिर जाते हैं और टहनियां सूख जाती हैं।
यदि यह बीमारी ज्यादा बढ़ जाये तो क्लोरफेनापायर 15 मि.ली., एबामैक्टिन 15 मि.ली. को प्रति लीटर पानी में मिलाकर स्प्रे करें। यह एक खतरनाक कीड़ा है, जो कि 80 प्रतिशत तक फसल की पैदावार का नुकसान करता है। इसकी रोकथाम के लिए स्पाइरोमैसीफैन 22.9 एस सी 200 मि.ली. को 180 लीटर पानी में डाल कर प्रति एकड़ पर स्प्रे करें।
 

 

पत्तों पर सफेद धब्बे
  • बीमारियां और रोकथाम
पत्तों पर सफेद धब्बे इस बीमारी के कारण पत्तों के नीचे की तरफ सफेद रंग के धब्बे बन जाते हैं। इसके कीट पत्तों को अपना भोजन बनाते हैं। यह फसल के किसी भी विकास के समय हमला कर सकते हैं। कईं बार यह पत्तों की गिरावट का कारण भी बनते हैं।
पानी को खड़ा होने से परहेज़ करें और खेत साफ रखें। इसकी रोकथाम के लिए हैक्साकोनाज़ोल के साथ स्टिकर 1 मि.ली. को प्रति लीटर पानी में मिलाकर स्प्रे करें। अचानक बारिश होने पर इस बीमारी का खतरा बढ़ जाता है। हमला होने पर घुलनशील सल्फर 20 ग्राम को 10 लीटर पानी में मिलाकर 10 दिनों के अंतराल पर 2-3 बार स्प्रे करें।    
 

 

 

 

 

सूखा
सूखा: नमी और कम निकास वाली ज़मीनों में यह बीमारी ज्यादा आती है। यह बीमारी मिट्टी से पैदा होती है। ज्यादा पानी सोखने के कारण यह बीमारी नए पौधों के अंकुरन से पहले ही उन्हें मार देती है।
इसकी रोकथाम के लिए खालियों में कॉपर ऑक्सीकलोराइड 25 ग्राम या कार्बेनडाज़िम 20 ग्राम को प्रति 10 लीटर पानी में डालकर इसकी स्प्रे करें।
पौधों की जड़ों को गलने से रोकने के लिए टराईकोडरमा बायो फंगस 2.5 किलोग्राम को प्रति 500 लीटर पानी में डालकर पौधे की जड़ों में डालें।
पीला चितकबरा रोग
पीला चितकबरा रोग: इस बीमारी के दौरान पत्तों पर हल्के और हरे रंग के धब्बे बन जाते हैं। पौधे के अगले विकास में रूकावट पड़ जाती है। पत्तों और फलों पर पीले रंग के गोल धब्बे बन जाते हैं। बिजाई के लिए सेहतमंद और बीमारी रहित बीजों का प्रयोग करें। प्रभावित पौधों को खेत में से उखाड़ कर नष्ट कर दें।
इसकी रोकथाम के लिए एसीफेट 75 एस पी 600 ग्राम को 200 लीटर पानी या मिथाइल डेमेटन 25 ई सी 2 मि.ली. को प्रति लीटर पानी में डालकर स्प्रे करें।
 

फसल की कटाई

जब इसकी फलियां पूरी तरह पक जायें और रंग पीला हो जाये तो इसकी तुड़ाई की जा सकती है। इसके पत्ते पीले पड़ने के बाद गिरने शुरू हो जाते हैं। किस्म के आधार पर इसकी फलियां 7-12 दिनों में पककर तुड़ाई के लिए तैयार हो जाती हैं। पूरी फसल 120-130 दिनों में कटाई के लिए तैयार हो जाती हैं। कटाई समय से करें। काटी हुई फसल 3-4 दिनों के लिए धूप में रखें। अच्छी तरह सूखने के बाद बैलों या छड़ों की मदद से छंटाई की जा सकती हैं।

कटाई के बाद

राजमांह को कटाई के बाद कईं कामों के लिए प्रयोग किया जाता है। सांभ संभाल के समय इसकी देखभाल जरूरी है। राजमांह को स्टोर करने से पहले आकार और क्वालिटी के आधार पर बांटा जाता है। गले हुए राजमांह धूप में हल्की गर्मी में रख दिए जाते हैं ताकि उनमें से नमी की मात्रा कम हो जाये। इसके लिए हमेशा ठंडी, अंधेरे और सूखी जगह पर रख दिया जाता है।

रेफरेन्स

1.Punjab Agricultural University Ludhiana

2.Department of Agriculture

3.Indian Agricultural Research Instittute, New Delhi

4.Indian Institute of Wheat and Barley Research

5.Ministry of Agriculture & Farmers Welfare